संस्कृति और समाज
SOCIOLOGY – SAMAJSHASTRA- 2022 https://studypoint24.com/sociology-samajshastra-2022
समाजशास्त्र Complete solution / हिन्दी में
संस्कृति
( Culture )
सामान्यतः संस्कृति शब्द का प्रयोग हम दिन – प्रतिदिन के जीवन में ( अकरार ) निरन्तर करते रहते हैं । साथ ही संस्कृति शब्द का प्रयोग भिन्न – भिन्न अर्थों में भी करते हैं । उदाहरण के तौर पर हमारी संस्कृति में यह नहीं होता तथा पश्चिमी संस्कृति में इसकी स्वीकृति है । समाजशास्त्र विज्ञान के रूप में किसी भी अवधारणा का स्पष्ट अर्थ होता है जो कि वैज्ञानिक बोध को दर्शाता है । अतः संस्कृति का अर्थ समाजशास्त्रीय अवधारणा के रूप में ” सीखा हुआ व्यवहार ” होता है । अर्थात् कोई भी व्यक्ति बचपन से अब तक जो कुछ भी सीखता है , उदाहरण के तौरे पर खाने का तरीका , बात करने का तरीका , भाषा का ज्ञान , लिखना – पढना तथा अन्य योग्यताएँ , यह संस्कृति है ।
मनुष्य का कौन सा व्यवहार संस्कृति है ? मनुष्य के व्यवहार के कई पक्ष हैं
( अ ) जैविक व्यवहार ( Biological behaviour ) जैसे – मूख , नींद , चलना , दौड़ना ।
( ब ) मनोवैज्ञानिक व्यवाहार ( Psychological behaviour ) जैसे – सोचना , डरना , हँसना आदि ।
( स ) सामाजिक व्यवहार ( Social behaviour ) जैसे – नमस्कार करना , पढ़ना – लिखना , बातें करना आदि ।
संस्कृति के अन्तर्गत हम जैविकीय व्यवहार अथवा मनोवैज्ञानिक व्यवहार का नहीं लेते । संस्कृति मानव व्यवहार का वह पक्ष है जिसे व्यक्ति समाज क सदस्य के रूप में सीखता है जैसे – वस्त्र पहनना , धर्म , ज्ञान आदि । मानव एवं पशु समाज में एक महत्वपूर्ण अन्तर यही है कि मानव संस्कृति का निर्माण कर सका जबकि पशु समाज क पास इसका अभाव है ।
क्या आप जानते हैं कि मानव संस्कृति का निर्माण कैसे कर पाया ?
लेस्ली ए व्हाईट ( Leslie A White ) ने मानव में पाँच विशिष्ट क्षमताओं का उल्लेख किया है , जिसे मनुष्य ने प्रकृति से पाया है और जिसके फलस्वरुप वह संस्कृति का निर्माण कर सका है :
पहली विशेषता है – मानव के खड़े रहने की क्षमता , इससे व्यक्ति दोनों हाथों द्वारा उपयोगी कार्य करता है ।
दूसरा – मनुष्य के हाथों की बनावट है , जिसके फलस्वरुप वह अपने हाथों का स्वतन्त्रतापूर्वक किसी भी दिशा में घुमा पाता है और उसके द्वारा तरह – तरह की वस्तुओं का निर्माण करता है ।
तीसरा – मानव की तीक्ष्ण दृष्टि , जिसके कारण वह प्रकृति तथा घटनाओं का निरीक्षण एवं अवलोकन कर पाता है और तरह – तरह की खोज एवं अविष्कार करता है ।
चौथा – विकसित मस्तिष्क , जिसकी सहायता से मनुष्य अन्य प्राणियों से अधिक अच्दी तरह सोच सकता है । इस मस्तिष्क के कारण ही वह तर्क प्रस्तुत करता है तथा कार्य – कारण सम्बन्ध स्थापित कर पाता है ।
पाँचवौं – प्रतीकों के निर्माण की क्षमता । इन प्रतीकों के माध्यम से व्यक्ति अपने ज्ञान व अनुभवों को एक पीढ़ी से दूसरी पीढी में हस्तांतरित कर पाता है । प्रतीकों के द्वारा ही भाषा का विकास सम्भव हुआ और लोग अपने ज्ञान तथा विचारों के आदान – प्रदान में समर्थ हो पाये हैं । इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि प्रतीकों का संस्कृति के निर्माण , विकास , परिवर्तन तथा विस्तार में बहुत बड़ा योगदान है ।
क्या आप जानते हैं ?
प्रसिद्ध मानवशास्त्री एडवर्ड बनार्ट टायलर ( 1832 – 1917 ) के द्वारा सन् 1871 में प्रकाशित पुस्तक Primitive Culture में संस्कृति के संबंध में सर्वप्रथम उल्लेख किया गया है । टायलर मुख्य रूप से संस्कृति की अपनी परिभाषा के लिए जाने जाते हैं , इनके अनुसार , ” संस्कृति वह जटिल समग्रता है जिसमें ज्ञान , विश्वास , कला आचार , कानून , प्रथा और अन्य सभी क्षमताओं तथा आदतों का समावेश होता है जिन्हें मनुष्य समाज के नाते प्राप्त कराता है । टायलर ने संस्कृति का प्रयोग व्यापक अर्थ में किया है । इनके अनुसार सामाजिक प्राणी होने के नाते व्यक्ति अपने पास जो कुछ भी रखता है तथा सीखता है वह सब संस्कृति है । इस परिभाषा में सिर्फ अभौतिक तत्वों को ही सम्मिलित किया गया है ।
संस्कृति का अर्थ एवं परिभाषा
राबर्ट बीरस्टीड ( The Social Order ) द्वारा संस्कृति की दी गयी परिभाषा है कि ” संस्कृति वह संपूर्ण जटिलता है , जिसमें वे सभी वस्तुएँ सम्मिलित हैं , जिन पर हम विचार करते हैं , कार्य करते हैं और समाज के सदस्य होने के नाते अपने पास रखते इस परिभाषा में संस्कृति दोनों पक्षों भौतिक एवं अभौतिक को सम्मिलित किया गया है ।
हर्षकोविट्स ( Man and His Work ) के शब्दों में ” संस्कृति पर्यावरण का मानव निर्मित भाग है । इस परिभाषा से स्पष्ट होता है कि पर्यावरण के दो भाग होते हैं पहला – प्राकृतिक और दूसरा – सामाजिक । सासाजिक पर्यावरण में सारी भौमिक और अभौतिक चीजें आती हैं , जिनका निर्माण मानव के द्वारा हुआ है । उदाहरण के जिए कुर्सी , टेबुल , कलम , रजिस्टर , धर्म , शिक्षा , ज्ञान , नैतिकता आदि । हर्षकोविट्स ने इसी सामाजिक पर्यावरण , जो मानव द्वारा निर्मित है , को संस्कृति कहा है ।
बोगार्डस के अनुसार , ” किसी समूह के कार्य करने और विचार करने के सभी तरीकों का नाम संस्कृति है । ” इस पर आप ध्यान दें कि , बोगार्डस ने भी बीयरस्टीड की तरह ही अपनी भौतिक एवं अभौतिक दोनों पक्षों पर बल दिया है ।
मैलिनोस्की – संस्कृति मनुष्य की कृति है तथा एक साधन है , जिसके द्वारा वह अपने लक्ष्यों की प्राप्ति करता है । आपका कहना है कि ” संस्कृति जीवन व्यतीत करने की एक संपूर्ण विधि ( Total Way of Life ) है जो व्यक्ति के शारीरिक , मानसिक एवं अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति करती है । ”
रेडफिल्ड ने संस्कृति को परिभाषित करते हुए कहा कि ” संस्कृति किसी भी समाज के सदस्यों की जीवन – शैली ( Style of Life )
उपयुक्त परिभाषाओं को देखने से स्पष्ट होता है कि विभिन्न समाजशास्त्रियों एवं मानवशास्त्रियों ने अपने – अपने दृष्टिकोण के आधार पर संस्कृति की परिभाषा दी है । वास्तव में संस्कृति समाज की जीवन विधि है ( Way of Life ) और इस रूप में यह आवश्यक परिवर्तन व परिमार्जन के बाद पीढ़ी – दर पीढी हस्तांतरित होती रहती है । संस्कृति के अन्तर्गत विचार तथा व्यवहार के सभी प्रकार आ जाते हैं । अतः यह स्पष्ट होता है कि संस्कृति में भौतिक एवं अमौतिक तत्वों की वह जटिल संपूर्णता , जिसे व्यक्ति समाज के सदस्य होने के नाते प्राप्त करता है तथा जिसके माध्यम से अपनी जिन्दगी गुजारता है ।
संस्कृति की प्रकृति या विशेषताँए
( Nature or Characteristics of Culture )
संस्कृति के सम्बन्ध में विभिन्न समाजशास्त्रियों के विचारों को जानने के बाद उसकी कुछ विशेषताए स्पष्ट होती है , जो उसकी प्रकृति को जानने और समझने में भी सहायक होती है । यहाँ कुछ प्रमुख विशेषताओं का विवेचन किया जा रहा
1 . संस्कृति सीखा हुआ व्यवहार है ( Culture is learned behaviour ) – संस्कृति एक सीखा हुआ व्यवहार है । इसे व्यक्ति अपने पूर्वजों के वंशानुक्रम के माध्यम से नहीं प्राप्त करता , बल्कि समाज में समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा सीखता है । यह सीखना जीवन पर्यन्त अर्थात् जन्म से मृत्यु तक अनवरत चलता रहता है । आपको जानना आवश्यक है कि संस्कृति सीख हुआ व्यवहार है , किन्तु सभी सीखे हुए व्यवहार को संस्कृति नहीं कहा जा सकता है । पशुओं द्वारा सीखे गये व्यवहार को संस्कृतिनहीं कहा जा सकता , क्योंकि पशु जो कुछ भी सीखते हैं उसे किसी अन्य पशु को नहीं सीखा सकते । संस्कृति के अंतर्गत वै आदतें और व्यवहार के तरीके आते है , जिन्हें सामान्य रूप से समाज के सभी सदस्यों द्वारा सीखा जाता है । इस सन्दर्भ में लुन्डबर्ग ( Lundbarg ) ने कहा है कि , ” संस्कृति व्यक्ति की जन्मजात प्रवृत्तियों अथवा प्राणीशास्त्रीय विरासत से सम्बन्धित नहीं होती , वरन् यह सामाजिक सीख एवं अनुभवों पर आधरित रहती है ।
ii . संस्कृति सामाजिक होती है ( Culture is Social ) – संस्कृति में सामाजिकता का गुण पाया जाता है । संस्कृति के अन्तर्गत पूरे समाज एवं सामाजिक सम्बन्धों का प्रतिनिधित्व होता है । इसलिए यह कहा जा सकता है कि किसी एक या दो – चार व्यक्तियों द्वारा सीखे गये व्यवहार को संस्कृति नहीं कहा जा सकता । कोई भी व्यवहार जब तक समाज के अधिकतर व्यक्तियों द्वारा नहीं सीखा जाता है तब तक वह संस्कृति नहीं कहला सकता । संस्कृति एक समाज की संपूर्ण जीवन विधि ( Way of Life ) का प्रतिनिधित्व करती है । यही कारण है कि समाज का प्रत्येक सदस्यं संस्कृति को अपनाता है । संस्कृति सामाजिक इस अर्थ में भी है कि यह किसी व्यक्ति विशेष या दो या चार व्यक्तियों की सम्पत्ति नहीं है । यह समाज के प्रत्येक सदस्य के लिए होता है । अतः इसका विस्तार व्यापक और सामाजिक होता है ।
iii . संस्कृति हस्तान्तरित होती है ( Culture is Transmissive ) – संस्कृति के इसी गुण के कारण ही संस्कृति एक पीढी से दूसरी पीढी में जाती है तो उसमें पीढ़ी – दर – पीढ़ी के अनुभव एवं सूझ जुड़ते जाते हैं । इससे संस्कृति में थोड़ा – बहुत परिवर्तन एवं परिमार्जन होता रहता है । संस्कृति के इसी गुण के कारण मानव अपने पिछले ज्ञान एवं अनुभव के आधार पर आगे नई – नई चीजों का अविष्कार करता है । आपको यह समझना होगा कि – पशुओं में भी कुछ – कुछ सीखने की क्षमता होती है । लेकिन वे अपने सीखे हुए को अपने बच्चों और दूसरे पशुओं को नहीं सिखा पाते । यही कारण है कि बहुत कुछ सीखने की क्षमता रहने के बाद भी उनमें संस्कृति का विकास नहीं हुआ है । मानव भाषा एवं प्रतीकों के माध्यम से बहुत ही आसानी से अपनी संस्कृति का विकास एवं विस्तार करता है तथा एक पीढी से दूसरे पीढी में हस्तान्तरित भी करता है । इससे संस्कृति की निरन्तरता भी बनी रहती है ।
iv . संस्कृति मनुष्य द्वारा निर्मित है ( Culture is Man – Made ) – संस्कृति का तात्पर्य उन सभी तत्वों से होता है , जिनका निर्माण स्वंय मनुष्य ने किया है । उदाहरण के तौर पर हमारा धर्म , विश्वास , ज्ञान , आचार , व्यवहार के तरीके एवं तरह – तरह के आवश्यकताओं के साधन अर्थात् कुर्सी , टेबुल आदि का निर्माण मनुष्य द्वारा किया गया है । इस तरह यह सभी संस्कृति हर्षकाविट्स का कहना है कि ” संस्कृति पर्यावरण का मानव – निर्मित भाग है । ।
संस्कृति मानव आवश्यकताओं की पूर्ति करती है ( Culture Satisfies Human Needs ) – संस्कृति में मानव आवश्यकता पूर्ति करने का गुण होता है । संस्कृति की छोटी – से – छोटी इकाई भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मनुष्य की आवश्यकता पूर्ति करती है या पूर्ति करने में मदद करती है । कभी – कभी संस्कृति की कोई इकाई बाहरी तौर पर निरर्थक या अप्रकार्य प्रतीत होती है , लेकिन सम्पूर्ण डोंचे से उसका महत्वपूर्ण स्थान होता है ।
मैलिनोस्की के विचार : – प्रसिद्ध मानवशास्त्री मैलिनोस्की का कथन है कि संस्कृति के छोटे – से – छोट तत्व का अस्तित्व उसके आवश्यकता पूर्ति करने के गुण पर निर्भर करता है । जब संस्कृति के किसी भी तत्व में आवश्यकतापूर्ति करनेका गुण नहीं रह जाता तो उसका अस्तित्व भी समाप्त हो जाता है । उदाहरण के तौर पर प्राचीनकाल में जो संस्कृति के तत्व थे वे समाप्त हो गए क्योंकि वे आवश्यकता पूति में असमर्थ रहे , इसमें सतीप्रथा को उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है । इसी प्रकार , व्यवस्था में कोई इकाई कभी – कभी बहुत छोटी प्रतीत होती है मगर व्यवस्था के लिए वह इकाई भी काफी महत्वपूर्ण होती है । इस प्रकार , संस्कृति का कोई भी तत्व अप्रकार्यात्मक नहीं होता है बल्कि किसी भी रूप में मानव की आवश्यकता की पूर्ति । करती है । i
.vi प्रत्येक समाज की अपनी विशिष्ट संस्कृति होती है ( Culture is Distinctive in every Society ) – प्रत्येक समाज की एक विशिष्ट संस्कृति होती है । हम जानते हैं कि कोई भी समाज एक विशिष्ट भौगोलिक एवं प्राकृतिक वातावरण लिये होता है । इसी के अनुरूप सामाजिक वातावरण एवं संस्कृति का निर्माण होता है । उदाहरण के तौर पर पहाड़ों पर जीवन यापन करने वाले लोगों का भौगोलिक पर्यावरण , मैदानी लोगों के भौगोलिक पर्यावरण से अलग होता है । इसी प्रकार , इन दोनों स्थानों में रहने वाले लोगों की आवश्यकताएं अलग – अलग होती है । जैसे – खाना , रहने – सहने का तरीका , नृत्य , गायन , धर्म आदि । अतः दोनों की संस्कृति भौगोलिक पर्यावरण के सापेक्ष में आवश्यकता के अनुरूप विकसित होती है । जब समाज के व्यवहारों एवं आवश्यकताओं में परिवर्तन होते हैं तो संस्कृति में भी परिवर्तन होता है । विभिन्न समाज के लोगों के व्यवहार में परिवर्तन की दर एवं दिशा भिन्न होती है . जिसके कारण संस्कृति में परिवर्तन की दर एवं दिशा में भी भिन्नता पायी जाती है ।
vii . संस्कृति में अनुकूलन का गुण होता है ( Culture has Adoptive Quality ) – संस्कृति की एक महत्वपूर्ण विशेषता होती है कि यह समय के साथ – साथ आवश्यकताओं के अनुरूप अनुकूलित हो जाती है । संस्कृति समाज के वातावरण एवं परिस्थिति के अनुसार होती है । जब वातावरण एवं परिस्थिति में परिवर्तन होता है तो संस्कृति भी उसके अनुसार अपने का ढालती है । यदि यह विशेषता एवं गुण न रहे तो संस्कृति का अस्तित्व ही नहीं रह जायेगा । संस्कृति में समय एवं परिस्थिति के अनुसार परिवर्तन होने से उराकी उपयोगिता समाप्त नहीं हो पाती । प्रत्येक संस्कृति का प्रमुख उद्देश्य तथा कार्य गानव की शारीरिक , मानसिक तथा सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति करना होता है । इन आवश्यकताओं के अनुसार ही संस्कृति को ढालना पड़ता है क्या आप जानते हैं – प्रत्येक युग में लोगों की आवश्यकताएँ भिन्न – भिन्न रही है । पुरानी आवश्यकताओं के स्थान के स्थान पर नई आवश्यकताओं का जन्म हुआ है तथा समय – समय पर इनमें परिवर्तन भी होते हैं । इनके साथ अनुकूलन का गुण संस्कृति में होता है । यही कारण है कि संस्कृति में परिवर्तन होता है , लेकिन संस्कृति में परिवर्तन बहुत ही धीमी गति से होता है ।
viii . संस्कृति अधि – सावयवी ह ( Culture is Super – organic ) – मानव ने अपनी मानसिक एवं शारीरिक क्षमताओं के प्रयोग द्वारा संस्कृति का निर्माण किया , जो सावयव से ऊपर है । संस्कृति में रहकर व्यक्ति का विकास होता है और फिर मानव संस्कृति का निर्माण करता है जो मानव से ऊपर हो जाता है । मानव की समस्त क्षमताओं का आधार सावयवी होता है , किन्त इस संस्कृति को अघि – सावयवी से ऊपर हो जाती है । इसी अर्थ में संस्कृति को अधि – सावयवी ( Super – Organic ) कहा गया है ।
ix . संस्कृति अधि – वैयक्तिक है ( Culture is Super – individual ) – संस्कृति की रचना और निरन्तरता दोनों ही किसी व्यक्ति विशेष पर निर्भर नहीं है । इसलिए यह अधि – वैयक्तिक ( Super – individual ) है । संस्कृति का निर्माण किसी व्यक्ति विशेष द्वारा नहीं किया गया है बल्कि संस्कृति का निर्माण सम्पूर्ण समूह द्वारा होता है । प्रत्येक सांस्कृतिक इकाई का अपना एक इतिहास होता है , जो किसी एक व्यक्ति से परे होता है । संस्कृति सामाजिक अविष्कार का फल है , किन्तु यह अविष्कार किसी एक व्यक्ति के मस्तिष्क की उपज नहीं है । इस प्रकार कोई भी व्यक्ति सम्पूर्ण संस्कृति का निर्माता नहीं हो सकता । इसमें परिवर्तन एवं परिमार्जन करने की भी क्षमता किसी व्यक्ति विशेष के वश की बात नहीं है । इस प्रकार संस्कृति अधि – वैयक्तिक है ।
x संस्कृति में संतुलन तथा संगठन होता है ( Culture has The Integrative ) – संस्कृति के अन्तर्गत अनेक तत्व एवं खण्ड होते हैं किन्तु ये आपस में पृथक नहीं होते , बल्कि इनमें अन्तः सम्बन्ध तथा अन्तः निर्भरता पायी जाती है । संस्कृति की । प्रत्येक इकाई एक – दूसरे से अनग हटकर कार्य नहीं करती , बल्कि सब सम्मिलित रूप से कार्य करती है । इस प्रकार के संतुलन एवं संगठन से सांस्कृतिक ढाँचे का निर्माण होता है । इस ढाँचे के अन्तर्गत प्रत्येक इकाई की एक निश्चित स्थिति एवं कार्य होता है , किन्तु यह सभी एक – दूसरे पर आधारित एवं सम्बन्धित होती है । संस्कृति के किसी एक अंग में या इकाई में । परिवर्तन होने पर दूसरे पक्ष या दूसरी इकाई पर भी प्रभाव पड़ता है ।
- संस्कृति समूह का आदर्श होती है ( Culture is Ideal for The Croup ) – प्रत्येक समूह की संस्कृति उस समूह के लिए आदर्श होती है । इस तरह की धारण सभी समाज में पायी जाती है । सभी लोग अपनी ही संस्कृति को आदर्श समझते हैं तथा अन्य संस्कृति की तुलना में अपनी संस्कृति को उच्च मानते हैं । संस्कृति इसलिए भी आदर्श होती है कि इसका व्यवहार – प्रतिमान किसी व्यक्ति – विशेष का न होकर सारे समूह का व्यवहार होता है ।
आपको यह समझना आवश्यक है कि – इमाइल दुर्थीम के अनुसार , संस्कृति सामूहिक – चेतना का प्रतीक है अर्थात किसी व्यक्ति विशेष का नहीं बल्कि समूह को प्रतिनिधित्व करती है , इसलिए यह आदर्श मानी जाती है , यही कारण है कि इसकी अवहेलना सामूहिक चेतना के विरूद्ध होती है तथा उस व्यक्ति की निंदा होती है मगर जो इसका सम्मान करते हैं उसकी प्रशंसा होती है ।
संस्कृति के प्रकार
ऑगर्बन एवं निमकॉफ ने संस्कृति के दो प्रकारों की चर्चा की है –
भौतिक संस्कृति एवं अभौतिक संस्कृति । 1 . भौतिक संस्कृति
-1.भौतिक संस्कृति के अर्न्तगत उन सभी भौतिक एवं मूर्त वस्तुओं का समावेश होता है जिनका निर्माण मनुष्य के लिए किया है , तथा जिन्हें हम देख एवं छू सकते हैं । भौतिक संस्कृति की संख्या आदिम समाज की तुलना में आधुनिक समाज में अधिक होती है , प्रो . बीयरस्टीड ने भौतिक संस्कृति के समस्त तत्वों को मुख्य 3 वर्गों में विभाजित करके इसे और स्पष्ट करने का प्रयास किया है iमशीनें 1 . उपकरण iii . बर्तन iv . इमारतें v . सड़कें vi . पुल vii . शिल्प वस्तुएँ viiiकलात्मक वस्तुएँ ix . वस्त्र x . वाहन xi फर्नीचर xii . खाद्य पदार्थ xiii औषधियां आदि ।
भौतिक संस्कृति की विशेषताएँ इस प्रकार हैं
1 . भौतिक संस्कृति मूर्त होती है ।
2 . इसमें निरन्तर वृद्धि होती रहती है ।
3 . भौतिक संस्कृति मापी जा सकती है ।
4 . मौलिक संस्कृति में परिवर्तन शीध होता है ।
5 . इसकी उपयोगिता एवं लाभ का मूल्यांकन किया जा सकता है ।
6 . भौतिक संस्कृति में बिना परिवर्तन किये इसे ग्रहण नहीं किया जा सकता है । अर्थात एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने तथा उसे अपनाने में उसके स्वरूप में कोई फर्क नहीं पड़ता । उदाहरण के लिए मोटर गाड़ी , पोशाक तथा कपड़ा इत्यादि ।
अभौतिक संस्कृति – अभौतिक संस्कृति के अन्तर्गत उन सभी अभौतिक एवं अमूर्त वस्तुओं का समावेश होता है , जिनके कोई माप – तौल , आकार एवं रंग आदि नहीं होते । अभौतिक संस्कृति समाजीकरण एवं सीखने की प्रक्रिया द्वारा एक पीढी से दूसरी पीढ़ी में हस्तान्तरित होती रहती है । इस प्रकार हम कह सकते हैं कि अभौतिक संस्कृति का तात्पर्य संस्कृति के उस
107 पक्ष में होता है , जिसका कोई मूर्त रूप नहीं होता , बल्कि विचारों एवं विश्वासों कि माध्यम से मानव व्यवहार को नियन्त्रित , नियमित एवं प्रभावी करता है । प्रो . बीयरस्टीड ने अभौतिक संस्कृति के अन्तर्गत विचारों और आदर्श नियमों को सर्वाधिक महत्वपूर्ण बताया और कहा कि विचार अभौतिक संस्कृति के प्रमुख अंग है । विचारों की कोई निश्चित संख्या हो सकती है , फिर भी प्रो . बीयरस्टीड ने विचारों के कुछ समूह प्रस्तुत किये हैं वैज्ञानिक सत्य धार्मिक विश्वास पौराणिक कथाएँ iv . उपाख्यान साहित्य vi अन्ध – विश्वास vii . सूत्र viii लोकोक्तियाँ आदि । ये सभी विचार अभौतिक संस्कृति के अंग होते हैं । आदर्श नियमों का सम्बन्ध विचार करने से नहीं , बल्कि व्यवहार करने के तौर – तरीकों से होता है । अर्थात व्यवहार के उन नियमों या तरीकों को जिन्हें संस्कृति अपना आदर्श मानती है , आदर्श नियम कहा जाता है । प्रो . बीयरस्टीड ने सभी आदर्श नियमों को 14 भागों में बाँटा है 1 . कानून 2 . अधिनियम 3 . नियम 4 . नियमन 5 . प्रथाएँ 6 , जनरीतियाँ 7 . लोकाचार 8 . निषेध 9 . फैशन 10 . संस्कार 11 . कर्म – काण्ड 12 . अनुष्ठान 13 . परिपाटी 14 . सदाचार ।
अभौतिक संस्कृति की विशेषताएँ इस प्रकार हैं
1 . अभौतिक संस्कृति अमूर्त होती है ।
2 . इसकी माप करना कठिन है ।
3 . अभौतिक संस्कृति जटिल होती है ।
4 . इसकी उपयोगिता एवं लाभ का मूल्यांकन करना कठिन कार्य है ।
5 अभौतिक संस्कृति में परिवर्तन बहत ही धीमी गति से होता है ।
6 . अभौतिक संस्कृति को जब एक स्थान से दूसरे स्थान में ग्रहण किया जाता है , तब उसके रूप में थोड़ा – न – थोड़ा परिवर्तन अवश्य होता है ।
7 . अभौतिक संस्कृति मनुष्य के आध्यात्मिक एवं आन्तरिक जीवन से सम्बिन्धित होती है ।
भौतिक एवं अभौतिक संस्कृति में अन्तर
भौतिक एवं अभौतिक पक्षों के योग से ही संस्कृति की निर्माण होता है किन्तु दोनों में कुछ अन्तर हैं , जो इस प्रकार है
1 . भौतिक संस्कृति को सभ्यता भी कहा जाता है , जबकि अभौतिक संस्कृति को केवल संस्कृति कहा जाता है ।
2 . भौतिक संस्कृति मूर्त होती है , जबकि अभौतिक अमूर्त । जैसे – रेलगाडी तथा वैज्ञानिक का विचार एवं दिमाग , जिससे रेलगाड़ी का आविष्कार हुआ । यहाँ रेलगाड़ी भौतिक संस्कृति है , जबकि वैज्ञानिक का विचार अभौतिक संस्कृति है ।
3 . अभौतिक की तुलना में भौतिक संस्कृति को ग्रहण करना आसान है । उसे कहीं भी किसी स्थान पर स्वीकार किया जा सकता है , किन्तु अभौतिक संस्कृति को ग्रहण करना आसान नहीं है । दूसरे स्थान पर स्वीकार करने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है । बहुत आससनी से हम दूसरे स्थानों के आदर्शों एवं मूल्यों को स्वीकार नहीं कर पाते हैं ।
4 . भौतिक संस्कृति की तुलना में अभौतिक संस्कृति में धीमी गति से परिवर्तन होता है । जैसे – मोटर , घडी आदि बदल जाते हैं , किन्तु मनुष्य के विश्वास जल्द नहीं बदलते । ।
5 . भौतिक संस्कृति चूँकि मूर्त होती है , अतः उसकी माप करना सरल है , किन्तु अभौतिक संस्कृति अमर्त रहने के कारण उसकी माप में कठिनाइयों आती हैं । इसकी माप तौल करना सम्भव नहीं होता ।
6भौतिक संस्कृति में वृद्धि तीव्र गति से होती है , जबकि अभौतिक संस्कृति में वृद्धि बहुत ही मन्द गति से होती है । उदाहरण के लिए समाज में नई – नई खोज एवं आविष्कार से तरह – तरह की वस्तु सामने आती है , किन्तु व्यक्ति का विचार वर्षों पुराना ही पाया जाता है ।
7 . अभौतिक संस्कृति की वृद्धि एवं संचय को स्पष्ट नहीं किया जा सकता । किन्तु भौतिक संस्कृति में वृद्धि एवं संचय होता है और उसे मापा भी जा सकता है ।
8 . भौतिक संस्कृति के लाभ एवं उपयोगिता को माप कर बताया जा सकता है , किन्तु अभौतिक संस्कृति की उपयोगिता एवं लाम को मूल्यांकित नहीं किया जा सकता । इसे मात्र अनुभव किया जा सकता है ।
9 . भौतिक संरकृति मानद के दाह्मय एवं भौतिक जीवन से राम्बिन्धित होती है , जबकि अभौतिक संस्कृति मानव के आध्यात्मिक एवं आन्तरिक जीवन से सम्बिन्धित होती है ।
10 . भौतिक संस्कृति सरल होती है , जबकि अभौतिक संस्कृति का स्वरूप जटिल होता है । ।
संस्कृति की संरचना ( The Structure of Culture )
1 . सांस्कृतिक तत्व ( Culture Traits )
2 . सांस्कृतिक संकुल ( Culture Complex )
3 . सांस्कृतिक प्रतिमान ( Culture Pattern or Culture Configuration )
1 . सास्कृतिक तत्व – सांस्कृतिक तत्व संस्कृति की लघुतम इकाईयों अथवा अकेले तत्व होते हैं । इन इकाइयों को मिलाकर संस्कृति का निर्माण होता है । इन इकाइयों को मिलाकर संस्कृति का निर्माण होता है । हर्षकोविट्स ने सांस्कृतिक तत्व को एक संस्कृति – विशेष में सबसे छोटी पहचानी जा सकने वाली इकाई कहा है । क्रोबर ने इसे ” संस्कृति का न्यून्तम परिभाष्य तत्व कहा । उदाहरण के लिए – हाथ मिलाना , चरण स्पर्श करना , टोप उतारना , गालों का चुम्बन लेना , स्त्रियों को आवास स्थान प्रदान करना , झंडे की सलामी , शोक के समय श्वेत साड़ी पहनना , शाकाहारी भोजन खाना , नंगे पाँव चलना , मूर्तियों पर जल छिड़कना । इसकी तीन प्रमुख विशेषताएं होती हैं i प्रत्येक सांस्कृतिक तत्व का उसकी उत्पत्ति विषयक इतिहास होता है , चाहे वह इतिहास छोटा हो या बड़ा । ii . सांस्कृतिक तत्व स्थिर नहीं होता । गतिशीलता उसकी विशेषता है । iii . सांस्कृतिक तत्वों में संयुक्तीकरण की प्रकृति होती है । वे फूलों के गुलदस्ते की भाँति घुल – मिलकर रहते है ।
2 . सांस्कृति संकुल – सांस्कृतिक तत्वों से मिलकर बनते है । जब कुछ या अनेक तत्व मिलकर मानव अवश्यकता की पूर्ति करते हैं । इस प्रकार , मूर्ति के सम्मुख नतमस्तक होना , उसपर पवित्र जल छिडकना , उसके मुंह में कुछ भोजन रखना , हाथ जोड़ना , पुजारी से प्रसाद लेना तथा आरती गाना आदि सभी तत्व मिलकर धार्मिक सांस्कृतिक संकुल का निर्माण करते हैं । Piddington ने सांस्कृतिक संकुल को सांस्कृतिक तत्वों का प्रकार्यात्मक सम्मिलन ( Functional Association ) कहा जाता
3 . सांस्कृतिक प्रतिमान – जब सास्कृतिक तत्व एवं संकुल मिलकर प्रकार्यात्मक भूमिकाओं में परस्पर संबंधित हो जाते हैं तो उनसे संस्कृति प्रतिमान का जन्म होता है । संस्कृति – प्रतिमान के अध्ययन से किसी संस्कृति की प्रमुख विशेषताओं का ज्ञान होता है । उदाहरणार्थ – गाँधीवाद , अध्यात्मवाद , जाति – व्यवस्था , संयुक्त परिवार , ग्रामीणउसद भारतीय संस्कृति के संस्कृति संकुज हैं जो भारतीय संस्कृति की विशेषताओं का परिचय देते हैं ।
Clark Wissler ने 9 आधार मूलक सांस्कृतिक तत्वों का उल्लेख किया है जो संस्कृति – प्रतिमान को जन्म देते हैं
1 . वाणी एवं भाषा
2 . भौतिक तत्व – 1 भोजन की आदतें निवास iii यातायात iv . बर्तन आदि v . शस्त्र viव्यवसाय एवं उद्योग
3 . कला
4 . पुराण विद्या एवं वैज्ञानिक ज्ञान
5 . धार्मिक क्रियाएँ
6 . परिवारिक एवं सामाजिक प्रजातियाँ
7 . सम्पत्ति
8 . शासन
9 . युद्ध ।
किम्बल यंग ( Kimble Young ) ने संस्कृति के 13 तत्वों को सार्वभौमिक प्रतिमानों में सम्मिलित किया है
1 . स्चरण के प्रतिमान : संकेत एवं भाषा
2 . मनुष्य तक कल्याण हेतु वस्तुएँ एवं दंग
3 . मात्रा एवं यातायात के साधन एवं ढंग
4 , वस्तुओं एवं सेवाओं का विनिमय – व्यापार वाणिज्य
5 . सम्पत्ति के प्रकार – वास्ततिक एवं व्यक्तिक
6 . लगिक एवं पारिवारिक प्रतिमान – विवाह एवं तलाक नातेदारी सम्बन्धों के प्रकार अत्तराधिकारिता संरक्षकता ।
7 . सामाजिक नियंत्रण तथा शासकीय संस्थाएं – लोकाचार जनमत कानून युद्ध
8 . कलात्मक अभिव्यक्तिः निर्माण कला , चित्रकला , संस्कृति
9 . विश्राम के समय गतिविधि
10 . धार्मिक एवं जादूई विचार
11 . पुराण शास्त्र एवं दर्शनशास्त्र
12 . विज्ञान
13 . मूलाधार अंतक्रियात्मक प्रक्रियाओं की सांस्कृतिक संरचना ।
SOCIOLOGY – SAMAJSHASTRA- 2022 https://studypoint24.com/sociology-samajshastra-2022
समाजशास्त्र Complete solution / हिन्दी में
INTRODUCTION TO SOCIOLOGY: https://www.youtube.com/playlist?list=PLuVMyWQh56R2kHe1iFMwct0QNJUR_bRCw
SOCIAL CHANGE: https://www.youtube.com/playlist?list=PLuVMyWQh56R32rSjP_FRX8WfdjINfujwJ
SOCIAL PROBLEMS: https://www.youtube.com/playlist?list=PLuVMyWQh56R0LaTcYAYtPZO4F8ZEh79Fl
संस्कृति के प्रकार्य
( Function of Culture )
1 . व्यक्ति के लिए
2 समूह के लिए
1 . व्यक्ति के लिए
i संस्कृति मनुष्य को मानव बनाती है ।
- जटिल स्थितियों का समाधान ।
iiiमानव आवश्यकताओं की पूर्ति
iv . व्यक्तित्व निर्माण
V : मानव को मूल्य एवं आदर्श प्रदान करती है ।
vi मानव की आदतों का निर्धारण करती है ।
vii . नैतिकता का निर्धारण करती है ।
viiiव्यवहारों में एकरूपता लाती हैं ।
ixअनुभव एवं कार्यकुशलता बढ़ाती है ।
x . व्यक्ति की सुरक्षा प्रदान करती है ।
xi . समस्याओं का समाधान करती है ।
xii . समाजीकरण में योग देती है ।
xiii प्रस्थिति एवं भूमिका का निर्धारण करती है ।
xiv . सामाजिक नियन्त्रण में सहायक
. 2 समूह के लिए
iसामाजिक सम्बन्धों को स्थिर रखती है ।
iiव्यक्ति के दृष्टिकोण को विस्तृत करती है ।
iiiनई आवश्यकताओं को उत्पन्न करती है ।
. Phase of Culture
Dr . Dube ने संस्कृति की छः अवस्थाओं की चर्चा की है ।
1 . आदि पाषाण युग
2 . पुरापाषाण युग
3 . नवपाषाण युग
4 . ताम्रयुग
5 . कॉस्य युग
6 . लौह युग
संस्कति के नियामक आधार ( Normative Bases of Culture )
Emile Durkhim ने समाज की एकता और स्थिरता को बनाये रखने के लिए नियामक आधारों की आवश्यकता के सम्बन्ध में कहा | W . G . Sumner ने समाज के प्रभावशाली संचालन के लिए नियामक आधारों की आवश्यकता पर बल दत जब हम सस्कृति के नियामक आधारों की बात करते हैं तब हम उन सभी अमूर्त स्वरूपों की चर्चा करते है जो किसी – न – किसी रूप से सामाजिक व्यवहार को नियंत्रित करते हैं , निर्देशित करते हैं एवं प्रभावित करत हो । उदाहरण – नियम – मूल्य , जनरीतियों , रूद्वियों , कानून , प्रथा आदि । करते है ।
सामाजिक अनुशास्ति ( Social Sanction ) सामाजिक अनुशास्ति दो प्रकार की होती है
1 . सकारात्मक अनुशास्ति ( Possitive Sanction )
2 . नकारात्मक अनुशास्ति ( Negative Sanction ) सकारात्मक अनुशास्ति वह है जो किसी कार्य को अपेक्षित सानता है और जिसके करने पर सामाजिक सम्मान में वृद्धि होती है । उदाहरण के लिए कार्यालय में समय पर पहुँचना एक अच्छी बात है और जो ऐसा करते हैं उन्हें अच्छा माना जाता है । नकारात्मक अनुशास्ति , ऐसे कार्य जिसके करने पर प्रतिष्ठा गिरती है , दण्ड मिलता है । उदाहरण के लिए , भारत में स्त्रियों पर हाथ उठाना बुरा माना जाता है , एवं जिससे प्रतिष्ठा गिरती है ।
सांस्कृतिक विलम्बन
( Culture Lag )
इस अवधारणा की चर्चा डब्ल्यू एफ ऑगबर्न ( W . F . Ogbum ) ने अपनी पुस्तक ‘ Social Change में 1925 में की । अगिबर्न के अनुसार संस्कृति को मोटे तौर पर दो भागों में बाँटा जा सकता है
1 . भौतिक एवं
2 आमौतिक संस्कृति के ये दोनों भागों समान गति से परिवर्तित नहीं होते हैं । किन्हीं कारणों से एक भाग आगे बढ़ जाता है । दूसरा पीछे छूट जाता है । फलस्वरूप सांस्कृतिक विलम्बना की स्थिति पैदा होती है । इससे समाज में व्याधियाँ उत्पन्न होती है । जैसे ही पीछे छूटे हुए भाग को आगे लाया जाता है तो समाज में परिवर्तन होता है । इस तरह ऑगवर्न के अनुसार सांस्क । तिक विलम्बन समाजशास्त्रियों के हाथ में एक मंत्र है जिसके द्वारा समाज परिवर्तित होता है ।इन्हान जितने भी उदाहरण दिए वह सब यही स्पष्ट करते हैं कि भौतिक संस्कृति आगे बढ़ जाती है और अभौतिक पछि रह जाता है । इसपर इनकी काफी आलोचना हुई । इन आलोचनाओं को स्वीकार करते हुए 1957 में अपनी पुस्तक ‘ On Social and Culture Change में सांस्कतिक विलम्बन को पर्ण परिभाषित करते हुए इसे एक सिद्धात के रूप में प्रस्तुत कया । इनके अनुसार – a culture lag occurs when end the two parts which are co – related or change before or in greater degree than the other part does their by causing less adjustment between the part then exist its previously . इस परिभाषा से स्पष्ट है कि सांस्कृतिक विलम्बन के लिए निम्नलिखित परिस्थितियों का होना जरूरी है 1 . कोई दो चर चाहे दोनो भौतिक या एक भौतिक एक अभौतिक । ii . दोनों चरों के बीच में सह – सम्बन्ध होना आवश्यक है । iii . दोनों चरों के बीच एक खास समय में अनुकूलन आवश्यक है । IV . किसी कारणवश एक आगे बढ़ जाए एक पीछे । फलस्वरूप दोनों में विलम्बन हो जाए ।
सांस्कृतिक विलम्बन उत्पन्न होने के चार कारक है
1 . रूढ़िवादिता
2 . अतीत के प्रति निष्ठा
3 . नए विचारों के प्रति भय
4 . निहित स्वार्थ
इसकी आलोचना करते हुए मैकाइवर एवं पेज ( Mackiwar and Page ) ने कहा है कि Cultural Lag की जगह Technological Lag का प्रयोग होना चाहिए । आज के समाजशास्त्र में Culture Lag महत्वहीन है क्योंकि यह केवल दो चरों की बात करता है जबकि आज किसी भी विज्ञान में Multiple of factors की बात होती है ।
Culture Change – प्रश्न उठता है कि संस्कृति में परिवर्तन क्यों होता है । समनर ने इसके तीन कारण बताये हैं
1 . संस्कृति का शत – प्रतिशत हस्तान्तरण असम्भव है । 2 . बाह्य दशाओं में परिवर्तन 3 . अनुकूलन का प्रयत्न ।
Culture Contact – जब दो भिन्न संस्कृतियाँ एक – दूसरे के सम्पर्क में आती हैं तो उसे सांस्कृतिक सम्पर्क करते हैं । सांस्कृतिक सम्पर्क के कारण संस्कृतिकरण या पर –
संस्कृतिकरण ( Acculturation ) की प्रक्रिया शुरू होती है । Accultraltion ( पर – संस्कृतिकरण ) – हर्षकावितस के अनुसार , ” जब दो संस्कृतियों के तत्व आपस में घुजते – मिलते हैं । यह दो तरफा प्रक्रिया है ( Two Way Process ) जैसे – भारतीय मुसलमान और हिन्दू एक दूसरे के तत्व अपनाये हैं ।
Culteral Relativism ( सांस्कृतिक सापेक्षववाद ) – हर्षकोवितस ने इसका उल्लेख किया है । सांस्कृतिक सापेक्षता का अर्थ है विभिन्न संस्कृतियों का पाया जाना । सांस्कृतिक सापेक्षवाद को हम अभिवादन के उदाहरण द्वारा व्यक्त कर सकते हैं । भारत में अभिवादन के लिए हाथ जोड़ते हैं , पश्चिमी समाजों में हाथ मिलाते और टोप उतारते हैं , जापान में शरीर को झुकाया जाता है तो अफ्रीका के मसाई जनजाति के लोग एक – दूसरे पर थूकते हैं । प्रत्येक मनुष्य के अनुभव , निर्णय और व्यवहार अपनी संस्कृ ति के अनुरूप ही होते हैं , इसे ही सांस्कृतिक सापेक्षवाद कहा जाता है । अतः हर्षकोवितस का कहना है कि किसी भी संस्कृति की तुलना दूसरी संस्कृति के मूल्यों के आधार पर नहीं करनी चाहिए बल्कि हर संस्कृति का मूल्यांकन उसके अपने संस्कृति के सापेक्ष में करना चाहिए ।
Ethnocentricism ( स्व – संस्कृति केन्दियता ) – इसकी चर्चा अमेरिकन समाज शास्त्री W . G . Sumner ने की है । जब एक संस्कृति के लोग अपनी संस्कृति के उच्चतर मानकर अन्य सारी संस्कृतियों का मूल्यांकन उसी आधार पर करते हैं तो इसे Ethnocetrism कहते हैं ।
Temperocentricism ( स्वकाल केन्द्रीयता ) Bierstedt ने चर्चा करते हुए कहा कि हर प की भूत क वानस्बत ज्यादा महत्वपूर्ण मानते हैं
TransCulturation ( परा – संस्कृतिग्रहण वह प्रक्रिया जिसमें दो या दो से अधिक संस्कृतिया अपना आदान – प्रदान करती है । उसे Trans – Culturation कहते हैं ।
सास्कृतिक बहुलतावाद Cultural Pluralism इसका तात्पर्य ऐसे समाज से है जहाँ बहुत सारा सा स मल – जुलकर रहते हैं । सभी एक – दूसरे का सम्मान करते हैं , कोई किसी को हीन नहीं समझला । उदाहरण के तौर पर भारतीय संस्कृति ।
सभ्यता
( Civilization )
सामान्यतः ” सभ्यता शब्द का प्रयोग लोग संस्कृति के अर्थ में करते हैं अर्थात आम – बोल – चाल में इन दोनों को । एक ही अर्थ में समझते हैं । सभ्यता के अन्तर्गत हम उन भौतिक वस्तुओं को सम्मिलित करते हैं , जिनके माध्यम से हम अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं । उदाहरण के लिए मकान , मेज , कलम जिसे देख सकते हैं तथा छू सकते हैं । इसे भौतिक संस्कृति भी कहा जाता है । हड़प्पा सभ्याता को सभ्यता क्यों कहते है ?
सभ्यता के अंग्रेजी शब्द Civilization ” की उत्पत्ति लैटिन भाषा के Civitas और Civis ‘ से हई है , जिसका अर्थ शहरी एवं नगरी समूह होता है । ऐसे समूह शिक्षित , व्यवहार – कुशल एवं सम्यता के सूचक होते हैं । सभ्य समाज के लोगों का व्यवहार जटिल होता है , उनकी भाषा विकसित होती है तथा अनके कार्यों में विभेदीकरण एवं विशेषीकरण पाया जाता है । अनेक विद्वानों ने सभ्यता की परिभाषा दी है । कुछ समाजाशास्त्रियों द्वारा दी गई परिभाषाओं का उल्लेख किया जा रहा है ।
ऑगबर्न एवं निमकॉफ ने सभ्यता की परिभाषा देते हुए कहा कि सभ्यता को अधि – सावयवी संस्कृति के बाद की अवस्था कहा ।
ग्रीन के अनुसार ” संस्कृति तब सभ्यता बनती है , जब उसके पास लिखित भाषा , विज्ञान , दर्शन , अत्यधिक विशेषीकरण वाला श्रम विभाजन , जटिल प्रविधि तथा राजनैतिक व्यवस्था हो ।
‘ मैकाइवर एवं पेज ने सभ्यता को अलग ढग से परिभाषित किया है । सभ्यता से हमारा तात्पर्य उस सम्पूर्ण प्रविधि और संगठन से है जिसे मानव ने अपने जीवन की दशाओं को नियन्त्रण करने के प्रयास में बनाया है । ‘ मैकाइवर ने अपनी परिभाषा में सामाजिक संगठन के साथल – साथ भौतिक उपकरणों को भी शामिल किया है जो मानव की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं । उदाहरणस्वरूप टाइपराइटर , टेलीफोन , प्रेस , मोटर आदि हैं , जो मानव के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए साधन के रूप में उपयोग में लाये जाते हैं ।
सम्यता की विशेषताएं
संस्कृति की तरह सभ्यता की भी कुछ प्रमुख विशेषताएं हैं ,
1भातिक स्वरूप – सभ्यता के अन्तर्गत भौतिक वस्तुओं का समावेश होता है । भौतिक पक्ष के दृष्टिकोण से सभ्यता मूर्त होती है । अर्थात हमस म्यता को देख एवं छ सकते हैं । इन भौतिक वस्तुओं का निर्माण भी मानव द्वारा ही होता है । जैसे – टेबन , कुर्सी आदि । .
2 उपयोगिता सभ्यता के अन्तर्गत सभी भौतिक वस्तओं को सम्मिलित नहीं किया जाता । इसमें वे सारी चीज साम्मलित होती हैं जो उपयोगिता के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण होती हैं । तिन वस्तुओं की उपयोगिता समाप्त हो जाती है , उन्हें लोग त्याग देते हैं । अर्थात सभ्यता मानव को आनन्द और सन्तुष्टि प्रदान करती है ।
- सभ्यता साधन है . . . सभ्यता उस अ साधनयोकि इसके अन्तर्गत उन वस्तओं का सम्मिलित किया जाता ह . जिनकद्वारा मनुष्य अपने उददेश्यों की पर्ति करता है । यह वैसी उपयोगह वस्तु होती है जिसके द्वारा मनुष्य अपने उद्देश्यों की पूर्ति करता है । जैसे गाड़ी से हम एक स्थान से दूसरे स्थान पर आसानी से गमन करत है ।
4 पारवतनशीलता – सभ्यता में परिवर्तन बहत ही तीव्र गति से होता है , मनुष्य की आवश्यकताओं एवं रूचियों में पारवलन के साथ – साथ उनके पति के साधन भी बदल जाते हैं । यही कारण है कि सभ्यता में हमेशा परिवर्तन होता रहता है ।
5 निश्चित दिशा – सभ्यता का विकास एक निश्चित दिशा की ओर होता है । इसका विकास हमेशा ऊपर की ओर होता है । सभ्यता के विकास की गति कभी भी पीछे की ओर नहीं मुडती । सभ्यता में निरन्तर प्रगति होती रहती है ।
6 . मापन सम्भव – सभ्यता के अन्तर्गत आने वाली वस्तुओं की माप करना सम्भव होता है ।
- ग्रहणशीलता – सभ्यता में ग्रहणशीलता का गुण पाया जाता है । अर्थात् कोई भी व्यक्ति सभ्यता को ग्रहण कर सकता है और उससे लाभ उठा सकता है । एक वस्तु का निर्माण या आविष्कार चाहे दुनिया के किसी भी कोने में हो , लेकिन उसे हर क्षेत्र में लोग आसानी से ग्रहण कर सकते हैं तथा उससे लाभ उठा सकते हैं ।
- वैकल्पिकता – सभ्यता के अन्तर्गत जितनी वस्तुएं आती हैं उन्हें अपनाना अनिवार्य नहीं होता । यह व्यक्ति की इच्छा एवं रूचि पर निर्भर करता है कि वह उस वस्तु को अपनायेगा अथवा नहीं । उदाहरण के लिए , कोई व्यक्ति यात्रा मोटरगाडी , रेलगाड़ी , बस अथवा पैदल भी कर सकता है । यह व्यक्ति विशेष की इच्छा पर निर्भर है । इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि सभ्यता बाध्यतामूलक न होकर वैकल्पिक होती है ।
सभ्यता और संस्कृति में अन्तर
सभ्यता और संस्कृति शब्द का प्रयोग एक ही अर्थ में प्रायः लोग करते हैं , किन्तु सभ्यता और संस्कृति में अन्तर है । सभ्यता साधन है जबकि संस्कृति साध्य । सभ्यता और संस्कृति में कुछ सामान्य बातें भी पाई जाती हैं । सभ्यता और संस्कृति में सम्बन्ध पाया जाता हैं । सभ्यता संस्कृति के लिए प्यावरण तैयार करता है और संस्कृति का प्रचार भी सभ्यता के द्वारा ही होता है । संस्कृति सभ्यता को दिशा प्रदान करती है । सभ्यता के द्वारा ही संस्कृति एक समाज से दूसरे समाज में तथा एक पीढी से दूसरी पीढ़ी में हस्तान्तरित होती रहती है । सभ्यता और संस्कृति दोनों एक – दूसरे से प्रभावित होती हैं तथा एक – दूसरे को प्रभावित करती भी हैं । मानव की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए दोनों का निर्माण तथा विकास हुआ । इनमें इतना अधिक घनिष्ठ सम्बन्ध हाता है कि इन्हें एक – दूसरे से पृथक करना कठिन कार्य है । इसके बावजूद सभ्यता और संस्कृति में अन्तर होता है । मैकाइवर एवं पेज ने सभ्यता और संस्कृति में अन्तर किया है । इनके द्वारा दिये गये अन्तर इस प्रकार हैं
1 . सभ्यता की माप सम्भव है , लेकिन संस्कृति की नहीं – सभ्यता को मापा जा सकता है । चूंकि इसका सम्बन्ध भौतिक वस्तुओं की उपयोगिता से होता है इसलिए उपयोगिता के आधार पर इसे अच्छा – बुरा , ऊँचा – नीचा , उपयोगी अनुपयोगी बलाया जा सकता है । संस्कृति के साथ ऐसी बाता नहीं है । संस्कृति की माप सम्भव नहीं है । इसे तुलनात्मक रूप से अच्छा – बुरा , ऊँचा – नीचा , उपयोगी अनुपयोगी नहीं बताया जा सकता है । हर समूह के लोग अपनी संस्कृति को श्रेष्ठ बताते हैं । हर संस्कृति समाज के काल एवं परिस्थितियों की उपज होती है । इसलिए इसके मूल्यांकन का प्रश्न नहीं उठता । उदाहरण स्वरूप हम नई प्रविधियों को देखे । आज जो वर्तमान है और वह परानी चीजों से उत्तम है तथा आने वाले समय में उससे भी उन्नत प्रविधि हमारे सामने मौजूद होगी । इस प्रकार की तुजना हम संस्कृति के साथ नहीं कर सकते । दो स्थानों और दो युगों की संस्कृति को एक – दूसरे से श्रेष्ठ नहीं कहा जा सकता । बताते हैं । हर संस्कृति , उपयोगी अनुपयोगी नहीं बताहीं है । संस्कृति की माप सम्बया
2 . सम्यता सदैव आगे बढ़ती है , लेकिन संस्कृति नहीं – सम्यता में निरन्तर प्रगति होती रहती है । यह कभी भी पीछे की ओर नहीं जाती । मैकाइवर ने बताया कि सभ्यता सिर्फ आगे की ओर नहीं बढ़ती बल्कि इसकी प्रगति एक ही दिशा में होती है । आज हर समय नयी नयी खोज एवं आविष्कार होते रहते हैं जिसके कारण हमें पुरानी चीजों की तुजना में उन्नत चीजें उपलब्ध होती रहती हैं । फलस्वरूप सभ्यता में प्रगती होती रहती है । सभ्यता में प्रगति होती रहती है । सभ्यता का हर पहला कदम , हर नया आविष्कार , हर नयी खोज , हर नयी वस्तु पिछले कदम , पिछले आविष्कार , पिछजी खोज , पिछली वस्तु की अपेक्षा अच्छी होती है । किन्तु यह संस्कृति के साथ सम्भव नहीं है । यह कभी भी निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि पहले के कवि , उपन्यासकार , नाटककार , इत्यादि की अपेक्षा आज बाल ज्य जा परिवर्तन होता है । उसकी दिशा भी निश्चित नहीं होती । उपन्यासकार , नाटककार , इत्यादि की अपेक्षा आज वाल ज्यादा बेहतर हैं । संस्कृति में
3 . सभ्यता बिना प्रयास के आगे बढ़ती है , संस्कति नहीं – सभ्यता के विकास एवं प्रगति के लिए विशष प्रयल का सानहाहाता , यह बहुत ही सरलता एवं सजगता से आगे बढ़ती जाती है । जब किसी भी नई वस्तु का हाता तब उस वस्तु का प्रयोग सभी लोग करते हैं । यह जरूरी नहीं है कि हमउसक सम्बन्ध में पूरी पान रखया उसक आविष्कार में पूरा योगदान दें । अर्थात इसके बिना भी इनका उपभोग किया जा सकता है । मानक वसतुआ का उपयोग बिना मनोवृत्ति , रूचियों और विचारों में परिवर्तन के किया जाता है , किन्तु संस्कृति के साथ एता बारा नहा हा सस्कृति के प्रसार के लिए मानसिकता में भी परिवर्तन की आवश्यकता होती है । उदाहरण के लिए , वाक्त धम परिवर्तन करना चाहता है , तो उसके लिए उसे मानसिक रूप से तैयार होना पड़ता है , नेकिन परतफ उपयाग के लिए विशेष सोचने की आवश्यकता नहीं होती । सभ्यता को उत्तराधिकार के रूप में प्राप्त किया जा सकता है , किन्तु संस्कृति को नहीं । इस प्रकर यह स्पष्ट होता है कि सभ्यता का स्थानान्तारण सस्कृति का । तुलना में सरल है ।
4 . सभ्यता बिना किसी परिवर्तन या हानि के ग्रहण की जा सकती है , किन्तु संस्कृति को नहीं – सभ्यता के तत्वों या वस्तुओं को ज्यों – का – त्यों अपनाया जा सकता है । उसमें किसी तरह की परिवर्तन की आवश्यकता नहीं पड़ती । इस एक वस्तु का जब आविष्कार होता है , तो उसे विभिन्न स्थानों के लोग ग्रहण करते हैं । भौतिक वस्तु में बिना किसी परिवर्तन लाये ही एक स्थान से दूसरे स्थान में ले जाया जा सकता है । उदाहरण के लिए , तब ट्रैक्टर का आविष्कार हुआ तो हर गाँव में उस ले जाया गया । इसके लिए उसमें किसी तरह के परिवर्तन की आवश्यकता नहीं पड़ी । किन्तु संस्कृति के साथ ऐसी बात नहीं है । संस्कृति के तत्वों को जब एक स्थान से दूसरे स्थान में ग्रहण किया जाता है तो उसमें थोड़ा बहुत परिवर्तन हो जाता है । उसके कुछ गुण गौण हो जाते हैं , तो कुछ गुण जुड़ जाते हैं । यही कारण है कि धर्म परिवर्तन करने के बाद भी लोग उपने पुराने विश्वासों , विचारों एवं मनोवृत्तियों में विल्कुल परिवर्तन नहीं ला पाते । पहले वाले धर्म का कुछ – न – कुछ प्रभाव रह जाता है । करने के बाद भी है । उसके कुछ गुण गाव एक स्थान से दूसरे स्था
5 . सभ्यता बाह्य है , जबकि संस्कृति आन्तरिक – सभ्यता के अन्तर्गत भौतिक वस्तुऐं आती हैं । भौतिक वस्तुओं का सम्बन्ध बाह्य जीवन से , बाहरी सुख – सुविधाओं से होता है । उदाहरण के लिए , बिजली – पंखा , टेलीविजन , मोटरगाडी , इत्यादि । इन सारी चीजों से लोगों को बाहरी सुख – सुविधा प्राप्त होती है । किन्तु संस्कृति का सम्बन्ध व्यक्ति के आनतरिक जीवन से होता है । जैसे – ज्ञान , विश्वास , धर्म , कला इत्यादि । इन सारी चीजों से व्यकित को मानसिक रूप से सन्तुष्टि प्राप्त होती है , इस प्रकार स्पष्ट होता है कि सभ्यता बाह्य है , लेकिन संस्कृति आन्तरिक जीवन से सम्बन्धित होती है । अर्थात सभ्यता से सिर्फ दैहिक सुख मिलता है , जबकि संस्कृति से मानसिक ।
6 . सम्यता मूर्त होती है , जबकि संस्कृति अमूर्त – सभ्यता का सम्बन्ध भौतिक चीजों से होता है । भौतिक वस्तुएँ मूर्त होती हैं । इन्हें देखा व स्पर्श किया जा सकता है । इससे प्रायः सभी व्यक्ति समान रूप से लाभ उठा सकते हैं , किन्तु संस्कृति का सम्बन्ध भौतिक वस्तुओं से न होकर अभौतिक चीजो से होता है । इन्हें अनुभव किया जा सकता है , किन्तु इन्हें देखा एवं स्पर्श नहीं किया जा सकता । इस अर्थ में संस्कृति अमूर्त होती है । सभ्यता का तात्पर्य संस्कृति के भौतिक पक्ष से है । इस अर्थ में सभ्यता मूर्त है । जैसे – – कुर्सी , मकान , पंखा , इत्यादि । संस्कृति का अमूर्त पक्ष अभौतिक संस्कृति कहलाता है । जैसे – ज्ञान , विश्वास , कला इत्यादि ।
7 . सभ्यता साधन है जबकि संस्कृति साध्य – सभ्यता एक साधन है जिसके द्वारा हम अपने लक्ष्यों व उद्देश्यों तक पहुंचते हैं । संस्कृति अपने आप में एक साध्य है । धर्म , कला , साहित्य नैतिकता इत्यादि संस्कृति के तत्व हैं । इन्हें प्राप्त करने के लिए भौतिक वस्तुएं जैसे – धार्मिक पुस्तकें , चित्रकला , संगीत , नृत्य – बाद्य इत्यादि की आवश्यकता पड़ती है । इस प्रकार सभ्यता साधन है और संस्कृति साध्य ।
संस्कृति एवं व्यक्तित्व
संस्कृति एवं व्यक्तित्व में घनिष्ठ सम्बन्ध होता है । संस्कति व्यक्तित्व को एक निश्चित व निर्माध में जिन कारकों का योगदान माना जाता है । उनमें संस्कृति का स्थान प्रमुख सम्बन्ध हाता है । संस्कृति व्यक्तित्व को एक निश्चित दिशा प्रदान करती है । व्यक्तित्व के पागवान माना जाता है । उनमें संस्कृति का स्थान प्रमुख है । व्यक्तित्व के विकास में संस्कृति बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है । इन दोनों के सम्बन्धी को जानने के लिए यह अदा करता है । इन दोनों के सम्बन्धों को जानने के लिए यह जानना आवश्यक है कि सस्कृति एवं व्यक्तित्व क्या है ? संस्कृति क्या है , इसकी चर्चा पहले की जा चुकी है । अतः यहाउस क्या है , इसकी चर्चा पहले की जा चुकी है । अतः यहाँ उसे दोहराने की आवश्यकता नहीं है । व्यक्तित्व क्या है इसकी चर्चा नीचे की जा रही है
व्यक्तित्व
साधारण बोल – चाल की भाषा में लोग व्यक्तित्व का मतलब बाहरी रंग – रूप तथा वेश – भूषा रागझतहकर सहाव्याक्तत्व मनुष्य का सिर्फ बाहरी गण नहीं जो उसकी शारीरिक रचना से स्पष्ट होता है । पहले व्यक्तित्व अध्ययनासफ मनोविज्ञान में होता था , किन्तु अब मानव शास्त्र में भी यह चर्चा का विषय बन गया है । मानव शास्त्र कक्षत्रम अनक महत्वपूर्ण अध्ययन हुए हैं , जो वयक्तित्व के निर्माण में संस्कृति की भूमिका को महत्वपूर्ण दशति है । व्याक्तत्व शब्द अंग्रेजी के ‘ Personality ‘ का हिन्दी रूपान्तरण है , जो लैटिन के ‘ Persona ‘ शब्द से बना है । इसका अर्थ आकृति तथा नकाब होता है । नाटक आदि में लोग नकाब पहनकर विशेष भूमिका अदा करते है । भूमिका बदलन पर नकाब भी बदल लेते हैं । कहने का तात्पर्य यह है कि भिन्न – भिन्न भूमिकाओं के लिए भिन्न – भिन्न प्रकार के नकाब होते हैं । जिस प्रकार की भूमिका अदा करनी होती है , उसी प्रकार के नकाब पहने जाते हैं । यहाँ यह स्पश्ट करना आवश्यक है कि व्यक्तित्व का अर्थ सिर्फ चेहरा , रंग , कद तथा पोशाक नहीं है । इसके अनतर्गत शारीरिक , मनोवैज्ञानिक , सामाजिक तथा सांस्कृतिक पहलओं का समावेश होता है । विभिन्न विद्वानों ने व्यक्तित्व की परिभाषा अपने – अपने ढंग से दी है , आलपोर्ट के अनुसार – ‘ व्यक्तित्व , व्यक्ति के मनोदैहिक गुणों का गत्यात्मक संगठन है जो उसका पर्यावरण के साथ अनोखा सामंजस्य निर्धारित करता है । उन्होंने अपनी परिभाषा के द्वारा यह स्पष्ट करना चाहा है कि व्यक्तित्व किसी व्यक्ति के शारीरिक एवं मानसिक गुणों का परिवर्तनशील योग है , जो र्यावरण के साथ उसके अनुकूलन को निर्धारित करता है । इसी के कारण व्यक्ति विभिन्न परिस्थितियों में अलग – अलग ढंग से व्यवहार करता है । पार्क एवं बर्गेस के अनुसार , – ” व्यक्तित्व एक व्यक्ति के व्यवहारों के उन पक्षों का योग है जो समुह में व्यक्ति की भूमिका निर्धारित करता है आलपोर्ट की तरह ही पार्क एवं बर्गेस ने भी व्यक्तिव्य को विभिन्न गुणों का योग बताया है । इन्हीं गुणों के द्वारा समूह में व्यक्तित्व के व्यवहार और भूमिका निर्धारित होते हैं । एडवर्ड सापिर ने लिखा है – * व्यक्तित्व एक व्यक्ति के व्यसहारों के उन पक्षों का योग है जो समाज में उसे अर्थ प्रदान करते हैं तथा समुदाय में अन्य सदस्यों से पृथक करते हैं । मैरिल एवं एल्डूिज के अनुसार – ” व्यक्तित्व प्रत्येक वयक्ति से सम्बिन्धित जन्मजात और अर्जित गुणों का समूह है । इन्होंने व्यक्तित्व को जन्मजात एवं अर्जित गणों का योग बताया है । उपर्युक्त विद्वानों के विचारों से स्पष्ट होता है कि वयक्तित्व के निर्माण में शारीरिक , मनोवैज्ञानिक , सामाजिक , सांस्कृतिक पक्षों का योगदान होता है । यही कारण है कि व्यक्ति एक समान संस्कृति का योगदान होता है । यही कारण है कि व्यक्ति एक समान संस्कृति का सदस्य होते हुए भी दूसरों से अलग व्यक्तित्व का विकास करता है ।
व्यक्तित्व के आधार
व्यक्तित्व के निर्माण के तीन प्रमुख आधार होते हैं ,
1 . शारीरिक पक्ष
2 . समाज
3 . संस्कृति
व्यक्तित्व के विकास में इन तीनों का हाथ होता है , अर्थात् इन्हीं की अन्तः क्रिया के फलस्वरूप व्यक्तित्व का विकास होता है । शारीरिक आधार – इसके अन्तर्गत व्यक्ति की शारीरिक बनावट , आकार , रंग – रूप , कद , वजन आदि आते हैं । साधारण तौर पर व्यक्ति इन्हीं के आधार पर व्यक्तित्व की व्याख्या करता है । अर्थात शारीरिक रंग – रूप को देखकर व्यक्ति को आकर्षण अथवा बड़े व्यक्तित्व का बताया जाता है । वंशानुक्रमणवादी व्यक्तित्व के निर्माण में इसी आधार को महत्वपूर्ण बताते हैं । इनके अनुसार व्यक्तित्व के निर्माण में वंशानक्रमण शरीर रचना बन्दि एवं प्रतिभा स्नायमण्डल तथा अन्तः स्त्रावी ग्रान्थया का योगदान होता है ।
सामाजिक आधार – इसके अन्तर्गत सम्पूर्ण सामाजिक पर्यावरण आता है । समाज के अभाव मध्य नहीं है । यदि किसी व्यक्ति की प्राणिशास्त्रीय रचना बहत ही अच्छी है , किन्तु वह सामाजिक ण सामाजिक पर्यावरण आता है । समाज के अभाव में व्यक्तित्व का विकास सम्भव ऐसी स्थिति में उसके वयकितत्व का विकास नहीं हो सकता । कहने का तात्पर्य सामाजिक आय रचना बहुत ही अच्छी है , किन्तु वह सामाजिक सम्पर्क से वंचित रहा है , वब सम्पर्क से ही संस्कृति का प्रभाव भी सम्भव होता है । बच्चा जब इस पृथ्वी पर आता स नहीं हो सकता । कहने का तात्पर्य सामाजिक सम्पर्क आवश्यक है । सामाजिक समाजीकरण की प्रक्रिया के द्वारा समाज व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास करता मा सम्भव होता है । बच्चा जब इस पृथ्वी पर आता है , तब वह सिर्फ जैवकीय प्राणी होता है । आकया कद्वारा समाज व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास करता है और तबवह जैवकीय प्रसणी से सामाजिक पपल जाता हा विभिन्न सामातिक संस्थाओं परिस्थितियों एवं भमिकाओं का प्रभाव व्यक्तित्व पर पड़ता है । इन्हा की सारा प्याक्तत्व का आदता , व्यवहारों , मनोवत्तियों मल्यों एवं आदर्शों का निर्माण होता है , जिससे व्यक्तित्व का विकास होता ।
सास्कृतिक आधार – मानवशास्त्रियों ने व्यक्तित्व के निर्माण में सांस्कतिक आधार को महत्वपूर्ण बताया है । उनके अनुसार । बहुत सी जैवकीय क्षमताओं का निर्धारण संस्कृति से होता है । मानवशास्त्रियों ने संस्कृतियों की भिन्नता के आधार पर विभिन्न प्रकार के व्यक्तित्व के गठन की चर्चा की है । इन विद्वानों में मीड , लिटन , कार्डिनर , डूबाइस आदि के नाम प्रमुख हैं । य । विद्वान Culture Personality School के नाम से जाने जाते हैं । संस्कृति और व्यक्तित्व के पारस्परिक सम्बन्ध का उल्लेख करते हुए जॉन गिलिन ने बताया कि जन्म के बाद मनुष्य एक मानव निर्मित यावरण में प्रवेश करता है , जिसका प्रभाव व्यक्ति के व्यक्तित्व पर पड़ता है । संस्कृति मनुष्य की आवश्यककताओं की पूर्ति के लिए कुछ नियमों तथा तरीकों का निर्धारण करती है । इन्हें समाज के अधिकांश लोग मानते हैं । संस्कृति के अन्तर्गत जिन प्रथाओं , परम्पराओं , जनरीतियों , रूढियों , धर्म , भाषा , कला आदि का समावेश होता है , वे सामाजिक एवं सामूहिक जीवन विधि को व्यक्त करते हैं । उचित व अनुचित व्यवहार के लिए संस्कृति पुरस्कार तथा दण्ड का भी प्रयोग करती है । रूथ बेनेडिक्ट ने अपना विचार प्रकट करते हुए कहा कि , बच्चा जिन प्रथाओं के बीच पैदा होता है , आरम्भ से ही उसके अनुरूप उसके अनुभव एवं व्यवहार होने लगते हैं । आगे उसने यह भी बताया कि संस्कृति व्यक्ति को कच्चा माल प्रदान करता है , जिससे वह अपने जीवन का निर्माण करता है । यदि कच्चा माल ही अपर्याप्त हो , तो व्यक्ति का विकास पूर्ण रूप से नहीं हो पाता है । यदि कच्चा माल पर्याप्त होता है तो व्यक्ति को उसका सदुपयोग करने का अवसर मिल जाता है । फेरिस ने व्यक्तित्व को संस्कृति का वैषविक पक्ष कहा है । प्रत्येक समाज की अपनी विशिष्ट प्रकार की संस्कृति होती है , जो दूसरे से भिन्न होती है । प्रत्येक व्यक्ति अपनी संस्कृति का प्रतिनिधित्व करता है । यही कारण है कि सांस्कृतिक भिन्नता से व्यक्तियों में भी भिन्नता पायी जाती है । क्लूखौन और मूरे के अनुसार , प्रत्येक व्यक्ति कुछ अंशों में 1 . दूसरे सब लोगों की तरह होता है । 2 . दूसरे कुछ लोगों की तरह होता है और दूसरे किसी भी मनुष्य की तरह नहीं होता । पहला – प्राणिशास्त्रीय दृष्टिकोण से सभी मानव की शारीरिक विशेषताएँ समान होती हैं जैसे आँख , नाक , कान , हाथ , पैर इत्यादि । अतः प्रत्येक मनुष्य कुछ – न – कुछ अंशों में दूसरे सभी लोगों के समान होता है । दसरा – प्रत्येक समाज में कुछ सामान्य व्यवहार प्रतिमान होते हैं । जिन्हें व्यक्ति अपनी पसन्द से अपनाता है । इस प्रकार प्रत्येक दूसरे कुछ लोगों की तरह होता है । अर्थात् समान व्यवहार व कार्य के आधार पर कुछ लोगों में समानता पायी जाती तीसरा – प्रत्येक व्यक्ति में कुछ विशिष्ट गुण होते हैं , जो किसी दूसरे मनुष्य की तरह नहीं होते । यही कारण है कि मानव व्यक्तित्व में भिन्नता पाई जाती है । सांस्कृति पर्यावरण में भिन्नता के कारण दो विभिन्न संस्कृतियों के व्यक्तियों के सामान्य गुण में समानता नहीं पाई जाती ।
समाज
समाज की अवधारणा एवं विशेषताएँ
( Concept and Characteristics of Society )
समाज , समाजशास्त्र की प्राथमिक अवधारणाओं । में प्रथम एवं मौलिक है । सामान्य बोलचाल में समाज शब्द का प्रयोग ‘ मनुष्यों के समूह ‘ ( Groups of men or collection of Individual ) के लिए किया जाता है । जबकि समाजशास्त्र में ‘ समाज ‘ शब्द का प्रयोग ‘ सामाजिक संबंध ‘ ( Social Relation ) के लिए किया जाता है , जिनका निर्माण व्यक्तियों द्वारा किया जाता है । सामाजिक प्रभाव से निर्मित सामाजिक संबंधों का अध्ययन समाजशास्त्र करता है , जिसे हम समाज कह सकते हैं । अरस्तू ने बहुत पहले लिखा था कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है । इसलिए कि व्यक्ति एक दसरे से सामाजिक संबंधों से जकड़ा हुआ है । समाजशास्त्र समाज का विज्ञान है । इसलिए सर्वप्रथम यह जानना जरूरी है कि समाज क्या है ? दैनिक एवं व्यावहारिक जीवन में ‘ समाज ‘ शब्द का लोग भिन्न – भिन्न अर्थों में प्रयोग करते हैं ।
साधारणत : लोग ‘ समाज ‘ शब्द को भाषा , क्षेत्र , धर्म , संस्कृति , जाति तथा प्रजाति इत्यादि से सम्बद्ध करके प्रयोग में लाते हैं । इसे भाषा से सम्बन्धित करके एक भाषा – भाषी अपने समूह को समाज कहते हैं , जैसे – हिन्दी समाज । धर्म से सम्बद्ध करके एक धर्म को मानने वाले अपने समूह को समाज कहते है , जैसे — हिन्दू समाज । संस्कृति से सम्बद्ध करके एक संस्कृति के लोग अपने समूह को समाज कहते है , जैसे – भारतीय समाज । इसी प्रकार से सम्बद्ध करके एक जाति – समूह अपने को एक समाज कहता है , जैसे – ब्राह्मण समाज इत्यादि । इन उदाहरणों को देखने से पता चलता है कि समाज ‘ शब्द का प्रयोग लोग मनमाने ढंग से करते हैं । यह प्रयोग अवैज्ञानिक कहलायेगा । समाजशास्त्र में ‘ समाज ‘ शब्द न तो प्रजाति समूह है न धार्मिक समूह , न क्षेत्रीय समूह और न ही सांस्कृतिक समूह । समाजशास्त्र के अन्तर्गत समाज की अवधारणा बिल्कुल भिन्न है । इसके अन्तर्गत सिर्फ व्यक्तियों के समूह – मात्र को समाज नहीं कहते । हम रेलगाड़ियों , बसो , मेला आदि में एक साथ काफी देर तक रहते है , किन्तु वैसे समूह को भी समाज नहीं कहते हैं । कहने का तात्पर्य यह है कि समाजशास्त्र में ‘ समाज ‘ शब्द का विशिष्ट अर्थ है । प्रयोग करते है । बुनियादी अर्थ में ‘ समाज ‘ सामाजिक सम्बन्धों की एक अमूर्त व्यवस्था है । समाज मलागार बीच अनेक प्रकार के सम्बन्ध पाये जाते है । ये सम्बन्ध भी अनेक रूपों में व्यक्त होते रहते है । सामाजिक किसी – न – किसी सम्बन्धों की कोई सीमा नहीं है । ये सभी सम्बन्ध आपस में गथे हए हैं । सभी व्यक्ति एक – दूसरे के साथ किसान रूप में जुड़े हुए हैं ।
अनेक समाजशास्त्रियों ने समाज की परिभाषा दी है । यहाँ हम कुछ प्रमुख विद्वानों द्वारा दी गई परिभा षाओ का उल्लेख करेंगे ।
जिन्सबर्ग ( Ginsberg ) के शब्दों में , ” समाज व्यक्तियों का संग्रह है , जिनके बीच विशिष्ट सम्बन्धों या व्यवहार की विधियों द्वारा एकता स्थापित होती है जो उन्हें उन सभी व्यक्तियों से पृथक् करती है जिनमें इस प्रकार के सम्बन्ध नहीं हैं या जिनके व्यवहार उनसे भिन्न हैं । जिन्सबर्ग की इस परिभाषा से स्पष्ट होता है कि समाज सामाजिक सम्बन्धों से बनता है । सामाजिक सम्बन्धों की प्रकृति में भिन्नता होने के कारण एक समाज दूसरे समाज से भिन्न होता है ।
गिडिंग्स ( Giddings ) ने लिखा है , ” समाज स्वयं एक संघ है , संगठन है , औपचारिक सम्बन्धों का योग । । है , जिसमें परस्पर सम्बन्धित व्यक्ति एक – दूसरे से जुड़े रहते हैं । इस परिभाषा में दो प्रमुख बातें हैं — पहला , समाज व्यक्तियों का योग है और दूसरा इसमें औपचारिक सम्बन्ध होते हैं । गिडिंग्स की परिभाषा की सबसे बड़ी कमी यह है कि इसमें सिर्फ औपचारिक सम्बन्धों के योग को समाज कहा गया है । लेकिन समाज में औपचारिक और अनौपचारिक दोनों प्रकार के सम्बन्ध होते हैं और दोनों का महत्त्व बराबर होता है ।
फिक्टर ( Fichter ) के अनुसार , “ समाज व्यक्तियों का संगठित समूह है , जो एक क्षेत्र में रहते हैं , सहयोगी समह के द्वारा अपनी मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं , उनकी एक सामान्य संस्कृति होती है और वे पृथक् सामाजिक इकाई के रूप में कार्य करते हैं । फिक्टर की इस परिभाषा से एक समाज की सारी प्रमुख बातें व विशेषताएँ स्पष्ट हो रही हैं । इसमें बताया गया है कि
( i ) समाज लोगों का संगठन है , ( ii ) इसका एक भौगोलिक क्षेत्र होता है , ( iii ) इसमें सहयोग के द्वारा आवश्यकताओं की पूर्ति होती है , ( iv ) इसकी एक विशिष्ट संस्कृति होती है तथा ( v ) यह एक पथक सामाजिक इकाई के रूप में कार्य करता है ।
रयूटर ( Reuter ) के अनुसार , “ समाज एक अमर्त धारणा है जो एक समूह के सदस्यों के बीच पाये जाने . वाल पारस्परिक सम्बन्धों की सम्पूर्णता का बोध कराती है । ” रयूटर ने बहुत सरल ढंग से समाज की परिभाषा दी है । इस परिभाषा में उन्होंने समूहों के बीच जो पारस्परिक सम्बन्ध होते हैं , उनको महत्त्वपूर्ण बताया है ।
मेकाइवर एवं पेज ( Maclver and Page ) ने भी समाज की व्याख्या अधिक स्पष्ट रूप से की है । इनके अनसार , ” समाज रीतियों और कार्य – प्रणालियों , अधिकार और पारस्परिक सहायता , अनेक समूहों और उप – विभागों , मानव – व्यवहार के नियन्त्रणों एवं स्वतन्त्रताओं की व्यवस्था है । इस निरन्तर परिवर्तित होने वाली जटिल व्यवस्था को हम समाज कहते हैं । यह सामाजिक सम्बन्धों का जाल है और यह सदैव परिवर्तनशील है इस परिभाषा में समाज के सभी तत्त्वों को सम्मिलित किया गया है । मेकाइवर ने अपनी इस परिभाषा के द्वारा समाज की प्रकृति को भी स्पष्ट किया और बताया कि समाज सामाजिक सम्बन्धों का जाल है । इसका निर्माण व्यक्तियों से नहीं होता , बल्कि व्यक्तियों के बीच पाये जाने वाले पारस्परिक सम्बन्धों से होता है । इस दृष्टिकोण से समाज एक अमूर्त संगठन है ।
समाज की उपर्युक्त सभी परिभाषाओं के द्वारा यह स्पष्ट होता है कि
- समाज सामाजिक सम्बन्धों का जाल है ।
- यह सम्बन्ध विभिन्न प्रकार के होते हैं ।
- सामाजिक सम्बन्ध परिवर्तनशील होते हैं ।
- समाज की एक विशिष्ट संस्कृति होती है ।
- यह व्यक्तियों के व्यवहार को नियमित करता है ।
6.समाज केवल व्यक्तियों का संग्रह मात्र नहीं है । सामाजिक संरचनाओं , संस्थाओं , रीतियों , कार्य – प्रणालियों तथा आवश्यकता पूर्ति के आधार पर बने समूहों का नाम ही समाज है
समाज के प्रमुख आधार या तत्त्व ( Basis or Elements of Society )
यहाँ पर हम समाज के कुछ उन प्रमुख आधारों को उल्लेख करेंगे , जिनकी चर्चा मेकाइवर तथा पेज ने अपनी परिभाषा में की है । मेकाइवर ने बताया कि समाज सामाजिक सम्बन्धों का जाल है , किन्तु इसके कुछ प्रमुख आधार भी हैं , जिनके द्वारा यह एक जटिल व्यवस्था का रूप ग्रहण कर लेता है । मेकाइवर तथा पेज ने समाज के निम्नलिखित आधारों को इस प्रकार प्रस्तुत किया है
1 . रीति – रिवाज ( Usages ) : प्रत्येक समाज में विभिन्न प्रकार के रीति – रिवाज होते हैं । इनका सम्बन्ध विभिन्न कार्यों तथा परिस्थितियों से होता है । अर्थात् भिन्न – भिन्न कार्यों तथा भिन्न – भिन्न परिस्थितियों के लिए निश्चित रीतियाँ होती है , जिनके द्वारा उन्हें सम्पन्न किया जाता है । जैसे — खान – पान , वेश – भूषा , विवाह इत्यादि के सम्बन्ध मे विशेष नियम होते हैं । इन्हीं नियमों के द्वारा व्यक्ति विशेष अवसर पर विशेष प्रकार के व्यवहार करने के लिए प्रेरित होता है । अत : जिस समाज का जैसा रीति – रिवाज होता है वैसा ही वहाँ के लोगों का व्यवहार भी होता है । इस प्रकार इन्हीं रीति – रिवाजों के द्वारा सामाजिक सम्बन्ध बनते हैं और समाज का निर्माण होता है ।
2 . कार्य – प्रणालियाँ ( Procedures ) – प्रत्येक समाज की कुछ समाज के प्रमुख आधार कार्य – प्रणालियाँ व नियम होते हैं , जिनके द्वारा समाज की व्यवस्था बनी रहती है । लोगों की आवश्यकता के आधार पर समाज में विभिन्न कार्यों के लिए भिन्न – भिन्न कार्य – प्रणालियों का निर्माण किया गया है ,इन्हीं कार्य – प्रणालियों के द्वारा लोगों की आवश्यकता की पूर्ति होती ‘ है । यदि सभी लोग मनमाने ढंग से कार्य करने लगे तो समाज की व्यवस्था नष्ट हो जायेगी । अत : इन कार्य – प्रणालियों के अनुरूप व्यवहार करना अनिवार्य होता है । यह प्रणाली नियमों एवं परम्पराओं पर आधारित होती है । साथ ही अधिकांश लोगों से यह आशा की जाती है कि वे इनके द्वारा अपने कार्यों को पूरा करेंगे ।
3 . अधिकार ( Authority ) – अधिकार समाज का प्रमख आधार है । अधिकार सत्ता व प्रभुत्व के नाम से भी जाना जाता है । ऐसा कोई समाज नहीं है जहाँ अधिकार और अधीनता के सम्बन्ध नहीं पाये जाते हों । समाज के प्रत्येक संगठन , समूह एवं समितियों के उचित संचालन के लिए यह आवश्यक है कि कुछ व्यक्तियों के साथ अधिकार व सत्ता जुड़ी रहे । इनके अभाव में समाज में व्यवस्था एवं शान्ति कायम नहीं रह सकती । यही अधिकार व सत्ता लोगों के व्यवहार पर नियन्त्रण लगाते हैं । आरम्भ से आज तक अधिकार व सत्ता की धारणा प्रत्येक समाज में रही है । जैसे — परिवार में पिता या कर्ता , पंचायत में मुखिया , स्कूल व कॉलेज में प्राचार्य इत्यादि । इसी अधिकार और मर्यादा के साथ लोगों को कार्य करना पड़ता है , जिससे समाज में व्यवस्था या संगठन बना रहता है ।
4 . पारस्परिक सहायता ( Mutual Aid ) पारस्परिक सहयोग समाज का वास्तविक आधार है । मनुष्य की आवश्यकताएँ अनन्त है । अपनी समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति वह स्वयं नहीं कर सकता । इसकी पूर्ति के लिए परस्पर सहयोग की आवश्यकता होती है । पारस्परिक सहयोग से ही सामाजिक सम्बन्ध बनते हैं । इनके अभाव में समाज की कल्पना तक नहीं की जा सकती । सहयोग के द्वारा व्यक्ति एक – दूसरे पर निर्भर रहते हैं और सामाजिक जीवन में व्यवस्था बनी रहती है । अत : किसी भी समाज के लिए परस्पर सहयोगी सम्बन्ध का होना आवश्यक होता है ।
5 . समूह एवं विभाग ( Grouping and Divisions ) – प्रत्येक समाज में विभिन्न प्रकार के समूह तथा विभाग पाये जाते है । समाज का निर्माण इन्हीं समूहों और विभागों से होता है । उदाहरणस्वरूप परिवार , पड़ोस , जाति , वर्ग , नगर , समुदाय इत्यादि । समाज में विभाजन का आधार आयु , लिंग , वर्ग , जाति , धन तथा शिक्षा इत्यादि होते है । इन सभी समूहों और विभागों का आपस में सम्बन्ध बना रहता है । ये सभी ( समूह और विभाग ) हमारे सामाजिक सम्बन्धों को प्रभावित करते हैं , साथ ही समाज इन समूहों और संगठनों के द्वारा अपने कार्यों को पूरा करता है । ये समूह और विभाग जितना अधिक संगठित होते हैं उतना ही समाज व्यवस्थित होता है ।
6 . मानव – व्यवहार के नियन्त्रण ( Controls of Human Behaviour ) — मनुष्य का स्वभाव ऐसा होता है कि छूट मिलने पर वह मनमानी करने लगता है । समाज में यदि हर व्यक्ति मनमाने ढंग से कार्य करने लगे तो समाज की व्यवस्था भंग हो जायेगी । समाज की व्यवस्था को बनाये रखने के लिए यह आवश्यक होता है कि व्यक्तियों के व्यवहारों पर नियन्त्रण हो । प्रत्येक समाज के अपने नियम – कानून व तौर – तरीके होते हैं , जिनके अनुरूप व्यक्ति को व्यवहार करना पड़ता है । व्यक्तियों के व्यवहार को नियमित करने के लिए समाज कुछ औपचारिक तथा अनौपचारिक साधनों का प्रयोग करता है । औपचारिक साधनों में प्रशासन , पुलिस , न्यायालय तथा कानून आदि आते हैं और अनौपचारिक साधनों में लोकाचार , प्रथा , परम्परा , धर्म इत्यादि आते है । इन सभी साधनों के माध्यम से व्यक्तियों के व्यवहार को नियमित तथा नियन्त्रित किया जाता है जिससे समाज में सामाजिक सम्बन्धों की व्यवस्था बनी रहती है ।
7 स्वतन्त्रता ( Liberty ) नियन्त्रण एवं स्वतन्त्रता समाज रूपी सिक्के के दो पहलू हैं । समाज में नियन्त्रण के साथ स्वतन्त्रता भी आवश्यक है । व्यक्ति के व्यक्तित्व के समुचित विकास के लिए स्वतन्त्रता का होना भी अति आवश्यक है । स्वतन्त्रता का तात्पर्य यह नहीं है कि व्यक्ति अपने मनमाने ढंग से कार्य करे । साथ ही नियन्त्रण का अर्थ यह नहीं कि व्यक्ति का व्यक्तित्व कुण्ठित हो जाय । यही कारण है कि मेकाइवर ने समाज के निर्माण के लिए नियन्त्रण एवं स्वतन्त्रता दोनों को महत्त्वपूर्ण तत्त्व बताया है । सामाजिक सम्बन्धों को व्यवस्थित रखने के लिए कछ हद तक स्वतन्त्रता भी देना आवश्यक होता है । स्वतन्त्र रहने पर ही व्यक्ति अपनी इच्छा एवं अवसर के मुताबिक अन्य लोगों से सामाजिक सम्बन्ध बनाता है । यहाँ यह भी कहना आवश्यक है कि जितनी अपनी स्वतन्त्रता की जरूरत होती है उतनी ही दूसरों को भी स्वतन्त्रता देनी चाहिए ।
SOCIOLOGY – SAMAJSHASTRA- 2022 https://studypoint24.com/sociology-samajshastra-2022
समाजशास्त्र Complete solution / हिन्दी में
INTRODUCTION TO SOCIOLOGY: https://www.youtube.com/playlist?list=PLuVMyWQh56R2kHe1iFMwct0QNJUR_bRCw
SOCIAL CHANGE: https://www.youtube.com/playlist?list=PLuVMyWQh56R32rSjP_FRX8WfdjINfujwJ
SOCIAL PROBLEMS: https://www.youtube.com/playlist?list=PLuVMyWQh56R0LaTcYAYtPZO4F8ZEh79Fl
इसी प्रकार हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि समाज के लिए इन सातों आधारों का होना अति आवश्यक है । ये सभी तत्त्व आपस में गुंथे हुए होते हैं । इन्हीं के द्वारा सामाजिक सम्बन्ध बनते हैं । इन सम्बन्धों में हर समय कुछ – न – कुछ परिवर्तन होते हैं । इस परिवर्तन से समाज में भी परिवर्तन हो जाता है । समाज के सातों आधार जगह – जगह पर पृथक् – पृथक् होते हैं । यही कारण है कि स्थानीय दूरी के साथ – साथ समाज की प्रकृति में भी भिन्नता नजर आती है । अर्थात् समय एवं स्थान के अनुसार समाज में कुछ – न – कुछ परिवर्तन होते ही रहते हैं । मेकाइवर तथा पेज ने समाज की परिभाषा के साथ – साथ उसके सात आधारों की भी चर्चा की है । इन सातो आधारों का उल्लेख ऊपर किया जा चुका है । किन्तु समाज के सम्बन्ध में विभिन्न परिभा षाओं और उसके आधारों के विषय में जानने के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि किसी भी समाज के लिए तीन बातों का होना आवश्यक है – पहला , व्यक्तियों की अधिकता , दूसरा , सामाजिक सम्बन्ध और तीसरा , सामाजिक अन्त : क्रिया । समाज के लिए पहली आवश्यक बात यह है कि व्यक्तियों की संख्या काफी मात्रा में होनी चाहिए । इसके बिना समाज का निर्माण नहीं हो सकता । दूसरी आवश्यक बात यह है कि व्यक्तियों के बीच सम्बन्ध होना चाहिए । समाज व्यक्तियों का संकलन मात्र नहीं है । जब तक उनके बीच सम्बन्ध नहीं होगा तब तक समाज की कल्पना नहीं की जा सकती । समाज के लिए तीसरी आवश्यक बात यह है कि उनके बीच सामाजिक अन्त : क्रिया हो । अर्थात् उनके बीच पारस्परिक जागरुकता हो तथा वे अपने व्यवहारों एवं क्रियाओं से एक – दूसरे को प्रभावित करें और प्रभावित हो भी । समाज में एक व्यक्ति अपने व्यवहारों एवं क्रियाओं से न सिर्फ दूसरे को प्रभावित करता है , बल्कि प्रभावित होता भी है
समाज की विशेषताएं
( CHARACTRISTICS OF SOCIETY)
( 1 ) अमूर्तता ( Abstract ) : – समाज सामाजिक संबंधों की व्यवस्था है , अतः समाज अमूर्त है । ‘ राइट ‘ ने लिखा है कि , ” समाज को हम उनके बीच स्थापित संबंधों की व्यवस्था के रूप में परिभाषित कर सकते है । ”
( 2 ) पारस्परिक जागरूकता ( Mutual Awaraness ) : – ज्ञातव्य है कि समाज सामाजिक संबंधों की व्यवस्था का नाम है । सामाजिक संबंधों का आधार व्यक्ति की मनोवैज्ञानिक दशाएँ है । सामाजिक संबंधों के लिए पारस्परिक जागरूकता का होना आवश्यक है । जब तक व्यक्ति एक – दूसरे के प्रति जागरूक नहीं होंगे , तब तक उनके बीच संबंध विकसित हो ही नहीं सकते । मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है । तथा उसके पास चेतना एवं जागरूकता है । इस प्रकार व्यक्ति जब एक दूसरे के अस्तित्व एवं कार्य के प्रति जागरूक होंगे तो उनके संदर्भ में कार्यों को करेंगे तथा सामाजिक संबंधों का निर्माण होगा । मैकाइवर ने लिखा है कि ‘ भौतिक वस्तुओं के बीच चूंकि पारस्परिक जागरूकता चेतनता नही है , इसलिए वे एक – दूसरे पर आधारित होते हुए भी कुछ नहीं हैं । ‘ उदाहरण के लिए मेज के ऊपर पुस्तकें पड़ी हुई है जो चेतन नहीं है बल्कि भौतिक वस्तुएं है , लेकिन व्यक्ति के लिए ऐसी बात नहीं है । व्यक्ति जानता है । कि कौन हमारे लिए क्या कर रहा है । अतः वह उसके प्रति जागरूक होकर उन्हीं के संदर्भ में कार्य व्यवहार करता है जिससे सामाजिक संबंधों का निर्माण होता है । मनुष्य के पास ज्ञान है जिसकी वजह से एक – दूसरे के प्रति जागरूक होता है जो सामाजिक संबंध का आधार है , जिसको संकेत के रूप मे इस तरह लिख सकते है
( 3 ) समानता एवं भिन्नता (likeness and Differenees in Society ) : – सामाजिक संबंध में समानता एवं भिन्नता का समन्वय है । सामाजिक संबंध के लिए एक – दूसरे का ज्ञान व उसके प्रति जागरूकता आवश्यक है , जिसका निर्माण तब – तक नहीं हो सकता जब तक कि व्यक्तियों के बीच समानता ( Likenes ) व विभिन्नता – ( Differences ) न हों । लेकिन ऐसी विभिन्नता जिसमें व्यक्ति एक – दूसरे के प्रति आकृष्ट हों , समानता के संदर्भ में होनी चाहिए । जिस प्रकार दिन का संबंध रात से , अपूर्ण का संबंध पूर्ण से , अधिकाधिक का संबंध कम से है , उसी प्रकार समानता का संबंध विभित्रता से विभिन्नता का समानता से है । यह सामाजिक संबंधों के लिए आवश्यक है , जिनके अनुसार समाज का निर्माण हुआ है । इसीलिए गिडिंग्स ने लिखा है । ‘ समाज का आधार सजातीयता या समानता की भावना ( Consciousness of kind ) है ।
मैकाइवर व पेज के शब्दों मे , ‘ समानता एवं भिन्नता तार्किक दृष्टि से एक – दूसरे के विरोधी है , लेकिन अंततः दोनों एक – दूसरे से संबंधित है । दोनों एक – दूसरे के पूरक है , जिनके द्वारा सामाजिक संबंधों का निर्माण हुआ है । ‘
विभिन्नता – समाज में जहाँ एक ओर समानता देखने को मिलती है वहीं दूसरी ओर विभिन्नता भी पायी जाती है । समाज में विभिन्नता का होना भी अति आवश्यक है । यह विभिन्नता किसी भी क्षेत्र में हो सकती है । समाज के सभी सदस्यों में समान बुद्धि , योग्यता , कार्यक्षमता , तत्परता इत्यादि नहीं पायी जाती । समानता लिंग के आधार पर भी नहीं पायी जाती । अर्थात् व्यक्तिगत व सामाजिक असमानता होना अनिवार्य है । असमानता के कारण ही लोगों को एक – दूसरे की आवश्यकता पड़ती है और उनके बीच क्रिया – प्रतिक्रिया होती रहती है । इसके कारण समाज में आकर्षण बना रहता है । असमानता के कारण ही समाज में श्रम – विभाजन पाया जाता है । जो व्यक्ति जिस प्रकार के कार्य के लिए कुशल होता है या जिस प्रकार के कार्य में अभिरुचि रखता है उसी कार्य को वह करता है । सभी व्यक्तियों की दिमागी और शारीरिक शक्ति एक – जैसी नहीं होती । सभी एक जैसे महत्त्वाकांक्षी या उदासीन नहीं होते । इसके कारण समाज में प्रतिस्पर्द्धा तथा प्रतियोगिता इत्यादि भावनाओं का जन्म होता है । फलस्वरूप समाज में परिवर्तन होते है । समाज प्रगति की ओर अग्रसर होता है । समाज में आविष्कार एवं क्रान्तिकारी सामाजिक परिवर्तन के लिए भी असमानता जरूरी है । मेकाइवर तथा पेज ने कहा है कि यदि किसी समाज के सभी लोग सभी क्षेत्रों में एक – दूसरे के बिल्कुल समान होते तो उनके सामाजिक सम्बन्ध चीटियों या मधुमक्खियों के समान ही सीमित होते । इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि असमानताएँ एक – दूसरे के पूरक हैं । समानता और असमानता दोनों के विषय में जानकारी हासिल होने के बाद यह स्पष्ट होता है कि समान उद्देश्यों ( समानता ) की पूर्ति के लिए विभिन्न व्यक्ति भिन्न – भिन्न कार्यों के द्वारा एक – दूसरे का सहयोग करते हैं । यद्यपि समाज में समानता तथा असमानता का होना अनिवार्य है लेकिन असमानता की तुलना में समानता का ज्यादा महत्त्व होता है । समानताएँ प्राथमिक होती हैं और असमानताएँ गौण । समान आवश्यकताओं के लिए ही लोग असमान कार्यों को मिल – जुलकर करते हैं । जैसे , स्कूल व कॉलेजों का मुख्य उद्देश्य लोगों को शिक्षा प्रदान करना है ।
वहाँ के सारे लोग भिन्न – भिन्न कार्यों के द्वारा इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए कार्य करते हैं । शिक्षक अलग कार्य करते हैं , ऑफिस स्टाफ अलग कार्य करते हैं , विद्यार्थीगण का अलग कार्य हो जाता है इत्यादि । यहाँ हम देख रहे हैं कि सभी लोग अपनी – अपनी भूमिकाओं के आधार पर विभिन्न कार्यों के द्वारा समान उद्देश्य शिक्षा प्रदान करना ) को पूरा कर रहे हैं । अर्थात् इनके बीच आन्तरिक समानता की स्थिति है ।
( 4) अन्योन्याश्रिता ( Interdependence ) मनुष्य की आवश्यकताएँ अनन्त हैं । इन सारी आवश्यकताओं की पूर्ति वह अकेला नहीं कर सकता । जैसे – जैसे लोगों की आवश्यकताएँ बढ़ती गईं वैसे – वैसे लोग संगठित होते गये हैं जिससे समाज का निर्माण हुआ । लोगों को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए एक – दूसरे पर निर्भर रहना पड़ता है । यह पारस्परिक निर्भरता लोगों के बीच भाईचारे और समानता की भावना पैदा करती है । इससे लोगों के बीच आपस में सम्बन्ध स्थापित होते हैं और वे समाज के नियमों के अनुसार व्यवहार करते हैं । यह निर्भरता लोगों के बीच जन्म से लेकर मृत्यु तक बनी रहती है । आदिम समाज बहुत ही सरल और छोटा था । उस समय लोगों की आवश्यकताएँ भी कम थी फिर भी लोगों को एक – दूसरे पर निर्भर रहना पड़ता था । उनके बीच श्रम – विभाजन था । स्त्री और पुरुष के बीच काम का बँटवारा था । स्त्रियाँ बच्चों का लालन – पालन तथा घर की देख – रेख करती थीं और पुरुष शिकार एवं भोजन इकट्ठा करते थे । इस विभाजन का आधार लिंग – भेद था । श्रम – विभाजन के कारण वे लोग परस्पर सम्बन्धित एवं आश्रित थे । आज आधुनिक एवं जटिल समाज में परस्पर निर्भरता और अधिक हो गई है । जीवन के हर क्षेत्र में हर आवश्यकता के लिए व्यक्ति को एक – दूसरे पर निर्भर रहना पड़ता है । सामाजिक जीवन के किसी एक पहल में परिवर्तन होता है तो उससे दूसरे पहलू भी प्रभावित होते हैं और उसमें भी परिवर्तन हो जाता है । कारण यह है कि सभी इकाई आपस में सम्बन्धित तथा एक – दूसरे पर आश्रित हैं । इस प्रकार यह कह सकते हैं कि समाज के निर्माण में पारस्परिक निर्भरता एक आवश्यक तत्त्व है ।
( 5 ) सहयोग एवं संघर्ष ( Co – operation and Conflict ) – समानता और असमानता की तरह सहयोग और संघर्ष भी समाज के लिए अति आवश्यक है । ऊपर से ये दोनो विशेषताएं एक – दूसरे की विरोधी दिखती हैं लेकिन वास्तव में ये एक – दूसरे के परक है । प्रत्येक समाज में सहयोग और संघर्ष की प्रक्रिया आवश्यक रूप से पायी जाती है । समाज सरल हो या जटिल आदिम हो या आधुनिक , प्रामीण हो या नगरीय , सहयोग और संघर्ष दोनों पाये जाते हैं । सहयोग – सहयोग सामाजिक जीवन का मख्य आधार है । अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए हर व्यक्ति को एक – दूसरे के सहयोग की आवश्यकता होती है । अकेला कोई भी कार्य नहीं हो सकता । जीवन के हर क्षेत्र में और हर कार्य में सहयोग के बिना काम नहीं चल सकता । यह सहयोग दो प्रकार का होता है
अप्रत्यक्ष सहयोग – जब कछ लोग आमने – सामने के सम्बन्धों के द्वारा अपन लाग आमने – सामने के सम्बन्धों के द्वारा अपने उद्देश्यों की मदद करता है या सहयोग देता है । जैसे खेल के मैदान में विभिन्न खिलाड़िया कबाच सहयोग कहलाता है । समाज में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों प्रकार के सहयोग आवश्यक हैं । इनमें से किसी को ज्यादा आर किसी को कम महत्त्वपूर्ण नहीं कहा जा सकता । इतना जरूर है कि सरल . लघ तथा आदिम समाज में प्रत्यक्ष सहयोग की महत्ता अधिक है , जबकि जटिल , वृहत् तथा आधुनिक समाज में अप्रत्यक्ष सहयोग की । इसका कारण यह है कि सरल , लघु एवं आदिम समाज में प्रत्यक्ष सम्बन्ध व आमने – सामने का सम्बन्ध सम्भव है । लेकिन जटिल , वृहत् एवं आधुनिक समाज में लोगों के बीच द्वितीयक सम्बन्ध ही सम्भव है । सब एक – दूसरे को प्रत्यक्ष रूप से जानें और प्रत्यक्ष रूप से सहयोग दें यह सम्भव नहीं है ।
संघर्ष – संघर्ष की महत्ता पर भी अनेक समाजशास्त्रियों ने अपने – अपने विचार व्यक्त किये हैं । संघर्ष का इतिहास आदिकाल से चला आ रहा है । दुनिया का ऐसा कोई भी समाज नहीं है , जहाँ संघर्ष नहीं रहा हो । समाज में जब भी कोई महान परिवर्तन हुआ है तो उसका मूल कारण संघर्ष ही रहा है । अपने स्वार्थ , उद्देश्य , विचार , धर्म , शारीरिक भिन्नता और सांस्कृतिक भिन्नता के कारण लोगों के बीच संघर्ष होता रहता है । संघर्ष भी दो प्रकार के होते है प्रत्यक्ष संघर्ष और अप्रत्यक्ष संघर्ष – प्रत्यक्ष संघर्ष में लोग आमने – सामने के सम्बन्धों द्वारा एक – दूसरे को शारीरिक अथवा मानसिक क्षति पहुँचाते हैं । मार – पीट , दंगा – फसाद , लूट – पाट , लड़ाई – झगड़ा इत्यादि प्रत्यक्ष संघर्ष के उदाहरण हैं । इस तरह की घटनाओं में यह देखते हैं कि लोग प्रत्यक्ष सम्बन्ध द्वारा एक – दूसरे को हानि पहुँचाते है । अप्रत्यक्ष संघर्ष में व्यक्ति अपने स्वार्थों व हितों के लिए दूसरे को हानि पहुँचाता है । अप्रत्यक्ष संघर्ष में लोगों के बीच आमने – सामने का सम्बन्ध नहीं होता । प्रतिस्पर्धा अप्रत्यक्ष संघर्ष का सर्वोत्तम उदाहरण है । इसमें व्यक्ति या समूह अप्रत्यक्ष रूप से दूसरे के रास्ते में बाधा उत्पन्न करता है और अपना उद्देश्य पूरा करना चाहता है । ‘ शीत युद्ध ‘ भी अच्छा उदाहरण है , जो विभिन्न देशों के बीच होता है । प्रत्यक्ष सहयोग की तरह प्रत्यक्ष संघर्ष सरल , लघु एवं आदिम समाज में अधिक पाया जाता था । जटिल , वृहत् एवं आधुनिक समाज में अप्रत्यक्ष संघर्ष का महत्व हो गया है । लेकिन इस समय प्रत्यक्ष संघर्ष भी समाज में वर्तमान है । दुनिया का ऐसा कोई समाज नहीं है जहाँ संघर्ष नहीं पाया जाता है । जिस प्रकार समानता और असमानता एक – दूसरे के पूरक है उसी प्रकार सहयोग और संघर्ष भी एक – टसरे के परक है । एक ओर सहयोग मिल – जुलकर कार्य करना सिखाता है तो दूसरी ओर संघर्ष , शोषण और अन्याय को समाप्त करता है । सहयोग का जो रूप हमें आज देखने को मिल रहा है वह हजारों संघर्ष का परिणाम है । इसके सम्बन्ध में लिखा है ” समाज संघर्ष मिश्रित सहयोग है । ” ( Society is co – operation crossed huamnflict ) समाज में सहयोग की आवश्यकता है , इससे समाज में प्रगति होती है । किन्त संघर्ष आवश्यक होते हए भी समाज में विघटन का कारण बन सकता है । यह जरूरी नहीं है कि संघर्ष के द्वारा शोषण और अन्याय जो लप्त हो जायेगा । इन सारी बातों से स्पष्ट होता है कि सहयोग समाज में भाईचारा एवं आपसी सदभाव की भावना का विकास करता है जबकि संघर्ष शाषण , अन्याय व कुरीतियों को समाप्त करता है । अतः समाज में सहयोग और संघर्ष दोनों विशेषताएँ आवश्यक है , किन्तु सहयोग ज्यादा महत्त्वपूर्ण है ।
( 6 ) समाज केवल मनुष्यों तक ही सीमित नहीं है ( Society is not confined toMen only ) समाज सिर्फ मनष्य में ही नहीं पाया जाता । यह अन्य जीवों में भी देखने को मिलता है । मेकावर एवं पेज ने कहा है . जहाँ भी जीवन है , वहाँ समाज है । अथात् सभी जीव – जन्तुओं में समाज पाया जाता है । समाज के लिए । सामाजिक सम्बन्ध , पारस्परिक जागरूकता , समानता – असमानता , श्रम – विभाजन , सहयोग – संघर्ष , परस्पर निर्भरता का होना आवश्यक है । इन सब चीजों की व्यवस्था अन्य जीव – जन्तुओं में भी देखने को मिलती है । उदाहरणस्वरूप माक्खया , चीटियों , दीमकों इत्यादि में भी परस्पर सहयोग , श्रम – विभाजन , संघर्ष इत्यादि पाया जाता है । इससे यह स्पष्ट होता है कि समाज केवल मानवों तक ही सीमित नहीं है । लेकिन मनुष्यों के समाज में जो संगठन और व्यवस्था पायी जाती है , वह अन्य जीव – जन्तुओं के समाज में नहीं पायी जाती । भाषा के अभाव में जीव – जन्तु अपनी सभ्यता एवं संस्कृति का विकास नहीं कर पाते । मनुष्यों ने अपनी भाषा , अनुभव तथा विचार शक्ति के द्वारा सभ्यता एवं संस्कृति को विकसित किया है । इसी संस्कृति के कारण मानव का समाज अन्य जीवों के समाज स भिन्न एवं अनोखा है । समाजशास्त्र के अन्तर्गत सिर्फ मानव – समाज का ही अध्ययन किया जाता है । इसका कारण यह है कि मानव – समाज पूर्ण एवं व्यवस्थित है । इसकी अपनी एक संस्कृति है , जिससे वह विकास के उच्च शिखर पर है ।
( 7 ) परिवर्तनशीलता ( Changeability ) परिवर्तन प्रकृति का नियम है । समाज प्रकृति का एक अंग है अत : समाज में भी परिवर्तन होता है । दुनिया का ऐसा कोई समाज नहीं है जहाँ परिवर्तन नहीं होता है । समाज आदिम हो या आधुनिक , सरल हो या जटिल , ग्रामीण हो या नगरीय परिवर्तन अवश्यभ्यावी है । भले ही इसके परिवर्तन की दर में कमी या वृद्धि का गुण पाया जाता हो पर परिवर्तन अवश्य होता रहता है । मेकाइवर ने कहा है समाज सामाजिक सम्बन्धों का जाल है । अनेक कारणों से सामाजिक सम्बन्धों में परिवर्तन होते रहते हैं । फलस्वरूप समाज में भी परिवर्तन हो जाता है । समय और परिस्थिति के अनुसार हमारी आवश्यकताएँ बदलती रहती है । इससे आवश्यकता पूर्ति के सम्बन्ध भी बदल जाते है । जब समाज में नये विचार और नये दृष्टिकोण का विकास होता है तब इसका प्रभाव समाज के आदर्श एवं मूल्यों पर भी पड़ता है । जिस प्रकार का समाज आदिकाल में पाया जाता था वैसा आज का समाज नहीं है । औद्योगीकरण एवं नगरीकरण के कारण समाज में अत्यधिक परिवर्तन हो गए हैं । इन सारी बातों से स्पष्ट होता है कि विभिन्न कारणों से सामाजिक सम्बन्धों में परिवर्तन होते हैं फलत : समाज में परिवर्तन हो जाता है । प्राचीन भारत और नवीन भारतीय समाज में अनेक परिवर्तन देखने को मिलते हैं । जाति – प्रथा का जो रूप पहले था वह अब नहीं रहा । पहले शिक्षक और विद्यार्थी का जो सम्बन्ध था वह नहीं रहा । अन्य क्षेत्रों में भी कई तरह के भेद – भाव थे जो अब नहीं है । इसी प्रकार दुनिया के हर समाज में परिवर्तन होता रहा है । अत : हम कह सकते हैं कि समाज परिवर्तनशील है ।
समाज के प्रकार एवं उदाहरण ( Types and Examples of Society )
समाजशास्त्र समाज का अध्ययन करता है । समाज समजिक सम्बन्धों की परिवर्तनशीलता एवं जटिल व्यवस्था को कहते हैं । समाज को अच्छी तरह समझने के लिए समाज का अर्थ , उसकी परिभाषा , उसके आधार एवं उसकी विशेषताओं को स्पष्ट किया गया । यहाँ समाज के कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये जा रहे हैं ताकि उसे अधिक सरलता से समझा जा सके विभिन्न समाजशास्त्रियों ने अपने – अपने दृष्टिकोण के आधार पर समाज के प्रकारों की चर्चा की है । उदाहरण के लिए . दुर्खेम के अनुसार , यान्त्रिक एकता तथा सावयविक एकता ( Mechanical Solidarity and Organic Solidarity ) , टॉनीज के अनुसार , गेमेनशाक्ट तथा गेसेलशास्ट ( Gemeinschaft and Gesellschaft ) इत्यादि समाज के सम्बन्ध में जितने भी उदाहरण दिये गये हैं असक्के आधार पर तीन तरह के समाज की चर्चा यहाँ की जाएगी
आदिम समाज – आदिम समाज को आदिवासी समाज व्या जनजाति समाज कहकर भी सम्बोधित किया जाता है । ‘ आदिम समाज से तात्पर्य ऐसे समाज से है जिसकी जनसंख्या कम हो त्या वे कुछ खासक छोटे क्षेत्र में रहते हो । उनका सामाजिक सम्पर्क भी संकुचित होता है । प्रगतिशील एवं प्रौद्योगिक समाज की तुलना में उनकी अर्थ व्यवस्था सरल होती है । उनके बीच क्रम – विभाजन त्या विशेषीकरण भी बहुत ही सरल होता है । उम्र , आयु तथा लिंग के आधार पर कार्य का बँटवारा पाया जाता है । आदिम समाज की संस्कृति पृथक् एवं अपने आप में सम्पूर्ण होती है । उनमें साहित्य व्यवस्थित कला एवं विज्ञान का अभाव पाया जाता है । इनकी राजनीतिक व्यवस्था भी पृथक् होती है । सामान्य तौर पर ऐसे समाज बने जंगलो के बीच पहाडी इलाकों तथा पठारों में पाये जाते हैं । जैसे – संथाल , टोडा , मुंडा तथा उसाँव इत्यादि – अटिम समाज में लोगों के बीच प्राथमिक सम्बन्ध होते हैं । वे पारस्परिक एकता ‘ एवं हम की भावना अधार पर एक – दूसरे से जुड़े होते हैं । अपनी हर आवश्यकता की पूर्ति अपने समाज के अन्तर्गत ही करते हैं । मे टो सम्पर्क रखते हैं और न ही सम्पर्क रखना पसन्द करते हैं ।
इस आधार पर यह समाज हस्तान्तरण मौखिक आधार पर करते हैं । इस प्रकार यह स्म है , जो उनके बीच पृथक सामाजिक सम्बन्ध एवं सामा अन्य समाज से अलग विशेषता रखता है ।
( ii ) सरल व परम्परागत समाज – सरल या परम्परा सम्बोधित किया जाता है । ऐसे समाज शहर से दूर तथा ग्रामा एवं आध्यात्मिकता का विशेष महत्त्व होता है । वे भाग्यवादा तथा कार्य ( status and role ) जाति , जन्म एवं उम से निर्धारित होते हैं । ज – सरल या परम्परागत समाज को ग्रामीण तथा कृषक समाज कहकर भा । आज शहर से दूर तथा ग्रामीण क्षेत्रों में बसे होते है । इनके जीवन में धर्म , परम्परासमाज के प्रकार सरल समाज में लोगों के बीच आमने – सामने का सम्बन्ध होता हा उनम भावनात्मक एकता भी पायी जाती है । आपस में परस्पर सहयोग ( i ) आदिम समाज का भावना होती है । वे एक – दसरे के द : ख एवं सुख से अवगत हात ह । अर्थात् उनके बीच प्राथमिक सम्बन्ध पाया जाता है । धर्म , प्रथा , परम्परा एवं नैतिकता आदि के आधार पर व्यक्तियों के व्यवहार नियन्वित होते ( Simple or Traditional है । आपस में संघर्ष कम पाया जाता है । विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी ( Science Society ) and Technology ) का विकास नहीं हुआ रहता है । श्रम – विभाजन तथा विशेषीकरण का रूप भी काफी सरल होता है । सरल समाज की अर्थव्यवस्था समाज कृषि – प्रधान होती है । लोगों का मख्य पेशा कृषि एवं उससे सरल समाज में सामाजिक गतिशीलता एवं सामाजिक परिवर्तन की दर काफी धीमी होती है । ऐसे समाज में व्यक्तिगत योग्यता , धन , शिक्षा तथा व्यवसाय का विशेष महत्त्व नहीं होता । स्त्रियों की स्थिति भी काफी निम्न होती है । आदिम समाज की तुलना में सरल समाज अपेक्षाकृत बड़ा होता है । इस समाज की विशेषताएँ सरल होती हैं जिसके कारण यह आदिम तथा आधुनिक समाज से निम्न होता है ।
( iii ) जटिल व आधुनिक समाज – जटिल या आधुनिक समाज , आदिम और सरल समाज की अपेक्षा काफी वृहत् और व्यापक होता है । ऐसे समाज में प्रत्येक सहयोग और सम्बन्ध के पीछे कोई – न – कोई स्वार्थ छिपा रहता है । लोगों के बीच द्वितीयक सम्बन्ध पाया जाता है । सब लोग अपने हित और स्वार्थ की बात सोचते हैं । लोगों में ‘ हम की भावना ‘ का अभाव पाया जाता है । विभिन्न लोगों एवं समूहों के बीच संघर्ष एवं प्रतियोगिता की भावना निहित होती है । ऐसे समाज में लोगों के उद्देश्य एवं रुचियों में काफी असमानता पायी जाती है । जटिल समाज में विज्ञान ( Science ) , प्रौद्योगिकी ( Technology ) , अर्थव्यवस्था तथा राजनीतिक संगठन काफी विकसित होते हैं । श्रम – विभाजन तथा विशेषीकरण काफी पाये जाते है । ऐसे समाज में लोगों की जनसंख्या तथा उनके सामाजिक सम्पर्क भी विस्तृत होते है । समाज की संरचना तथा उसके प्रकार्य काफी जटिल होते हैं । ऐसे समाज में धर्म , परम्परा , नैतिकता आदि का विशेष महत्त्व नहीं होता । ऐसी स्थिति में साहित्य , व्यवस्थित कला तथा तर्क का महत्त्व बढ़ जाता है । जटिल समाज में नित नई – नई संस्थाओं , धन्धों एवं मशीनों का निर्माण होता है । इससे सम्बन्धित व्यक्तियों के कार्य बँटे होते हैं तथा अपने आप में सीमित होते हैं । लेकिन इस विभिन्नता में एकता पायी जाती है । ऐसे समाज में लोगों की आवश्यकताएँ इतनी अधिक होती हैं कि उनकी पूर्ति कोई भी व्यक्ति अकेला नहीं कर सकता । सभी को एक – दूसरे पर निर्भर व आश्रित होना पड़ता है । किन्तु ये सम्बन्ध कार्य के सम्पादन तक ही सीमित रहते हैं । जटिल या आधुनिक समाज शहर प्रधान होता है । यहाँ तरह – तरह के उद्योगों का विकास होता रहता है । इस समाज में लोगों की स्थिति व्यक्तिगत योग्यता , शिक्षा , धन तथा व्यवसाय से निर्धारित होती है । लोग तरह – तरह के व्यवसाय में लगे होते हैं तथा विशेषीकरण भी काफी होता है । इनके बीच औपचारिक सम्बन्ध होते हैं । ऐसे समाज में लोगों के व्यवहार पर कानून , पुलिस तथा न्यायालय के द्वारा नियन्त्रण लगाये जाते हैं । जटिल समाज में सामाजिक गतिशीलता और सामाजिक परिवर्तन की दर काफी तेज होती है
सेंट साइमन , तीन प्रकार के समाज का वर्णन करते हैः
( क ) सैनिक समाज ( Militant Society ) ,
( ख ) कानून समाज ( Legal Society ) , तथा
( ग ) औद्योगिक समाज ( Industrial Society )
ऑगस्ट कॉम्ट तीन प्रकार के समाज का उल्लेख करते हैः
( क ) धार्मिक समाज ( Theological Society ) ,
( ख ) तात्विक समाज ( Metaphysical Society ) , तथा
( ग ) प्रत्यक्षवादी समाज ( Positivistic Society
(i) आदिम धर्म के अध्ययन में टायलर का योगदान
हालांकि टायलर ने पूरे क्षेत्र को गले लगा लिया
मानवशास्त्रीय जांच, उनका सबसे व्यापक उपचार आदिम धर्म के क्षेत्र में था। उन्होंने धर्म को इतने सरल तरीके से परिभाषित करना शुरू किया कि इसके सभी रूपों को शामिल किया जा सके, जैसे कि “आध्यात्मिक प्राणियों में विश्वास”। उन्होंने दृढ़ता से कहा कि धर्म एक सांस्कृतिक सार्वभौमिक था, क्योंकि कोई भी ज्ञात संस्कृति ऐसी मान्यताओं के बिना नहीं थी। उन्होंने इस बात की भी व्याख्या की कि आत्माओं में विश्वास कैसे उत्पन्न हो सकता है, लेकिन इस पर चर्चा करने से पहले मैं यहां सैद्धांतिक और व्यावहारिक धर्म का एक संक्षिप्त वर्गीकरण देना चाहूंगा, जो छात्रों के लिए आदिम धर्म को समझने में बहुत उपयोगी होगा। समग्रता।
A Van Gennep (1908) classified the religion in his book “Rites of Passage” in the following way: Theory (Religion)
Dynamism Animism
(monistic, impersonal etc.) (dualism, personal etc)
Totemism Spiritism Polydemonism Theism
(with intermediate stages) Technique (Magico-Religious)
Sympathetic Contagious Direct Indirect Positive Negative
(taboo)
SOCIOLOGY – SAMAJSHASTRA- 2022 https://studypoint24.com/sociology-samajshastra-2022
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