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समाजीकरण

 

समाजीकरण

 ( Socialization )

 मनुष्य जन्म से मृत्युपर्यन्त तक कुछ – न – कुछ सीखता ही रहता है । व्यक्ति जब जन्म लेता है , उस समय वह सिर्फ हाड़ – मांस का एक जीवित पुतला होता है । जन्म के समय उसमें सामाजिक गुण होते हैं और न असामाजिक । उसे अपने शरीर तक का आभास नहीं होता । इसका एकमात्र कारण यह है कि उसमें ‘ स्व ‘ का विकास नहीं हुआ रहता । किन्तु धीरे – धीरे वह समाज और संस्कृति के बीच पलते – पलते एक सामाजिक प्राणी बन जाता है । अर्थात् व्यक्ति समाज की परम्पराओं , रूढ़ियों , विश्वासों , रीति – रिवाजों के अनसार व्यवहार करना सीख जाता है । इस प्रकार जिस प्रक्रिया के द्वारा जैविकीय प्राणी ( biological being ) सामाजिक प्राणी ( social being ) में बदल जाता है , उसे समाजीकरण कहते है । इस प्रक्रिया के द्वारा मनुष्य समाज के मानदण्डों को सीखता है और उनके अनुरूप अपना व्यवहार प्रदर्शित करते हुए समाज का सक्रिय सदस्य बन जाता है । समाजीकरण की प्रक्रिया प्रत्येक समाज में होती है , चाहे वह अमेरिका का सभ्य समाज हो या कोई असभ्य वन्य जाति । इसके द्वारा ही व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास होता है । विभिन्न समाजशास्त्रियों ने भिन्न – भिन्न प्रकार से समाजीकरण की प्रक्रिया को स्पष्ट किया है

 जॉनसन के अनुसार , – ‘ ‘ समाजीकरण एक सीखने की प्रक्रिया है , जिससे व्यक्ति सामाजिक भूमिकाओं को सम्पादित करता है । ‘ ‘ इस परिभाषा में जॉनसन ने दर्शाया है कि व्यक्ति समाज के मूल्यों , आदर्शों , रीति – रिवाजों को सीखकर अपनी भूमिकाओं को अदा करता है और सामाजिक कार्यों में सहयोग देता है ।

 

फिक्टर के अनुसार , ” समाजीकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति सामाजिक व्यवहार के प्रतिमानी टो – वीकार करता है और उनसे अनुकूलन करना सीखता है । ” जॉनसन की तरह फिक्टर ने भी समाजीकरण को सोखने की प्रक्रिया बताया है ।

 कुप्पूस्वामी के अनुसार , ‘ समाजीकरण एक अन्त : क्रियात्मक प्रक्रिया है , जिसके द्वारा बच्चे का व्यवहार रूपानारित होकर उस समूह के सदस्यों की अपेक्षाओं के अनुरूप बनता है जिससे वह सम्बद्ध होता है ।

बोगार्डस के अनुसार , ” समाजीकरण मिलकर काम करने , सामूहिक उतरदायित्व की भावना को विकसित करने और दूसरों की कल्याण – सम्बन्धी आवश्यकता द्वारा निर्देशित होने की प्रक्रिया है । ‘ ‘ – बोगार्डस ने अपनी , परिभाषा में समाजीकरण की प्रक्रिया में अन्तःक्रियात्मक प्रभाव पर जोर दिया है । किन्तु इसमें उसने केवल सकारात्मक पहल पर ही बल दिया है । अर्थात् उसने समाजीकरण के अन्तर्गत सिर्फ सद्गुणों को ही प्रकाशित किया । यह बोगार्डस की परिभाषा की सबसे बड़ी कमजोरी है । वस्तुत : समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा व्यक्ति सिर्फ सदगुणों और अच्छी बातों को ही नहीं सीखता , बल्कि कछ इनसे विपरीत चीजों अथवा अवगुणों को भी सीखता है ।

किम्बाल यंग के अनुसार , ” समाजीकरण वह प्रक्रिया है , जिसके द्वारा व्यक्ति सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में प्रवेश करता है और समाज के विभिन्न समूहों का सदस्य बनता है तथा जिसके द्वारा उसे समाज के मल्यों और आदर्शों को स्वीकार करने की प्रेरणा मिलती है ।

उपर्युक्त परिभाषाओं के विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि समाजीकरण एक प्रक्रिया है , जिससे व्यक्ति सामाजिक सम्पराओं और रूढ़ियों के अनुसार व्यवहार करना सीखता है । सामाजिक जीवन की विभिन्न दशाओं के अनुरूप एक व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास समाजीकरण के द्वारा ही होता है । समाजीकरण से व्यक्ति में आत्म – चेतना . आत्म – निर्णय , हम की भावना . सामाजिक आत्मनियन्त्रण और सामाजिक उत्तरदायित्व के गण आते हैं

समाजीकरण की विशेषताएँ ( Characteristics of Socialization )

 

 समाजीकरण के सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों द्वारा दी गयी परिभाषाओं के आधार पर विशेषताएँ स्पष्ट हो रही है । इनमें से कुछ प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

 ( i ) समाजीकरण सीखने की एक प्रक्रिया है ।

( ii ) इसके द्वारा सामाजिक रीति – रिवाजों , परम्पराओं एवं आदर्शों को सीखा जाता है ।

( iii ) इस प्रक्रिया के द्वारा व्यक्ति एक जैवकीय प्राणी से सामाजिक प्राणी में बदल जाता है ।

( iv ) समाजीकरण एक आजन्म प्रक्रिया है अर्थात् यह जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त तक चलती रहती है ।

( v ) समाजीकरण से व्यक्ति में आत्म – चेतना , आत्म – निर्णय तथा हम की भावना का विकास होता हैं ।

( vi ) इससे व्यक्ति में आत्मनियन्त्रण तथा सामाजिक उत्तरदायित्व के गुण आते हैं ।

 ( vii ) समाजीकरण की प्रक्रिया विभिन्न स्तरों से गुजरती है । (

 VIII ) समाजीकरण की प्रक्रिया विभिन्न साधनों के द्वारा परी होती है ।

 ( ix ) समाजीकरण की प्रक्रिया सभी समाजों में होती है ।

 

समाजीकरण के उद्देश्य

( Aims of Socialization )

 

बम एवं सेजनिक न समाजीकरण के चार प्रमुख उद्देश्यों का उल्लेख किया है

 1 . बुनियादी अनुशासन ( Basic Discipline ) – समाजीकरण मानव जीवन को नियमबद्ध बनाये रखन के लिए आवश्यक है । समाजीकरण की प्रक्रिया के द्वारा व्यक्ति समाज के रीति – रिवाजों , आदर्शों एवं मूल्या का सीखता है । इस प्रकार वह समाज का एक सक्रिय सदस्य बन जाता है । समाजीकरण के फलस्वरूप वह समाज में अन्य लोगों के साथ सामंजस्य स्थापित करता है ।

2.आकांक्षाओं का निर्माण ( To instal aspirations ) – समाजीकरण की प्रक्रिया का उद्देश्य व्यक्ति में आकांक्षाओं का निर्माण करके उनकी पूर्ति में सहायता देना है । कहने का तात्पर्य यह है कि समाजीकरण स हा व्यक्ति के अन्दर इच्छाओं का जन्म होता है । इन्हीं इच्छाओं से आकांक्षाओं का निर्माण होता है और फिर इनकी पूर्ति भी समाजीकरण की प्रक्रिया से ही होती है ।

 3 . सामाजिक दायित्वों की पूर्ति का शिक्षण ( To teach theresponsibilityofsocialroles ) समाज में प्रत्येक व्यक्ति की एक स्थिति ( status ) होती है और उस स्थिति से जुड़ी हुई भूमिकाएँ ( roles ) भी होती है । इन भूमिकाओं को अदा करना आवश्यक होता है । समाजीकरण की प्रक्रिया व्यक्ति को सामाजिक दायित्वों का बोध कराती है । इसके द्वारा ही व्यक्ति सामाजिक रीति – रिवाजों को सीखता है , जिसके फलस्वरूप वह अपनी भूमिकाओं को निभाने में सफल हो पाता है ।

 4 . सामाजिक क्षमताओं का विकास ( Development of social skills ) – समाजीकरण का प्रक्रिया व्यक्ति के अन्दर उन क्षमताओं को विकसित करती है जो उसे सामाजिक जीवन के सभी क्षेत्रों में सफलतापूर्वक सामंजस्य स्थापित करने में सहायक हो । समाजीकरण के द्वारा व्यवित में वैसे गण आते हैं , जो समाज के साथ । अनुकूलन में सहायक होते हैं ।

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 समाजीकरण की प्रक्रिया के स्तर

( Stages of the Process of Socialization )

जॉनसन ( Johnson ) ने समाजीकरण की प्रक्रिया को चार स्तरों में बाँटा है

 ( i ) मौखिक अवस्था ( Oral Stage )

 ( ii ) शैशव अवस्था ( Anal Stage ) ( iii )

 तादात्मीकरण अवस्था ( Identification Stage )

 ( iv ) किशोरावस्था ( Adolescence )

1 . मौखिक अवस्था ( Oral Stage ) – यह समाजीकरण की प्रक्रिया का प्रथम चरण है । इस अवस्था में गर्भ में भ्रूण आरामपूर्वक रहता है । यह अवस्था एक से डेढ़ वर्ष की होती है । इस अवस्था में सभी आवयकताएँ सामान्य तौर पर शारीरिक एवं मौखिक होती हैं । इस अवस्था में बच्चा परिवार में अपनी माँ के अलावा किसी को नहीं जानता । वास्तव में वह माँ से अपने को पृथक् अनुभव नहीं करता । पारसन्स ( Parsons ) के अनुसार परिवार के अन्य लोगों के लिए बच्चा एक सम्पदा होता है । इसे मौखिक अवस्था इसलिए कहा जाता है , क्योंकि वह अपनी देखभाल के लिए संकेत देना सीख जाता है । शिशु अपने चेहरे के माध्यम से हाव – भाव प्रकट करने लगता है । इस अवस्था में बच्चों को शारीरिक आनन्द की अनुभूति होती है । इस स्थिति को फ्रायड ने प्राथमिक परिचय ( Primary Identification ) कहा है । इस अवस्था में बच्चों को भूख लगना , ठण्ड अथवा गर्मी महसूस करना तथा प्रत्येक कार्य में असुविधा का अनुभव होता है । इन असुविधाओं से बच्चे को कष्ट होता है और वह रोता तथा चिल्लाता है । समाजकमकोमा काइतीमचलत् ।

 2 . शैशव अवस्था ( Anal Stage ) – शैशव की अवस्था डेढ़ वर्ष से शुरू होती है और तीसरे या चौथे वर्ष में समाप्त हो जाती है । इस अवस्था में बच्चे को शौच – सम्बन्धी प्रशिक्षण दिया जाता है । बच्चे को साबुन से हाथ धोना तथा कपड़ा साफ रखने की सीख दी जाती है । इस अवस्था में बच्चा प्रत्येक तरह की प्रतिक्रिया करने लगता है । वह माँ से प्यार की इच्छा ही नहीं , बल्कि स्वयं भी माँ को स्नेह देने लगता है । इस स्तर में बच्चे के कार्यों को सही अथवा गलत ठहराया जाता है ताकि वह सही और गलत में अन्तर समझ सके । सही कार्यों के लिए उसे शाबाशी दी जाती है , तो दूसरी ओर गलत कार्यों के लिए डाँट – फटकार दी जाती है । इस प्रकार वह अपने परिवार एवं संस्कृति के अनुरूप व्यवहार करना आरम्भ कर देता है । इस अवस्था में बच्चा माँ के अतिरिक्त परिवार के अन्य सदस्यों के सम्पर्क में आता है तथा उनसे प्रभावित होता है । अब वह थोड़ा – बहुत बोलने तथा चलने लगता है । ऐसे में बच्चों में अनुकरण की प्रकृति का उद्विकास हो जाता है । परिवार के सदस्यों द्वारा क्रोध , विरोध , प्रेम एवं सहयोग प्रदर्शित करने पर बच्चे भी तनाव एवं प्रेम का भाव प्रदर्शित करने लगते है । इस प्रकार बच्चा दोहरी भूमिकाएँ निभाना शुरू कर देता है ।

 

3 . तादात्मीकरण अवस्था ( Identification Stage ) सीमान्य तौर पर यह अवस्था तीन – चार वर्ष से लेकर बारह – तेरह वर्ष की उम्र तक रहती है । जॉनसन ने बताया कि इस अवस्था में बच्चा पूरे परिवार से सम्बद्ध हो जाता है तथा सभी सदस्यों को पहचानने लगता है । इस अवस्था की प्रमुख विशेषता यह है कि बच्चा यौनिक व्यवहारों से परिचित नहीं होता , किन्तु उसके शरीर में अनेक यौनिक परिवर्तन होने लगते हैं । इस समय बच्चा अपने लिंग को पहचानने लगता है ( अर्थात वह लड़का है या लड़की ) और विपरीत लिंग में उसकी रुचि बढ़ने लगती है । इस स्तर में बच्चे से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपने लिंग के अनुरूप व्यवहार करे । यदि वह अपने लिंग के अनुरूप व्यवहार करता है , तो उसे प्रोत्साहित किया जाता है । इस प्रकार वह धीरे – धीरे लिंग विभेदीकरण सीख जाता हैं । इस अवस्था में बालको में यौन – विकास इस सीमा तक हो जाता है कि वे अपने माता – पिता से ईर्ष्या करने लगते हैं । आरम्भ में बच्चा अपने लिंग एवं परिस्थिति से पूर्ण तादात्म्य स्थापित नहीं कर पाता . क्योंकि उसमें ईष्या एवं उद्वेग अधिक होते हैं । किन्तु वह धीरे – धीरे इनपर नियन्त्रण रखना सीख जाता है । इस अवस्था में बच्चों में जटिल भावनाओं का विकास होता है । लड़के माँ की ओर तथा लड़कियाँ पिता के प्रति अचेतन रूप से आकर्षित होने लगती हैं । लड़कों के माँ के प्रति आकर्षण को ऑडिपस कॉम्प्लेक्स ( Oedipus complex ) तथा लड़कियों के पिता के प्रति आकर्षण को इलेक्ट्रा कॉम्प्लेक्स ( Electra complex ) के नाम से सम्बोधित किया जाता है । तादात्मीकरण की अवस्था गम्नावस्था ( Latency stage ) के नाम से भी जानी जाती है ।

 4 . किशोरावस्था ( Adolescences इस स्तर में प्राय : यौवनावस्था ( Puberty ) आरम्भ होती है । इस अवस्था में बच्चे अपने माता – पिता से अधिक स्वतन्त्रता की आकांक्षा करते है । यह अवस्था 13 वर्ष से लेकर 18 वर्ष तक ही होती है । यह स्तर बहुत ही महत्त्वपूर्ण होता है , क्योंकि इस अवस्था में बालक – बालिकाएँ गम्भीर तनावों का अनुभव करते हैं । इस तनाव का कारण बालक – बालिकाओं में शारीरिक परिवर्तन होता है । – इस समय बच्चों से यह आशा की जाती है कि वे अपने जीवन से सम्बन्धित आवश्यक निर्णय स्वयं लें । उदाहरणस्वरूप , जीवन – साथी का चुनाव , व्यवसाय का चुनाव इत्यादि । इन निर्णयों को लेते समय बच्चे प्रायः दुविधा में पड़ जाते हैं , किन्तु इन निर्णयों के सम्बन्ध में उनसे आशा की जाती है कि वे अपनी पारिवारिक परम्पराओं और सांस्कृतिक मूल्यों को ध्यान में रखकर निर्णय लें । परन्तु प्राय : ये किशोरों की भावनाओं के प्रतिकूल होते हैं और मानसिक तनाव के कारण बनते है । इस स्तर पर समाजीकरण की प्रक्रिया समाज के निषेधात्मक नियमों ( incest taboos ) से प्रभावित होती है जो संस्कृति में विशेष महत्त्व रखते हैं । इसी अवस्था में बच्चों को अपने परिवार के अतिरिक्त पड़ोसियों , खेल के साथियों , मित्रों , अध्यापकों एवं नवागन्तुकों के साथ समायोजन करना पड़ता है । ऐसी स्थिति में वे नई परिस्थितियों का सामना करके नये अनुभव प्राप्त करते हैं । इस स्तर में बच्चे परिस्थितियों का सामान्यीकरण करना भी सीखते है । इस अवस्था में उनमें पराहम् ( Super ego ) की भावना का विकास होता है , जिससे उनमे आत्म – नियन्त्रण उत्पन्न होता है । समाजीकरण की प्रक्रिया इन्हीं चार अवस्थाओं में समाप्त नहीं होती । किन्तु ये व्यक्तित्व के निर्माण के दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय हैं । इसके बाद की प्रक्रियाएँ सरल हो जाती है , क्योंकि व्यक्ति में भाषा तथा उन क्षमताओं का विकास हो जाता है , जिससे वह किसी परिस्थिति को आसानी से समझ कर आत्मसात कर लेता है ।

किशोरावस्था के बाद भी समाजीकरण की प्रक्रिया तीन प्रमुख स्तरों से होकर गुजरती है

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 ( i ) युवावस्था

 ( ii ) प्रौढ़ावस्था

( iii ) वृद्धावस्था

( i ) युवावस्था – इस अवस्था में व्यवित अनेक पदों को प्राप्त करता है , जैसे पिता , पति इत्यादि । इन सभी पदों के अनुरूप व्यक्ति कार्य करता है तथा परिवार एवं समाज के महत्त्वपूर्ण दायित्वों को निभाता है । विभिन्न प्रकार के पदों से सम्बन्धित भूमिकाओं को निभाने में उसे भूमिका संघर्ष ( role clash ) की स्थिति का सामना करना पड़ता है

 । ) प्रौढावस्था – इस अवस्था में व्यक्ति पर सामाजिक दायित्वों का बोझ बढ़ जाता है । उसे अपने परिवार एवं बच्चों की शिक्षा – दीक्षा , विवाह एवं व्यवसाय आदि का भार भी उठाना पड़ता है । दफ्तर के वरिष्ठ अधिकारी या सेवक के रूप में नये दायित्व सम्भालने होते है । इस प्रकार वह भिन्न – भिन्न परिस्थितियों में नये – नये अनभव प्राप्त करता है ।

 वद्धावस्था — इस अवस्था में व्यक्ति पर शारीरिक , मानसिक तथा सामाजिक परिवर्तन स्पष्ट होने लगते है । अब वे दादा , नाना इत्यादि के रूप में अनेक महत्त्वपूर्ण भूमिकाओं को निभाते हैं । नौकरी करने वाला

व्यक्ति इस अवस्था में सेवा से निवृत्त हो जाता है । सामान्य तौर पर अब उसे दूसरों पर आश्रित होना पड़ता है । इस समय उसे अनेक नयी परिस्थितियों से अनुकूलन करना पड़ता है । स्पष्ट होता है कि समाजीकरण की प्रक्रिया किसी – न – किसी रूप में जीवन भर चलती रहती है । किशोरावस्था के बाद यह प्रक्रिया अपेक्षाकृत सरल हो जाती है । जॉनसन ने इसके तीन कारणों की चर्चा की है , पहला , वयस्क साधारणतया उस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कार्य करने के लिए प्रेरित होता है , जो स्वयं वह देख चुका हो । दूसरा , वह जिस नई भूमिका को अन्तरीकृत करना चाहता है , उसमें तथा उसके द्वारा पहले की गई भूमिकाओं में काफी समानता होती है । तीसरा , वह भाषा के माध्यम से नई प्रत्याशाओं को सरलता से समझ लेता है । इस प्रकार समाजीकरण की प्रक्रिया किशोरावस्था के बाद स्वत : चलती रहती है ।

 

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