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संदर्भ समूह की अवधारणा

 

 

संदर्भ समूह की अवधारणा

( Consept of Reference Group )

 

 

 सर्वप्रथम सन्र्दभ समूह की चर्चा हर्बर्ट हाईमन ( H . H . Hyman ) ने अपनी पुस्तक ‘ द साइक्लोजी आफ स्टेटस ( The Psychology of States ) में 1942 में दिया । इसके बाद शेरिफ , ऑटोवलाइनबर्ग , टी0 न्यूकोम्ब स्टाउफर तथा मर्टन ने अपने विचार व्यक्त किए । संदर्भ समूह के निर्माण के मुख्यत . दो आधार

 

1 आकांक्षा ( Aspires )

2 सापेक्षिक वंचना ( Relative Deprivation )

 

 हाइमन द्वारा इस अवधारणा का प्रयोग स्कूली बच्चों के अध्ययन के संदर्भ में दिया गया था । हाइमन द्वारा संदर्भ समूह की अवधारणा का उल्लेख मनोविज्ञान विषय में किया गया था जबकि समाजशास्त्र के क्षेत्र में लाने का श्रेय सर्वप्रथम राबर्ट किग्सले मर्टन को जाता है । संदर्भ समूह की अवधारणा हमारे लिए विशेष रूप से उपयोगी है क्योंकि इसका सम्बन्ध सदस्यों के मनोविज्ञान से होता है इस मानसिक आधार को समझने के लिए हमें इस विषय की कुछ गहराई में –

जाना पड़ेगा । इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए निम्न दो प्रकार के समूहों का उल्लेख किया जा सकता

 

1 सदस्यता समूह

 2 सन्दर्भ समूड

 

व्यक्ति जिस समूह का वास्तव में सदस्य होता है और जिस समूह को अपना मानकर उसके प्रकार्यो में सक्रिय भाग लेता है उसे सदस्यता समूह ( Membership Group ) कहते हैं । पर यह मनोवैज्ञानिक तौर पर अपना सम्बन्ध ऐसे समूह से भी बनाये रखता है । और उसके आदर्श नियमों ( Norms ) , मूल्यों आदि को अपने आचरण में सम्मिलित करता है जिसका वह वास्तविक रूप में सदस्य नहीं है । ऐसे समूहों को ही संदर्भ समूह ( Reference group ) कहते हैं । एक व्यक्ति का संदर्भ समूह इस समूह इस अर्थ में है कि इसी के संदर्भ में वह अपने आचरणों , विचारों तथा मनोवृत्तियों को काफी हद तक ढालता है । यापि वास्तव में वह इस समूह का सदस्य नहीं हैं । यह संदर्भ – समूह इस अर्थ में भी है कि इसी संदर्भ में हम व्यक्ति के व्यवहार , मनोवृत्ति , विचार , मूल्य , आदर्श आदि का यथार्थ तथा व्यवहारिक ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं । यह संदर्भ समूट की कुछ परिभाषाओं से और भी स्पष्ट हो जाता है ।

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संदर्भ समूह का अर्थ एवं परिभाषा

( Meaning and Definition of Reference Group )

 

संदर्भ समूह की अवधारणा मुख्यतः इस तथ्य की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करती है कि मानव व्यवहार तथा उसके व्यक्तित्व के विकास में प्रायः कुछ गैर सदस्यता समूह की महत्वपूर्ण भूमिका होती है । जिसे हाइमन ने संदर्भ समूह कहा है । इन्हें संदर्भ समूह इसलिए कहा जाता है कि समूह किसी व्यक्ति कि समक्ष ऐसा सन्दर्भ प्रस्तुत करते हैं जिनके आधार पर वह व्यक्ति न सिर्फ अपना एवं अपनी स्थिति का भी मूल्यांकन करता है बल्कि दूसरों की हैसियत का भी मूल्यांकन करता है । वास्तव में संदर्भ समूह व्यक्ति की उच्च आकांक्षा का परिणाम होता है । उदाहरण के तौर पर यदि कोई विद्यार्थी आइ0 ए0 एस0 ( I . A . S . ) की तैयारी करता है तथा आई0 ए0 एस0 ( I . A . S . ) बनना चाहता है वैसी ही स्थिति में आइ0 ए0 एस0 ( 1 . A . S . ) उसका संर्दभ समूह होता है क्योंकि वह उसी समूह में समिल होना चाहता है । अधिकांश व्यक्ति अपने व्यवहार को ढालने , विश्लेषण करने में स्वयं को समूह से बाहर दूसरे समूहों के संदर्भ में अभिप्रेरित करते हैं संदर्भ समूह की अवधारणा की समस्या इन्हीं दूसरे समूहों जिनका वह स्वयं सदस्य नहीं हैं की ओर अभिप्ररित करने की समस्याओं के चारों ओर केन्द्रित हैं ।

 

 वास्तव में संदर्भ समूह के सामान्य सिद्धान्त के अर्न्तगत सदस्यता समूह ( membership Group ) या असदस्यता समूह ( Non – membership Group ) दोनों ही प्रकार की अभिप्रेणाओं का विवरण होना चाहिए पर यहाँ पर इस प्रत्यय का प्रमुख विषय उन प्रक्रियाओं को ढूढ़ निकालना है जिनके द्वारा व्यक्ति उन समूहों का सदस्य बनने की चेष्टा करता है जिनका कि वह वर्तमान में सदस्य नहीं है सामान्यतः संदर्भ समूह के सिद्धान्तों का उद्देश्य स्वयं की प्रशंसा व मूल्यांकन को उन प्रक्रियाओं के निर्धारित तत्वों व परिणामों के आधारों के रूप में व्यवस्थित करना है । जिनके द्वारा व्यक्ति दूसरे व्यक्तियों और समूहों के मूल्यों व स्थापित मानको को तुलनात्मक संदर्भ के रूप में ग्रहण करता है । अतः यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि संदर्भ समूह का सिद्धान्त यह विचार है कि व्यक्ति के विचार , भावनायें और दृष्टिकोण उन समूहों के द्वारा निर्धारित होते हैं । जिनमें कि व्यक्ति भाग लेते हैं । शैरिफ एवं शैरिफ के अनुसार संदर्भ समूह वै समूह हैं जिनसे व्यक्ति अपने को समूह के अंग के रूप सम्बन्धित करता है । अथवा मनोवैज्ञानिक रूप से सम्बन्धित होने की आकांक्षा करता है । प्रतिदिन की बोलचाल में संदर्भ की बोलचाल में संदर्भ – समूह वह समूह है , जिनके साथ व्यक्ति अपना समीकरण ( Identity ) करता है या समीकरण ( Identity ) करने की आकांक्षा रखता है । इस प्रकार शेरिफ ने संदर्भ समूह के बारे में दो बातें कही हैं –

 1 सदस्यता समूह के व्यक्ति का अत्म समूह से संबंध स्थापित करना ।

 2 अन्य समूह से संबंध स्थापित करने की आकांक्षा रखना ।

 

शेरिफ के अनुसार संदर्भ समूह एक मानसिक स्थिति है जिसमें किसी भी समूह के सदस्य किसी दूसरे समूह से जिसे वे श्रेष्ठ समझते हैं । अपना मानसिक संबंध जोड़ते हैं एवंस्वयं का उस अन्य समूह से मूल्यांकन करते हैं ।

 

संदर्भ समूह के अध्ययन तत्व ( Essential Elements of Reference Group )

 

 विभिन्न विद्वानों के विचारों तथा विभिन्न परिभाषाओं से यह स्पष्ट होता है कि संदर्भ समूह के निम्नलिखित आवश्यक तत्व हैं जिसके द्वारा कोई की व्यक्ति संदर्भ समूह के अपने को जोड़ता है तथा किसी समूह को अपना संदर्भ समूह मानता है :

1 समाज के अनेक सदस्य एक ही समूह से अपने को सम्बन्धित मान सकते हैं । एवं एक ही समाज में अनेक संदर्भ – समूह भी हो सकते हैं । अर्थात अलग – अलग व्यक्तियों के लिए अलग – अलग संदर्भ समूह भी हो सकते हैं और अनेक व्यक्तियों के लिए एक संदर्भ समूह भी हो सकता है ।

 2 सदर्भ समूह की उत्पत्ति व्यक्ति की उन उच्च अभिलाषाओं का परिणाम होती है जिनके प्रभाव में आकर व्यक्ति यह चाहता है कि वह अपने का एक ऐसे समूह से सम्बन्धित कर ले अथवा मान ले जिसकी कि समाज में प्रतिष्ठा है इसलिए शैरिफ एवं शैरिफ ने यह मत व्यक्त किया है कि संदर्भ समूह का एक मनोवैज्ञानिक आधार अवश्य होता है क्योंकि व्यक्ति में जब तक मनोवैज्ञानिक तौर पर किसी समूह से अपने को सम्बन्धित करने अथवा मानने की अभिलाषा उत्पन्न नहीं होती तब तक संदर्भ समूह के पनपने का प्रश्न ही नहीं उठता ।

3 सामाजिक दृष्टि से किसी व्यक्ति का संदर्भ – समूह उसके अपने समूह से ऊची स्थिति का होता है क्योंकि प्रत्येक मनुष्य में यह स्वाभाविक अभिलाषा होती है कि वह अपने को उस स्थिति वातावरण  व प्रतिष्ठा से ऊंचा उठाये जिसमें कि वह वास्तव में निवास कर रहा है । इसीलिए वह अपने समूह से किसी ऊचे समूह में प्रवेश पाना चाहता है और उसी को अपना संदर्भ – समूह मानता है ।

4 संदर्भ समूह का अस्तित्व उस व्यक्ति के दृष्टिकोण पर निर्भर करता है जिसे वह आदर्श मानता है । इसलिए जो समूह एक व्यक्ति के लिए आदर्श है वही समूह दूसरे व्यक्ति के लिए आदर्श नहीं भी हो सकता है एक व्यक्ति के लिए कौन – सा समूह संदर्भ – समूह होगा यह इस बात पर निर्भर करता है कि व्यक्ति किस समुह कि मूल्यों आदर्शों तथा व्यवहारों को अपनाने के लिए इच्छुक है वास्तव में व्यक्ति अपने जीवन के लिए ऐसे लक्ष्यों को निश्चित करता है जो अपने समूह से बाहर किसी अन्य समय में ही पूरे हो सकते हैं ।

5 व्यक्ति के लिए एक समूह विशेष हमेशा उसका संदर्भ – समूह बना नहीं रहता अर्थात एक व्यक्ति आज जिस समूह का अपना संदर्भ समूह मानता है भविष्य में भी उसी को संदर्भ – समूह मानता रहेगा । ऐसी बात नही है अलग अलग समय परिस्थिति स्थान मनोविज्ञानिक व बौद्धिक स्थिति के अनुसार एक व्यक्ति एक संदर्भ समूह को त्यागकर दूसरे संदर्भ समूह को स्वीकार कर सकता है । इस प्रकार संदर्भ समूह व्यक्ति , स्थिति , स्थान आदि से सम्बन्धित एक सापेक्ष ( Relative ) समूह

 6 प्रत्येक संदर्भ – समूह समाज की दृष्टि से भी एक आदर्श समूह होगा ऐसी बात नहीं है वह समूह तो केवल उस व्यक्ति के लिए आदर्श होता है जो कि उसे अपना संदर्भ समूह मानता है ।

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 संदर्भ समूहों के प्रकायत्मिक प्रकार

( Functional  Type Of Reference Group )

 

 संदर्भ समूह एक ऐसा संदर्भ प्रस्तुत करते हैं जिसके द्वारा व्यक्ति स्वयं का मूल्यांकन करता है और अपनी आदतों का निर्माण करता है । अतः संदर्भ व्यवहार के अध्ययन के एक भाग के रूप में उन प्रक्रियाओं का व्यवस्थित अध्ययन किया जाना चाहिये जिनके द्वारा एक व्यक्ति दूसरे समूह के मूल्यों को आत्मसात करता है । अर्थात मनोवृत्तियों में निर्माण व मूल्यांकन को संदर्भ – समूह के अध्ययनों के अन्तगर्त स्थान मिलना चाहिए ।

 संदर्भ समूहों के दो प्रमुख प्रकार मर्टन ने अपनी पुस्तक में दिये हैं ।

 प्रथम आदर्शात्मक प्रकार ( Normal Type ) है जो व्यक्ति के लिए स्टैण्डर्स आदर्श प्रतिमानों को निर्धारित करते हैं जो व्यक्ति के लिए स्टैण्डर्स आदर्श प्रतिमानों को निर्धारित करते हैं और द्वितीय तुलनात्मक प्रकार ( Comparision Type ) है जो एक तुलनात्मक संदर्भ प्रस्तुत करता है । ये दोनों प्रकार विश्लेषणात्मक दृष्टि से ही भिन्न किए जा सकते हैं क्योंकि एक ही संदर्भ समूह दोनों प्रकार के कार्यों को सम्पन्न कर सकता है । इन दोनों ही संदर्भ समूहों के प्रकारों से भिन्न एक संदर्भ समूह का उल्लेख टरनर ( Turner ) ने किया है जिसके सदस्य केवल उन परिस्थितियों का निर्धारण करते हैं जिनमें उन्हें कार्य करना होता है इनको टरनर ने अन्तः क्रिया समूहों ( Interection Group ) की संज्ञा ही है । जो कि व्यक्ति के सामाजिक पर्यावरण में केवल एक भाग होते हैं जिनका अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के संदर्भ में उसे ध्यान में रखना होता है लेकिन उसकी कोई तुलनात्मक या आदर्शात्मक दृष्टिकोण से महत्व नहीं होती ।

 

 संदर्भ – समूह व्यवहार ( Reference – Group Behaviour )

 

अपने संदर्भ समूह के अनुरूप व्यक्ति अपने व्यवहार को किस ढग से ढालता है इस संबन्ध में विभिन्न विद्वानों में अपने विचारों को अलग अलग रूप में प्रस्तत किया है । यहाँ कछ विद्वानों के विचारा का उल्लेख निम्नवत् है ।

 

 हाईमैन के विचार ( Views Of Hymain )

 

 हाइमैन ने संदर्भ – समूहों का सर्वप्रथम प्रयोग किया और कहा कि व्यक्ति के व्यवहार प्रतिमान ( Behaviour Pattern ) तथा उसकी प्रस्थिति ( Status ) से सम्बन्धित किसी भी विवेचना में हमारे लिए इतना ही जान लेना पर्याप्त नहीं है कि वह किसी समूहका सदस्य है और उस समूह में उस व्यक्ति की वास्तविक स्थिति क्या है अपितु हमारे लिए इस बात का भी ज्ञान होना आवश्यक है कि वह व्यक्ति मनोवैज्ञानिक तौर पर किस

समूह से संबन्ध है और अपनी बराबरी वह किस समूह के साथ करता है । यह समूह व्यक्ति की मनोवृत्तियों को नहीं अपितु उसकी स्थिति का आचरण के निर्धारण में भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है । वास्तव में संदर्भ समूह व्यक्ति के लिए आदर्श समूह होता है । और इसीलिए व्यक्ति उसी प्रकार का होना चाहता है जैसा कि संदर्भ – समूह के वास्तविक सदस्यगण हैं यही कारण है कि व्यक्ति उन्हीं के अनुरूप अपने को ढालने का प्रयत्न करता है व उसी रूप में अपनी स्थिति को काल्पनिक या वास्तविक तौर पर बनाये रखता है ।

 

 शैरिफ तथा शैरिफ के विचार Views of Sheriff And Sheriff )

 

संदर्भ – समूह व्यवहार को समझाते हुए शैरिफ एंड शैरिफ ने लिखा है कि जब एक व्यक्ति की प्रेरणायें ( Motivation ) दूसरे व्यक्तियों के समान होती हैं और वह उस समूह संरचना ( Group Stucture ) जिसका कि वह एक अभिन्न अंग है का निर्माण करने के लिए अन्य लोगों के साथ अन्तः क्रिया करता है तो उस अवस्था में वह उस समूह के मूल्यों आदर्श – नियमों ( Norms ) , विचारधाराओं आदि को भी अपना लेता है क्योंकि वह समूह उसका अपना समूह होता है और उस समूह के विचार , आदर्श , मूल्य आदि उसके अपने विचार आदर्श व मूल्य बन जाते है अर्थात अपने समूह के विचार , आदर्श , मूल्य तथा व्यवहार के साथ व्यक्ति का अपना एक नया समीकरण स्थापित कर लेता है प्रत्येक व्यक्ति का अपना एक समह होता है । जिसका वह वास्तविक सदस्य होता है और इस नाते उस समूह के साथ उसका इतना अपमान हो जाता है कि वह उस समूह के मूल्य , आदर्श , नियम आदि को अपने ही मूल्य व आदर्श नियम मान लेता है उसे इस बात का गर्व होता है कि वह उस समूह का सदस्य है और वह उसका एक अभिन्न अंग है । इसलिए अपने प्रत्येक व्यवहार में व्यक्ति अपने सामने समूह के आदर्श को ही आदर्श मानकर क्रियाशील होता है क्योंकि उस समूह के आदर्श – नियम , मूल्य , व्यवहार प्रतिमान आदि उसके व्यक्तित्व की अमूल्य धरोहर बन जाते हैं अतः उसके अनुभव तथा व्यवहार समूह के आदर्श नियमों तथा मूल्यों के आधार पर ही करता है । वह अन्य समूहों के व्यक्तियों के व्यवहार का मूल्यांकन भी अपने समूह के मापदण्डों ( Standar ) द्वारा ही करता है । इसी दृष्टिकोण से वही समूह व्यक्ति का संदर्भ समूह होता है । जो उसका अपना आदर्श समूह होता है । और जिसका वह स्वयं सदस्य होता है ।

 

आधुनिक जटिल समाजों में संदर्भ समूह केवल अपने समूह तक ही सीमित नहीं होता । जिसका कि व्यक्ति वास्तव में सदस्य होता क्योंकि व्यक्ति का आधनिक जीवन और व्यवहार ( अन्तः क्रियाओं ) का दायरा केवल अपने समूह तक ही सीमित नहीं है । इसलिए व्यक्ति का व्यवहार केवल उसी समूह द्वारा नियंत्रित व निर्देशित नहीं होता जिसका कि वह वास्तविक तौर पर सदस्य है । ऐसा भी हो सकता है कि उसके अनुभव विचार तथा व्यवहार एक से समूह द्वारा नियंमित व संचालित हो , जिसका वह वास्तव में नहीं है और उस समूह का न होते हुए भी वह अपने व्यवहार का उस समूह का वास्तविक सदस्यों के अनुरूप ढालने का प्रयत्न करता है । उदाहरणार्थ एक गरीब परिवार का लड़का अपने व्यवहार , आचरण , पोशाक तथा रूचि में एक धनी वर्ग के समरूप होना चाहता है और अपने को उसी के अनुसार दूसरे के सामने प्रस्तुत करता है । ऐसी अवस्था में उस लड़के के लिए वह धनी वर्ग ही संदर्भ – समूह है । क्योंकि उसी के विचार , आदर्श , मूल्य आदि के साथ वह अपना समीकरण करता है । अथवा करने की आकांक्षा रखता है । वास्तव में इसी प्रकार के समूहों का बोध करवाने के लिए संदर्भ समूह की अवधारणा का विकास हुआ है । इस अर्थ में संदर्भ – समूह वह समूह है जिसका कि व्यक्ति वास्तव में सदस्य नहीं भी हो सकता है पर जो व्यक्ति के व्यवहारों तथा अनुभवों के निर्धारण में बहुत ही महत्वपूर्ण कारण या शक्ति होते हैं । वास्तव में आधुनिक जटिल समाज में व्यक्ति का जीवन केवल उसके अपने परिवार , पड़ोस , वर्ग , जाति तक ही सीमित न रहकर बृहत्तर समाज के अन्य अनेक ऐसे समूहों से सम्बद्ध हो जाता है । जिसका कि वह वास्तव में सदस्य तो होता पर जिनके विचार आदर्श मूल्य आदि से वह निरन्तर प्रभावित होता रहता है । यह समूह ही उसका संदर्भ – समूह है ।

शैरिफ एवं शैरिफ ने इस सम्बन्ध में सदस्यता समूह ( Membership – Group ) तथा संदर्भ समूह ( Reference Group ) के बीच पाये जाने वाले प्रकार्यात्मक ( Functional ) अन्तर का भी उल्लेख किया है । सामान्य रूप से एकाधिक समूहों का वास्तविक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वास्तव में एकाधिक समूहों का वास्तविक सदस्य ( Actual – Member ) बनना ही पड़ता है । वह पुत्र के रूप में परिवार का वास्तविक सदस्य होता है तो विद्यार्थी के रूप में किसी स्कूल या कालेज का , खिलाड़ी के रूप में खेल के समूह का , तो मनोरंजन के लिए किसी क्लब का । इसी प्रकार वह किसी दफ्तर का , वर्ग का , पडौस का , आर्थिक संगठन का , राष्ट्र का और ऐसे ही अनेक समूहों का वास्तविक सदस्य होता है ।

ये सभी समूह उस व्यक्ति कि सदस्यता – समूह ( Membership – Group ) है । और इन समूहों के द्वारा ही व्यक्ति के व्यवहारों , मनोवृत्तियों , मूल्यों , आदशों आदि का अर्थात उसकी विविध प्रतिक्रियाओं ( Reactions ) का नियमन व निर्धारण होता है । परन्तु व्यवहारिक स्तर पर एक व्यक्ति की सामाजिक अन्तः क्रियाओं ( Inter – acting ) तथा प्रतिक्रियाओं का दायरा इससे कहीं अधिक विस्तृत हो सकता है । व्यक्ति वास्तव में एक या कुछ समूह – विशेष का सदस्य हो सकता है । पर मनोवैज्ञानिक रूप में ( अर्थात मानसिक तौर पर ) वह अपने को एक भिन्न समूह से सम्बन्धित मान सकता है और उसी समूह के संदर्भ में अपनी मनोवृत्तियों तथा आकांक्षाओं को नियमित कर सकता है । उदाहरणार्थ मध्यम वर्ग ( Middle Class ) या श्रमिक वर्ग Working Class ) का सदस्य सचेत या अचेत रूप में अपने को एक उच्च वर्ग से संबन्धित मान सकता है और उसी वर्ग के अनुरूप अपने रहन – सहन तथा अनुभवों को विकसित करने का प्रयत्न भी कर सकता है । ऐसी अवस्था में उस व्यक्ति का समूह ( मध्यम वर्ग या श्रमिक वर्ग ) उसका सदस्यता समूह कहलायेगा । जबकि जिस उच्च वर्ग के साथ वह व्यक्ति मानसिक तौर पर सम्बन्धित है । और जिसके आदर्शो मूल्यों व व्यवहार प्रतिमानों ( Behaviour Pattern ) के आधार पर वह अपने व्यवहारों तथा अनुभवों को ढालने का प्रयत्न करता है । उसका संदर्भ समूह कहा जायेगा । अत : यह आवश्यक नहीं कि व्यक्ति जिस समूह का वास्तविक सदस्य ( Actual Member ) हो उसी के आदशों , मूल्यों , तथा मानदण्डों के अनुरूप ही मनोवृत्तियों , व्यवहारों , अनुभवों आदि का नियमन ( Regulation ) तथा निर्धारण करें । – उसके व्यवहार प्रतिमान का निर्धारण व नियमन उस विशेष समूह के मूल्यों , आदशों , आदि के द्वारा भी हो सकता है जिसका कि वह केवल मनोवैज्ञानिक सदस्य ( Psychological Member ) है यही संदर्भ – समूह और उसके द्वारा निर्धारित व्यवहार का रहस्य है ।

 

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 क्लाइवर्ग के अनुसार( Views of Klineberg )

 

 प्रो० स्लाइबर्ग ने संदर्भ समूह व्यवहार के विषय में लिखते हुए ऐसे समूहों की दो प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख किया है –

1 संदर्भ – समूह काल्पनिक ( Imaginary ) भी हो सकते हैं जब हम इस प्रकार का व्यवहार करते हैं जिन्हें कि हम सर्वोत्तम लोगों ( Best People ) के व्यवहार के समान मानते हैं तो हो समता है कि उन सर्वोत्तम लोगों के व्यवहार के संबन्ध में हमें जो कुछ भी ज्ञात है वह बिल्कुल ही वास्तविक न होकर काल्पनिक ही हो । उदाहरणार्थ जब निम्न आर्थिक वर्ग के लोग उच्च वर्ग के लोग बनना चाहते हैं तो उस प्रयत्न में जो कुछ भी आचरण वे करते हैं वह उच्च वर्ग के लोगों के आचरणों का व्यवहार प्रतिमान का वास्तविक नहीं अपितु काल्पनिक रूप ही होता है । अपने नैतिक मान ( Moral Standard ) जैसे महत्वपूर्ण विषय के सम्बन्ध में अथवा चाय के प्याले को पकड़ने के तरीके जैसे साधारण विषय के संबन्ध में हम अपने व्यवहार को उस समूह के समरूप कर सकते हैं तो जिसका कि वास्तविक अस्तित्व ही न हो या जो ठीक उस प्रकार का व्यवहार न करता हो जैसे कि हम कर रहे हैं ।

 2 प्रो० क्लाइनबर्ग का कथन है कि संदर्भ – समूह ‘ नकारात्मक ( Negative ) भी हो सकता है कुछ ऐसे समह होते है जिनसे हम निकटतम संबन्ध रखना चाहते हैं पर कुछ ऐसे समूह भी हो सकते हैं । जिनसे हम यथासम्भव दूर रहना इसलिए चाहते हैं कि इस प्रकार के समूह की नीति एक विशेष प्रकार के मूल्यों की समर्थक है इसी आधार पर हम अपने व्यवहारों , आदर्शो , तथा मूल्यों को एसा रूप देने हेतु प्रयत्नशील होते हैं जोकि उस समूह से बिलकुल भिन्न हों , यह विपरीत समूह एक नकारात्मक संदर्भ – समूह ( Negative Reference Group ) ही होगा , क्योंकि इसी समूह कि संदर्भ में हम अपने व्यवहार हो विपरीत रूप ही देना चाहेगें । और उसके लिए सचेत प्रयत्न भी करेंगे उदाहरणार्थ आधुनिक समय में अधिकतर अमेरिका निवासियों के लिए सोवियत रूस एकनकारात्मक संदर्भ समूह का प्रतिनिधित्व करता है । यही बात सोवियत रूस के लोगों के लिए । अमेरिका के सम्बन्ध में लागू होती है ।

 अतः क्लाइनबर्ग के अनुसार संदर्भ समूह व्यवहार में यह आवश्यक नहीं कि जिस समूह की हम नकल कर रहे हैं या जिसे हम अपना आदर्श मान रहे हैं उसके विषय में हमें स्पष्ट और प्रत्यक्ष ज्ञान हो न ही यह जरूरी है कि उस समूह का वास्तविक अस्तित्व हो इसी प्रकार यह भी जरूरी नहीं है कि संदर्भ – समूह हमारे लिए एक सदैव एक आदर्श समूह ही होगा । वह समूह हमारे लिए एक विपरीत आदर्श का प्रतिनिधित्व कर सकता है । इस पर भी वह समूह हमारा संदर्भ – समूह है । क्योंकि इसी समूह के संदर्भ में हम अपने व्यवहारों , आदशों , तथा मूल्यों को एक विपरीत दिशा की ओर मोड़ना चाहते हैं और एक विपरीत मान ( Opposite Standard ) को बनाये रखता है ।

 

 न्यकॉम्ब के विचार Views of Newcomb )

 

 प्रो० न्यूकॉम्ब का मत है कि संदर्भ – समूहों का अस्तित्व वास्तव में हो सकता है एक व्यक्ति के लिए वह समूह संदर्भ – समूह हो सकता है जिसका कि सदस्य वह कदापि न रहा हो अथवा जो कि बहुत पहले ही समाप्त हो गया हो यह संदर्भ – समूह अंशतः या पूर्णतया काल्पनिक समूह ( Fictious Group ) हो सकता है इस अर्थ में संदर्भ – समूह का वास्तविक अस्तित्व होना या न होना उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना कि यह बात संदर्भ समूह के आदर्श मूल्य , विचार आदि ही वास्तव में व्यक्ति कि व्यवहार , मूल्य , आदर्श आदि को प्रभावित करते हैं ।

 एक व्यक्ति का सदस्यता समूह ( Membership Group ) अर्थात वह समूह जिसका कि वह वास्तव में सदस्य है उसका संदर्भ समूह भी हो सकता है अर्थात एक व्यक्ति का सदस्यता समूह किस सीमा तक उसका संदर्भ – समूह भी बना रहेगा । यह इस बात पर निर्भर करता है कि उस समूह की सदस्यता से उसे कितना संतोष या असंतोष प्राप्त होता है न्यूकॉम्ब ने कहा है कि एक समूह के सदस्यगण अपनी योग्यता , क्षमता , व्यक्तिगत आवश्यकताओं , व्यक्तित्व संरचना आदि के आधार पर एक दूसरे से भिन्न होते हैं अर्थात एक ही समूह के विभिन्न सदस्यों में व्यक्तिगत भिन्नताएं ( Individual Differences ) होती हैं । इसलिए उस समूह के सदस्य के रूप में उन्हें अलग – अलग मात्रा में संतोष भी प्राप्त होता है । इतना ही नहीं अपनी सदस्यता समूह से एक व्यक्ति को असंतोष भी प्राप्त हो सकता है । असंतोष इस कारण होता है कि एक समूह में जिसका कि व्यक्ति वास्तव में सदस्य है उसके जो सुविधायें व अवसरों से कम हैं आधुनिक गतिशील समाज में तो एक व्यक्ति के लिए यह बहुत ही सरल है कि वह समूह की सदस्यता को छोड़कर दूसरे समूह की सदस्यता को ग्रहण कर सकता है । यही कारण है कि एक समूह के सदस्य के रूप में विभिन्न व्यक्ति उस समूह से अलग – अलग मात्रा में संतोष या असंतोष का अनुभव करते हैं जब असंतोष की भावना अधिक हो जाती है तो कम से कम मानसिक तौर पर वह अपने को उस समह से सम्बद्ध मान बैठता है । जिससे उसे अधिक संतोष प्राप्त होने की आशा है इस प्रकार वह व्यक्ति अपने सदस्यता समूह से मानसिक तौर पर अलग हो जाता है और उस अवस्था में वह समूह उसका संदर्भ – समूह नहीं रह जाता उसके स्थान पर वह समूह उस व्यक्ति का संदर्भ – समूह बन जाता है जिसके साथ व्यक्ति अपने को वास्तविक या काल्पनिक तौर पर सम्बद्ध कर लेता है और उसी को अपना आदर्श मानकर अपने व्यवहार , मूल्य तथा आदर्शों को उसी समूह के अनुरूप ढालने का प्रयत्न करता है क्योंकि उसके मन में यह विश्वास घर कर लेता है कि ऐसा करने पर उसे अधिक संतोष प्राप्त होगा ।

 न्यूकॉम्ब ( Newcomb ) का यह भी विचार है कि वास्तविक सदस्यता समूह विभिन्न रूपों में व्यक्ति कि लिए सकारात्मक ( Positive ) और नकारात्मक ( Negative ) दोनों ही प्रकार के संदर्भ समूह के रूप में कार्य कर सकता है । उदाहरणार्थ एक हिन्द यवक अपने परिवार की अधिकतम सामान्य मनोवृत्तियों , मूल्यों तथा आदशों के प्रति श्रद्धावान हो सकता है और उनको अपने आचरण या व्यवहार का निर्देशक कारक के रूप में स्वीकार भी कर सकता है । इस रूप में उसका वह परिवार उसके लिए सकारात्मक संदर्भ – समूह कि रूप में कार्य करता है पर यह भी हो सकता है कि वही युवक अपने हा परिवार के कुछ आदर्शो तथा मूल्यों का समर्थन करने से इन्कार करता हो । उदाहरणार्थ – वह अन्तविवाह ( Endegrny ) के नियम का अर्थात अपनी जाति के अन्दर ही विवाह करता है यहाँ तक कि खुले तौर पर इस आदर्श का विरोध करके अन्तर्जातीय विवाह ( Intercaste Marriage ) कर बैठता है उस अवस्था में उसका परिवार उसके लिए नकारात्मक संदर्भ समूह बन जाता है । इसी प्रकार वह समूह भी एक व्यक्ति का सकारात्मक अथवा नकारात्मक संदर्भ – समूह बन सकता है । जिसका कि वह व्यक्ति वास्तव में सदस्य नहीं

 

मर्टन के विचार( View of Merton ) .

 

. समाजशास्त्र के क्षेत्र में संदर्भ समूह का प्रथम वैज्ञानिक विश्लेषण करने का श्रेय अमेरिकी समाजशास्त्री आर० के० मर्टन को जाता है । अमेरिकन सोल्जर ( The American Soldier ) नामक कृति में राबार्ट किग्सले मर्टन तथा रोसी ने संदर्भ – समूह की अवधारणा को समझाने का प्रयत्न किया है इस संबन्ध में उनका निष्कर्ष यह है कि एक व्यक्ति का संदर्भ – समूह उसका अपना अन्तः समूह अर्थात वह समूह हो सकता है जिसका कि वह वास्तव में सदस्य ( Membership Group or In – group ) है और बाह्य समूह भी हो सकता है जिसका कि सदस्य नहीं है ( Non – membership Group or Out – group ) प्रथम अवस्था में अन्तः समूह ( In – Group ) था अपने ही समूह के सदस्य निर्देश तंत्र ( Frame of Reference ) का कार्य करते हैं जबकि दूसरी अवस्था में बाह्य समूह ( Out – Group ) अथवा दूसरे समूह के सदस्य इस निर्देश तंत्र ( Frame of Reference ) के लिए चुने जाते हैं । अतः मर्टन के अनुसार संदर्भ – समूह का सिद्धान्त हमें यह बताता है कि व्यक्ति अन्तः समूह अथवा वाह्य समूह को किस प्रकार अपने व्यवहार का निर्देशक मानने लगता है और उस समूह से अपना संदर्भ स्थापित कर लेता है । उपरोक्त अध्ययन के आधार पर संदर्भ समूह से सम्बन्धित अपने विचारों को मर्टन ने इस प्रकार स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है । .

 बहुल संदर्भ समूह ( Multiple Reference Group ) – इसके अर्न्तगत मर्टन ने दो प्रकार के संदर्भ समूह का उल्लेख किया है

 

परस्पर विरोधी संदर्भ – समूह ( Conflicting Reference Group ) – कभी कभी व्यक्ति के जीवन में एकाधिक परस्पर विरोधी संदर्भ समूह आ जाते हैं और उस अवस्था में उसके सामने यह समस्या होती है कि वह उनसे किसको चुने अथवा किस समूह को अपना आदर्श माने ऐसी स्थिति में व्यचित्त बहुधा परिस्थिति की समानता से प्रभावित होता है और उस समूह को पूर्णतया अनजाना और भिन्न परिस्थिति वाला है ।

 निरन्तर सम्पर्क वाले संदर्भ – समूह ( Mutually Sustaining Reference Group ) – मर्टन का निष्कर्ष है कि जिस आय समह अथवा वैवाहिक स्थिति या शैक्षिक स्तर वाले समूह के निरन्तर सम्पर्क में व्यक्ति रहता है उसी के अनुसार उसकी मनोवृत्तियाँ ढलने लगती है । मर्टन की मान्यता है कि जिस समह के साथ व्यक्ति का सामाजिक सम्बन्ध जितना निरन्तर व दीर्घ होगा वही समूह उस व्यक्ति के जीवन को अधिक प्रभावित भी करेगा ।

 दूसरे विशिष्ट ( Significant Others ) – मर्टन का कथन है कि प्रत्येक व्यक्ति के सामने कुछ दूसरे प्रतिष्ठित समझे जाने वाले लोगों की प्रतिभा होती है जिन्हें कि हम दुसरे विशिष्ट ( Significant Others ) कह सकते हैं ये लोग उस व्यक्ति की निगाहों में आदर्श होते है । और इसलिए वह इन व्यक्तियों के साथ समरूपता स्थापित करना चाहते हैं अर्थात उन दूसरे विशिष्ट व्यक्तियों जैसा बनना चाहते हैं यही कारण है कि इन व्यक्तियों में वह स्वयं अपनी प्रतिमा ( Image ) तथा मूल्यांकन का प्रतिबिम्ब ( Reflection ) देखता है उनके मूल्यों आदर्शो तथा आचरण को ग्रहण करता है ताकि उन दूसरे विशिष्टों की भॉति वह स्वयं भी विशिष्ट बन सकें । यही कारण है कि निम्न समूह के लोग उच्च समूह को प्रभावशाली व प्रतिष्ठा वाले समुह के रूप में न केवल देखते हैं अपितु उनके मूल्यों , आदर्शो तथा आचरणों को ग्रहण करते हुए सामाजिक सीढ़ी के ऊपर चढकर उच्च समूह के पास पहुचने का भी प्रयत्न करते हैं ।

समरूपता और असमरूपता ( Conformity and Non – Conformity ) – मर्टन का कथन कि संदर्भ समूह का अपना एक प्रकार्यात्मक महत्व ( Functional Importance ) यह है कि वह व्यक्ति का उसके साथ समरूपता स्थापित करने का प्रेरित करता है जिसके फलस्वरूप उस व्यक्ति का व्यवहार , आदर्श व मूल्य उस समूह के मूल्य , आदर्श तथा आचरणों से भिन्न हो जाता है जिसका कि वास्तव में सदस्य है अर्थात उसकी अपने समूह से असमरूपता उत्पन्न हो जाती है । परंतु उसका एसा करना अर्थात संदर्भ – समूह में समरूपता और अपने समूह में असमता स्थापित करना उसी सीमा तक वांछनीय समझा जायेगा जहाँ तक वह सामाजिक व्यवस्था के लिए अकार्यात्मक ( Dysfunctional ) न हो पर यह आवश्यक नहीं हैं कि वह समूह के साथ जिसका वह सदस्य नहीं है समरूपता सथापित करना ही आकार्यात्मक हो यह बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि उसके ऐसा करके उसके अपने समूह के स्थापित मूल्यों को कितनी ठेस पहुंचेगी ।

 

 संदर्भ समूह का प्रकार्य और अकार्य ( Function and Dyprivation of Reference Group ) – आर० के० मर्टन ने संदर्भ समूह की अवधारणा को समाज में स्थापित किया इन्होंने सापेक्षिक वंचिता ( Relative Deprivation ) के आधार पर अमेरिकन सोल्जर के अध्ययन के आधार पर संदर्भ समूह की चर्चा की ।

 यदि एक व्यक्ति अपने इच्छित समूह में मिला लिया जाता है तो उसके लिए क्रियात्मक है क्योकि इससे उसकी दक्षता एवं कार्यकुसलता में वृद्धि होती है यहीं पर मर्टर ने Anticipatory Socialization की व्याख्या की है पर यदि व्यक्ति इच्छित समूह में नहीं मिलाया जाता है तो इसका बुरा प्रभाव पड़ता है । उसकी सजनशीलता कम होती है । यहीं पर मार्जिनल मैन की चचा की है ।

 

 सदस्यता और असदस्यता संदर्भ – समूह ( Membership and Non – membership Reference Group ) – एच० एम० जानसन के अनुसार कभी कभी एक व्यक्ति अपने ही समूह को आदर्श समह मानकर अनकरणीय व्यवहार के प्रयास करता है इसे सदस्यता संदर्भ समूह कहते हैं जब व्यक्ति दूसरे समह को अपना आदर्श मान लेता है तो वह असदस्यता संदर्भ समूह कहलाता है । आर0 के0 मर्टर ने संदर्भ समह की चर्चा में कहा कि ये लोग अन्य समूहों को अपना संदर्भ समूह बनाना चाहते हैं

. जो Relative Deprivation की भावना से ग्रस्त होते हैं ।

 

Relative Deprivation वह मानसिक अवस्था है जिसमें व्यक्ति वास्तविक अथवा आवश्यकीय कारणों से अपनी अवस्था से सन्तुष्ट नहीं होता है एवं अपनी अवस्था में सकारात्मक परिवर्तन करना चाहता है । इसलिए मर्टर ने इस धारणा का प्रयोग ऊपर जाने वाली सामाजिक गतिशीलता के संदर्भ में किया है । मर्टर ने स्टाफर के अध्ययन से अफसरों एवं अफसरी में प्रन्नित हो सकने वाली कारापालों का उदाहरण दिया है जो कारापाल उन्नति चाहते थे एवं अपनी वर्तमान अवस्था से सन्तुष्ठ नहीं थे वे ही अफसरों के समूह को संदर्भ समूह के रूप में स्वीकार करते थे ।  भारत में पहले जब संस्कृतिकरण की प्रकिया थी तब सस्कृतिकरण करने वाली जातियों के साथ भी यही बात लागू होती थी । सुरजीत सिन्हा ने गाडो की राजपूतीकरण की प्रकिया से सम्बन्ध में मजूमदार ने रामपुर के नाईयों के सम्बन्ध में अथवा एफ0 जी0 बायलिग ने बासीपाड़ा के पानों के सम्बन्ध में भी यही बात कही है । सस्कृतिकरण करने वाली जाति समूह तुलनात्मक रूप से मजबूत होता था और अपनी वर्तमान अवस्था से सन्तोष के कारण ही सामाजिक प्रतिष्ठा के सोपान पर ऊचा चढ़ने के लिए सस्कृतिकरण की ओर प्रवृत्त होता था ।

 

 संदर्भ समूह का प्रभाव ( Consequences of Reference Group ) – संदर्भ समूह न स्थिति के कारण सामाजिक गतिशीलता में सरलता होती है एवं इससे समाज में तनाव कम पनपता है मर्टन ने कहा यदि योग्य एवं समर्थ व्यक्तियों को ऊपर जाने का मौका न दिया जाए तब इससे असंतोष बढ़गा जो समाज की स्थिरता के लिए घातक है । मर्टर का कथन है कि व्यक्ति पर एक तो प्राथमिक सदस्यता और अतसमूहों का प्रभाव पड़ता है और दूसरी ओर द्वितीयक असदस्यता और बाह्य समूह भी उसके व्यवहारों और प्रवृत्तियों को प्रभावित करते हैं ।

आर्दशात्मक और तुलनात्मक संदर्भ समूह ( Normative and Comparative Reference Group ) – समाज में जितने भी संदर्भ समूह हैं इसमें एक प्रकार आदर्शात्मक .  समूहों का है ये वे समूह हैं जो अपने सदस्यों के लिए मानदण्ड , मूल्य एवं व्यवहार के प्रतिमान निश्चित करते हैं भारतीय संदर्भ में द्विज जातियों के लिये कई समूह है जो मद्यपान , मासाहारा भोजन आदि के प्रतिबन्ध पर जोर देते हैं इन समूहों के व्यवहार के अपने मापदण्ड होते ह याद समूह द्वारा निर्धारित आदर्शों का परिपालन सदस्य नहीं करते तो इसके लिये दण्ड का प्रवधान भी होता है । तुलनात्मक संदर्भ समूह वे हैं जिनके व्यक्ति अपने या दूसरों के व्यवहार का तुलनात्मक आधार मानता है । इस तरह के समूह व्यक्ति के अपने स्वयं या दूसरे व्यवहार के मूल्यांकन के लिए सहायक होते हैं ग्रामीण समूह जब शहरी समूह द्वारा निर्धारित व्यवहार के प्रमानों से अपने समूह की तुलना करते हैं तो वस्ततः यह तलनात्मक मल्यांकन है । इस भाँति जहाँ आदर्शात्मक संदर्भ समह व्यक्तियों को इस बात के लिए अभिप्रेरित करते हैं । कि वे अपने समूहों के मानदण्डों और मूल्यों को स्वीकार करें उनका सात्मीकरण करें वहीं तुलनात्मक संदर्भ समूह व्यक्तियों के व्यवहारों का तुलनातमक मूल्यांकन करने में सहायक होते हैं ।

 

 धनात्मक और ऋणात्मक संदर्भ समूह ( Positive and Negative Reference Group ) – प्रो0 न्यूकोम्ब ने संदर्भ समूह को धनात्मक तथा ऋणात्मक संदर्भ समूह में बॉटा है धनात्मक संदर्भ समूह वे हैं जिनसे व्यक्ति जुड़ने की आकांक्षा रखता है परन्तु ऋणात्मक संदर्भ समूह वे हैं जिनसे व्यक्ति एक खास दूरी बरतता हैं । जैसे – एक बैंक कर्लक के लिए चपरासियों का समूह जहाँ ऋणात्मक समूह है वहीं अफसरों का समूह धनात्मक संदर्भ समूह है ।

 

 वास्तविक एवं काल्पनिक संदर्भ समूह ( Real and Unreal Referance Group ) – जोनसन का कहना है कि संदर्भ समूह वास्तविक भी हो सकता है और काल्पनिक भी । काल्पनिक समूह का उदाहरण – मार्क्सवादियों के लिए वर्गविहिन समाज तथा गाँधीवादियों के लिए रामराज आदि – 2 इसी तरह हिन्दुओं में स्वर्ग एवं नरक काल्पनिक धनात्मक एवं ऋणात्मक संदर्भ समूह ।

 संदर्भ व्यक्ति या संदर्भ समूह का चुनाव – अमेरिकन समाजशास्त्री राईट किंग्सले मर्टन के अनुसार एक व्यक्ति के द्वारा अपने संदर्भ के रूप में केवल समूह को नहीं अपितु व्यक्ति को भी चुना जा सकता है इन – दोनों का चुनाव कैसे किया जाता है उसे मर्टन ने इस प्रकार समझाया है ।

 1 संदर्भ – व्यक्ति का चुनाव आदर्श भूमिका ( Role – Modal ) के आधार पर किया जाता है ऐसा होता है कि एक व्यक्ति को किसी दूसरे व्यक्ति की कुछ भूमिकायें अच्छी लगती हैं और वह उन्हें केवल आदर्श मानने लगता है अपितु उन भूमिकाओं को अपने जीवन में भी निखारने का प्रयत्न करता है । उदाहणार्थ – एक विद्यार्थी को अपने किसी शिक्षक का पढ़ाने का ढंग व विद्यार्थियों के साथ व्यवहार करने का ढंग अच्छा लगता है तो आगे चलकर शिक्षक का पेशा अपनाने पर वह विद्यार्थि उसी शिक्षक को अपना संदर्भ – व्यक्ति ( Reference Individual ) मान लेता है । और शिक्षक के रूप में उनके आचरणों व भूमिकाओं को अपने जीवन में भी निखारने का प्रयत्न करता है ।

2 संदर्भ – समूह का चुनाव सामाजिक जीवन में 3 समूह का चुनाव सामाजिक जीवन में अपने को अधिक प्रतिष्ठित देखने की इच्छा से प्रेरित [ क्ति का यह अभिलाषा होती है कि वह सामाजिक सीढी से ऊपर की ओर जाये । इसके एक आधार की आवश्यकता होती है अतः वह किसी ऐसे समूह को चुन लेता है जो कि का निगाह में आदर्श व अधिक प्रतिष्ठा सम्पन्न है इसी से यह स्पष्ट है कि सामाजिक प्रतिष्ठा पान का इच्छा व्यक्ति को उसे दूसरे समूह का चुनाव करने की प्रेरणा देती है जिसका वह सदस्य नहीं हैं ।

 

 संदर्भ – समूहों के चुनाव को प्रभावित करने वाले तथ्य ( Facts influencing the selection of Reference Group ) – मर्टन ने उन तथ्यों की एक सूची प्रस्तुत की है जो कि संदर्भ समूहों के चुनाव को प्रभावित करते हैं –

 1 समूहों की सदस्यता के लिए सामाजिक परिभाषाएँ या नियमों का स्पष्ट अथवा अस्पष्ट होना ।

 2 समूह में सदस्यों की लिप्त रहने की मात्रा ।

 3 समूह में सदस्यता की वास्तविक अवधि ( Actual Duration ) ।

4 समूह में सदस्यता की अपेक्षित ( Expected ) अवधि ।

5 समूह के अस्तित्व की अपेक्षित अवधि । ।

 6 समूह के अस्तित्व की वास्तविक आवधि ।

 7 समूह की मुक्त ( Open ) अथवा बन्द ( Closed ) प्रकृति ।

8 किसी समूह का या उसके निर्माणक अंगों का सापेक्षिक ( Relative ) आकार ।

 9 वास्तविक तथा महत्वपूर्ण सदस्यों का अनुपात ।

10 किसी समूह का या उसके निर्माणक अंगों का निरपेक्ष आकार ।

11 सामाजिक विभेदीकरण की मात्रा ।

12 संसवरण की आकृति ( Shape ) तथा ऊंचाई । ।

13 सामाजिक एकता के प्रकार तथा मात्रा ।

14 समूह की एकता ।

15 समूह के सामाजिक सम्बन्धों की प्रकृति ।

16 समूह के अन्तगर्त सामाजिक अन्तक्रिया ।

 17 समूह के आदर्श नियमों ( Norms ) के प्रति आपेक्षिक समरूपता की सीमा , पथ भ्रष्ट व्यवहारों के प्रति सहनशीलता ।

 18 आदर्शात्मक नियन्त्रणों की व्यवस्था ।

 19 समूह की भूमिकाओं के मूल्यांकन की मात्रा ।

 20 समूह की परिस्थिति ( Ecological ) संरचना ।

 21 समूह की सवायत्तता Autonomy ) या निर्भरता ( Dependence ) की मात्रा ।

 22 समूह के संरचनात्मक संदर्भ के स्थायित्व की मात्रा ।

 23 समूह के स्थायित्व की मात्रा ।

 24 समूह के स्थायित्व ( Stability ) स्थापित करने के तरीके ।

 25 समूह के सापेक्षिक ( Relative ) सामाजिक प्रतिष्ठा ।

 26 समूह की सापेक्षिक शक्ति ।

 

संदर्भ समूह के प्रकार्यात्मक पक्ष ( Functional Aspects Of Reference Group ) – सदर्भ – समूह , व्यक्ति को ( उस समूह के साथ समरूपता स्थापित करने की प्रेरणा देता है जिसके कारण व्यक्ति अपने संदर्भ – समूह के मूल्यों , आदर्शों तथा आचरणों को अपने जीवन में उतारने के लिए प्रयत्नशील होता है फलस्वरूप व्यक्ति के व्यक्तित्व में ने केवल अनेक नये मुल्य , आदर्श व्यवहार प्रतिमान , विचार , प्रतिमाये ( Images ) आदि सम्मिलित हो जाते हैं अपित यह सम्भावना भी रहती है कि उसकी सामाजिक स्थिति भी ऊची उठ सकेगी । एक ऐसी सीख या भमिका जो भविष्य में करनी है पहले से तैयार करना या पहल स निभाना । उदाहरण के लिए शिक्षक बनने से शिक्षक का नकल करना या शिक्षक जैसा व्यवहार अपनाना ।

 

व्यक्ति का प्रत्याशित सामाजीकरण ( Anticipatory Socialization ) की दिशा में संदर्भ – समूह का प्रकार्य ( Function ) उल्लेखनीय है । प्रत्याशित सामाजीकरण ( Anticipatory Socialization ) केवल मुक्त सामाजिक संरचना ( Open Social Structure ) में प्रकार्य ( Function ) के रूप में होता है बन्द ( Closed ) सामाजिक संरचना में यह अकार्य ( Dysfunction ) का रूप धारण की लेता है । क्योंकि ऐसे समाज परम्परागत नियमों , आदर्शो तथा मूल्यों के द्वारा आबद्ध होने को कारण एक समूह के सदस्य द्वारा अपने समूह के मूल्यों व व्यवहारों को त्याग कर दूसरे समूह के मूल्यों व व्यवहारों को अपनाना बुरा माना जाता है और उसका विरोध भी किया जाता है एसी स्थिति में सामाजिक जीवन में तनाव व विघटन की स्थिति उत्पन्न हो सकती है । अतः दूसरे समूह के मूल्यों व व्यवहारों को अपनाने के बाद भी व्यक्ति के लिए अपनी आकांक्षाओं को पूरा करना सम्भव नहीं होता । इस संदर्भ में मर्टन ने हमारा ध्यान उस सत्य की ओर आकर्षित किया है कि जिस अनुपात में एक व्यक्ति दूसरे समूह ( संदर्भ – समूह ) के मूल्यों , आदर्शो , व आचरणों के साथ अपनी समरूपता स्थापित करता है उसी अनुपात में वह अपने समूह के मूल्यों तथा आचरणों से दूर होता जाता है और यदि उसके अपने समूह के अन्य सदस्य इस बात को पसन्द नहीं करते तो उस व्यक्ति व शेष समूह के बीच . सामाजिक सम्बन्ध बिगड़ने लगते हैं उस व्यवस्था में अगर व्यक्ति लौटकर अपने ही समूह के मूल्यों व आचरणों को फिर से अपनाना चाहे तो भी उसे ऐसा करने का अवसर नहीं दिया जाता । अतः दूसरे समूहों मूल्यों व आचरणों को अपनाने की प्रक्रिया एक बार शुरू हो जाने पर वह संचित होती चली जाती है और व्यक्ति अपनी मनोवृत्तियों , मूल्यों तथा सामाजिक सम्बन्धों के क्षेत्र में अपने समूह से धीरे – धीरे अलग होता जाता है यहाँ तक कि अन्त में वह अपने समूह से बिल्कुल विछित्र हो जाता है और संदर्भ – समूह को ही पूर्णतया स्वीकार कर लेता है । ऐसा विशेषकर उस अवस्था में होता है जबकि उसका अपना समूह पुनः उसे अपने सदस्य के रूप में ग्रहण करने से इनकार कर देता है । इस संदर्भ में यह उल्लेख करना आवश्यक है कि मर्टन का कहना है कि जब कोई व्यक्ति संदर्भ – समूह के व्यवहार , आचरण , नियम को अपनाने लगता है तो अपने समूह से अलग होने लगता है और मनोवैज्ञानिक रूप से संदर्भ – समूह से जुड़ जाता है । अगर वह संदर्भ – समूह में शामिल नहीं हो पाता है तो ऐसी स्थिति में सीतान्त मानव ( Marginal Man ) बन जाता है ।

 

सीमान्त मानव ( Marginal Man ) – वह व्यक्ति न तो संदर्भ – समूह और नहीं अपने समूह का रहता ऐसी स्थिति में व्यक्ति का अपने समह में भी कार्य करने में मन नहीं लगता है सजनशीलता की कमा हा जाती है । आगे मटन का कहना है कि अगर व्यक्ति संदर्भ समह का हो जाता है तो उसकी सृजनशालता , कार्य करने की क्षमता बढ़ जाती है । उदाहरण के तौर पर यदि कोई व्यक्ति आई० ए० एस० बनना चाहता है तो आई० ए० एस० उसका संदर्भ – समूह है अगर वह आई0 ए0 एस0 बन जाता है तो उसके कार्य करने की क्षमता भी बढ़ जाती है । अगर नहीं बनता तो “ सीमान्त मानव बन जाता है और उसकी सृजनशीलता घटती है ।

 

वेब्लन के विचार Views of Veblen ) – समाजशास्त्र के क्षेत्र में थर्सटीन वेब्लान ने अपनी पुस्तक ‘ द थ्यूरी आफ लीजर क्लास ‘ The theory of leisure Class ) में विलासी वर्ग की अवधारण दी । विलासी वर्ग वह वर्ग है जो पूँजीवादी समाज के अधिकांश लाभ को संचित करता है । इस वर्ग की जीवन शैली आडम्बरपूर्ण , फिजूलखर्ची , आलसीपन , लालचीपन , तड़क – भड़क उपभोग से भरी है । इसे प्रस्तुत करते हुए संदर्भ समूह का अप्रत्यक्ष उल्लेख किया है । उसके अनुसार विलासी वर्ग में भी ऊंच – नीच का संस्तरण होता है जो लोग धन और वंश दोनों में ही ऊंची श्रेणी के होते हैं वे अपने को उस वर्ग से ऊंचा समझते हैं जो धन या वंश के सम्बन्ध में उनसे कमजोर होते हैं समाज में इसी प्रकार का ऊंच – नीच कर एक संस्तरण देखने को मिलता है । प्रत्येक वर्ग अपने से ऊपर वाले वर्ग को अपना आदर्श ( या संदर्भ – समूह ) मानने लगता है और विलास व उपभोग के सम्बन्ध में उसी ऊपर वाले वर्ग का अनुसरण करने का भरसक प्रयत्न करता है इस रूप में आदर्श मूल्य व्यवहार आदि अनुकरण करना एक प्रकार से सम्मान का या गर्व करने योग्य विषय माना जाता है क्योंकि इसके द्वारा व्यक्ति अपनी बराबरी ऊपर के वर्ग से कर सकता है जिससे दूसरे लोगों की दृष्टि में उसकी स्थिति स्वतः ही ऊंची उठ जाती है । इसी कारण एक समूह या वर्ग के सदस्य अपने संदर्भ – समूह के आदर्शों व व्यवहार के मानों ( Standards of Behaviours ) के निकट पहुंचने का यथा साध्य प्रयत्न करते हैं विशेषकर तीज – त्यौहार के अवसर पर खान – पान , वेश – भूषा आदि के विषय में उच्च वर्ग की नकल की जाती है और इसीलिए प्रायः यह देखा जाता है कि ऐसे तीज – त्यौहार के मौके पर अनेक परिवार अपनी हैसियत से भी अधिक खर्च कर बैठते हैं यहाँ तक कि ऐसे अवसरों पर कर्ज लेकर भी अपने खान – पान व पोशाक को उच्च वर्ग के समान लाने का प्रयत्न किया जाता है । अपने संदर्भ – समूह का अनुकरण करने की छूट व्यक्ति में इस रूप में भी व्यक्त होती है कि नीचे के वर्ग या मध्य वर्ग के लोग भी जिनकी आय अधिक नहीं होती । अपने घर के अन्दरूनी विषयों में या घर – गृहस्थी के खर्चों में बचत करके बाह्य ठाट – बाट को यथासम्भव ऊँचे स्तर पर रखने का प्रयत्न करते हैं । इसी प्रकार इस समीकरण की प्रवृत्ति की अभिव्यक्ति सदस्यों के व्यवहार में भी होती है वे अधिक से अधिक अच्छे गहने तथा पोशाकों से अपने को सजाकर तथा उच्चस्तरीय व्यवहार प्रतिमान ( Behaviour Pattern ) को अपनाकर अपने पति या पिता के परिवार की प्रतिष्ठा को ऊँचा बनाये रखने का एक मनोवैज्ञानिक प्रयत्न करती है ।

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