सामाजिक क्रिया
( Social Action )
मैक्स वेबर के समाजशास्त्र में सामाजिक क्रिया का स्थान सर्वाधिक महत्त्व पूर्ण है । उनके अनुसार व्यक्ति तथा उसकी क्रियाएँ भी वे आधारभूत अणु ( Atom ) हैं जिन पर समाजशास्त्र का अस्तित्व बना हुआ है । इसी कारण रेमण्ड ऐरों ने वेबर के समाजशास्त्र में सामाजिक क्रिया की अवधारणा को एक ‘ अस्तित्ववादी अवधारणा ‘ कहा है । वेबर के शब्दों में “ सामाजिक क्रिया कोई भी वह मानवीय दृष्टिकोण अथवा कार्य है जिसका सम्बन्ध कर्ताओं के अर्थपूर्ण व्यवहार से है , चाहे वह कार्य करने की असफलता को स्पष्ट करता हो अथवा निष्क्रिय स्वीकारोक्ति को । ” इस प्रकार वेबर ने शारीरिक तथा मानसिक दोनों प्रकार से किए जाने वाले उन कार्यों को क्रिया की परिभाषा में सम्मिलित किया है जो अर्थपूर्ण होते हैं । प्रयत्न और इच्छा के बाद भी व्यक्ति किसी कार्य में यदि असफल रहे तब भी उसका वह कार्य क्रिया की श्रेणी में ही रखा जायेगा । इस सम्बन्ध में यह ध्यान रखना आवश्यक है कि वेबर के अनुसार ‘ क्रिया ‘ तथा ‘ व्यवहार ‘ एक – दूसरे से भिन्न धारणाएं हैं । मनोविज्ञान मानवीय व्यवहारों का अध्ययन कर सकता है लेकिन सामाजिक क्रियाओं का नहीं । वास्तव में क्रिया की तुलना में व्यवहार का क्षेत्र कहीं अधिक व्यापक है क्योंकि व्यवहार के अन्तर्गत वे व्यवहार भी आ जाते हैं जो मानव की मूल – प्रवृत्तियों से सम्बन्धित होते हैं । मूल – प्रवृत्ति से सम्बन्धित इन व्यवहारों पर मनुष्य की इच्छा , बुद्धि अथवा दृष्टिकोणों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता , इसलिए ऐसे व्यवहारों को क्रिया नहीं कहा जा सकता । इसके विपरीत , क्रिया का सम्बन्ध मनुष्य के अर्थपूर्ण व्यवहार ( Meaningful Behaviour ) से होता है । इस आधार पर सामाजिक क्रिया को परिभाषित करते हुए वेबर ने लिखा , ” जिन कार्यों को करने में कर्ता को प्रेरणाओं पर अन्य व्यक्तियों के दृष्टिकोणों और क्रियाओं का प्रभाव पड़ा हो तथा जो कार्य अन्य व्यक्तियों को प्रभावित कर रहे हों , उन्हीं को सामाजिक क्रिया कहा जाता है । ” इस कथन से स्पष्ट होता है कि सामाजिक क्रिया प्रत्येक वह मानवीय व्यवहार है जिसमें दूसरे लोगों की भावनाओं तथा प्रेरणाओं का समावेश होता है एवं जो अन्य लोगों के व्यवहारों को भी प्रभावित करता है । इन सभी तत्त्वों को सरल उदाहरणों के द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है : जाति व्यवस्था वाले भारतीय समाज में यदि कोई व्यक्ति अन्तर्जातीय विवाह करता है तो ऐसे विवाह को इसलिए एक सामाजिक क्रिया कहा जायेगा क्योंकि इसका विवाह करने वाले व्यक्ति के लिए एक विशेष अर्थ होता है ।
इस व्यक्तिनिष्ठ अर्थ में अनेक ऐसे व्यक्तियों की क्रियाओं अथवा दृष्टिकोणों का समावेश होता है जिन्होंने उससे पहले अन्तर्जातीय विवाह किया था । साथ ही इस क्रिया का प्रभाव न केवल उस व्यक्ति पर पड़ेगा बल्कि यह क्रिया समाज के अन्य व्यक्तियों के भी व्यवहारों तथा विचारों को प्रभावित करेगी । कम से कम ऐसे विवाह से उसके तथा उसकी पत्नी के पारिवारिक सम्बन्ध अवश्य प्रभावित होंगे । इसका तात्पर्य है कि सामाजिक क्रिया किसी कर्ता के द्वारा की जाने वाली वह क्रिया है जिमकी प्रेरणा अतीत तथा वर्तमान की गतिविधियों से प्राप्त होती है तथा जो वर्तमान और भविष्य को प्रभावित करती है । वेबर का विचार है कि सामाजिक क्रिया की अवधारणा को समझने के लिए उन महत्त्वपूर्ण तथ्यों को समझना आवश्यक है जो इस अवधारणा के बारे में अक्सर भ्रम उत्पन्न करते हैं ।
सामाजिक क्रिया की पूर्व परिभाषा से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि सामाजिक क्रिया कोई भी वह क्रिया है जो दूसरे व्यक्तियों से प्रभावित होती है अथवा जो दूसरे बहुत से व्यक्तियों के द्वारा की जाने वाली क्रिया के समान होती है । यह एक सही दृष्टिकोण नहीं है । सामाजिक क्रिया की अवधारणा को उसके वास्तविक रूप में स्पष्ट करने के लिए वेबर ने इसकी दो विशेषताओं पर बल दिया है । पहली विशेषता यह है कि सामाजिक क्रिया अर्थपूर्ण होती है तथा दूसरी यह कि यह किसी बाह्यक्रिया के रूप में स्पष्ट होती है । वेबर के विचारों के सन्दर्भ में इस दोनों मुख्य विशेषताओं को निम्नांकित पाँच आधारों पर सरलता – पूर्वक समझा जा सकता है :
( 1 ) सामाजिक किया सदैव अर्थपूर्ण होती है । सामाजिक क्रिया की अर्थ पूर्णता को स्पष्ट करने के लिए वेबर ने किसी भी क्रिया अथवा घटना के दो अर्थों को स्पष्ट किया । एक को हम औसत अर्थ ( Average Meaning ) तथा दूसरे को यथार्थ अर्थ ( Pure Meaning ) कहते हैं । वेबर के अनुसार यदि दूसरे व्यक्तियों की क्रिया को सामान्य रूप से देखकर उसका अनुसरण किया जाय अथवा व्यक्ति केवल एक प्रतिक्रिया के रूप में कोई व्यवहार करे तो यह दशा क्रिया के औसत अर्थ को स्पष्ट करती है । जब हम औसत अर्थ के आधार पर कोई व्यवहार करते हैं तो इसे सामाजिक क्रिया नहीं कहा जा सकता । 10 उदाहरण के लिए , सड़क पर चलते हुए किसी व्यक्ति के पीछे चलने लगना एक ऐसा व्यवहार है जो औसत अर्थ के सन्दर्भ में किया जाता है । वेबर के अनुसार विशद्ध अर्थ वह होता है जिसमें कर्ता किसी परिस्थिति का पूरा ज्ञान प्राप्त करने के बाद विवेकशील ढंग से दूसरे लोगों द्वारा की जाने वाली क्रियाओं का अर्थ निकालकर एक विशेष क्रिया करता है । इसका तात्पर्य है कि सामाजिक क्रिया की अर्थपूर्णता का तात्पर्य यथार्थ अर्थ के आधार पर की जाने वाली क्रिया से है । वेबर ने लिखा है . ” किसी कर्ता द्वारा अपनी विशिष्ट क्रियाओं की व्याख्या के लिए तार्किक आधार पर जो कारण स्थापित किये जाते हैं वे ही क्रिया की अर्थपूर्णता को स्पष्ट करते हैं । ” 11 इससे पुनः यह स्पष्ट होता है कि क्रिया की अर्थपूर्णता का तात्पर्य यह है कि कर्ता अपने कार्य की दिशा , रूप तथा परिणाम के प्रति जागरूक हो , भले ही उसकी वह जागरूकता आंशिक हो ।
( 2 ) सामाजिक क्रिया अतीत , वर्तमान अथवा भविष्य के व्यवहारों से प्रभा वित हो सकती है । यदि कोई व्यक्ति अतीत में हुए विरोध के कारण किसी व्यक्ति पर आक्रमण करता है अथवा उससे संघर्ष पूर्ण क्रियाएँ करता है तो इस क्रिया में अतीत के एक विशेष अर्थ और अनुभव का समावेश होने के कारण इसे सामाजिक क्रिया कहा जायेगा । इसी प्रकार यदि वर्तमान में किसी नेता के उत्तेजक भाषण से प्रभावित होकर व्यक्तियों का एक समूह हिंसा फैलाने लगे अथवा किसी रचनात्मक कार्य में लग जाय तो यह भी सामाजिक क्रिया की स्थिति को स्पष्ट करेगा । यदि कोई व्यक्ति भविष्य में उत्पन्न होने वाली सम्भावित दशाओं को ध्यान में रखते हुए ‘ अर्थपूर्ण रूप से कोई क्रिया करता है । तब इसे भी सामाजिक क्रिया कहा जायेगा ।
( 3 ) सभी तरह की बाह्य क्रियाओं ( Overt Actions ) को सामाजिक क्रिया नहीं कहा जा सकता । मनुष्य की बहुत – सी बाह्य क्रियाएँ इस तरह की होती हैं जो जड़ – पदार्थों अथवा काल्पनिक प्रेरणाओं से प्रभावित होती हैं तथा उनमें कोई अर्थ निहित नहीं होता । उदाहरण के लिए , जंगल में जाता हआ कोई व्यक्ति यदि पेड़ की नीची शाखा से बचने के लिए बार – बार अपने सिर को झुकाकर चलता है तो उसकी यह क्रिया सामाजिक क्रिया नहीं होगी । किसी छोटे दरवाजे से निकलने के लिए एक लम्बे व्यक्ति द्वारा सिर झुकाकर चलना भी सामाजिक क्रिया नहीं है । दूसरी ओर यदि राजा के दरबार में व्यक्ति सिर झुकाकर चलता है तो उसकी यह वाह्य क्रिया सामाजिक क्रिया हो जाती है क्योंकि राजा के सामने सिर झुकाकर चलने का एक विशेष अर्थ होता है । स्पष्ट है कि सामाजिक क्रिया का सम्बन्ध केवल अर्थपूर्ण बाह्य क्रिया से ही होता है ।
( 4 ) सामाजिक क्रिया के लिए दूसरे व्यक्ति अथवा व्यक्तियों से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सम्पर्क आवश्यक है लेकिन प्रत्येक सम्पर्क सामाजिक क्रिया का आधार नहीं होता । केवल वही सम्पर्क सामाजिक क्रियाओं को उत्पन्न करता है जो कर्त्ता के व्यवहार को दूसरे लोगों के व्यवहार से अर्थपूर्ण ढंग से प्रभावित करता हो । उदा हरण के लिए यदि दो साइकिल सवार एक – दूसरे से टकरा जाएं और बिना कोई प्रतिक्रिया किए अपने – अपने रास्ते पर पून चा दें तो इसे सामाजिक क्रिया नहीं कहा जायेगा । इसके विपरीत , यदि टकराने के बाद वे एक – दूसरे से लड़ने लगें अथवा आरोप – प्रत्यारोप करने लगे तब एक – दूसरे से प्रभावित इस व्यवहार को सामाजिक क्रिया कहा जायेगा ।
( 5 ) वेबर का कथन है कि सामाजिक क्रिया न तो अनेक व्यक्तियों द्वारा | की जाने वाली समान क्रियाओं को कहते हैं जौर न ही उस क्रिया को जो केवल दूसरे व्यक्तियों द्वारा प्रभावित है । उदाहरण के लिए , वर्षा होने पर सड़क पर जब बहुत से लोग छाता खोलकर चलने लगते हैं तब उनके इस व्यवहार में समानता तो होती है लेकिन इस व्यवहार को सामाजिक क्रिया नहीं कहा जा सकता । इसका कारण यह है कि छाता खोलकर चलने का व्यवहार दूसरे लोगों के व्यवहार से प्रभावित न होकर स्वयं अपनी आवश्यकता को पूरा करने से सम्बन्धित होता है । वेवर का यह भी कथन है कि यदि कोई व्यवहार केवल किसी व्यक्ति के व्यवहार का अनुकरण करके किया जा रहा हो , तब यह अनुकरण तब तक सामाजिक क्रिया नहीं हो सकता जब तक वह अर्थपूर्ण न हो । उदाहरण के लिए , यदि हम किसी व्यक्ति को एक वृक्ष के नीचे फूल चढ़ाते हुए देखकर उसके अर्थ या अभिप्राय को समझे बिना स्वयं भी वृक्ष के नीचे फूल चढ़ाना आरम्भ कर दें तो इसे सामाजिक क्रिया नहीं कहा जा सकता । ऐसा व्यवहार केवल एक अनुकरण होगा , अर्थपूर्ण सामाजिक व्यवहार नहीं । दूसरी ओर , जब हम सुबह के व्यायाम के लिए एक प्रशिक्षक की क्रियाओं का अनुकरण करते हुए व्यायाम करना सीखते हैं तब इस व्यवहार को इस लिए सामाजिक क्रिया कहा जायेगा क्योंकि इसमें अर्थपूर्ण रूप से कुछ विशेष व्यवहारों का अनुकरण किया जाता है ।स्पष्ट है कि वेबर ने सामाजिक क्रिया के अन्तर्गत उन सभी क्रियाओं अथवा व्यवहारों को सम्मिलित किया है जो अर्थपूर्ण हैं तथा अन्य व्यक्तियों के व्यवहारों से प्रभावित होते हैं और स्वयं भी उन्हें प्रभावित करते है ।
इस दृष्टिकोण से केवल शारीरिक रूप से कोई व्यवहार करना ही क्रिया के लिए आवश्यक नहीं है बल्कि अर्थपूर्ण रूप से एक दुष्टिकोण बनाना अथवा विचार करना भी क्रिया हो सकता है , _ _ यदि अन्य व्यक्तियों पर उसका प्रभाव पड़ रहा हो । इससे यह भी स्पष्ट होता है कि व्यक्ति द्वारा किए जाने वाले सहयोगी तथा असहयोगी दोनों ही तरह के व्यवहार किया की श्रेणी में आ सकते हैं । क्रिया की सबसे मुख्य कसौटी अर्थपूर्ण ढंग से दूसरों के व्यवहारों से प्रभावित होना है । अर्थपूर्ण ढंग का तात्पर्य है कि कर्ता अपने कार्य की दिशा , रूप तथा परिणाम के प्रति जागरूक हो , भले ही उसकी वह जागरूकता आंशिक हो । सामाजिक क्रिया की अवधारणा को स्पष्ट करने के लिए वेबर ने इसके विभिन्न प्रकारों का भी उल्लेख किया है । इस सम्बन्ध में यह ध्यान रखना आवश्यक है कि सभी सामाजिक क्रियाएँ लक्ष्यों और साधनों के चुनाव के बारे में मानव व्यवहारों की प्रकृति को स्पष्ट करती हैं । इस दृष्टिकोण से यदि लक्ष्य तथा साधनों को प्रभावित करने वाले आधार एक – दूसरे से भिन्न होते हैं तो सामाजिक क्रिया की प्रकृति में भी भिन्नता आ जाती है । वेबर ने इस तथ्य पर विचार किया कि समाज में व्यक्ति जिन लक्ष्यों को लेकर चलता है तथा उन लक्ष्यों को जिन साधनों के द्वारा प्राप्त करने का प्रयत्न करता है उनके आधार क्या हैं ? वेबर के अनुसार यह आधार मुख्य रूप से चार हैं – व्यक्ति का विवेक , सामाजिक मूल्य , व्यक्ति के संवेग तथा प्रथाएं । इन आधारों पर सामाजिक क्रियाएँ भी निम्नांकित चार प्रकार की होती हैं :
( 1 ) लक्ष्य के सम्बन्ध में तर्कपूर्ण किया ( Rational Actions in Relation to a Goal ) – इस श्रेणी की सामाजिक क्रिया वह है जो किसी तर्कपूर्ण लक्ष्य से सम्बन्धित होती है । ” कोई कर्ता जब अपने लक्ष्य का निर्धारण तथा उसे प्राप्त करने के लिए विभिन्न साधनों का चुनाव उनकी क्षमताओं के आधार पर करता है तब वेबर के अनुसार ऐसी क्रिया को तर्कपूर्ण क्रिया के नाम से सम्बोधित किया जाता है । वेवर का विचार है कि यदि कोई कर्ता अपने लक्ष्य और साधनों के बीच सन्तुलन नहीं रखता तथा कुछ प्रमुख लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए उनके अनुरूप साधनों को उपयोग में नहीं लाता तो कर्ता की इस क्रिया को लक्ष्यों के प्रति तर्कपूर्ण क्रिया नहीं कहा जा सकता । उदाहरण के लिए . यदि कोई व्यक्ति धनी बनना चाहता
है लेकिन इस लक्ष्य की पूर्ति के साधन के रूप में लाटरी का टिकट खरीदता है तो इस क्रिया को लक्ष्य के प्रति तर्कपूर्ण क्रिया नहीं कहा जा सकता । दूसरी ओर , यदि हम अपनी आर्थिक स्थिति को ऊँचा उठाने के लिए कोई उद्योग स्थापित करते हैं तथा उसकी सफलता के लिए अधिकाधिक श्रम करते हैं तो इस क्रिया को लक्ष्य के प्रति तर्कपूर्ण त्रिया कहा जायेगा ।
( 2 ) मूल्य के सम्बन्ध में तर्कपूर्ण क्रिया ( Rational Action in Relation of Value ) – इसे स्पष्ट करते हुए अब्राहम तथा मार्गन ने लिखा है कि ” इस प्रकार की क्रिया में कर्ता किसी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए साधनों का तर्कपूर्ण उपयोग तो करता है लेकिन वह जिन लक्ष्यों का चुनाव करता है , वे कुछ विशेष मूल्यों पर आधारित होते हैं । दूसरे शब्दों में , यह कहा जा सकता है कि इन क्रियाओं का – उद्देश्य तात्कालिक अथवा अल्पसमय में ही किसी वैयक्तिक उद्देश्य को पूरा करना नहीं होता बल्कि इनका उद्देश्य जीवन के कुछ महत्त्वपूर्ण मूल्यों को प्राप्त करना होता है । उदाहरण के लिए , किसी जहाज का कप्तान जब अपने डूबते हुए जहाज के साथ – स्वयं भी डूब जाने का निर्णय लेता है तो उसकी यह क्रिया एक विशेष मूल्य से सम्बन्धित तर्कपूर्ण क्रिया होगी । इसी प्रकार सच बोलना , नैतिक आदर्शों का पालन | करना तथा धार्मिक अनुष्ठानों में सहभाग करना भी इसी श्रेणी की क्रियाएँ हैं । विभिन्न अवधियों के मूल्य भी एक – दूसरे से भिन्न होते हैं अतः मूल्य से सम्बन्धित तर्क पूर्ण क्रिया की प्रकृति में भी परिवर्तन होता रहता है । उदाहरण के लिए , भारतीय समाज में कुछ समय पहले तक अपनी ही जाति में विवाह करना मूल्यों से प्रभावित तर्कपूर्ण क्रिया थी लेकिन आज आधुनिक मूल्यों से कटिबद्ध युवक यदि अन्तर्जातीय विवाह करते हैं अथवा दहेज न लेने का निश्चय करते हैं तो इसे वर्तमान समाज के | अन्तर्गत मूल्य सम्बन्धी तर्कपूर्ण क्रिया ही कहा जायेगा ।
( 3 ) भावनात्मक अथवा संवेगात्मक क्रिया ( Affectual or Emotional LAction ) इस श्रेणी की क्रियाओं में परिस्थितियों से उत्पन्न होने वाले संवेगों अथवा भावनाओं का महत्त्व सर्वाधिक होता है । दूसरे शब्दों में , यह कहा जा सकता है कि ऐसी क्रियाओं में क्रिया के लक्ष्य तथा साधनों का निर्धारण कुछ विशेष संवेगों से प्रभावित होता है । उदाहरण के लिए , किसी मित्र को दुर्घटना का शिकार होते हुए देखकर दूसरे मित्र द्वारा चिल्लाकर उसे सचेत करना अथवा उसे बचाने के लिए दौड पड़ना भावनात्मक क्रिया की प्रकृति को स्पष्ट करता है । इसी प्रकार खिलाड़ियों द्वारा एक दूसरे को चोट पहुँचाकर भी जीतने का प्रयत्न करना अथवा मातृभूमि की रक्षा के लिए सैनिकों द्वारा अपने जीवन का बलिदान कर देना संवेगात्मक क्रिया के उदाहरण हैं । स्पष्ट है कि इस तरह की क्रियाओं में आवेग का तत्व होता है । इस सम्बन्ध में मैक्स वेबर ने लिखा है कि सामाजिक परिस्थितियों में किसी कर्ता द्वारा की जाने वाली क्रिया सदैव परिस्थिति , लक्ष्य तथा उनके प्रति पैदा होने वाली मनो वृत्ति से प्रभावित होती है । संवेगात्मक क्रियाओं की विशेषता यह है कि इनमें भावना तथा आवेग की मनोवृत्ति अधिक प्रभावपूर्ण होती है । यह सच है कि जो क्रियाएँ परिस्थिति से उत्पन्न होने वाले संवेगों के आधार पर की जाती हैं , उन्हें वैयक्तिक दृष्टिकोण से तर्कपूर्ण माना जा सकता है लेकिन सामाजिक दृष्टिकोण से उन्हें विवेक पूर्ण क्रियाएँ नहीं कहा जा सकता । वेबर ने इस श्रेणी की क्रियाओं को ‘ अविशिष्ट क्रियाएँ ‘ मानते हुए इनका विस्तार से उल्लेख नहीं किया है ।
( 4 ) परम्परागत क्रिया ( Traditional Action ) – सामाजिक क्रियाओं की इस श्रेणी में कर्ता द्वारा की जाने वाली उन क्रियाओं को सम्मिलित किया जाता है ” जिनमें लक्ष्यों और साधनों का निधोरण प्रथाओं , लोकाचारों , उत्सवों तथा परम्परा गत व्यवहारों के आधार पर होता है । ” इससे स्पष्ट होता है कि परम्परागत क्रिया में तार्किकता का अभाव होता है तथा ऐसी क्रियाएँ परम्पराओं का संरक्षण करने के लिए की जाती हैं । वे क्रियाएँ जिनमें लक्ष्यों और साधनों का निर्धारण परम्परागत आधार पर होता है , उन्हें राबर्ट मर्टन ( Robert K . Merton ) ने ‘ अनुरूपता की क्रियाओं , ( Actions of Conformity ) के रूप में स्वीकार किया है । इसका तात्पर्य है कि विभिन्न समाजों में इस प्रकार की क्रियाएँ व्यक्ति द्वारा समूह से अपनी अनुरूपता बनाये रखने के लिए की जाती हैं । इस श्रेणी की कियाएं एक समाज के आदर्शों और उसकी सामाजिक तथा सांस्कृतिक परम्पराओं को स्पष्ट करती हैं । उदाहरण के लिए , अतिथि – सत्कार करना तथा स्त्रियों के प्रति सम्मानपूर्ण व्यवहार करना आदि परम्परागत क्रिया की प्रकृति को स्पष्ट करते हैं । वेबर ने क्रिया के उपर्युक्त चार प्रकारों का उल्लेख करने के बाद भी इस तथ्य पर बल दिया कि आधुनिक युग में आर्थिक , राजनैतिक , सामाजिक तथा धार्मिक जीवन में लक्ष्यों तथा साधनों के बारे में तर्कपूर्ण क्रियाएँ ही सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण हैं । उन्होंने बतलाया कि आधुनिक समाजों में बढ़ता हुआ उपयोगितावाद तथा वैयक्तिक हितों के आधार पर स्थापित होने वाले सम्बन्धों के पीछे तार्किक क्रियाएं ही सबसे प्रमुख कारण हैं । इस प्रकार वेवर के अनुसार ‘ समाजशास्त्र सामाजिक क्रियाओं का ही एक व्यापक विज्ञान ‘ ( Comprehensive Science of Social Actions ) है । समाजशास्त्र की इस व्यापकता का अनुमान इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि इसके अन्तर्गत उन सभी तरह की सामाजिक क्रियाओं का अध्ययन होता है जिनका उल्लेख वेबर ने उपर्युक्त चार श्रेणियों के अन्तर्गत किया है । वास्तविकता यह है कि कोई क्रिया चाहे लक्ष्य के चुनाव में ताकिक हो अथवा उसका सम्बन्ध किसी मूल्य , संवेग अथवा परम्परा से हो , प्रत्येक क्रिया में किसी न किसी स्तर पर तार्किकता का समावेश अवश्य होता है । इस दृष्टिकोण से सामाजिक क्रियाओं के अध्ययन से ही समाजशास्त्र को एक व्यवस्थित विज्ञान बनाया जा सकता है ।
समालोचना
( Critique )
मक्स वेबर द्वारा प्रतिपादित सामाजिक क्रिया की अवधारणा के बारे में विद्वानों ने विभिन्न मत प्रस्तुत किये हैं । अधिकांश समाज – विज्ञानी यह स्वीकार करते हैं कि समाजशास्त्र के लिए वेबर का प्रमुख योगदान उनके द्वारा सामाजिक क्रिया की अवधारणा को प्रस्तुत करना है । यह भी कहा जाता है कि वेबर द्वारा सामाजिक क्रिया को समाजशास्त्र के अध्ययन की प्रमुख इकाई के रूप में स्थापित करने के कारण एक नयी अध्ययन पद्धति का आरम्भ हो सका । इसके बाद भी अनेक लेखकों तथा विचारकों ने वेबर द्वारा प्रस्तुत सामाजिक क्रिया की अवधारणा की अनेक आधारों पर आलोचना भी की है । रेमण्ड ऐरों ने लिखा है कि वेबर ने सामाजिक क्रिया की अवधारणा को सामाजिक जीवन में प्रयुक्त होने वाली एक अमूर्त अवधारणा के रूप में स्पष्ट किया है जिसके कारण इसका वस्तुनिष्ठ विश्लेषण कर सकना बहत कठिन हो जाता है । दूसरी बात यह है कि वेबर ने क्रिया की अवधारणा में व्यक्तिनिष्ठ अर्थों ( Subjective Meaning ) के महत्त्व को तो स्पष्ट किया है लेकिन उन्होंने सामाजिक क्रिया की वस्तुनिष्ठता पर अधिक ध्यान नहीं दिया । एक प्रमुख आलोचना यह की जाती है कि सामाजिक क्रिया की अवधारणा में वेबर ने लक्ष्य के सम्बन्ध में तर्कपूर्ण क्रिया को सबसे अधिक महत्त्व दिया है । ऐसी क्रियाएँ आधुनिक समाजों को समझने के लिए अधिक उपयोगी हो सकती हैं लेकिन परम्परागत समाजों में इनके आधार पर मानव व्यवहारों का विश्लेषण नहीं किया जा सकता । इन आलोचनाओं के बाद भी इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता कि समाजशास्त्र के अल्प – विकसित स्तर में वेबर ने सामाजिक क्रिया की अवधारणा को समाजशास्त्र के अध्ययन की प्रमुख इकाई के रूप में प्रस्तुत करके अध्ययन को एक नयी दिशा देने का प्रयत्न अवश्य किया । .