Site icon NOTES POINTS

 शक्ति संरचना में वर्तमान परिवर्तन

 शक्ति संरचना में वर्तमान परिवर्तन

 ( Recent Changes in Rural Structure )

 

 भारत में ग्रामीण शक्ति संरचना याज अपने परम्परागत स्वरूप से हटकर नया परिवेश ग्रहण कर रही है । स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत में जमींदारी प्रथा का उन्मूलन करके एक नवीन जनतान्त्रिक पंचायत व्यवस्था की स्थापना की गई । यह सच है कि स्वतन्त्रता से पूर्व 1920 में ब्रिटिश सरकार ने भी ग्राम पंचायतों में कुछ सदस्यों को मनोनीत करने की व्यवस्था की थी लेकिन उस समय जमींदारों का प्रभाव बहुत अधिक होने के कारण पंचायतों को जनतान्त्रिक स्वरूप प्राप्त नहीं हो सका । पंचायत के अधिकारियों का वयस्क मताधिकार के प्राधार पर चुनाव न होने के कारण इन्हें सामान्य ग्रामीणों का समर्थन प्राप्त नहीं होता था । 1948 में कानून के द्वारा जब बालिग मताधिकार के द्वारा पंचायतो के अधिकारियों का चुनाव करने की पद्धति प्रारम्भ की गई तब ग्रामीणों को पहली बार पंचायतों की गतिविधियों में सक्रिय भाग लेने का अवसर प्राप्त हया । इसके फलस्वरूप प्रायिक स्थिति एवं जाति के आधार पर निर्धारित होने वाली पंचायतों की शक्ति में ह्रास होने लगा । इसके स्थान पर एक ऐसी नवीन शक्ति का प्रादुर्भाव हुमा जो प्रानुवंशिकता , जाति , धर्म तथा प्रार्थिक स्थिति के प्रभाव से स्वतन्त्र थी । जमींदारी प्रथा का उन्मूलन हो जाने के फलस्वरूप भारत में ग्रामीण लोकतन्त्रीकरण की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई । इस प्रक्रिया के पहले चरण में अनेक भूमि – सुधारों को क्रियान्वित किया गया । इसके फलस्वरूप भूमि अधिकारों के सन्दर्भ में मध्यस्थ वर्ग का उन्मूलन हुग्रा तथा अषकों को जमीदारों , नम्बरदारों एवं मुखिया के शोषण से मुक्ति मिली । इस समय गांवों में स्थित तालाबों , चारागाहों तथा सार्वजनिक स्थानों को गांवों की सामूहिक सम्पत्ति घोषित करके उन्हें ग्रामीणों द्वारा चुनी गई पंचायतों को सौंप दिया । इसके फलस्वरूप न केवल पंचायती अधिकारों पर जमींदारों का प्रभाव समाप्त हया बल्कि स्वयं पंचायतों को भी अपनी शक्ति का उपयोग जन – सामान्य के हित में करने का अवसर प्राप्त इया । गाँवों की सामाजिक एवं आर्थिक शक्ति संरचना में उत्पन्न होने वाले ये परिवर्तन निश्चय ही अत्यधिक महत्त्वपूर्ण थे । नवीन शासन व्यवस्था के अन्तर्गत गाँव की जाति पंचायतों तथा न्यायालयों को हस्तान्तरित हो गए । इसका भी परम्परागत ग्रामीण शक्ति संरचना पर अत्यधिक प्रभाव पड़ा । लोकतन्त्रीकरण की प्रक्रिया एवं शिक्षा के प्रसार के कारण अब ग्रामीण शक्ति संरचना में प्रदत्त स्थिति की अपेक्षा अजित स्थिति का महत्व बढ़ने लगा । यह एक ऐसा परिवर्तन है जिसने ग्रामीण शक्ति संरचना के आधार को ही परिवतित कर दिया ।

 नेतृत्व के दृष्टिकोण से ग्रामीण जीवन में शक्ति के दो ही स्रोत प्रमुख रहे हैं – प्रथम जन्म और – कर्मकाण्डों पर आधारित श्रेष्ठता और दूसरा किसी विशेष समूह की संख्या शक्ति । वर्तमान जीवन में जन्म की श्रेष्ठता के स्थान पर संख्या शक्ति का शक्ति संरचना के अन्तर्गत महत्त्व तेजी से बढ़ता जा रहा है । गांव में जिस व्यक्ति प्रथवा जाति समूह को समर्थन देने वाले व्यक्तियों की संख्या अधिक होती है , शक्ति संरचना में अब उसी व्यक्ति अथवा समूह को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त हो जाता है । यह सच है कि इस परिवर्तन के फलस्वरूप गाँव में नेतृत्व का परम्परागत स्वरूप दुर्बल होने लगा है किन्तु प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से उच्च जातियों का प्रभाव आज भी विद्यमान है । उच्च जाति समूह यदि संख्या में बड़ा होता है तो स्वाभाविक रूप से उसे शक्ति संरचना में भी प्रभावपूर्ण स्थान प्राप्त हो जाता है , लेकिन कम संख्या होने पर यह स्थिति अक्सर नवीन संघर्षों एवं तनावों को जन्म देती है । अनेक अध्ययनों से यह स्पष्ट हुआ है कि नवीन ग्रामीण शक्ति संरचना में राजनीतिक दलों की भूमिका अधिक प्रभावपूर्ण बनती जा रही है । प्रत्येक राजनीतिक दल गाँव की जाति संरचना को ध्यान में रखते हुए अपनी राजनीतिक गतिविधियों का संचालन करता है जिसके फलस्वरूप अक्सर अपनी संख्या के प्राधार पर विशेष जाति – समूह को शक्ति – संरचना में उच्च स्थान प्राप्त हो जाता है ।

 भारत में स्वतन्त्रता के पश्चात् जिस नवीन जनतान्त्रिक , धर्मनिरपेक्ष एवं समताकारी शक्ति संरचना को विकसित करने का प्रयत्न किया गया , उसमें प्रांशिक रूप से सफल होने के पश्चात् भी शक्ति परम्परागत स्रोतों में कोई उल्लेखनीय परिवर्तन नहीं हो सके । आज भी ग्रामीण शक्ति संरचना कुछ बाह्य संशोधनों के बाद भी प्रान्तरिक रूप से अपने परम्परागत रूप में विद्यमान है । पहले जातिगत मान्यताओं के प्राधार पर उच्च जातियों के अधिकार अधिक थे जबकि अाज उच्च जातियाँ चुनावों के माध्यम से अपना प्रभाव बनाए हुए है । वास्तविकता तो यह है कि भारत की राजनीति तथा चुनाव का प्राधार अाज भी जाति के आधार पर बनने वाले गुट हैं । साधारणतया गांव में जिस जाति की संख्या शक्ति जितनी अधिक होती है , वह जाति एक स्थान अथवा क्षेत्र में अन्य जाति – समूह को लाठी के जोर पर अपनी इच्छायों को मनवाने के लिए बाध्य कर देती है । पिछले दो दशकों में राजनीतिक ध्र वीकरण को प्रक्रिया जातिगत प्राधार पर ही स्पष्ट होती जा रही है । इसी प्रक्रिया ने अाज प्रत्येक ग्रामीण क्षेत्र में अपनी जाति की संख्या शक्ति के आधार पर ही एक विशेष समूह की शक्ति संरचना में अपनी स्थिति को सुदृढ़ करने की प्रेरणा दी है । इस स्थिति में ग्रामीण शक्ति संरचना के अन्तर्गत एक ऐसे प्रच्छन्न नेतृत्व का विकास हुअा है जो कभी किसी वर्ग की शक्ति को बढ़ाता है और कभी दूसरे वर्ग की । इसके फलस्वरूप शक्ति – संरचना में अस्थिरता उत्पन्न हो गई है ।

MUST READ ALSO

MUST READ ALSO

वास्तविकता यह है कि ग्रामीण शक्ति संरचना में विकसित नवीन प्रतिमानों में आज अनेक परिवर्तनों के साथ कुछ परम्परागत विशेषताओं का भी समावेश है । गांवों की नवीन शक्ति संरचना में जो वर्तमान विशेषताएँ विद्यमान हैं , डॉ . योगेन्द्र सिंह के अनुसार उन्हें निम्नांकित रूप से समझा जा सकता है ।

( 1 ) गाँवों में आज भी शक्ति का केन्द्रीयकरण उच्च जातियों ( ब्राह्मण , क्षत्रिय , भूमिहार ) एवं वर्गों ( जैसे बड़े भू – स्वामी और साहकार ) में है ।

( 2 ) ग्राज निम्न जातियाँ और निम्न वर्ग – समूह संगठित होकर शक्ति प्राप्त करने के लिए उच्च जातियों तथा वर्गों से प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं । जातिगत स्तर पर इस प्रवृत्ति ने गुटवाद को जन्म दिया है । जाति पर अाधारित गुटबन्दी ने न केवल ग्रामीण समुदाय को विघटित किया है बल्कि ग्रामीण जीवन में सामाजिक तनावों तथा असुरक्षा की भावना भी उत्पन्न कर दी है ।

 ( 3 ) नवीन ग्रामीण शक्ति व्यवस्था को जिन धर्मनिरपेक्ष तथा प्रजातान्त्रिक मूल्यों के प्राधार पर विकसित करने का प्रयत्न किया गया था , वे ग्रामीण मूल्य शक्ति संरचना में अधिक प्रभावपूर्ण नहीं बन सके । इसका कारण यह है कि गाँवों की सामाजिक , सांस्कृतिक एवं राजनीतिक सहभागिता की इकाई व्यक्ति न होकर परिवार अथवा जाति के आधार पर बने हए गूट हैं । ता FOR ( 4 ) ग्रामीण शक्ति – संरचना आज भी विभिन्न जातियों एवं वर्गों की आर्थिक सम्पन्नता तथा आर्थिक अधिकारों की प्रथकता से प्रभावित है । इसका तात्पर्य है कि ग्रामीण शक्ति व्यवस्था उन समूहो । में केन्द्रित है जो सामान्य ग्रामीणों की प्रार्थिक आवश्यकताओं को नियन्त्रित करते हैं । इससे स्पष्ट होता है कि भविष्य में ग्रामीण शक्ति व्यवस्था में होने वाले परिवर्तन इस तथ्य से प्रभावित होंगे कि गांव में होने वाले प्राधिक परिवर्तनों का स्वरूप कैसा होगा । Emडॉ . योगेन्द्रसिंह द्वारा प्रस्तुत इन सभी निकषों से स्पष्ट होता है कि गांव की शक्ति संरचना में चाहे कितना भी परिवर्तन हो गया हो लेकिन यह परिवर्तन केवल बाह्म है , प्रान्तरिक नहीं । गांवों में उच्च जातियाँ , जमींदार और साहकार प्राज भी ग्रामीण निर्णयों तथा ग्रामीण जीवन को प्रभावित करते हैं । अन्तर केवल इतना है कि पहले ये जातियों और वर्ग प्रत्यक्ष रूप से ग्रामीण शक्ति संरचना को प्रभावित करते थे जवराज इनकी भूमिका परोक्ष प्रथा प्रच्छन्न रूप से महत्वपूरणे बनी हुई है । जिन गांवों में निम्न जातियों ने अपनी संख्या शक्ति के प्रावार पर गांव पंचायतों के पदों पर अधिकार कर लिया है , उन्हें भी उच्च जातियों और उच्च वर्गों की शक्ति के कारण गम्भीर कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है । इस दृष्टिकोण से ग्रामीण शक्ति संरवता अपने मूल रूप से अधिक दूर नहीं जा सकी है ।

 शक्ति का नया प्रतिमान 

The New Pattern of Power ) 

 1947 में भारत ने आजादी प्राप्त की । आजादी के बाद भारतीय सरकार ने सबसे महत्त्वपूर्ण कदम यह उठाया कि उसने जमींदारी प्रथा को समाप्त किया । उसके स्थान पर नई पंचायत व्यवस्था को लागू किया । इस पंचायत व्यवस्था में गांवों में नई शक्ति सरचना को जन्म दिया । 1920 में ब्रिटिश सरकार ने भी कानून बनाकर ग्राम पचायतों में अधिकारियों को मनोनीत करने की व्यवस्था की थी किन्तु उस व्यवस्था से भी जमींदारों का प्रभाव समाप्त नहीं हया था । उस समय भी पंचायत अधिकारियों के चुनाव की एक वयस्क मताधिकार की व्यवस्था नहीं थी इसलिए इन पंचायतों को भी जनता का समर्थन प्राप्त नहीं था । 1948 के कानून ने कई क्रान्तिकारी विचारों एवं चलनों का शुभारम्भ किया । इस कानून के द्वारा प्रत्येक युवा व्यक्ति को मताधिकार दिया गया तथा हाथ खडे करके चुनाव कराए जाने लगे । स्त्रियों को पहली बार गाँव की गतिविधियों में सक्रिय भाग लेने का अधिकार दिया गया । ग्राम पंचायत की कार्यवाही का लिखित रिकार्ड रखा जाने लगा और इनका सम्बन्ध राज्य की सम्पूर्ण न्याय व्यवस्था तथा लगान प्रशासन से जोड़ दिया गया । इस तरह पहली बार गाँव के अधिकारियों का सैद्धान्तिक व कानूनी रूप से आर्थिक स्थिति एवं जाति से सम्बन्ध तोड़ दिया गया । जमींदारी प्रथा उन्मूलन के कानून ने ग्रामीगा प्रजातन्त्र को तीव्र गति प्रदान की । भूमि में मध्यस्थ अधिकारियों की समाप्ति करने से पुराने काश्तकारों के परिवारों को आर्थिक तथा सामाजिक क्षेत्र में जमींदारों के अधिकारों से मुक्ति मिली । नम्बरदार व मुखिया के पदों को समाप्त कर दिया गया जो बाग – बगीचे , तालाब , चरागाह भूमि जमींदारों के अधिकारों में थे , उन्हें गाँव की सामूहिक सम्पत्ति घोषित कर दिया गया और उन पर नई चुनी हुई पंचायत को अधिकार एवं प्रशासन सौंप दिया गया । गाँव का चौकीदार अब जमींदार के स्थान पर चुनी हुई पंचायत के अधिकारियों के प्रति उत्तरदायी बना दिया गया । TER इस प्रकार समाजशास्त्रीय दृष्टि से ग्रामीण समुदाय की सामाजिक , आर्थिक एवं शक्ति संरचना में महत्त्वपूर्ण प्रजातन्त्रीय परिवर्तन कर दिए गए । यह राष्ट्रीय समाजवादी प्रजातन्त्र की पोर एक कदम था । काननी दृष्टि से भी गाँव में सामूहिक सम्बन्धों की प्राचीन व्यवस्था के स्थान पर व्यक्ति को शक्ति व्यवस्था में सहभागी बनाया । जाति का महत्त्व भी समाप्त कर दिया गया । इस प्रकार प्रदत्त पदों के स्थान पर . अजित पदों को महत्त्व दिया गया जो समाजशास्त्री दृष्टि से परम्परात्मक ग्रामीण विश्व हष्टिकोण ( Rural World view ) में परिवर्तन का प्रयास कहा जा सकता है ।

 नई विकास पंचायतों एवं न्याय पंचायतों ने नई शक्ति – व्यवस्था को जन्म दिया जिसका उद्देश्य ग्रामीण शक्ति के स्रोतों को जन – सहयोग तथा लोकतन्त्र पर आधारित करना था । अब ग्रामीण नेतामों का चुनाव वर्ग एवं जाति के स्थान पर उनके अजित गुणों के प्राधार पर होने लगा । यद्यपि पंचायत चुनावों से सम्बन्धित अनेक अध्ययन इस बात की पुष्टि करते हैं कि अब भी कई गांवों में पंच एवं सरपंचों के चयन में जाति एवं वर्ग का महत्त्व कम नहीं हुग्रा है । आर्थिक विषमता के कारण भू – स्वामियों , बड़े – बड़े किसानों तथा साहकारों का अब भी ग्रामीण शक्ति संरचना में महत्त्वपूर्ण स्थान है । ग्रामीण काश्तकारों की भू – स्वामियों एवं साहकारों पर प्राथिक निमरता अब भी बनी हुई है । इसके लिए उनकी निम्न एवं दयनीय प्राथिक स्थिति उत्तरदायी है । गांव की उच्च जाति एवं वर्ग के साथ मध्यम एवं निम्न जातियों तथा वर्गों का असन्तोष एवं संघर्ष धीरे – धीरे बढ़ रहा है ।

MUST READ ALSO

MUST READ ALSO

डॉ . योगेन्द्रसिंह ने वर्तमान भारतीय गांवों की शक्ति संरचना की विशेषतामों का उल्लेख इस प्रकार से किया है माह

 ( 1 ) गांवों में आज भी उच्च जातियों ( जैसे ब्राह्मण , क्षत्रिय , भूमिहर ) एवं वर्गों ( जैसे स्वामी और साहकार ) के हायों में शक्ति केन्द्रित है ।

 ( 2 ) निम्न जातियों एवं वर्ग – संगठित होकर उच्च जातियों एवं वर्गों से शक्ति प्राप्त करने के लिए प्रतिस्पर्दा कर रहे हैं । यह प्रवृत्ति वर्ग समूह के स्थान पर जाति – समूहों के लिए अधिक सही है । जाति स्तर पर इस सहभागीकरण ने गुटबन्दी को जन्म दिया है । गुटबन्दी ने गांव को विभाजित ही नहीं किया वरन् ग्रामीगा जीवन में तनाव और असुरक्षा भी पैदा की है । राधास्वाम

 ( 3 ) गाँव में नई शक्ति व्यवस्था में जिन लौकिक और प्रजातन्त्रीय मूल्य – व्यवस्थानों की अपेक्षा की गई थी , वे गांवों की मूल्य व्यवस्था एवं सामाजिक संरचना में प्रवेश नहीं कर पाए हैं । गांवों में सामाजिक , सांस्कृतिक व राजनीतिक सहभागीकरण की इकाई व्यक्ति नहीं अपितु गृहस्थी परिवारों का समूह या गुट है ।

 ( 4 ) गाँव की राजनीति आज भी विभिन्न जातियों एवं वर्गों की आर्थिक सम्पन्नता एवं वंचित रहने के प्रतिमानों द्वारा प्रभावित है । गांव में शक्ति व्यवस्था का झुकाव उन समूहों की अोर है जो ग्रामीण लोगों की प्राथिक प्राकक्षिानों को नियन्त्रित करते हैं । भविष्य में ग्रामीण शक्ति व्यवस्था की गतिशीलता की दिशा गांवों में होने वाले आर्थिक परिवर्तन और आर्थिक वृद्धि पर निर्भर करेगी ।

 प्रो . बेजनाथ वर्मा की मान्यता है कि ” शक्ति का प्रयोग व्यक्ति – समूह और समदाय ( Collectivity ) के हाथ में होता है । शक्ति का प्रयोग एक व्यक्ति द्वारा औपचारिक व अनौपचारिक पद धारण करने के कारण किया जा सकता है । प्राथमिक व द्वतीयक समूहों अथवा समाज द्वारा भी पक्ति का प्रयोग किया जाता है । इसी प्रकार से किसी प्रदेश , सामाजिक सांस्कृतिक क्षेत्र . अविकसित विश्व आदि समदायों के द्वारा भी शक्ति का प्रयोग किया जाता है । प्रो . बैजनाथ का मत है कि भारत में शक्ति सहचरण के प्रमुख सात स्वरूप हैं जो इस प्रकार हैं

 ( i ) व्यक्ति से व्यक्ति की ओर ( Flow of Power from Individual to Individual )

 ( ii ) व्यक्ति से समूह की और ( From Individual to Group )

 ( i ) समूह से व्यक्ति की पोर ( From Group to Individuals

 ( iv ) समूह से समूह की ओर ( From Group to Group )

( v ) समुदाय से समुदाय की ओर ( From Collectivity to Collectivity )

 ( vi ) समुदाय से व्यक्ति की ओर ( From Collectivity to Individual )

 ( vii ) समुदाय से समूह की मोर ( From Collectivity to Group )

MUST READ THIS

MUST READ THIS

 ( i ) व्यक्ति से व्यक्ति की भोर सहचरण – परम्परात्मक ग्रामीण समाज व्यवस्था में – क्ति का केन्द्रीयकरण व्यक्ति के हाथ में था । परिवार में पत्नी पर पति को , वयोवृद्ध लोगों को युवा लोगों पर , बड़े भाई – बहिनों को छोटे भाई – बहिनों पर शक्ति प्राप्त थी । परम्परागत व्यवस्था में भूमिकामों व पदों के निर्धारण में समानता के सिद्धान्त का पालन नहीं किया गया था । उत्तराधिकार में बड़े भाई का हिस्सा अन्य भाइयों की तुलना में अधिक था । वर्तमान में पति – पत्नी , पिता – पुत्र और भाई – भाई के सम्बन्धों में समानता की भावना का प्रवेश प्रा है और शक्ति के स्वरूप में परिवर्तन पाया है ।

( ii ) व्यक्ति से समूह की पोर – परम्परागत संयुक्त परिवार में परिवार का मुखिया अथवा कर्ता का ही सारे परिवार पर प्रभुत्व था । इसी तरह गुरु और पुजारी का अपने जजमानों पर , साहूकार का पूरे गांव पर , गांव पंच का झगड़ा करने वाले दलों पर प्रभुत्व था । गांव के नेता व नेताओं का गुटों पर , भातृदलों , जातियों और अन्य संगठनों का उन समूहों पर प्रभुत्व था जिनका वे प्रतिनिधित्व करते थे । यदि कोई नया समूह बनता तो उसे सामाजिक स्वीकृति प्राप्त करनी होती थी । उदाहरण के लिए , गांव में किसी राजनीतिक दल की शाखा अथवा आश्रम को स्थापित करने से पूर्व सामाजिक सहमति प्राप्त करना आवश्यक था । वर्तमान में भारतीय गांवों में शक्ति का केन्द्रीयकरण उन लोगों के हाथ में है जो गांव वालों को आर्थिक सुविधाएँ दिलाने , उनकी कठिनाइयों को दूर करने और विकास कार्यों को सम्पन्न करने में सहयोग प्रदान कर सकते हैं ।

 ( iii ) समूह से व्यक्ति की प्रोर – ग्रामीण क्षेत्रों में समूह का व्यक्ति पर प्रभुत्व पाया जाता रहा है । वहाँ कुछ विशिष्ट समूहों के पास शक्ति केन्द्रित रही है । गांव वालों को राजनीतिक दलों एवं समाज सुधार आन्दोलनों ने जाति पंचायतों व ग्राम पंचायत के विरुद्ध तैयार किया । एक व्यक्ति राजनीतिक दल अथवा सुधार आन्दोलन की सदस्यता ग्रहण करके शक्ति प्राप्त कर सकता था । इस प्रकार गाँव में शक्ति का सहचरण समूह से व्यक्ति की ओर भी रहा है ।

 ( iv ) समूह से समूह की भोर – इस प्रकार शक्ति के सहचरण में शक्ति सम्बन्ध सत्ता के साथ – माथ व्यवस्थित होते हैं । उदाहरण के लिए , सर्वोच्च न्यायालय व अधीनस्थ न्यायालय का सम्बन्ध और केन्द्र व राज्यों का सम्बन्ध समूह से समूह की पोर शक्ति सहचरण को प्रकट करता है । कौन – सा समूह उच्च व कौन – सा निम्न होगा ? यह वैधता के आधार पर तय होता है ।

 ( v to vii ) समुदाय से समुदाय , समूह तथा व्यक्ति की ओर शक्ति का सहचरण – एक परगना , मोहल्ला , भाषायी क्षेत्र और राज्य शक्ति के लिए अपने ही समान इकाइयों , समूहों व व्यक्तियों से प्रतिस्पर्द्धा करते हैं । सामुदायिक विकास योजना खण्ड भी इस प्रतिस्पर्धा में सम्मिलित हो गए हैं । शक्ति सहचरण के विभिन्न प्रकार यह प्रकट करते हैं कि गाँवों में आज भी शक्ति संरचना में परम्परात्मक शक्ति व्यवस्था का महत्त्व है । परिवार में यह प्रायु के आधार पर टिकी हुई है । गांव में अव भी उच्च जातियां अपने प्रभुत्व का प्रयोग निम्न जातियों पर करती हैं । गांवों में अब भी पंचायतें ग्रामीण क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं । यद्यपि वर्तमान में इन सभी क्षेत्रों में परिवर्तन की लहर दिखाई देती है । परिवार में यदि कोई सदस्य कर्ता से अधिक शिक्षित , बुद्धिमान और आर्थिक क्षमता रखता है तो वह कर्ता की शक्ति छीन लेता है । उधर निम्न जातियों में शिक्षित , समृद्ध , भू – स्वामी व्यक्ति नई पंचायत व्यवस्था में मतदान के प्राधार पर उच्च जाति के लोगों की शक्ति को चुनौती दे रहे हैं , गांव पंचायत में शक्ति व्यवस्था का मिश्रित रूप देखा जा सकता है । निम्न जातियों के लोग संख्या और सुरक्षित स्थानों के कारण पंचायतों में स्थान ग्रहण कर शक्ति व्यवस्था अपने हाथ में लेने के लिए प्रयत्नशील हैं तो दूसरी ओर भू – स्वामित्व एवं आर्थिक समृद्धि के कारण जमींदार , साहकार एवं उच्च जातियों के व्यक्ति गांवों में प्रोपवारिक व अनौपचारिक रूप से शक्ति संचालन में अब भी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहे हैं ।

Exit mobile version