सामाजिक परिवर्तन अवधारणा

सामाजिक परिवर्तन को अवधारणा

( Concept of Social Change )

मार्क्स द्वारा प्रस्तुत सामाजिक परिवर्तन की अवधारणा बहुत बड़ी सीमा तक उनकी ‘ इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या ‘ तथा ‘ वर्ग – संघर्ष ‘ सम्बन्धी विचारों पर आधारित है । साथ ही , मार्क्स ने यह भी स्वीकार किया कि सामाजिक परिवर्तन अनेक आर्थिक कारकों का परिणाम है । मार्क्स ने उन विद्वानों के विचारों को स्वीकार नहीं किया जिनके अनुसार भौगोलिक दशाओं तथा जनसंख्या में होने वाली वद्धि को सामाजिक परिवर्तन का कारण मान लिया गया था । उनके अनुसार सामाजिक परिवर्तन समाज की आर्थिक संरचना तथा उस व्यवस्था से प्रभावित होता है जिसमें उत्पादन तथा वितरण के माधनों को एक विशेष ढंग से नियन्त्रित किया जाता है । इस आधार पर मार्क्स ने यह स्पष्ट किया कि सामाजिक परिवर्तन का सबसे प्रमुख कारण उत्पादन की प्रणाली में होने वाला परिवर्तन है । विभिन्न युगों में उत्पादन – प्रणाली में होने वाले परिवर्तन के उत्पादन के सम्बन्धों ( Relations of Production ) में भी परिवर्तन हो जाता है । यह नए सम्बन्ध एक नवीन आर्थिक संरचना का निर्माण करते हैं और इसी के आधार पर हमारी सामाजिक , वैधानिक तथा राजनैतिक अधि – संरचना ( Super – structure ) में परिवर्तन होने लगता है । इन समस्त परिवर्तनों को मार्स ने एक विशेष क्रम में स्पष्ट किया जिसे इस प्रकार समझा जा सकता है : अपने सिद्धान्त को स्पष्ट करते हुए मार्क्स का कथन है कि जीवित रहने के लिए मनुष्य की सबसे बड़ी आवश्यकता भोजन और अनिवार्य सुविधाओं को प्राप्त करना है ।

इन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मनुष्य द्वारा उत्पादन करना आवश्यक है । जिन साधनों के द्वारा व्यक्ति उत्पादन कार्य करता है उन्हें ‘ उत्पादन की प्रवि धियाँ ( Means of Production ) अथवा प्रौद्योगिकी कहा जाता है । यह प्रौद्योगिकी छोटे – छोटे औजारों से लेकर बड़ी – बड़ी मशीनों तक के रूप में हो सकती है । इस प्रौद्योगिकी में जब उपकरणों के अतिरिक्त उत्पादन का अनुभव , श्रम तथा उत्पादन के सम्बन्धों का भी समावेश हो जाता है तो इसे हम ‘ उत्पादन – प्रणाली ‘ ( Mode of Production ) के नाम से सम्बोधित करते हैं । यह उत्पादन – प्रणाली ही किसी समाज की मूल – संरचना ( Infra – Structure ) होती है तथा इसी पर समाज की सामाजिक , सांस्कृतिक , राजनैतिक एवं धार्मिक संरचना आधारित होती है । इसका तात्पर्य है कि उत्पादन प्रणाली के रूप के अनुसार ही किसी समाज में धर्म , साहित्य , कला , विज्ञान , राजनीति एवं संस्कृति का निर्माण और विकास होता है ।

मार्क्स ने स्पष्ट किया कि जब कभी भी उत्पादन की प्रणाली अथवा उत्पादन के तरीकों में परिवर्तन होता है तो उत्पादन की शक्तियां भी तेजी से बदलने लगती हैं । उदाहरण के लिए , जब उत्पादन का उद्देश्य उपभोग की आवश्यकताओं को पूरा करना था तो उत्पादन की शक्तियाँ बहुत अविकसित दशा में थीं । लेकिन जब उत्पादन लाभ प्राप्त करने के लिए किया जाने लगा तो उत्पादन की शक्तियों में भी व्यापक परिवर्तन हो गया । इस प्रकार बड़ी – बड़ी मशीनों का आविष्कार हुआ , कल कारखानों की स्थापना हुई और एक ही स्थान पर हजारों की संख्या में श्रमिक साथ – साथ कार्य करने लगे । उत्पादन के तरीकों तथा उत्पादन की शक्तियों में परिवर्तन होने से अगले स्तर में उत्पादन के सामाजिक सम्बन्धों में भी परिवर्तन होता है । उदाहरण के लिए , जब हाथ की चक्की से उत्पादन किया जाता था तो व्यक्तियों के आर्थिक सम्बन्धों की प्रकृति दूसरी थी लेकिन जब बिजली की चक्की से उत्पादन होने लगा तो व्यक्तियों के सामाजिक सम्बन्धों में भी परिवर्तन हो गया ।

इसी प्रकार जब हल और बैलों की सहायता से कृषि – उत्पादन का कार्य किया जाता था अथवा व्यक्ति कुटीर उद्योगों में छोटे – छोटे औजारों की सहायता से अपनी आवश्यकताओं को पूरा करते थे तब हमारे समाज , संस्कृति , राजनीति और धर्म का एक विशेष स्वरूप था जबकि ट्रैक्टर और उन्नत वैज्ञानिक उपकरणों के द्वारा कृषि – कार्य आरम्भ होने पर इन संस्थाओं का रूप बदलने लगा । कुटीर उद्योगों के स्थान पर जब बड़ी – बड़ी मशीनों के द्वारा बड़ी मात्रा में उत्पादन कार्य आरम्भ हुआ तो इस उत्पादन – कार्य म लगे हुए व्यक्तियों के सम्बन्धों में भी परिवर्तन हो गया तथा एक भिन्न प्रकार की सामाजिक संरचना विकसित होने लगी । इससे स्पष्ट होता है कि उत्पादन – प्रणाली ही सम्बन्धों के स्वरूप का निर्धारण करती है । वर्तमान युग में समाज के विभिन्न वर्गों ( मुख्यतः पूंजीपति एवं श्रमिकों ) के बीच जो सम्बन्ध विद्यमान हैं वे कृषि – युग अथवा सामन्तवादी युग से इसलिए भिन्न हैं क्योंकि आज की उत्पादन – प्रणाली कृषि ग तथा सामन्तवादी युग की उत्पादन प्रणाली से भिन्न है । स्वयं मार्क्स के शब्दों में , सामाजिक सम्बन्धों का उत्पादन की शक्तियों से घनिष्ठ सम्बन्ध है । उत्पादन की नई शक्तियों को प्राप्त करने के लिए व्यक्ति पहले उत्पादन के तरीकों में परिवर्तन करते हैं ; इस प्रकार उत्पादन के तरीकों और आजीविका उपार्जित करने के तरीकों में परिवर्तन होने से उनके सामाजिक सम्बन्ध भी परिवर्तित हो जाते हैं । ”

दूसरे शब्दों में , यह कहा जा सकता है कि उत्पादन के सामाजिक सम्बन्धों की यह संरचना मनुष्य के सांस्कृतिक , बौद्धिक , कलात्मक , आध्यात्मिक , धार्मिक तथा सभी प्रकार के अन्य सम्बन्धों के रूप का निर्धारण करती है । इस प्रकार स्वाभाविक है कि उत्पादन की विधियों में होने वाला कोई भी परिवर्तन हमारे सम्बन्धों की प्रकृति को परिवर्तित करके सम्पूर्ण सामाजिक संरचना को बदल देता है । र मार्क्स का कथन है कि उत्पादन के सामाजिक सम्बन्धों के आधार पर सम्पूर्ण इतिहास में प्रत्येक समाज दो विरोधी वर्गों में विभाजित रहा है – एक शोषक और दूसरा शोषित । यह दोनों वर्ग चाहे कुलीन और दास के रूप में रहे हों अथवा सामन्त और किसान के रूप में , इनके बीच संघर्ष की प्रक्रिया सदैव चलती रही है । उत्पादन की वर्तमान शक्तियों ने एक पूंजीवादी आर्थिक व्यवस्था को जन्म दिया जिसके अन्तर्गत सम्पूर्ण समाज पूंजीपति तथा सर्वहारा ( श्रमिक ) जैसे दो प्रमुख वर्गों में विभाजित हो गया ।

पूंजीपति वर्ग वह है जो पूंजी के अधिकाधिक संचय के द्वारा उत्पादन के सभी साधनों पर एकाधिकार करने का प्रयत्न करता है उत्पादन के यह साधन चाहे प्रौद्योगिकी के रूप में हों अथवा श्रम के रूप में । इस प्रकार मार्क्स के शब्दों में , पूंजी वह धन है जिसका उपयोग श्रमिकों का शोषण करने के लिए किया जाता है । ” सर्वहारा वर्ग वह है जो सभी साधनों से वंचित होने के कारण पूंजीपतियों को बहुत कम मूल्य पर अपना श्रम बेचने के लिए बाध्य होता है । स्पष्ट है कि पूजीपति मजदूरों के श्रम को कम – से – कम मूल्य पर खरीदकर उससे अधिकतम लाभ प्राप्त करते हैं । इस प्रकार पूंजीपतियों को जो अतिरिक्त मूल्य ( Surplus Value ) प्राप्त होता है , वास्तव में वह श्रमिकों के श्रम का ही फल होता है । अपने – अपने हितों को लेकर इन दोनों वर्गों में एक विशेष वर्ग – चेतना ( Class Consciousness ) उत्पन्न होती है जिसके फलस्वरूप इनके बीच संघर्ष की प्रक्रिया आरम्भ हो जाती है । ३० मार्क्स का कथन है कि वर्ग – संघर्ष की यह प्रक्रिया यद्यपि प्रत्येक युग में विद्यमान रही है लेकिन वर्तमान प्रौद्योगिकी ने जिस पूंजीवादी व्यवस्था को जन्म दिया है , उस व्यवस्था के अन्दर ही ऐसे अनेक आन्तरिक विरोध ( Contradictions ) विद्यमान हैं जिनके कारण यह वर्ग – संघर्ष अत्यधिक व्यापक हो गया । सर्वप्रथम , पूंजीवादी व्यवस्था के अन्तर्गत उत्पादन के साधनों पर एकाधिकार की प्रवृत्ति विद्यमान होती है जिसके फलस्वरूप छोटे उत्पादक उत्पादन के क्षेत्र से बाहर होते जाते हैं । इस तरह पूंजीपतियों की संख्या कम होती जाती है और मजदूरों अथवा सर्वहारा वर्ग की संख्या बढ़ती जाती है । दूसरे , इस व्यवस्था ने स्थानीयकरण को प्रोत्साहन दिया ।

एक स्थान पर जब लाखों मजदूर साथ – साथ काम करने लगे तो उनमें वर्ग – चेतना का विकसित होना आवश्यक हो गया । तीसरे , बड़ी मात्रा के उत्पादन के लिए जब यातायात के साधनों को विकसित करना आवश्यक हो जाता है तो इससे मजदूरों को भी एक – दूसरे के सम्पर्क में आने का अवसर मिल जाता है । इससे उसकी वर्ग – चेतना और अधिक बढ़ जाती है । चौथे , पूंजीवाद के कारण आर्थिक संकटों में भी वृद्धि होने से इस बात की सम्भावना बढ़ जाती है कि समय – समय पर श्रमिकों की छंटनी की जाती रहे । यह दशा श्रमिकों को संगठित होकर पूंजीपतियों का प्रतिरोध करने का प्रोत्साहन देती है । इस प्रकार पूंजीवादी व्यवस्था के अन्दर ही वर्ग – संघर्ष के तत्त्व छिपे हुए हैं तथा यही तत्त्व इस व्यवस्था के विनाश का कारण हैं । परिवर्तन की इस सम्पूर्ण प्रक्रिया को यदि एक क्रम में स्पष्ट किया जाय तो यह कहा जा सकता है कि परिवर्तन का पहला चरण उत्पादन की प्रविधियों में परि वर्तन होना , दूसरा चरण उत्पादन की प्रणाली में परिवर्तन होना , तीसरा चरण उत्पा दन के सम्बन्धों में परिवर्तन होना , चौथा चरण वर्गों का निर्माण तथा उनके बीच वर्ग – संघर्ष का होना एवं हमी के परिणासस्वरूप अन्तिम चरण में सामाजिक परिवर्तन की दशा का उत्पन्न होना है । इस आधार पर मार्क्स ने निष्कर्ष दिया कि ” अब तक के सभी समाजों का इतिहास वर्ग – संघर्ष का इतिहास है । ” इसका तात्पर्य है कि प्रत्येक युग में होने वाले वर्ग – संघर्ष का अन्त एक नवीन सामाजिक संरचना और नए वर्गों के उदय के रूप में हमारे सामने आता है । वर्तमान युग में पूंजीपतियों तथा श्रमिकों के बीच होने वाले संघर्ष के कारण सर्वहारा वर्ग की चेतना भी इतनी विकसित हो जायेगी कि वे धीरे – धीरे उत्पादन के सभी साधनों पर अपना अधिकार स्थापित कर लेंगे । इस क्रान्ति से एक नई सामाजिक संरचना का निर्माण होगा जिसमें वर्ग – विभेद जैसी कोई चीज नहीं होगी । इसी को मार्क्स ने ‘ वर्ग – रहित समाज की स्थापना ‘ कहा है । यही सामाजिक परिवर्तन का अन्तिम स्वरूप होगा ।

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CRITIQUE

(1)  सबसे बड़ा और प्रथम दोष इसके द्वारा एक  ही कारण की अन्तिम मान लेना है । कोई व्यक्ति वह दावा नहीं कर सकता कि मनुष्य को भोजन की आवश्यकता ही एकसात्र प्रेरक कारक है और यही सामाजिक परिवर्तन का आधार है । यदि एक आदिम व्यक्ति के जीवन का भी उदाहरण लिया जाये , तो स्पष्ट हो जाता है कि आर्थिक क्रियाओं पर उसके धर्म , विश्वासों और अनुभवों का गहरा प्रभाव पड़ता है । फिर आर्थिक कारणों को सामाजिक जीवन का एकमात्र निर्धारक कारक किस प्रकार माना जा सकता है ?

( 2 ) यदि मार्क्स के सिद्धान्त में विश्वास कर लिया जाय तब इसका अर्थ यह होगा कि युद्ध और शान्ति , निर्धनता और समृद्धता , दासता और स्वतन्त्रता , क्रान्ति और शान्ति जैसी सभी दशाएं एक ही ‘ आर्थिक कारक ‘ का परिणाम होंगी । कोई भी व्यक्ति इन दशाओं को केवल आर्थिक कारकों का ही परिणाम नहीं मान सकता ।

 ( 3 ) इस सिद्धान्त की तीसरी दुर्बलता यह है कि इसमें अनेक शब्दों जैसे ‘ आर्थिक कारक ‘ , ” उत्पादन की शक्तियाँ ‘ तथा ‘ आर्थिक सम्यन्ध ‘ आदि की परि भाषाएँ अधिक स्पष्टता से नहीं दी गयी हैं । कुछ विद्वान आर्थिक कारक के अन्तर्गत केवल आर्थिक प्रविधियों को ही सम्मिलित करते हैं जबकि अन्य विद्वानों जैसे एंगिल्स और सैलिगमैन ने उत्पादन से सम्बन्धित सभी दशाओं को आर्थिक कारकों में सम्मिलित कर लिया है । ऐसा विवेचन भ्रमपूर्ण स्थिति उत्पन्न करता है ।

( 4 ) उपर्युक्त स्थिति के कारण प्रौद्योगिक परिवर्तन से सम्बन्धित कारकों के क्रम में भी अनिश्चितता आ गयी है । प्रौद्योगिक व्याख्या करते समय पहले यह क्रम इस प्रकार दिया गया था कि — ( क ) उत्पादन की प्रविधियों में होने वाला परिवर्तन , ( ख ) समाज की आर्थिक संरचना के रूप का निर्धारण करता है , जो बाद में , ( ग ) समाज के राजनीतिक , सामाजिक और बौद्धिक जीवन को निश्चित करता है । दूसरे स्थान पर आर्थिक कारकों की व्याख्या करते समय यह क्रम इस प्रकार दिया गया कि – ( क ) उत्पादन और विनिमय की सामान्य दशाओं में होने वाला परिवर्तन ; ( ख ) एक समाज की वर्गीय संरचना ( Class Composition ) के परिवर्तनों को निश्चित करता है , जिसका प्रभाव बाद में , ( ग ) वर्ग प्रतिरोधों के रूप पर पड़ता है और परिणामस्वरूप , ( घ ) समाज की सामाजिक , राजनीतिक तथा बौद्धिक अधि संरचना ( Super – structure ) में परिवर्तन हो जाता है । ये दोनों क्रम एक – दूसरे से विरोधी प्रक्रिया को स्पष्ट करते हैं ।

( 5 ) मार्क्स और एंगिल्स का ‘ वर्ग – संघर्ष का सिद्धान्त ‘ बहुत पुराना होने के – साथ ही अनेक दोषों से युक्त है । यह कहना बिल्कुल भ्रान्तिपूर्ण है कि समाज का सम्पूर्ण इतिहास वर्ग – संघर्ष का ही इतिहास है । इसका तात्पर्य तो यह होगा कि – साहिक जीवन में सहयोग का कोई महत्त्व है ही नहीं , जबकि वास्तव में यह  प्रमाणित हो चुका है कि विभिन्न वर्गों के बीच संघर्ष की अपेक्षा सहयोग की भावना अधिक समय तक विद्यमान रहती है । मार्क्स द्वारा प्रस्तुत विभिन्न विचारों से यह स्पष्ट हो जाता है कि बौद्धिक जनत में मार्क्स सबसे अधिक प्रभावपूर्ण लेकिन सबसे अधिक विवादपूर्ण विचारक रहे हैं । उनके विचारों की जो भी आलोचनाएं की गयी हैं , वे मुख्य रूप से इसी बिन्दु पर आधारित हैं कि मार्क्स ने आर्थिक कारकों तथा श्रमिक वर्ग के अधिनायकत्व को ही अपने चिन्तन का आधार माना । इसके बाद भी यह सच है कि मार्क्स ने अपने विचारों के द्वारा दुनिया की जनसंख्या के जितने बड़े भाग को प्रभावित किया . उतना प्रभाव आज तक कोई दूसरा विद्वान जन – मानस पर नहीं डाल सका । सच तो यह है कि मार्क्स केवल एक विचारक ही नहीं थे , बल्कि वह संसार के कामगरों के एक महान नेता भी थे । इस दशा में उनके द्वारा एक ऐसी विचारधारा को विकसित करना बहुत स्वाभाविक था जो कामगरों में नई आशा का संचार करके उन्हें संगठित होने की प्रेरणा दे पाती । अपने इस मिशन को पूरा करने के लिए मार्क्स ने संवेगात्मक अपील का भी सहारा लिया लेकिन आज उन्हीं के चिन्तन के प्रभाव से श्रमिक वर्ग के सामाजिक – आर्थिक महत्त्व को हर कहीं स्वीकार किया जाने लगा है

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