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सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रियाएँ

सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रियाएँ

2023 NEW SOCIOLOGY – नया समाजशास्त्र
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संस्कृतिकरण:

संस्कृतिकरण नामक अवधारणा का प्रयोग भारतीय सामाजिक संरचना में सांस्कृतिक गतिशीलता की प्रक्रिया का वर्णन करने हेतु किया गया । दक्षिण भारत के कुर्ग लोगों के सामाजिक और धार्मिक जीवन के विश्लेषण में प्रसिद्ध भारतीय समाजशास्त्रीय प्रो ० एम ० श्री निवास ने इस अवधारणा का सर्वप्रथम प्रयोग किया । मैसूर में कुर्ग लोगों का अध्ययन करते समय प्रो ० एम ० एस ० श्री निवास ने पाया कि निम्न जातियों के लोग ब्राह्मणों को कुछ प्रथाओं का अनुकरण करने और अपनी स्वयं की कुछ प्रथाओं जैसे मांस खाना , शराब का प्रयोग तथा पशु – बलि आदि छोड़ने में लगे हुए थे । वे सब कुछ इसलिए कर रहे थे ताकि जातीय – संस्करण की प्रणाली में उनकी स्थिति ऊँची उठ सके । ब्राह्मणों का वेशभूषा , भोजन संबंधी आदतें तथा कर्मकाण्ड आदि अपनाकर वे अपनी स्थिति को ऊँचा उठाने का प्रयल कर रहे थे । उन्होंने ब्राह्मणों की जीवन पद्धति का अनुकरण करके एक दो पीढ़ी में जातीय संस्तरण की प्रणाली में उच्च स्थिति प्राप्त करने की दृष्टि से माँग प्रस्तुत की , गतिशीलता की इस प्रक्रिया का वर्णन करने हेतु प्रो ० श्रीनिवास ने प्रारम्भ में ‘ ब्राह्मणीकरण ‘ मक शब्द का प्रयोग किया । लेकिन बाद में उसके स्थान पर अपने ‘ संस्कृतिकरण ‘ नामक अवधारणा का प्रयोग ज्यादा उपयुक्त समझा । प्रो ० श्रीनिवास ने अपनी पुस्तक ‘ रिलीजन एण्ड सोसायटी अमंग दी कुर्गस ऑफ साउथ इंडिया ‘ में गतिशीलता को व्यक्त करने के लिए संस्कृतिकरण नामक प्रत्यय का प्रयोग किया । इनके अनुसार “ जाति अवस्था उस कठोर प्रणाली से जिसमें काफी दूर है जिसमें प्रत्येक घटक जाति की स्थिति हमेशा के लिए निश्चित कर दी जाती है । यहाँ गतिशीलता सदैव संभव रही है , और विशेषतः संस्तरण की प्रणाली के मध्य भागों में , एक निम्न जाति एक या दो पीढ़ी में शाकाहारी बनकर मद्यपान को छोड़कर तथा अपने कर्मकाण्ड एवं देवगण का संस्कृतिकरण कर संस्तरण की प्रणाली में अपनी स्थिति को ऊँचा उठाने समर्थ हो जाती । संक्षिप्त में , जहाँ तक संभव था , वह ब्राह्मणों के प्रथाओं , अनुष्ठानों एवं विश्वासों को अपना लेती । साधारणतः निम्न जातियों के द्वारा ब्राह्मणी जीवन प्रणाली को प्रायः अपना लिया जाता यद्यपि सैद्धान्तिक रूप से यह वर्जित था । इस प्रक्रिया को ब्राह्मणीकरण की बजाय संस्कृतिकरण कहा गया है । ” डा ० योगेन्द्र सिंह ने लिखा हैं कि संस्कृतिकरण ब्राह्मणीकरण की अपेक्षा अधिक विस्तृत अवधारणा है ।

 प्रो ० श्रीनिवास ने स्वयं यह महसूस कर लिया था कि जिस प्रक्रिया ने निम्न जातियों को मैसूर में ब्राह्मणों के रीति – रिवाजों का अनुकरण करने के लिए प्रेरित किया , निम्न जातियों में उच्च जातियों के सांस्कृतिक तरीकों का अनुकरण करने की एक सामान्य प्रवृत्ति का ही एक विशिष्ट उदाहरण था । बहुत से मामलों में उच्च जातियाँ अ – ब्राह्मण थीं । वे देश के विभिन्न भागों में क्षत्रिय जात , वैश्य आदि थे । संस्कृतिकरण का अर्थ : प्रो ० श्रीनिवास ने संस्कृतिकरण को परिभाषित करते हुए लिखा ” संस्कृतिकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा कोई निम्न हिन्दू जाति या कोई जनजाति अथवा कोई अन्य समूह , किसी उच्च और प्रायः द्विज जाति ( ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य ) की दिशा में अपने रीति – रिवाज , कर्मकाण्ड , विचारधारा और जीवन पद्धति को बदलता है । “ साधारणतः ऐसे परिवर्तनों के बाद निम्न जाति जातीय संस्तरण की प्रणाली में स्थानीय समुदाय में परम्परागत रूप में उसे जो स्थिति प्राप्त है , उसे उच्च स्थिति का दावा करने लगती हैं । डॉ ० बी ० आर चौहान ने संस्कृतिकरण नामक अवधारणा का अर्थ स्पष्ट करते हुए लिखा है , ” यह एक उपकरण है जिसके द्वारा हम उस प्रक्रिया को मालूम कर सकते हैं जिसमें निम्न जाती तथा जनजाति अपने व्यवहार एवं जीवन के तरीके हिन्दू समाज के उच्च वर्गों के अनुसार बदलती हैं ।

 प्रो ० श्रीनिवास के अनुसार सामान्यतः संस्कृतिकरण के साथ – साथ और प्रायः उसके फलस्वरूप सम्बद्ध जाति ऊपर की ओर गतिशील होती है , परंतु गतिशीलता संस्कृतिकरण के बिना भी , अथवा गतिशीलता के बिना भी संस्कृतिकरण संभव है । किन्तु संस्कृतिकरण सम्बद्ध गतिशीलता के परिणामस्वरूप अवस्था में केवल पदमूलक परिवर्तन होते हैं और इससे कोई संरचनात्मक परिवर्तन नहीं होते अर्थात् एक जाति अपने पास की जातियों से ऊपर उठ जाती है और दूसरी नीचे आ जाती हैं । परंतु यह सब कुछ अनिवार्यतः स्थायी संस्तरणात्मक व्यवस्था में घटित होता है , व्यवस्था स्वयं परिवर्तित नहीं होती है । संस्कृतिकरण के अर्थ को और अधिक स्पष्ट करते हुए प्रो ० श्रीनिवास ने लिखा ” संस्कृतिकरण का तात्पर्य केवल नई प्रथाओं एवं आदतों को ग्रहण करना नहीं है बल्कि नए विचारों व मूल्यों को भी व्यक्त करना है जिसका संबंध पवित्रता और धर्म निरपेक्षता से है और जो संस्कृत साहित्य में उपलब्ध है । कर्म , धर्म , पाप , प्रण्य , मोक्ष , आदि ऐसे शब्द हैं जिनका संबंध धार्मिक संस्कृत साहित्य से है । जब लोगों का संस्कृतिकरण हो जाता है तो उनके द्वारा अनायास ही इन शब्दों को प्रयोग किया जाता है । उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि संस्कृतिकरण वह प्रक्रिया है जिसके माध्यम से कोई निम्न हिन्दू जातीय समूह अथवा कोई जनजातीय समूह अपनी संपूर्ण जीवन – विधि को उच्च जातियों या वर्णों की दिशा में बदल कर अपनी स्थिति को ऊँचा उठाने का प्रयत्न करता है , जातीय संस्तरण की प्रणाली में उच्च होने का दावा प्रस्तुत करता है । प्रो ० श्रीनिवास ने प्रारंभ में संस्कृतिकरण के आदर्श के रूप में ब्राह्मणी मॉडल पर जोर दिया परंतु कालान्तर में यह महसूस किया कि इसके अतिरिक्त क्षत्रीय एवं वैश्य मॉडल भी उपलब्ध रहे हैं । अर्थात् ब्राह्मणों के अतिरिक्त क्षत्रीय , वैश्य एवं कहीं – कहीं किसी अन्य प्रभु जाति की जीवन पद्धति का भी अनुकरण किया गया है |

 

 

संस्कृतिकरण की विशेषताएँ :

 

  1. संस्कृतिकरण की प्रक्रिया का संबंध निम्न हिन्दू जातियों , जनजातियों तथा कुछ अन्य समूहों से है । हिन्दू जाति – व्यवस्था के अन्तर्गत संस्तरण की प्रणाली में अपने समूह की सामाजिक स्थिति को ऊँचा उठाने की दृष्टि से उपयुक्त समूहों ने संस्कृतिकरण का सहारा लिया है । भील , ओराँव , संथाल तथा गोंड एवं हिमालय के पहाड़ी लोगों का उन जनजातीय लोगों में सम्मिलित किया जाता है जिन्होंने संस्कृतिकरण के माध्यम से अपनी सामाजिक स्थिति को ऊँचा उठाने और हिंदू समाज का अंग बनने का प्रयत्न किया । अन्य समूहों के अंतर्गत वे लोग आते हैं , जिनका हिन्दू धर्म व संस्कृति से संबंध न होकर अन्य धर्मों एवं संस्कृतियों से संबंध है ।
  2. संस्कृतिकरण की प्रक्रिया के अन्तर्गत अपने से उच्च जातियों की जीवन – विधि का अनुकरण किया जाता है , उनकी प्रथाओं , रीति – रिवाजों , खान – पान , विश्वासों एवं मूल्यों को अपना लिया जाता है

 

  1. संस्कृतिकरण के आदर्श या मॉडल एक अधिक हैं । अर्थात् निम्न जातियों एवं कुछ जनजातीय समूहों ने केवल ब्राह्मणों को ही आदर्श मानकर उनका अनुकरण नहीं किया , बल्कि

क्षणिय , वैश्य एवं किसी स्थानीय प्रभु जाति का अनुकरण भी किया , उनकी जीवन शैली को अपनाया । पोकॉक ने बतलाया है कि निम्न जातियों के लिए आदर्श अपने ऊपर की वे जातियाँ होती हैं जिनसे उनकी सबसे अधिक निकटता हो । प्रो ० श्रीनिवास ने भी पोकॉक के इस कथन को सही माना

  1. संस्कृतिकरण की प्रक्रिया में अग्रिम समाजीकरण का विचार शामिल है । डॉ ० योगेन्द्र सिंह , संस्कृतिकरण को अग्रिम समाजीकरण मानते हैं , अर्थात् कोई निम्न जातीय समूह एक दो पीढ़ी तक किसी उच्च जाति की जीवन – शैली की दिशा में अपना समाजीकरण करता है ताकि भविष्य में उसे उसके स्थानीय समुदाय में उच्च स्थान प्राप्त हो जाये । कोई भी जातीय समूह अपने इस प्रयत्न में उस समय आसानी से सफलता प्राप्त कर पाता है जब उसकी राजनीतिक एवं आर्थिक शक्ति बढ़ने लगती है या उसका संबंध किसी मठ , तीर्थ – केन्द्र आदि से हो जाता है ।
  2. संस्कृतिकरण की एक प्रमुख विशेषता यह है कि यह पदमूलक परिवर्तन को व्यक्त करने वाली प्रक्रिया है , न कि संरचनात्मक परिवर्तन को । इसका तात्पर्य यही है कि संस्कृतिकरण के माध्यम से किसी जातीय – समूह की स्थिति आस – पास की जातियों से कुछ ऊपर उठ जाती है परंतु स्वयं जाति – अवस्था में कोई परिवर्तन नहीं होता है । संस्कृतिकरण की प्रक्रिया सामाजिक गतिशीलता को व्यक्त करती है । इससे किसी निम्न जातीय समूह के ऊपर उठने की संभावना रहती है ।
  3. संस्कृतिकरण की प्रक्रिया सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन को व्यक्त करती है । मिल्टन सिंगर ने लिखा है “ एम ० एन ० श्रीनिवास का संस्कृतिकरण का सिद्धान्त भारतीय सभ्यता में सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवर्तन का अत्यन्त विस्तृत और व्यापक रूप से स्वीकृत मानवशास्त्रीय सिद्धांत है । ” कहने का तात्पर्य यह है कि संस्कृतिकरण केवल सामाजिक परिवर्तन की एक प्रक्रिया नहीं है बल्कि सांस्कृतिक परिवर्तनों की भी एक प्रक्रिया है । संस्कृतिकरण के फलस्वरूप भाषा , साहित्य , संगीत , विज्ञान , दर्शन , औषधि तथा धार्मिक विधान आदि के क्षेत्र में होने वाले परिवर्तन सांस्कृतिक परिवर्तनों के अन्तर्गत ही आते हैं ।
  4. संस्कृतिकरण की प्रक्रिया का संबंध किसी व्यक्ति या परिवार से नहीं होकर समूह से होता है , इस प्रक्रिया के द्वारा कोई जातीय या जनजातीय समूह अपनी स्थिति को ऊँचा उठाने का प्रयत्न करता है । यदि कोई व्यक्ति या परिवार ऐसा करता है जो उसे न केवल अन्य जातियों के बल्कि स्वयं की जाति के अन्य सदस्यों के क्रोध का भी भाजन बनना पड़ता है ।
  5. बर्नार्ड कोहन तथा हेरोल्ड गोल्ड नामक विद्वानों के अध्ययनों के आधार पर प्रो ० श्रीनिवास ने बताया है जहाँ निम्न जातियाँ अपनी जीवन – शैलियों का संस्कृतिकरण कर रहीं हैं वहीं उच्च जातियाँ आधुनिकीकरण एवं धर्म – निरपेक्षीकरण की ओर बढ़ रही हैं ।

 

प्रो ० श्रीनिवास ने स्वयं यह महसूस किया कि अपने प्रारम्भ में संस्कृतिकरण के ब्राह्मणी आदर्श पर आवश्यकता से अधिक जोर दिया । वास्तविकता यह है कि संस्कृतिकरण के आदर्श सदैव ब्राह्मण ही नहीं रहे हैं । पोकॉक ने क्षत्रिय आदर्श के अस्तित्व की चर्चा की है । मिल्टन सिंगर ने बतलाया है कि संस्कृतिकरण के एक या दो आदर्श ही नहीं पाये जाते , बल्कि चार नहीं तो कम से कम तीन आदर्श अवश्य मौजूद हैं । प्रथम तीन वर्ण के लोगों को द्विज कहते हैं क्योंकि इनका उपनयन संस्कार होता है और इन्हें वैदिक कर्मकाण्डों को सम्पन्न करने का अधिकार होता है जिनमें वेदों के मंत्रों का उच्चारण किया जाता है । श्रीनिवास के अनुसार , ” द्विज ‘ वर्गों में ब्राह्मण इन संस्कारों को पूरा करने के संबंध से सबसे अधिक सावधान होते हैं , और इसलिए दूसरों की अपेक्षा उन्हें संस्कृतिकरण का उत्तम आदर्श माना जा सकता है । लेकिन हमें यहाँ नहीं भूलना चाहिए कि स्वयं ब्राह्मण वर्ण में भी काफी विभिन्नता पाई जाती हैं । 

 सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रियाएँ पर ब्राह्मणों के अलावा क्षत्रिय और वैश्य वर्ण भी संस्कृतिकरण के आदर्श रहे हैं । देश के विभिन्न भागों में क्षत्रिय और वैश्य होने का दावा वे सब समूह करते हैं जिनकी क्रमशः सैनिक कार्य तथा व्यापार की परम्पराएँ रही हैं । देश के विभिन्न भागो में भी क्षत्रियो की और सभी वैश्यों की कोई समान कर्मकाण्ड की परम्परा नहीं रही है । इनमें से बहुत से लोगों के वे सब संस्कार नहीं होते जो कि द्विज वर्गों के लिए आवश्यक माने जाते हैं । कहीं कुछ समूहों ने ब्राह्मणों का , तो कहीं क्षत्रियों का और कहीं वैश्यों का अनुकरण किया है , उनकी जीवन – शैली को अपनाया है । नाई , कुम्हार , तेली , बढ़ई , लुहार , जुलाहे , गड़रिये आदि जातियाँ अपवित्रता रेखा के ठीक ऊपर अस्पृश्य या अछूत समूहों के निकट हैं । ये जातियाँ शूद्र वर्ग की जातियों का प्रतिनिधित्व करती हैं । प्रो ० श्रीनिवास का अवलोकन के आधार पर यह अनुभव है कि शूद्रों की व्यापक श्रेणी में कुछ अन्य जातियों का संस्कृतिकरण बहुत कम हुआ है । लेकिन चाहे उनका संस्कृतिकरण हुआ हो या नहीं हुआ हो , प्रभावी कृषक जातियाँ अनुकरण के स्थानीय आदर्श प्रस्तुत करती हैं और जैसा कि पॉकाक तथा सिंगर ने अवलोकित किया है कि ऐसी जातियों के माध्यम से ही क्षत्रिय ( तथा अन्य ) आदर्शों को अपनाया गया है । स्थानीय प्रभावी जाति ( प्रभु जाति संस्कृतिकरण की प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है । यदि स्थानीय प्रभावी जाति ब्राह्मण है , तब संस्कृतिकरण का आदर्श ब्राह्मणी प्रकार का होगा और यदि यह राजपूत या वैश्य है , तब आदर्श राजपूती या वैश्यी प्रकार का होगा । प्रो ० श्रीनिवास के अनुसार , यद्यपि एक लम्बी काल अवधि में ब्राह्मणी कर्मकाण्ड और प्रथाएँ नीची जातियों में फैली हैं , लेकिन बीच – बीच में स्थानीय रूप में प्रभुता – सम्पन्न जाति का भी शेष लोगों के द्वारा अनुकरण किया गया और प्रायः स्थानीय रूप से प्रभावी ये जातियाँ ब्राह्मण नहीं होती थीं । यह कहा जा सकता है कि निम्न स्तर वाली अनेक जातियों में ब्राह्मणी प्रथाएँ एक शृंखलाबद्ध प्रतिक्रिया के रूप में पहुँची अर्थात् प्रत्येक समूह ने अपने से एक स्तर ऊँचे समूह से कुछ ग्रहण किया और अपने से नीचे वाले समूह को कुछ दिया है ।

 

संस्कृतिकरण के प्रमुख स्रोत एवं कारक :

 

  1. जाति – व्यवस्था के अन्तर्गत न केवल विभिन्न जातियों को ही एक दूसरे से उच्च या निम्न माना जाता है , बल्कि व्यवसायों , भोजन , वस्त्र , आभूषण आदि में भी कुछ विशेष प्रकारों को उच्च तथा अन्य को निम्न समझा जाता है । संस्तरण की प्रणाली में उन जातियों को ऊँचा माना जाता है जो शाकाहारी भोजन करते हैं , शराब का प्रयोग नहीं करते , रक्त – बलि नहीं चढ़ाते तथा अपवित्रता लाने वाली वस्तुओं को सम्बंधित व्यवसाय या व्यापार नहीं करते । ऊँची जातियों की स्थिति संस्तरण की इस प्रणाली में ऊँची मानी जाती है , अतः अपनी स्थिति को उन्नत करने की इच्छुक जाति अपने से उच्च जाति और अंतिम रूप से ब्राह्मणी जीवन – पद्धति का अनुकरण करती है । प्रो ० श्रीनिवास ने बतलाया है कि निम्न जातियों में संस्कृतिकरण के प्रसार में वो रूढ़ितः स्वीकृत वैध मान्यताओं ने सहायता पहुँचाई है । प्रथम , अद्विज जातियों को कर्मकाण्डों को सम्पन्न करने की आज्ञा थी , परंतु इसको सम्पन्न करते समय वैदिक मंत्रों के उच्चारण की इन्हें स्वीकृति नहीं थी । इस प्रकार कर्मकाण्डों को उस अवसर पर बोले जाने वाले मंत्रों से अलग कर दिया गया । इसका परिणाम यह हुआ कि ब्राह्मणी कर्मकाण्ड सभी हिन्दुओं में और यहाँ तक कि अछूतों में फैल गये । द्वितीय , ब्राह्मण पुरोहित इन लोगों के यहाँ विवाह सम्पन्न करता है । अंतर केवल इतना है कि वह इस अवसर पर वैदिक मंत्रों का उच्चारण नहीं करके मंगालाप्टक स्रोत बोलता है जो वेदों के काल के बाद की संस्कृति रचनायें है । ये दो ऐसी रूढ़ितः स्वीकृत वैध मान्यताएँ हैं जिन्होंने अद्विज जातियों को अनेक कर्मकाण्डों को सम्पन्न करते में सहायता इन दो मान्यताओं के कारण सभी हिन्दुओं में , यहाँ तक कि अछूतों में भी संस्कृतिकरण का प्रसार हो सका । संस्कृतिकरण की प्रक्रिया के दौरान , अद्विज जातियों में ब्राह्मणी संस्थाओं एवं मूल्यों का भी प्रसार होता है । जब एक जातीय समूह का संस्कृतिकरण होता है तो वह किसी उच्च जाति अथ त् िप्रायः ब्राह्मण या किसी अन्य स्थानीय प्रभुत्व सम्पन्न जाति को कर लेता है । जब योगी का संस्कृतिकरण होता है , तब संस्कृत के धर्म – ग्रंथों में प्रयुक्त कुछ शब्दों जैसे पाप , पुण्य , धर्म , कर्म , माया और मोक्ष आदि का प्रयोग उनकी बातचीत में होने लगता है ।

 

  1. परम्परागत जाति – अवस्था के अंतर्गत कुछ मात्रा में समूह गतिशीलता संभव थी , अर्थात् समूहों की स्थिति में थोड़ा बहुत परिवर्तन हो जाया करता था । ऐसा इस तथ्य के साथ संभव था कि जातीय संस्तरण की प्रणाली के मध्य क्षेत्र में आने वालो जातियों को परस्पर स्थिति के संबंध में अस्पष्टता थी , दो छोरों पर स्थित ब्राह्मणों और अछूतों की स्थिति सामाजिक संस्तरण की प्रणाली में निश्चित थी लेकिन इनके मध्य जातियों में गतिशीलता पायी जाती थी , अंग्रेजों के काल में धन कमाने के अवसरों के बढ़ने से इस समूह की गतिशीलता में वृद्धि हुई , इस समय निम्न जातियों के लोगों को रुपया कमाने के अवसर प्राप्त हुए | काफी रुपया कमा लेने के बाद उन्होंने अपने लिए उच्च स्थिति का दावा किया और कुछ समूह इसे प्राप्त करने में सफल भी हुए ।

 

  1. प्रो ० श्रीनिवास के अनुसार , आर्थिक स्थिति में सुधार , राजनीतिक शक्ति की प्राप्ति , शिक्षा , नेतृत्व तथा संस्तरण की प्रणाली में ऊपर उठने की अभिलाषा आदि संस्कृतिकरण के लिए संगत कारक हैं । संस्कृतिकरण के प्रत्येक मामले में उपरोक्त सभी संगत अथवा इनमें से कुछ तत्व अलग – अलग मात्रा में निश्चित रूप में रहते हैं । संस्कृतिकरण द्वारा किसी समूह को अपने आप उच्च प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं हो जाती । इस समूह से स्पष्टतः वैश्य , क्षत्रिय अथवा ब्राह्मण वर्ण से सम्बन्धित होने का दावा प्रस्तुत करना पड़ता है । ऐसे समूह विशेष को अपने रीति – रिवाज , भोजन तथा जीवन – पद्धति को उचित मात्रा में बदलना पड़ता है । यदि उनके दावे में किसी प्रकार की कोई असंगतता अर्थात् कोई कमी हो तो उन्हें इसके लिए कोई उचित काल्पनिक कथा गढ़नी पड़ती है ताकि उनके दावे संबंधी असंगतता दूर की जा सके । इसके अलावा , एक जातीय समूह को जो संस्तरण की प्रणाली में अपनी स्थिति को ऊँचा उठाना चाहता है अनिश्चित काल तक अर्थात् एक या दो पीढ़ी तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है । एक या दो पीढ़ी के पश्चात् यह सम्भावना बनती है कि उच्च प्रस्थिति का दावा लोगों द्वारा स्वीकार कर लिया जाय । परंतु यह आवश्यक नहीं है कि संस्कृतिकरण का परिणाम सदैव संस्कृतिकरण जाति की उच्च प्रस्थिति के रूप में ही निकलेगा और यह बात अछूतों के उदाहरण द्वारा पूर्णतः स्पष्ट भी है । संस्कृतिकरण के बावजूद भी अछूतों की प्रस्थिति ऊँची नहीं हो पायी ।

 

  1. जब किसी जाति या जाति के किसी एक भाग को लौकिक ( सेक्यूलर ) शक्ति प्राप्त हो जाती है तो वह साधारणतः उच्च प्रस्थिति के प्ररम्परागत प्रतीकों , रिवाजों , कर्मकाण्डों , विचारों , विश्वासों और जीवन पद्धति आदि को अपनाने का अर्थ यह भी था कि विभिन्न संस्कारों के सम्पादन के लिए ब्राह्मण पुरोहित की सेवाएँ प्राप्त करना , संस्कृतीय पंचाग के त्यौहारों को मानना , प्रसिद्ध तीर्थ स्थानों की यात्रा करना , तथा धर्म – शास्त्रों का अधिक ज्ञान प्राप्त करना , इस तरीके से संस्कृतिकरण की प्रक्रिया कुछ मात्रा में गतिशीलता को संभव बनाती थी । अनुलोम विवाह भी इस प्रकार की गतिशीलता के लिए उत्तरदायी है । एक जातीय समूह अपने से उच्च समझे जाने वाले समूहों में अपने को सम्मिलित करना चाहता था और अनुलोम विवाह ने इसके लिए

 

 

 सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रियाएँ संस्थागत साधन प्रस्तुत किये । यहाँ इस बात पर जोर देना आवश्यक है कि परम्परागत काल में जाति की गतिशीलता के फलस्वरूप विशिष्ट जातियों अथवा उनकी प्रशाखाओं में केवल पदमूलक परिवर्तन हो हुए और इसमें कोई संरचनात्मक परिवर्तन नहीं हुए , अर्थात् अलग – अलग जातियाँ तो ऊपर उठी या नीचे गिरी , परंतु पूरी संरचना वैसी ही बनी रही ।

 

  1. संचार तथा यातायात के साधनों के विकास ने भी संस्कृतिकरण को देश के विभिन्न भागों तथा समूहों तक पहुँचा दिया है जो पहले पहुँच के बाहर थे , तथा साक्षरता प्रसार ने संस्कृतिकरण को उन समूहों तक पहुँचा दिया जो जातीय संस्तरण की प्रणाली में काफी निम्न थे ।

 

  1. नगर मन्दिर एवं तीर्थ स्थान संस्कृतिकरण के अन्य स्रोत रहे हैं । इस स्थानों पर एकत्रित लोगों में सांस्कृतिक विचारों एवं विश्वासों के प्रसार हेतु उचित अवसर उपलब्ध होते रहे हैं । भजन मण्डलियों , हरिकथा तथा साधु – संन्यासियों ने सस्कृतिकरण के प्रसार में काफी योग दिया है । बड़े नगरों में प्रशिक्षित पुजारियों , संस्कृत स्कूलों तथा महाविद्यालयों , छापेखाने तथा धार्मिक संगठनों ने इस प्रक्रिया में योग दिया है ।

 

संस्कृतिकरण की अवधारणा : एक आलोचनात्मक दृष्टिकोण : हम यहाँ संस्कृतिकरण की अवधारणा की कुछ कमियों पर विचार करेंगे जो इस प्रकार हैं

 

  1. प्रो ० श्रीनिवास ने स्वयं स्वीकार किया है कि संस्कृतिकरण एक काफी जटिल और विषम अवधारणा है । यह भी संभव है कि इसे एक अवधारणा मानने के बजाय अनेक अवधारणाओं का योग मानना अधिक लाभप्रद रहे । इनका मत है कि जैसे ही यहा पता चले कि संस्कृतिकरण शब्द विश्लेषण में सहायता पहुँचाने के बजाय बाधक है । उसे निस्संकोच और तुरंत छोड़ दिया जाना चाहिए ।

 

  1. प्रो ० श्रीनिवास ने संस्कृतिकरण की अवधारणा के संबंध में कुछ परस्पर विरोधी बातें बतलाई हैं एवं लिखा है , ” किसी समूह , आर्थिक उन्नयन के बिना भी संस्कृतिकरण हो सकता है ” । एक स्थान पर उन्होंने लिखा है , आर्थिक उन्नयन , राजनीतिक शक्ति का संचयन , शिक्षा , नेतृत्व तथा संस्तरण की प्रणाली में ऊपर उठने की अभिलाषा आदि संस्कृतिकरण के लिए उपयुक्त कारक हैं । ” अन्यत्र लिखा है , ” संस्कृतिकरण के परिणामस्वरूप स्वतः ही किसी समूह को उच्च प्रस्थिति प्राप्त नहीं हो जाती हैं , जातियों के निरंतर संस्कृतिकरण एवं संरचनात्मक परिवर्तन हो जायें ” । प्रो ० श्रीनिवास वे अन्यत्र लिखा है , ” किसी अछूत समूह चाहे कितना ही संस्कृतिकरण क्यों न हो जाये वह अस्पृश्यता की बाधा को पार करने में असमर्थ रहेगा । ” उपयुक्त कथनों से स्पष्ट है कि संस्कृतिकरण की अवधारणा में अनेक असंगतताएँ पायी जाती हैं , परस्पर विरोधी बातें देखने को मिलती हैं ।

 

  1. प्रो ० श्रीनिवास मानते हैं कि संस्कृतिकरण की प्रक्रिया के द्वारा लम्बवत् सामाजिक गतिशीलता संभव है , इस प्रक्रिया के द्वारा एक निम्न जाति एक या दो पीढ़ी में शाकाहारी बनकर , मद्यपान का त्याग कर तथा अपने कर्मकाण्ड और देवगण का संस्कृतिकरण कर जातीय संस्तरण की प्रणाली में अपनी स्थिति को ऊँचा उठाने में समर्थ हो जाती है , परंतु यह संदेहजनक है कि क्या वास्तव में ऐसा होता है । इस संबंध में डॉ ० डी ० एन मजूमदार ने लिखा है कि सैद्धांतिक और केवल सैद्धांतिक रूप में ही ऐसी स्थिति की कल्पना की जा सकती है , जब हम विशिष्ट मामलों पर ध्यान देते हैं तो जाति गतिशीलता संबंधी हमारा ज्ञान और अनुभव रेग्सी सैद्धांतिक मान्यता की दृष्टि से सही नहीं उतरता । चमार अपनी मूल सामाजिक स्थिति में अवश्य कुछ आगे बढ़ पाये हैं : चाहे वे सम्प्रदाय के रूप में संगठित हो गये हों , चाहे उन्होंने शराब पीना , विधवा – विवाह , विवाह – विच्छेद यहाँ तक कि माँस खाना भी बंद क्यों न कर दिया हो , लेकिन

नया सामाजिक संस्तरण की प्रणाली में लम्बवत् ऊपर उठने का कोई एक भी उदाहरण है ? चमारों का फैलाव क्षैतिक प्रकार का है , और यही बात अन्य निम्न जातियों के संबंध में भी सही है । निम्न जातियाँ जाति गतिशीलता को एक क्षैतिज गति ( संचलन ) के रूप में देखती है , जबकि ब्राह्मणों और अन्य उच्च जातियों ने ऐसी गतिशीलता को एक आरोहण अर्थात् ऊपर की ओर चढ़ने के रूप में माना है । जाति गतिशीलता के संबंध में जो कुछ तथ्य प्राप्त हो गये हैं वे लंबवत् गतिशीलता को नहीं बल्कि क्षैतिज गतिशीलता को व्यक्त करते हैं । डॉ ० मजूमदार के इन तथ्यपूर्ण अवलोकनों एवं विचारों से स्पष्ट है कि संस्कृतिकरण की प्रक्रिया के माध्यम से कोई निम्न जाति लम्बवत् रूप से ऊपर नहीं उठ जाती , उच्च जातियों के समान नहीं बन जाती , बल्कि अपने ही समान की अन्य जातियो से अथवा अपनी ही जाति की विभिन्न प्रशाखाओं में वह ऊपर उठ जाती है ।

 

  1. डा ० योगेन्द्र सिंह संस्कृतिकरण को सांस्कृतिक और सामाजिक , गतिशीलता की एक प्रक्रिया मानते हैं । संस्कृतिकरण सापेक्ष रूप से हिन्दू सामाजिक व्यवस्था के इन कालों में सांस्कृतिक और सामाजिक गतिशीलता की एक प्रक्रिया है । यह सामाजिक परिवर्तन का एक अन्तरजात स्रोत है । एक सामाजिक मनोवैज्ञानिक दृष्टि से संस्कृतिकरण भविष्य में अपनी स्थिति में सुधार लाने की आशा में किसी उच्च समूह की संस्कृति की ओर अग्रिम समाजीकरण के लिए सार्वभौमिक प्रेरणा का एक सांस्कृतिक विशिष्ट मामला है

 

  1. बी ० कुप्पूस्वामी संस्कृतिकरण के संदर्भ समूह ‘ प्रक्रिया को संचालन का एक उदाहरण मानते हैं , लेकिन भारतीय समाज में संदर्भ समूह की सदस्यता प्राप्त करना इस कारण असम्भव है कि यहाँ जन्म पर आधारित जाति – व्यवस्था पायी जाती है । ऐसी बन्द अवस्था वाले समाज में व्यक्ति के लिये अपने जातीय समूह को बदलकर किसी अन्य जातीय समूह की सदस्यता ग्रहण करना असम्भव है । एक सापेक्ष रूप में बंद सामाजिक संरचना में अग्रिम समाजीकरण व्यक्ति के लिए अपकार्यात्मक होगा क्योंकि वह जिस समूह का सदस्य बनने की आकांक्षा रखता है , गतिशीलता के अभाव में वह उसका सदस्य नहीं बन पाएगा । बी ० कुप्पूस्वामी से हम सहमत हैं जब वे यह कहते हैं कि कुछ संभव है , वह यही कि वर्ण के अन्तर्गत ही मामूली परिवर्तन हो पाता है । स्पष्ट है कि संस्कृतिकरण एक ऐसी प्रक्रिया नहीं है जिसके द्वारा हिन्दू समाज में संरचनात्मक परिवर्तन संभव हो सके ।

 

  1. प्रो ० श्रीनिवास स्वयं मानते हैं कि भूतकाल में अनेक प्रभुत्व – सम्पन्न जातियों ने संस्तरण की प्रणाली में राजकीय आदेश द्वारा या स्वतंत्र राजनीतिक शक्ति के संगठन द्वारा उच्च स्थितियाँ प्राप्त की हैं । के ० एम ० पनीकर मानते हैं कि ईसा के पांचवीं शताब्दी पूर्व , सभी तथाकथित क्षत्रिय निम्न जातियों के द्वारा सत्ता के अनाधिकार ग्रहण द्वारा अस्तित्व में आये और परिणामतः उन्होंने क्षत्रिय – भूमिका और सामाजिक स्थिति प्राप्त की । डा ० योगेन्द्र सिंह के अनुसार , यहाँ संस्कृतिकरण के प्रक्रिया , ‘ सत्ता के उत्थान और पतन द्वारा संघर्षों और युद्ध द्वारा और राजनीतिक दांव – पेच द्वारा प्रभुत्व सम्पन्न समूहों के भारतीय इतिहास में पद – प्राप्ति या प्रचलन को व्यक्त करती है । ये सब संरचनात्मक परिवर्तनों के उदाहरण हैं जिनका संस्कृतिकरण जैसी अवधारणा के द्वारा पूर्णतः पता नहीं चलता हैं । उपर्युक्त विवरण के स्पष्ट हैं कि सांस्कृतिक परिवर्तन की प्रक्रिया का वर्णन करने के लिये यह कोई बहुत उपयुक्त अवधारणा नहीं । इस संबंध में डॉ ० डी ० एन ० मजूमदार ने लिखा है कि सांस्कृतिक परिवर्तन की प्रक्रिया का वर्णन करने के लिए हमने जिस उपकरण का प्रयोग किया है , उससे हम प्रसन्न नहीं हैं । यही बात एफ ० जी ० बेली ने अपनी पुस्तक ” कास्ट एण्ड दी इकोनोमिक फ्रंटियर ‘ में स्पष्ट की है । संस्कृतिकरण अवधारणाओं के एक पूंज को व्यक्त करता है और यह असंयत या ढीली अवधारणा है जो किसी विशेष गुण रहित है । श्री निवास द्वारा इस अवधारणा को दिया गया व्यापक विस्तार इसके उपयोग की न्यायसंगतता को असंभव बना देता है , विशेषतः लम्बवत् और क्षैतिज गतिशीलता के संदर्भ में है ।

 

 

 

आधुनिकीकरण ( Modernization ) :

 

 परम्परात्मक समाजों में होने वाले परिवर्तनों या औद्योगीकरण के कारण पश्चिमी समाजों में आये परिवर्तनों को समझने तथा दोनों में भिन्नता को प्रकट करने के लिए विद्वानों ने आधुनिकीकरण को अवधारणा का जन्म दिया । एक तरफ उन्होंने परम्परात्मक समाज को रखा और दूसरी तरफ आधुनिक समाज को । इस प्रकार उन्होंने परम्परात्मक बनाम आधुनिकता को जन्म दिया । इसके साथ ही जब पाश्चात्य विद्वान उपनिवेशों एवं विकासशील देशों में होने वाले परिवर्तनों की चर्चा करते हैं तो वे आधुनिकीकरण की अवधारणा का सहारा लेते हैं । कुछ लोगों ने आधुनीकीकरण को एक प्रक्रिया के रूप में माना है तो कुछ ने एक प्रतिफल के रूप में । आईजन स्टैंड ने इसे एक प्रक्रिया मानते हुए लिखा हैं , “ ऐतिहासिक दृष्टि से आधुनिकीकरण उस प्रकार की सामाजिक , आर्थिक एवं राजनीतिक व्यवस्थाओं की ओर परिवर्तन की प्रक्रिया है जो सत्रहवीं से उन्नीसवीं शताब्दी तक पश्चिमी यूरोप तथा उत्तरी अमेरिका में और बीसवीं शताब्दी तक दक्षिणी अमेरिका एशियाई व अफ्रीकी देशों में विकसित हुई । ” आधुनिकीकरण की प्रक्रिया किसी एक ही दिशा या क्षेत्र में होने वाले परिवर्तन को प्रकट नहीं करती वरन् यह एक बहु – दिशा वाली प्रक्रिया है । साथ ही यह किसी भी प्रकार के मूल्यों से भी बँधी हुई नहीं है । परंतु कभी – कभी इसका अर्थ अच्छाई और इच्छित परिवर्तन से लिया जाता है । उदाहरण के लिए जब कोई यह कहता है कि सामाजिक , आर्थिक और धार्मिक संस्थाओं का आधुनिकीकरण हो रहा है , तब उसका उद्देश्य आलोचना करना नहीं वरन् अच्छाई बताना है । आधुनिकीकरण की अवधारणा को स्पष्ट करने के लिए अब तक कई पाश्चात्य और भारतीय विद्वानों ने समय – समय पर अपना विचार प्रकट किया है और इस अवधारणा को अनेक नामों से सम्बोधित किया है । आधुनीकिकरण पर अपने विचार प्रकट करने वाले विद्वानों में कुछ प्रमुख में हैं , वाईनर , एयटर लर्नर , बैक , एलेक्स इन्कालेक्स , ए ० आर ० देसाई , वाई सिंह , एम ० एन ० श्रीनिवासन , एडवर्ड शिल , डब्ल्यू ० सी ० स्मिथ आदि । आधुनीकिकरण शब्द के पर्यायवाची रूप में अंग्रेजीकरण , यूरोपीकरण , पाश्चात्यकरण , शहरीकरण , उद्विकास , विकास प्रगति आदि शब्दों का प्रयोग भी हुआ है । औद्योगीकरण , नगरीकरण एवं पश्चिमीकरण की तरह आधुनिकीकरण भी एक जटिल प्रक्रिया है ।

 

आधुनिकीकरण परिभाषा एवं अर्थ : अब तक विभिन्न विद्वानों ने आधुनिकीकरण पर बहुत कुछ लिखा है और इसे अनेक रूपों में परिभाषित किया है । यहाँ हम कुछ विद्वानों द्वारा प्रस्तुत परिभाषाओं एवं विचारों का उल्लेख , करेंगे । मैस्मिन जे ० लेवी ने आधुनिकीकरण को प्रोद्योगिक वृक्ष के रूप में परिभाषित किया है । मैं , इन दो तत्वों में से प्रत्येक को सातत्य का आधार मानता हूँ । उपरोक्त परिभाषा से स्पष्ट है कि लेवी ने शक्ति के जड़ स्रोत जैसे पेट्रोल , डीजल , कोयला , जल – विद्युत और अणु – शक्ति और यन्त्रों के प्रयोग को आधुनिकीकरण के आधार के रूप में माना है । किसी समाज विशेष को कितना आधुनिक कहा जायेगा , यह इस बात पर निर्भर करता है कि वहाँ जड़ शक्ति तथा यन्त्रों का कितना प्रयोग हुआ है । 

 

डा ० योगेन्द्र सिंह ने बताया है कि साधारणतः आधुनिक होने का अर्थ ‘ फैशनेबल ‘ से लिया जाता है । वे आधुनिकीकरण को एक सांस्कृतिक प्रयत्न मानते हैं जिसमें तार्किक अभिवृति , सार्वभौम दृष्टिकोण , परानुभूति वैज्ञानिक विश्व दृष्टि , मानवता , प्रौद्योगिक प्रगति आदि सम्मिलित हैं । डॉ ० सिंह आधुनिकीकरण पर किसी एक ही जातीय समूह या सांस्कृतिक समूह का स्वामित्व नहीं मानते वरन् सम्पूर्ण मानव समाज का अधिकार मानते हैं ।

 

 डेनियल लर्नर ने अपनी पुस्तक ‘ दी पासिंग आफ ट्रेडिसनल सोसायटी मॉर्डनइिजिंग दा मीडिल ईस्ट ‘ में आधुनिकीकरण को पश्चिमी मॉडल स्वीकार किया है । वे आधुनिकीकरण में निहित निम्नलिखित विशेषताओं का उल्लेख करते हैं

 

( a ) बढ़ता हुआ नगरीकरण

( b ) बढ़ती हुई साक्षरता

 ( c ) बढ़ती हुई साक्षरता विभिन्न साधनों जैसे समाचारपत्रों , पुस्तकों , रेडियो आदि के प्रयोग द्वारा शिक्षित लोगों के अर्थपूर्ण विचारविनियम में सहभागिता को बढ़ाती है

 ( d ) इन सभी से मनुष्य की दक्षमता में वृद्धि होती है , राष्ट्र को आर्थिक लाभ होता है जो प्रति व्यक्ति आय को बढ़ाने में योग देता है

( e ) यह राजनैतिक जीवन की विशेषताओं को उन्नत करने में सहायता देता है

 

 लर्नर उपयुक्त विशेषताओं को शक्ति , तरुणाई , निपुणता तथा तार्किकता के रूप में व्यक्त करते हैं । वे आधुनिकीकरण को प्रमुखतः मस्तिक की एक स्थिति के रूप में स्वीकार करते हैं , प्रगति की अपेक्षा वृद्धि की ओर झुकाव तथा परिवर्तन के अनुरूप अपने को ढालने की तत्परता के रूप में मानते हैं । परानुभूति भी आधुनिकीकरण का एक मुख्य तत्व है जिसमें अन्य लोगों के सुख दुख में भाग लेने और संकट के समय उनको सहायता देने की प्रवृत्ति बढ़ती है । आइजनस्टैड ने अपनी पुस्तक आधुनिकीकरण : विरोध एवं परिवर्तन में विभिन्न क्षेत्रों में आधुनिकीकरण को निम्न प्रकार से व्यक्त किया है

 

 ( a ) आर्थिक क्षेत्र में : प्रौद्योगिकी का उच्च स्तर ।

 ( b ) राजनीतिक क्षेत्र में : समूह में शक्ति का प्रसार तथा सभी वयस्कों को शक्ति प्रदान करना ( मताधिकार द्वारा ) एवं संचार के साधनों द्वारा प्रजातंत्र में भाग लेना ।

( c ) सांस्कृतिक क्षेत्र में : विभिन्न समाजों के साथ अनुकूलन की क्षमता में वृद्धि तथा दूसरे लोगों की परिस्थितियों के प्रति परानुभूति में वृद्धि ।

( d ) संरचना के क्षेत्र में : सभी संगठनों के आकार का बढ़ना , उसमें जटिलता एवं विभेदीकरण की दृष्टि से वृद्धि ।

( e ) पारिस्थितिकीय क्षेत्र में : नगरीकरण में वृद्धि ।

 

 डॉ ० राज कृष्ण ने आधुनिकीकरण एवं आधुनिकता में अंतर दिखाते हुए आधुनिकता को आधुनिकीकरण से अधिक व्यापक माना है । इसके अनुसार आधुनिकीकरण एक ऐसी सभ्यता की ओर इंगित करता है जिसमें साक्षरता तथा नगरीकरण का उच्च स्तर तथा साथ ही लम्बवत् और भौगोलिक गतिशीलता , प्रति व्यक्ति उच्च आय और प्रारम्भिक स्तर से उच्च स्तर की अर्थ – व्यवस्था जो कमी के स्तर ( उत्पन्न – बिंदु के परे जा चुकी हो ) समाविष्ट है । दूसरी ओर आधुनिकता , एक ऐसी संस्कृति को बताती है जिसकी विशेषता का निर्धारण तार्किकता , व्यापक रूप में उदार दृष्टिकोण , मतों की विविधता तथा निर्णय लेने के विभिन्न केन्द्र , अनुभव के विभिन्न क्षेत्रों की स्यायत्तता , धर्म – निरपेक्ष , आचार – शास्त्र तथा व्यक्ति के निजी संसार के प्रति आदर के रूप में होता है । 

 

सी ० ई ० ब्लेक ने आधुनिकीकरण को ऐतिहासिक रूप में स्वीकार किया है और इसे परिवर्तन की एक ऐसी प्रक्रिया माना है जो पश्चिमी यूरोप और उत्तरी अमेरिका में सत्रहवीं सदी में विकसित , सामाजिक , आर्थिक एवं राजनैतिक व्यवस्थाओं में बीसवीं सदी के अमेरिका तथा यूरोप आदि देशों की ओर अग्रसर हो सकी है । आधुनिकीकरण एक ऐसी मनोवृत्ति का परिणाम है जिसमें यह विश्वास किया जाता है कि समाज को बदला जा सकता है और बदला जाना चाहिए तथा परिवर्तन वांछनीय है । आधुनिकीकरण में व्यक्ति के संस्थाओं के बदलते हुए कार्यों के अनुरूप समायोजन करना होता है , इससे व्यक्ति के ज्ञान में वृद्धि होती है जिसके परिणामस्वरूप वह पर्यावरण पर नियन्त्रण प्राप्त कर लेता है । ब्लेक के अनुसार आधुनिकीकरण का प्रारम्भ तो यूरोप व अमेरिका से हुआ परंतु बीसवीं सदी तक इसका प्रसार संपूर्ण विश्व में हो गया और इसने मानवीय संबंधों के स्वरूप को ही परिवर्तित कर दिया ।

 

 डॉ ० एस ० सी ० दुबे आधुनिकीकरण को मूल्यों से युक्त मानते हैं ।

 

( 1 ) मानव समस्याओं के हल के लिए जड़ – शक्ति का प्रयोग ।

 

( 2 ) ऐसा व्यक्तिगत रूप से न करके सामूहिक रूप से किया जाता है । परिणामस्वरूप जटिल संगठनों का निर्माण होता है । शिक्षा को आधुनिकीकरण का एक सशक्त साधन मानते हैं क्योंकि शिक्षा ज्ञान की वृद्धि करती है एवं मूल्यों तथा धाराओं में परिवर्तन लाती है जो आधुनिकीकरण के उद्देश्य तक पहुँचने के लिए बहुत आवश्यक है । डॉ ० एम ० एन ० श्रीनिवास ने ‘ सोशल चेन्ज इन मॉर्डन इंडिया ( 1966 ) तथा मार्डनाइजेशन : ए फ्यू क्यूरीज ‘ ( 1969 ) , में आधुनिकीकरण के संबंध में अपने विचार व्यक्त किये हैं । आप आधुनिकीकरण को एक तटस्थ शब्द नहीं मानते , आपके अनुसार आधुनिकीकरण का अर्थ अधिकांशतः ‘ अच्छाई ‘ से लिया जाता है । किसी भी पश्चिमी देश के प्रत्यक्ष या परोक्ष सम्पर्क के कारण किसी गैर – पश्चिमी देशों में होने वाले परिवर्तनों के लिए प्रचलित शब्द आधुनिकीकरण है । आप आधुनिकीकरण में निम्नलिखित बातों को सम्मिलित करते हैं : बढ़ा हुआ नगरीकरण , साक्षरता का प्रसार , प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि , वयस्क माताधिकार तथा तर्क का विकास ।

 

 

डॉ ० श्रीनिवास ने आधुनिकीकरण के तीन प्रमुख क्षेत्र बताये हैं

 

  1. भौतिक संस्कृति का क्षेत्र ( इसमें तकनीकी भी सम्मिलित की जाती है )
  2. सामाजिक संस्थाओं का क्षेत्र , और
  3. ज्ञान , मूल्य एवं मनोवृत्तियों का क्षेत्र ।

 

ऊपरी तौर पर तो ये तीनों क्षेत्र भिन्न – भिन्न मालूम पड़ते हैं , परंतु ये परस्पर सम्बन्धित हैं । एक क्षेत्र में होने वाले परिवर्तन दूसरे क्षेत्र को भी प्रभाविक करते हैं । बी ० वी ० शाह ने ‘ प्रोबलम आफ मॉर्डनाइजेशन आफ एजुकेशन इन इंडिया : ( 1969 ) ‘ नामक लेख में आधुनिकीकरण पर अपने विचार प्रकट किये हैं । शाह आधुनिकीकरण को बहूद्देशीय प्रक्रिया मानते हैं जो आर्थिक , सामाजिक , राजनैतिक आदि सभी क्षेत्रों में व्याप्त है । ( a ) आर्थिक क्षेत्र में आधुनिकीकरण का अर्थ है : औद्योगिकीकरण का बढ़ना , अधिक उत्पादन , मशीनीकरण , मुद्रीकरण व शहरीकरण में वृद्धि । व्यक्ति व सामूहिक सम्पत्ति में भेद किया जाता है । रहने और कार्य करने के स्थान अलग – अलग होते हैं , लोगों को व्यवसाय चुनने की स्वतंत्रता होती है । उनमें तर्क और गतिशीलता की वृद्धि होती है । आय , खरीद , बचत तथा पूँजी लगाने के क्षेत्र में नये दृष्टिकोण का विकास होता है । ( b ) राजनैतिक क्षेत्र में धर्म – निरपेक्ष व कल्याण राज्य की स्थापना होती है जो शिक्षा , स्वास्थ्य , मकान एक रोजगार की व्यवस्था करता । कानून के समक्ष सभी को समानता प्रदान की जाती है तथा सरकार के चुनने अथवा बदलने में स्वतंत्रता व्यक्त करने की छूट होती है । 

78 भारत में सामाजिक परिवर्तन : दशा एवं दिशा ( c ) सामाजिक क्षेत्र में संस्तरण की खुली व्यवस्था होती है । प्रदत्त पद के स्थान पर अर्जित पदों का महत्त्व होता है तथा सभी को अवसर की समानता दी जाती है , विवाह , धर्म , परिवार तथा व्यवसाय के क्षेत्र में वैयक्तिक स्वतंत्रता पर बल दिया जाता है । ( d ) वैयक्तिक क्षेत्र में सामाजिक परिवर्तन के लिए मानव प्रयत्नों में विश्वास किया जाता है । धर्म निरपेक्ष , तार्किक , वैज्ञानिक और विश्वव्यापी दृष्टिकोण का विकास होता है । सामाजिक समस्याओं के प्रति समानतावादी और स्वतंत्रात्मक दृष्टिकोण अपनाया जाता है । ए ० आर ० देसाई आधुनिकीकरण का प्रयोग केवल सामाजिक क्षेत्र तक ही सीमित नहीं बल्कि जीवन के सभी पहलुओं तक विस्तृत मानते हैं । बौद्धिक क्षेत्र में आधुनिकीकरण का अर्थ तर्क शक्ति का बढ़ना है । भौतिक व सामाजिक घटनाओं की तार्किक व्याख्या की जाती है । ईश्वर को आधार मानकर किसी भी घटना को स्वीकार नहीं किया जाता । धर्मनिरपेक्ष तार्किकता का परिणाम है जिसके फलस्वरूप अलौकिक जाति के स्थान पर इस दुनिया का दृष्टिकोण पनपता है ।

 

सामाजिक क्षेत्र में : ( a ) सामाजिक गतिशीलता बढ़ती है । पुरानी सामाजिक , आर्थिक , राजनैतिक तथा मनोवैज्ञानिक धारणाओं को तीव्र कर व्यक्ति नये प्रकार के व्यवहार को अपनाने को प्रस्तुत होता है । ( b ) सामाजिक संरचना में परिवर्तन – व्यक्ति के व्यावसायिक एवं राजनैतिक कार्यों में परिवर्तन आता है , प्रदत्त के स्थान पर अर्जित पदों का महत्त्व बढ़ता है । ( c ) समाज की केन्द्रीय कानूनी , प्रशासकीय तथा राजनैतिक संस्थाओं का विस्तार एवं प्रसार । ( d ) प्रशासकों द्वारा जनता की भलाई की नीति अपनाना ।

 

आर्थिक क्षेत्र में : ( a ) उत्पादन , वितरण , यातायात तथा संचार आदि में पशु और मानव शक्ति के स्थान पर जड़ शक्ति का प्रयोग करना । ( b ) आर्थिक क्रियाओं का परम्परात्मक स्वरूप से पृथक्करण । ( c ) मशीन , तकनीकी एवं औजारों का प्रयोग । ( d ) उच्च तकनीकी के प्रभाव के कारण उद्योग , व्यवसाय , व्यापार आदि में वृद्धि । ( 1 ) आर्थिक कार्यों में विशेषीकरण का बढ़ना , साथ ही उत्पादन उपभोक्ता विशेषता कह सकते हैं । ( 2 ) अर्थव्यवस्था में उत्पादन तथा उपभोग में वृद्धि ।

 

सांस्कृतिक क्षेत्र में : ( a ) बढ़ता हुआ औद्योगीकरण जिसे हम आर्थिक आधुनिकीकरण की प्रमुख विशेषता कह सकते हैं । पारिस्थितिकीय शास्त्रीय क्षेत्र में शहरीकरण की वृद्धि होती है । ( b ) शिक्षा का विस्तार तथा विशेष प्रकार की शिक्षा देने वाली संस्थाओं में वृद्धि । ( c ) नये सांस्कृतिक दृष्टिकोण का विकास जो उन्नति व सुधार , योग्यता सुख अनुभव व क्षमता पर जोर दे । ज्ञान का बढ़ना , दूसरों का सम्मान करता , ज्ञान व तकनीकी में विश्वास पैदा होना तथा व्यक्ति के उसके कार्य का प्रतिफल मिलना और मानवतावाद में विश्वास । ( d ) समाज द्वारा ऐसी संस्थाओं और योग्यताओं का विकास करना जिससे कि लगातार बदलती हुई माँगों और समस्याओं से समायोजन किया जा सके । इस प्रकार श्री देसाई ने आधुनिकीकरण को एक विस्तृत क्षेत्र के संदर्भ में देखा है जिसमें समान संस्कृति के सभी पहलू आ जाते हैं । 

 

आधुनिकीकरण पर भारतीय और पश्चिमी विद्वानों के उपर्युक्त विचारों से स्पष्ट है कि उन्होंने इस अवधारणा का प्रयोग परम्परात्मक , पिछड़े तथा उपनिवेश वाले देशों की पश्चिमी , पूँजीवादी एवं औद्योगीकरण व शहरीकरण कर रहे देशों के साथ तुलना करने के लिए किया है जो कि उनमें हो रहे नवीन परिवर्तनों की और इंगित करती है । बौद्धिक क्षेत्र में आधुनिकीकरण का अर्थ भौतिक एवं सामाजिक घटनाओं को तार्किक व्याख्या करना तथा उन्हें कार्य कारण के आधार पर स्वीकार करना है । सामाजिक क्षेत्र में आधुनिकीकरण होने पर गतिशीलता बढ़ती है , पुरानी प्रथाओं के स्थान पर नवीन मूल्य पनपते हैं , जटिल संस्थाओं का जन्म होता है , रक्त – संबंध आदि में शिथिलता आती है । राजनैतिक क्षेत्र में सेना को अलौकिक शक्ति ही देन परिवार नहीं माना जाता सत्ता का लोगों में विकन्द्रीकरण और वयस्क मताधिकार द्वारा सरकार का चयन होता है । आर्थिक क्षेत्र में मशीनों का . उपयोग बढ़ता है तथा उत्पादन जड़ – शक्ति के प्रयोग द्वारा होता है । यातायात के साधनों का विकास होता है और औद्योगीकरण बढ़ता है , परिस्थितिजन्य क्षेत्र में नगरीकरण बढ़ता है । सांस्कृतिक क्षेत्र में आधुनिकीकरण कारण का तात्पर्य नये सांस्कृतिक दृष्टिकोण का विकास और व्यक्ति में नवीन गुणों के प्रादुर्भाव से है । विभिन्न विद्वानों के उपर्युक्त विचारों से आधुनिकीकरण की निम्नलिखित विशेषताओं का पता चलता है घटनाओं की विवेकपूर्ण व्याख्या , सामाजिक गतिशीलता में वृद्धि , धर्म – निरपेक्षता व लैकिकीकरण , वयस्क मताधिकार द्वारा राजनैतिक सत्ता का लोगों में हस्तान्तरण बढता हुआ नगरीकरण , वैज्ञानिक दृष्टिकोण , औद्योगीकरण , प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि शिक्षा का प्रसार , परानुभूति , जड़ शक्ति का प्रयोग , नवीन व्यक्तित्व का विकास , प्रदत्त के स्थान पर अर्जित पदों का महत्व , वस्तु – विनियम के स्थान पर द्रव्य – विनियम , व्यवसायों में विशिष्टता , यातायात एवं संचार व्यवस्था का विकास , चिकित्सा एवं स्वास्थ्य में वृद्धि तथा प्राचीन कृषि विधि के स्थान पर नवीन विधियों का प्रयोग । इस प्रकार हम देखते हैं कि आधुनिकीकरण एक जटिल प्रक्रिया है जिसमें अनेक तत्वों का समावेश है तथा जो जीवन के भौतिक , आर्थिक , राजनैतिक , सामाजिक , धार्मिक एवं बौद्धिक सभी वस्तुओं से सम्बन्धित है । यह अवधारणा हमें परम्परात्मक समाजों में होने वाले परिवर्तनों को समझने में योग देती है । आज विश्व में कहीं परम्परात्मक समाज दिखलाई पड़ता है , तो कहीं आधुनिक समाज । इनकी तुलना करने तथा परिवर्तन की प्रकृति और दिशा को समझने में यह अवधारणा उपयोगी है । आधुनिकीकरण का प्रारूप ( Forms of Modernization ) : प्रश्न उठता है कि कौन – से परिवर्तन होने , कौन – सी स्थिति पैदा होने या कौन – सी प्रक्रिया प्रारम्भ होने पर उसे हम आप आधुनिकीकरण कहकर पुकारेंगे । साधारणतः आधुनिकीकरण के आदर्श पाश्चात्य देश एवं उनमें होने वाले परिवर्तन ही रहे हैं । जैसा कि बैनडिक्स कहते हैं “ आधुनिकीकरण से मेरा तात्पर्य उस किस्म के सामाजिक परिवर्तनों से है जो 1760-1830 में इंगलैण्ड की औद्योगिक क्रान्ति तथा 1789-1794 में फ्रांस की राजनैतिक क्रांति के दौरान उत्पन्न हुए । ” वर्तमान प्रजातंत्र , शिक्षा प्रणाली और औद्योगिक क्रान्ति का प्रारम्भ अधिकांशतः पश्चिमी देशों में ही हुआ । अतः यदि उन परिवर्तनों का जो सामाजिक , आर्थिक , राजनैतिक और अन्य क्षेत्रों में पश्चिमी देशो में हुए । दूसरे देशों में अनुकरण होता है तो वह आधुनिकीकरण के नाम से जाना जायेगा । अतः इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि प्रारम्भ में आधुनिकीकरण का प्रारूप पश्चिमी देश ही रहे हैं , अब चाहे रूप , चीन , जापान या अन्य देश में आधुनिकीकरण के आदर्श के रूप में हों , रूडोल्फक एवं फूट ल्फ ने भी इसी बात की पुष्टि की है । लर्नर का  मत है कि पश्चिमी मॉडल केवल ऐतिहासिक दृष्टि से पश्चिमी है , समाजशास्त्रीय दृष्टि से विश्वव्यापी ।

 

 

 

आधुनिकीकरण बनाम परम्परा :  

 

      एक सामान्य धारणा आधुनिकीकरण एवं परम्परा को एक – दूसरे का विरोधी मानने की है । इन्हें एक युग्म के रूप में स्वीकार किया जाता है । रूडोल्फ एवं रूडोल्फ लिखते हैं- “ वर्तमान सामाजिक और राजनैतिक परिवर्तनों के विश्लेष्ण में आधुनिकीकरण का प्रयोग साधारणतः परम्परा के विरोधी रूप में किया गया है । पश्चिमी और गैर – पश्चिमी समानों की तुलना में भी इन दोनों अवधारणाओं का प्रयोग हुआ है । समाज की प्रगति , परिवर्तन और उद्विकास परम्परा में आधुनिकीकरण की ओर माने गये हैं । बेनडिक्स ने आधुनिक के स्थान पर विकसित तथा परम्परात्मक के स्थान पर अनुगामी शब्दों का प्रयोग किया है । यह ठीक है कि परम्परात्मक समाज वर्तमान आधुनिकृति समाजों का सामाजिक , आर्थिक , राजनैतिक , सांस्कृतिक , बौद्धिक , शैक्षणिक सभी क्षेत्रों में अनुकरण समाज में परम्पराओं का कोई महत्व नहीं है । एडवर्ड शील्स लिखते हैं , “ परम्परात्मक समाज किसी भी तरह से पूर्णतया परम्परात्मक नहीं है , आधुनिक समाज किसी तरह से परम्परामुक्त नहीं है । ‘ ‘ किसी भी आधुनिकता का निर्माण भी परम्परा के कन्धों व अनुभवों पर ही होता है । इस नाते वह भूत एवं वर्तमान के बीच एक कड़ी है । प्रो ० शील्स परम्परा व आधुनिकता को एक सातत्यता के रूप में स्वीकार करते हैं । आधुनिक समाज भी पूर्णतः आधुनिक नहीं है , विज्ञान की तरह ही आधुनिकीकरण भी खुले उद्देश्य वाला प्रक्रिया है । इसकी प्रकृति उद्विकासीय है , जो स्वतः परिवर्तित होती और आगे बढ़ती रहती है । अतः कोई भी समाज यह दावा नहीं कर सकता कि उसका पूरी तरह से आधुनिकीकरण हो गया है या वह पूरी तरह आधुनिक है ; वरन् वहाँ आधुनिकीकरण एक मात्रा में मौजूद है ।

 

संस्कृतिकरण एवं पश्चिमीकरण में अंतर :                      संस्कृतिकरण तथा पश्चिमीकरण की प्रकृति को देखने से स्पष्ट होता है कि यह दोनों प्रक्रियाएँ इस दृष्टिकोण से परस्पर सम्बन्धित हैं कि यह दोनों एक – दूसरे का कारण और परिणाम हैं । एक ओर पश्चिमी प्रौद्योगिकी तथा सामाजिक मूल्यों ने संस्कृतिकरण को प्रोत्साहन दिया , जबकि दूसरी ओर , संस्कृतिकरण में वृद्धि होने से पश्चिमी संस्कृति के मूल्यों का अधिक तेजी से प्रसार होने लगा । इसके बाद भी एम ० एन ० श्रीनिवास ने संस्कृतिकरण तथा पश्चिमीकरण की अवधारणा से संबंधित अनेक भिन्नताओं को स्पष्ट किया है ।

 

  1. संस्कृतिकरण एक स्वदेशी अथवा आंतरिक प्रक्रिया है जो भारत की परम्परागत सामाजिक संरचना में होने वाले आन्तरिक परिवर्तनों को स्पष्ट करती है । दूसरी ओर , पश्चिमीकरण एक विदेशी प्रक्रिया है तथा इसका संबंध इन बाह्य प्रभावों से है जिन्होंने हमारे समाज में अनेक परिवर्तन उत्पन्न किये ।

 

  1. संस्कृतिकरण की प्रक्रिया का क्षेत्र सीमित है क्योंकि यह केवल जातिगत गतिशीलता से ही संबंधित है । पश्चिमीकरण एक व्यापक प्रक्रिया है जिसने भारतीय जीवन के सभी पक्षों को किसी न किसी रूप में प्रभावित किया है ।

 

  1. मूल रूप से संस्कृतिकरण का आधार धार्मिक है । इसके द्वारा निम्न जातियाँ उच्च जातियों के धार्मिक कर्मकाण्डों और पवित्रता संबंधी आचरणों को अपनाकर अपनी स्थिति को ऊँचा उठाने का प्रयत्न करती है । इसके विपरीत , पश्चिमीकरण का आधार लौकिक और वैज्ञानिक है ।

 

  1. संस्कृतिकरण तथा पश्चिमीकरण के मूल्यों की प्रकृति भी एक – दूसरे से भिन्न है । संस्कृतिकरण के मूल्य हिन्दुओं की वृहत् परम्पराओं को प्रोत्साहन देते हैं तथा मांस और मदिरा के

 

प्रयोग को अपवित्र मानकर उन पर रोक लगाते हैं , पश्चिमीकरण के मूल्य इस अर्थ में आधुनिक है कि यह व्यक्तिगत स्वतंत्रता , समानता , सामाजिक न्याय और तर्कपूर्ण व्यवहारों को अधिक महत्त्व देते हैं । –

 

  1. संस्कृतिकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जो निम्न जातियों तथा जनजातियों में उच्च जातियों की जीवन शैली के समान होने वाले परिवर्तनों को स्पष्ट करती है । दूसरे शब्दों में , इसका प्रभाव निम्न जातियों तथा जनजातियों तक ही सीमित होता है । दूसरी ओर , प्रभाव के दृष्टिकोण से पश्चिमीकरण एक व्यापक प्रक्रिया है क्योंकि इसने भारतीय समाज में सभी वर्गों , जातियों तथा समुदायों के जीवन को प्रभावित किया है ।

 

  1. विभिन्न क्षेत्रों में संस्कृतिकरण के आदर्श एक – दूसरे से भिन्न होते हैं । किसी क्षेत्र में इसका संबंध उच्च जातियों की जीवन शैली के अनुकरण से है तो किसी क्षेत्र में प्रभु जाति के रूप में कोई पिछड़ी या निम्न जाति भी संस्कृतिकरण का आदर्श हो सकती है । दूसरी ओर , पश्चिमीकरण का एक ही आदर्श है अर्थात् पश्चिमी जीवन शैली तथा मूल्यों को ग्रहण करना ।

 

  1. संस्कृतिकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जो जातीय संस्तरण में व्यक्ति की स्थिति में पदमूलक , परिवर्तन करती है । इस प्रकार संस्कृतिकरण से उदग्र गतिशीलता को प्रोत्साहन मिलता है । इसके विपरीत , पश्चिमीकरण के प्रभाव से लोगों को जातीय प्रस्थिति में किसी तरह का परिवर्तन नहीं होता ।

 

  1. भारतीय इतिहास में संस्कृतिकरण की प्रक्रिया किसी न किसी रूप में सदैव विद्यमान रही है । इसके विपरीत , पश्चिमीकरण की प्रक्रिया का आरम्भ ब्रिटिश शासन के समय से हुआ तथा स्वतंत्रता के बाद इसमें अधिक तेजी से वृद्धि हुई ।

 

 

लौकिकीकरण या धर्मनिरपेक्षीकरण :        

 

        लौकिकीकरण अथवा धर्मनिरपेक्षीकरण वह प्रक्रिया है जिसके परिणामस्वरूप किसी समाज में धर्म के आधार पर सामाजिक व्यवहार में भेदभाव समाप्त किया जाता है । धर्मनिरपेक्षीकरण जो बुद्धिवाद पर आधारित है , आधुनिकीकरण के लिए आवश्यक है , चूँकि प्रत्येक समाज अब आधुनिकृत होना चाहता है , इसलिए वह धर्मनिरपेक्षीकरण को आश्रय दे रहा है । स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत में जो भी राज्य धर्म निरपेक्ष राज्य नहीं था , आज वहाँ भी धर्मनिरपेक्षीकरण की बात की जा रही है । लौकिकीकरण में धर्म की पुनर्व्याख्या , बुद्धिवाद और उदारवाद का सीधा संबंध है । डॉ ० श्रीनिवास ने इस प्रक्रिया का विस्तृत विश्लेषण किया है । धर्मनिरपेक्षीकरण की प्रक्रिया समाज की एक मूलभूत विशेषता हो गयी है । आज से कुछ दशाब्दी पूर्व भारत में जिन कृत्यों को धार्मिक तथा पवित्र समझा जाता था आज उन्हें व्यर्थ के रूढ़िवादी अतार्किक व्यवहार के रूप में देखा जाता है , एक धर्म तथा जाति का जो विशेष प्रभाव स्वीकार किया जाता रहा है , अब वह उस प्रकार से प्रभावी नहीं रहा है । विभिन्न विचारकों का मत है कि भारत में धर्मनिरपेक्षीकरण की प्रक्रिया को गति देने का क्षेय अंग्रेजी शासन को है । अंग्रेजी शासन अपने साथ भारतीय सामाजिक जीवन और संस्कृति के लौकिकीकरण की प्रक्रिया भी लाया । यह प्रवृति संचार साधनों के विकास और नगरों की बढ़ी हुई स्थानमूलक गतिशीलता और शिक्षा के प्रसार के साथ – साथ क्रमशः और भी प्रबल हो गई । दोनों महायुद्धों और महात्मा गाँधी के नागरिक अवज्ञा आन्दोलनों ने जन – साधारण के राजनीतिक और सामाजिक दृष्टि से सक्रिय तो किया ही , लौकिकीकरण की वृद्धि में भी योग दिया । सन् 1947 के बाद भारत में धर्मनिरपेक्षीकरण की प्राप्ति का जो प्रत्यल किया है , वह वास्तव में उल्लेखनीय है । स्वतंत्र भारत के संविधान में यह लिखा हुआ है कि ‘ भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य होगा । ‘ कानून  की दृष्टि में भी नागरिकों में धर्म , जाति , लिंग आदि के आधार पर कोई भेद भाव नहीं होगा । संसद सभा विधानसभाओं के लिये चुनाव बालिग मताधिकार के आधार पर होगा और भारतीय भूभागों का विकास निष्पक्ष योजनाबद्ध कार्यक्रमों के आधार पर सम्पादित होगा ।

 

धर्मनिरपेक्षीकरण का अर्थ :             शाब्दिक अर्थ की दृष्टि से यह वह प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति के अस्तित्व , महत्त्व , पहचान या विकास का धर्म के साथ कोई संबंध नहीं जोड़ा जाता है धर्मनिरपेक्षीकरण का प्रत्यक्ष संबंध तार्किक दृष्टिकोण से है । इसके अन्तर्गत विश्व की व्याख्या विशुद्ध चिन्तन के रूप में प्रस्तुत की जाती है धर्मनिरपेक्षीकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा परम्परागत विश्वासों तथा धारणाओं के स्थान पर तार्किक ज्ञान का प्रादुर्भाव होता है । प्रो ० श्रीनिवास ने स्पष्ट लिखा है कि ‘ धर्मनिरपेक्षीकरण ‘ में यह बात निहित है कि जिसे पहले धार्मिक माना जाता था , अब वह वैसा नहीं माना जाता है उन्होंने इसका स्पष्टीकरण देते हुए लिखा है कि , उसमें विभेदीकरण की एक प्रक्रिया भी निहित है जिसके परिणामस्वरूप समाज के विभिन्न आर्थिक , राजनीतिक , कानूनी तथा नैतिक पक्ष एक दूसरे के मामले में अधिकाधिक सावधान होते जा रहे हैं । इस प्रकार श्रीनिवास ने लौकिकीकरण को मात्र धर्मनिरपेक्षता के अर्थ में नहीं समझा । इनके अनुसार लौकिकीकरण की दो विशेषताएँ प्रमुख हैं

 

  1. प्रथम तो यह प्रक्रिया इस भावना से सम्बन्धित है कि हम पहले जिसे धार्मिक मानते थे उसे अब धर्म की श्रेणी में नहीं रखते ।
  2. दूसरी विशेषता यह है कि इस प्रक्रिया के अन्तर्गत हम प्रत्येक तथ्य को तर्क बुद्धि से देखने और समझने का प्रयत्न करते हैं । परम्परागत रूप से हमारे सामाजिक जीवन में इन दोनों विशेषताओं का नितान्त अभाव था । कोई व्यक्ति सामाजिक व्यवस्था की सार्थकता के बारे में तर्क नहीं कर सकता था क्योंकि सम्पूर्ण व्यवस्था को धर्म से मिला दिया गया था । कन्साईज आक्सफोर्ड शब्दकोष में लौकिकीकरण की कई परिभाषाएँ दी गई हैं । इन परिभाषाओं को लोकवाद , धार्मिक विश्वासों के प्रति संदेहवाद तथा धार्मिक शिक्षा के प्रति विरोधाभास के रूप में बतलाया गया है । तृतीय अन्तर्राष्ट्रीय शब्द कोष में लौकिकवाद की निम्न परिभाषा दी गई है । ” ( लौकिकवाद ) सामाजिक आचारों की एक ऐसी व्यवस्था है जो इस सिद्धान्त पर आधारित है कि आचार संबंधी मापदण्ड तथा व्यवहार विशेष रूप में धर्म से हटकर वर्तमान जीवन तथा सामाजिक कल्याण पर आधारित होने चाहिये । ” बाटर हाउस ने ” लौकिकीकरण की परिभाषा एक ऐसी वैचारिकी के रूप में की है जो जीवन तथा आचार व्यवहार का एक सिद्धान्त प्रस्तुत करती है , जो धर्म द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त के विरुद्ध है । इसका सार भौतिकवादी है । इसकी मान्यता यह है कि मानवीय कल्याण को केवल राष्ट्रीय प्रयासों के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है । ” लेकिन बेकर ने यह मानने से इंकार किया है कि लौकिकवाद एक धर्मविरोधी अवधारणा है । इनका कहना है कि “ लौकिक ” ” अपवित्र ” या इसी प्रकार के अन्य शब्दों का पर्यायावाची नहीं है । ‘ ‘ ब्लेकशील्ड ने बेकर के इस विचार का समर्थन किया है । इन्होंने बतलाया है कि ” लौकिकवाद धार्मिक संस्थाओं का विरोध नहीं करता । नही यह विधि , राजनीतिक तथा शिक्षा संबंधी प्रक्रियाओं में धार्मिक उप्रेरणाओं का विरोधी है । इसमें तो केवल मनोवृत्तियों के प्रकार्यात्मक विभाजन पर बल दिया जाता है अर्थात् विभिन्न प्रकार की सामाजिक क्रियाओं में शक्तियों का सामाजिक विभाजन । ” ब्लेकशील्ड का कहना है कि धर्म , शिक्षा तथा विधि को एक दूसरे के क्षेत्र में प्रवेश नहीं करना चाहिये और न ही अपने क्षेत्र को सीमाओं से बाहर जाना चाहिये । जिस सीमा तक धर्म अपनी ही सीमाओं के

अन्दर रहता है वहाँ तक लौकिकवाद की अवधारणा धार्मिक निरपेक्ष मानी जा सकती है । यह न तो धार्मिकता का समर्थन करता है और न ही विरोध । इस प्रकार लौकिकवाद सामाजिक समस्याओं के क्षेत्र में वह स्थिति है जिसमे विधि तथा शिक्षा धार्मिक संस्थाओं तथा धार्मिक उत्प्रेरणाओं को स्वतंत्र होते हैं । लौकिकवाद तो एक ऐतिहासिक विकास की अवस्था है जिसमें विधि तथा शिक्षा का धर्म पर आधारित न होना स्थापित हो जाता है । इस प्रकार यदि लौकिकवाद की विभिन्न परिभाषाओं पर विचार किया जाय तो ऐसे अनेक विषयों की सूची बनायी जा सकती है जिनको इसके अन्तर्गत माना जाता है । जैसे : वैज्ञानिक मानववाद , प्रकृतिवाद और भौतिकवाद , अजेयवाद और प्रत्यक्षवाद , बौद्धिकवाद , प्रजातंत्रवाद तथा साम्यवाद , आशावाद तथा प्रगतिवाद , नैतिक सापेक्षवाद व शून्यवाद आदि ।

 

धर्मनिरपेक्षीकरण के आवश्यक तत्व               :

 

  1. तार्किकता : धर्मनिरपेक्षीकरण का प्रत्यक्ष संबंध तार्किक दृष्टिकोण से है । इसके अन्तर्गत प्रघटना की संख्या विशुद्ध रूप में की जाती है । समाज में जितने भी व्यवहार तर्कहीन हैं , उन्हें इस प्रक्रिया द्वारा नकारा जाता है । इसी कारण इस प्रक्रिया में रूढ़िवादी , अतार्किक , परम्परागत विश्वासों तथा धारणाओं के स्थान पर तार्किक ज्ञान का प्रादुर्भाव होता है । इसमें विभेदीकरण की एक प्रक्रिया भी निहित है जिसके परिणामस्वरूप समाज के विभिन्न आर्थिक , राजनैतिक , कानूनी , नैतिक और सामाजिक आदि अंग एक दूसरे से अधिकाधिक स्वतंत्र होते जाते हैं ।

 

  1. कार्य – कारण संबंध : धर्मनिरपेक्षीकरण में एक अन्य आवश्यक तत्व ‘ कार्य करण ‘ सम्बन्धों का प्रदर्शन है जिसे बुद्धिवाद से भी सम्बोधित किया जाता है । प्रो ० श्रीनिवास के अनुसार इसके अन्तर्गत पारम्परिक विश्वासों तथा धारणाओं के स्थान पर आधुनिक ज्ञान की स्थापना निहित है । धर्मनिरपेक्षीकरण की प्रक्रिया की यह विशेषता है कि यह पारस्परिक विश्वासों तथा तर्कहीन धारणाओं को यथासंभव नष्ट करने का प्रयत्न करती है । ऐसे विचार जो पारस्परिक हैं व जिन्हें कार्य कारण संबंध की कसौटी पर नहीं बक्सा जा सकता , वे अपने आप इस प्रक्रिया द्वारा समाप्त हो जाते हैं । यदि उनका अस्तित्व किसी प्रकार बना भी रहता है तो उन्हें उचित जनमत का समर्थन नहीं मिल पाता है ।

 

  1. पवित्रता – अपवित्रता की धारणा : हिन्दू धार्मिक आचरण में पवित्रता और अपवित्रता की धारणा प्रमुख रही है । इसी आधार पर विभिन्न जातियों की दूरी निश्चित होती है । इसी आधार पर जातियों में स्पर्श , विवाह और भोजन निषेध रहे हैं प्रत्येक हिन्दू को सामान्य जीवन में पवित्रता और अपवित्रता की धारणाएँ और कार्य जुड़े हुए हैं । जैसे : दाढ़ी बनाना ब्राह्मणों के लिये अपवित्र कार्य था । पिछले वर्षों में ये धारणाएँ क्षीण हुई हैं पवित्रता के नियमों का स्थान स्वास्थ्य और स्वच्छता के नियमों ने ले लिया । शिक्षित ब्राह्मणों और कट्टपंथियों ने धीरे – धीरे कट्टर नियमों के स्थान पर बुद्धि संगत व्याख्या को महत्त्व दिया है और पवित्रता को स्वास्थ्य नियमों का दूसरा रूप कहा है । श्रीनिवास ने मैसूर की ब्राह्मण स्त्रियों का उदाहरण दिया है और कहा है कि शिक्षित स्त्रियाँ अपवित्रता के बारे में बहुत अधिक चिंतित नहीं है , परन्तु स्वास्थ्य के नियमों को महत्त्व दे रही है । संयुक्त परिवार से अलग होने पर कर्मकाण्डों के इस रूढ़ रूप को छोड़ देती हैं । लौकिकीकरण को प्रक्रिया से अनेक कर्मकाण्डों को त्याग दिया गया है । नामकरण और अन्य कर्मकाण्ड जैसे : विधवा का मुण्डन अब प्रचलित नहीं है , संस्कारों को छोड़ने व संक्षिप्त करने की प्रक्रिया के साथ – साथ संस्कारों को मिला भी दिया जाता है जिससे व्यक्त जिन्दगी में समयाभाव को कम किया जा सके । यथा विवाह के साथ दो दिन पूर्व उपनयन संस्कार भी हो जाता है । — 

84 भारत में सामाजिक परिवर्तन : दशा एवं दिशा विवाह संस्कार भी संक्षिप्त होता जा रहा है सर्वसंस्कार युक्त ब्राह्मण – विवाह जिसमें पहले 5 से 7 दिन लगते थे अब एक दिन या कुछ घण्टों में ही निपटा दिया जाता है । विवाह के समय निकट संबंधी ही उपस्थित रहते हैं , अन्य अतिथि केवल स्वागत समारोह में भाग लेते हैं । वर वधू को ऊँचे आसन पर बिठला कर संगीत आदि सुनना , बैण्ड बजवाना , अतिथियों को जलपान कराना आदि क्रियाएँ महत्त्वपूर्ण हो गयी हैं । परम्परागत व्यवस्था में जैसे सप्तवादी में 7-8-9 घण्टे लग जाते थे । अब बहुत जल्दी ही इन कार्यों से वर वधू को निवृत्त कर दिया जाता है ।

 

धर्मनिरपेक्षीकरण के उद्देश्य :

 

  1. धर्मनिरपेक्षीकरण का उद्देश्य धर्मनिरपेक्षता की प्राप्ति है । धर्मनिरपेक्षता से ताप्तर्य एक निश्चित प्रकार के व्यवहार से है जबकि धर्मनिरपेक्षीकरण एक प्रक्रिया है जो उस व्यवहार प्रतिमान को प्राप्त करने में मदद देती है । धर्मनिरपेक्षता व्यवहार की उस दशा को कहेंगे जहाँ राज्य , नैतिकता तथा शिक्षा आदि के ऊपर धर्म का अनावश्यक प्रभाव नहीं होता । अमेरिका में धर्मनिरपेक्षीकरण का अर्थ होता है कि समाज में राज्य तथा चर्च बिना एक दूसरे को प्रभावित किए हुए अपने – अपने अस्तित्व को बनाए रखें । यही कारण है कि जो शिक्षण संस्थाएँ वहाँ चर्च द्वारा चलाई जाती हैं राज्य सरकार उसे अनुदान नहीं देती है । भारतवर्ष में धर्मनिरेपक्षता का अर्थ पश्चिम में लिये गये अर्थ से कुछ भिन्न है । यहाँ धर्म निरपेक्षता का अर्थ होता है कि राज्य किसी भी धर्म को आश्रय नहीं देता , लेकिन इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि यदि कोई धार्मिक संस्था किसी शिक्षण संस्था को चलाती है तो राज्य सरकार उसे अनुदान नहीं देगी । सांस्कृतिक विकास के लिये तथा विभिन्न सम्प्रदायों के सह – अस्तित्व के लिए यदि आवश्यक हुआ तो राज्य सरकार विभिन्न धार्मिक संस्थाओं को निर्देशित कर सकती है । जैसे : केन्द्र सरकार द्वारा गौ – हत्या पर प्रतिबन्ध है जबकि कुछ धर्म इस प्रकार के प्रतिबन्ध को अवांछनीय मानते हैं । भारत में इस बात की व्यवस्था है कि कानून तथा आग्रह के माध्यम से धर्म के दोषों को दूर किया जाय । जैसे : हिन्दू धर्म के विभिन्न दोष दूर किये गये । इस्लाम धर्म के दोषों को भी इस प्रकार दूर किया जा । अब भारत में धर्म के प्रति विद्यमान परम्परागत दृष्टिकोण में परिवर्तन आया है । यद्यपि मुसलमानों का ‘ परसनल लाँ ‘ अभी भी आधुनिकीकृत होना है , भारत में धर्मनिरपेक्षता के मार्ग में भारतीय समाज स्वयं बाधक रहा है । हिन्दू और मुसलमान दोनों सम्प्रदाय धर्म के माध्यम से अपने – अपने उद्देश्यों को पूरा करते रहे हैं । स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अब विभिन्न राजनीतिक दल धर्म के माध्यम से राजनीतिक उद्देश्यों को पूरा कर रहे हैं , जो धर्म निरपेक्षता के मार्ग में बाधक हैं । सरकारी तथा विरोधी दल कोई भी पूर्ण धर्मनिरपेक्षता के लिए सक्रिय नहीं दीखता । जवाहर लाल नेहरू ने 14 अगस्त , 1947 के सत्ता मिलने के समय कहा था कि इस अर्ध रात्रि के समय जब पूरा विश्व सो रहा है , भारत स्वतन्त्र जीवन के लिए जागेगा । इस स्वतंत्र जीवन का आधार धर्मनिरपेक्षता होगा । वह राष्ट्र अधिक दिनों तक जीवित नहीं रह सकता जो साम्प्रदायिकता तथा धर्म पर आधारित होगा । भारत केवल एक धर्म निरपेक्ष तथा प्रजातांत्रिक राज्य होगा जहाँ प्रत्येक नागरिक को चाहे वह किसी भी धर्म का अनुयायी क्यों न हो , उसे समान अधिकार प्राप्त होंगे ।

 

  1. धर्मनिरपेक्षीकरण का दूसरा उद्देश्य धर्मनिरपेक्ष राज्य की प्राप्ति है । धर्मनिरपेक्ष राज्य वह है जहाँ प्रत्येक नागरिक को समान अवसर समानता के आधार पर प्राप्त है और जहाँ समाज नागरिकों के कार्य – कलापों में धर्म के आधार पर व्यवधान नहीं डालता । डी ई स्मिथ ने धर्मनिरपेक्ष राज्य की व्याख्या करते हुए लिखा है कि वह राज्य जो लोगों को धर्म के स्वतंत्रता की गारंटी देता है , प्रत्येक धर्म अनुयायी को नागरिक की मान्यता देता है वह मात्र संवैधानिक रूप से किसी विशेष धर्म से सम्बन्धित नहीं होना चाहिये और न ही वह किसी धर्म विशेष को प्रगति और सकता

सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रियाएँ 85 – अवनति से सम्बन्धित हो । धर्मनिरपेक्ष राज्य का शाब्दिक अर्थ है कि वह राज्य जो किसी धर्म विशेष में आस्था नहीं रखता है । अतः धर्मनिरपेक्ष राज्य एक व्यक्ति को एक नागरिक के रूप में देखता है न कि किसी विशेष धार्मिक समूह के सदस्य के रूप में । धर्मनिरपेक्ष राज्य में धर्म के आधार पर लोगों के अधिकार तथा कर्त्तव्य की व्याख्या नहीं होती । भारतीय संविधान का अनुच्छेद 15 की धारा एक में यह घोषणा की गई है कि राज्य धर्म , प्रजाति , जाति , लिंग तथा जन्म स्थान के आधार पर लोगों में भेदभाव नहीं करेगा । इस प्रकार हम देखते हैं कि धर्मनिरपेक्षीकरण के कारण भारत एक ऐसे धर्मनिरपेक्ष राज्य के रूप में प्रवतरित हुआ है जहाँ धार्मिक भेदभाव है । वैसे अब धर्म का समाज में वह स्थान नहीं रहा जो पाँच दशाब्दी पूर्व था ।

 

 

धर्मनिरपेक्षीकरण की विशेषताएँ :

 

  1. बुद्धिवाद का विकास : धर्मनिरपेक्षीकरण के कारण प्रत्येक घटना के लिये धर्म पर आश्रित रहने की बात समाप्त हो जाती है । आदिम व्यक्ति प्रत्येक सामाजिक घटना का धर्म तथा अलौकिक शक्ति की देन मानता था लेकिन जैसे – जैसे बुद्धिवाद का विकास हुआ कार्य कारण सम्बन्धों की व्याख्या बढ़ी और वास्तविक कारणों की जानकारी के कारण धर्म का महत्त्व कुछ कम हुआ । अब प्रत्येक व्यक्ति तार्किक व्यवहार को उचित मानता है ।

 

  1. धार्मिकता में ह्रास : धर्मनिरपेक्षीकरण के कारण धार्मिक संस्थाओं का महत्त्व अब कम हुआ है । इसका कारण यह है कि धर्म के नाम पर अब उच्च या निम्न प्रस्थिति का निर्धारण नहीं होता । पहले जो व्यक्ति जितने अधिक धार्मिक कर्मकाण्ड करता था उसे उतना हो अधिक सम्मान दिया जाता था । लेकिन अब उसी व्यक्ति को पिछड़ा हुआ व्यक्ति कहा जाता है जो अपने कार्यों की सफलता असफलता को धर्म में ढूँढ़ता है । अतः स्पष्ट है कि जैसे – जैसे धर्मनिरेपक्षीकरण की प्रक्रिया आगे बढ़ती है धर्म का महत्त्व कम होता है , और इस प्रकार धार्मिकता में ह्रास होता है ।

 

  1. बढ़ता हुआ विभिन्नीकरण : पहले प्रत्येक घटना के पीछे धर्म को प्रभावी कारक मान लिया जाता था और प्रत्येक घटना की व्याख्या धर्म के ही आधार पर की जाती थी चाहे वह अपराध हो या बीमारी , मृत्यु हो या प्राकृतिक प्रकोप , लेकिन अब प्रत्येक घटना के अलग – अलग और वास्तविक कारणों की खोज की जाती है जिसमें सामान्यतः धार्मिक और आध्यात्मिक शक्ति के प्रभाव को कम से कम स्वीकारा जाता है । इस स्थिति के कारण विभिन्नीकरण की मात्रा बढ़ जाती है । विशिष्ट प्रकार के कार्य करने वाले अलग – अलग लोग होते हैं । अतः उनमें दूरी स्वाभाविक है ।

 

  1. आधुनिकीकरण की प्राप्ति में सहायक : वर्तमान में आधुनीकरण की लहर बड़े जोरों पर थी । प्रत्येक समाज अब अपने को आधुनिक कहलाना चाहता है जिसके लिये आवश्यक हो जाता है कि परम्परागत व्यवहारों में परिवर्तन लाया जाये । धर्मनिरपेक्षीकरण भी परम्परागत व्यवहारों को बदलता है । यथा – स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व भारत में विभिन्न धर्म और धर्मवाद की भावना सूत्र फलफूल रही थी । किन्तु स्वतंत्रता संग्राम से ही जो धर्मनिरपेक्षीकरण की स्वाभाविक लहर उठी उसने इस प्रयास को बहुत कम कर दिया । स्वतंत्रता प्राप्त होने पर ज्यों ही भारत ने अपने को धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित किया , यहाँ के परम्परागत व्यवहार प्रतिमानों में आमूल परिवर्तन आए । वर्तमान में देश में ऐसे परिवर्तन हो रहे हैं जो सामाजिक विकास और आधुनिकीकरण के लिये आवश्यक है । अतः कहा जा सकता है कि धर्मनिरपेक्षीकरण आधुनिकीकरण में सहायक है ।

 

  1. समानता का विकास : प्राचीन काल में भारतवर्ष में अनेक प्रकार की सामाजिक विभिन्नताएँ पाई जाती थीं , भारत में धर्म , जाति , लिंग आदि के आधार पर विस्तृत विभेद किया जाता था । एक ही प्रकार के अपराध करने पर भिन्न – भिन्न धर्मों में भिन्न – भिन्न दण्ड का प्रावधान था । लेकिन धर्मनिरपेक्षीकरण के कारण इस कार का भेदभाव स्वतः समस्त हो जाता है और सभी लोगों को समान अवसर सुलभ हो जाते हैं। – 
  2. एक वैज्ञानिक अवधारणा : धर्मनिरपेक्षीकरण एक वैज्ञानिक अवधारणा है । धर्म के प्रभाव के कारण कार्य – संबंध का प्रदर्शन उचित नहीं । अतः लोग अतार्किक हो जाते हैं । धर्मनिरपेक्षीकरण तार्किकता पर बल देता है और उसी चीज को सही कहता है जिसमें कार्य कारण संबंधों का प्रदर्शन हो ।

 

  1. मानवतावादी और तटस्थ अवधारणा : धर्मनिरपेक्षीकरण एक ऐसी अवधारण है जिसमें मानव को मानव मानते हुए व्यवहार की बात कही गई है । ऐसा नहीं की किसी भी काल्पनिक जैसे जाति के आधार पर मानव के साथ अमानवीय व्यवहार की बात करती हो । यह प्रक्रिया मानवतावादी व्यवहार को प्रोसाहित करती है । साथ ही एक तटस्थ अवधारणा है जिसमें एक तरफ धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं पाया जाता तो साथ ही किसी भी धर्म को स्वीकारने की पूर्ण स्वतंत्रता भी दी गई है ।

 

  1. धर्मनिरपेक्षीकरण के प्रकार के कारक : भारत के धर्मनिरपेक्षीकरण का प्रारम्भ उस समय हुआ जब धर्म पूरे जोर से समाज को प्रभावित कर रहा था । यह काल था भारत में अंग्रेजी शासन आगमन का । अंग्रेजों ने भारत में अपने साम्राज्य की स्थापना व नींव गहरी करने के जो प्रयत्न किये उनके परिणामस्वरूप स्वतः ही नगरीकरण , औद्योगीकरण , संस्कृतिकरण जैसी प्रक्रियाओं के साथ धर्मनिरपेक्षीकरण की प्रक्रिया भी प्रारम्भ हुई । अंग्रेजों ने अपने पैर जमाने और व्यापार बढ़ाने के लिये जो प्रयत्न किये उन्होंने धर्म निरपेक्षीकरण की प्रक्रिया को प्रोत्साहित किया । जैसे : अंग्रेजों ने बड़े – बड़े उद्योग धन्धों , बन्दरगाहों , नगरों यातायात के साधनों का विकास किया जिससे स्वतः ही धर्मसापेक्षता को ठेस पहुंची , जातिगत प्रतिबन्ध शिथिल पड़ने लगे और संस्कृतिकरण की प्रक्रिया के बराबर ही धर्मनिरपेक्षीकरण की प्रक्रिया चलने लगी ।

 

भारत में धर्मनिरपेक्षीकरण के प्रसार के निम्न कारण रहे :

 

  1. पश्चिमीकरण : भारत में धर्म निरपेक्षीकरण की प्रक्रिया को प्रारम्भ कर उसे आगे बढ़ाने का श्रेय पश्चिमीकरण को है । पाश्चात्य संस्कृति ने भौतिकता तथा व्यक्तिवाद को इतना अधिक बढ़ावा दिया है कि उसके कारण धर्म तथा उससे सम्बन्धित व्यवहारों में ह्रास स्वाभाविक है । भारतवर्ष परम्परागत देश के नाम से विख्यात रहा है । परम्परा का धर्म से प्रत्यक्ष संबंध है । पश्चिमीकरण की प्रक्रिया ने परम्परा का हनन कर उन व्यवहारों को अपनाने पर बल दिया जो तार्किक , व्यावहारिक और लाभकारी हों । यही कारण है जिसने धर्मनिरपेक्षीकरण की प्रक्रिया को बढ़ावा दिया है ।

 

  1. नगरीकरण तथा औद्योगीकरण : नगरों में रहने वाले लोग विभिन्न प्रकार के औद्योगिकीय आविष्कारों के सम्पर्क में रहने के कारण धार्मिक अंधविश्वासों से अलग होते जाते हैं । जैसे – जैसे नगरों में विभिन्न प्रकार के औद्योगिक संस्थान स्थापित होते जा रहे हैं , वैसे – वैसे जनसंख्या का घनत्व बढ़ रहा है । अब यह आवश्यक नहीं रहा कि एक स्थान पर एक ही धर्म की प्रधानता हो और उसी धर्म के अनुयायी अधिक संख्या में वहाँ निवास करें , नगरों में तथा औद्योगिक केन्दों पर विभिन्न धर्मों के अनुयायी , साथ – साथ काम करते हैं तथा विचारों का आदान प्रदान करते हैं । इस स्थिति के कारण धर्म विशेष की कट्टरता समाप्त होती है तथा सह – अस्तित्व की भावना विकसित होती है । अतः कहा जा सकता है कि नगरीकरण तथा औद्योगीकरण धर्मनिरपेक्षीकरण की प्रक्रिया में सहायक कारक हैं ।

 

  1. यातायात तथा संचार के विकसित साधन : जब यातायात के साधन विकसित नहीं थे लोग दूर – दूर के स्थानों पर चाहते हुए भी नहीं जा सकते थे । एक ही स्थान पर रहने के कारण वे अपनी धार्मिक भावना को कायम रखते हुए उसी के अनुरूप आचरण किया करते थे । संचार के साधनों में विकास न होने के कारण अन्य स्थानों तथा समाजों में क्या हो रहा है , इसकीजानकारी लोगों को नहीं हो पाती थी । यह भी एक कारण था कि लोग धार्मिक कट्टरता को बनाए रखते थे । लेकिन जैसे जैसे धार्मिक आचरण तथा कर्म काण्डों में परिवर्तन हो रहा है अब धर्म के आधार पर छुआछूत का भेदभाव या खानपान में भेदभाव तथा उसमें कठोरता अधिक संभव नहीं रही । यदि विभिन्न धर्मों के अनुयायी ट्रेन या बस में साथ – साथ सफर कर रहे हैं तो , वे चाहते हुए भी छुआछूत पूर्ण व्यवहार को कायम नहीं रख सकते क्योंकि उन्हें सभी मुसाफिरों की जाति , धर्म का भी ज्ञान नहीं होता है । एक समाज धर्म विशेष के परम्परागत व्यवहार प्रतिमान में यदि कोई छूट देता है तो उसकी जानकारी अन्य समाजों को संचार के साधनों के माध्यम से हो जाती है , अतः वहाँ भी परिवर्तन की बात प्रारम्भ हो जाती है । अब ग्रामीण छोटे छोटे कार्यों के लिये नगर की तरफ चल पड़ते हैं । वहाँ के रहन – सहन को देखकर वे प्रभावित होते हैं तथा अपने परम्परागत व्यवहार प्रतिमान ( जिस पर धर्म की प्रधानता होती है ) को छोड़ने के लिये तैयार हो जाते हैं । अब ग्रामीण व्यक्ति भी उन सभी चीजों को स्वीकार करने के लिये तैयार हैं जो उनके लिये लाभकारी हैं । भले ही उसका संबंध किसी अन्य धर्म से ही क्यों न हो ।

 

  1. वर्तमान शिक्षा प्रणाली : प्राचीन शिक्षा में विद्यार्थियों को धार्मिक आधार सिखाये जाते थे । शिक्षा धर्म प्रचार का माध्यम भी थी । शिक्षा का प्रारूप इस प्रकार का था कि धार्मिक आचारण में तनिक भी ह्रास न होने पाए । जो अपने को धार्मिक नहीं कर सकते थे उनके लिये शिक्षा का प्रबन्ध नहीं था । धार्मिक दृष्टि से पवित्र लोग ही शिक्षा प्राप्त कर सकते थे । अपवित्र लोगों यथा शूद्र और स्पृश्यों के लिए ज्ञान प्राप्ति वर्जित थी । धर्म – शिक्षा का केन्द्र बिन्दु हुआ करता था । ब्राह्मण जिनका प्रमुख कार्य शिक्षा देना होता था : धार्मिक कृत्यों और विधि – विधानों पर अधिक बल देते थे । लेकिन नवीन शिक्षा प्रणाली में धर्म का वह महत्त्वपूर्ण स्थान नहीं रहा । अपवित्र समझे जाने वाले लोगों के लिये विशेष शिक्षा का प्रबन्ध हुआ है । उन्हें प्रोत्साहन देकर पढ़ाया जा रहा है । विभिन्न जातियों तथा धर्मों के अनुयायी साथ – साथ पढ़ते – लिखते , खाते – पीते हैं । इस स्थिति के कारण धार्मिक जटिलता समाप्त हुई है । अब धार्मिक संस्थाओं तथा जाति विशेष द्वारा संचालित शिक्षण संस्थाओं को अपना नाम परिवर्तन करने के लिए कहा जा रहा है , अब जिस तरह शिक्षण संस्थाओं में धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं रहा । उसी प्रकार लिंग भेद पर आधारित भेदभाव भी अब समाप्त होता जा रहा है । अब स्त्रियाँ भी तार्किक हो गई हैं एवं वे हर प्रकार की शिक्षा ग्रहण कर रही हैं । उनका दृष्टिकोण भी विकासवादी और स्वतन्त्रतावादी हो गया है । वे अपने अस्तित्व को पहचानने का प्रयत्न करने लगी हैं , वह समाज के एक आवश्यक अंग के रूप में अपने महत्त्व को आंकने लगी हैं । यह सर्वविदित तथ्य है कि भारत में परम्परागत व्यवहारों का प्रचलन जिसमें धार्मिक व्यवहार प्रमुख है स्त्रियों को घर के बाहर जाने की अनुमति नहीं होती थी । अतः उनका दृष्टिकोण परम्परागत होता था । आधुनिक शिक्षा में उन्हें भी समान अधिकार दिया गया है जिसके कारण उनकी मनोवृत्ति परम्परागत व्यवहारों के प्रति बदल रही और उनका व्यवहार अब धर्म निरपेक्षता की तरफ अधिक हो रहा है । इस प्रकार हम देखते है कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली के कारण धर्म निरपेक्षीकरण की प्रक्रिया तीव्र हो रही है ।

 

  1. धार्मिक एवं सामाजिक सुधार आन्दोलन : विभिन्न धार्मिक तथा सामाजिक सुधारकों ने धर्म तथा उस पर आश्रित जाति – पाँति के भेदभाव तथा धार्मिक पाखण्डों को गलत बतलाया । इस स्थिति के कारण लोगों की धारणा धार्मिक कर्मकाण्डों के प्रति कुछ तटस्थ हुई । विभिन्न धर्म के अनुयायियों को साथ साथ रहने तथा कार्य करने के लिये कहा गया । मध्यकाल के भक्ति आन्दोलन ने भी इस क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान दिया । राजाराम मोहनराय , सैयद अहमद खाँ , रानाडे , स्वामी दयानन्द , गाँधी आदि के प्रयल भी धर्मनिरपेक्षीकरण की प्रक्रिया में सहायक सिद्ध हुए । ब्रह्म समाज , आर्य समाज , प्रार्थना सभा , रामकृष्ण मिशन तथा थियोसोफिकल सोसाइटी

 

का भी प्रयत्न धार्मिक जटिलता को दूर करने में सहायक सिद्ध हुआ । अतः कहा जा सकता है सामाजिक और धार्मिक आन्दोलन भी धर्मनिरपेक्षीकरण में सहायक हुआ है ।

 

  1. सामाजिक विधान : विभिन्न सामाजिक विधान भी धर्मनिरपेक्षीकरण को बढ़ाने में सहायक रहे । हिन्दू विवाह अब धार्मिक संस्कार या धार्मिक कृत्य नहीं माना जाता क्योंकि इसके पीछे विहित धार्मिक कर्तव्यों की अवधारणा गौण होती जा रही है । अब तो यह एक सामाजिक बंधन या समझौता बनता जा रहा है । अतः अब अन्तरजातीय विवाह भी उचित ठहराए जा रहे हैं क्योंकि वैज्ञानिक आविष्कारों ने सभी जातियों में समान एक समूहों के होने की बात को स्पष्ट कर दिया है जिसका उद्देश्य समाज की स्वीकृत ढंग से लिंगीय संतुष्टि प्राप्त करना तथा परस्पर आर्थिक सहयोग करना बनता जा रहा है । अतः स्कीम शुद्धता की बात को भी धार्मिक और इसीलिये त्याज्यनीय माना जाने लगा है । विभिन्न जातियों के लिये आवश्यक नहीं कि वे एक ही धर्म के अनुयायी हों । विधान भी ऐसे विवाहों को उचित मानता है । इसी प्रकार सन् 1955 का अस्पृष्यता निवारण अधिनियम इस बात पर बल देता है कि जिन्हें अभी तक अस्पृश्य कहा गया उनका भी विभिन्न संस्थाओं के साथ वही संबंध है जो अन्य सवर्णों का है । अस्पृश्यता या धर्म के आधार पर लोगों में भेदभाव नहीं होगा । चूँकि भारतीय संविधान भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित कर चुका है इसलिए सरकार का हर प्रयत्न धर्मनिरपेक्षीकरण को आगे बढ़ाने के लिए होगा । प्रजातांत्रिक अवस्था में सरकार चलाने के लिए प्रतिनिधियों का चयन वयस्क मताधिकार होता है जिसमें धर्म और जाति के आधार पर कोई भेदभाव नहीं बरता गया है , बल्कि सभी लोगों , ( ऐतिहासिक रूप से पिछड़े व्यक्तियों ) को समान स्तर लाने के लिए उन लोगों को अतिरिक्त सुविधायें दी जा रही हैं । विभिन्न प्रकार के समाज कल्याण कार्यक्रम भी सरकार द्वारा चलाए जा रहे हैं ताकि धर्मनिरपेक्षता को आगे बढ़ाया जा सके ।

 

  1. राजनीतिक दल : विभिन्न राजनीतिक दल भी धर्मनिरपेक्षीकरण की प्रक्रिया में सहायक सिद्ध हुए हैं जैसे कांग्रेस , समाजवादी दल तथा साम्यवादी दल आदि । कांग्रेस के निर्माण के समय ( 1885 ई ० ) ही उसमें कुछ नेता ऐसे थे जो धर्मनिरपेक्षीकरण को सामाजिक नीति के रूप में स्वीकार कराने के पक्ष में थे । जैसे – जैसे शिक्षित तथा पश्चिमीकृत लोगों की संख्या इस दल में बढ़ती गयी धर्मनिरपेक्षीकरण की माँग भी बलवती होती गयी । पं ० नेहरू जिन्हें कांग्रेस ने स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् अपना नेता चुना धर्मनिरपेक्षीकरण के प्रबल समर्थक थे । डॉ ० राधाकृष्णन ने पण्डित नेहरू के निधन के समय कहा था कि ” पं ० नेहरू का मुख्य उद्देश्य लोगों के मस्तिष्क में से धर्म के अतार्किक तत्वों को निकालना था ताकि लोगों का सामाजिक उत्थान हो सके ।

 

 

 

नगरीकरण ( Urbanization ) :

 

अवधारणा ( Concept ) : नगर की कोई निश्चित परिभाषा देना कठिन है । मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि नगर सामाजिक विभिन्नताओं का वह समुदाय है जहाँ द्वैतीयक समूहों , नियंत्रणों , उद्योग और व्यापार , घनी आबादी और अवैयक्तिक संबंधों की प्रधानता हो । अतः हम कह सकते हैं कि नगर एक ऐसा जन – समुदाय होता है जिसकी अपनी कुछ विशेषतायें होती हैं । नगरों में अनेक प्रकार के उद्योग – धन्धे , व्यापार और वाणिज्य होते हैं । इस कारण देश – विदेश के विभिन्न भागों से प्रत्येक जाति , प्रजाति , धर्म और वर्ग के लोग नगर में आकर बस जाते हैं । इसीलिए नगर की आबादी केवल अधिक ही नहीं होती अपितु उस आबादी में एकरूपता न होकर विभिन्नताएँ होती हैं । भारत में नगरीकरण की प्रक्रिया तथा सामाजिक परिवर्तन में इसकी भूमिका को समझने से पहले नगरीकरण के अर्थ को समझना आवश्यक है । सामान्य शब्दों में कहा जा सकता है 

 

 

89 सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रियाएँ कि नगरीकरण वह प्रक्रिया है , जिसके द्वारा नगरों के क्षेत्र तथा नगरीय जीवन शैली का विस्तार होता जाता है । स्पष्ट है कि नगरीकरण को समझने के लिए सर्वप्रथम नगर के अर्थ को समझना आवश्यक है । नगर की कोई परिभाषा ऐसी नहीं जो सर्वस्वीकृत तथा सर्वसामान्य हो , यह एक कठिन कार्य है । इसे इसकी कुछ विशेषताओं के आधार पर समझा जा सकता है

 

  1. अधिक जनसंख्या
  2. अधिकतम जनसंख्या घनत्व
  3. द्वितीयक समूह की प्रधानता
  4. विभिन्न व्यवसाय से जुड़े लोग
  5. व्यक्तिवादिता
  6. स्वार्थ प्रधानता
  7. दिखावटीपन
  8. जटिलता ।

 

अतः विभिन्न विद्वानों ने नगरीकरण की अवधारण को नगर की उपर्युक्त विशेषताओं के आधार पर स्पष्ट किया है । ई ० ई ० वर्गेल ( E.E. Bergell ) के अनुसार “ ग्रामीण क्षेत्रों का नगरीय क्षेत्रों में बदलने की प्रक्रिया का नाम ही नगरीकरण है । ” ( We call urbanization the process of transforming rural into urban areas • Bergell , Urban Sociology . Pl . ) थॉम्पसन ( W. Ihompson ) के अनुसार ” नगरीकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा कृषि से सम्बन्धित समुदाय के लोगों धीरे – धीरे ऐसे समूहों के रूप में बदलने लगते हैं जिनकी क्रियाएँ उद्योग , व्यापार , वाणिज्य तथा सरकारी कार्यालयों से सम्बन्धित हो जाती है । ” एम ० एन ० श्रीनिवास ( M.N. Srinivas ) के अनुसार : ” नगरीकरण का तात्पर्य केवल सीमित क्षेत्र में अधिक जनसंख्या से नहीं होती बल्कि उस प्रक्रिया से होता है जिसके द्वारा लोगों के सामाजिक और आर्थिक संबंधों में परिवर्तन होने लगता है । ” इन सभी परिभाषाओं के आधार पर नगरीकरण की अवधारणा को इसकी कुछ प्रमुख mamm विशेषताओं की सहायता से समझा जा सकता है :

 

 1..नगरीकरण का तात्पर्य जनसंख्या का गाँवों से नगरों की ओर बढ़ना अथवा नगरीय मनोवृत्तियों का प्रभाव अधिक होना ही नहीं है बल्कि स्थान परिवर्तन के बिना भी लोगों की उपयोग की आदतों और व्यवहार के तरीकों में जब नगरीय विशेषताओं का समावेश होने लगता है , तब यह दशा नगरीकरण को स्पष्ट करती है । विशेष जीवन – विधि है जिसका प्रसार नगर से बाहर के क्षेत्रों की ओर होता है

 

  1. इस प्रक्रिया के अन्तर्गत कृषि व ग्रामीण उद्योग – धन्धों की जगह नगरीय व्यवसायों के बढ़ते हुए प्रभाव को स्पष्ट करती है ।

 

  1. यह एक दोहरी प्रक्रिया है । एक ओर यह प्रक्रिया ग्रामीण श्रेत्रों के नगरों में बदलने अथवा नगरों का विस्तार होने की दशा को स्पष्ट करती है तो दूसरी ओर इसका संबंध एक ऐसी दशा से है जिसमें नगर में पायी जाने वाली मनोवृत्तियों का प्रभाव बढ़ने लगता है ।\

 

  1. नगरीकरण की प्रक्रिया का औद्योगीकरण से घनिष्ट संबंध है । जैसे – जैसे किसी समाज में औद्योगीकरण में वृद्धि होती है , नगरीकरण में भी विस्तार होने लगता

 

  1. इस प्रक्रिया के अन्तर्गत ग्रामीण जनसंख्या में कमी होती है तथा नगरीय जनसंख्या में वृद्धि होती है ।

 

  1. यह प्रक्रिया सामाजिक संबंधों की औपचारिकता को स्पष्ट करती है । इसका तात्पर्य है कि नगरीकरण की प्रक्रिया विभिन्न व्यक्तियों और समूहों के बीच स्वार्थ पर आधारित संबंधों को प्रोत्साहन देकर व्यक्तिवादिता को बढ़ाती है । भारत में नगरों का विकास : नगरों की उत्पत्ति एवं विकास के विषय में ( 1 ) मार्ग रेट मूरे ( 2 ) प्रवीण और थामस कोई एक निश्चित कहानी नहीं बनाई जा सकती और न ही किसी निश्चित 2. नगरीकरण एक

 

 

तिथि को या सत्र को निर्धारित किया जा सकता है । मनुष्य ने अपनी अनेक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही नगरों का निर्माण किया है । राबर्ट बीयरस्टेड ने अपनी कृति “ दि सोशल ऑर्डर ‘ ‘ में लिखा है कि नगरों की उत्पत्ति सात या आठ हजार वर्ष पूर्व हुई होगी । भारत में सिंधु घाटी सभ्यता की ईसा से 4000 वर्ष पूर्व उन्नत नगरीय सभ्यता का उदाहरण प्रस्तुत करती है नगर उद्भव में एक कारक नहीं बल्कि अनेकों कारकों का समावेश होता है । नगर के उद्भव में औद्योगीकरण , आर्थिक आकर्षण , ग्रामीण नगरीय प्रवसन , नगरीकरण , सामाजिक , आर्थिक आदि कारकों का पूर्ण योगदान होता है । नगरों की उत्पत्ति और विकास में राजनीतिक कारक अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है । नगर राजनीतिक क्रियाकलापों के सदैव से ही केन्द्र रहे हैं । भारत में नगरों की उत्पत्ति एवं विकास को मोटे तौर पर तीन भागों में बाँटकर अध्ययन किया जा सकता है ।

 

1.प्राचीन नगर

  1. मध्यकालीन नगर
  2. आधुनिक नगर

 

 

 

प्राचीन नगर :

 

भारत में नगरों का विकास भी सामान्यतः सामान्य नगरों के विकास की भाँति ही हुआ । लेकिन फिर भी , इस बात के पर्याप्त प्रमाण उपलब्ध हैं कि भारत में अति प्राचीन काल से नगर विद्यमान रहे हैं । महाकाव्यों एवं पुराणों में भारत में नगरों का पर्याप्त वर्णन उपलब्ध है । आज से 8 हजार वर्ष पूर्व भारत में नगरीय सभ्यता विद्यमान थी एवं इसकी पुष्टि मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा की खुदाई में प्राप्त अवशेषों के आधार पर की जा सकती है । गुप्तकाल में अनेक नगरों का उल्लेख मिलता है । परंतु प्राचीन नगर आधुनिक नगरों जितने बड़े नहीं थे । भारत में प्राचीनकाल में अनेक नगर थे जैसे : काशी , अयोध्या , तक्षशिला , पाटलिपुत्र , प्रयाग , उज्जैन आदि ।

 

  1. मध्यकालीन नगर : भारत में मध्यकाल में नगरों का विकास मुख्यतया राजाओं और अनेक दरबारियों की ही देन रही है । मध्यकाल में भारत पर विभिन्न राजाओं ने आक्रमण किया और जीते हुए स्थान पर अपने वस्तुकला का प्रयोग करते हुए बड़े – बड़े भवनों का निर्माण कर दिया और वहाँ वह रहने लगे । अतः उनके साथ सेना , दरबारी , मंत्री आदि भी रहने लगे जिससे नगरों का स्वतः विकास होने लगा । जैसे : फिरोजाबाद की स्थापना फिरोजशाह तुगलक ने की । सिकन्दर लोदी ने आगरा शहर को बसाया , दौलाताबाद की भी स्थापना हुई । मध्यकाल में , शेरशाह ने सासाराम शहर को बसाया आदि । मध्यकाल में नगरों का उद्विकास अपने गुणात्मक अवस्था में था । समाज शास्त्री लुईस ममफोर्ड ने लिखा है कि “ मध्युगीन नगरों की उत्पत्ति एवं विकास की पीछे सामन्तों की भूमिका महत्त्वपूर्ण रही है । “

 

  1. आधुनिक नगर : मध्यकाल में , इन नगरों की वृद्धि और विकास में सामन्तवादियों का प्रभुत्व बना रहा । परन्तु इस काल के अतिम पच्चीस वर्षों में नगर केन्द्रों पर से सामाजवादियों का प्रभुत्व क्षीण होना प्रारम्भ हो गया । औद्योगिक क्रान्ति के कारण नगरीकरण की प्रक्रिया प्रारम्भ होने लगी तथा नए – नए नगरों का तेजी से विकास होने लगा । ऐसा माना जा सकता है कि आधुनिक युग नगरों का युग है । 1781 में भारत में लगभग 5000 से अधिक जन ० स ० वाले क्षेत्र को नगर माना जाता था । मगर आज 1000 / वर्ग मी ० के आधार पर नगर की गणना की जाती है । आधुनिक युग में आधुनिक शिक्षा , रोजगार आदि समस्याओं के समाधान के कारण भी नगर का उद्भव होने लगा है । अब दिन – हीन , दुर्भिक्ष , पिछड़े आदि का सहारा अब नगर हो गया है । अतः आधुनिक युग में नगरों में तेजी से वृद्धि हो रही है ।

 

 

 

नगरीकरण की दर को बढ़ाने वाले कारक : भारत में नगरीकरण की प्रक्रिया कोई नई नहीं है , यह प्रक्रिया प्राचीनकाल से ही चली आ रही है । यहाँ महाजनपद काल तथा बौद्ध काल में भी बड़े – बड़े नगरों का उदय हुआ । ब्रिटिश 

 

काल में नगरों का विकास बहुत तीव्र हुआ तथा नगरों के विकास में अनुकूल भौगोलिक दशाओं , धार्मिक विश्वासों , सैनिक शिविरों की स्थापना तथा यातायात की सुविधाओं का अधिक योगदान था । स्वतन्त्रता के बाद जनसंख्या वृद्धि , औद्योगीकरण , यातायात और संचार के साधन , शिक्षा संस्थाएँ , राजनीतिक दशाएँ , नागरिक सुविधाएँ तथा आर्थिक सुरक्षा के प्रमुख दशाएँ हैं जिन्होंने नगरीकरण को बढ़ाने में विशेष योगदान किया । इन कारकों को निम्नलिखित बिन्दुओं पर समझा जा सकता है :

 

  1. औद्योगीकरण : भारत में जैसे – जैसे औद्योगिक विकास हुआ इसके फलस्वरूप विभिन्न क्षेत्रों में मशीनों द्वारा बड़ी मात्रा में उत्पादन बढ़ता गया , गाँव के कुटीर उद्योग – धन्धे और हस्तशिल्प नष्ट होने लगे । इन उद्योग – धन्धे और दस्तकारी में लगे व्यक्तियों में बेरोजगारी बढ़ने लगी । नगरीय उद्योगों में अधिक श्रमिकों की आवश्यकता थी । फलस्वरूप ग्रामीण जनसंख्या का काफी बड़ा हिस्सा नगरीय उद्योगों में श्रमिकों के रूप में कार्य करने लगे । इससे नगरीय जनसंख्या में भी वृद्धि होने लगी ।

 

  1. अनुकूल भौगोलिक दशाएँ : नगरों की उत्पत्ति और विकास में अनुकूल भौगोलिक स्थिति एक महत्त्वपूर्ण कारण हो सकती है । निकट ही कच्चे माल का मिलना , विशेष उद्योग – धन्धों के लिए जलवायु का अनुकूल होना आदि सभी नगरों के विकास में काफी सहायक हो सकते हैं । जमशेदपुर , बंगलोर , कलकत्ता , मुम्बई आदि के उत्तरोत्तर विकास के मुख्य कारण उनकी अनुकूल भौगोलिक स्थिति ही है ।

 

  1. राजधानी की स्थापना : राजधानी होने पर किसी भी स्थान का महत्त्व बढ़ जाता है । राज कार्य से सम्बन्धित अनेक व्यक्तियों को वहाँ आकर बसना पड़ता है । सरकार के अधिकारीगण , लोकसभा आदि के सदस्य , सैनिक आदि का एकत्रीकरण वहाँ होता है । जनसंख्या बढ़ती है और उस बढ़ती हुई जनसंख्या की आवश्यकताओ की पूर्ति के लिए व्यापार और अन्य सेवा कार्य का विकास होना आवश्यक हो जाता है । इन सबका परिणाम नगर का दिन – प्रतिदिन विकास होता है । दिल्ली , मुम्बई , चण्डीगढ़ आदि इसके प्रमुख उदाहरण हैं |

 

  1. सैनिक छावनी : इसी प्रकार जहाँ सैनिकों की छावनी स्थापित हो जाती है उस नगर का विकास भी होता है । कुछ सैनिकों के साथ उनके परिवार के अन्य सदस्य भी आते हैं और इन सबसे सम्बन्धित विविध आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उद्योग – धन्धे , व्यापार और वाणिज्य भी बढ़ता है और इस प्रकार का विकास होता है , जम्मू , अम्बाला , देहरादून , सिकन्दरावाद आदि इसके उत्तम उदाहरण हैं ।

 

  1. प्रोद्योगिकीय विकास : प्रौद्योगिकीय उन्नति के साथ – साथ परिवहन तथा संचार के साधनों में उन्नति होती है जिसके कारण देश के ही नहीं , दुनिया के किसी भी भाग से कच्चा माल या आधुनिकतम मशीनें मंगवाकर उद्योग धन्धों का विकास किया जा सकता है और बनी हुई चीजों को राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय बाजार तक पहुँचाया जा सकता है । प्रौद्योगिकीय विकास के कारण आज जंगल को साफ करके भी नगर बसाया जा सकता है जैसे – जैसे उत्तम मशीनों से हम परिचित होते जाते हैं वैसे – वैसे उद्योग – धन्धों में भी उन्नति होती जाती है । जब मशीनों का अधिकाधिक प्रयोग कृषि में होने लगता है तो एक ओर समय की बचत होती है और दूसरी ओर , कृषि में कम – से – कम लोगों की आवश्यकता रह जाती है । इसके फलस्वरूप अनेक व्यक्तियों को खेती से अवकाश मिल जाता है और नगरों में श्रमिकों की आवश्यकता पूरी हो जाती है । दूसरे प्रौद्योगिक विकास से खेती के उत्पादन में आश्चर्यजनक उन्नति होती है और नगरों के विकास के लिये आवश्यक खाद्य – सामगियाँ ही नहीं , अनेक आधारभूत उद्योग – धन्धों के लिए आवश्यक माल कपड़ा , जूट , चीनी , वनस्पति घी और तेल आदि सरलता से मिलने लगता है
  2. जनसंख्या वृद्धि : भारत में स्वतन्त्रता से पहले तक देश की 15 % आबादी ही नगरों में रहती थी । निर्धनता के बाद भी ग्रामीणों का जीवन आत्मनिर्भर था । हमारे देश में स्वतंत्रता के बाद जब जनसंख्या में तेजी से वृद्धि होना आरम्भ हुआ तो गाँवों में खेतों का विभाजन बढ़ने लगा । इसके फलस्वरूप ग्रामीण जनसंख्या के एक बड़े भाग ने रोजगार पाने के लिए नगरों की ओर बढ़ना आरम्भ कर दिया ।
  3. राजनीतिक दशाएँ : नगरीकरण की प्रक्रिया को प्रोत्साहन देने में वर्तमान राजनीतिक दशाओं का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है । लोकतान्त्रिक व्यवस्था में लोगों को उन नगरों में विकास के अधिक अवसर प्राप्त होते हैं जो राजनीतिक क्रियाओं के केन्द्र होते हैं । यही कारण है कि दिल्ली में आज नगरीकरण की प्रक्रिया सबसे अधिक तेज है । विभिन्न प्रदेशों की राजधानी जिन नगरों में है , उनमें भी दूसरे नगरों की तुलना में नगरीकरण अधिक तेजी से हो रहा

 

  1. यातायात तथा संचार के साधनों में वृद्धि : स्वतन्त्रता के बाद भारत में सभी गाँवों को नगरों से जोड़ने के लिए सड़कों का निर्माण हुआ । पंचवर्षीय योजनाओं के द्वारा नये विकास कार्यक्रम आरम्भ हुए । यहाँ जैसे – जैसे यातायात और संचार के साधनों में वृद्धि होती गयी , सभी नगरीय और ग्रामीण क्षेत्र एक – दूसरे से जुड़ने लगे । कृषि में उन्नत उपकरणों और बीजों का उपयोग होने के कारण कृषि उत्पादन बढ़ा लेकिन , ग्रामीणों की नगरों पर निर्भरता बढ़ने लगी । फसल को बेचने के लिए भी ग्रामीणों का नगरों से सम्पर्क बढ़ा । यातायात की सुविधाओं के फलस्वरूप कृषि उपज को नगरों में लाकर बेचना अधिक लाभप्रद हो गया ।

 

  1. शिक्षा प्रणाली : ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा प्राप्त करने वाले युवक साधारणतया खेती जैसे परम्परागत व्यवसाय को करना पसन्द नहीं करते । उनका प्रयत्न नगर में स्थित कार्यालयों , कारखानों अथवा व्यक्तिगत प्रतिष्ठानों में नौकरी करके जीवनयापन करना होता है । नगर में शिक्षा ग्रहण करने के बाद गाँव का जीवन उन्हें अनुपयुक्त दिखायी देने लगता है । इस मनोवृत्ति के फलस्वरूप भी नगरीकरण की प्रक्रिया को प्रोत्साहन मिलता है ।

 

  1. सुविधाएँ : हमारे देश में बढ़ते हुए नगरीकरण का एक अन्य कारण नगरों में प्राप्त होने वाली विशेष नागरिक सुविधाएँ हैं । नगरों में शिक्षा , पानी , बिजली , स्वास्थ्य तथा सुरक्षा की अधिक सुविधाएँ होने के कारण गाँवों और कस्बों में रहने वाले व्यक्तियों के लिए आकर्षण का केन्द्र बन जाते हैं । स्पष्टतः इन सभी बहुआयमी पहलुओं पर ध्यान रखते हुए फिंग्सले डेविस ने यह निष्कर्ष दिया है कि नगरीकरण में होने वाली वृद्धि में सभी दशाओं के आधार पर समझा जा सकता है ।

 

 

1.नगरीकरण के फलस्वरूप सामाजिक – आर्थिक परिवर्तन : आज भी भारत आधारभूत रूप में गाँवों का देश है । पर आज नागरीकरण की प्रक्रिया भी तेजी से अपने प्रभाव का विस्तार करती जा रही है । नगरीकरण की प्रक्रिया ने हमारे सम्पूर्ण सामाजिक संरचना में परिवर्तन ला दिया है और हमारा सामाजिक , आर्थिक , मानसिक , राजनैतिक , सांस्कृतिक , धार्मिक एवं नैतिक जीवन एक नया मोड़ ले रहा है । नगरीकरण के ये प्रभाव स्वस्थ भी हैं और अस्वस्थ भी । हम संक्षेप में उन दोनों प्रकार के प्रभावों की विवेचना यहाँ करेंगे ।

 

2.सामाजिक – सांस्कृतिक सम्पकों का विस्तृत क्षेत्र : नगरीकरण का एक उल्लेखनीय प्रभाव यह है कि इसके फलस्वरूप सामाजिक – सांस्कृतिक सम्पर्कों का क्षेत्र स्वतः ही बढ़ जाता है । शहरों के सामाचार पत्र , पत्रिका , पुस्तक , रेडियो , केवल नेटवर्क , इंटरनेट , टेलीफोन , मोबाइल आदि के माध्यम से दूसरे प्रांतों या देशों के साथ सम्पर्क स्थापित करना सरल होता है । ये सभी तत्व सामाजिक – सांस्कृतिक सम्पर्क के क्षेत्र का विस्तृत करने में सहायक सिद्ध होते हैं । – 

3.शिक्षा व प्रशिक्षण संबंधी अधिक सुविधायें : अपने बच्चों को उचित शिक्षा देने के प्रति झुकाव अधिक होता है इसलिए नगरीकरण के साथ साथ शिक्षा व प्रशिक्षण संबंधी सुविधाओं का भी विस्तार होता जाता है । कुछ नगरों में नगरीकरण की प्रक्रिया को प्रोत्साहित करने में शिक्षा व प्रशिक्षण संबंधी सुविधाओं का अत्यधिक योगदान होता है । कम्प्यूटर तथा अनेक टेकनिकल कोर्स करके शहरों में नौकरी की सम्भावनायें बढ़ जाती हैं । इन्हीं सुविधाओं के कारण नगर का महत्त्व दिन – प्रतिदिन बढ़ता जाता है ।

 

  1. व्यापार और वाणिज्य का विस्तार : नगरों के विकास के साथ साथ व्यापार और वाणिज्य की प्रगति भी निश्चित रूप में होती है क्योंकि नगरीकरण के साथ साथ आबादी बढ़ती है और आबादी बढ़ने से आवश्यकतायें बढ़ती हैं और उन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए व्यापार और वाणिज्य का विस्तार आवश्यक हो जाता है । इसलिए नगरीकरण के साथ – साथ नए बाजार , हाट , शॉपिंग सेन्टर , सिनेमा , रेस्टोरेन्ट आदि का भी उद्भव होता जाता है ।

 

5.यातायात व संदेशवाहन की सुविधाओं में वृद्धि   नगर के विकास के साथ – साथ यातायात वसंदेशवाहन की सुविधाओं का भी प्रसार होता जाता है क्योंकि इसके बिना नगरवासियों का जीवन सुविधाजनक नहीं हो सकता । नागरिक परिस्थितियाँ यह माँग करती है । कि यातायात और संदेशवाहन के साधनों को विस्तृत किया जाय । इसलिए नगर के विकास के साथ – साथ डाकघर , टेलीफोन , रेलवे स्टेशन , कोरियर सर्विस , इन्टरनेट , साइबर कैफे आदि का भी विकास होता जाता है और शहर के अंदर बस तथा टैक्सी सर्विस , ऑटो रिक्शा आदि उपलब्ध होते हैं । ये सभी सुविधायें महंगी हो सकती हैं , जल्दी ही नागरिक जीवन के आवश्यक अंग बन जाती हैं ।

 

  1. राजनैतिक शिक्षा : नगरीकरण की प्रक्रिया के साथ – साथ राजनैतिक दलों की क्रियाशीलता भी बढ़ जाती हैं । वास्तव में नगर राजनैतिक दलों का अखाड़ा होता है और वे अपने – अपने आदर्शों व सिद्धांतों को फैलाने के लिए न केवल अत्यन्त प्रयत्नशील रहते हैं अपितु एक राजनैतिक दल दूसरे दल को नीचा दिखाने के लिए भी भरसक प्रयत्न करता रहता है । फलतः राजनैतिक दाँव – पेच सीखने का अवसर नगरों में जितना मिलता है उतना गाँव में कदापि नहीं , यह इसलिए भी सम्भव होता है क्योंकि नगर में यातायात और संदेशवाहन के साधन उन्नत स्तर पर होते हैं और उनके व पुस्तक पत्रिका , सामाचार – पत्र , रेडियो , टी ० वी ० पोस्टर , बैनर , स्पीकर आदि के माध्यम से अन्तर्राष्ट्रीय राजनैतिक जीवन में भाग लेना या कम से कम उसके संबंध में जानकारी हासिल करना हमारे लिये सम्भव होता है । राजनैतिक शिक्षा के व्यावहारिक स्तर पर लाने में सहायक सिद्ध होता है ।

 

  1. सामाजिक सहनशीलता : नगरीकरण का एक उल्लेखनीय प्रभाव यह है कि नगर निवासियों में सामाजिक सहनशीलता पर्याप्त मात्रा में पनप जाता है । इसका कारण भी स्पष्ट है । नगरीकरण के साथ – साथ विभिन्न धर्म , सम्प्रदाय जाति , वर्ग , प्रजाति , प्रान्त तथा देश के लोग आकर बस जाते हैं , और प्रत्येक को एक – दूसरे के साथ मिलने – जुलने का तथा एक – दूसरे को अधिक निकट से देखने – जानने का अवसर प्राप्त होता है । इस प्रकार के सम्पर्क से एक – दूसरे के प्रति सहनशीलता पनपती है ।

 

  1. पारिवारिक मूल्य व संरचना में परिवर्तन : नगरीकरण के साथ – साथ पारिवारिक मूल्यों एवं संरचना में भी तेजी से परिवर्तन होता है , नगरों में बच्चे आज पूरी तरह अपने माता – पिता का सम्मान नहीं कर रहे हैं , अपनी जिद को ही सर्वोपरि मानते हैं , विवाह अपनी पसन्द की लड़की या लड़के से करते हैं , कॉलेज जाने के नाम पर रोमांस देखने को मिलता । काम – काजी लड़कियों का एफेयर तो नगरों में आम बात हो गई है । प्रेम विवाहों की संख्या में वृद्धि और तलाक कीसंख्या में वृद्धि भी नगरों में अधिक देखने की मिलती है । मीडिया एवं संचार क्रांति ने को अत्यधिक प्रभावित किया है । वह अपने रोल मॉडल की तरह ही बनने रहने की चाह में रहता है । पारिवारिक कर्तव्यों की ओर उसका ध्यान नहीं है । विवाह के बाद लड़की अपने पति को अलग घर में रहने को प्रेरित करती है , एकल परिवारों की संख्या बढ़ना तथा संयुक्त परिवारों का विघटन यहाँ लगातार बढ़ रहा है ।

 

  1. गन्दी बस्तियों का विकास : नगरीकरण के साथ साथ जब औद्योगीकरण की प्रक्रिया भी चलती रहती है तो नगर की जनसंख्या अति तीव्र गति से बढ़ती चली जाती है । पर जिस अनुपात में जनसंख्या बढ़ती है उसी अनुपात में नये मकानों का निर्माण नहीं हो पाता है । इसलिए नगरीकरण का एक प्रभाव गन्दी बस्तियों का विकास होता है

 

  1. सामाजिक मूल्यों तथा संबंधों में परिवर्तन : नगरीकरण के साथ – साथ व्यक्तिवादी आदर्श पनपता है । नगरों में धन तथा व्यक्तिगत गुणों का अधिक महत्त्व होने के कारण प्रत्येक व्यक्ति केवल अपनी ही चिन्ता करता है और अपने स्वार्थों की रक्षा हेतु जी – जान लगा देता है । उसका प्रयत्न अपने ही व्यक्तित्व का विकास करना तथा अधिकाधिक धन एकत्र करना है क्योंकि इन्हीं पर उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा निर्भर करती है । इसलिए नगरीकरण का एक प्रभाव व्यक्तिगत स्वार्थ की वेदी पर सामुदायिक स्वार्थ की बलि चढ़ा देना होता है । उसी प्रकार नगरीकरण के साथ – साथ व्यक्तिगत संबंध अवैयक्तिक सामाजिक संबंधों में बदल जाता है । दिल्ली , कलकत्ता , मुम्बई जैसे बड़े नगरों में तो आठ – दस मन्जिल वाले एक ही बिल्डिंग में रहने वाले व्यक्तियों में व्यक्तिगत संबंधों का नितान्त अभाव होता है । उसी प्रकार जाति – पाँति के आधार पर भेद – भाव , छुआछूत की भावना आदि नगरीकरण के साथ – साथ दुर्बल पड़ जाते हैं और इनसे सम्बन्धित सामाजिक मूल्य बदल जाते हैं । सामाजिक दूरी का घटना नगरीकरण का एक उल्लेखनीय प्रभाव कहा जा सकता है ।

 

  1. मनोरंजन का व्यापारीकरण : नगरीकरण का एक और उल्लेखनीय प्रभाव मनोरंजन के साधनों का व्यापारीकरण है अर्थात् सिनेमा , थियेटर डिस्को क्लब , खेल कूद , केवल नेटवर्क , मोबाइल , इंटरनेट आदि मनोरंजन के सभी साधनों का आयोजन व्यापारिक संस्थाओं द्वारा किया जाता है । इसीलिये इनमें शीलता या स्वस्थ प्रभाव का उतना ध्यान नहीं रखा जाता है जितना कि उन्हें दर्शकों के लिये अधिकाधिक आकर्षक बनाकर उनसे पैसा लेन के प्रति सचेत रहा जाता के कारण

 

  1. दुर्घटना , बीमारी व गंदगी : नगरों में दुर्घटनायें अधिक होती हैं । अधिक प्रदूषण बीमारियाँ भी अधिक होती हैं । विभिन्न उद्योगों से सम्बन्धित अलग – अलग बीमारियाँ पनपती हैं । इतना ही नहीं , नगरों में घनी आबादी होने के कारण गन्दगी भी अधिक होती है । गन्दगी के कारण भी अनेक प्रकार की बीमारियाँ नगर निवासियों की आ घेरती हैं । लाख प्रयत्न करने पर भी नगरीकरण के परिणामस्वरूप होने वाली दुर्घटना , बीमारी तथा गंदगी को समस्या के टाला नहीं जा सकता ।

 

  1. सामुदायिक जीवन में अनिश्चितता : नगरों की यह एक प्रमुख समस्या है और समस्या इसलिए है कि इस अनिश्चितता के कारण नगरों में सामुदायिक भावना या ‘ हम ‘ की भावना पनप नहीं पाती है , जिसके कारण नगर के जीवन में एकरूपता पनप नहीं पाती है । यहाँ कोई रात को सोता है तो कोई दिन में , कोई आज रोजगार में लगा है तो कल बेकार है । यह अनिश्चितता हर पग पर हर क्षण है । सुबह घर से गया हुआ व्यक्ति शाम को घर लौटकर आयोग भी या नहीं , — 

इसकी भी कोई निश्चितता नहीं है । यह अनिश्चितता सामुदायिक जीवन को विघटित करने वाले तत्वों के जन्म देती है ।

 

  1. सामाजिक विघटन : व्यक्ति तथा संस्थाओं की स्थिति व कार्यों में अनिश्चितता अथवा अधिक परिवर्तनशीलता सामाजिक विघटन को उत्पन्न करती है , नगरों में सामाजिक परिवर्तन की गति भी तेज होती है जिसके कारण सामाजिक विघटन उत्पन्न होता है । नगरों में बैंक फेल करने , विद्रोह होने , क्रांति अथवा युद्ध छिड़ने की भी संभावना अधिक होती है जिनके कारण भी सामाजिक विघटन की स्थिति उत्पन्न होती है जो कि स्वस्थ सामाजिक जीवन के लिए घातक सिद्ध होती है

 

  1. पारिवारिक विघटन : नगरों में परिवारों के सदस्यों में आपसी संबंध अधिक घनिष्ट नहीं होता है क्योंकि पढ़ने – लिखने , प्रशिक्षण प्राप्त करने , नौकरी करने , मनोरंजन प्राप्त करने आदि के लिए घर के अधिकतर सदस्यों को या तो दंग एक दूसरे से अलग हैं या परिवार से बाहर ही अधिक समय व्यतीत करना पड़ता है , इस कारण परिवार के सदस्यों का एक दूसरे पर नियंत्रण बहुत कम होता है जो कि परिवार को विघटित करने में प्रायः सहायक ही सिद्ध होता है ।

 

  1. व्यक्तिगत विघटन : यह नगरों की एक अन्य उल्लेखनीय समस्या है । व्यक्तिगत विघटन के निम्नलिखित पाँच स्वरूप नगरों में देखने को मिलते हैं जिनमें से प्रत्येक स्वयं ही एक गंभीर भी समस्या है ( a ) अपराध तथा बाल – अपराध : नगरों में निर्धनता , मकानों की समस्या , बेरोजगारी , स्त्री पुरुष के अनुपात में भेद , नशाखोरी , व्यापारिक मनोरंजन , व्यापार चक्र , प्रतिस्पर्धा , परिवार का शिथिल नियंत्रण , वेश्यावृत्ति , बाल – श्रम आदि ऐसे महत्त्वपूर्ण कारक विद्यमान होते हैं जिनके कारण नगरों में अपराध और बाल अपराध अधिक देखने को मिलते हैं ।

 

( b ) आत्महत्या : नगरों में निर्धनता , बेरोजगारी , असुखी पारिवारिक जीवन , प्रतिस्पर्धा में असफल होने पर जीवन के संबंध में घोर निराशा , रोमांस या प्रेम में असफलता , व्यापार में असफलता आदि की सम्भावनायें अधिक होती हैं और इनमें से किसी भी अवस्था में व्यक्ति इस प्रकार की एक असहनीय मानसिक उलझन में फंस सकता है जिससे छुटकारा पाने के लिए वह आत्म हत्या को ही चुन लेता है । यही कारण है कि गाँवों की अपेक्षा नगरों में कहीं अधिक आत्महत्यायें होती हैं ।

 

 ( c ) वेश्यावृत्ति : नगरों में श्रमिक वर्ग अधिक होते हैं जो कि नगरों में मकानों की समस्या तथा महँगाई के कारण अपने बीबी बच्चों के साथ न रहकर अकेले ही रहने से बाध्य होते हैं । इनके लिए वेश्यालय मनोरंजन का एक अच्छा स्थान होता है । नगरों में पाये जाने वाली निर्धनता तथा बेरोजगारी भी अनेक स्त्रियों को वेश्यावृति को बाध्य करती हैं ।

 

( d ) नशाखोरी : मद्य – पान आदि व्यक्तिगत विघटन की ही एक अभिव्यक्ति है । नगरों में यह समस्या विशेष रूप से उग्र है । इस समस्या का चरम रूप तब देखने को मिलता है जब नगरों में बड़ी बड़ी पार्टियों , ‘ डिनरों ‘ में जहाँ की समाज के उच्चस्तरीय ‘ सज्जनों ‘ का जमघट होता है , मद्यपान को सामाजिक प्रतिष्ठा के प्रतीक और सामान्य शिष्टाचार के रूप में स्वीकार किया जाता है । शहरों में जो अपने जीवन में असफल हुए हैं , ऐसे व्यक्तियों की भी कमी नहीं होती । इसको शराब की दुकानों पर लगी भीड़ से हमें यह और अधिक स्पष्ट हो जाता है ।

 

 ( e ) भिक्षावृत्ति : नगरों में , विशेषकर धार्मिक दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण नगरों में लोग न केवल नगरों की गरीबी , भुखमरी और बेरोजगारी से तंग आकर भीख मांगते हैं अपितु भिक्षावृत्ति को एक व्यापारिक रूप भी देते हैं । बड़े – बड़े नगरों में भिखारियों के मालिक होते हैं जिनका कि काम 

96 भारत में सामाजिक परिवर्तन : दशा एवं दिशा भिखारी बनाना , भिखारियों को भीख माँगने के तरीके सिखाना , उनके शरीर को इस भांति विकृत या जराजीर्ण कर देना होता है जिससे लोगों को दया भाव अपने आप उभरे ।

 

. नगरीकरण के अन्य सामाजिक – आर्थिक प्रभाव : पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का विकास , राष्ट्रीय धन का असमान वितरण , आर्थिक संकट , बेकारी , औद्योगिक झगड़े , मानसिक चिन्ता और रोग संघर्ष व प्रतिस्पर्धा , सामाजिक , गतिशीलता में वृद्धि , श्रम – विभाजन व विशेषीकरण , ‘ हम ‘ की भावना का प्रभाव , आदि नगरीकरण के अन्य प्रभाव हैं जो कि भारत में देखने को मिलते हैं ।

 

 

औद्योगीकरण :

 

 औद्योगीकरण नगरीकरण का कारण और परिणाम दोनों ही हो सकता है । अक्सर यह देखा जाता है कि जहाँ पर उद्योग – धन्धे पनप जाते हैं और मशीनों के बड़े बड़े मिल व फैक्ट्रियों में उत्पादन का कार्य होता है वहाँ पर नगरीकरण की प्रक्रिया तेजी से क्रियाशील होती है , भारत में अनेक नगरों का विकास उसी प्रकार हुआ है , इस अर्थ में औद्योगीकरण नगरीकरण का कारण होता है । पर ऐसा भी होता है कि अन्य किसी कारण से नगरीकरण की प्रक्रिया सर्वप्रथम क्रियायाशील होता है और अब जब समुदाय नगर का पूर्णरूप धारण कर लेता है तो वहाँ उद्योग धन्धे का धीरे – धीरे औद्योगीकरण होता है । अवधारणा : मशीनों द्वारा , बड़े पैमाने में उत्पादन कार्यों का सम्पादन व उद्योग – धन्धों का एक स्थान में विकास की प्रक्रिया को औद्यीकरण कहते हैं । कुछ लेखकों का कथन है कि “ औद्योगीकरण का तात्पर्य बड़े पैमाने के नवीन उद्योगों का प्रारम्भ और छोटे उद्योगों का बड़े पैमाने के उद्योगों में बदलने से है । ” वास्तविक अर्थ में , ओद्योगीकरण उद्योगों के बड़े पैमाने में विकास की एक प्रक्रिया है । विलबर्ट मूरे ( W.E.Moore ने औद्योगीकरण की परिभाषा अपनी पुस्तक Social Change , P – 91 में इस प्रकार की है : “ औद्योगीकरण वह शब्द है जिसका उपयोग आर्थिक वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन में शक्ति के निर्जीव स्रोतों का व्यापक रूप से उपयोग करने के लिए किया जाता है । ” ( Industrialization in its strict sense of the term , entails the extensive use of inanimate sources of power in the production of economic goods and services . ) अतः विल्बर्ट मूरे के अनुसार , औद्योगीकरण की प्रक्रिया का मुख्य लक्ष्य अधिक से अधिक लाभ कमाना है साथ ही औद्योगीकरण का संबंध वस्तु तथा सेवाओं दोनों से है ।

 

 

 भारत में औद्योगीकरण के कारण : भारत जैसे कृषि प्रधान देश में औद्योगीकरण कारणों में सर्वप्रमुख पंचवर्षीय योजनाओं का योगदान है । दूसरी पंचवर्षीय योजना 1956-61 के बीच औद्योगीकरण की शुरुआत व्यापक रूप से हुई । साथ ही अन्य कई कारणों को निम्नलिखित बिन्दुओं से समझा जा सकता है

 

  1. उत्पादन की नई तकनीक : उत्पादन की नवीन प्रविधियों के आविष्कार से औद्योगीकरण की दर में काफी वृद्धि हुई है । कृषि में नवीन संकर बीजों एवं यंत्रीकरण के फलस्वरूप ही हरित क्रांति संभव हुई । नवीन कपड़ा मिलों के आविष्कार ने औद्योगीकरण को नया रूप दिया । आज सूचना क्रांति में कम्प्यूटर , इन्टरनेट के आने से विश्व में कहीं भी सूचना भेजने एवं पाने में केवल कुछ सेकेण्ड लग रहे हैं ।

 

  1. प्राकृतिक संसाधन : औद्योगीकरण की सबसे बड़ी आवश्यकता है प्राकृतिक संसाधन । अगर देश में प्राकृतिक संसाधनों की प्रचुरता न होगी तो औद्योगीकरण की गति समाप्त से , 

 

जाएगी । भारत में लोहे , कोयले , अभ्रक आदि खनिज सम्पत्तियों के विशाल भण्डार हैं । पेट्रोलियम भी संतोषप्रद है । जल शक्ति के क्षेत्र में भारत संसार के सबसे धनी देशों में एक है । यहाँ ऐसे वन हैं जहाँ विश्व विभिन्न बीमारियों के लिए जड़ी बूटी उपलब्ध है ।

 

  1. यातायात के साधन : औद्योगीकरण की प्रक्रिया में यातायात के साधनों की अवहेलना नहीं की जा सकती है । कच्चे माल , मशीन तथा श्रमिकों को उत्पादन केन्द्र तक पहुँचाने में , बने हुए माल को देश – विदेश के बाजारों तक ले जाने में तथा उद्योग धन्धों से सम्बन्धित सम्बन्धों को बनाये रखने में यातायात के साधनों के महत्त्व को स्वीकार करना ही पड़ता है । अतः यातायात के बिना औद्योगीकरण का कोई महत्त्व नहीं है ।

 

  1. श्रम – शक्ति की प्रचुरता : विकसित देशों की तुलना में हमारे देश में श्रम – शक्ति कहीं अधिक है । गाँव में ऐसे करोड़ों भूमिहीन मजदूर हैं जो वर्ष में अधिकतर बेरोजगार रहते हैं , वे कम मजदूरी पर उद्योगों में श्रमिकों के रूप में काम करने के लिए तैयार हो जाते हैं । इनके द्वारा किये जाने वाले औद्योगिक उत्पादन की लागत भी कम होती है । यह एक ऐसी दशा है जिसके फलस्वरूप यहाँ औद्योगिक विकास सरलता से सम्भव हो सका ।

 

  1. आर्थिक नीतियाँ : हमारे देश में औद्योगीकरण का एक प्रमुख कारण सरकार की अधि कि और औद्योगिक नीतियाँ हैं । भारत में स्वतन्त्रता के समय से ही एक मिश्रित अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहन दिया गया । इसमें आधारभूत उद्योगों को सार्वजनिक क्षेत्र में विकसित किया गया , जबकि अन्य उद्योगों का विकास निजी क्षेत्र के लिए छोड़ दिया गया । श्रम कल्याण एवं श्रम सुरक्षा के लिए ऐसे बहुत से कानून बनाये गये जिससे श्रमिकों के शोषण को रोका जा सके तथा उनकी कार्य – कुशलता को बढ़ाया जा सके । यह दशा भी औद्योगिकीकरण के विकास में सहायक सिद्ध हुई ।

 

  1. अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा : भारत में औद्योगीकरण के विकास का एक अन्य कारण अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा में भारत द्वारा हिस्सा लेना है । वर्तमान युग में कोई भी देश अपनी अर्थिक स्थिति को केवल तभी मजबूत बना सकता है जब वह दूसरे देशों से वस्तुओं का आयात करने के साथ ही स्वयं भी विभिन्न वस्तुओं का बड़ी मात्रा में उत्पादन करके उनका दूसरे देशों को निर्यात कर सके । आयात और निर्यात के सन्तुलन से ही हमारी अर्थव्यवस्था मजबूत बनती है । स्वतंत्रता के बाद भारत ने आर्थिक क्षेत्र में जैसे – जैसे अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा में हिस्सा लेना शुरू किया , यहाँ औद्योगीकरण में वृद्धि होती गई ।

 

7.शैक्षणिक संस्थाएँ : भारत में औद्योगीकरण के कारणों में शिक्षण संस्थाओं का बड़ा महत्त्वपूर्ण भूमिका है । शिक्षण संस्थाओं के द्वारा विभिन्न कोर्स जो कि आधुनिक उत्पादन से संबंधित है करोड़ों की संख्या में ऐसे विद्यार्थी हैं जो कि हसिल कर रहे हैं । अतः उपर्युक्त दशाओं के साथ – साथ नये आविष्कार , नगरीकरण की प्रक्रिया तथा बैंकिंग सुविधा तथा सेवा क्षेत्र का विस्तार आदि वे सहायक दशाएँ हैं जिन्होंने औद्योगीकरण के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान किया ।

 

औद्योगीकरण के फलस्वरूप सामाजिक आर्थिक परिवर्तन : आज भी भारत आधारभूत रूप में गाँवों का देश है । पर आज औद्योगीकरण की प्रक्रिया भी तेजी से अपने प्रभाव का विस्तार करती जा रही है । औद्योगीकरण की प्रक्रिया ने हमारे सम्पूर्ण सामाजिक संरचना में परिवर्तन ला दिया है और हमारा सामाजिक , आर्थिक , मानसिक , राजनैतिक , सांस्कृतिक , धार्मिक एवं नैतिक जीवन एक नया मोड़ ले रहा है । औद्योगीकरण के ये प्रभाव स्वस्थ भी हैं और अस्वस्थ भी । हम संक्षेप में अब दोनों प्रकार के प्रभावों की विवेचना यहाँ करेंगे । – 

  1. सामाजिक सांस्कृतिक सम्पर्कों का विस्तृत क्षेत्र : औद्योगीकरण का एक उल्लेखनीय प्रभाव यह है कि इसके फल्स्वरूप सामाजिक सांस्कृतिक सम्पर्कों का क्षेत्र स्वतः ही बढ़ जाता है । शहरों के सामाचार पत्र – पत्रिका , पुस्तक , रेडियो , केवल नेटवर्क , इंटरनेट , टेलीफोन , मोबाइल आदि के माध्यम से दूसरे प्रातों या देशों के साथ सम्पर्क स्थापित करना सरल होता है । ये सभी तत्व सामाजिक सांस्कृतिक सम्पर्क के क्षेत्र को विस्तृत करने में सहायक सिद्ध होते हैं ।

 

  1. शिक्षा व प्रशिक्षण संबंधी अधिक सुविधायें : अपने बच्चों को उचित शिक्षा देने के प्रति झुकाव अधिक होता है इसलिए औद्योगीकरण के साथ साथ शिक्षा व प्रशिक्षण सम्बन्धी सुविधाओं का भी विस्तार होता जाता है । कुछ नगरों में नगरीकरण की प्रक्रिया को प्रोत्साहित करने में शिक्षा व प्रशिक्षण संबंधी सुविधाओं का भी विस्तार होता है । कुछ नगरों में नगरीकरण की प्रक्रिया को प्रोत्साहित करने में शिक्षा व प्रशिक्षण संबंध सुविधाओं का अधिक योगदान होता हैं । कम्प्यूटर तथा अनेक टेकनिकल कोर्स करके शहरों में नौकरी की सम्भावनायें बढ़ जाती हैं । इन्हीं सुविधाओं के कारण नगर का महत्त्व दिन – प्रतिदिन बढ़ता जाता है ।

 

  1. व्यापार और वाणिज्य का विस्तार : नगरों के विकास के साथ – साथ व्यापार और वाणिज्य की प्रगति भी निश्चित रूप में होती है क्योंकि औद्योगीकरण के साथ – साथ आबादी बढ़ती है और आबादी बढ़ने से आवश्यकतायें बढ़ती हैं और उन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए व्यापार और वाणिज्य का विस्तार आवश्यक हो जाता है । इसलिए औद्योगीकरण के साथ – साथ नए बाजार , हाट , शॉपिक सेटर , सिनेमा , रेस्टोरेन्ट आदि का भी उद्भव होता जाता है ।

 

  1. यातायात व संदेशवाहन की सुविधाओं में वृद्धि : नगर के विकास के साथ – साथ यातायात व संदेशवाहन की सुविधाओं का भी प्रसार होता जाता है क्योंकि इसके बिना नगरवासियों का जीवन सुविधाजनक नहीं हो सकता । नागरिक परिस्थितियाँ यह माँग करती है । कि यातायात और संदेशवाहन के साधानों को विस्तृत किया जाय । इसलिए नगर के विकास के साथ – साथ डाकघर , टेलीफोन , रेलवे स्टेशन , केरियर सर्विस , इन्टसेट , साइबर कैफे आदि का भी विकास होता जाता है और शहर के अंदर बस तथा टैक्सी सर्विस , ऑटो रिक्शा आदि उपलब्ध होते हैं । ये सभी सुविधायें महंगी हो सकती है जो जल्दी ही नागरिक जीवन के आवश्यक अंग बन जाती हैं ।
  2. राजनैतिक शिक्षा ( Political Education ) : औद्योगीकरण की प्रक्रिया के साथ – साथ राजनैतिक दलों की क्रियाशीलता भी बढ़ जाती है । वास्तव में नगर राजनैतिक दलों का अखाड़ा होता है और वे अपने – अपने आदर्शों व सिद्धांतों को फैलाने के लिए न केवल अत्यन्त प्रयत्नशील रहते हैं अपितु एक राजनैतिक दल दूसरे दल को नीचा दिखाने के लिए भी भरसक प्रयत्न करता रहता है । फलतः राजनैतिक दाँव – पेच सीखने का अवसर नगरों में जितना मिलता है उतना गाँवों में कदापि नहीं । यह इसलिए भी सम्भव होता है क्योंकि नगर में यातायात और संदेशवाहन के साधन उन्नत स्तर पर होते हैं और उनके व पुस्तक पत्रिका , सामाचार – पत्र , रेडियो , टीवी , पोस्टर , बैनर , स्पीकर आदि के माध्यम से अन्तरराष्ट्रीय राजनैतिक जीवन में भाग होना या कम से कम उसके सम्बन्ध में जानकारी हासिल करना हमारे लिये सम्भव होता है । यह राजनैतिक शिक्षा को व्यावहारिक स्तर पर लाने में सहायक सिद्ध होता है ।
  3. सामाजिक सहनशीलता : औद्योगीकरण का एक उल्लेखनीय प्रभाव यह है कि नगर निवासियों में सामाजिक सहनशीलता पर्याप्त मात्रा में पनप जाता है । इसका कारण भी स्पष्ट है । नगरीकरण के साथ साथ विभिन्न धर्म , सम्प्रदाय जाति , वर्ग , प्रजाति , प्रान्त तथा देश के लोग आकर बस जाते हैं और प्रत्येक को एक – दूसरे के साथ मिलने – जुलने का तथा एक दूसरे को

अधिक निकट में देखने जानने का अवसर प्राप्त होता है । इस प्रकार के सर्पक में एक – दूसरे के प्रति सहनशीलता पनपती है ।

 

  1. पारिवारिक मूल्य व संधान में परिवर्तन : नगरीकरण के साथ साथ पारिवारिक मूल्यों एवं संरचना में भी तेजी से परिवर्तन होता है । नगरों में बच्चे आज पूरी तरह अपने माता पिता का सम्मान नहीं कर रहे हैं , अपनी जिद्द को ही सर्वोपरि मानते हैं , विवाह अपनी पसन्द की लकड़ी या लड़के से करते हैं , कॉलेज जाने के नाम पर रोमांस देखने को मिलता है । काम – काजी लड़कियों का एफयर तो नगरों में आम बात हो गई है । प्रेम विवाहों की संख्या में वृद्धि और तलाक की में वृद्धि भी नगरों में अधिक देखने की मिलती है । मीडिया एवं संचार क्रांति ने युवा वर्ग की अत्यधिक प्रभावित किया है । वह अपने रोल मॉडल की तरह ही बनने ( at her Social Economic effects of urbanization ) रहने की चाह में रहता है । पारिवारिक कर्तव्यों की ओर उसका ध्यान नहीं है । विवाह के बाद लड़की अपने पति को अलग घर में रहने के लिए प्रेरित करती है । एकल परिवारों की संख्या बढ़ना तथा संयुक्त परिवारों का विघटन यहाँ लगातार बढ़ रहा है ।

 

  1. गन्दी बस्तियों का विकास : औद्योगीकरण के साथ – साथ जब औद्योगीकरण की प्रक्रिया भी चलती रहती है तो नगर की जनसंख्या अति तीव्र गति से बढ़ती चली जाती है । पर जिस अनुपात में जनसंख्या बढ़ती है उसी अनुपात में नये मकानों का निर्माण नहीं हो पाता है । इसलिए नगरीकरण का एक प्रभाव गन्दी बस्तियों का विकास होता है ।

 

  1. सामाजिक मूल्यों तथा संबंधों में परिवर्तन : औद्योगीकरण के साथ – साथ व्यक्तिवादी आदर्श पनपता है । नगरों में धन तथा व्यक्तिगत गुणों का अधिक महत्त्व होने के कारण प्रत्येक व्यक्ति केवल अपनी ही चिन्ता करता है और अपने स्वार्थों की रक्षा हेतु जी – जान लगा देता है । उसका प्रयत्न अपने ही व्यक्ति तत्व का विकास करना तथा अधिकाधिक धन एकत्र करना है क्योंकि इन्हीं पर उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा निर्भर करती है । इसलिए नगरीकरण का एक प्रभाव व्यक्तिगत स्वार्थ की वेदी पर सामुदायिक स्वार्थ की बलि चढ़ा देना होता है । उसी प्रकार नगरीकरण के साथ – साथ व्यक्तिगत संबंध अवैयक्तिक सामाजिक संबंधों में बदल जाता है । दिल्ली , कलकत्ता , मुम्बाई जैसे बड़े नगरों में तो आठ – दस मन्जिल वाले एक ही बिल्डिंग में रहने वाले व्यक्तियों में व्यक्तिगत संबंधों का नितान्त अभाव होता है । उसी प्रकार जाति – पाँति के आधार पर भेद – भाव छुआछूत को भावना आदि । नगरीकरण के साथ – साथ दुर्बल पड़ जाते हैं और इनसे संबंधित सामाजिक मूल्य बदल जाते हैं । सामाजिक दूरी का घटना नगरीकरण का एक उल्लेखनीय प्रभाव कहा जा सकता है । एक राजनैतिक दल दूसरे दल को नीचा दिखाने लगते हैं ।

 

 10.मनोरंजन का व्यापारीकरण : औद्योगीकरण का एक और उल्लेखनीय प्रभाव मनोरंजन के साधनों का व्यापारीकरण है अर्थात् सिनेमा , थियेटर डिस्को क्लब , खेल कूद , केवल नेटवर्क , मोबाइल , इंटरनेट आदि मनोरंजन के सभी साधनों का आयोजन व्यापारिक संस्थाओं द्वारा किया जाता है । इसलिये इनमें शीलता या स्वस्थ प्रभाव का उतना ध्यान नहीं रखा जाता है जितना कि उन्हें दर्शकों के लिये अधिकाधिक आकर्षक बनाकर उनसे पैसा लेने के प्रति सचेत रहा जाता है ।

 

  1. दुर्घटना , बीमारी व गन्दगी : नगरों में दुर्घटनायें अधिक होती हैं । अधिक प्रदूषण के कारण बीमारियाँ भी अधिक होती हैं । विभिन्न उद्योगों से संबंधित अलग – अलग बीमारियाँ पनपती हैं । इतना ही नहीं नगरों में घनी आबादी होने के कारण गन्दगी भी अधिक होती है । गन्दगी के कारण भी अनेक प्रकार की बीमारियाँ नगर निवासियों की आ घेरती हैं । लाख प्रयत्न करने – 

पर भी औद्योगीकरण के परिणाम स्वरूप होने वाली दुर्घटना , बीमारी तथा गंदगी की समस्या के टाला नहीं जा सकता ।

 

  1. सामुदायिक जीवन में अनिश्चितता : नगरों की यह एक प्रमुख समस्या है और समस्या इसलिए है कि इस अनिश्चितता के कारण नगरों की सामुदयिक भावना या ‘ हम ‘ की भावना पनप नहीं पाती है । जिसके कारण नगर के जीवन में एकरूपता पनप नहीं पाती है । यहाँ कोई रात को सोता है तो कोई दिन में कोई आज रोजगार में लगा है कल बेकार है । यह अनिश्चितता हर पल पर हर क्षण है । सुबह घर से गया हुआ व्यक्ति शाम को घर लौटकर आयोग भी या नहीं , इसकी भी कोई निश्चितता नहीं है । यह अनिश्चितता सामुदायिक जीवन को विघटित करने वाले तत्वों को जन्म देती हैं ।

 

13.सामाजिक विघटन : व्यक्ति तथा संस्थाओं की स्थिति व कार्यों में अनिश्चितता अथवा अधिक परिवर्तनशीलता सामाजिक विघटन को उत्पन्न करती है । नगरों में सामाजिक परिवर्तन की गति भी तेज होती है जिसके कारण सामाजिक विघटन उत्पन्न होता है । नगरों में बैंक फेल करने , विद्रोह होने , क्रांति अथवा युद्ध छिड़ने की भी सम्भावना अधिक होती है जिनके कारण भी सामाजिक विघटन की स्थिति उत्पन्न होती है जो कि स्वस्थ सामाजिक जीवन के लिए घाटक सिद्ध होती हैं ।

 

 14.परिवारिक विघटन : नगरों में परिवारों के सदस्यों में आपसी संबंध अधिक घनिष्ट नहीं होता है क्योंकि पढ़ने – लिखने , प्रशिक्षण प्राप्त करने , नौकरी करने , मनोरंजन प्राप्त करने आदि के लिए घर के अधिकतर सदस्यों को या तो ढंग एक दूसरे हो अलग है या परिवार से बाहर ही अधिक समय व्यतीत करना पड़ता है । इस कारण परिवार के सदस्यों का एक दूसरे पर नियंत्रण भी बहुत कम होता है जो कि परिवार को विघटित करने में प्रायः सहायक ही सिद्ध होता है ।

 

15.व्यक्तिगत विघटन : यह नगरों की एक अन्य उल्लेखनीय समस्या है । व्यक्तिगत विघटन के निम्नलिखित पांच स्वरूप नगरों में देखने को मिलते हैं जिनमें से प्रत्येक स्वयं ही एक गम्भीर समस्या है ( a ) अपराध तथा बाल – अपराध : नगरों में निर्धनता , मकानों की समस्या , बेरोजगारी , स्त्री पुरुष के अनुपात में भेद , नशाखोरी , व्यापारिक मनोरंजन , व्यापार चक्र , प्रतिस्पर्धा , परिवार का शिथिल नियंत्रण , विद्यमान होते हैं जिनके कारण नगरों में अपराध और बाल – अपराध अधिक देखने को मिलने हैं । ( b ) आत्महत्या : नगरों में निर्धनता , बेरोजगारी , असुखी पारिवारिक जीवन , प्रतिस्पर्धा में असफल होने पर जीवन के संबंध में घोर निराशा , रोमांस या प्रेम में असफलता , व्यापार में असफलता आदि की एक राजनैतिक दल दूसरे दल को नीचा दिखाने सम्भावनायें अधिक होती हैं और इनमें से किसी भी अवस्था में व्यक्ति इस प्रकार की एक असहनीय मानसिक उलझन में फंस सकता है , जिससे घुटकारा पाने के लिए वह आत्महत्या को ही चुन लेता है । यही कारण है कि गांवों की अपेक्षा नगरों में कहीं अधिक आत्महत्यायें होती हैं । ( c ) वेश्यावृत्ति : नगरों में श्रमिक वर्ग अधिक होते हैं जो कि नगरों में मकानों की समस्या तथा मंहगाई के कारण अपने बीबी बच्चों के साथ न रहकर अकेले ही रहने को बाध्य होते हैं । इसके लिए वेश्यालय मनोरंजन का एक अच्छा स्थान होता है । नगरों में पाये जाने वाली निर्धनता तथा बेरोजगारी भी अनेक स्त्रियों को वेश्यावृत्ति को बाध्य करती हैं । ( d ) नशाखोरी : मद्यपान आदि व्यक्तिगत विघटन की ही एक अभिव्यक्ति है । नगरों में यह समस्या विशेष रूप से उग्र है । इस समस्या का चरम रूप तब देखने को मिलता है जबकि नगरों 

 .. नतिक रूप से तटस्थ होती है । में बड़ी – बड़ी पार्टियों , ‘ डिनरों ‘ में जहाँ की समाज के उच्चस्तरीय ‘ सज्जनों ‘ का जमघट होता है , मद्यपान को सामाजिक प्रतिष्ठा के प्रतीक और सामान्य शिष्टाचार के रूप में स्वीकार किया है । शहरों में जो अपने जीवन में असफल हुए हैं , ऐसे व्यक्तियों की भी कमी नहीं होती है । इसको शराब की दुकानों पर लगी भीड़ से हमें यह और अधिक स्पष्ट हो जाता है । ( e ) भिक्षावृत्ति : नगरों में लोग न केवल नगरों की गरीबी , भुखमारी और बेरोजगारी से तंग आकर भीख मांगते है अपितु भिक्षावृत्ति को एक व्यापारिक रूप भी देते हैं । बड़े – बड़े नगरों में भिखारियों के मालिक होते हैं जिनका कि काम भिखरी बनाना , भिखारियों को भीख माँगने के तरीके सिखाना , उनके शरीर को इस भांति विकृत या जराजीर्ण कर देना होता है जिससे लोगों को दया – भाव अपने – आप उभरे । 17.औद्योगीकरण के अन्य सामाजिक – आर्थिक प्रभाव : पूँजीवादी अर्थ व्यावस्था का विकास राष्ट्रीय धन का असमान वितरण , आर्थिक संकट , बेकारी , औद्योगिक झगड़े , मानसिक चिन्ता और रोग , संघर्ष व प्रतिस्पर्धा , सामाजिक गतिशीलता में वृद्धि , श्रम विभाजान व विशेषीकरण ‘ हम ‘ की भावना का प्रभाव आदि औद्योगीकरण के अन्य प्रभाव हैं जो कि भारत में देखने को मिलते हैं ।

 

 

 

 

पश्चिमीकरण :

 

अवधारणा : पश्चिमीकरण परिवर्तन की उस प्रक्रिया का द्योतक है जो कि भारतीय जनजीवन , समाज व संस्कृति के विभिन्न पक्षों में उस पश्चिमी संस्कृति के सम्पर्क में आने के फलस्वरूप उत्पन्न हुई जिसे कि अंग्रेज शासक अपने साथ लाए थे । डा ० एम ० एन ० श्री निवास ( Dr.M.N.Srinivas ) ने पश्चिमीकरण की व्याख्या करते हुए लिखा है , मैंने पश्चिमीकरण शब्द को ब्रिटिश राज्य के डेढ़ सौ वर्ष के शासन के परिणामस्वरूप भारतीय समाज व संस्कृति में उत्पन्न हुए परिवर्तनों के लिए प्रयोग किया है और यह शब्द विभिन्न स्तरों जैसे प्रौद्योगिकी , संस्थाओं , विचारधारा , मूल्य आदि में घटित होने वाले परिवर्तनों का द्योतक है । ( I have used the term weternization to characterise the changes brought about in Indian and culture as a result of over 150 years of British rules and the term subsumes changes occurring at different levels , technology , institutions ideology and values : M. N. Srinivas . ” Social change in Modern Indian ” . University of California Press , 1966. P. 47 )

 

 

पश्चिमीकरण की विशेषताएं :

 

  1. एक व्यापक अवधारणा : पश्चिमीकरण की अवधारणा काफी व्यापक है । इसमें पश्चिम के प्रभाव से उत्पन्न होने वाले सभी तरह के भौतिक और अभौतिक परिवर्तनों का समावेश है । इस सम्बंध में श्रीनिवास के विचारों को स्पष्ट करते हुए कुप्पूस्वामी ने लिखा है कि पश्चिमीकरण का सम्बंध मुख्य रूप से तीन क्षेत्रों से है : ( a ) व्यवहार सम्बंधी पक्ष , जैसे : खान – पान , वेश भूषा , शिष्टाचार के तरीके तथा व्यवहार प्रतिमान आदि ; ( b ) ज्ञान सम्बंधी पक्ष , जैसे : विज्ञान , प्रौद्योगिकी और साहित्य आदि ; ( c ) सामाजिक मूल्य सम्बंधी पक्ष , जैसे : मानवतावाद , धर्मनिरपेक्षता तथा समताकारी विचार , पश्चिम के प्रभाव से समाज के इन सभी पक्षों में होने वाले परिवर्तन पश्चिमीकरण से सम्बन्धित हैं ।

 

  1. नैतिक रूप से तटस्थ : पश्चिमीकरण की प्रक्रिया में नैतिकता के तत्व होना कोई जरूरी नहीं है अर्थात् पश्चिमीकरण के परिणाम अच्छे भी हो सकते हैं और बुरे भी । भारतीय समाज में पश्चिमीकरण केवल अच्छी दिशा में ही हुआ है ; यह बात नहीं है । इस प्रकार यह प्रक्रिया
  2. अंग्रेजों द्वारा लायी गई संस्कृति : ‘ पश्चिमी देश ‘ शब्द से जिन अनेक देशों का जैसे अमेरिका , ग्रेट ब्रिटेन , फ्रांस , जर्मनी , इटली आदि का बोध होता है । उनमें स्वयं आपस में भारी सांस्कृतिक अन्तर है । भारतवर्ष में सामाजिक परिवर्तन के एक कारक के रूप में पश्चिमीकरण की जो प्रक्रिया क्रियाशील है , वह वास्तव में पाश्चात्य संस्कृति के उस स्वरूप का प्रभाव है जिसे कि अंग्रेज शासक अपने साथ लाए और भारतवासियों को उससे परिचित कराया ।

 

  1. एक जटिल प्रक्रिया : पश्चिमीकरण की प्रक्रिया में अनेक जटिल तत्वों का समावेश है । यह प्रक्रिया केवल प्रथाओं , जाति व्यवस्था , धर्म , परिवार और रहन – सहन में होने वाले परिवर्तनों से भी है जो पश्चिमी को वैज्ञानिक और प्रौद्योगिक प्रगति के फलस्वरूप उत्पन्न हुए हैं । यह प्रक्रिया इसलिए भी जटिल है कि इसने सम्पूर्ण भारतीय समाज को समान रूप से प्रभावित नहीं किया । गाँवों की तुलना में नगरों में तथा निम्न वर्गों की तुलना में उच्च वर्गों में पश्चिमीकरण का अधिक प्रभाव देखने को मिलता है ।

 

  1. चेतन – अचेतन प्रक्रिया : पश्चिमीकरण केवल एक चेतन प्रक्रिया ही नहीं अपितु अचेतन प्रक्रिया भी है । दूसरे शब्दों में , पश्चिमीकरण की प्रक्रिया द्वारा भारत में सामाजिक परिवर्तन केवल सचेत रूप में ही हुआ है ; ऐसी बात नहीं है । अंग्रेज द्वारा लाए गए अनेक पश्चिमी सांस्कृतिक तत्वों को हमने अनायास ही कब ग्रहण कर लिया है यह शायद स्वयं हमें मालूम नहीं है । वे तो अचेतन रूप में हमारे जन – जीवन में समा गए हैं और परिवर्तन को घटित किया है ।

 

  1. एक निश्चित प्रारूप का अभाव : पश्चिमीकरण का कोई एक प्रारूप अथवा आदर्श नहीं है । ब्रिटिश शासनकाल में पश्चिमीकरण का आदर्श इंगलैण्ड का प्रभाव था । स्वतंत्रता के बाद जैसे – जैसे भारत के संबंध रूस और अमेरिका के साथ बढ़ते गए ; हमारी प्रौद्योगिकी तथा सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन पर इन देशों का प्रभाव बढ़ता गया । पश्चिमी प्रभाव से भारतीय समाज होने वाले वर्तमान परिवर्तनों में से यह बता सकना कठिन है कि यह प्रभाव इंग्लैण्ड , अमेरिका अथवा रूस आदि में से किस देश का है । स्पष्ट है कि हमारे देश में पश्चिमीकरण की प्रक्रिया किसी एक देश के आदर्श पर आधारित नहीं है ।

 

  1. पश्चिमीकरण का सम्बंध किसी सामान्य संस्कृति से नहीं : पश्चिमीकरण का सम्बंध पश्चिमी देशों के प्रभाव अवश्य है लेकिन सभी पश्चिमी देशों की सांस्कृतिक विशेषताओं में भी कुछ मिलता है । पश्चिमी देश की कोई सामान्य संस्कृति नहीं है । इसके बाद भी डा . श्रीनिवास ने यह माना है कि भारत में होने वाले सामाजिक परिवर्तन के लिए हम पश्चिमीकरण की जिस प्रक्रिया की बात करते हैं , वह वास्तव में ब्रिटिश संस्कृति के प्रभाव से ही सम्बन्धित है । यह कथन अधिक उपयुक्त मालूम नहीं होता है क्योंकि भारतीय समाज में होने वाले परिवर्तन पश्चिम के अनेक देशों के संयुक्त प्रभाव के परिणाम हैं ।

 

  1. अनेक मूल्यों का समावेश : पश्चिमीकरण में अनेक ऐसे मूल्यों का समावेश है जिनकी प्रकृति भारत के परम्परागत मूल्यों से काफी भिन्न है । उदाहरण के लिए समानता , स्वतंत्रता , व्यक्तिवादिता , भौतिक आकर्षण , तार्किकता तथा मानवतावाद ऐसे मूल्य हैं जिन्हें पश्चिमी संस्कृति में अधिक महत्त्वपूर्ण समझा जाता है । परम्परागत मूल्यों की जगह पश्चिम के इन मूल्यों को ग्रहण करने की प्रक्रिया का नाम ही पश्चिमीकरण है ।

 

भारतीय समाज पर पश्चिमीकरण का प्रभाव : डा ० एम ० एन ० श्रीनिवास ने पश्चिमीकरण की विस्तृत चर्चा अपनी प्रसिद्ध पुस्तक Social Change in Modern India ( P – 47 ) में तथा योगेन्द्र सिंह ने अपनी पुस्तक Modernization न .. 

 of Indian Tradition ( P – 9 ) साथ ही बी ० कुप्पूस्वामी ने अपनी पुस्तक Social Change in India ( P – 62 ) में पश्चिमीकरण के प्रभावों की चर्चा की है । पश्चिमीकरण के कारण भारतीय समाज में बहुआयामी परिवर्तन हुआ है जिसे निम्नलिखित बिन्दुओं पर देखा जा सकता है

 

1.जाति – व्यवस्था में परिवर्तन ( Change in Caste System ) : पश्चिमीकरण का सामाजिक जीवन पर सबसे बड़ा प्रभाव यह हुआ कि जातिगत बन्धन , छुआछूत की भावना समाप्त हुई है । इस प्रक्रिया ने सामाजिक समानता पर अधिक बल दिया । इसके प्रभाव से व्यक्ति धीर – धीरे यह समझने लगा कि जातियों का विभाजन तथा उनके बीच ऊँच नीच की व्यवस्था कोई ईश्वरीय रचना न होकर एक योजनाबद्ध सामाजिक नीति है । इसके फलस्वरूप अधिकांश व्यक्तियों ने जातिगत नियमों का विरोध करना आरंभ कर दिया । इसी का परिणाम है कि आज जाति से संबंधित सामाजिक सम्पर्क खान – पान , छुआछूत तथा व्यवसाय से संबंधित पूरी तरह समाप्त हो चुके हैं । निम्न जातियों ने उच्च जातियों के व्यवहारों का अनुकरण करके अपनी सामाजिक स्थिति को ऊँचा उठाना आरंभ कर दिया । आज अनुसूचित जातियों तथा अन्य पिछड़े वर्गों की सभी सामाजिक और आर्थिक निर्योग्यताएँ समाप्त हो जाने तथा उन्हें विशेष मताधिकार मिलने से जाति – व्यवस्था का सम्पूर्ण ढाँचा चरमराकर टूट गया है ।

 

  1. स्त्रियों की स्थिति में परिवर्तन : पश्चिकीकरण के कारण स्त्रियों की स्थिति में परिवर्तन होने लगे । इसके प्रभाव से जब वैयक्तिक स्वतंत्रता में वृद्धि हुई , तब स्त्रियों ने भी विभिन्न व्यवसायों और सेवाओं में प्रवेश करके अपनी आर्थिक आत्मनिर्भरता को बढ़ाने का प्रयत्न किया । परिवार विवाह तथा सार्वजनिक जीवन में स्त्रियों के बढ़ते हुए अधिकार आज इन्हीं दशाओं के परिणाम हैं । स्त्रियों के प्रति पुरुषों की मनोवृत्तियों में होने वाले परिवर्तन भी पश्चिमी संस्कृति की उस विचारधारा से प्रभावित हैं जो मानवतावादी और समतावादी मूल्यों को महत्त्व देती है ।

 

  1. संयुक्त परिवार में परिवर्तन : पश्चिमीकरण के प्रभाव के कारण व्यक्तिगत स्वतंत्रता व्यक्ति की आगे बढ़ाने में सहयोगात्मक है । इसी कारण संयुक्त परिवार से व्यक्ति अलग होकर नगरों में एकल परिवार की स्थापना करते हैं । इस संस्कृति ने लोगों को इस बात की प्रेरणा दी कि वे अपनी योग्यता और कुशलता को बढ़ाकर उच्च प्रस्थिति प्राप्त करें तथा अपने द्वारा उपार्जित आय का स्वतंत्रता के साथ उपयोग करें । यह विचार संयुक्त परिवार व्यवस्था के विरुद्ध होने के कारण उन व्यक्तियों ने संयुक्त परिवार को छोड़ना आरंभ कर दिया जो अधिक योग्य और साहसी थे । इसके फलस्वरूप एकाकी परिवारों में तेजी से वृद्धि हुई । पश्चिमीकरण ने समानता तथा भौतिक सुख से संबंधित जो विचारधारा प्रस्तुत की , उससे प्रभावित होकर स्त्रियाँ भी व्यक्तिगत स्वतंत्रता और छोटे परिवार के पक्ष में होने लगी । स्त्रियों ने जब विभिन्न आर्थिक क्षेत्रों में प्रवेश किया तो उनके परिवार का रूप संयुक्त बने रहना संभव नहीं रह गया । इसी का परिणाम है कि आज नगरों के अतिरिक्त गाँवों में भी संयुक्त परिवारों की संरचना में निरन्तर कमी होती जा रही है ।

 

4.रीति – रिवाज में परिवर्तन : पश्चिमीकरण ने रीति – रिवाज , तौर – तरीके , रहन – सहन , खान – पान , उठाना – बैठना , जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से संबंधित तरीकों में व्यापक परिवर्तन किया । उदाहरण के तौर पर हाथ मिलाना , गुड मार्निंग , सौरी , पैन्ट – शर्ट आदि ।

 

  1. विवाह में परिवर्तन : पश्चिमीकरण के परिणामस्वरूप , सह – शिक्षा ( Co – education ) , स्त्री पुरुषों का एक साथ काम करने का अवसर , अन्तर्विवाह के नियमों के पालन करने की जगह योग्य जीवन साथी का चुनाव करना अधिक अच्छा समझा जाने लगा । इसके फलस्वरूप एक- ओर विलम्ब – विवाह का प्रचलन बढ़ा तो दूसरी ओर बहुत से शिक्षित और जागरूक व्यक्तियों ने अंतर्जातीय विवाह करना भी आरंभ कर दिया । इस समय विवाह को एक स्वस्थ्य पारिवरिक जीवन के आधार के रूप में देखा जाने लगा । फलस्वरूप एक ओर विवाह – विच्छेदों की संख्या में वृद्धि होने लगी तो दूसरी और अन्तर्विवाह तथा बहिर्विवाह से संबंधित नियम कमजोर पड़ने लगे । इसके साथ ही अपने पसन्द के व्यक्तियों के साथ विवाह का प्रचलन बढ़ा जिसे प्रेम विवाह कहते हैं ।

 

  1. धार्मिक जीवन में परिवर्तन : पश्चिमीकरण की संस्कृति के प्रभाव से अन्धविश्वासों , कर्मकाण्डों तथा धर्म पर आधारित कुप्रथाओं की मनोवृत्तियों में व्यापक परिवर्तन देखने को मिलता है । ईसाई धर्म प्रचारकों ने जब हिन्दू – धर्म में व्याप्त अन्ध – विश्वासों और कुरीतियों की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित करके उन्हें ईसाई धर्म को ग्रहण करने की प्रेरणा देना आरंभ किया तब स्वयं हिन्दुओं को भी अपने धर्म पर आधारित रूढ़ियों का मूल्यांकन करने की प्ररेणा मिली । इस समय शिक्षित और विवेकशील व्यक्तियों ने धर्म द्वारा समर्पित देववासी प्रथा , अस्पृश्यता , सती – प्रथा , बाल – विवाह , विधवा – विवाह पर नियंत्रण तथा स्त्रियों की निम्न स्थिति आदि का विरोध करना आरंभ कर दिया । ईसाई मिशनरियों ने व्यक्तियों के सामने मानवतावाद तथा सामाजिक समानता का जो आदर्श प्रस्तुत किया , उससे प्रभवित होकर भारत में अनेक सुधारवादी सम्प्रदायों ने धार्मिक समानता , मानव सेवा और बन्धुत्व के महत्त्व को स्पष्ट करके हिन्दू धर्म में उपयोगी परिवर्तन लाने के प्रयत्न किये ऐसे सम्रदायों में ब्रह्मसमाज , आर्य समाज तथा रामकृष्ण मिशन की भूमिका अधिक महत्त्वपूर्ण है । पश्चिमीकरण की विचारधारा के प्रभाव से भूत – प्रेत तथा भावातिता का प्रभाव कम होने लगा साथ ही तार्किकता तथा कर्मवाद की विचारधारा में परिवर्तन हुआ । इसके साथ ही धर्मनिरपेक्षता का विकास हुआ ।

 

  1. व्यक्तिवादी तथा भौतिक मूल्यों में वृद्धि : पश्चिमीकरण के प्रभाव से परिश्रम के द्वारा अथि कि विकास तथा व्यक्गिता हित में उसके उपयोग को महत्त्व दिया जाता है । यही वे दशाएँ हैं जिनके प्रभाव से हमारे समाज में प्राथमिक संबंधों की जगह द्वितीयक और हित – प्रधान सामाजिक संबंधों में वृद्धि होने लगी । आज पारिवरिक तथा मित्रता के सम्बंधों में भी प्रदर्शन और दिखावे का महत्त्व बढ़ता जा रहा है । अधिकांश व्यक्ति उन्हीं कामों में अधिक रुचि लेते हैं जिनसे उन्हें व्यक्तिगत लाभ मिल सके । परम्परागत रूप से एक व्यक्ति की आय पर उसके सभी निकट रक्त – सम्बन्धियों का नैतिक अधिकार समझा जाता था लेकिन आज व्यक्ति अपनी सफलता का उपयोग केवल व्यक्तिगत हित में करना उचित मानता है । मनोवृत्तियों और विचारों के इस परिवर्तन ने भारत की सभी परम्परागत संस्थाओं के रूप को प्रभावित किया है ।

 

  1. राजनीति में परिवर्तन : पश्चिमीकरण के प्रभाव के कारण ही हमारे देश में लोकतंत्रीय तथा प्रजातंत्रीय संस्थाओं का भी विकास होने लगा । ब्रिटिश शासन व्यवस्था पूँजीवादी आदर्शों पर आधारित थी जो कि स्वयं ही अनेक दो सामाजिक दोषों से संयुक्त हैं । इन दोषों की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप साम्यवादी , समाजवादी और व्यक्तिवादी राजनैतिक विचारों व सिद्धांतों का प्रसार भी इस देश में हुआ ।

 

  1. मानवतावाद का विकास : डा ० एम ० एन ० श्रीनिवास का कथन है कि पश्चिमीकरण में कुछ विशेष मूल्यों का समावेश है जिन्हें हम ‘ मानवतावाद ‘ के नाम से सम्बोधित कर सकते हैं | ‘ मानवतावाद ‘ एक ऐसी भावना है जिसमें व्यक्ति की जाति , आर्थिक स्थिति , आयु , लिंग व धर्म पर ध्यान दिये बिना मानव मात्र के कल्पाण को विशेष महत्त्व दिया जाता है । ऐसी भावनाओं

के फलस्वरूप समाज के सभी वर्गों में मानव अधिकारों के प्रति चेतना उत्पन्न हुई है । हमारे समाज में निम्न जातियों तथा पिछड़ी जातियों को मिलने वाले विशेष अधिकार मानवतावाद में होने वाली वृद्धि को ही स्पष्ट करते हैं । अंग्रेजों की यह मान्यता थी कि समाज के उपेक्षित और पिछड़े वर्गों में जब अपने अधिकारों की चेतना पैदा ही जाएगी तो यह वर्ग स्वयं ही समानता की माँग करने लगेंगे । यह कार्य अंग्रेजी शासनकाल में नहीं हो सका लेकिन स्वतंत्रता के पश्चात् नगरीय ग्रामीण तथा जनजातियों सभी क्षेत्रों में आज इन वर्गों ने अपने अधिकारों और समानता की माँग करनी आरंभ कर दी है

 

  1. राष्ट्रीयता का विकास : पाश्चात्य संस्कृति , शिक्षा और विचारधाराओं ने हमें न केवल दुनिया के राष्ट्रीय जीवन के सम्पर्क में ही ला दिया बल्कि देश के अन्दर विभिन्न विपरीत समूहों में एक सांस्कृतिक समानता को भी उत्पन्न किया । इस सांस्कृतिक समानता और अन्य विदेशी राष्ट्रों को देखकर भारतीय जीवन में एकता और राष्ट्रीयता की नवीन लहर दिखायी दी ।

 

  1. आर्थिक क्षेत्र में परिवर्तन : पश्चिमीकरण के फलस्वरूप यातायात के साधनों में उन्नति हुई और औद्योगीकरण बढ़ता गया जिसके कारण गाँव की आर्थिक आत्मनिर्भरता धीर – धीरे समाप्त होने लगी और खेती का व्यापारीकरण शुरू हो गया । गाँव के आर्थिक जीवन पर दूसरा प्रभाव ग्रामीण उद्योगों का विनाश था , क्योंकि गृह – उद्योग मशीन उद्योग की प्रतियोगिता में न टिक सके । साथ ही गाँव में प्रचलित पुरानी भूमि – प्रणाली को समाप्त कर दिया गया और जमींदारी प्रथा का विकास किया गया । इस प्रकार गाँव में एक शोषणकारी व्यवस्था शुरू हुई । दूसरी ओर शहर में औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप आर्थिक विकास तेज हुआ । बड़ी – बड़ी मिलों और फैक्ट्रियों की स्थापना हुई , मशीनों का प्रयोग दिन – प्रतिदिन बढ़ता गया तथा उत्पादन बड़े पैमाने पर होने लगा । यातायात के साधनों में उन्नति होने के कारण न केवल अन्तर्राज्यीय व्यापार बढ़े अपितु अन्तर्राज्यीय व्यापार भी बढ़ा इससे देश के व्यापार और वाणिज्य में भी उन्नति हुई । आज व्यापार में वैश्वीकरण तथा उदारीकरण की सरकारी नीति भी एक तरह से पश्चिमीकरण का ही परिणाम है

 

  1. साहित्य में परिवर्तन : विभिन्न भारतीय भाषाओं के साहित्य पर भी पाश्चात्य शिक्षा और संस्कृति का प्रभाव पड़ा है । अंग्रेजी साहित्य संसार के सब आधुनिक साहित्यों में काफी समृद्ध माना जाता है । इन अंग्रेजी साहित्य तथा यूरोप की अन्य भाषाओं के साहित्य को पढ़ने तथा समझने एवं उससे लाभ उठाने का अवसर भारतीय विद्वानों तथा लेखकों को अंग्रेजी भाषा ने प्रदान किया । इससे हिन्दी के साथ – साथ अन्य सभी प्रान्तीय भाषाओं के साहित्य में पाश्चात्य साहित्यिक शैली , सामग्री तथा विचारों का समावेश होने लगा और उनका आधुनिकीकरण हुआ । प ० ईश्वरचन्द्र विद्यासागर , रवीन्द्रनाथ टैगोर , बंकिमचन्द्र चटर्जी के उपन्यास तथा कहानियों में हिन्दू समाज की प्रमुख समस्याओं को स्थान मिला जो कि अंग्रेजी शासन साहित्य का ही प्रभाव था । 19 णीं शताब्दी के अंतिम चरण में अंग्रेजी शासन तथा शिक्षा से प्रभावित होकर बंगाल के कुछ लेखकों ने समाज – सुधार और राष्ट्रीय जोश की बातें अपने साहित्य में लिखी । उनमें बंकिमचन्द्र चटर्जी द्वारा लिखित ‘ आनन्द मठ ‘ को भारतीय राष्ट्रीयता का बाइबिल कहा जाता है । इसी पुस्तक में उसने ‘ वन्दे मातरम् ‘ का राष्ट्रीय गीत 1 लिखा । इस प्रकार पश्चिमीकरण ने भारतीय समाज में बहुआयायी परिवर्तन लाया है जो कि परिवार , विवाह , नातेदारी , धर्म , शिक्षा , साहित्य , कला , संगीत , रीति – रिवाज , अर्थव्यवस्था , राजनीतिक व्यवस्था सभी क्षेत्र को प्रभावित किया है ।

भारत में सामाजिक परिवर्तन : दशा एवं दिशा 106

 

 

संस्कृतिकरण तथा पश्चिीकरण में अंतर :

 

  1. पश्चिमीकरण भारतीय समाज में होने 1. संस्कृतिकरण भारतीय समाज में होने वाली एक अन्तःजनित प्रक्रिया है । इसका वाली एक बाह्यजनित प्रक्रिया है । इसका स्रोत स्वयं भारतीय समाज में ही विद्यामन स्रोत भारतीय समाज के बाहर अर्थात् होता है । कोई पश्चिमी देश होता है ।

 

  1. संस्कृतिकरण एक अत्यन्त प्राचीन प्रक्रिया 2. पश्चिरीकरण अपेक्षाकृत एक आधुनिक प्रक्रिया है ।

 

  1. संस्कृतिकरण एक संकुचित प्रक्रिया 3. पश्चिमीकरण एक विस्तृत प्रक्रिया है । है क्योंकि इसका सम्बन्ध केवल निम्न क्योंकि इनका सम्बन्ध सभी जातियों एवं जातियों से है । वर्गों से है ।

 

  1. संस्कृतिकरण में निम्न जाति किसी 4. पश्चिमीकरण में सभी जातियाँ पश्चिमी उच्च जाति का अनुकरण करके अपना संस्कृति का अनुकरण करने का प्रयास परम्परागत सामाजिक स्तर ऊँचा करने का करती हैं । प्रयास करती है ।

 

  1. श्रीनिवास के अनुसार संस्कृतिकरण | 5. पश्चिमकरण से पदमूलक तथा संरचनात्मक से केवल पदमूलक परिवर्तन होते हैं , दोनों प्रकार के परिवर्तन होते हैं । संरचनात्मक नहीं ।

 

  1. संस्कृतिकरण में आदर्श प्रतिमान उच्च 6. पश्चिमीकरण में आदर्श प्रतिमान कोई वर्ण अथवा स्थानीय प्रभु जाति होती है । पश्चिमी देश होता है ।

 

  1. संस्कृतिकरण में शुद्धतावादी आदर्शों को | 7. पश्चिमीकरण में लौकिक आदर्शों को महत्त्व दिया जाता है । महत्त्व दिया जाता है ।

 

  1. संस्कृतिकरण द्वारा अपेक्षाकृत 8. पश्चिमीकरण से अपेक्षाकृत अधिक गतिशीलता आती है गतिशीलता आती है ।

 

  1. संस्कृतिकरण की विपरीत प्रक्रिया को | 9. पश्चिमीगरण की कोई विपरीत प्रक्रिया असंस्कृतिकरण कहते हैं । नहीं है यद्यपि पश्चिमी देश गैर – पश्चिमी देश से प्रभावित होते हैं ।

 

  1. आर्थिक सम्पन्नता तथा राजनीतिक शक्ति 10. पश्चिमीकरण में सहायक कारकों का संस्कृतिकरण में प्रमुख सहायक कारक हैं । पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता है ।

 

 

 संस्कृतिकरण तथा आधुनिकीकरण में अंतर :

 

  1. संस्कृतिकरण भारतीय समाज में होने | 1. संस्कृतिकरण भारतीय समाज में होने वाली एक अन्तःजनित प्रक्रिया है । वाली एक बाह्यजनित प्रक्रिया है । इसका इसका स्रोत स्वयं भारतीय समाज में ही स्रोत भारतीय समाज के बाहर अर्थात् विद्यमान होता है । कोई पश्चिमी देश होता है ।

 

  1. संस्कृतिकरण एक अत्यन्त प्राचीन प्रक्रिया | 2. आधुनिकीकरण अपेक्षाकृत एक नवीन कम प्रक्रिया है ।
  2. संस्कृतिकरण एक संकुचित प्रक्रिया | 3. आधुनिकीकरण एक विस्तृत प्रक्रिया है है क्योंकि इसका सम्बन्ध केवल निम्न क्योंकि इसका सम्बन्ध सभी क्षेत्रों में जातियों से है । परिवर्तन से है ।
  3. संस्कृतिकरण में निम्न जाति किसी 4. आधुनिकीकरण में सभी जातियाँ उच्च जाति का अनुकरण करके अपना परम्परागत सामाजिक स्तर ऊँचा करने आधुनिक मूल्यों का अनुकरण करने का प्रयास करती हैं । का प्रयास करती है ।

 

  1. श्रीनिवास के अनुसार संस्कृतिकरण 5. आधुनिकीकरण से पदमूलक तथा से केवल पदमूलक परिवर्तन होते हैं , संरचनात्मक दोनों प्रकार के परिवर्तन संरचनात्मक नहीं । होते हैं ।

 

  1. संस्कृतिकरण में आदर्श प्रतिमान उच्च 6. आधुनिकीकरण में आदर्श प्रतिमान कोई वर्ण अथवा स्थानीय प्रभु जाति होती है । भी पश्चिमी देश , अमेरिका अथवा अन्य आधुनिक देश हो सकता है

 

  1. संस्कृतिकरण में शुद्धतावादी आदर्शों को 7. आधुनिकीकरण में लौकिक आदर्शों को महत्त्व दिया जाता है । महत्त्व दिया जाता है ।

 

  1. संस्कृतिकरण द्वारा अपेक्षाकृत कम 8. आधुनिकीकरण से अपेक्षाकृत अधिक गतिशीलता आती है । गतिशीलता आती है ।

 

  1. संस्कृतिकरण की विपरीत प्रक्रिया को 9. आधुनिकीकरण की कोई विपरीत प्रक्रिया असंस्कृतिकरण कहते हैं । नहीं है यद्यपि कुछ देशों में परम्परावाद एवं कट्टरवादिता को प्रोत्साहन दिया जा रहा है ।

 

  1. आर्थिक सम्पन्नता तथा राजनीतिक | 10. आधुनिकीकरण में विविध सहायक शक्ति संस्कृतिकरण में प्रमुख सहायक कारक होते हैं जिसका पूर्वानुमान नहीं कारक हैं । लगाया जा सकता है ।

 

 

 

 वैश्वीकरण ( Globalisation ) :

 

 वैश्वीकरण या भूमण्डलीकरण का शाब्दिक अर्थ है पूरी धरती या पूरे विश्व को एक मण्डल बना देना । इसका तात्पर्य एक केन्द्रीय व्यवस्था होती है । नए सन्दर्भो में भूमण्डलीय वह व्यवस्था है , जिसमें पूँजी राष्ट्रीय सीमाओं को लाँघ कर मुक्त रूप से विचरण करती है तथा मुक्त बाजार व्यवस्था को बढ़ावा दिया जाता है वैश्वीकरण एक नई प्रक्रिया है जिसकी शुरुआत 1980 के मध्य से हुई तथा वास्तविक शुरुआत 1990 में हुई । इन्टरनेशनल सोशियोलॉजी के सम्पादकीय में गोरन थेरबान ने इसे समाज विज्ञानों का 21 वीं सदी का बहुत नजदीकी धरोहर कहा है । अमित भादुड़ी और दीपक नैय्यर ने कहा कि भारत ने जिस उदारीकरण को नीति को अपनाया है वह अपने आप में एक रूढ़िवादी व्यवस्था है । इसका व्यावहारिक रूप पूरे विश्व का एक गाँव में खान – पान , रहन सहन , निवास स्थान में एक प्रकार की समानता हो अर्थात् यह उत्पादन और उपभोग को सम्पूर्ण विश्व में एक रूप देना चाहता है । अर्थशास्त्रियों तथा सामाजिशास्त्रियों के अनुसार वैश्वीकरण के तीन महत्त्वपूर्ण पहलू

 

  1. वैश्वीकरण से अन्तर्राष्ट्रीय बाजार खुल गया है । किसी भी एक देश का व्यक्ति दूसरे देश में पूँजी लगा सकता है

 

  1. अन्तर्राष्ट्रीय निवेश सरलता से किया जा सकता है । किसी भी एक देश का व्यक्ति दूसरे देश में पूँजी लगा सकता है ।

 

  1. अर्थव्यवस्था में अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय सहायता को काम में लिया जा सकता है । इस प्रकार , देखा जाए तो वैश्वीकरण के स्वरूप के दो आधार स्तम्भ हैं । जो इस प्रकार 1. देश की सीमा को आर्थिक रूप से रुकावट रहित कर देना अर्थात् वस्तुओं का व्यापार , पूँजी – निवेश तथा अन्य कार्यकलापों में देश की सीमा अवरोधक न बने । 2. राज्य की भूमिका कानून व्यवस्था तक ही सीमित हो अर्थात् राज्य आर्थिक क्रियाकलापों में हस्तक्षेप न करे । वैश्वीकरण की प्रक्रिया को सक्षम और सफल बनाने में प्रौद्योगिकी सबसे बड़ी भूमिका होती है क्योंकि यह बिना किसी हरॆ फिटकिरी के देश की सामाओं को लाँघ जाती है तथा उसका विस्तार ही उसकी सफलता की कुंजी है । वैश्वीकरण की प्रक्रिया में हम केवल एक नई औद्योगिकी का ही वर्णन नहीं करते अपितु नई सोच , नई विचार तथा नई संस्कृति को भी स्वीकार करते हैं । 1991 में वैश्वीकारण में फलस्वरूप भारतीय बाजार में भी नई प्रक्रियाएँ आरम्भ हुई हैं 1. खुला अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार 2. अन्तर्राष्ट्रीय निवेश 3. अन्तर्राष्ट्रीय वित्त उपर्युक्त नई प्रक्रियाओं तथा वैश्वीकरण के प्रभाव भारतीय समाज पर भी पड़े हैं जिसकी चर्चा उदारीकरण के प्रभाव में समाहित है ।

 

 

उदारीकरण ( Liberalisation ) :

 

 उदारीकरण वह प्रक्रिया है जिसमें कर युक्त व्यापार की व्यवस्था होती है तथा आयात निर्यात और पूँजी निवेश आदि पर सरकारी नियंत्रण कम से कम होता है । सर्वप्रथम इसकी चर्चा एडम स्मिथ ने ‘ अहस्तक्षेप ‘ के सिद्धांत में की है तथा समर्थन भी किया था । उदारीकरण एक आर्थिक रणनीति है जिसमें सम्पूर्ण आर्थिक प्रणाली खुली बाजार व्यवस्था पर आधारित होती है । उदारीकरण की अर्थव्यवस्था में दो मुख्य अवधारणाएँ कार्यरत होती हैं । जो निम्न हैं 

  1. स्थिरीकरण और

2.ढाँचागत समायोजन

स्थिरीकरण के अन्तर्गत वे कार्यक्रम आते हैं जिन्हें सामाजिक आर्थिक संकट को टालने के लिए अपनायी जाती है जिसमें लघु अवधि के कों के किस्तों को चुकाकर बढ़ती हुई महँगाई को रोक लिया जाता है ।

 

 

इसकी दूसरी महत्त्वपूर्ण अवधारणा ढाँचागत समायोजन है जिनके अन्तर्गत आर्थिक समायोजन और कुछ आर्थिक सुधार करने होते हैं , जो मुख्यतः नीति नियमों से सम्बन्धित होते हैं । जिनका उद्देश्य

  1. अव्यहारिक वस्तुओं को व्यापारिक बनाना

 

  1. निजीकरण तथा निजी क्षेत्रों को प्रोत्साहन देना
  2. अर्थव्यवस्था को अधिक खुलापन प्रदान करना तथा
  3. बाजार की शक्तियों पर अधिक भरोसा करना आदि शामिल है ।

उदारीकरण की प्रक्रिया सार्वभौमीकरण की प्रक्रिया से इस अर्थ में भिन्न है कि सार्वभौमीकरण संकेन्द्रण की बात करता है जबकि उदारीकरण कम – से – कम नियंत्रण की बात करता है ।

 

उदारीकरण के कुछ महत्त्वपूर्ण तथ्य निम्न हैं

 

  1. आयात पर से सरकारी नियंत्रण का हटाया जाना
  2. कर ढाँचे को परिवर्तित करना
  3. नई नीतियों का सृजन करना जो औद्योगिक शक्ति के विपणन में सहायक हो ।
  4. विदेशी विनिमय नीति को बढ़ाकर पूँजी निवेश को प्रोत्साहित करना ।

 भारत में औद्योगीकरण की प्रक्रिया की शुरुआत तो बी ० बी ० मिश्रा के अनुसार 1840 में ही हो गयी थी , परन्तु स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व साम्राज्यवादी प्रभुत्व के कारण इनकी स्थिति और जर्जर ही रही । जिन्हें 1948 से अर्थव्यवस्था की मिश्रित प्रणाली अपनाकर पुनर्जीवित करने का प्रयास किया गया और 1956 में नई औद्योगिक नीति की घोषणा की गयी जिसके अन्तर्गत आधारभूत तथा कुछ महत्त्वपूर्ण उद्योगों को सार्वजनिक क्षेत्र के लिए आरक्षित किया तथा शेष को निजी क्षेत्र के लिए छोड़ दिया गया । परन्तु यह नीति विभिन्न कारणों से सफल नहीं हो पायी तथा 70 के दशक तक आते – आते भारत विदेशी कर्ज में डूबकर ऋण जाल में फँस गया और उदारीकरण तथा निजीकरण की प्रक्रिया ने धीमी शुरुआत की और 90 के दशक में 1991 में चरमड़ाती अर्थव्यवस्था और कर्जदायी अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय एजेंसियों के दवाब में उदारीकरण तथा निजीकरण को अपनाना भारत की मजबूरी बन गयी । अतः 1991 में भारत ने नई आर्थिक नीति की घोषणा की जिसमें उदारीकरण तथा निजीकरण को प्राथमिकता दी गयी जिसके गम्भीर प्रभाव भारतीय जनजीवन पर देखने को मिलते हैं । जिसकी चर्चा अग्र प्रकार की जा सकती है

 

  1. सामाजिक असमानता : अमीरों और गरीबों के बीच की दूरी काफी बढ़ गयी है । अमीर और अधिक अमीर हुए हैं तथा गरीबों की दरिद्रता में भी वृद्धि हुई है । सरकारी आंकड़ों के अनुसार अभी भी 36 % लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे हैं जबकि वास्तविक स्थिति इससे कहीं अधिक भयावह है । 70 तथा 80 के दशक में गरीबी में हर वर्ष 2 % कमी हो रही थी पर 1991 से 97 के बीच इसमें कोई कमी नहीं आयी बल्कि इसमें और वृद्धि हुई है । आज तो हर तीसरा भारतीय भीषण दरिद्रता की स्थिति में जीने को अभिशप्त है ।

 

  1. लघु एवं कुटीर उद्योगों का हास : अवसरों के सिमटने एवं बेरोजगारी के कारण इनसे जुड़े मजदूरों एवं किसानों की स्थिति दयनीय है तथा वे भुखमरी के शिकार हैं । 1986-87 में बेरोजगारों को रोजगार पाने की दर 6.6 % थी जो 1995-96 से घटकर 3.7 % रह गई । पिछले 10 वर्षों में 36 % लघु – उद्योग बन्द हुए हैं तथा अगले 2 या 3 वर्षों में 20 % के और बंद होने की आशंका है ।

ग्रामीण पारंपरिक उद्योग पूरी तरह नष्ट हो गए हैं तथा इनके स्थान पश्चिम के मशनीकृत उत्पाद आने शुरू हो गए हैं तथा 1 अप्रैल , 2001 से 1429 सामानों पर से भी मायात्मक प्रतिबन्ध हटा लिया गया है । इससे स्थिति दिन प्रतिदिन और भी भयावह होगी ।

 

  1. ग्रामीण समुदाय का कम महत्त्व : नई नीतियों के कारण ग्रामीण समुदाय का महत्त्व पहले की अपेक्षा और घट गया है तथा शहरों के प्रति लोगों का आकर्षण बढ़ा है । इससे शहरों में विभिन्न प्रकार की समस्याएँ उत्पन्न हो रही है जिसके समाधान की इच्छाशक्ति न तो सरकार के पास नजर आती है और न ही आम जनता के पास ।

 

  1. परिवार में तनाव : इससे न केवल संयुक्त परिवारों पर दवाब बढ़ी है बल्कि एकल परिवार भी तनाव की स्थिति में आ गई है । बाजारीकरण के प्रति स्त्रियों का आकर्षण बढ़ा है तथा वे रोजगार की तलाश में घरों से बाहर हुई है जिससे घर के प्रति उनके दायित्वों में कमी आयी है तथा न केवल परिवार बल्कि समाज भी तनाव और विघटन की स्थिति से जूझ रही है । तलाकों की दरों में वृद्धि हई तथा घर बाहर स्त्रियाँ भी विकृत मानसिकता की शिकार हुई हैं । इससे भारतीय संस्कृति की समूहवादी प्रवृति में कमी आयी है जिसे मधूकीशिवर ने सकारात्मक परिवर्तन है

 

  1. सांस्कृतिक प्रभाव : इसका प्रभाव यदि सांस्कृतिक दृष्टि से देखा जाए तो यह और भी खतरनाक प्रतीत होते हैं । आज युवकों तथा युवतियों को टी ० वी ० के माध्यम से नए – नए रिश्ते बतलाए जा रहे हैं । शिक्षा तथा मनोरंजन के नाम पर संस्कृति का कबाड़ा किया जा रहा है । जिस प्रकार की नगन्नता और मार – धाड़ विदेशी आयोजित फिल्मों में दिखाई जा रही है , उसका क्या प्रभाव होगा , यह कहने की आवश्यकता नहीं है । यह बात केवल आयोजित फिल्मों तक ही सीमित नहीं है बल्कि देशी चैनलों के धारावाहिकों में भी हिंसा , लूट और बलात्कार के नये नये तरीके से युवाओं को आशना कराया जा रहा है । फैशन के नाम पर लड़कियों को अर्धनग्न दिखाया जा रहा है तथा कण्डोम आदि का खुलेआम प्रचार किया जा रहा है जिससे स्त्रियों के प्रति हमारी दृष्टिकोण में परिवर्तन आ रहा है तथा उसे हम माँ , बहू और बेटी के रूप में न देखकर केवल उपयोग की वस्तु समझने लगे हैं जिसका परिणाम हत्या , लूटमार और राह चलते छेड़छाड़ है ।

 

  1. शैक्षणिक व्यवस्था पर प्रभाव : आज हम अपने इतिहास और साहित्यों पर गर्व नहीं करते , अपितु विदेशी साहित्य का बखान करते नहीं थकते । मीडिया भी अपनी उत्तरदायित्वों से दूर चला गया है तथा यह अब केवल धन कमाने का साधन बन चुका है । शिक्षा का तात्पर्य समाज का दर्पण नहीं रहा बल्कि रोटी कमाना बन चुका

 

  1. कृषि पर प्रभाव : उदारीकरण के इस दौरे में कृषि जो कभी हमारी अर्थव्यवस्था का रीढ़ तथा पारम्पारिक संस्कृति का प्रतीक समझी जाती थी अछूता नहीं रहा । विदेशी कम्पनियाँ इस पूरी व्यवस्था पर जहरीले फन काढ़े हुई है । वे पैटेन्ट तथा अन्य माध्यमों से इस पूरी कृषि व्यवस्था को अपने कब्जे में लाने को आतुर दिखाई पड़ती है ।

 

  1. राजकोषीय घाटा : इतना ही नहीं उदारीकरण के पश्चात् हमारा राजकोषीय घाटा निरन्तर बढ़ता जा रहा है । हम ऋण – जाल के दल – दल में लगातार धंसते जा रहे हैं । हमारा राष्ट्रीय विकास दर भी अस्थिर रहा है जिसका प्रभाव हमारे दिन – प्रतिदिन गिरते जीवन स्तर के रूप में देखने को मिल रहा है । इसकी ओर इशारा करते हुए अमेरिकी चिन्तक नोम चेम्सकी ने भी इसे जनता की कीमत पर मुनाफे के रूप में परिभाषित किया है ।
  2. राजनीतिक प्रभाव : देश की अर्थव्यवस्था विदेशोन्मुख हो गई है तथा राजनीति समाज के निचले तबके की ओर मुड़ती दिखाई दे रही है जिससे आज अनेक स्थानों पर तनाव की स्थिति दिखाई दे रही है , जिसका लावा कभी – कभी फूटता भी नजर आता है । राजनीति में क्षेत्रीयता का प्रभाव बढ़ा है तथा राजनेताओं का लक्ष्य सत्ता तक पहुँचना मात्र रह गया है जिससे जनता के प्रति उनकी जवाबदेही में कमी आती जा रही है । अर्थ नीति तथा राजनीति में विरोधाभाषी प्रवृत्ति पैदा हो रही है जो विषम नए संकट को जन्म दे रही है ।

 

  1. जातिवाद , सम्प्रदायवाद , भ्रष्टाचार : उदारीकरण के दौरे में नागरीकरण तथा उपभोक्तावादी प्रवृत्ति के विस्तार के कारण सामंतवाद , साम्प्रदायिक मानसिकता , भ्रष्टाचार , आंतक तथा हिंसा जैसी कुरीतियों में बढ़ोतरी तथा भौतिकता का ह्रास हो रहा है । जो अन्ततः न केवल राष्ट्र बल्कि मानवतावाद के लिए भी हानिकारक सिद्ध होगा । अतः उपर्युक्त तमाम विश्लेषणों से स्पष्ट होता है कि यद्यपि उदारीकरण को स्वस्थ , औद्योगीकरण प्रतियोगी वातावरण पैदा करने तथा तकनीकी विकास के उद्देश्य से अपनाया गया था , जिसमे कुछ सफलता तो मिली है परन्तु इसके दुर्गुण साफ – साफ और स्पष्ट दृष्टिगोचर होने शुरू हो गए हैं । अर्थात् उदारीकरण ने अबतक जितना हमें लाभ नहीं पहुँचाया है उससे , कहीं अधिक हमें नुकसान पहुँचाया है जिसकी ओर ध्यान देने की आवश्यकता है ।
2023 NEW SOCIOLOGY – नया समाजशास्त्र
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