समाजशास्त्र का क्षेत्र

 

 

समाजशास्त्र का क्षेत्र

( Scope of Sociology  )

किसी भी विषय के सम्बन्ध में परिभाषा देने के बाद उनके अध्ययन क्षेत्र की बात आती है । समाजशास्त्र की परिभाषा जानने के बाद यह जानना आवश्यक है कि समाजशास्त्र का अध्ययन – क्षेत्र क्या है ? समाजशाख किन सीमाओं के अन्दर अध्ययन करता है । अध्ययन – क्षेत्र का तात्पर्य है किसी सीमा क्षेत्र के अन्दर रहकर खास विषय का अध्ययन करना । किसी भी विषय का क्षेत्र निर्धारित करना बहुत ही कठिन कार्य है । खासकर समाजशास के सम्बन्ध में तो यह और भी कठिन प्रतीत होता है । इसका मुख्य कारण यह है कि समाजशास्त्र एक नवीन विज्ञान है । यह आपको पहले ही बताया गया है कि इस विज्ञान का इतिहास करीब – करीब 169 वर्ष पुराना है फिर भी समाजशास्त्रियों ने इसके अध्ययन क्षेत्र को स्पष्ट करने की कोशिश की है । समाजशास्त्र के अध्ययन क्षेत्र के सम्बन्ध में समाजशास्त्रियों के दो मत प्रमुख रूप से हमारे सामने आए हैं ।

1 . स्वरूपात्मक सम्प्रदाय ( Formal School )

2 . समन्वयात्मक सम्प्रदाय ( Synthetic School )

 

 

1 . स्वरूपात्मक सम्प्रदाय ( Formal School )

स्वरूपात्मक सम्प्रदाय के अनुसार , समाजशास्त्र एक विशेष विज्ञान है । विशेष विज्ञान के रूप में यह विशेष प्रकार के सामाजिक सम्बन्धों का अध्ययन करता है अर्थात् समाजशास्त्र के अध्ययन – क्षेत्र में केवल छ । विशेष प्रकार के सामाजिक सम्बन्ध को ही सम्मिलित किया जाना चाहिए । इस सम्प्रदाय के लोगों ने समाजशाख के अध्ययन – क्षेत्र को सीमित करने की कोशिश की है । इस सम्प्रदाय के समर्थकों के अनुसार सामाजिक सम्बयों का क्षेत्र इतना व्यापक है कि समाजशास्त्र के अन्तर्गत सभी प्रकार के सामाजिक सम्बन्धों का अध्ययन करना सम्भव नहीं है । इस स्थिति में इसके अन्तर्गत सभी प्रकार के सामाजिक सम्बन्धों का अध्ययन नहीं करके इन सम्बन्धों के विशिष्ट स्वरूपों का अध्ययन किया जाए । अर्थात समाजशास्त्र में केवल सामाजिक सम्बन्धों के बाहरी स्वरूप ‘ । का हा अध्ययन किया जाए । समाजशास्त्र को एक विशिष्ट विज्ञान बनाने के लिए यह आवश्यक हक क्षेत्र को निश्चित किया जाए । इस सम्प्रदाय के प्रमुख समर्थकों में जार्ज सिमेल , मैक्स वेबर , तथा वॉनवीज के नाम उल्लेखनीय है । अब हम एक – एक करक इनक विचारा क

( 1 ) जाज सिमेल ( George Simmel )

समाजशास्त्र को एक विशिष्ट विज्ञान के रूप में मानने वालों में जॉर्ज सिमेल का नाम प्रमुख है । जॉर्ज सिमेल समाजशास्त्र को समाजशास्त्र का क्षेत्र एक विशिष्ट विज्ञान बनाना चाहते थे । इनके अनुसार समाजशास्त्र सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों का अध्ययन करता है । जॉर्ज सिमेल के अनुसार प्रत्येक वस्तु का एक ‘ स्वरूप ‘ ( Form ) होता है दूसरा उसकी अन्तर्वस्त ( Content ) । इसी प्रकार सामाजिक सम्बन्धों के भी दो प्रमुख पहलू होते हैं – सामाजिक सम्बन्धी का ‘ स्वरूप तथा उसकी ‘ अन्तर्वस्तु ‘ । सिमेल का कहना है कि समाजशास्त्र का सम्बन्ध सिर्फ बाहरी आकृति से है अन्तर्वस्तु से नहीं । सिमेल  ने यह भी बताया कि ‘ स्वरूप ‘ तथा अन्तर्वस्तु ‘ एक – दूसरे से दुखेम , सोरोकिन , हॉब हाउस बिल्कुल पृथक् होते है और इनका अध्ययन भी पृथक् रूप से किया जा सकता है । अर्थात् सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों को उसकी अन्तर्वस्तु से अलग किया जा सकता है । उदाहरणस्वरूप एक समान तीन शीशे के ग्लास में दूध , पानी , और शर्बत रखा गया । इन तीनों ग्लासों में तीन प्रकार के तरल पदार्थ हैं , इससे ग्लास के स्वरूप में कोई फर्क नहीं पड़ता । इसी प्रकार तीन प्रकार के स्वरूप वाले ग्लास में एक ही चीज भरी जाय या विभिन्न प्रकार की चीज भरी जाय इससे ग्लास के स्वरूप में कोई फर्क नहीं पड़ता है । अत : यह स्पष्ट होता है कि स्वरूप पर उसकी अन्तर्वस्व का कोई प्रभाव नहीं पड़ता । उन्हें एक – दूसरे से पृथक् किया जा सकता है । इसलिए सामाजिक सम्बन्धी के स्वरूप को भी उसकी अन्तर्वस्तु से अलग किया जा सकता है । इसलिए समाजशास्त्र में केवल सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों का ही अध्ययन होना चाहिए ।

 

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( ii ) मैक्स वेबर ( Max Weber ) – इन्होंने भी समाजशास्त्र को एक विशिष्ट विज्ञान का दर्जा दिया है । इनके अनुसार समाजशास्त्र ‘ सामाजिक क्रियाओं ‘ का अध्ययन है । मैक्स वेबर ने समाजशास्त्र के क्षेत्र को सीमित करना उचित समझा और अपने विचारों को प्रस्तुत किया । मैक्स वेबर के विचारों को जानने से पहले उनका ‘ सामाजिक क्रिया ‘ का तात्पर्य जानना आवश्यक है । इनके अनुसार सामाजिक क्रिया वह है जो अर्थपूर्ण होती है तथा जो अन्य व्यक्तियों के व्यवहारों से प्रभावित होती है । इस प्रकार हम देखते हैं कि मैक्स वेबर की सामाजिक क्रिया से दो विशेषतायें स्पष्ट होती हैं — ( क ) पहला , सामाजिक क्रिया वह क्रिया है जो एक – दूसरे के व्यवहारों को प्रभावित करती है और ( ख ) दूसरा , सामाजिक क्रिया अर्थपूर्ण होती है । इसके साथ मैक्स वेबर ने यह भी बताया कि सामाजिक क्रिया तभी होती है जब उसका एक पूर्व निश्चित उद्देश्य होता है और क्रिया होने के बाद उसकी एक प्रतिक्रिया भी होती है । इस प्रकार मैक्स वेबर ने बताया कि समाजशास्त्र के अन्तर्गत सिर्फ सामाजिक क्रियाओं का अध्ययन होना चाहिए ।

( iii ) वीरकान्त ( Vierkandt ) – वीरकान्त ने भी समाजशास्त्र को एक विशिष्ट विज्ञान के रूप में मान्यता दी । उन्होंने बताया , विशिष्ट विज्ञान के रूप में समाजशास्त्र को मानसिक सम्बन्धों के स्वरूपों का अध्ययन करना चाहिए । अर्थात् मानसिक सम्बन्धों का वह स्वरूप जो व्यक्तियों को एक – दूसरे से अथवा समूह से बाँधता है उसका अध्ययन करता है । अत : समाजशास्त्र के अन्तर्गत मानसिक व भावनात्मक सम्बन्धों के स्वरूपों का अध्ययन करना चाहिए ।

( iv ) टॉनीज ( Tonnies ) – टॉनीज ने समाजशास्त्र को एक विशिष्ट विज्ञान के रूप में मान्यता देते हुए बताया कि समाजशास्त्र एक विशुद्ध विज्ञान है । इस विशुद्ध विज्ञान में अन्य सामाजिक विज्ञानों की विषय – वस्तु का मिश्रण नहीं होना चाहिए । साथ – साथ समाजशास्त्र के नियम को भी अन्य विज्ञानों के नियमों से बिल्कुल स्वतन्त्र होना चाहिए । इस प्रकार हम पाते हैं कि – टॉनीज ने ‘ विशुद्ध समाजशास्त्र ‘ ( Pure Sociology ) के रूप में समाजशास्त्र को एक विशिष्ट विज्ञान बनाना चाहा

( v ) वॉनवीज ( Von Wiese ) अन्य समाजशास्त्रियों की तरह वॉनवीज ने भी समाजशास्त्र को एक विशेष विज्ञान के रूप में स्वीकार किया है । इन्होंने लिखा है कि समाजशास्त्र एक विशिष्ट सामाजिक विज्ञान के रूप में निव के सम्बन्धों के स्वरूपों का अध्ययन है । वॉनवीज ने सामाजिक सम्बन्धों के 650 स्वरूपों का उल्लेख किया है और बताया कि समाजशास्त्र को इन्हीं स्वरूपों का अध्ययन करना चाहिए । उपयुक्त विचारों से यह स्पष्ट होता है कि स्वरूपात्मक सम्प्रदाय के समर्थकों के अनुसार समाजशास्त्र एक विशिष्ट विज्ञान है । विशिष्ट विज्ञान के रूप में यह सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों का अध्ययन करता है । इन विद्वानों ने समाजशास्त्र के अध्ययन – क्षेत्र को बहुत सीमित करने का प्रयास किया है । अन्य समाजशास्त्रियों ने इस सम्प्रदाय की कमियों और त्रुटियों पर प्रकाश डाला है ।

स्वरूपात्मक सम्प्रदाय की आलोचना ( Criticism of Formal School ) –

स्वरूपात्मक सम्प्रदाय के आलोचकों ने अपने विचारों को निम्नलिखित ढंग से प्रस्तुत किया है ( i ) स्वरूपात्मक सम्प्रदाय के लोगों का यह कहना गलत है कि केवल समाजशास्त्र ही सामाजिक सम्बन्धी के स्वरूपों का अध्ययन करता है । उदाहरणस्वरूप राजनीतिशास्त्र में भी प्रभुत्व , सत्ता , शक्ति जैसे सम्बन्धों का अध्ययन होता है । इस प्रकार यह कहना अनुचित होगा कि सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों का अध्ययन करने से समाजशास्त्र एक स्वतन्त्र विज्ञान बन जाएगा ।

( ii ) स्वरूपात्मक सम्प्रदाय के विचारकों के अनुसार चूँकि समाजशास्त्र एक नवीन विज्ञान है इसलिए इसका अध्ययन क्षेत्र सीमित होना चाहिए । किन्तु उनकी इस प्रकार की मान्यता ठीक नहीं है । इस सम्प्रदाय के विचारों से प्रभावित होकर समाजशास्त्र को केवल सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों का अध्ययन मान लेने से सामाजिक जीवन के अन्य पहलू छूट जाएँगे । ऐसी स्थिति में समाजशाख का अध्ययन – क्षेत्र बहुत ही सीमित हो जाएगा । यह किसी भी विषय के विकास के लिए ठीक नहीं है ।

( iii ) जॉर्ज सिमेल का यह कहना गलत है कि भौतिक वस्तुओं की तरह सामाजिक सम्बन्धों के दो पक्ष होते हैं — पहला उसका बाह्य स्वरूप और दूसरा उसकी अन्तर्वस्तु । इन दोनों को एक – दूसरे से पृथक् किया जा सकता है । लेकिन सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों को एक – दूसरे से पृथक् नहीं किया जा सकता । इसलिए समाजशास्त्र के अन्तर्गत केवल सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों का अध्ययन करना सम्भव नहीं है ।

( iv ) स्वरूपात्मक सम्प्रदाय के विद्वानों ने समाजशास्त्र को एक स्वतन्त्र और एक विशुद्ध विज्ञान ( Pure बनाना चाहा है । किन्तु ऐसा होना कठिन है । इसका प्रमुख कारण यह है कि सभी सामाजिक विज्ञाना में पारस्परिक निर्भरता पायी जाती है । इसके सम्बन्ध में सोरोकिन ने बताया है कि शायद ही ऐसा कोई विज्ञान हो जो अन्य विज्ञानों से किसी – न – किसी रूप में सम्बन्ध न रखता हो । अर्थात् सभी विज्ञानों में अन्त :  म्बन्ध तथा अन्त : निर्भरता पायी जाती है ।

उपर्यक्त आलोचनाओं से स्पष्ट होता है कि स्वरूपात्मक सम्प्रदाय का दृष्टिकोण संकचित है और उनकी मान्यताएँ भी सही नहीं हैं । समाजशास्त्र के अन्तर्गत आवश्यकता इस बात की है कि वह सामाजिक जीवन के विभिन्न पक्षों या तत्त्वों का समग्र रूप में अध्ययन करें

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समन्वययात्मक सम्प्रदाय (SYNTHETIC SCHOOL)

समन्वययात्मक सम्प्रदाय के विद्वानों के अनुसार समाजशास्त्र एक ‘सामान्य विज्ञान’।  अर्थात् इसके अन्तर्गत सभी प्रकार के सामाजिक सम्बन्धों का अध्ययन किया जाता है।  इस सम्प्रदाय के प्रमुख समाजशास्त्रियों में दुर्खेम, सोरोकिन, हॉब हाउस इत्यादि का नाम विशेष उल्लेखनीय है।  इन लोगों ने समाजशास्त्र को एक विशिष्ट विज्ञान बनाने की बजाय एक सामान्य विज्ञान बनाने की कोशिश की।  इन विद्वानों के अनुसार समाजशास्त्र के क्षेत्र को केवल सामाजिक मान्यताओं के स्वरूपों तक सीमित नहीं रखा जा सकता है।  सामाजिक ज्ञान की पूर्णता के लिए सम्पूर्ण समाज का एक सामान्य विज्ञान होना अति आवश्यक है।  समन्वयात्मक सम्प्रदाय के विद्वानों के दो तर्क हैं।  यही दोनों तर्क इस सम्प्रदाय के आधार माने गए हैं।

(i) प्रथम तर्क यह है कि समन्वयया सम्बद्ध सम्प्रदाय के विद्वानों के अनुसार समाज की प्रकृति हमारी शारीरिक रचना के समान है।  जिस प्रकार शरीर का एक अंग दूसरे अंग को प्रभावित करता है उसी प्रकार समाज में होता है

 

वाला कोई भी परिवर्तन दूसरे अंगों को भी प्रभावित करता है । अर्थात जिस प्रकार शरीर के अंग – प्रत्यंग एक – दूसर के साथ घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित होते हैं , उसी प्रकार समाज की विभिन्न इकाइयों या अगा कबाच पार सम्बन्ध होते हैं ।

( ii ) दूसरा तर्क यह है कि व्यक्ति का सम्पूर्ण सामाजिक जीवन किसी भी एक विशेष सामाजिक विज्ञान का विषय नहीं है । प्रत्येक सामाजिक विज्ञान के द्वारा समाज के किसी एक भाग या पक्ष का अध्ययन किया । रूप राजनाातशास्त्र , अर्थशास्त्र , इतिहास या अन्य सभी सामाजिक विज्ञान हमारे जीवन के किसी एक पक्ष से विशेष रूप से सम्बद्ध हैं । ऐसा कोई भी विज्ञान नहीं है जो सामाजिक जीवन के सभी पक्षों का समग्र रूप स अध्ययन करे । अतः समाजशास्त्र को एक सामान्य विज्ञान के रूप में सामाजिक जीवन के सभा पक्षा का सामान्य चित्र उपस्थित करना है । ऐसा होने पर ही समाजशास्त्र की प्रकृति को समझा जा सकता है । यहा कुछ प्रमुख समाजशास्त्रियों के विचार प्रस्तुत किए जा रहे हैं

( i ) दुर्खेम – इन्होंने समाजशास्त्र को एक विज्ञान के रूप में माना है । इनके अनुसार समाजशास्त्र में सबसे पहले उन सामाजिक तथ्यों ( Socil facts ) का अध्ययन होना चाहिए जिनके चलते सामूहिक प्रतिनिधानों ( Collective Representations ) का निर्माण होता है । दुर्खेम के सामूहिक प्रतिनिधानों का तात्पर्य प्रत्येक समूह या समाज में पाये जाने वाले विचारों , भावनाओं , धारणाओं व विशेषताओं से है , जिन्हें समाज के अधिकतर लोग अपना लेते है । दुर्खेम ने बताया कि सामूहिक प्रतिनिधानों की दो विशेषताएँ होती हैं ( a ) सामूहिक प्रतिनिधान सम्पूर्ण समाज की सामान्य विशेषताओं को स्पष्ट करते हैं । इसलिए इन्हें समाज के अधिकतर लोगों की स्वीकृति प्राप्त होती है । ( b ) सामूहिक प्रतिनिधानों के आगे व्यक्ति का कोई अस्तित्व नहीं होता । यह व्यक्ति की शक्ति से ऊपर होता है । इसलिए यह समाज के प्रत्येक व्यक्ति पर अनिवार्य रूप से प्रभाव डालता है । दर्खेम ने बतलाया है कि यदि सामूहिक प्रतिनिधानों का अध्ययन किया जाए तो समाज का एक सामान्य चित्र सामने स्पष्ट हो जाएगा । इसलिए समाजशास्त्र के अन्तर्गत इन सामूहिक प्रतिनिधानों का ही अध्ययन होना चाहिए । चूँकि सामूहिक प्रतिनिधान समाज की सामान्य विशेषताओं को उपस्थित करते हैं , इसलिए समाजशास्त्र एक सामान्य विज्ञान है ।

ii मोरोकिन -इन्होंने समाजशास्त्र को एक सामान्य विज्ञान बतलाया । इनके अनुसार कोई भी सामाजिक विज्ञान पर्णतः स्वतन्त्र नहीं । प्रत्येक सामाजिक विज्ञान को किसी – न – किसी रूप में एक टसरे से मशिन – र रहना पड़ता है । प्रत्येक सामाजिक विज्ञान के अपने विषय होते हैं जिनका वह अध्ययन करता सामान्य तत्त्व ऐसे होते हैं जिनका अध्ययन सभी सामाजिक विज्ञानों में होता है । उदाहरणस्वरूप अर्थशास्त्र राजनीतिशास्त्र , इतिहास आदि सामाजिक विज्ञाना में कुछ सामान्य तत्त्व होते हैं । इन्हीं सामान्य वालों अन्तत किया जाता है

 

( iii ) हॉब हाउस – इनके अनुसार समाजशास्त्र का कार्य सभी सामाजिक विज्ञानों के परिणामों का समन्वय करना है । इस समन्वय के द्वारा ऐसा परिणाम निकालना है जिससे सम्पूर्ण सामाजिक जीवन का अध्ययन किया

जा सके । समाजशास्त्र को एक सामान्य विज्ञान के रूप में सभी सामाजिक विज्ञानों के बीच समन्वय करना है । समाजशास्त्र विभिन्न सामाजिक विज्ञानों के बीच समन्वय का कार्य तीन प्रकार से कर सकता है ( a ) सभी तरह के सामाजिक विज्ञानों के प्रमुख विचारों के सामान्य तत्त्वों की जानकारी प्राप्त कर । ( b ) समाज को स्थायी बनाने वाले तथा परिवर्तन लानेवाले कारकों का पता लगा कर । ( c ) सामाजिक विकास की प्रवृत्ति एवं दशाओं का पता लगा कर । कहने का तात्पर्य यह है कि समाजशास्त्र को मध्यस्थ का कार्य करना चाहिए । इस प्रकार हम देखते हैं कि समाजशास्त्र एक समन्वयात्मक विज्ञान है और यह सामान्य विचारधारा का अध्ययन करता है ।

 

समन्वयात्मक सम्प्रदाय की आलोचना ( Criticism of Synthetic School ) स्वरूपात्मक सम्प्रदाय की भाँति समन्वयात्मक सम्प्रदाय की भी आलोचना की गई । समाजशास्त्रियों ने इसके सम्बन्ध में कई आरोप लगाये । कुछ प्रमुख आरोप इस प्रकार हैं ( i ) समाजशास्त्रियों ने कहा कि समाजशास्त्र में यदि सभी तरह की सामाजिक घटनाओं एवं तत्त्वों का अध्ययन किया जायेगा तो वह एक मिश्रण बनकर रह जाएगा । ( ii ) यदि समाजशास्त्र को एक सामान्य विज्ञान माना जाए तो उसे अन्य विज्ञानों पर आश्रित रहना पडेगा । इस स्थिति में उसका न कोई अपना अस्तित्व होगा और न ही अपना स्वतन्त्र क्षेत्र । E ( iii ) समाजशास्त्र के अन्तर्गत सभी तरह की सामाजिक घटनाओं एवं तथ्यों का अध्ययन होने पर किसी भी तथ्य का पूर्णता से अध्ययन नहीं हो सकेगा । ( iv ) समाजशास्त्र को यदि सभी विभिन्न सामाजिक विज्ञानों का योग मान लिया जाय तो इसकी कोई अपनी पद्धति नहीं होगी । अपनी कोई निश्चित पद्धति नहीं होने से इसका विकास नहीं हो सकेगा । निष्कर्ष : समाजशास्त्र के स्वरूपात्मक सम्प्रदाय और समन्वयात्मक सम्प्रदाय का उल्लेख ऊपर किया गया है । ऐसा लगता है कि दोनों दृष्टिकोणों में काफी अन्तर है । पर सच पूछा जाए तो एक के अभाव में दूसरा अधूरा रह जाएगा । कोई भी एक सम्प्रदाय समाजशास्त्र का पूर्ण व स्पष्ट चित्र प्रस्तुत नहीं कर सकता । अर्थात् समाजशास्त्र के अध्ययन – क्षेत्र के सम्बन्ध में दोनों सम्प्रदाय एकपक्षीय हैं । वास्तविकता यह है कि जिसे ‘ विशेष सम्बन्धों का समाजशास्त्र कहते हैं उसमें भी कुछ सामान्य विशेषताओं का समावेश होता है और जिसे सामान्य सम्बन्धों का विज्ञान कहते हैं उसमें भी कुछ विशेष सम्बन्ध पाये जाते हैं । इससे यह स्पष्ट होता है कि कोई भी विज्ञान न तो पूर्णतया ‘ विशेष ‘ हो सकता है और न ही ‘ सामान्य ‘ । चिकित्सा विज्ञान में एक रोग का विशेषज्ञ ‘ अन्य रोगों के सम्बन्ध में भी जानकारी रखता है और चिकित्सा करता है । इसी प्रकार ‘ सामान्य ‘ रोगों का चिकित्सक भी कुछ रोगों का विशेष इलाज जानता है । अर्थात् सामान्यता और विशिष्टता दोनों साथ – साथ चलते हैं । इससे स्पष्ट होता है कि समाजशास्त्र के अध्ययन क्षेत्र में सामान्यता ‘ और ‘ विशिष्टता ‘ दोनों का अध्ययन किया जाता  है । समाज एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें सामान्य एवं विशेष सभी प्रकार के सामाजिक सम्बन्ध पाये  जिन्सबर्ग ने कहा है कि समाजशास्त्र एक ऐसा विज्ञान है जो विशेष विज्ञान और सामान्य विज्ञान का समन्वय है ।

 

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