समाज की सावयवी संरचना की अवधारणा

समाज की सावयवी संरचना की अवधारणा

( Organismic Concept of Society )

हरबर्ट स्पेन्सर ने अपने प्रमुख ग्रन्थ ‘ ‘ समाजशास्त्र के सिद्धान्त ‘ भाग – 2 ( Principles of Sociology , Vol . II ) में समाज तथा सावयवी संरचना के बीच पायी जाने वाली समानता पर विस्तृत रूप से प्रकाश डाला है । एक व्यक्तिवादी विचारक होने के कारण स्पेन्सर ने समाज की संरचना की तुलना प्राणीशास्त्रीय सावयव ( शरीर ) से की है । स्पेन्सर द्वारा प्रतिपादित समाज की सावयवी संरचना की अवधारणा ही स्पेन्सर के सामाजिक उद्विकास के सिद्धान्त का प्रमुख आधार है । इस सम्बन्ध में यह ध्यान रखना आवश्यक है कि स्पेन्सर को सावयवी अवधारणा का जनक नहीं कहा जा सकता । स्पेन्सर के पूर्ववर्ती विचारकों , विशेष रूप से प्राचीन एवं मध्य युग के अनेक विचारकों ने भिन्न – भिन्न प्रकार से समाज तथा जैविकीय संरचना के बीच पायी जाने वाली समानता को समझाने का प्रयास किया था । स्पेन्सर का मुख्य योगदान यह है कि आपने अपने से पूर्व की इन सभी धारणाओं का पुनः संयोजन करके सावयवी संरचना के आधार पर सामाजिक संरचना की प्रकृति को कहीं अधिक वैज्ञानिक ढंग से प्रस्तुत किया । स्पेन्सर द्वारा प्रतिपादित इस अव धारणा की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं :

 ( 1 ) सामाजिक और प्राकृतिक नियमों में अनुरूपता ( Analogy between Social and Natural Laws ) – – – स्पेन्सर का कथन है कि सामाजिक नियमों की निश्चितता ( Surety ) , कठोरता ( Inflexibility ) तथा सक्रियता ( Activeness ) आदि प्राकृतिक नियमों के पूर्णतः अनुरूप है । जिस प्रकार प्रकृति का विकास बिना रुके होता रहता है , उसी प्रकार सामाजिक विकास की प्रक्रिया भी निरन्तर चलती रहती है । स्पेन्सर का कथन है कि समाज कभी भी प्रकृति के नियमों की अवहेलना नहीं कर सकता है । इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुए स्पेन्सर ने बतलाया कि समाज और सावयव ( जो कि प्राकृतिक नियमों से संचालित होता है ) में प्रमुख समानता यह है कि दोनों का आकार जब बढ़ता होता है तब इनकी संरचना में भी परिवर्तन स्पष्ट होने लगता है । ” इस नियम को विस्तार से समझाते हुए उन्होंने बतलाया कि ‘ माता ( Female ) के गर्भ में भ्रूण ( Embryo ) प्रारम्भिक अवस्था में मिश्रित स्वरूप में रहता है अर्थात उसके अंगों में अधिक विभिन्नता दिखाई नहीं देती है । धीरे – धीरे जब भ्रूण के आकार में वृद्धि होने लगती है तो उससे बनने वाले अवयवों में विभिन्नता आने लगती है । यही नियम इस तथ्य को भी स्पष्ट करता है कि समाज भी अपना प्रारम्भिक अवस्था में सरल रहता है या इसकी इकाइयों में विभिन्नता स्पष्ट नहीं होती । जब समाज का आकार बढ़ने लगता है तब समाज में सामाजिक , सांस्कृतिक , धार्मिक , आर्थिक एवं राजनीतिक पक्ष अथवा अंग एक – दूसरे से पृथक् होने लगते हैं । और इस प्रकार समाज की संरचना में विभिन्नता स्पष्ट होने लगती है । “

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( 2 ) सामाजिक अंगों की विभिन्नता ( Differentiation of Social Units )ोल्सर का मत है कि जिस प्रकार प्राणियों के विभिन्न अंगों की प्रकृति एक – दूसरे से भिन्न होती है लेकिन फिर भी उनके बीच सहयोग पाया जाता है , उसी प्रकार सरल समाजों में समाज की विभिन्न इकाइयों अर्थात् व्यक्तियों के बीच एक स्पष्ट सहगोग पाया जाता है । स्पेन्सर ने बतलाया कि समाज का विकास हो जाने पर यह सहयोग समाज की विभिन्न संस्थाओं के बीच स्पष्ट होने लगता है । दूसरे | शब्दों में , यह कहा जा सकता है कि समाज के विभिन्न अंगों में सहयोग और परस्पर निर्भरता ( Cooperation and Inter – dependence ) समाज के विकास के साथ – साथ बढ़ती जाती है ।

( 3 ) सामाजिक अंगों के बीच प्रकार्यात्मक सम्बद्धता ( Functional Inter – relation between Social Organs ) – – स्पेन्सर का कथन है कि सामाजिक अंगों में विभिन्नतायें होने के बाद भी उनके बीच एक प्रकार्यात्मक सम्बद्धता पाई जाती है । यह सम्बद्धता ठीक उसी प्रकार की होती है जिस प्रकार एक सावयव के विभिन्न अंगों के बीच प्रकार्यात्मक एकता तथा सम्बद्धता देखने को मिलती है । उपरोक्त विशेषताओं के आधार पर स्पेन्सर ने सामाजिक संरचना और सावयवी संरचना की समानताओं को स्पष्ट करने का प्रयास किया । इसके पश्चात् भी स्पेन्सर ने यह स्वीकार किया कि अनेक समानताओं के बाद भी प्राणी – सावयव और समाज को बिल्कुल समान नहीं माना जा सकता क्योंकि सावधव के अंगों और सामाजिक शरीर ( Social Body ) या संरचना के बीच में अनेक अन्तर भी विद्यमान हैं । स्पेन्सर ने प्राणी – सावयव और सामाजिक संरचना के बीच जिन भिवताओं का उल्लेख क्रिया , वे इस प्रकार हैं :

( 1 ) सामाजिक अंगों की स्वतन्त्रता ( Freedom of Social Units ) स्पेन्सर ने प्राणी – सावयव की संरचना से सामाजिक संरचना की विशेषताओं को भिन्न बतलाते हुए लिखा है कि सावयद ( प्राणी – शरीर ) का प्रत्येक अंग दूसरे अंगों से मिलकर ही एक समग्र सावयव का निर्माण करता है । प्राणी शरीर के प्रत्येक अंग का अपना कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं होगा । दूसरी ओर समाज के विभिन्न अंगों में सहयोग , परस्पर – निर्भरता और अन्तः सम्बद्धता होने के बाद भी ये समाज को एक समग्र रूप प्रदान नहीं कर पाते । समाज के विभिन्न अंगों में निश्चित रूप से कुछ न कुछ स्वतन्त्रता पाई जाती है ।

शक्ति का विकेन्द्रीकरण ( Decentralization of Power ) – जीवित शरीर ( सावयव ) के विभिन्न अंगों का संचालन मस्तिष्क के द्वारा होता है । मस्तिष्क में प्राणी के शरीर की समस्त चेतना केन्द्रित रहती है । इसके विपरीत , सामाजिक संरचना के विभिन्न अंगों में अपनी एक स्वतन्त्र चेतना होती है । इसका तात्पर्य है कि समाज की शक्ति विकेन्द्रित होती है जो विभिन्न सामाजिक , आर्थिक , राजनीतिक , धार्मिक तथा सांस्कृतिक संस्थाओं में पाई जाती है ।

( 3 ) सामाजिक अंगों के प्रकार्यात्मक उद्देश्य ( Functional Objects of Social Units ) – स्पेन्सर का कथन है कि समाज के विभिन्न अंगों के कार्यों का उद्देश्य स्वयं के लिए उपयोगी होता है । इसका तात्पर्य है कि समाज के अंग स्वयं व्यक्ति हैं तथा यह सभी अंग अथवा व्यक्ति साधारणतया वे ही कार्य करते हैं जो उनकी सुरक्षा के लिए आवश्यक होते हैं । इसके विपरीत , सावयव ( शरीर ) के अंग सम्पूर्ण शरीर के लिए कार्य करते हैं ।

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( 4 ) स्पष्ट है कि स्पेन्सर ने समाज तथा सावयवी संरचना के बीच कुछ भिन्नताओं को स्पष्ट करने के बाद भी इस तथ्य पर बल दिया कि सामाजिक संरचना की प्रकृति को एक बड़ी सीमा तक सावयवी संरचना के आधार पर समझा जा सकता है । आज विभिन्न मत – मतान्तरों के समर्थक स्पेन्सर द्वारा प्रस्तुत सावयवी समाज की इस अवधारणा से अधिक सहमत नहीं हैं । इसके पश्चात् भी स्पेन्सर की इस विचार धारा को इसलिए महत्वपूर्ण माना जाता है कि स्पेन्सर ने सबसे पहले एक व्यवस्थित ढंग से सामाजिक संरचना तथा सावयवी संरचना की सादृश्यता को स्पष्ट किया ।

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समालोचना ( Criticism )

स्पेन्सर द्वारा प्रतिपादित विभिन्न सिद्धान्तों में उविकास और सामाजिक सावयव सम्बन्धी सिद्धान्त महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं । स्पेन्सर द्वारा दिये गये सिद्धान्तों का व्यापक प्रभाव समाजशास्त्रीय विचारकों पर पड़ा जिसके फलस्वरूप रूस , जापान , फ्रांस , जर्मनी तथा अमेरिका आदि के समाजशास्त्रियों ने समाज की प्रकृति पर अधिक गहन रूप से चिन्तन करना आरम्भ किया । स्पेन्सर के सिद्धान्तों को विभिन्न भाषाओं में भी अनुवादित किया गया । हालांकि आज स्पेन्सर के सामाजिक उ विकास के सिद्धान्तों को सर्वसम्मति से स्वीकार नहीं किया जाता किन्तु उद्विकास के सिद्धान्त को वैज्ञानिक आधार प्रदान करने के कारण स्पेन्सर का महत्त्व सदैव बना रहेगा । विभिन्न विद्वानों ने स्पेन्सर के उक्त सिद्धान्त की जिन आधारों पर आलोचना की है , उनमें से कुछ आलोचनाओं का उल्लेख करने से स्पेन्सर के विचारों का वास्तविक मूल्यांकन करना सम्भव हो सकता है । क्रेन ब्रिन्टन ( Crane Brinton ) ने स्पेन्सर की कृतियों के सन्दर्भ में लिखा है कि यह मात करना कठिन है कि स्पेन्सर को इतनी प्रतिष्ठा क्यों और कैसे मिली ? .

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