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समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य

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समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य

उपागम का शाब्दिक अर्थ उप + आगमन है अर्थात् वास्तविकता के ” नजदीक ले जाना है । इसे किसी समस्या का अध्ययन करने की विधि अथवा उपाय ( Strategy ) भी कहा जा सकता है जिसके आधार पर उस समस्या का विश्लेषण किया जा सके । चाहे हम परिप्रेक्ष्य शब्द का प्रयोग करें या उपागम , दोनों का अर्थ एक ही है ।

बी ० भूषण ( B. Bhushan ) ‘ ने समाजशास्त्र के शब्दकोश ( Dictionary of Sociology ) में परिप्रेक्ष्य शब्द की परिभाषा इस प्रकार दी है- “ मूल्यों , विश्वासों , मनोवृत्तियों एवं अर्थों के लिए प्रयुक्त शब्द जोकि व्यक्ति को परिस्थिति को देखने हेतु एक रूपरेखा ( ढाँचा ) एवं दृष्टि प्रदान करता है ।

इनके अनुसार समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य हमें उन गहराइयों को देखने हेतु प्रेरित करता है जो नियमित व प्रतिमानित होती हैं न कि जो उस विशेष घटना या परिस्थिति में अनुपम रूप से पाई जाती हैं । अनेक विद्वान् परिप्रेक्ष्य के स्थान पर उपागम ( Approach ) शब्द को अधिक उपयुक्त मानते हैं ।

समाजशास्त्र में विभिन्न परिस्थितियों , प्रक्रियाओं अथवा चरों ( Variables ) का अध्ययन अनेक परिप्रेक्ष्यों द्वारा किया जाता है तथा प्रत्येक परिप्रेक्ष्य उस विशिष्ट समस्या ( जिसका कि इसके द्वारा अध्ययन किया जा रहा है ) के किसी विशेष पहलू पर अधिक बल देता है ।

डेविस एवं लुईस ( Davies and Lewis ) ने परिप्रेक्ष्य को प्रतिरूप ( Model ) कहना अधिक उचित बताया है ।

 

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समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य की विशेषताएँ ( ( Characteristics of Sociological Perspective )

समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य किसी परिस्थिति , प्रक्रिया या इकाई के व्यवहार के बारे में आनुभविक सिद्धान्त बनाने के लिए निर्मित कुछ रौद्धान्तिक कल्पनाएँ हैं जोकि अनुसन्धानकर्ता को विशिष्ट नजरिया प्रदान करती हैं तथा उसका अध्ययन के समय मार्गदर्शन करती हैं । समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य में निम्नांकित प्रमुख विशेषताएँ पाई जाती हैं

( 1 ) समन्वयात्मक प्रकृति ( Synthetic nature ) –

( 2 ) वैज्ञानिक प्रकृति ( Scientific nature ) –

( 3 ) वस्तुनिष्ठता ( Objectivity )

( 4 ) व्यापकता एवं खुलापन ( Comprehensiveness and openness ) –

( 5 ) विश्लेषणात्मक प्रकृति ( Analytical nature ) –

 ( 6 ) कार्य – कारण सम्बन्धों पर बल ( Emphasis on cause – effect relationships )

 चैपिन ( Chapin ) के अनुसार समाजशास्त्र में तीन प्रमुख परिप्रेक्ष्य प्रयोग किए जाते हैं

 

 ( 1 ) ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य ( Historical perspective ) ;

 ( 2 ) सांख्यिकीय परिप्रेक्ष्य ( Statistical perspective ) ; तथा

 ( 3 ) क्षेत्र कार्य अवलोकन परिप्रेक्ष्य ( Field work observation perspective ) |

( ब ) एलवुड ( Ellwood ) के अनुसार समाजशास्त्र के निम्नांकित पाँच प्रमुख परिप्रेक्ष्य है

( 1 ) मानवशास्त्रीय अथवा तुलनात्मक परिप्रेक्ष्य ( Anthropological or comparative perspective ) ;

( 2 ) ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य ( Historical perspective ) ;

( 3 ) सर्वेक्षण परिप्रेक्ष्य ( Survey perspective ) ;

( 4 ) निगमन परिप्रेक्ष्य ( Deductive perspective ) ; तथा

( 5 ) दार्शनिक परिप्रेक्ष्य ( Philosophical perspective ) । प प वि पी वि वै ही कर

( स ) हैट ( Hatt ) के अनुसार समाजशास्त्र के पाँच प्रमुख परिप्रेक्ष्य है-

( 1 ) सामान्य ज्ञान परिप्रेक्ष्य ( Common sense perspective ) ;

( 2 ) ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य ( Historical perspective ) ;

3 ) अजायबघर अवलोकन परिप्रेक्ष्य ( Museum observation perspective ) ; या

प्रायोगिक परिप्रेक्ष्य ( Laboratory experimental

( 5 ) सांख्यिकीय परिप्रेक्ष्य ( Statistical perspective ) ।

बी.के. नागला ( 2006 ) ने अपनी पुस्तक समाजशास्त्र में समाजशास्त्र के अनुसंधान की प्रकृति का चार उपागमों में उल्लेख किया है । ये इस प्रकार हैं

  1. प्रत्यक्षवाद ( Positivism and Idealogy )
  2. प्रत्यक्षवाद और वैचारिकी ( Positivism )
  3. व्याख्यात्मक समाजशास्त्र ( Descripitive Sociology )
  4. मानवादी संदर्श ( Humanistic Perpective )

बी.के. नागला ने अपनी पुस्तक इंडियन सोशियोलॉजिकल थॉट ( 2008 ) में भारतीय समाजशास्त्रीय अध्ययनों में निम्नलिखित दृष्टिकोणों का विश्लेषित किया है जो भारतीय अनुसंधान की प्रकृति को दर्शाते है । ये इस प्रकार हैं –

ऐतिहासिक पीरप्रेक्ष्य

भारतीय विधिशास्त्र

 संरचनात्मक प्रकार्यात्मक परिप्रेक्ष्य

 मार्क्सवादी परिप्रेक्ष्य

अधीनस्थ परिप्रेक्ष्य

 

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अगर हम समकालीन समाजशास्त्रीय अध्ययनों की समीक्षा करें तो हमें निम्नांकित परिप्रेक्ष्यों का प्रचलन सामान्यत : देखने को मिलता है

 

ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य ( Historical perspective ) ;

उद्विकासवादी परिप्रेक्ष्य ( Evolutionary perspective )

तुलनात्मक परिप्रेक्ष्य ( Comparative perspective ) ;

संरचनात्मक – प्रकार्यात्मक परिप्रेक्ष्य ( Structural – functional perspective ) ;

संघर्षात्मक परिप्रेक्ष्य ( Conflict perspective ) ;

व्यवहारात्मक तथा अन्तक्रियात्मक परिप्रेक्ष्य ( Behavioural and interactional perspective ) ;

सांख्यिकीय परिप्रेक्ष्य ( Statistical perspective ) ;

एथनोमैथोडोलोजी ( Ethnomethodology ) ;

आंचलिक – समाजशास्त्र ( Ethno – sociology ) ;

आगमन एवं निगमन परिप्रेक्ष्य ( Inductive and deductive perspectives ) ;

प्रयोगात्मक परिप्रेक्ष्य ( Experimental perspective ) ;

स्वरूपात्मक परिप्रेक्ष्य ( Formal perspective ) ;

व्यवस्थात्मक परिप्रेक्ष्य ( Systemic perspective ) ;

विनिमयवादी परिप्रेक्ष्य ( Exchange perspective ) ; तथा

|

भारतीय विद्याशास्त्रामूल पाठ विषयक परिपेक्ष्य

 

 

भारतीय विद्याशास्त्र वह परिप्रेक्ष्य है जिसमें भारतीय समाज को मूल पाठकों के आधार पर ऐतिहासिक एंव तुलनात्मक अध्ययन करने की विधि है | अत : भारतीय समगीजक संस्थाओं के अध्ययन में भारती विद्याशास्त्र प्राचीन इतिहास , महाकाव्यों , धार्मिक हस्तलिखित साहित्य इत्यादि स्त्रोतों का प्रयोग करते हैं । जिसमें मूलपाठ विषयक मुख्यतया बदे , पुरान मनुस्मृति , रामायण , महाभारत आदि आते है । इन प्राचीन उच्च साहित्य द्वारा भारतीय समाज की अध्ययन विधि ही भारतीय विद्या शास्त्र एवं मूलपाठ विषयक है ।भारतीय संस्कृति और समाज के विभिन्न पक्षों के अन्वेषण में भारतविद्या शास्त्र के स्त्रोतों का प्रयोग किया जाता है । भारतीय विद्याशास्त्र प्रार्चान मूलपाठ तथा भाषायी अध्ययन । के द्वारा भारतीय संस्कृति को समझने की विधि है ।

गोविन्द सदाशिव घुर्ये ने अपने अध्ययनों में भारत विद्याशास्त्र ( इन्डोलॉजी ) परिप्रेक्ष्य का प्रयोग किया है । उनका भारतीय साधुओं ( 1964 ) , धार्मिक चेतना ( 1966 ) दो ब्राह्मणवादी में संस्थाओं के रूप में गोंग एक चरण ( 1972 ) नामक अध्ययनों में भारत के पौराणिक एंव कई धार्मिक ग्रंथों का प्रयोग किया गया है । यह निर्विवाद है कि घुर्ये का भारत विद्याशास्त्र पीरप्रेस्य के प्रति काफी मोह था । इनके अलावा कई भारतीय समाजशास्त्रियों ने भारत विद्याशास्त्र परिप्रेक्ष्य को अपने अध्ययन की एक महत्वपूर्ण विधि के रूप में काम में लिया है । उनमें से मुख्य एस.वि.केतकर , बी . एन , सील , बीके , सरकार , लुई इयूमो , के.एस. कपाडिया , पी.एन. प्रभु इरावती इत्यादि है

 

अधीनस्थ परिप्रेक्ष्य

यह पीरप्रेस्य मुख्य रूप से दक्षिणी एशिया और भारत में प्रभावशाली रहा है । इस परिप्रेक्ष्य को लेकर आजकल महिलाओं तथा अन्य शोषित वर्ग एवं जातियों के अध्ययन किये जा रहे है ।

ये विधियाँ , उपागम या परिप्रेक्ष्य समान्यतया बड़े या वृहद समाजों के अध्ययन में प्रयुक्त होती है । इन परम्परागत विधियों के अतिरिक्त हाल में यूरोप और अमेरिका में प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावादी विधि भी लोक प्रियता पा रही है । हमारे देश में इस विधि द्वारा किये गये अध्ययनों का अभाव है ।

ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य ( Historical Perspective )

 

ऐतिहासिक विधि सामाजिक संस्थाओं परिवार , विवाह , कामुकता आदि के अध्ययन को ऐतिहासिक दृष्टि से देखता है । अनुसंधान की वह विधि जिसमें ऐतिहासिक दस्तावेजों तथा अन्य लिखित अथवा पुरातात्विक स्त्रोतों का प्रयोग शोध की अपीरष्टुत सामग्री के रूप में किया जाता है । यह ऐतिहासिक विधि कहलाती है । यह विधि एक और विकास के जैविक सिद्धान्त से तो दूसरी और इतिहास के दर्शन से प्रभावित है । इस विधि में संगुणित सामग्री के आधार पर सैद्धान्तिक एवं तुलनात्मक विश्लेषण कर सामान्यीकरण निक्षेप जाते है ।ऐतिहासिक पीरप्रेत्य ऐतिहासिक परिप्रेत्य का मूल स्त्रोत इतिहास की गहराई होती है । समाजशास्त्रीय अध्ययन में इतिहास का प्रयोग एक विधा की तरह दो प्रकार से होता है । इस परिप्रेक्ष्य का एक प्रकार गैर मार्क्सवादी ऐतिहासिक अध्ययन है और दूसरा प्रकार मार्क्सवादी ऐतिहासिक अध्ययन है । गैर मार्क्सवादी ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य वस्तुतः समाज के उद्विकास की व्याख्या सन् संवतों के माध्यम से करता है जबकि मार्क्सवादी परिप्रेक्ष्य मार्क्स द्वारा प्रयुक्त उत्पादन सम्बन्ध , उत्पादन शक्तियों , अलगाद वर्ग संघर्ष , ऐतिहासिक भौतिकवाद आदि अवधारणाओं द्वारा करता है । हमारे प्रांरभिक समाजशास्त्र दर्शन शास्त्र के इतिहास से अत्यधिक प्रभावित थे । इसके बाद इन पर जैवकीय सिद्धान्त के उद्विकास का प्रभाव पड़ा । वास्तव में ऐतिहासिक विधि मनुष्य के आदि कार्य से लेकर वर्तमान समय के उद्विकास और इतिहास को अपने परिवेश में सम्मिलित करता है ।

ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य का समाजशास्त्रीय तथा मानवशास्त्रीय अध्ययनों में अनुपम घटनाओं एवं परिस्थितियों को समझने के लिए अनेक विद्वानों ने प्रयोग किया है । इसमें घटनाओं या परिस्थितियों का अध्ययन उनके विशेष प्रारम्भिक कारकों ( Initial conditions ) का पता लगाकर किया जाता है । बॉटोमोर ( Bottomore ) के अनुसार ऐतिहासिक व्याख्या ( जोकि ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य का मुख्य उद्देश्य है ) का अभिप्राय उन प्रारम्भिक परिस्थितियों का वर्णन करना है जोकि विशेष घटना को जन्म देती है । इनके अनुसार सामाजिक विज्ञानों ( जिनमें से समाजशास्त्र एक है ) में वैज्ञानिक व्याख्या ऐतिहासिक व्याख्या के बिना अधूरी है । ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में सामान्यतः ऐतिहासिक सामग्री या द्वितीय क्रम के प्रलेखों ( Secondary documents ) से संकलित आँकड़ों का हो प्रयोग किया जाता है , परन्तु अनुसन्धानकर्ता प्राथमिक आँकड़ों द्वारा इनकी प्रामाणिकता की जाँच कर सकता है ।ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य द्वारा सामान्यत : उत्पत्ति एवं विकास सम्बन्धी अध्ययन ही किए जा सकते हैं तथा अनुपम घटनाओं के अध्ययन के कारण यह सामान्यीकरण में अधिक सहायक नहीं है । समाजशास्त्र में ऑगस्त कॉम्ट ( Auguste Comte ) , हरबर्ट स्पेन्सर ( Herbert Spencer ) , एल ० टी ० हॉबहाउस ( L. T. Hobhouse ) , कार्ल मार्क्स ( Karl Marx ) , मैक्स वेबर ( Mas Weber ) , सी ० राईट मिल्स ( C. Wright Mills ) , तथा रेमण्ड ऐरों ( Raymond Aron ) जैसे विद्वानों ने इसका प्रयोग अपने अध्ययनों में किया है जबकि मानवशास्त्र में रैडक्लिफ – ब्राउन ( Radcliffe – Brown ) ने इसका प्रयोग किया है ।

 तुलनात्मक परिप्रेक्ष्य 

( Comparative Perspective )

तुलनात्मक परिप्रेक्ष्य को काफी समय से समाजशास्त्र एवं मानवशास्त्र का सर्वोत्तम परिप्रेक्ष्य समझा जा रहा है । दुर्थीम ( Durkheim ) पहले समाजशास्त्री हैं जिन्होंने इस परिप्रेक्ष्य का विधिवत् प्रयोग अपने आत्महत्या के अध्ययन में किया । तुलनात्मक परिप्रेक्ष्य में दो घटनाओं , परिस्थितियों , संस्थाओं अथवा समाजों इत्यादि की तुलना की जाती है । तुलना के पश्चात् जो अन्तर एवं समानताएँ दिखाई देती हैं उनके आधार पर घटनाओं एवं परिस्थितियों को समझने का प्रयास किया जाता है । डंकन मिशेल ( Duncan Mitchell ) के अनुसार तुलनात्मक परिप्रेक्ष्य उस पद्धति को कहते हैं जिसमें भिन्न – भिन्न समाजों अथवा एक ही समाज के भिन्न – भिन्न समूहों की तुलना करके यह बताया जा सके कि उनमें समानता है अथवा नहीं , और यदि है तो क्यों है ? इमाइल दुर्थीम तथा मैक्स वेबर तुलनात्मक परिप्रेक्ष्य का प्रयोग करने वाले प्रमुख समाजशास्त्री माने जाते हैं । यद्यपि यह परिप्रेक्ष्य उपकल्पनाओं के निर्माण , विश्लेषणात्मक अध्ययनों तथा सामान्यीकरण में सहायक है फिर भी इसके प्रयोग में अनेक सावधानियाँ रखनी पड़ती हैं । दुर्थीम के अनुसार इसके द्वारा हम केवल एक ही समाज की भिन्न इकाइयों , एक समान स्तर ( विकास ) वाले समाजों तथा एक ही प्रकार की घटनाओं की भिन्न समाजों में तुलना कर सकते हैं ।

 संरचनात्मक – प्रकार्यात्मक परिप्रेक्ष्य ( Structural – functional Perspective )

 

यह सिद्धान्त इस मौलिक प्रश्न पर आधारित है कि किस प्रकार कोई संस्था अथवा विश्वास दूसरी संस्थाओं यस विश्वासों से पारस्परिक जुड़े होते हैं और किसी सीमा तक यह सम्पूर्ण सामाजिक संस्कृति अवस्था अथवा उसके किसी भाग को बनाये रखने में अपना योगदान करते आजकल यह उपागम संरचनात्मक – प्रकार्यवाद के नाम से जाना जाता है । समाजशास्त्र ने इस उपागम के प्रश्रय देने वालों में मर्टन एंव पार्सन्स मुख्य है । एक संरचनावादी की रुचि यह जानने में होती है कि किसी व्यवस्था में उसके अंगों के आपसी सम्बन्ध क्या है , वे किस प्रकार एक दूसरे में तालमेल बिताते हैं । ” संरचनावाद ” एक पद्धति है जिसका मानवशास्त्र में सर्वाधिक विशिष्ट रूप में प्रयोग फ्रांसीसी मानवशास्त्री क्लाउड लेवी स्ट्रास ने किया है । प्रकार्यवाद सावयविक सादृश्यता पर आधारित एक सिद्धान्त , एक परिप्रेक्ष्य या एक उपागम है जो प्रथाओं या सामाजिक संस्थाओं के प्रकार्यों ( प्रयोजनो ) के अध्ययन पर जोर देता है ।

भारत के संदर्भ में संरचनाविधि का प्रयोग फ्रान्सीसी समाजशास्त्री लुईयूमो ( Louis Dumount ) ने अपनी पुस्तक होमो हेरारकिकस ( Homo – Hierarchicus , 1970 ) में किया है । उन्होंने भारतीय जाति व्यवस्था का अध्ययन इस विधि द्वारा किया है । इसमें इयूमों ने विचारधारा , द्वन्द्व और तुलना जैसी अवधारणाओं को काम में लिया है । यह पुस्तक , कहना चाहिये , संरचनात्मक विधि के प्रयोग के लिये बहुत चर्चित रही है । इसमें इयूमों ने जाति व्यवस्था का अध्ययन पवित्र और अपवित्र , गैर – बराबरी और समानता आदि दोहरी विषमताओं के आधार पर रखा है । इसी पर उन्होंने स्तरीकरण के सिद्धान्त के संरचनात्मक उपागम द्वारा प्रस्तुत किया है ।

दरखाईम रेडक्लिफ बाउन और मेजिनोस्की ने प्रकार्यात्मक का मुख्यधारा को समाजशास्त्र में एक उपागम की तरह स्थापित किया । इस प्रकार्यवादी – पीरप्रेत्य को सुदृढ़ करने का काम टेलकट पारसन्स तथा रोबर्ट मटन ने किया । पारसन्स ने संरचनात्मक प्रकार्यवाद के स्थान के यह प्रकार्यवाद परिप्रेक्ष्य को एक उपागम के रूप में प्रयोग किया । उन्होंने प्रकार्यवादी परिप्रेक्ष्य उपागम को सामातिक व्यवस्था के सिद्धान्त के माध्यम से रखा है । उनके अनुसार व्यवस्था वह है जो निरन्तर है , जिसमें मतैक्य तथा जिसके विभिन्न भागों में एकीकरण है । पारसन्स का कहना है कि किसी भी व्यवस्था मे सम्बद्धता लाने का काम अवस्था के मूल्य और प्रतिमान करते हैं । इस व्यवस्था को उसकी समग्रता में देखना चाहिये । हमारे देश में भी 20 वीं शताब्दी के पाँचवें दशक में जो ग्रामीण अध्ययन हुए विजोकीनाथ मदन कहते हैं कि वे सभी उपागम की दृष्टि से प्रकार्यवादी हैं । हमारे यहाँ अक्षय देसाई , रामकृष्ण मुखर्जी , कैथलीन गफ आदि को छोड़कर सभी समाजशास्त्री प्रायः प्रकार्यवादी है ।

सरल शब्दों में , यह कहा जा सकता है कि यह परिप्रेक्ष्य सम्पूर्ण इकाई का उसकी संरचना एवं प्रकार्य के आधार पर वैज्ञानिक ढंग से विश्लेषण करने की एक पद्धति है । इसका उद्देश्य इकाई का निर्माण करने वाले अंगों या भागों का पता लगाना तथा इन अंगों के स्थान , स्थिति एवं प्रकार्यात्मक सम्बन्धों का पता लगाना है । समाजशास्त्र में इस परिप्रेक्ष्य के साथ स्पेन्सर ( Spencer ) , दुर्थीम ( Durkheim ) , ( Merton ) , पारसन्स ( Farsons ) तथा लेवी ( Levy ) जैसे विद्वानों के नाम तथा मानवशास्त्र में रैडक्लिफ – बाउन ( Radcliffe – Brown ) , मैलिनोव्स्की ( Malinowski ) , नैडल ( Nadel ) , फोट्स ( Fortes ) तथा फिर्थ ( Firh ) इत्यादि विद्वानों के नाम जुड़े हुए हैं । मर्टन

 संघर्षात्मक परिप्रेक्ष्य

( Conflict Perspective )

कार्ल मार्क्स को संघर्ष परिप्रेक्ष्य के समर्थकों में सबसे प्रमुख स्थान दिया जाता है । इन्होंने है । मार्क्स के लिए वर्ग के हित तथा शक्ति के लिए संघर्ष सामाजिक तथा ऐतिहासिक क्रियाओं संघर्ष का आधार उत्पादन के साधन बताया है तथा सभी समाजों को वर्ग संघर्ष का इतिहास बताया के मूल निर्णायक हैं । इनका वर्ग संघर्ष का सिद्धान्त भौतिकवाद को महत्त्वपूर्ण स्थान देता है

संघर्षात्मक परिप्रेक्ष्य द्वारा समाज में पाए जाने वाले तनाव व संघर्ष का विश्लेषण किया जाता हो इसके समर्थक हमारा ध्यान इस बात की ओर आकर्षित करते हैं कि आधुनिक समाज तनाव व संघर्ष से आक्रांत है और सामाजिक जीवन में सामान्य सहमति न होकर असहमति , प्रतिस्पर्द्धा तथा स्वार्थों में संघर्ष की प्रधानता होती जा रही है । डेहरेन्डोर्फ ( Dahrendorf ) के अनुसार संघर्ष परिप्रेक्ष्य की यह विशेषता है कि इसके समर्थक यह स्वीकार करते हैं कि प्रत्येक समाज सदा परिवर्तन की प्रक्रियाओं के अधीन रहता है तथा सामाजिक परिवर्तन सर्वव्यापी है । साथ ही , प्रत्येक समाज सदा मतभेद तथा संघर्ष प्रदर्शित करता है और समाज का प्रत्येक तत्त्व इसके विघटन एवं सर्वव्यापी है ।

मार्क्सवादी समाजशास्त्र , समाज की यथास्थिति वादी विश्लेषण का विरोधी है । सामजस्य एंव संतुलन की अपेक्षा संघर्ष की प्रक्रिया इसका दार्शनिक आधार है ।

। मार्क्सवादी समाजशास्त्रियों की रूचि मुख्यत : सामाजिक घटनाओं की खोज एवं व्याख्या करने , आर्थिक कारकों की भूमिका , वर्गो के आपसी सम्बन्धों और अन्तर सामूहिक संघर्ष जैसे विषयों में रहती है । मार्क्सवादी समाजशास्त्र का भौतिकवादी आयाम आर्थिक निर्धारणवाद को आश्रय देता है । इसके अनुसार यह माना जाता है कि किसी भी समाज की आर्थिक संस्थाएं अन्य सामाजिक संस्थाओं तथा संस्कृति की अन्तर्वस्तु का निर्धारण करती है । एक उपागम के रुप मार्क्सवादी परिप्रेक्ष्य ने समाजशास्त्रीय विश्लेषण में बहुत कुछ योगदान किया है । इस परिप्रेक्ष्य के प्रवर्तकों में कोहेने , यूजर आदि समाजशास्त्री है । हमारे देश में भी कतिपय समाजशास्त्रियों ने मार्क्सवादी परिप्रेक्ष्य का प्रयोग सफलतापूर्वक किया है । ए.आर. देसाइ डेनियन थार्नर , चार्ल्स वेटेलहैम केयेलीन गफ तथा राधाकृष्ण मुखर्जी ने मार्क्सवादी पीरप्रेक्ष्य को बहुत समाजों के अध्ययन के लागू किया है ।

मार्क्स ने इसी परिप्रेक्ष्य में कई भारतीय समाजशास्त्रियों इतिहासकारों तथा अन्य ने भारतीय समाज की वास्तविकता को समझने के लिये अध्ययन किये हैं । उनमें से मुख्य एम.एन.एन. दत्ता , एस.ए. डांगे , डी.डी कोसाम्बी , ए.आर. देसाई , डी.पी मुकर्जी , पी.सी.जोशी आर.एस.शर्मा , इरफान हबीब , डी.पी ध्येपोध्याय आदि है । डी.पी. मुखर्जी , ए.आर. देसाई , एंव राधाकृष्ण मुखर्जी इत्यादि प्रारंभिक समाजशास्त्रियों ने भारतीय समाज का द्वन्द्वात्मक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य अध्ययन किये है ।

संघर्ष समाज को विभिन्न वर्गों में विभाजित कर देता है और इनकी व्याख्या संघर्ष – परिस्थिति के सन्दर्भ में ही की जा सकती है । समाजशास्त्र में संघर्ष परिप्रेक्ष्य के साथ सिमेल ( Simmel ) , कोजर ( Coser ) , मार्क्स ( Marx ) , डेहरेन्डोर्फ ( Dahrendorf ) , मिशेल ( Mitchell ) तथा ओपनहीमर ( Oppenheimer ) आदि के नाम जुड़े हुए हैं । संघर्ष परिप्रेक्ष्य का प्रयोग यद्यपि मुख्य रूप से सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था , विशेष रूप से राजनीतिक व्यवस्था , का अध्ययन करने के लिए किया गया है , परन्तु यह संघर्ष की अन्य परिस्थितियों को समझने में भी सहायक है । इसके द्वारा हम मौलिक संघर्ष परिस्थितियों के वर्गीकरण , समाजीकरण एवं शिक्षण , क्रान्तिकारी और सन्धि परिस्थितियों , शक्ति के आदर्शों और व्यवस्थाओं से सम्बन्धित विविध प्रकार की अन्य समस्याओं का अध्ययन भी कर सकते हैं । ।

 व्यवहारात्मक तथा अन्तक्रियात्मक परिप्रेक्ष्य  ( Behavioural and Interactional Perspective )

। इस परिप्रेक्ष्य द्वारा अध्ययन करने वालों में वेबर ( Weber ) , पेरेटो ( Pareto ) , मीड ( Mead ) , ब्लमर ( Blumer ) , गॉफमैन ( Goffman ) तथा पारसन्स ( Parsons ) के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं । यह व्यक्तियों और सामाजिक समूहों के व्यवहार का विश्लेषण करने में सहायक है । यह सामाजिक मनोविज्ञान , समाजशास्त्र तथा सांस्कृतिक मानवशास्त्र से विषय – सन्दर्भ लेकर अनुसन्धान एवं सिद्धान्त का विकास करने में सहायक हैं ।

यह परिप्रेक्ष्य व्यक्तियों के व्यवहार ( राजनीतिक व्यवहार सहित ) के अध्ययन पर बल देता व्यवहारिक या व्यवहारात्मक परिप्रेक्ष्य मानव व्यवहार की अवधारणा को प्रतिष्ठित करता है चाहे वे व्यक्ति – शासित वर्ग के हों या शासक वर्ग के । इसमें व्यक्तियों के व्यवहार की तुलना भी

की जाती है तथा यह आनुभविक एवं वैज्ञानिक अध्ययनों पर बल देता है ।

आमण्ड ( Almond ) , दहल ( Dahl ) , ईस्टन ( Easton ) तथा लैसवैल ( Lasswell ) जैसे विद्वानों के नाम इस परिप्रेक्ष्य में साथ जुड़े हुए व्यवहारात्मक परिप्रेक्ष्य के चार प्रमुख लक्षण बताए जाते हैं

 सांख्यिकीय परिप्रेक्ष्य ( Statistical Perspective )

सांख्यिकीय परिप्रेक्ष्य के अन्तर्गत किसी घटना की व्याख्या , विवरण एवं तुलना के लिए संख्यात्मक तथ्यों का संकलन , वर्गीकरण एवं सारणीयन किया जाता हैसांख्यिकीय परिप्रेक्ष्य परिमाणात्मक अध्ययनों में अधिक उपयोगी है । इससे प्राप्त आँकड़ों का विश्लेषण अधिक यथार्थ एवं वैज्ञानिक रूप से किया जाता है । लोविट ( Lovitt ) के अनुसार सांख्यिकीय परिप्रेक्ष्य के अन्तर्गत किसी घटना की व्याख्या , विवरण एवं तुलना के लिए संख्यात्मक तथ्यों का संकलन , वर्गीकरण एवं सारणीयन किया जाता है ।

 

 एथनोमैथोडोलोजी

( Ethnomethodology )

यह परिप्रेक्ष्य मानवीय व्यवहार के उन पक्षों का अध्ययन करने पर बल देता है जो व्यक्ति की दैनिक क्रियाओं एवं व्यवहारो से सम्बन्धित हैं । इसमें मुख्य रूप से  दैनिक जीवन की सामान्य क्रियाएँ ,

के अध्ययन को विशेष महत्त्व दिया जाता है ।पिछले 20-25 वर्षों में सामाजिक घटनाओं का अधिक यथार्थ रूप तथा वास्तविकता का प्रत्यक्ष एवं निकटता से अध्ययन करने के लिए इस नवीन दृष्टिकोण का निर्माण किया गया है तथा इसने अनेक परम्परागत परिप्रेक्ष्यों , विशेष रूप से संरचनात्मक प्रकार्यात्मक परिप्रेक्ष्य , की मान्यताओं को चुनौती देना शुरू कर दिया है ।

 आंचलिक समाजशास्त्र

( Ethno – Sociology )

यह दृष्टिकोण एक नवीन परिप्रेक्ष्य है जो इस मान्यता पर आधारित है कि विकसित देशों के सन्दर्भ में दी गई अवधारणाएँ , परिप्रेक्ष्य एवं सिद्धान्त अन्य समाजों ( विशेष रूप से विकासशील समाजों ) के अध्ययन में अनुपयुक्त एवं निरर्थक हैं , अत : किसी विशेष समाज के सन्दर्भ में निर्मित सिद्धान्त ही सामाजिक वास्तविकता को समझने में अधिकतम महत्त्वपूर्ण हैं ।

 आगमन एवं निगमन परिप्रेक्ष्य ( Inductive and Deductive Perspectives )

आगमन एवं निगमन परिप्रेक्ष्य विज्ञान की दो मौलिक पद्धतियाँ हैं जिनका प्रयोग समाजशास्त्र में किया जाता है । इन्हें निम्न प्रकार से समझा जा सकता है

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  आगमन परिप्रेक्ष्य –

यह वह परिप्रेक्ष्य है जिसमें अनुसन्धानकर्ता कुछ विशिष्ट तथ्यो के आधार पर सामान्य तथ्यों का निरूपण करता है , अर्थात् इसमें विशिष्ट से सामान्य की ओर बढ़ने का प्रयास किया जाता है ।

पी ० वी ० यंग ( P.V.Young ) के अनुसार , “ आगमन किसी विशिष्ट तथ्य से तथ्य की सम्पूर्ण श्रेणी ( या समूह ) को , वास्तविक तथ्यों से सामान्य तथ्यों को , तथा व्यक्तिगत उदाहरणों से सार्वभौमिक उदाहरणों को तर्क के आधार पर समझने की एक प्रक्रिया है । ” इसे निम्न उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है राम मरणशील है , राम एक मनुष्य है , अत : मनुष्य मरणशील है । आगमन परिप्रेक्ष्य में क्योंकि नित्यप्रति के निरीक्षणों एवं अनुभवों या भूतकाल की घटनाओं के क्रम के आधार पर सामाजिक नियमों का प्रतिपादन किया जाता है , अत : अनेक विद्वान् इस परिप्रेक्ष्य को आनुभविक परिप्रेक्ष्य ( Empirical perspective ) या ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य ( Historical perspective ) के नाम से भी जानते हैं । परन्तु इसे आगमन परिप्रेक्ष्य का नाम देना ही अधिक उचित है । यह परिप्रेक्ष्य केवल उन्हीं घटनाओं एवं परिस्थितियों के अध्ययन में अधिक उपयुक्त है जिनमें पर्याप्त मात्रा में सादृश्यता या समानता पाई जाती है क्योंकि इसमें कुछ इकाइयों के बारे में जानकारी के आधार पर पूरी श्रेणी के बारे में सामान्यीकरण किया जाता है ।

 निगमन परिप्रेक्ष्य 

इसमें हम सामान्य से विशिष्ट की ओर चलते हैं । पी ० वी ० यंग ( P.V. Young ) के अनुसार , ‘

सामान्य से विशिष्ट , सार्वभौमिक से व्यक्तिगत तथा किन्हीं आधार – वाक्यो ( Premises ) से उनकी अनिवार्य विशेषताओं को तर्क के आधार पर निकालने की एक प्रक्रिया है । ‘ ‘ इस परिप्रेक्ष्य द्वारा अनुसन्धानकर्ता जिन विशिष्ट तथ्यों का पता लगाता है उनका सामाजिक घटना या तथ्यों के सम्बन्धी में प्रचलित सामान्य नियमों के आधार पर अनुमोदन करता है । इसे निम्न प्रचलित उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है मनुष्य मरणशील है , राम एक मनुष्य है , अतः राम मरणशील है । आगमन एवं निगमन परिप्रेक्ष्य , दोनों एक – दूसरे के पूरक हैं तथा सामाजिक अध्ययनों व अनुसन्धानों में इनके आधार पर सामान्य निष्कर्षों को निकाला जाता है ।

 प्रयोगात्मक परिप्रेक्ष्य 

( Experimental Perspective )

इस दृष्टिकोण में किन्हीं निश्चित सिद्धान्तों या दशाओं के अन्तर्गत अध्ययन – वस्तु को सामने रखकर उसका अध्ययन किया जाता है । सामाजिक विज्ञानों में भी प्रयोगात्मक परिप्रेक्ष्य का प्रयोग किया जाता है । यह अधिक सामान्य परिप्रेक्ष्य नहीं बन पाया है क्योंकि सामाजिक घटनाओं पर नियन्त्रण रखना सम्भव नहीं है । साथ ही , सामाजिक विज्ञानों की विषय – वस्तु को प्रयोगशाला की सीमाओं में बाँधा नहीं जा सकता ।

प्रयोगशाला परिप्रेक्ष्य में अध्ययन सामग्री को दो समूहों में विभाजित किया जाता है-

( i ) नियन्त्रित समूह तथा

( ii ) प्रायोगिक समूह । नियन्त्रित समूह को जैसा है वैसे ही रखा जाता है तथा इसकी तुलना प्रायोगिक समूह से की जाती है जिसमें कि परिवर्तन किया जाता है । चैपिन ( Chapin ) के अनुसार समाजशास्त्रीय अनुसन्धान में प्रयोगात्मक प्ररचना की अवधारणा नियन्त्रण की दशाओं के अन्तर्गत निरीक्षण द्वारा मानवीय सम्बन्धों के व्यवस्थित अध्ययन की ओर संकेत करती है ।

समाजशास्त्रीय अनुसन्धान में प्रयोगात्मक परिप्रेक्ष्य का प्रयोग प्रमुख रूप से तीन प्रकार से किया जाता है

( i ) केवल पश्चात् परीक्षण ,

( ii ) पूर्व – पश्चात् परीक्षण तथा

( iii ) कार्योत्तर अथवा कार्यान्तर तथ्य परीक्षण ।

 स्वरूपात्मक परिप्रेक्ष्य

( Formal Perspective )

इसमें सामाजिक स्वरूपों के अध्ययन पर बल दिया जाता है । सिमेल ने यह तर्क दिया कि समाजशास्त्र एक नवीन पद्धति है । यह तथ्यों के अवलोकन का नया तरीका है जिस पर अन्य सामाजिक विज्ञान भी विचार करते हैं । वान वीज ( Von Wiese ) ने इस परिप्रेक्ष्य का स्पष्टीकरण करके सामान्य समाजशास्त्र का निर्माण करने का प्रयास किया , जबकि जी ० सी ० होमन्स ( G. C. Homans ) ने सामाजिक व्यवहार के प्रारम्भिक रूपों का अध्ययन करने का प्रयास किया । संक्षेप में , यह परिप्रेक्ष्य अन्तक्रिया के छोटे स्वरूपों के अध्ययन पर बल देता है । यह परिप्रेक्ष्य हमें मानव समाज के अध्ययन के लिए उचित पद्धति भी प्रदान करते हैं । यह वैज्ञानिक सामान्यीकरणों में भी अन्य परिप्रेक्ष्यों की अपेक्षा अधिक सहायक है ।

 व्यवस्थात्मक परिप्रेक्ष्य 

( Systemic Perspective )

सामाजिक व्यवस्था समाज के विभिन्न अंगों में पाए जाने वाले समन्वय , सन्तुलन अथवा सम्बद्धता से सम्बन्धित है जोकि किसी न किसी सीमा तक प्रत्येक समाज में पाई जाती है । सर्वप्रथम इस परिप्रेक्ष्य का प्रयोग मानवशास्त्र में किया गया तथा तत्पश्चात् इसे समाजशास्त्र , मनोविज्ञान , राजनीतिशास्त्र एवं राजनीतिक समाजशास्त्र में अपनाया गया । मानवशास्त्र तथा समाजशास्त्र में इस परिप्रेक्ष्य के साथ दुर्थीम ( Durkheim ) , रैडक्लिफ – बाउन ( Radcliffe Brown ) , मैलिनोव्स्की ( Malinowski ) , मर्टन ( Merton ) तथा पारसन्स ( Parsons ) के नाम जुड़े हुए है , जबकि राजनीतिशास्त्र में ईस्टन ( Easton ) , आमण्ड ( Almond ) तथा केपलान ( Kaplan ) के नाम इस परिप्रेक्ष्य के साथ जुड़े हैं ।

व्यवस्थात्मक परिप्रेक्ष्य का विकास द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् विभिन्न सामाजिक विज्ञानों में बढ़ते हुए सहयोग का परिणाम है । ‘ व्यवस्था ‘ शब्द से किसी वस्तु अथवा समग्र के विभिन्न अंगों का तथा इनमें पाए जाने वाले परस्पर सम्बन्धों का बोध होता है । व्यवस्था का अभिप्राय समाकलित सम्पूर्णता ( Integrated whole ) अथवा समग्रता है अर्थात् ऐसी समग्रता से है जिसके अंग परस्पर जुड़े हुए हैं तथा अपना – अपना काम ठीक प्रकार से करते हुए उस समग्रता में समन्वय बनाए रखते हैं

यह सन्तुलन पर बल देता है अर्थात् इसके समर्थक यह स्वीकार करते हैं कि व्यवस्था के अन्दर स्वचालित यन्त्र होते हैं जो कार्यों में सन्तुलन तथा पर्यावरण से अनुकूलन बनाए रखते हैं ।

 विनिमयवादी परिप्रेक्ष्य

( Exchange Perspective )

साइस परिप्रेक्ष्य की प्रमुख मान्यता यह है कि व्यक्ति सदैव विनिमय द्वारा कुछ लाभ प्राप्त करने का प्रयास करते हैं जोकि कीमत व फायदे ( भौतिक अथवा अभौतिक ) को ध्यान में रखकर शासित होता है । जेम्स फ्रेजर ( James Frazer ) , मैलिनोव्स्की ( Malinowski ) , मार्सल मास ( Marcel Mauss ) तथा लैवी – स्ट्रास्स ( Levi – Strauss ) के नाम इस दृष्टिकोण के साथ जुड़े हुए हैं ।

 उद्विकासवादी परिप्रेक्ष्य

( Evolutionary Perspective )

यह परिप्रेक्ष्य अधिकांश प्रारम्भिक समाजशास्त्रियों द्वारा अपनाया गया है । यह परिवर्तन की प्रक्रियाओं ( विशेषतः विभेदीकरण , विशेषीकरण तथा एकीकरण इत्यादि ) जिनके द्वारा समाज सरल से जटिल स्वरूप प्राप्त करते हैं , के अध्ययन में अधिक सहायक है । इसका प्रयोग विविध रूपों में किया गया है । मॉर्गन ( Morgan ) , कॉम्ट ( Conte ) , मार्क्स व एंगेल्स ( Marx and Engels ) , स्पेन्सर ( Spencer ) , दुर्थीम ( Durkheim ) , स्पेन्गलर ( Spengler ) , टॉयनबी ( Toynbee ) , सोरोकिन ( Sorokin ) , पारसन्स ( Parsons ) तथा ईसनस्टेड ( Eisenstedt ) जैसे विद्वानों ने इस परिप्रेक्ष्यों को अपनाया है

दर्शनशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य ( Philosophical perspective ) –

इनके अध्ययन दर्शनशास्त्रीय दृष्टिकोण पर आधारित हैं तथा भारतीय इतिहास व परम्परागत भारतीय चिन्तन को महत्त्व प्रदान करते हैं ।अनेक समाजशास्त्रियों जोकि प्रो ० डी ० पी ० मुकर्जी ( D. P. Mukerji ) से अत्यधिक प्रभावित थे , ने प्रत्यक्ष रूप से तार्किक एवं पद्धतिशास्त्रीय समस्याओं के अध्ययन में रुचि दिखाई है ।

भारतविद्याशास्त्रीय एवं क्षेत्राधारित दृष्टिकोणों का मिश्रित परिप्रेक्ष्य ( Synthesis of indological and field views ) –

यह परिप्रेक्ष्य भारतीय समाज को भारतीय धर्मग्रन्थों तथा वैधानिक ऐतिहासिक प्रलेखों के आधार पर समझने के साथ – साथ क्षेत्राधारित अध्ययनों पर भी बल देता है । इसलिए यह परिप्रेक्ष्य भारतीय समाज के विश्लेषण हेतु भारतविद्याशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य के दोषों को दूर कर संरचनात्मक – प्रकार्यात्मक परिप्रेक्ष्य द्वारा यथार्थता को समझने में अधिक उपयोगी माना जाता है । इसके समर्थक धर्मग्रन्थों में जो लिखा है तथा जो यथार्थता में विद्यमान है , दोनों में समन्वय रखने का प्रयास करते हैं । प्रो ० ( श्रीमती ) इरावती कर्वे ( Irawati Karve ) तथा प्रो ० ए ० एम ० शाह ( A. M. Shah ) ने इस परिप्रेक्ष्य को अपना समर्थन प्रदान किया है तथा इसके द्वारा स्वयं भी भारतीय समाज के अध्ययन किए है ।

सभ्यता परिप्रेक्ष्य ( Civilization perspective ) –

किसी भी समाज की सभ्यता ही उसका आइना होती है । सभ्यता का अध्ययन ठोस मापदण्डों के आधार पर सम्भव है । यह अध्ययन जनजातीय समाजों से लेकर औद्योगिक समाजों तक के सभी प्रकार के समाजों के अध्ययन में श्रेष्ठतर माना जाता है । भारतीय समाज के अध्ययन में अपनाया जाने वाला एक अन्य परिप्रेक्ष्य सभ्यता को विश्लेषण का आधार मानता है । सभ्यता संस्कृति का भौतिक पक्ष है जिसमें मानव निर्मित सभी वस्तुएँ सम्मिलित होती हैं । भारतीय विद्वानों में प्रो ० एन ० के ० बोस ( N. K. Bose ) तथा प्रो ० सुरजीत सिन्हा ( Surajit Sinha ) ने इस परिप्रेक्ष्य को अपना समर्थन प्रदान किया है ।

 दलितोद्धार परिप्रेक्ष्य ( Subaltern perspective ) –

यह परिप्रेक्ष्य किसी भी समाज के अध्ययन में उन वर्गों पर विशेष ध्यान देता है जो सामाजिक – सांस्कृतिक व्यवस्था में अन्तर्निहित दोषों के कारण विविध प्रकार की सुविधाओं से वंचित रहने के कारण पिछड़े हुए है । इतना ही नहीं , इसमें इन वर्गों की वंचनाओं को उजागर कर उनके उत्थान पर भी बल दिया जाता है । भारतीय समाज के विश्लेषण में डॉ ० बी ० आर ० अम्बेडकर ( B. R. Ambedkar ) एवं डेविड हार्डमिन ( David Hardiman ) ने इस परिप्रेक्ष्य को अपना समर्थन प्रदान किया है तथा इसे भारतीय समाज को समझने में उपयोगी बताया है । उपर्युक्त सभी परिप्रेक्ष्य , यद्यपि अलग – अलग स्वतन्त्र रूप से विकसित हुए हैं , फिर भी वे पारस्परिक अपवर्जक नहीं हैं । यद्यपि पश्चिमी समाजशास्त्र का भारतीय समाजशास्त्र पर काफी प्रभाव रहा है , फिर भी अधिकांश अध्ययनों में इस परिप्रेक्ष्य को कम ही अपनाया गया है ।

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