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समाज

 

 

समाज

 समाज की अवधारणा  एवं विशेषताएँ

 ( Concept and Characteristics of Society )

 समाज , समाजशास्त्र की प्राथमिक अवधारणाओं । में प्रथम एवं मौलिक है । सामान्य बोलचाल में समाज शब्द का प्रयोग ‘ मनुष्यों के समूह ‘ ( Groups of men or collection of Individual ) के लिए किया जाता है । जबकि समाजशास्त्र में ‘ समाज ‘ शब्द का प्रयोग ‘ सामाजिक संबंध ‘ ( Social Relation ) के लिए किया जाता है , जिनका निर्माण व्यक्तियों द्वारा किया जाता है । सामाजिक प्रभाव से निर्मित सामाजिक संबंधों का अध्ययन समाजशास्त्र करता है , जिसे हम समाज कह सकते हैं । अरस्तू ने बहुत पहले लिखा था कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है । इसलिए कि व्यक्ति एक दसरे से सामाजिक संबंधों से जकड़ा हुआ है ।  समाजशास्त्र समाज का विज्ञान है । इसलिए सर्वप्रथम यह जानना जरूरी है कि समाज क्या है ? दैनिक एवं व्यावहारिक जीवन में ‘ समाज ‘ शब्द का लोग भिन्न – भिन्न अर्थों में प्रयोग करते हैं ।

साधारणत : लोग ‘ समाज ‘ शब्द को भाषा , क्षेत्र , धर्म , संस्कृति , जाति तथा प्रजाति इत्यादि से सम्बद्ध करके प्रयोग में लाते हैं । इसे भाषा से सम्बन्धित करके एक भाषा – भाषी अपने समूह को समाज कहते हैं , जैसे – हिन्दी समाज । धर्म से सम्बद्ध करके एक धर्म को मानने वाले अपने समूह को समाज कहते है , जैसे — हिन्दू समाज । संस्कृति से सम्बद्ध करके एक संस्कृति के लोग अपने समूह को समाज कहते है , जैसे – भारतीय समाज । इसी प्रकार से सम्बद्ध करके एक जाति – समूह अपने को एक समाज कहता है , जैसे – ब्राह्मण समाज इत्यादि । इन उदाहरणों को देखने से पता चलता है कि समाज ‘ शब्द का प्रयोग लोग मनमाने ढंग से करते हैं । यह प्रयोग अवैज्ञानिक कहलायेगा । समाजशास्त्र में ‘ समाज ‘ शब्द न तो प्रजाति समूह है न धार्मिक समूह , न क्षेत्रीय समूह और न ही सांस्कृतिक समूह । समाजशास्त्र के अन्तर्गत समाज की अवधारणा बिल्कुल भिन्न है । इसके अन्तर्गत सिर्फ व्यक्तियों के समूह – मात्र को समाज नहीं कहते । हम रेलगाड़ियों , बसो , मेला आदि में एक साथ काफी देर तक रहते है , किन्तु वैसे समूह को भी समाज नहीं कहते हैं । कहने का तात्पर्य यह है कि समाजशास्त्र में ‘ समाज ‘ शब्द का विशिष्ट अर्थ है । प्रयोग करते है । बुनियादी अर्थ में ‘ समाज ‘ सामाजिक सम्बन्धों की एक अमूर्त व्यवस्था है । समाज मलागार बीच अनेक प्रकार के सम्बन्ध पाये जाते है । ये सम्बन्ध भी अनेक रूपों में व्यक्त होते रहते है । सामाजिक किसी – न – किसी सम्बन्धों की कोई सीमा नहीं है । ये सभी सम्बन्ध आपस में गथे हए हैं । सभी व्यक्ति एक – दूसरे के साथ किसान रूप में जुड़े हुए हैं ।

अनेक समाजशास्त्रियों ने समाज की परिभाषा दी है । यहाँ हम कुछ प्रमुख विद्वानों द्वारा दी गई परिभा षाओ का उल्लेख करेंगे ।

जिन्सबर्ग ( Ginsberg ) के शब्दों में , ” समाज व्यक्तियों का संग्रह है , जिनके बीच विशिष्ट सम्बन्धों या व्यवहार की विधियों द्वारा एकता स्थापित होती है जो उन्हें उन सभी व्यक्तियों से पृथक् करती है जिनमें इस प्रकार के सम्बन्ध नहीं हैं या जिनके व्यवहार उनसे भिन्न हैं । जिन्सबर्ग की इस परिभाषा से स्पष्ट होता है कि समाज सामाजिक सम्बन्धों से बनता है । सामाजिक सम्बन्धों की प्रकृति में भिन्नता होने के कारण एक समाज दूसरे समाज से भिन्न होता है ।

गिडिंग्स ( Giddings ) ने लिखा है , ” समाज स्वयं एक संघ है , संगठन है , औपचारिक सम्बन्धों का योग । । है , जिसमें परस्पर सम्बन्धित व्यक्ति एक – दूसरे से जुड़े रहते हैं । इस परिभाषा में दो प्रमुख बातें हैं — पहला , समाज व्यक्तियों का योग है और दूसरा इसमें औपचारिक सम्बन्ध होते हैं । गिडिंग्स की परिभाषा की सबसे बड़ी कमी यह है कि इसमें सिर्फ औपचारिक सम्बन्धों के योग को समाज कहा गया है । लेकिन समाज में औपचारिक और अनौपचारिक दोनों प्रकार के सम्बन्ध होते हैं और दोनों का महत्त्व बराबर होता है ।

फिक्टर ( Fichter ) के अनुसार , “ समाज व्यक्तियों का संगठित समूह है , जो एक क्षेत्र में रहते हैं , सहयोगी समह के द्वारा अपनी मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं , उनकी एक सामान्य संस्कृति होती है और वे पृथक् सामाजिक इकाई के रूप में कार्य करते हैं । फिक्टर की इस परिभाषा से एक समाज की सारी प्रमुख बातें व विशेषताएँ स्पष्ट हो रही हैं । इसमें बताया गया है कि

( i ) समाज लोगों का संगठन है , ( ii ) इसका एक भौगोलिक क्षेत्र होता है , ( iii ) इसमें सहयोग के द्वारा आवश्यकताओं की पूर्ति होती है , ( iv ) इसकी एक विशिष्ट संस्कृति होती है तथा ( v ) यह एक पथक सामाजिक इकाई के रूप में कार्य करता है ।

रयूटर ( Reuter ) के अनुसार , “ समाज एक अमर्त धारणा है जो एक समूह के सदस्यों के बीच पाये जाने . वाल पारस्परिक सम्बन्धों की सम्पूर्णता का बोध कराती है । ” रयूटर ने बहुत सरल ढंग से समाज की परिभाषा दी है । इस परिभाषा में उन्होंने समूहों के बीच जो पारस्परिक सम्बन्ध होते हैं , उनको महत्त्वपूर्ण बताया है ।

मेकाइवर एवं पेज ( Maclver and Page ) ने भी समाज की व्याख्या अधिक स्पष्ट रूप से की है । इनके अनसार , ” समाज रीतियों और कार्य – प्रणालियों , अधिकार और पारस्परिक सहायता , अनेक समूहों और उप – विभागों , मानव – व्यवहार के नियन्त्रणों एवं स्वतन्त्रताओं की व्यवस्था है । इस निरन्तर परिवर्तित होने वाली जटिल व्यवस्था को हम समाज कहते हैं । यह सामाजिक सम्बन्धों का जाल है और यह सदैव परिवर्तनशील है इस परिभाषा में समाज के सभी तत्त्वों को सम्मिलित किया गया है । मेकाइवर ने अपनी इस परिभाषा के द्वारा समाज की प्रकृति को भी स्पष्ट किया और बताया कि समाज सामाजिक सम्बन्धों का जाल है । इसका निर्माण व्यक्तियों से नहीं होता , बल्कि व्यक्तियों के बीच पाये जाने वाले पारस्परिक सम्बन्धों से होता है । इस दृष्टिकोण से समाज एक अमूर्त संगठन है ।

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समाज की उपर्युक्त सभी परिभाषाओं के द्वारा यह स्पष्ट होता है कि

  1. समाज सामाजिक सम्बन्धों का जाल है ।
  2. यह सम्बन्ध विभिन्न प्रकार के होते हैं ।
  3. सामाजिक सम्बन्ध परिवर्तनशील होते हैं ।
  4. समाज की एक विशिष्ट संस्कृति होती है ।
  5. यह व्यक्तियों के व्यवहार को नियमित करता है ।

6.समाज केवल व्यक्तियों का संग्रह मात्र नहीं है । सामाजिक संरचनाओं , संस्थाओं , रीतियों , कार्य – प्रणालियों तथा आवश्यकता पूर्ति के आधार पर बने समूहों का नाम ही समाज है

 

समाज के प्रमुख आधार या तत्त्व

( Basis or Elements of Society )

यहाँ पर हम समाज के कुछ उन प्रमुख आधारों को उल्लेख करेंगे , जिनकी चर्चा मेकाइवर तथा पेज ने अपनी परिभाषा में की है । मेकाइवर ने बताया कि समाज सामाजिक सम्बन्धों का जाल है , किन्तु इसके कुछ प्रमुख आधार भी हैं , जिनके द्वारा यह एक जटिल व्यवस्था का रूप ग्रहण कर लेता है । मेकाइवर तथा पेज ने समाज के निम्नलिखित आधारों को इस प्रकार प्रस्तुत किया है

1 . रीति – रिवाज ( Usages ) :  प्रत्येक समाज में विभिन्न प्रकार के रीति – रिवाज होते हैं । इनका सम्बन्ध विभिन्न कार्यों तथा परिस्थितियों से होता है । अर्थात् भिन्न – भिन्न कार्यों तथा भिन्न – भिन्न परिस्थितियों के लिए निश्चित रीतियाँ होती है , जिनके द्वारा उन्हें सम्पन्न किया जाता है । जैसे — खान – पान , वेश – भूषा , विवाह इत्यादि के सम्बन्ध मे विशेष नियम होते हैं । इन्हीं नियमों के द्वारा व्यक्ति विशेष अवसर पर विशेष प्रकार के व्यवहार करने के लिए प्रेरित होता है । अत : जिस समाज का जैसा रीति – रिवाज होता है वैसा ही वहाँ के लोगों का व्यवहार भी होता है । इस प्रकार इन्हीं रीति – रिवाजों के द्वारा सामाजिक सम्बन्ध बनते हैं और समाज का निर्माण होता है ।

 2 . कार्य – प्रणालियाँ ( Procedures ) – प्रत्येक समाज की कुछ समाज के प्रमुख आधार कार्य – प्रणालियाँ व नियम होते हैं , जिनके द्वारा समाज की व्यवस्था बनी रहती है । लोगों की आवश्यकता के आधार पर समाज में विभिन्न  कार्यों के लिए भिन्न – भिन्न कार्य – प्रणालियों का निर्माण किया गया है ,इन्हीं कार्य – प्रणालियों के द्वारा लोगों की आवश्यकता की पूर्ति होती ‘  है । यदि सभी लोग मनमाने ढंग से कार्य करने लगे तो समाज की व्यवस्था नष्ट हो जायेगी । अत : इन कार्य – प्रणालियों के अनुरूप व्यवहार करना अनिवार्य होता है । यह प्रणाली नियमों एवं परम्पराओं पर आधारित होती है । साथ ही अधिकांश लोगों से यह आशा की जाती है कि वे इनके द्वारा अपने कार्यों को पूरा करेंगे ।

3 . अधिकार ( Authority ) – अधिकार समाज का प्रमख आधार है । अधिकार सत्ता व प्रभुत्व के नाम से भी जाना जाता है । ऐसा कोई  समाज नहीं है जहाँ अधिकार और अधीनता के सम्बन्ध नहीं पाये जाते हों । समाज के प्रत्येक संगठन , समूह एवं समितियों के उचित संचालन के लिए यह आवश्यक है कि कुछ व्यक्तियों के साथ अधिकार व सत्ता जुड़ी रहे । इनके अभाव में समाज में व्यवस्था एवं शान्ति कायम नहीं रह सकती । यही अधिकार व सत्ता लोगों के व्यवहार पर नियन्त्रण लगाते हैं । आरम्भ से आज तक अधिकार व सत्ता की धारणा प्रत्येक समाज में रही है । जैसे — परिवार में पिता या कर्ता , पंचायत में मुखिया , स्कूल व कॉलेज में प्राचार्य इत्यादि । इसी अधिकार और मर्यादा के साथ लोगों को कार्य करना पड़ता है , जिससे समाज में व्यवस्था या संगठन बना रहता है ।

4 . पारस्परिक सहायता ( Mutual Aid ) पारस्परिक सहयोग समाज का वास्तविक आधार है । मनुष्य की आवश्यकताएँ अनन्त है । अपनी समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति वह स्वयं नहीं कर सकता । इसकी पूर्ति के लिए परस्पर सहयोग की आवश्यकता होती है । पारस्परिक सहयोग से ही सामाजिक सम्बन्ध बनते हैं । इनके अभाव में समाज की कल्पना तक नहीं की जा सकती । सहयोग के द्वारा व्यक्ति एक – दूसरे पर निर्भर रहते हैं और सामाजिक जीवन में व्यवस्था बनी रहती है । अत : किसी भी समाज के लिए परस्पर सहयोगी सम्बन्ध का होना आवश्यक होता है ।

 5 . समूह एवं विभाग ( Grouping and Divisions ) – प्रत्येक समाज में विभिन्न प्रकार के समूह तथा विभाग पाये जाते है । समाज का निर्माण इन्हीं समूहों और विभागों से होता है । उदाहरणस्वरूप परिवार , पड़ोस , जाति , वर्ग , नगर , समुदाय इत्यादि । समाज में विभाजन का आधार आयु , लिंग , वर्ग , जाति , धन तथा शिक्षा इत्यादि होते है । इन सभी समूहों और विभागों का आपस में सम्बन्ध बना रहता है । ये सभी ( समूह और विभाग ) हमारे सामाजिक सम्बन्धों को प्रभावित करते हैं , साथ ही समाज इन समूहों और संगठनों के द्वारा अपने कार्यों को पूरा करता है । ये समूह और विभाग जितना अधिक संगठित होते हैं उतना ही समाज व्यवस्थित होता है ।

6 . मानव – व्यवहार के नियन्त्रण ( Controls of Human Behaviour ) — मनुष्य का स्वभाव ऐसा होता है कि छूट मिलने पर वह मनमानी करने लगता है । समाज में यदि हर व्यक्ति मनमाने ढंग से कार्य करने लगे तो समाज की व्यवस्था भंग हो जायेगी । समाज की व्यवस्था को बनाये रखने के लिए यह आवश्यक होता है कि व्यक्तियों के व्यवहारों पर नियन्त्रण हो । प्रत्येक समाज के अपने नियम – कानून व तौर – तरीके होते हैं , जिनके अनुरूप व्यक्ति को व्यवहार करना पड़ता है । व्यक्तियों के व्यवहार को नियमित करने के लिए समाज कुछ औपचारिक तथा अनौपचारिक साधनों का प्रयोग करता है । औपचारिक साधनों में प्रशासन , पुलिस , न्यायालय तथा कानून आदि आते हैं और अनौपचारिक साधनों में लोकाचार , प्रथा , परम्परा , धर्म इत्यादि आते है । इन सभी साधनों के माध्यम से व्यक्तियों के व्यवहार को नियमित तथा नियन्त्रित किया जाता है जिससे समाज में सामाजिक सम्बन्धों की व्यवस्था बनी रहती है ।

 7 स्वतन्त्रता ( Liberty ) नियन्त्रण एवं स्वतन्त्रता समाज रूपी सिक्के के दो पहलू हैं । समाज में नियन्त्रण के साथ स्वतन्त्रता भी आवश्यक है । व्यक्ति के व्यक्तित्व के समुचित विकास के लिए स्वतन्त्रता का होना भी अति आवश्यक है । स्वतन्त्रता का तात्पर्य यह नहीं है कि व्यक्ति अपने मनमाने ढंग से कार्य करे । साथ ही नियन्त्रण का अर्थ यह नहीं कि व्यक्ति का व्यक्तित्व कुण्ठित हो जाय । यही कारण है कि मेकाइवर ने समाज के निर्माण के लिए नियन्त्रण एवं स्वतन्त्रता दोनों को महत्त्वपूर्ण तत्त्व बताया है । सामाजिक सम्बन्धों को व्यवस्थित रखने के लिए कछ हद तक स्वतन्त्रता भी देना आवश्यक होता है । स्वतन्त्र रहने पर ही व्यक्ति अपनी इच्छा एवं अवसर के मुताबिक अन्य लोगों से सामाजिक सम्बन्ध बनाता है । यहाँ यह भी कहना आवश्यक है कि जितनी अपनी स्वतन्त्रता की जरूरत होती है उतनी ही दूसरों को भी स्वतन्त्रता देनी चाहिए ।

 

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इसी प्रकार हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि समाज के लिए इन सातों आधारों का होना अति आवश्यक है । ये सभी तत्त्व आपस में गुंथे हुए होते हैं । इन्हीं के द्वारा सामाजिक सम्बन्ध बनते हैं । इन सम्बन्धों में हर समय कुछ – न – कुछ परिवर्तन होते हैं । इस परिवर्तन से समाज में भी परिवर्तन हो जाता है । समाज के सातों आधार जगह – जगह पर पृथक् – पृथक् होते हैं । यही कारण है कि स्थानीय दूरी के साथ – साथ समाज की प्रकृति में भी भिन्नता नजर आती है । अर्थात् समय एवं स्थान के अनुसार समाज में कुछ – न – कुछ परिवर्तन होते ही रहते हैं । मेकाइवर तथा पेज ने समाज की परिभाषा के साथ – साथ उसके सात आधारों की भी चर्चा की है । इन सातो आधारों का उल्लेख ऊपर किया जा चुका है । किन्तु समाज के सम्बन्ध में विभिन्न परिभा षाओं और उसके आधारों के विषय में जानने के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि किसी भी समाज के लिए तीन बातों का होना आवश्यक है – पहला , व्यक्तियों की अधिकता , दूसरा , सामाजिक सम्बन्ध और तीसरा , सामाजिक अन्त : क्रिया । समाज के लिए पहली आवश्यक बात यह है कि व्यक्तियों की संख्या काफी मात्रा में होनी चाहिए । इसके बिना समाज का निर्माण नहीं हो सकता । दूसरी आवश्यक बात यह है कि व्यक्तियों के बीच सम्बन्ध होना चाहिए । समाज व्यक्तियों का संकलन मात्र नहीं है । जब तक उनके बीच सम्बन्ध नहीं होगा तब तक समाज की कल्पना नहीं की जा सकती । समाज के लिए तीसरी आवश्यक बात यह है कि उनके बीच सामाजिक अन्त : क्रिया हो । अर्थात् उनके बीच पारस्परिक जागरुकता हो तथा वे अपने व्यवहारों एवं क्रियाओं से एक – दूसरे को प्रभावित करें और प्रभावित हो भी । समाज में एक व्यक्ति अपने व्यवहारों एवं क्रियाओं से न सिर्फ दूसरे को प्रभावित करता है , बल्कि प्रभावित होता भी है

 

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