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संस्कृतिकरण के प्रमुख स्रोत एवं कारक

संस्कृतिकरण के प्रमुख स्रोत एवं कारक 

  1. जाति – व्यवस्था के अन्तर्गत न केवल विभिन्न जातियों को ही एक दूसरे से उच्च या निम्न माना जाता है , बल्कि व्यवसायों , भोजन , वस्त्र , आभूषण आदि में भी कुछ विशेष प्रकारों को उच्च तथा अन्य को निम्न समझा जाता है । संस्तरण की प्रणाली में उन जातियों को ऊँचा माना जाता है जो शाकाहारी भोजन करते हैं , शराब का प्रयोग नहीं करते , रक्त – बलि नहीं चढ़ाते तथा अपवित्रता लाने वाली वस्तुओं को सम्बंधित व्यवसाय या व्यापार नहीं करते । ऊँची जातियों की स्थिति संस्तरण की इस प्रणाली में ऊँची मानी जाती है , अतः अपनी स्थिति को उन्नत करने की इच्छुक जाति अपने से उच्च जाति और अंतिम रूप से ब्राह्मणी जीवन – पद्धति का अनुकरण करती है । प्रो ० श्रीनिवास ने बतलाया है कि निम्न जातियों में संस्कृतिकरण के प्रसार में वो रूढ़ितः स्वीकृत वैध मान्यताओं ने सहायता पहुँचाई है । प्रथम , अद्विज जातियों को कर्मकाण्डों को सम्पन्न करने की आज्ञा थी , परंतु इसको सम्पन्न करते समय वैदिक मंत्रों के उच्चारण की इन्हें स्वीकृति नहीं थी । इस प्रकार कर्मकाण्डों को उस अवसर पर बोले जाने वाले मंत्रों से अलग कर दिया गया । इसका परिणाम यह हुआ कि ब्राह्मणी कर्मकाण्ड सभी हिन्दुओं में और यहाँ तक कि अछूतों में फैल गये । द्वितीय , ब्राह्मण पुरोहित इन लोगों के यहाँ विवाह सम्पन्न करता है । अंतर केवल इतना है कि वह इस अवसर पर वैदिक मंत्रों का उच्चारण नहीं करके मंगालाप्टक स्रोत बोलता है जो वेदों के काल के बाद की संस्कृति रचनायें है । ये दो ऐसी रूढ़ितः स्वीकृत वैध मान्यताएँ हैं जिन्होंने अद्विज जातियों को अनेक कर्मकाण्डों को सम्पन्न करते में सहायता इन दो मान्यताओं के कारण सभी हिन्दुओं में , यहाँ तक कि अछूतों में भी संस्कृतिकरण का प्रसार हो सका । संस्कृतिकरण की प्रक्रिया के दौरान , अद्विज जातियों में ब्राह्मणी संस्थाओं एवं मूल्यों का भी प्रसार होता है । जब एक जातीय समूह का संस्कृतिकरण होता है तो वह किसी उच्च जाति अथ त् िप्रायः ब्राह्मण या किसी अन्य स्थानीय प्रभुत्व सम्पन्न जाति को कर लेता है । जब योगी का संस्कृतिकरण होता है , तब संस्कृत के धर्म – ग्रंथों में प्रयुक्त कुछ शब्दों जैसे पाप , पुण्य , धर्म , कर्म , माया और मोक्ष आदि का प्रयोग उनकी बातचीत में होने लगता है ।

  1. परम्परागत जाति – अवस्था के अंतर्गत कुछ मात्रा में समूह गतिशीलता संभव थी , अर्थात् समूहों की स्थिति में थोड़ा बहुत परिवर्तन हो जाया करता था । ऐसा इस तथ्य के साथ संभव था कि जातीय संस्तरण की प्रणाली के मध्य क्षेत्र में आने वालो जातियों को परस्पर स्थिति के संबंध में अस्पष्टता थी , दो छोरों पर स्थित ब्राह्मणों और अछूतों की स्थिति सामाजिक संस्तरण की प्रणाली में निश्चित थी लेकिन इनके मध्य जातियों में गतिशीलता पायी जाती थी , अंग्रेजों के काल में धन कमाने के अवसरों के बढ़ने से इस समूह की गतिशीलता में वृद्धि हुई , इस समय निम्न जातियों के लोगों को रुपया कमाने के अवसर प्राप्त हुए | काफी रुपया कमा लेने के बाद उन्होंने अपने लिए उच्च स्थिति का दावा किया और कुछ समूह इसे प्राप्त करने में सफल भी हुए ।

  1. प्रो ० श्रीनिवास के अनुसार , आर्थिक स्थिति में सुधार , राजनीतिक शक्ति की प्राप्ति , शिक्षा , नेतृत्व तथा संस्तरण की प्रणाली में ऊपर उठने की अभिलाषा आदि संस्कृतिकरण के लिए संगत कारक हैं । संस्कृतिकरण के प्रत्येक मामले में उपरोक्त सभी संगत अथवा इनमें से कुछ तत्व अलग – अलग मात्रा में निश्चित रूप में रहते हैं । संस्कृतिकरण द्वारा किसी समूह को अपने आप उच्च प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं हो जाती । इस समूह से स्पष्टतः वैश्य , क्षत्रिय अथवा ब्राह्मण वर्ण से सम्बन्धित होने का दावा प्रस्तुत करना पड़ता है । ऐसे समूह विशेष को अपने रीति – रिवाज , भोजन तथा जीवन – पद्धति को उचित मात्रा में बदलना पड़ता है । यदि उनके दावे में किसी प्रकार की कोई असंगतता अर्थात् कोई कमी हो तो उन्हें इसके लिए कोई उचित काल्पनिक कथा गढ़नी पड़ती है ताकि उनके दावे संबंधी असंगतता दूर की जा सके । इसके अलावा , एक जातीय समूह को जो संस्तरण की प्रणाली में अपनी स्थिति को ऊँचा उठाना चाहता है अनिश्चित काल तक अर्थात् एक या दो पीढ़ी तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है । एक या दो पीढ़ी के पश्चात् यह सम्भावना बनती है कि उच्च प्रस्थिति का दावा लोगों द्वारा स्वीकार कर लिया जाय । परंतु यह आवश्यक नहीं है कि संस्कृतिकरण का परिणाम सदैव संस्कृतिकरण जाति की उच्च प्रस्थिति के रूप में ही निकलेगा और यह बात अछूतों के उदाहरण द्वारा पूर्णतः स्पष्ट भी है । संस्कृतिकरण के बावजूद भी अछूतों की प्रस्थिति ऊँची नहीं हो पायी ।

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  1. जब किसी जाति या जाति के किसी एक भाग को लौकिक ( सेक्यूलर ) शक्ति प्राप्त हो जाती है तो वह साधारणतः उच्च प्रस्थिति के प्ररम्परागत प्रतीकों , रिवाजों , कर्मकाण्डों , विचारों , विश्वासों और जीवन पद्धति आदि को अपनाने का अर्थ यह भी था कि विभिन्न संस्कारों के सम्पादन के लिए ब्राह्मण पुरोहित की सेवाएँ प्राप्त करना , संस्कृतीय पंचाग के त्यौहारों को मानना , प्रसिद्ध तीर्थ स्थानों की यात्रा करना , तथा धर्म – शास्त्रों का अधिक ज्ञान प्राप्त करना , इस तरीके से संस्कृतिकरण की प्रक्रिया कुछ मात्रा में गतिशीलता को संभव बनाती थी । अनुलोम विवाह भी इस प्रकार की गतिशीलता के लिए उत्तरदायी है । एक जातीय समूह अपने से उच्च समझे जाने वाले समूहों में अपने को सम्मिलित करना चाहता था और अनुलोम विवाह ने इसके लिए

सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रियाएँ संस्थागत साधन प्रस्तुत किये । यहाँ इस बात पर जोर देना आवश्यक है कि परम्परागत काल में जाति की गतिशीलता के फलस्वरूप विशिष्ट जातियों अथवा उनकी प्रशाखाओं में केवल पदमूलक परिवर्तन हो हुए और इसमें कोई संरचनात्मक परिवर्तन नहीं हुए , अर्थात् अलग – अलग जातियाँ तो ऊपर उठी या नीचे गिरी , परंतु पूरी संरचना वैसी ही बनी रही ।

  1. संचार तथा यातायात के साधनों के विकास ने भी संस्कृतिकरण को देश के विभिन्न भागों तथा समूहों तक पहुँचा दिया है जो पहले पहुँच के बाहर थे , तथा साक्षरता प्रसार ने संस्कृतिकरण को उन समूहों तक पहुँचा दिया जो जातीय संस्तरण की प्रणाली में काफी निम्न थे ।

  1. नगर मन्दिर एवं तीर्थ स्थान संस्कृतिकरण के अन्य स्रोत रहे हैं । इस स्थानों पर एकत्रित लोगों में सांस्कृतिक विचारों एवं विश्वासों के प्रसार हेतु उचित अवसर उपलब्ध होते रहे हैं । भजन मण्डलियों , हरिकथा तथा साधु – संन्यासियों ने सस्कृतिकरण के प्रसार में काफी योग दिया है । बड़े नगरों में प्रशिक्षित पुजारियों , संस्कृत स्कूलों तथा महाविद्यालयों , छापेखाने तथा धार्मिक संगठनों ने इस प्रक्रिया में योग दिया है ।

संस्कृतिकरण की अवधारणा : एक आलोचनात्मक दृष्टिकोण :

हम यहाँ संस्कृतिकरण की अवधारणा की कुछ कमियों पर विचार करेंगे जो इस प्रकार हैं

  1. प्रो ० श्रीनिवास ने स्वयं स्वीकार किया है कि संस्कृतिकरण एक काफी जटिल और विषम अवधारणा है । यह भी संभव है कि इसे एक अवधारणा मानने के बजाय अनेक अवधारणाओं का योग मानना अधिक लाभप्रद रहे । इनका मत है कि जैसे ही यहा पता चले कि संस्कृतिकरण शब्द विश्लेषण में सहायता पहुँचाने के बजाय बाधक है । उसे निस्संकोच और तुरंत छोड़ दिया जाना चाहिए ।

  1. प्रो ० श्रीनिवास ने संस्कृतिकरण की अवधारणा के संबंध में कुछ परस्पर विरोधी बातें बतलाई हैं एवं लिखा है , ” किसी समूह , आर्थिक उन्नयन के बिना भी संस्कृतिकरण हो सकता है ” । एक स्थान पर उन्होंने लिखा है , आर्थिक उन्नयन , राजनीतिक शक्ति का संचयन , शिक्षा , नेतृत्व तथा संस्तरण की प्रणाली में ऊपर उठने की अभिलाषा आदि संस्कृतिकरण के लिए उपयुक्त कारक हैं । ” अन्यत्र लिखा है , ” संस्कृतिकरण के परिणामस्वरूप स्वतः ही किसी समूह को उच्च प्रस्थिति प्राप्त नहीं हो जाती हैं , जातियों के निरंतर संस्कृतिकरण एवं संरचनात्मक परिवर्तन हो जायें ” । प्रो ० श्रीनिवास वे अन्यत्र लिखा है , ” किसी अछूत समूह चाहे कितना ही संस्कृतिकरण क्यों न हो जाये वह अस्पृश्यता की बाधा को पार करने में असमर्थ रहेगा । ” उपयुक्त कथनों से स्पष्ट है कि संस्कृतिकरण की अवधारणा में अनेक असंगतताएँ पायी जाती हैं , परस्पर विरोधी बातें देखने को मिलती हैं ।

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  1. प्रो ० श्रीनिवास मानते हैं कि संस्कृतिकरण की प्रक्रिया के द्वारा लम्बवत् सामाजिक गतिशीलता संभव है , इस प्रक्रिया के द्वारा एक निम्न जाति एक या दो पीढ़ी में शाकाहारी बनकर , मद्यपान का त्याग कर तथा अपने कर्मकाण्ड और देवगण का संस्कृतिकरण कर जातीय संस्तरण की प्रणाली में अपनी स्थिति को ऊँचा उठाने में समर्थ हो जाती है , परंतु यह संदेहजनक है कि क्या वास्तव में ऐसा होता है । इस संबंध में डॉ ० डी ० एन मजूमदार ने लिखा है कि सैद्धांतिक और केवल सैद्धांतिक रूप में ही ऐसी स्थिति की कल्पना की जा सकती है , जब हम विशिष्ट मामलों पर ध्यान देते हैं तो जाति गतिशीलता संबंधी हमारा ज्ञान और अनुभव रेग्सी सैद्धांतिक मान्यता की दृष्टि से सही नहीं उतरता । चमार अपनी मूल सामाजिक स्थिति में अवश्य कुछ आगे बढ़ पाये हैं : चाहे वे सम्प्रदाय के रूप में संगठित हो गये हों , चाहे उन्होंने शराब पीना , विधवा – विवाह , विवाह – विच्छेद यहाँ तक कि माँस खाना भी बंद क्यों न कर दिया हो , लेकिन

नया सामाजिक संस्तरण की प्रणाली में लम्बवत् ऊपर उठने का कोई एक भी उदाहरण है ? चमारों का फैलाव क्षैतिक प्रकार का है , और यही बात अन्य निम्न जातियों के संबंध में भी सही है । निम्न जातियाँ जाति गतिशीलता को एक क्षैतिज गति ( संचलन ) के रूप में देखती है , जबकि ब्राह्मणों और अन्य उच्च जातियों ने ऐसी गतिशीलता को एक आरोहण अर्थात् ऊपर की ओर चढ़ने के रूप में माना है । जाति गतिशीलता के संबंध में जो कुछ तथ्य प्राप्त हो गये हैं वे लंबवत् गतिशीलता को नहीं बल्कि क्षैतिज गतिशीलता को व्यक्त करते हैं । डॉ ० मजूमदार के इन तथ्यपूर्ण अवलोकनों एवं विचारों से स्पष्ट है कि संस्कृतिकरण की प्रक्रिया के माध्यम से कोई निम्न जाति लम्बवत् रूप से ऊपर नहीं उठ जाती , उच्च जातियों के समान नहीं बन जाती , बल्कि अपने ही समान की अन्य जातियो से अथवा अपनी ही जाति की विभिन्न प्रशाखाओं में वह ऊपर उठ जाती है ।

  1. डा ० योगेन्द्र सिंह संस्कृतिकरण को सांस्कृतिक और सामाजिक , गतिशीलता की एक प्रक्रिया मानते हैं । संस्कृतिकरण सापेक्ष रूप से हिन्दू सामाजिक व्यवस्था के इन कालों में सांस्कृतिक और सामाजिक गतिशीलता की एक प्रक्रिया है । यह सामाजिक परिवर्तन का एक अन्तरजात स्रोत है । एक सामाजिक मनोवैज्ञानिक दृष्टि से संस्कृतिकरण भविष्य में अपनी स्थिति में सुधार लाने की आशा में किसी उच्च समूह की संस्कृति की ओर अग्रिम समाजीकरण के लिए सार्वभौमिक प्रेरणा का एक सांस्कृतिक विशिष्ट मामला है

  1. बी ० कुप्पूस्वामी संस्कृतिकरण के संदर्भ समूह ‘ प्रक्रिया को संचालन का एक उदाहरण मानते हैं , लेकिन भारतीय समाज में संदर्भ समूह की सदस्यता प्राप्त करना इस कारण असम्भव है कि यहाँ जन्म पर आधारित जाति – व्यवस्था पायी जाती है । ऐसी बन्द अवस्था वाले समाज में व्यक्ति के लिये अपने जातीय समूह को बदलकर किसी अन्य जातीय समूह की सदस्यता ग्रहण करना असम्भव है । एक सापेक्ष रूप में बंद सामाजिक संरचना में अग्रिम समाजीकरण व्यक्ति के लिए अपकार्यात्मक होगा क्योंकि वह जिस समूह का सदस्य बनने की आकांक्षा रखता है , गतिशीलता के अभाव में वह उसका सदस्य नहीं बन पाएगा । बी ० कुप्पूस्वामी से हम सहमत हैं जब वे यह कहते हैं कि कुछ संभव है , वह यही कि वर्ण के अन्तर्गत ही मामूली परिवर्तन हो पाता है । स्पष्ट है कि संस्कृतिकरण एक ऐसी प्रक्रिया नहीं है जिसके द्वारा हिन्दू समाज में संरचनात्मक परिवर्तन संभव हो सके ।

  1. प्रो ० श्रीनिवास स्वयं मानते हैं कि भूतकाल में अनेक प्रभुत्व – सम्पन्न जातियों ने संस्तरण की प्रणाली में राजकीय आदेश द्वारा या स्वतंत्र राजनीतिक शक्ति के संगठन द्वारा उच्च स्थितियाँ प्राप्त की हैं । के ० एम ० पनीकर मानते हैं कि ईसा के पांचवीं शताब्दी पूर्व , सभी तथाकथित क्षत्रिय निम्न जातियों के द्वारा सत्ता के अनाधिकार ग्रहण द्वारा अस्तित्व में आये और परिणामतः उन्होंने क्षत्रिय – भूमिका और सामाजिक स्थिति प्राप्त की । डा ० योगेन्द्र सिंह के अनुसार , यहाँ संस्कृतिकरण के प्रक्रिया , ‘ सत्ता के उत्थान और पतन द्वारा संघर्षों और युद्ध द्वारा और राजनीतिक दांव – पेच द्वारा प्रभुत्व सम्पन्न समूहों के भारतीय इतिहास में पद – प्राप्ति या प्रचलन को व्यक्त करती है । ये सब संरचनात्मक परिवर्तनों के उदाहरण हैं जिनका संस्कृतिकरण जैसी अवधारणा के द्वारा पूर्णतः पता नहीं चलता हैं । उपर्युक्त विवरण के स्पष्ट हैं कि सांस्कृतिक परिवर्तन की प्रक्रिया का वर्णन करने के लिये यह कोई बहुत उपयुक्त अवधारणा नहीं । इस संबंध में डॉ ० डी ० एन ० मजूमदार ने लिखा है कि सांस्कृतिक परिवर्तन की प्रक्रिया का वर्णन करने के लिए हमने जिस उपकरण का प्रयोग किया है , उससे हम प्रसन्न नहीं हैं । यही बात एफ ० जी ० बेली ने अपनी पुस्तक ” कास्ट एण्ड  दी इकोनोमिक फ्रंटियर ‘ में स्पष्ट की है । संस्कृतिकरण अवधारणाओं के एक पूंज को व्यक्त करता है और यह असंयत या ढीली अवधारणा है जो किसी विशेष गुण रहित है । श्री निवास द्वारा इस अवधारणा को दिया गया व्यापक विस्तार इसके उपयोग की न्यायसंगतता को असंभव बना देता है , विशेषतः लम्बवत् और क्षैतिज गतिशीलता के संदर्भ में है ।

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