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सन्दर्भ – समूह की अवधारणा

सन्दर्भ – समूह की अवधारणा

( Concept of Reference Group )

मध्य अभिसीमा सिद्धान्तों ( Middle Range Theories ) की विवेचना में मर्टन द्वारा प्रस्तुत सन्दर्भ – समूह की अवधारणा का विशेष स्थान है । मर्टन ने स्पष्ट किया कि प्रकार्यात्मक समाजशास्त्र के अन्तर्गत व्यक्ति के उन व्यवहारों को समझना आवश्यक है कि जो समाज से उसकी समानुरूपता ( Conformity ) को स्पष्ट करते करते हैं । समाजशास्त्र की शब्दावली में ‘ समानुरूपता ‘ का तात्पर्य एक ऐसी दशा से है जिसमें व्यक्ति अपने समूह की प्रत्याशाओं और सामाजिक प्रतिमानों के अनुसार व्यवहार करके समूह से अपना एकीकरण स्थापित कर लेता है । मर्टन का कथन है कि अनेक परिस्थितियों में यह समानुरूपना केवल व्यक्ति के अपने समुह तक ही सीमित नहीं होती बल्कि इसका विस्तार कुछ ऐसे समूहों में भी देखने को मिलता है जो उसके अन्तः समूह से भिन्न होते हैं । 

मर्टन ने यह सम्पूर्ण विवेचना सन् 1950 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘ द अमेरिकन सोल्जर ‘ ( The American Soldier ) में प्रस्तुत की । मर्टन के विचारों को समझने के लिए आवश्यक है कि उनसे पहले हाईमैन ( Hymain ) द्वारा प्रस्तुत सन्दर्भ – समूह के सामान्य अर्थ को समझ लिया जाय । हाइमैन ने मनोवैज्ञानिक आधार पर दो प्रकार के समूहों का उल्लेख किया था – ( 1 ) सदस्यता समूह , तथा ( 2 ) सन्दर्भ – समूह । व्यक्ति प्रत्यक्ष रूप से जिस समूह में रहकर जीवन व्यतीत करता है और उसकी गतिविधियों में सक्रिया रूप से भाग लेकर उसके सदस्यों से प्रभावित होता है , उसे हम व्यक्ति का सदस्यता – समूह ( Membership Group ) कहते हैं । दूसरी ओर , कुछ समूह ऐसे होते हैं जिनका सदस्य न होने के बाद भी व्यक्ति उन्हें अपना आदर्श मानता है तथा उनके आचरणों और मूल्यों से अपना एकीकरण करने का प्रयत्न करना है । ऐसे समूह व्यक्ति का सन्दर्भ – समूह बन जाते हैं क्योंकि इन्हीं के सन्दर्भ में व्यक्ति के विचारों और मना वत्तियों का निर्माण होता है तथा मानसिक रूप से भी व्यक्ति अपने आप को उनके सीप समझता है । इस प्रकार हाईमैन के अनसार व्यक्ति का सन्दर्भ समूह सदस्यता समूह से भिन्न होता है । मर्टन ने समानुरूपता की प्रकृति को स्पष्ट करने के लिए सन्दर्भ – समूह की इस परम्परागत मान्यता को कूछ सीमा तक स्वीकार का के बाद भी इसे संशोधित रूप में प्रस्तुत किया ।

सन्दर्भ – समूह की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए मर्टन ने बतलाया कि एक व्यक्ति के सन्दर्भ समूह के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह उसके सदस्यता समूह से भिन्न ही हो । व्यक्ति जिस अन्तःसमूह ( In – group ) का सदस्य होता है । वह न समूह भी व्यक्ति का सन्दर्भ समूह हो सकता है । दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि जब व्यक्ति का अन्तःसमूह ही अपने सदस्य को व्यवहार के निर्देश देता है तब उसका सदस्यता समुह ही उसका सन्दर्भ समूह बन जाता है जबकि किसी बाहरा समूह द्वारा मानसिक रूप से निर्देश ग्रहण करने की दशा में एक बाह्य समूह व्यक्ति का सन्दर्भ – समूह होता है । इसे स्पष्ट करने के लिए मर्टन ने अनेक ऐसे समूहों का उल्लेख किया जिन्हें विभिन्न दशाओं में व्यक्ति का सन्दर्भ समूह कहा जा सकता है ।

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 ( 1 ) सदस्यता समूह सन्दर्भ समूह के रूप में ( Membership Group as a Reference Group ) – अमरीकी सैनिकों के अध्ययन के आधार पर मर्टन ने यह पाया कि अक्सर एक व्यक्ति अपने ही समूह के कुछ ऐसे व्यक्तियों को अपने आचरण का आदर्श अथवा सन्दर्भ मानने लगता है जिनकी उपलब्धियाँ अधिक होती हैं अथवा जिन्होंने अपने जीवन में अधिक सफलता प्राप्त कर ली होती है । इसका उदाहरण देते हुए मर्टन ने बतलाया कि एक बटेलियन के कुछ सैनिक जब अपनी ही टुकड़ी के उन सैनिकों को अपने व्यवहारों का आदर्श मानते लगते हैं जिन्हें विशेष कार्यों के लिए पुरस्कार प्राप्त हुआ हो , तब उनके सदस्यता – समूह से ही सम्बन्धित एक उप – समूह ( अन्तःसमूह ) उनका सन्दर्भ समूह बन जाता है ।

 ( 2 ) बहल सन्दर्भ समूह ( Multiple Reference Group ) – व्यक्ति के आचरणों का सन्दर्भ अक्सर कोई एक समूह ही नहीं होता बल्कि व्यक्ति विभिन्न क्षेत्रों में अनेक समूहों को अपने व्यवहार का आदर्श मान सकता है । उदाहरण के लिए यदि अनुशासन में रहने वाली विभिन्न सैनिक टुकड़ियों को पुरस्कार प्रदान किए गये हों तो एक सामान्य सैनिक के सामने यह समस्या उत्पन्न हो सकती है कि वह किस सैनिक टकड़ी को अपना आदर्श माने । मर्टन के अनुसार ऐसी दशा में व्यक्ति दो प्रमुख आधारों पर सन्दर्भ का चुनाव करता है – परिस्थिति की समानता के आधार पर तथा सम्पर्क की निरन्तरता के आधार पर । इसका तात्पर्य है कि जो समूह व्यक्ति के शैक्षणिक स्तर , सांस्कृतिक विशेषताओं अथवा भौगोलिक दशाओं के अधिक समान होता है , उसे सरलता से सन्दर्भ – समूह के रूप में स्वीकार कर लिया जात है । दूसरी ओर विभिन्न समूहों में से व्यक्ति का जिस समूह से निरन्तर सम्पर्क बना रहता है उसे सन्दर्भ – समूह के रूप में स्वीकार करने की सम्भावना अधिक होती है ।

 

 ( 3 ) विशिष्ट व्यक्तियों के समूह ( Significant Others ) – मर्टन के अनुसार , कोई व्यक्ति जिन दूसरे व्यक्तियों को अधिक प्रतिष्ठित समझता है , उनकी उसके मन में एक विशेष प्रतिमा बन जाती है । इन प्रतिष्ठित व्यक्तियों को ही मर्टन ने ‘ विशिष्ट व्यक्ति ‘ ( Significant Others ) कहा है । यह विशिष्ट व्यक्ति सामान्य लोगों की निगाह में न केवल आदर्श होते हैं बल्कि वे स्वयं भी उन्हीं के व्यवहारों , मूल्यों और आदों को ग्रहण करके उन्हीं के अनुसार बनना चाहते हैं । इस स्थिति में यह विशेष व्यक्ति सामान्य लोगों के लिए उनका सन्दर्भ समूह बन जाते हैं । यह विशिष्ट व्यक्ति अन्य व्यक्तियों के अन्तःसमूह से इस अर्थ में भिन्न होते हैं कि उनकी प्रस्थिति साधा रणतया सामान्य लोगों की प्रस्थिति से उच्च होती है । इसका उदाहरण देते हुए मर्टन ने बतलाया कि जब सामान्य सैनिक अपने सैनिक अधिकारियों के मूल्यों और व्यव हार के तरीकों का अनुकरण करते हैं तब ऐसे अधिकारियों के समूह को सामान्य सैनिकों का सन्दर्भ समूह कहा जा सकता है ।

 ( 4 ) गैर – सदस्यता समह ( Non – membership Group ) – मर्टन ने यह स्पष्ट किया कि यह आवश्यक नहीं है कि कोई मानसिक आधार पर केवल उसी समूह का सदस्य हो जिसके बीच वह रहता हो । एक व्यक्ति उस उस समूह का भी सदस्य हो सकता है जिसके बीच वह वास्तव में जीवन व्यतीत नहीं करता । इसका तात्पर्य है कि यदि हम किसी समूह के बीच रहकर प्रत्यक्ष रूप से उसके अन्य सदस्यों के साथ अन्तक्रिया नहीं करते तो भी हम उस समूह के इस अर्थ में सदस्य हो सकते हैं कि उसका हमारे व्यवहारों , मूल्य और विचारों पर स्पष्ट प्रभाव होता है । इससे स्पष्ट होता है कि जिस समूह को हम मानसिक आधार पर अपने निकट देखते हैं , वह हमारे लिए गैर – सदस्यता समूह होता है ।

 ( 5 ) नकारात्मक सन्दर्भ – समूह ( Negative Reference Group ) – सन्दर्भ समूह की विवेचना में मर्टन ने इस तथ्य को भी स्पष्ट किया कि सन्दर्भ – समूह का सदैव सकारात्मक होना जरूरी नहीं होता , यह समूह नकारात्मक भी हो सकते हैं । इसका तात्पर्य है कि व्यक्ति जिस समूह को अपने सन्दर्भ – समूह के रूप में देखता है , यह आवश्यक नहीं है कि वह व्यक्ति को सदैव स्वस्थ रूप में ही प्रभावित करें । कोई सन्दर्भ – समूह ऐसा भी हो सकता है जिसका प्रभाव व्यक्ति पर नकारात्मक अथवा अस्वस्थ हो । यह ध्यान रखना भी आवश्यक है कि नकारात्मक सन्दर्भ – समह का तात्पर्य केवल समाज – विरोधी प्रकृति के समूह से ही नहीं होता बल्कि यदि किसी सन्दर्भ – समूह के मूल्यों अथवा आदर्शों को ग्रहण करने से व्यक्ति अपने सदस्यता – समूह से अनुकूलन करने में असफल होने लगे तो इस स्थिति में भी उस सन्दर्भ – समूह को नकारात्मक सन्दर्भ – समूह ही माना जायेगा ।मर्टन ने सन्दर्भ – समूह के विभिन्न प्रकारों तथा इनकी विशेषताओं को स्पष्ट करने के साथ सन्दर्भ – समूह के प्रकार्यात्मक और अकार्यात्मक पक्ष को भी स्पष्ट किया । स सम्बन्ध में सन्दर्भ – समूह का सबसे महत्त्वपूर्ण प्रकार्य व्यक्ति का प्रत्याशित समाजीकरण ( Anticipatory Socialization ) करना है । जब एक व्यक्ति किसी सन्दर्भ – समूह से अपनी एकरूपता स्थापित करने का प्रयत्न करता है तब उसक व्यक्तित्व में बहुत से नए मूल्यों , विचारों , व्यवहार – प्रतिमानों तथा आदर्शों का समावेश होने लगता है । इसके फलस्वरूप गक्ति की सामाजिक प्रस्थिति पहले की तुलना में अधिक ऊंची हो जाने की सम्भावना हो जाती है ।

इसके बाद भी यह ध्यान रखना आवश्यक है कि सन्दर्भ – समूह की सहायता से व्यक्ति का प्रत्याशित समाजीकरण उसी सामाजिक संरचना में अधिक सम्भव होता है जिसकी प्रकृति खुली हुई ( Open ) होती है । बन्द प्रकृति के समाजों में इस प्रकार के समाजीकरण की अधिक सम्भावना नहीं होती । इसके पश्चात् भी सन्दर्भ – समूह के द्वारा व्यक्ति के प्रत्याशित समाजीकरण की अपनी एक सीमा है । इसका तात्पर्य है कि व्यक्ति किसी सन्दर्भ – समूह से अपनी जो एकरूपता स्थापित करने का प्रयत्न करता है , उसे उसके सदस्यता समूह द्वारा उसी सीमा तक अनुमति दी जाती है जिस सीमा तक इससे उसके सदस्यता समूह पर कोई प्रतिकूल प्रभाव न पड़ता हो । उदाहरण के लिए यदि व्यक्ति द्वारा किसी सन्दर्भ समूह के आचरणों अथवा मूल्यों को ग्रहण करने से उसके सदस्यता – समूह के अन्दर विघटन के तत्त्व उत्पन्न होने की सम्भावना होने लगे , तब व्यक्ति का अपने सदस्यता समूह द्वारा विरोध करना आरम्भ हो जाता है । सन्दर्भ – समूह के अकार्यात्मक पक्ष को स्पष्ट करते हुए मर्टन ने लिखा कि ” एक मुक्त सामाजिक व्यवस्था में सन्दर्भ – समूह द्वारा किया जाने वाला प्रत्याशित समाजीकरण व्यक्ति के लिए प्रकार्यात्मक हो सकता है लेकिन स्वयं उस समूह अथवा स्तर ( Stratum ) के लिए अकार्यात्मक होता है जिसका कि वह व्यक्ति सदस्य होता है । 18 इसका तात्पर्य है कि कोई व्यक्ति सन्दर्भ समूह के आचरणों , मूल्यों और आदशों से अपनी जितनी अधिक समानुरूपता स्थापित करता है , वह अपने समूह के आचरणों और मल्यों से उतना ही दूर हटता जाता है । इसके फलस्वरूप आरम्भ में व्यक्ति और उसकी सदस्यता समूह के बीच विरोध की दशा उत्पन्न होती है तथा बाद में इसका परिणाम वैयक्तिक स्तर पर अलगाव ( Alienation ) के रूप में तथा सामा जिक स्तर पर संघर्ष के रूप में सामने आ सकता है । इस दृष्टिकोण से सन्दर्भ – समड़ों का मल्यांकन व्यक्ति तथा समाज पर उनके प्रकार्यात्मक तथा अकार्यात्मक पक्ष ध्यान में रखते हुए ही किया जाना चाहिए ।

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