सामाजिक परिवर्तन के कारक
सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन के लिए कोई एक कारक नहीं अपितु अनेक कारक । उत्तरदायी हैं । कारण और कारक में कुछ अंतर है । इतिहासकार उन अनेकों कारणों की खोज । करने का प्रयल करता है जो किसी विशेष घटना को उत्पन्न करते हैं । जबकि एक समाजशास्त्री उन परिणामों को खोजते हैं जो कारणों के एक वर्ग द्वारा उत्पन्न होते हैं । इन कारणों के वर्ग को हम ‘ कारकों ‘ की संज्ञा दे सकते है । आगे हम उन कुछ विशेष कारकों का विवेचन करंग जो समाजशास्त्रियों के अनुसार सामाजिक परिवर्तन के लिए उत्तरदायी हैं । इनमें से प्रत्येक का सामाजिक परिवर्तन के एक विशेष सिद्धांत में पृथक – पृथक अथवा सम्मिलित रूप में साथ होता है!
- सांस्कृतिक कारक – जर्मन समाजशास्त्री मैक्स वेवर ने विभिन्न धमों के अध्ययन के दौरान यह पाया कि धर्म भी सामाजिक परिवर्तन में अहम भूमिका निभाता है । उन्होंने अपने विश्लेषण के दौरान पाया कि प्रोटेस्टेट धर्म के कारण ही पंजीवाद का विकास हुआ है । सामाजिक परिवर्तन के सास्कृतिक कारक में हम धर्म विचार , नैतिकता , विश्वास प्रथा , परम्परा , लोकाचार , जनमत विभिन्न संस्थाओं आदि को लेते हैं । इनके फलस्वरूप लाए जाने वाले कोई भी परिवर्तन हमारे सामाजिक जीवन में भी परिवर्तन लाते हैं । उदाहरणार्थ समाज में प्रायः नई पीढ़ी अपनी प्रथाओं और परम्पराओं में वर्तमान आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अपर्याप्त समझती है , अतः नए । सामाजिक मूल्यों का विकास होता है । विवाह आज केवल धार्मिक संस्कार नहीं रहा है , बल्कि एक ‘ समझौता ‘ बन गया है और अनेक विवाहों का अन्य विवाह – विच्छेद में हो रहा है । विवाह का आदर्श आज बदल चुका है । धर्म महत्त्वपूर्ण सामाजिक परिवर्तनों को जन्म देता रहा है । धर्म और नैतिकता में परिवर्तन होने से सामाजिक स्थायित्व में प्रायः कमी आती है और व्यक्तिवादिता में वद्धि होती है । संस्थाओं के परिवर्तन से सम्भवतः सर्वाधिक समाजिक परिवर्तन होते हैं , क्योंकि संस्थाएँ ही सामाजिक जीवन को नियंत्रित करती हैं । विवाह – संस्था में परिवर्तन का उदाहरण हम दे चुके हैं । परिवार – संस्था में विघटन से न केवल वैयक्तिक जीवन में अनेक परिवर्तन आते । है , बल्कि सामाजिक जीवन में भी विभिन्न परिवर्तन होते हैं । व्यक्तिवादी और अन्य मनोवृत्तियों के विकास के साथ आज सन्तान का महत्त्व घट रहा है जिससे लोग कम बच्चों को जन्म देना चाहते हैं । फलस्वरूप परिवारों के आकार में कमी और प्रतिकूल प्रभाव घटित होते हैं । धार्मिक , आर्थिक , राजनीतिक एवं अन्य संस्थाओं के परिवर्तनों से महत्त्वपूर्ण सामाजिक परिवर्तनों की निरन्तरता बनी रहती है ।
सांस्कृतिक विलम्बन ( Cultural Lag ) :
ऑगवर्न ने संस्कृति और सामाजिक परिवर्तन के सन्दर्भ में इस सिद्धांत का उल्लेख सर्वप्रथम 1922 में प्रकाशित अपनी पुस्तक में किया । बीरस्टीड के शब्दों में , ” ऑगबर्न के सांस्कृतिक विलम्बन का अर्थ यह है कि संस्कृति के एक भाग का परिवर्तन दूसरे की अपेक्षा अधिक शीघ्रता से होता है , और ऐसा ही सदैव होता रहता है । फलस्वरूप दो भागों में सन्धि भंग होती जाती है । वास्तव में यदि संपूर्ण नहीं तो अनेकों सामाजिक समस्याओं का कारण यही है कि संस्कृति के विभिन्न तत्वों का एक दूसरे से समुचित सामंजस्य नहीं हो पाता । समाज को नए आविष्का रों के फलस्वरूप उत्पन्न होने वाले आधातों और नवीनता के साथ सामंजस्य करने में एक लम्बा समय ( कभी – कभी तो शताब्दियों का समय ) लग जाता है , और आविष्कारों की गति सामंजस्य की संभावनाओं से निरन्तर आगे बढ़ सकती है । ( आगन द्वारा प्रस्तुत शब्द ‘ विलम्बन ‘ का तात्पर्य ‘ पीछे रह जाना ‘ अथवा , लंगड़ा जाना है , अर्थात संस्कृति के भौतिक पक्ष की तुलना में अब अभौतिक पक्ष पिछड़ जाता है तो संपूर्ण संस्कृति म । एक असन्तुलन की स्थिति पैदा हो जाती है और यही स्थिति ‘ सांस्कृतिक विलम्बन ‘ कहलाती है । । ऑगवर्न ने उन विभिन्न समस्याओं और परिस्थितियों को गिनाया है जो सांस्कृतिक विलम्बन । के फलस्वरूप उत्पन्न हो सकती हैं । सर्वप्रथम तो समाजिक परिवर्तन होने लगता है क्योंकि । संस्कृति के एक भाग के दूसरे भाग से पिछड़ जाने से लोगों के व्यवहार के तरीकों और प्रविधियों । तथा उनकी मनोवृत्तियों पर प्रभाव पड़ता है । लोग परिवर्तित दशाओं में सिरे से अनुकूलन । करने को बाध्य होते हैं , अतः परिवर्तन की स्थिति उत्पन्न हो जाती है । सांस्कृतिक संस्थाओं की । हस्तान्तरण है । यह इसलिए होता है , कि पिछड़ जाने की स्थिति में समाज की महत्त्वपूर्ण यदि । सांस्कृतिक विलम्बन काफी लम्बे समय तक चलते रहता है तो व्यक्तिगत और सामुदायिक विघटन स्थितियाँ उत्पन्न होने लगती है । प्रथाओं , और लोकाचारों की उपयोगिता समाप्त होने लगती है और उनके स्थान पर नवीन संस्थाएं पनपने लगती हैं । इस प्रकार , सांस्कृतिक विलम्ब सामाजिक परिवर्तनों और सामाजिक समस्याओं को जन्म देता है ।
- प्राकृतिक कारक :
व्यक्ति पर्याप्त सभ्यता और ज्ञान विज्ञान का अधिकारी भी संपूर्ण प्रकृति पर विजय प्राप्त नहीं कर पाया है । अतः कई बार प्रकृति अपने से सामाजिक परिवर्तन का महत्त्वपूर्ण कारक बन जाती है । प्राकृतिक संकटों के सामाजिक जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन आ जाते हैं । कल के शहर और गाँव आज या विरान स्थानों में बदल जाते हैं । गर्मी , सर्दी , वर्षा , भूकम्प , भूमि की बनावट आदि दशाओं तथा विभिन्न प्राकृतिक संघर्षों का व्यक्तियों के विचारों पर बड़ा प्रभाव पड़ता है व्यक्तियों में प्रेरणा और आत्मबल का संचार होता है तो उनमें निराशा और उत्साहहीना पनप सकती है । अकालों के फलस्वरूप जनसंख्या और लोगों के पारस्परिक संबंध में परिवर्तन उपस्थित हो जाते हैं । कहा जाता है कि क्षुधा पीड़ित माँ बच्चे को छोड़ कर जाती है . पति मुट्ठी भर चावल के लिए पत्नी को बेच देता है और रोटी के टुकड़े के मनुष्य और कुत्ते में संघर्ष होता है । हैजा , प्लेग आदि महामारियों का प्रभाव लोगों के ही और सामाजिक संबंध पर अवश्य ही पड़ता है । प्राकृतिक अथवा भौगोलिक परिवर्तनों मनुष्य का नियंत्रण बहुत कम अथवा नहीं होता है , अतः इस प्रकार के परिवर्तनों के । साथ उनकों भी परिवर्तित होना पड़ता है । हटिंगटन का तो अभिमत है कि जलवायु संपूर्ण सम्म के विकास का कारण बन सकती है और प्राकृतिक अवस्था के अनुसार ही मनुष्य की कल्पना भौतिक विकास आदि सम्भव होता है । उदाहरण के तौर पर बिहार , उड़ीसा , असम में आयी बाद वहाँ के लोगों के सामाजिक जीवन को काफी प्रभावित किया है ।
- जनसंख्यात्मक कारक :
जनसंख्यात्मक कारक सामाजिक परिवर्तन के लिए अनेक प्रकार से उत्तरदायी हो सकते हैं – प्रथम , जनसंख्या के आकार और जनसंख्या के घनत्व के घटने – बढ़ने से सामाजिक परिवर्तन हो जाने की सम्भावना रहती है । उदाहरणार्थ , जन्म दर बढ़ने और मत्य दर घटने से देश में जनसंख्या बढ़ेगी और यदि अतिजनसंख्या की स्थिति पैदा हो गई तो देश में भुखमरी , महामारी आदि का प्रकोप होगा । लाखों करोड़ों व्यक्ति मृत्यु का शिकार होंगे । इन सब बातों का सामाजिक जीवन और संबंधों पर अवश्य ही प्रभाव पड़ेगा । दूसरी ओर , जन्म दर घटने और मृत्यु दर बढ़ने से देश की जनसंख्या गिरती जाएगी और समाज में कार्यशील व्यक्तियों की कमी उत्पन्न हो जाएगी । फलस्वरूप देश के प्राकृतिक साधनों का भरपूर प्रयोग नहीं हो पाएगा , देश की आर्थिक दशा गिरेगी , परिवारों का आकार घटता जाएगा और इन सबके फलस्वरूप सामाजिक एवं पारिवारिक संबंधों में परिवर्तन होंगे । यह स्वाभाविक बात है की जनसंख्या बहुत । अधिक होने से गरीबी और बेकारी का प्रसार होगा । अपराधी मनोवृत्तियों को प्रोत्साहन मिलेगा । तथा जनसंख्या बहुत कम होने से भी सामाजिक परिवर्तन प्रतिकूल रूप में प्रभावित होगा । द्वितीय यदि आप्रवास होगा अर्थात एक देश में दूसरे देश से लोग आकर बसेंगें तो भी । सामाजिक परिवर्तन होगा । विभाजन के बाद भारत में पश्चिमी और पूर्वी पाकिस्तान से लगभग 90 लाख लोगों के आकर बस जाने से यहाँ के सांस्कृतिक , आर्थिक और सामाजिक जीवन में कितने परिवर्तन आ गए , यह बताने की आवश्यकता नहीं । आप्रवास से न केवल किसी समाज की जनसंख्या में वृद्धि होती है बल्कि प्रजातीय क्षेत्र में कहीं अधिक बड़ा प्रभाव स्पष्ट होता है । समाज में ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती है जिनकी संस्कृति , प्रजातीय विशेषताएँ , सामाजिक मूल्य , जीवन स्तर आदि मूल – निवासियों से भिन्न होते हैं । कालान्तर में , इन विशेषताओं का मल निवासियों के साथ मिश्रण होने लगता है , फलस्वरूप दोनों समूहों की मिश्रित संस्कृति विकसित होने लगती है,
व्यवहार के नए ढंग पनपते है और जैवकीय गुणों के मिश्रित हो जाने से व्यक्तियों की मानसिक और शारीरिक विशेषताएँ भी परिवर्तित होने लगती है । इन सभी बातों का प्रभाव लागा के चिन्तन प्रणाली , नैतिकता , व्यवहार प्रतिमानों आदि पर पड़ता है और इस प्रकार सामाजिक परिवर्तन होता है । तृतीय , यदि उप्रवास होता है अर्थात हमारे समाज से व्यक्ति दूसरे समाज में चले जाते है । ता हमारा जनसख्या कम होने लगती है और फलस्वरूप उत्पादन – साधनों से पनः अभियोजन को समस्या उत्पन्न होती है । उपवास के फलस्वरूप सामान्यतः कुछ समय के लिए स्त्रियों का अनुपात बढ़ता है . क्योंकि उठावास पुरुषों द्वारा ही प्रायः अधिक संख्या में होता है । अनेक परिवारों में पुरुष का अनुपस्थिति के फलस्वरूप पारिवारिक विघटन के तत्व प्रबल हो जाते हैं । इस प्रकार समाज में परिवर्तन होने लगता है । चतर्थ , जनसंख्या के घनत्व के बढ़ने से भी सामाजिक परिवर्तन होते हैं । जनसंख्या घनत्व अधिक होने से उस अधिक जनसंख्या को पालने पोसने के लिए नए – नए आविष्कारों से सामाजिक प्रगति सरल होती है और गहन कृषि तथा नई भूमि पर कृषि को प्रोत्साहन मिलता है । फिर भी यदि भूमि पर जनसंख्या का दबाव बना रहता है तो लोग गाँवों को छोड़कर शहरों में बसने लगते हैं और इस प्रकार शहरों का विकास होता है । अन्त में , आय , लिंग , वैवाहिक स्तर आदि का अर्थात जनसंख्या संबंधी सरचना का भी । सामाजिक परिवर्तन से निकट संबंध है । उदाहरणार्थ , यदि जनसंख्या में अधिक आयु के लोगों की अधिकता होती है तो अनुशासन के कठोर नियम पनपते हैं और परम्परागत विचारों की । रक्षा की जाती है । उत्साहपूर्ण कार्यों की ओर प्रायः शिथिलता पाई जाती है । यदि वृद्धों की अपेक्षा युवकों की संख्या अधिक होती है तो नवीनता के प्रति आकर्षण बढ़ता है । धर्म में तर्क का प्रवेश होता है , सैनिक आकांक्षाएँ बढ़ती हैं और शक्ति तथा उत्साह का वातावरण पनपता है । यदि पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों का अनुपात बहुत कम होता है तो समाज के हर क्षेत्र में पुरुषों को प्रधानता मिलती है और यदि स्त्रियों का अनुपात अधिक होता है तो सामाजिक पद , आर्थिक सेवाओं , राजनीतिक प्रतिनिधित्व आदि में स्त्रियों को पुरुषों से कम महत्त्व प्रायः नहीं दिया जाता , जैसा कि पश्चिमी देशों में विशेषकर अमेरिका और फ्रांस में है । जब स्त्रियौं पुरुषों के कार्य करने लगती हैं तो स्त्रियों में पुरुषोचित आदतें पनप जाती हैं और पति – पली , माता – पिता तथा बच्चों के पारस्परिक संबंधों में परिवर्तन आ जाते हैं ।
- प्राणिशास्त्रीय कारक :
प्राणिशास्त्रीय अथवा जैवकीय की रचना , उसका घटना बढ़ना , वितरण , स्त्री पुरुषों की जनसंख्या का अनुपात , व्यक्तियों के शारीरिक और मानसिक गुण , एक । पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक इन लोगों का अपना आदि प्राणिशास्त्रीय कारक में लिए जाते हैं ये । सभी बातें सामाजिक संगठन और संस्थाओं को परिवर्तित करके समाज के रूप को न्यूनाधिक । बदल देती हैं । उदाहरणार्थ यदि वंशानुसंक्रमण द्वारा दुर्बल संतानें हो रही हैं अर्यात किसी समाज में स्वास्थ्य स्तर नीचा है तो उसका प्रभाव सामाजिक जीवन पर अवश्य ही पड़ेगा । जीवनावधि । कम होने से देश में अनुभवी व्यक्तियों की कमी होगी और इस प्रकार सामाजिक आविष्कारों की सम्भावनायें भी कम हो जायेंगी । किसी समाज में अधिकाधिक लड़के ही पैदा होते जोने से । लड़कियों की संख्या बहुत कम हो जायेगी और फलस्वरूप बहुपति प्रथा फैलाने से संतानों की । संख्या कम हो जायेगी , लड़कों की तुलना में लड़कियों का जन्म अधिक होगा तो बहुपली प्रथा । पनपेगी । फलस्वरूप अधिक सन्तान पैदा होगी . पुरुषों का स्वास्थ्य गिरेगा और स्त्रियों की दशा दयनीय हो जाएगी ।
- मनोवेगानिक कारक :
सामाजिक परिवर्तनों के विभिन्न कारकों में मनोज का विशेष हाय रहता है । मनुष्य का स्वभाव परिवर्तनशील है , वह जीवन के पास सदा नवीन खोजें किया करता है और नवीन अनुभवों के प्रति इच्छित रहता है । प्रपति के परिणामस्वरूप ही मानव समाज की रूढ़ियों , परम्पराओं तथा रीति – रिवाजों होते रहते हैं । मानसिक असन्तोष तथा मानसिक संघर्ष व तनाव सामाजिक संबंधों को प्रभावित करते है तथा इनसे हत्या , आत्महत्या , अपराध , बाल अपराध , पारिवारिक वित को प्रोत्साहन मिलता है ।
- भौतिक या भौगोलिक कारक-
सामाजिक परिवर्तन के विभिन्न कारकों में भौगोलिक तत्वों या परिस्थितियों का विशेष योगदान रहा है । संसार की भौगोलिक पति में दिन – रात परिवर्तन हो रहा है । तीव्र वर्षा , तूफान , भूकम्प आदि पृथ्वा के स्वरूप में परिक करते आए हैं जिनका मनुष्य की सामाजिक दशाओं पर विशेष प्रभाव पड़ता आया है । हटिंग के मतानसार , जलवाय का परिवर्तन ही सम्यताओं और संस्कृति के उत्थान एवं पतन का कारण है । जिस स्थान पर लोहा और कोयला निकल आता है , वहाँ के समाज में तीन परिवर्तन होते है । भले ही इस कथन में पूर्ण सत्यता न हो परन्तु पर्याप्त सीमा तक सत्यता अवश्य है !
- प्रोद्योगिकीय कारक-
आधुनिक युग में सामाजिक परिवर्तनों का सम्भवतः सबसे महत्त्व कारक प्रोद्योगिकीय कारक है । नई मशीनों , नए यंत्रों के आविष्कारों का प्रभाव सामाजिक जी पर अवश्य पड़ता है । मेकाइबर तथा पेज ने ठीक ही लिखा है कि वाष्प इंजनों के आवित से सामाजिक जीवन से लेकर राजनीतिक जीवन में इतने क्रांतिकारी परिवर्तन हुए है कि सर कल्पना भी कठिन है । ऑगवर्न ने रेडियो के आविष्कार के फलस्वरूप उत्पन्न होने वाले परिवर्तनों का उल्लेख किया है । ये तत्व हमसे छिपे नहीं है कि मशीनों आदि के आविष्कार वृहद स्तरीय उत्पादन संभव है , श्रम विभाजन और विशेषीकरण का महत्त्व बढ़ा है व्यापार और वाणिज्य का प्रसार हुआ है . नगरों का तीव्र गति से विकास होने लगा है , जीवन स्तर ऊँगा । है , विभिन्न आर्थिक संकटों तथा औद्योगिक संघर्षों में अभिवृद्धि हुई है , ग्रामों का नगरीकरण हा है , संयुक्त परिवार विघटित होने लगे हैं , धर्म का प्रभाव घटा है , स्त्रियों कि स्थिति में परिवर्तन आया है और वे घर से बाहर काम करने लगी हैं , नई – नई सामाजिक सम्स्याएं उत्पन्न हुई । आदि । बीरस्टीड ने लिखा है – ” कारण आविष्कार से परिणाम ( सामाजिक परिवर्तन ) की गति । एक सरल या स्वचालित प्रक्रिया है । ” कार्ल मार्क्स भी सामाजिक परिवर्तन के लिए तकनीकी कारक को जिम्मेदार मानते हैं ।
- राजनीतिक तथा सैनिक कारक:
बीरस्टीड ने लिखा है कि ” कुछ लेखकों के अनुसार । सामाजिक परिवर्तन युद्धों , छिटपुट लड़ाइयों , वंशों और युद्धों , विजय तथा पराजय की कहानी । है । वास्तव में , इतिहास कुछ ही समय पूर्व तक भी सैनिक शक्ति के आधार पर ही लिखा । था और इसी प्रकार सामाजिक परिवर्तन में भी सैनिक सामाजिक सिद्धांत विद्यमान है । ” यदि । मराठों की लड़ाइयों में परशियनों ने अयेनियनों को नहीं हराया होता , यदि नेपोलियन का मास्को । पर अक्रमण सफल हो गया होता , यदि हिटलर इंगलिश चैनल को पार कर लेता तो सैनिक । सिद्धांत के अनुसार सभ्यता का क्रम कुछ और ही होता । यदि हम इन व्याख्याओं को स्वीकार करें तो इतिहास को केवल थल और जल सेनाओं के उठते गिरते भाग्यों के संदर्भ में ही समझा जा सकता है । एक सेना की विजय ही एकमात्र कारक बन जाता है जो एक समाज के विकास में अनेकों परिवर्तनों की व्याख्या करता है । इस प्रकार समाज की कहानी संघर्ष और युद्ध , विजय और पराजय की कहानी है । यद्यपि सामाजिक परिवर्तनों में सैनिक कारक के महत्त्व का स्याकार करना होगा . तथापि बीरस्टीड का यह लिखना उचित है कि ” सैनिक सिद्धात अकला हा युद्ध के समाजशास्त्र की व्याख्या नहीं कर सकता । ” सनिक कारक को राजनीतिक कारक से पधक करना कठिन है क्योकि इतिहास क अनक प्रकरणों में शक्ति और युद्धों की राजनीतिक घटनाएँ हैं । इतिहास एक भूतकालान ह आर राजनीति इतिहास को प्रस्तत करती है । ” वह ढंग जिसके अनुसार लोग स्वय पर जार दूसरा पर शासन करते है ‘ – उन महत्त्वपर्ण दष्टियों में से एक है जो हम समाज क बार म पूण सकत ह यद्यपि इतिहास कभी शासकों और शासक घरानों की कहानी था और इन राजवशा , म पारखतना का उन सभी समाजों पर प्रभाव पड़ता था जिन पर कि ये शासन करत था । तयापि इन राजनीतिक और राजवंशीय प्रभावों का समाजशास्त्रीय महत्त्व अभी तक स्पष्ट नहा हो सका है ।
9 . महान लोगों की भूमिका:
बीरस् ट ने सामाजिक परिवर्तन के एक अन्य कारक महान लागा की भूमिका पर टिप्पणी की है । बहत से लोगों का दृष्टिकोण है कि इतिहास कभी भा महान पुरुषा और महान स्त्रियों के प्रभाव से विमख होता है । निःसंदेह समाज को मोड़न , घटनाआ का नई दिशा देने , आदि की दृष्टि से महान व्यक्तियों के प्रभाव की उपेक्षा नहीं की जा सकता , लकिन वास्तविकता यह है कि ” अन्तिम रुप में , सभी सामाजिक परिवर्तन पुरुषों और स्त्रिया का ्रियाओं के कारण ही घिटित होते हैं । . . . एक समाज में मनुष्य कहीं न कहीं किसी प्रकार स परम्पराओं की थोडा बहत खेण्डित करता है और वह एक अन्य दंग से कुछ करता है । वह एक सक्षिप्त मार्ग ढूढता है । वह एक नया विचार प्रस्तुत करता है , अथवा एक नई खोज करता है । वह एक महान व्यक्ति ‘ हो अथवा नहीं , लेकिन उपरोक्त कार्य करके वह सांस्कृतिक जलस्रोत को क्षुब्ध कर देता है और जिस प्रकार पानी में पत्थर फेंकने पर पानी चारों और उछलता है । उसी प्रकार संस्कृति के जल योत को कछ कर देने से उठी हुई लहरें सदैव चलती रहती है तथा कुछ समय बाद संस्कृति के सभी अंग और समाज के सभी क्षेत्र इससे प्रभावित हो सकते है ।
- आर्थिक कारक-
सामाजिक परिवर्तन को आर्थिक आधार पर भी स्पष्ट किया जाता है । इसका प्रमुख श्रेय कार्ल मार्क्स को है । सम्पति का रूप , व्यवसाय की प्रकृति , सम्पत्ति का वितरण , व्यापार चक्र , वर्ग संघर्ष , व्यक्तियों का जीवन स्तर , उत्पादन का आकार आदि समाज को एक विशेष रूप प्रदान करते हैं । इन परिस्थितियों में जो भी परिवर्तन होते हैं वे विविध सामाजिक परिवर्तनों को जन्म देते हैं । उदाहरणार्य सम्पत्ति का रूप पूंजीवाद के स्थान पर समाजवादी हो । जाए तो आर्थिक परिस्थितियों में क्रान्तिकारी परिवर्तन आ जाएगा और परिणामस्वरूप एक नवीन सामाजिक अवस्था का निर्माण होगा । वास्तव में इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि । आर्थिक कारकों में क्रांतिकारी परिवर्तन के फलस्वरूप ही रूसी समाज में अल्पकाल में ही इतना । परिवर्तन हो गया है कि द्वितीय महायुद्ध से पूर्व रूस को और आज के रूस को पहचानना कठिन । है । व्यापार में होने वाले परिवर्तन कभी कभी समाज को इतना प्रभावित करते है कि समाज । विघटित तक हो जाता है । सारांशतः आर्थिक कारक सामाजिक परिवर्तन में निर्णायक रूप से । प्रभावशाली हो उठते हैं । वस्तुतः सामाजिक परिवर्तन के एक नहीं वरन् अनेक कारण हैं । एक कारण समाज में अनेक परिवर्तनों को जन्म दे सकता है और अनेक कारण मिलकर भी एक परिवर्तन कर सकते हैं किन्तु परिवर्तन की प्रक्रिया रुकती कभी नहीं है । परिवर्तन एक अनिवार्य नियम है जो समाज में सदैव व्याप्त रहता है ।