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संस्था

 

संस्था

 (INSTITUTION)

मानव की जरूरतें अनंत हैं।  इन जरूरतों को पूरा करने के लिए विभिन्न प्रकार की समितियों और संगठनों का गठन किया गया है।  इन समितियों के कुशल कामकाज के लिए कुछ नियम और प्रक्रियाएँ बनाई जाती हैं, इन्हें समाजशास्त्र की भाषा में ‘सामाजिक संस्था’ कहा जाता है।  यह स्पष्ट है कि एक सामाजिक संस्था नियमों और प्रक्रियाओं की एक प्रणाली है जो मनुष्यों की विशिष्ट आवश्यकताओं को पूरा करती है।  – इंस्टीट्यूशन शब्द का इस्तेमाल पहली बार हर्बर्ट स्पेंसर ने अपनी पुस्तक ‘फर्स्ट प्रिंसिपल्स’ में किया था।  स्पेन्सर के अनुसार – “संस्था वह अंग है जिसके माध्यम से समाज में कार्यों का निष्पादन होता है।  “

 साधारण बोल – चाल की भाषा में लोग समिति और संस्था शब्द का प्रयोग एक ही अर्थ में करते हैं।  समाज के किसी भी संगठन को लोग संस्था के नाम से पुकारते हैं।  लेकिन समाजशास्त्र में समिति और संस्था दोनों अलग – अलग अवधारणाएँ हैं और इनका प्रयोग भी भिन्न – भिन्न अर्थो में किया जाता है।  समिति व्यक्तियों का समूह है और संस्था के नियम का निष्कर्ष।  कुछ विशेष उद्देश्यों की पूर्ति के लिए समिति का संगठन होता है और इन उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए नियमों की व्यवस्था की जाती है, जिसे संस्था ने कहा है।  अर्थात् समिति के नियम या कार्य – सिस्टम की व्यवस्था को संस्था कहते हैं।  उदाहरण के लिए हॉस्पटल, परिवार और महाविद्यालय आदि को ले सकते हैं।  जब उनके सदस्यों की ओर ध्यान देगे तो ये निश्चित ही समिति है, किन्तु जब उनके नियम व कार्य – प्रणालियों की ओर ध्यान देंगे तो यह संस्थान होगा।  हॉस्पटल को जब डॉ, नर्स और मरीज के समूह के रूप में देखते हैं तो यह निश्चित ही समिति है और जब इनकी कार्य – प्रणालियों और नियमों को देखते हैं तो यह संस्था है। 

 

संस्था का अर्थ और परिभाषा

 (MEANING AND DEFINITION OF INSTITUTION)

 “संस्था ‘शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम स्पेन्सर (स्पेंसर) ने अपनी पुस्तक’FIRST PRINCIPLES ‘में किया। बाद में समर (SUMNER) ने अपनी पुस्तक’ फाल्केवल्स ‘FOLKWAYS में संस्था शब्द को व्यापक बताया।  रूप से स्पष्ट किया। उनके अनुसार संस्था की उत्पत्ति एक नहीं नहीं होती बल्कि इसका विकास धीरे – धीरे होता है। किसी भी संस्था का प्रारम्भिक रूप एक विचार होता है। अर्थात् संस्था का प्रारम्भ मनुष्य की।  वपनता पूर्ति करने के विचार विचार से होता है। इस विचार को बार – बार दुहराने से यह आदत (आदत बन जाती है। जब एक विचार से व्यक्ति को आवश्यकता पर्ति करने में सफलता मिलती है तो वह उसे बार – बार दुहराता है वह है  विचार व्यक्ति की आदत बन जाती है। इस आदत को जब सामूहिक स्वीकृति मिल जाती है और समाज के कई व्यक्ति इसे बार – बार दहराने लगते हैं तो यह जनरति (फाल्केवेज़) बन जाता है। जनरियों में सामूहिक भावना  जुड़ जाता है तो वह एक पीढ़ी से दसरी पीढी में हस्तान्तरित होती जाती है। जनरीति के साथ सामूहिक कल्याण एवं उपयोगिता की भावना जल जाती है तो वह रूढ़ि (आचार) बन जाती है।  फल तो समाज के ज्यादातर लोग उसका पालन करते हैं।  धीरे – धीरे रूढि में बहत – से आदेशों और निषेधों का समावेश हो जाता है।  इससे व्यापक स्वीकृति प्राप्त हो जाती है।  और इसके अवहेलना करना सामाजिक अपराध माना जाता है।  तब यह रूढ़ि प्रथा (कस्टम) में बदल जाता है पशा के उल्लंघन करनेवाले को सामाजिक दण्ड दिया जाता है।  इसके पश्चाताप में कुछ नियम, कानून व कार्य – सिस्टम क एक दाचा तयार होता है, जिसे हम संस्था (संस्था) कहते हैं। 

मेकाइवर और पेज ( MacIver and Page ) के अनुसार , “ सामूहिक क्रिया की विशेषता व्यक्त करनेवाली स्थापित कार्य – प्रणाली के स्वरूप अथवा अवस्था को हम संस्था कहते हैं । ‘

ग्रीन ( Green ) के अनुसार , “ संस्था कुछ जनरीतियों और लोकरीतियों का संगठन है , जो एक इकाई के रूप में कई सामाजिक कार्यों को सम्पादित करता है । ‘ ‘

ऑगबर्न और निमकॉफ ( Ogburn and Nimkoff ) के शब्दों में , ” कुछ खास आधारभूत मानव की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए स्थापित तरीके सामाजिक संस्था कहलाते हैं ।

 ” राबर्ट बीयरस्टेड ( Robert Bierstedt ) के अनुसार , ” संस्था एक संगठित कार्य – प्रणाली है । समाज में औपचारिक , स्वीकृत तथा स्थापित कार्य करने के तरीके को संस्था कहते हैं ।

 ” मेरिल और एलरिज ( Merril and Elridge ) के अनुसार , ” सामाजिक संस्था में व्यवहार के वे प्रतिमान हैं जो मानव की केन्द्रीय ( बुनियादी ) आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए निर्मित होते हैं ।

बोगार्डस ( Bogardus ) के अनुसार , ” एक सामाजिक संस्था – समाज की वह संरचना है जिसे मुख्यत : स्थापित प्रणालियों के द्वारा लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए संगठित किया जाता है ।

 उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि सर्वप्रथम संस्था कार्य – प्रणालियों का संगठन है । इस बात पर सब विद्वानों का एक मत है । द्वितीय बात यह है कि इनके द्वारा आवश्यकताओं की पूर्ति होती है । ग्रीन , बोगार्डस , ऑगबर्न तथा निमकॉफ और मेरिल एवं एलरिज ने अपनी – अपनी परिभाषाओं में इसी बात पर प्रकाश डाला है । इन लोगों के अनुसार संस्था का संगठन मनुष्य की बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही होता है । राबर्ट बीयरस्टेड ने अपनी परिभाषा में एक महत्त्वपूर्ण बात का उल्लेख किया है कि सस्था का स्वीकृति भी प्राप्त होनी चाहिए । अर्थात सिर्फ कार्य – प्रणालियों को स्थापित करना ही पर्याप्त नहीं है । इन तराका का समाज द्वारा स्वीकृति और मान्यता प्राप्त होना भी आवश्यक है । इन सारी बातों से स्पष्ट होता है कि संस्था समाज द्वारा मान्यता प्राप्त तौर – तरीकों , नियमों एवं कार्य – प्रणालियों आदि का संगठित रूप है , जिसके द्वारा मनुष्य का आवश्यकताओं की पूर्ति होती है । यदि समाज के अन्तर्गत हर व्यक्ति मनमाना ढंग से अपनी आवश्यकताओं का पूर्ति करने लगे तो समाज की व्यवस्था नष्ट हो जायेगी । अत : समाज किसी भी व्यक्ति को मनमानी करने की इजाजत नहीं देता । यही कारण है कि समाज में ऐसे तरीकों और नियमों को विकसित किया जाता है जिसे अधिकतर लोगों का स्वीकृति प्राप्त हो । समाज द्वारा मान्य होने के कारण ये एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तान्तरित होते रहते हैं । इस प्रकार मान्यता प्राप्त स्थापित नियमों व कार्य – प्रणालियों को संस्था कहा जाता है ।

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संस्था की विशेषताएँ

( Characteristics of Institution )

 विभिन्न परिभाषाओं के आधार पर संस्था की कुछ प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख किया जा रहा है

1.नियमों की व्यवस्था ( System of laws or Norms ) – संस्था नियमों का संकलन है । ये नियम संगठित एवं व्यवस्थित होते है । ऐसे नियम एवं कार्य – विधियाँ लोगों के विचारों , जनरीतियों , लोकरीतियों , नियमों और कानूनों के रूप में स्पष्ट होती हैं । इन्हीं के द्वारा सामाजिक कार्य सम्पन्न संस्था की विशेषताएँ होते हैं । उदाहरण के लिए , अस्पतालों में कुछ नियम एवं उप – नियम होते हैं , कॉलेजों में शिक्षा तथा परीक्षा के नियम होते है , बैंकों के अपने नियम व कानून होते हैं , जिनके आधार पर ये संस्थाएँ चलती है । अर्थात् संस्था की पहली विशेषता नियम की व्यवस्था है ।

 

  1. प्रतीक (SYMBOL) – प्रत्येक संस्था का कुछ – न – कुछ प्रतीक अवश्य होता है।  ये प्रतीक भौतिक और अभौतिक दोनों में से कोई भी हो सकता है।  इन प्रतीकों के माध्यम से संस्था विशेष को भिन्नाना जाता है।  उदाहरण के लिए विवाह संस्था का प्रतीक कलश, मंडप इत्यादि होता है।  जीवन बीमा निगम का चिह्न जलते हएक के दोनों ओर हाथ उसका प्रतीक है।  इसी प्रकार के पटना विश्वविद्यालय का भी प्रतीक होता है जो उसकी पहचान को स्पष्ट करता है।  संस्था के चिह्न का प्रतीकात्मक कार्य होता है। 
  2. सांस्कृतिक उपकरण (CULTURAL EQUIPMENTS) संस्था से संबंधित सांस्कृतिक उपकरण का होना भी आवश्यक है।  ये उपकरण भौतिक भी हो सकते हैं और अभौतिक भी हैं।  सांस्कृतिक उपकरणों के द्वारा संस्था को एक निश्चित रूप मिलता है और वह प्रभावपूर्ण इकाई के रूप में स्पष्ट होता है।  जैसे हिन्दू विवाह के लिए कुछ चीजो का होना आवश्यक होता है – मंडप, हवन कुण्ड, कलश इत्यादि।  अन्य समुदायों व धर्मो में भी विवाह के समय कुछ चीजों का इस्तेमाल होता है।  इस प्रकार की वस्तुएँ संस्था के लिए आवश्यक अंग बन जाती हैं। 
  3. विनिमय अंतरित (HERITAGE) – संस्थाएँ, उपयोगी और सामूहिक मान्यता प्राप्त होने के कारण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में विनिमय अंतराल होता रहता है।  किसी भी नियम व कार्य – प्रणाली के कल्याणकारी व उपयोगी होने से और लोगों के व्यावहारिक अनुभव प्राप्त होने के बाद ही संस्था का विकास होता है।  इसलिए किसी भी संस्था विशेष का हस्तांतरण कई पीढ़ियों में उसी रूप में होता रहता है। 
  4. नियमों की पाबन्दी (BINDING OF LAW) – स्थितियों के लिए नियमों का पालन करना भी आवश्यक होता है।  कोई भी नियम व कार्य – प्रणाली जब संस्था का रूप धारण कर लेते हैं तो उनका पालन करना व्यक्ति की इच्छा पर निर्भर नहीं करता है।  इन नियमों का पालन प्रत्येक सदस्य के लिए अनिवार्य होता है।  हॉस्पटल के नियम डॉ, नूर और मरीज सबको मानने पड़ते हैं।  इस तरह सभी संसाधनों के नियमों का पालन होता है।  यही कारण है कि संस्था सामाजिक नियन्त्रण के एक साधन के रूप में प्रमुख भूमिका अदा करती है। 

6.परिवर्तनशीलता (CHANGEABILITY) संस्था की एक प्रमुख विशेषता इसकी परिवर्तनशीलता है।  संस्था में सजावट का गुण होता है।  इसकी तात्पर्य यह नहीं है कि किसी भी तरह का कोई परिवर्तन नहीं होता है।  सामाजिक उद्देश्य व हित समय – समय पर बदलते रहते हैं।  उद्देश्य व आवश्यकताओं के बदलने से उनकी पूर्ति के ढंग, अक्सर – तरीके और कार्य – प्रणालियाँ भी बदल जाती हैं।  अर्थात् समय – समय पर कार्य – नियमों और नियमों में संशोधन होता है और इसे सामूहिक स्वीकृति भी प्राप्त होती है।  अत: संस्थाएँ जड़ नहीं होती हैं, लेकिन इनमें परिवर्तनशीलता पाई जाती है। 

  1. अमूर्त प्रकृति ( Abstract in Nature ) — नियमों का संकलन होने के कारण संस्था अमूर्त प्रकृति की होती है । इन नियमों को देखा व छुआ नहीं जा सकता । इन नियमों तथा कार्य – विधियों के द्वारा हम अपना जीवन व्यतीत करते हैं , पर इन्हें …स्पर्श नहीं कर सकते हैं । अत : यह एक अमूर्त व अगोचर संगठन है ।

 

  1. सुपरिभाषित उद्देश्य ( Well – defined objective ) – संस्था के कुछ खास उद्देश्य होते हैं । बिना उद्देश्य के इसका निर्माण सम्भव नहीं है । ये उद्देश्य स्पष्ट एवं उपयोगी होते हैं । ये संस्थाएँ समूह विशेष के व्यवहारों को नियंत्रित तथा निर्देशित करती हैं । ये लोगों के बीच के पारस्परिक संघर्षों को दूर करती हैं । इससे संस्था की उपयोगिता हमेशा बनी रहती है । इस प्रकार प्रत्येक संस्था किसी – न – किसी प्रकार के उद्देश्यों को व्यक्त अवश्य करती है | और इन्हीं के आधार पर इसका विकास भी सम्भव होता .है ।

  9.सामूहिक स्वीकृति ( Group Sanction ) – जब तक किसी नियम व कार्य – प्रणाली को सामूहिक स्वीकृति नहीं मिलती , तब तक वह संस्था नहीं कहला सकती । जब कोई विचार उपयोगी होता है , तो उसे अधिक – से – अधिक लोग दोहराते हैं जिससे उन्हें सामूहिक मान्यता प्राप्त हो जाती है । यदि कुछ नियम व्यक्तिगत हितों को पूरा करते हैं एवं उसमें सामूहिक कल्याण की भावना का अभाव पाया जाता है , तो ऐसे नियमों को कभी भी सामूहिक स्वीकृति नहीं मिल सकती और न ऐसे नियम व कार्य – प्रणाली संस्था ही कहला सकते है । इससे स्पष्ट होता है कि सामूहिक स्वीकृति और मान्यता प्राप्त होने के बाद ही कोई नियम व कार्य – प्रणाली संस्था का रूप धारण करते हैं ।

 

 

संस्था के सामाजिक कार्य या महत्त्व

(FUNCTION OF INSTITUTION)

 

संस्थाओं के द्वारा सामाजिक कार्य सम्पादित होते हैं, जिससे उनकी महत्वाकांक्षा बनी रहती है।  प्रत्येक संस्था के द्वारा मनुष्य के किसी – न – किसी आवश्यकता की पूर्ति होती है।  आवश्यकताओं की पूर्ति के कार्य के कारण ही स्थितियों का विकास हो पाता है।  स्थितियों के कुछ प्रमुख कार्य इस प्रकार है

आवश्यकताओं की पूर्ति (HUMAN NEED)

 स्थितियों का विकास मनुष्य की आवश्यकताआ को पूति के लिए होता है।  जब स्थितियों में मनुष्य की आवश्यकताओं की पूर्ति के गुण का ह्रास होता है तो वे संस्थाएँ धीरे – धीरे लुप्त होती जाती हैं।  आवश्यकता पर्ति के गण के कारण ही संस्थाएँ एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हिसारित होती रहती हैं।  इससे उनकी सामाजिक महत्वाकांक्षा बनी।  रहता है।  उदाहरण के लिए विवाह संस्था को ले सकते हैं।  विवाह के द्वारा मनुष्य की यौन सम्बन्धी आवश्यकताओं की पर्ति होती है और एक स्त्री और एक पुरुष के यौन सम्बन्धों को नियमित किया जाता है। 

  कार्य को सरल बनाना (SIMPLIFICATION OF WORK)

नियमों और कार्य – संचालन के संगठन को संस्था कहा जाता है।  ये नियम उपयोगी एव अनुभव पर आधारित होते हैं।  इससे कार्य करने में सन्म होता है। निश्चित नियमों व कार्य – प्रणालियों के द्वारा कोई भी कार्य करना आसान हो जाता है।  जीवन के सभी पक्षा स सम्बद्ध संस्थाएं होती है जो विभिन्न परिस्थितियों में व्यक्ति को कार्य करने का निर्देशन भी देती है।  इससे व्याक्त को ज्यादा भ्रम का सामना नहीं करना पड़ता है।  वह सुविधा और सरलता से कार्य कर पाता है।

 संस्कृति की वाहक (संस्कृति का वाहन) – संस्थाएँ संस्कृति की वाहक होती हैं।  संस्थाओं के द्वारा ही संस्कृति एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हंदारित होती जाती है।  संस्थाओं के द्वारा संस्कृति के विभिन्न तत्त्वों को समझने का गुण प्राप्त होता है।  इससे संस्कृति की निरन्तरता बनी रहती है। 

  स्थिति और कार्य का निर्धारण (स्थिति और भूमिका का निर्धारण) – संस्थाएँ व्यक्तियों की स्थिति और कार्यों का निर्धारण करती हैं।  किस पद से सम्बंधित कौन – कौन से कार्य करने वाला है यह पहले से निश्चित रहता है।  इससे प्रत्येक व्यक्ति अपनी स्थिति और स्थिति से सम्बद्ध निश्चित कार्यों को सम्पादित करता है।  विवाह संस्था से पति और पत्नी को अपनी स्थिति और पद की प्राप्ति हो जाती है और वे इनसे सम्बंधित निश्चित कार्यों को भी सम्पन्न करते हैं।  इससे स्पष्ट होता है कि संस्था व्यक्तियों की स्थिति और कार्यों का भी निर्धारण करती है। 

 

  सामाजिक परिवर्तन में सहायक (सामाजिक परिवर्तन में सहायक) सामान्य रूप से संसाधनों में जल्द कोई परिवर्तन नहीं होता, किंतु समय और परिस्थिति के साथ – साथ हमारी संस्थाएं और उनकी पूर्ति के ढंग भी बदल जाते हैं।  इससे सामाजिक स्थितियों में भी परिवर्तन लाने का प्रयास किया जाता है।  फलस्वरूप समाज के कई पक्षों में भी सामाजिक परिवर्तन की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।  संस्थाएँ समाज के महत्वाकांक्षी कार्यों को सम्पन्न करती हैं जिससे उनकी महत्वाकांक्षा बनी रहती है।  लेकिन ये संस्थाएँ कभी – कभी बाधक भी सिद्ध होती हैं।  संस्थाएँ रूढ़िवादी होती हैं।  रूढ़िवादी प्रकृति के कारण परिवर्तन हुए परिस्थिति में समायोजन में समस्या उत्पन्न कर देती हैं।  इससे सामाजिक प्रगति में बाधक का कार्य करने लगता है।

व्यवहारों में एकरूपता लाना ( To bring Conformity in Behaviour ) – कार्य – प्रणालियों एवं नियमों के निश्चित होने से व्यक्ति के व्यवहारों में अनुरूपता आती है । संस्थाएँ जीवन के विभिन्न पहलुओं से सम्बन्धित नियमों एवं कार्य – विधियों को निर्देशित करती हैं । व्यक्तियों के कार्य इन्हीं नियमों से नियन्त्रित एवं निर्देशित होते हैं जिससे सभी के व्यवहारों में एकरूपता उत्पन्न होती है । व्यक्तियों के व्यवहारों में एकरूपता रहने पर ही समाज में संगठन की स्थिति पायी जाती है । यदि हर व्यक्ति अपने मनमाने ढंग से कार्य करने लगे तो समाज में निश्चय ही विघटन की स्थिति उत्पन्न हो जायेगी ।

 

.सामाजिक नियन्त्रण ( Social Control ) संस्थाएँ सामाजिक नियन्त्रण के साधन के रूप में प्रमुख भूमिका अदा करती हैं । संस्थाएँ जीवन के सभी पक्षों से सम्बन्धित होती हैं । इन्हीं नियमों के द्वारा व्यक्ति अपने सामाजिक कार्यों का सम्पादन करता है । इन नियमों का उल्लंघन करने पर व्यक्ति को सामाजिक तिरस्कार एवं दण्ड भोगना पड़ता है । फलस्वरूप व्यक्ति इन नियमों के विरुद्ध जाने का साहस नहीं कर पाता जिससे व्यक्तियों के व्यवहार पर समाज का नियन्त्रण बना रहता है । संस्थाएँ सामाजिक नियन्त्रण की अनौपचारिक साधन होती हैं । इनकी अवहेलना करना कानूनी अपराध नहीं होता , बल्कि व्यक्ति इनका पालन नैतिकता से करता है । इस प्रकार हम देखते हैं कि संस्थाएँ सामाजिक नियन्त्रण का भी कार्य करती हैं ।

 

  संस्थाएँ रूढ़िवादी होती हैं।  इसलिए उनके मानने वाले भी अन्धविश्वासी हो जाते हैं।  वे जल्द ही किसी नए विचार और कार्य – प्रणाली को मान्यता नहीं देते हैं।  ऐसी स्थिति में व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में भी बाधा पहुँच जाती है।  व्यक्ति जल्द ही नए हालात में अपने को समायोजित नहीं कर पाता है।  संस्थाएं महत्त्वपूर्ण व उपयोगी होते हुए भी कुछ – कुछ परिस्थिति में प्रगति म उपयागा होते हुए भी कुछ – कुछ परिस्थिति में प्रगति में बाधक एवं अहितकर भी साबित होती हैं ।

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संस्था और समिति में अन्तर

( Distinction between Institution and Association )

1.सस्था और समिति शब्द का प्रयोग लोग प्रायः एक ही अर्थ में करते हैं । लेकिन इन दोनों में काफी अन्तर है । यहाँ इनमें अन्तर स्पष्ट किया जा रहा है संस्था समिति

2.संस्था की कोई निश्चित सीमा नहीं होती । इसका समिति का कार्य – क्षेत्र सीमित होता है । इसका कार्य – क्षेत्र दायरा सम्पूर्ण समाज भी हो सकता है । इसके सदस्यों तक ही होता है ।

3.संस्था एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तान्तरित समिति को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तान्तरित होती रहती है । नहीं किया जाता ।

4.संस्थाएँ रूढ़िवादी प्रकृति की होती हैं । इनमें परिवर्तन समिति रूढ़िवादी नहीं होती । इसके सदस्य अपनी बहुत धीमी गति से होता है । आवश्यकता एवं उद्देश्यों के अनुसार समय – समय पर इनमें परिवर्तन लाते रहते हैं । अत : समिति अपेक्षाकृत अधिक परिवर्तनशील होती है ।

5.कोई भी व्यक्ति संस्था का सदस्य नहीं हो सकता ,कोई भी व्यक्ति समिति का सदस्य हो सकता है ।  संस्थाओं के नियमों का पालन करना प्रत्येक व्यक्ति

 6..संस्था नियमों एवं कार्य – प्रणालियों का संगठन है ,समिति व्यक्तियों का समूह है ।

7.संस्था नियमों व कार्य – प्रणालियों का संगठन होने  समिति मूर्त है । व्यक्तियों के समूह होने के कारण के कारण अमूर्त होती है । इसे देखा अथवा छुआ इसे देखा और छुआ भी जा सकता है । नहीं जा सकता ।

8.संस्था का निर्माण एकाएक नहीं बल्कि धीरे – धीरे समिति का निर्माण कुछ खास उद्देश्यों को ध्यान होता है । में रखकर जब चाहे तब किया जा सकता है ।

  1. संस्था में सामूहिक कल्याण की भावना अन्तर्निहित समिति में व्यक्तिगत स्वार्थ की प्रधानता होती है । होती है । है ।

10.संस्था समिति की तुलना में स्थायी प्रकृति की होती समिति अस्थायी प्रकृति की होती है । उद्देश्य अथवा लक्ष्य प्राप्ति के बाद समिति भंग हो जाती है ।

11.संस्था का अपना विशेष प्रतीक होता है । इन्हीं प्रतीकों प्रत्येक समिति का एक नाम होता है जिससे उसे के द्वारा संस्था को पहचाना जाता है । जाना जाता है ।

 12.समिति के नियमों का पालन सिर्फ समिति के सदस्य के लिए अनिवार्य होता है समिति कुछ व्यक्तियों के विशिष्ट उद्देश्यों व हितों आवश्यकताओं की पूर्ति में मदद करती हैं । की पूर्ति करती है । का संस्थाएँ सामाजिक नियन्त्रण के साधन के रूप में

13,समिति लिखित तथा औपचारिक होते हए भी बहुत ही महत्त्वपूर्ण भूमिका अदाकरती हैं । अलिखित अपेक्षाकृत कम शक्तिशाली होती है । इसका और अनौपचारिक होते हुए भी इनका प्रभाव सदस्यो नियन्त्रण भी अपेक्षाकृत कमजोर होता है । पर अधिक होता है

 

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