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विवाह – विच्छेद

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विवाह – विच्छेद

 

Social acceptance was given to the institution of marriage as an institutional way to maintain the order of society and fulfill sexual needs. Some keep their life formally organized in spite of family tensions and some keep their life organized on the surface due to religious beliefs, family prestige and family pressures but there is a situation of family tension from within. Although many people consider divorce as the only reason for family disintegration. But divorce is only a sign of family dissolution, the reason being that divorce is a statutory break of marriage and the result is the final dissolution of the family. In the traditional Hindu society, earlier marriage was considered a religious act, nowadays it is becoming secular. There is an increasing tendency to consider marriage as consanguineous.

Till the mid-1950s, divorce was not allowed in Hindu legislation. Although in some castes, according to local customs, divorce was allowed by paying some money. Four decades ago the law makers of our country changed the Hindu society from uneducated and harsh condition to modern ideology and now it has changed from “sacred religious rites” to “marriage by mutual consent”. Not all marriages are successful, some end with disharmony and bitterness, some people with unsuccessful marriages keep dragging their life considering the fate and spend their whole life in a state of confusion. Abandonment whether permanent or temporary, Illegal and unauthorized is the act of husband or wife because the family wanders away, whereas divorce is legally breaking of marital bonds and is the ultimate termination of real marriage. So long as the state administers the institution of marriage, any kind of freedom from the shackles of marriage must follow the rules of the government. Divorce is a type of tragic event in which one of the husband and wife prays to leave the other. In modern western societies, marriages have become so temporary that the main reason for family disintegration is divorce, but it is also said that the problem of divorce arises only after the dissolution of the family when one or both the parties break their relationship. want to So long as he conducts the institution of marriage, it is necessary to follow the government rules for any kind of liberation from the bonds of marriage. Divorce is a type of tragic event in which one of the husband and wife prays to leave the other. In modern western societies, marriages have become so temporary that the main reason for family disintegration is divorce, but it is also said that the problem of divorce arises only after the dissolution of the family when one or both the parties break their relationship. want to So long as he conducts the institution of marriage, it is necessary to follow the government rules for any kind of liberation from the bonds of marriage. Divorce is a type of tragic event in which one of the husband and wife prays to leave the other. In modern western societies, marriages have become so temporary that the main reason for family disintegration is divorce, but it is also said that the problem of divorce arises only after the dissolution of the family when one or both the parties break their relationship. want to

तलाक सामंजस्यपूर्ण एवं सुखी परिवारों की समस्या नहीं है । इस प्रकार तलाक टूटे हुए विवाहों को कानूनी आधार प्रदान करता है । इसके साथ ही बहुत से ऐसे भी विवाह हैं जो पति – पत्नी को कष्टप्रद तो है पर उनमें तलाक की समस्या उत्पन्न नहीं होती । अधिकतर पति ही अपनी पत्नी का परित्याग करते हैं । विवाह – विच्छेद सदैव एक दुखद स्थिति है क्योंकि अस्वीकृत साथी अपमानित , तिरस्कृत व पीड़ित अनुभव करता है किन्तु परित्याग के सामाजिक दुष्परिणाम अधिक दुखदायी एवं अव्यावहारिक होते हैं विशेष रूप से स्त्री के लिए । स्त्री को सामाजिक आर्थिक व भावनात्मक आघातों का सामना करना पड़ता है ।

भावात्मक आधार पर उसे सदैव यही अनुभव होता है कि उसके पति द्वारा उसे तिरस्कृत रूप से अस्वीकार किया गया है तथा बेकार की वस्तु समझ कर फेंक दिया गया है । सामाजिक दृष्टि से उसे इस तरह दुख भोगना पड़ता है कि उसे यह निश्चित रूप से पता नहीं रहता कि उसका पति वापस आयेगा या नहीं और बच्चों को वह अपने पिता की अनुपस्थिति के बारे में क्या बताए । आर्थिक दृष्टि से जो स्त्री को आघात लगता है वह है आर्थिक संसाधनों की कमी , जिससे उसे अपने और बच्चों के भरण – पोषण में कठिनाई का सामना करना पड़ता है । परित्यक्त महिला स्वयं को न तो विवाहिता की श्रेणी में रख पाती है न विधवा की श्रेणी में । जीविकोपार्जन के लिए या तो उसे स्वयं कोर्ट कार्य करना पड़ता है या फिर अपने बच्चों को काम पर लगाना पड़ता है । कुछ महिलाओं को जब काम मिल जाता है तो उन्हें अधिक व्यस्त रहना पड़ता है । जिससे उनके बच्चों की उचित देख – रेख नहीं हो पाती या फिर वे अपनी आय को परिवार के लिए अपर्याप्त पाती हैं । ये सब परिस्थितियाँ बाल श्रम , किशोर अपराध , विघटित व्यक्तित्व आदि स्थितियों को जन्म देती हैं । किन्तु परित्याग की इस समस्या के विश्लेषण के लिए अभी तक कोई भी आधिकारिक समाजशास्त्रीय अध्ययन नहीं किया गया है न ही हमारे देश में कोई ऐसी सामाजिक सुरक्षा की योजना चलाई गयी है जिसके अंतर्गत परित्यक्त स्त्रियों के मामलों को प्रकाश में लाया जा सके । परन्तु विवाह – विच्छेद की ओर हमारा ध्यान कुछ दशकों से आकर्षित हुआ है ।

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तलाक को व्यक्तिगत घटना नहीं समझना चाहिए । यद्यपि तलाक समस्या के व्यक्तिगत पक्ष भी हैं फिर भी बड़े पैमाने पर तलाक सामाजिक समस्या का रूप धारण कर लेता है क्योंकि राज्य या राष्ट्र का अस्तित्व , सफल पारिवारिक जीवन की सफलता पर ही निर्भर है । इस प्रकार समाज के वयस्क सदस्यों द्वारा वैवाहिक उत्तरदायित्वों का सुचारू रूप से संचालन स्थिर पारिवारिक जीवन समाज की प्रथम आवश्यकता है । यद्यपि विवाह स्वरूप सामाजिक पर्यावरण तथा परिस्थितियों के अनुरूप भिन्न – भिन्न होता है परन्तु विवाह प्रत्येक समाज की एक आवश्यक संस्था है । पति – पत्नी को विवाह आंनद एवं सुख – शांति प्रदान करता है परन्तु विवाह जब सुख – शांति देने के स्थान पर कष्टदायक हो जाता है तो अनेक व्यक्तिगत पारिवारिक तथा सामाजिक समस्याओं को जन्म देता है , इन समस्याओं को दूर करने के लिए जब विवाह के बंधन में बंधे दो साथी वैवाहिक जीवन को महत्वपूर्ण और आवश्यक नहीं समझते तो वैवाहिक बंधनों को तोड़कर इसके लिए कानूनी मान्यता प्राप्त करते हैं जिसे तलाक कहा जाता है विद्वानों के अनुसार ” तलाक सर्वदा दुखांत होता है क्योंकि इससे साधारणतः आपसी विश्वास समाप्त हो जाता है , सत्य नष्ट हो जाता है और भ्रम निवृत्त हो जाती है । ” तलाक की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि – एक सामाजिक घटना के रूप में तलाक की प्रवृत्ति उस समय से चली आ रही है जब से समाज में सामाजिक नियमों द्वारा संचालित विवाह की संस्था मौजूद है । कौटिल्य ने भी चार अधार्मिक विवाहों – असर गन्धर्व , पैशाच तथा राक्षस में विच्छेद की आज्ञा दी है । सर्वप्रथम हमें कानूनी मान्यताप्राप्त तलाक का विधान हैम्मराबी के विधान में

 

देखने को मिलता है । इस विधान के अनुसार पति किसी भी समय बिना किसी कारण का उल्लेख किये पत्नी को तलाक दे सकता था । यहदियों में तलाक एक पुरुषोचित अधिकार था । भारतीय समाज में संप्रति तलाक की गति वर्धमान है ।

यहाँ सामाजिक परिवर्तन की अनेक प्रक्रियाओं उद्योगीकरण , नगरीकरण आधुनिकीकरण तथा अन्य गतिविधियों के कारण जीवन सांमजस्य से असामंजस्य की स्थितियों की ओर बढ़ रहा है । इस असामंजस्य की स्थिति का प्रभाव जीवन के सभी पक्षों पर पड़ा है । वैवाहिक जीवन भी परिवर्तन की धारा में आकर इससे प्रभावित हुआ है । विवाह अब केवल धार्मिक बंधन नहीं अपितु कानूनी संविदा या समझौता मात्र रह गया है , जिसे कानूनी आधारों पर तोड़ा जा सकता है । अतः स्पष्ट है कि अब कानून द्वारा पति – पत्नी दोनों को ही तलाक के अधिकार प्राप्त हैं । तलाक के प्रकार – विद्वानों के अनुसार वैधानिक तलाक के दो प्रकार हैं

पूर्ण तलाक – पूर्ण तलाक में विवाह के पूर्ण दायित्व एवं अधिकार समाप्त हो जाते हैं । और दोनों ही पक्ष समाज में अकेले व्यक्ति के रूप में रहते हैं । दोनों के संबंध समाप्त हो जाते हैं ।

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 आंशिक तलाक – आशिक तलाक या वैधानिक अलगाव विवाह को नहीं समाप्त करता बल्कि केवल पति – पत्नी की वैधानिक पृथकता को मान्यता प्रदान करता है । इसमें वे न तो एक साथ सोते हैं न खाना ही खाते हैं । यह स्थिाति तब तक रहती है जब तक पति – पत्नी पुनः एक आवास में रहने का निश्चय नहीं कर लेते । इसमें पत्नी के भरण – पोषण के लिए कुछ व्यवस्था की जाती है । परन्तु ऐसी दशा में पति – पत्नी दोनों ही में एक – दूसरे से मिलने और साथ रहने की प्रवृत्ति उत्पन्न होती है । कभी कभी पुनर्विवाह पर धार्मिक रोक हो जाने पर भी पति या पत्नी तलाक की स्थिति से ऊबकर पुनः आपस में मिलकर रहने लगते हैं । कुछ लोगों का ऐसा कहना है कि इस प्रकार का तलाक अवैधानिक व्यवहारों को प्रोत्साहित करता है इससे दोनों व्यक्तियों में तलाक के बाद पुनः एकीकरण की सम्भावना कम हो जाती है । स्त्रियाँ कभी – कभी अपने पति को अतिरिक्त विवाह करने से रोकने के लिए या अन्य धार्मिक या व्यक्तिगत कारणों से भी तलाक के लिए आवेदन करती है । परन्तु पूर्ण तलाक और आशिक तलाक को प्रकट करने वाले कोई ठोस आधार नहीं हैं । विवाह – विच्छेद के कारण विभिन्न विद्वानों ने इसके अपने – अपने कारण दिए हैं । एक के अनुसार तलाक के मख्य कारण हैं : • पारिवारिक सामंजस्य की कमी – पति – पत्नी के झगडे . पति द्वारा दुर्व्यवहार तथा ससुराल वालों के साथ झगड़े रहते हैं । • पत्नी का बाँझपन – पति या पत्नी का अनैतिक व्यवहार बीमारी या स्वभाव के कारण पति का पारिवारिक उत्तरदायित्व का निर्वाह न कर सकना , तथा पति को सजा होना । दसरे के अनसार – परित्याग और क्रूरता , पर – व्यक्तिगमन , नपंसकता और विविध कारण जो वास्तविक कारणों से भिन्न हैं । तीसरे के अनुसार – इनके अनुसार विवाह – विच्छेद के कारणों के दो समूह हैं –

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  1. पर्यावरण सम्बन्धी कारण तथा

 

  1. व्यक्ति संबंधी कारण

पर्यावरण संबंधी कारण परिवार के अन्दर तथा परिवार के बाहर के वातावरण से सम्बद्ध है । पर्यावरण संबंधी कारणों में अवैध संबंध , अपर्याप्त गृह – जीवन , शारीरिक प्रहार , गरीबी , पत्नी का रोजगारमय जीवन और भूमिका संघर्ष । व्यक्तित्व संबंधी कारणों में – चिड़चिड़ा स्वभाव , असाध्यरोग , नपुंसकता , बाँझपन , आयु में बड़ा अन्तर तथा प्रभुत्व जमाने वाला स्वभाव । ये सभी अध्ययन यह संकेत देते हैं कि विवाह – विच्छेद सदैव ही विवाहित जीवन में सौहार्द की कमी के कारण नहीं होते हैं । नि : संदेह कुछ पत्नियाँ अपने पति के दुर्व्यवहार , क्रूरता व उपेक्षा पूर्ण रवैये के कारण विच्छेद चाहती हैं किन्तु कुछ मामलों में स्त्रियां इसलिए तलाक चाहती हैं कि वे अपने ससुराल वालो से तंग आ जाती हैं । इसके विपरीत कुछ पुरुष अपनी पत्नी की उनके प्रति वफादारी पर संदेह करते हैं या फिर उनके बीच बौद्धिक तथा शैक्षिक स्तर पर बड़ा अन्तर होता है । कहीं – कहीं तो पत्नी कठोर नियमों वाले रूढ़िवादी परिवार से सम्बद्ध होते हुए अपने पति के सामाजिक जीवन से स्वंय को अनुकूल नहीं कर पाती हैं क्योंकि उसे पति के घर पुरुष संगति की अनुमति नहीं मिली होती है , कही पर इसके विपरीत स्त्री को शान्त , नीरस तथा बदरंग मिजाज का पति मिल जाता है । माता – पिता द्वारा तय किये गए विवाह में जहाँ आपसी आकर्षण विवाह का कारण नहीं होता वहीं अनेक अन्य कारण होते हैं जैसे माता – पिता के प्रति सम्मान , अच्छा दोस्त – उच्च पारिवारिक संबंध लेने और देने के अवसर होते हैं और विवाह के बाद सामंजस्य की इच्छा भी बहुत कम रहती है ।

 

 विवाह – विच्छेद के कारणों पर सैद्धान्तिक दृष्टिकोण विवाह – विच्छेद पर किसी भी व्याख्या को चार कारणों पर ध्यान देना चाहिए

 ( 1 ) वे कारक जो विवाह – मूल्यों को प्रभावित करते हैं ( प्रकार्यात्मक दृष्टिकोण )

 ( 2 ) वे कारण जो बदलती आर्थिक व्यवस्था तथा उसके सामाजिक व आदर्शवादी अधिसंरचना , विशेषकर परिवार के मध्य संघर्ष के कारण उत्पन्न होते हैं , ( मार्क्सवादी दृष्टिकोण )

 ( 3 ) अंतः क्रिया की परिस्थिति और ( अन्तः क्रियावादी दृष्टिकोण ) ।

( 4 ) मूल्य तथा लाभ का विचार ( सामाजिक विनिमय दृष्टिकोण ) म प्रकार्यवादी दृष्टिकोण विवाह – विच्छेद को सामान्यत : आदर्शी व मूल्यों में होने वाले परिवर्तनों विशेष रूप से परिवार और विवाह में होने वाले परिवर्तनों के प्रतिबिम्ब के रूप में समझाता है । लोग विवाह से अधिक उम्मीदें करते हैं परिणामतः विवाह भंग होने की स्थिति में आ जाता है जब उनकी उम्मीदें पूर्ण नहीं होतीं । दूसरा प्रकार्यवादी इस तथ्य पर भी बल देते हैं कि परिवार की आर्थिक व्यवस्था की अपेक्षाओं के साथ अनुकूल न करने के कारण वैवाहिक सम्बन्धों पर एक तरह से बोझ पड़ता है । संयुक्त परिवार में मानसिक तनाव कभी – कभी निश्चित ही होता है क्योंकि परिवार का आकार आर्थिक बोझ , युवा सदस्यों की आशाएँ तथा बुजुर्गों द्वारा खड़ी की गई रूढ़िवादी मान्यताएँ एवं रोक लगाने वाले मूल्य व आदर्श आड़े ही आते हैं । अंत में प्रकार्यवादी विवाह और तलाक में आने वाले परिवर्तनों की बात भी करते हैं । भूतकाल में लोगों पर हिन्दू दर्शन का बड़ा प्रभाव था जिससे विवाह – विच्छेद की – सम्भावनाएँ काफी कम थीं । किन्त आज धर्मनिरपेक्ष विश्वासों के कारण विवाह – विच्छेद के प्रति मूल्यों एवं दृष्टिकोण में परिवर्तन आया है । धर्म निरपेक्षता ने धार्मिक विश्वासों के प्रभाव को कम किया है जिससे विवाह – संबंध भी बहुत प्रभावित हुए हैं । मार्क्सवादी दृष्टिकोण इस बात पर बल देता है कि वैवाहिक आकांक्षाएं तभी पूरी हो सकती हैं जब पति – पत्नी दोनों कमाने वाले हों किन्तु वेतन कमाने वाली श्रमिक महिलाओं की आशाओं और उन आदर्शात्मक आकांक्षाओं में जो वैवाहिक जीवन से जुड़ी रहती 18 , अन्तर्विरोध के कारण संघर्ष उत्पन्न होता है । कार्यरत पत्नियों  सम्पादन की भूमिका के साथ गृहिणी की भूमिका के प्रतिबद्धता की भी आशा की जाती है । समान रूप से धनोपार्जन का कार्य करने के बावजद स्त्रियों से अपेक्षा की जाती है कि वे घर क पुरुष मुखिया के आधीन भमिका का निर्वाह करे । इस प्रकार की आदर्शात्मक अपेक्षाएँ स्त्री व रात्मक अपेक्षाएँ स्त्री की धन उपार्जक भूमिका के बिल्कुल विरुद्ध है । इस प्रकार की स्थितियाँ भी इस तरह का वातावरण तैयार कर देती हैं । पत्नी और पति यदि अलग अलग सामाजिक पृष्ठभूमि के हों तो उनमें सामंजस्य स्थापित करना कठिन होता है जिससे परित्याग या पथक्करण या तलाक भी हो सकता है । ये सब कारण विवाह – विच्छेद में सहायक होते हैं । विवाह – विच्छेद के पश्चात् भूमिका समायोजन – तलाक के विभिन्न परिणाम हमारे सामने आते हैं । भारतीय समाज में इस तथ्य के विश्लेषण की आवश्यकता है कि तलाक के बाद पति – पत्नी किस प्रकार अपने को समायोजित करते हैं विवाह की संविदा का अंत तलाक होता है परन्तु पति – पत्नी की दृष्टि से यह केवल पति – पत्नी की परिस्थिति में परिवर्तन है । इससे वैयक्तिक विघटन भी होता है तथा ऐसे व्यक्ति स्वयं को अपराधी अनुभव करने लगते हैं । ऐसी दशा में उसके सामने असामंजस्य की स्थिति उत्पन्न हो जाती है । तलाक के बाद पति – पत्नी दोनों की भूमिकाओं और परिस्थिति में परिवर्तन हो जाता है कुछ लोग तो तलाक से उत्पन्न परिस्थितियों का सामना कर लेते हैं परन्तु अन्य लोगों का जीवन इन स्थितियों में विघटित हो जाता है । भारत सहित प्रायः सभी देशों की सामाजिक संरचना विवाह की अवधारणा पर आधारित है । अन्य कोई भी व्यवस्था समाज के लिए इच्छित नहीं है । संबंधों की परिस्थिति में परिवर्तन भूमिका तथा व्यवहार में अस्पष्टता एवं परिवर्तन के कारण व्यक्ति के समक्ष सामंजस्य की समस्या उत्पन्न हो जाती है । तलाकशुदा व्यक्तियों के समक्ष वैवाहिक सम्बन्धों की पुनःस्थापना की समस्या भी आ जाती है । बहुत कम संख्या में तलाकशुदा स्त्री – पुरुष पुनर्विवाह करते हैं । तलाक के बाद अधिकांश स्त्री – पुरुष माता – पिता के साथ ही रहते हैं । तलाक से यौन सामंजस्य की समस्या उत्पन्न होती है । प्रायः स्त्री के पास ज्यादा समस्या उत्पन्न होती है । तलाक प्राप्त व्यक्तियों को प्रायः समाज में उचित सम्मान नहीं मिल पाता । ऐसे लोगों को व्यक्तित्व में परिवर्तन से उपस्थित कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है । तलाक से व्यक्ति के अहम को चोट पहुँचती है । काफी तलाकशुदा स्त्रियाँ कोई काम नहीं करतीं । इसके बाद स्त्री – पुरुष एक – दूसरे के प्रति किसी प्रकार का मोह नहीं रखते । आदतों की पूर्ति न होने पर निराशा परेशानी त व असंतोष का भाव उत्पन्न हो जाता है , तलाक से आर्थिक त भमिकाओं के निर्वाह तथा आर्थिक जीवन के संचालन में अत्याधिक काठों का सामना करना होता है । तलाक के बाद बच्चों को को पारि ज्यादा आती है , उनका जीवन भी इन दोनों के बीच पिसता है । ऐसे व्यक्तियों के सामने समूह तथा समाज के वातावरण की अनेक कठिनाइयाँ सामने आती हैं पर धीरे – धीरे ये अवस्थाएँ व्यक्तियों के लिए स्वाभाविक हो जाती हैं । विवाह – विच्छेद की प्रवृत्तियाँ – भारत में तलाक की निम्नलिखित प्रवृत्तियाँ पायी जाती हैं : न्यायालयों में तलाक के लिए वास्तविक कारणों का उल्लेख नहीं किया जाता । वास्तविक कारण वैधानिक कारणों से भिन्न होते हैं । अतः परित्याग क्रूरता , व्यक्तिगत आदि कारण देने की अपेक्षा पारस्परिक मनमुटाव व तनाव आदि कारण देने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है । वैधानिक कारणों के अंतर्गत क्रूरता तथा परित्याग के कारणों का उल्लेख अधिक लिया जाता है क्योंकि ये दोनों आधार अन्य आधारों की अपेक्षा कम आक्रामक माने जाते हैं । तलाक के लिए दिए जाने वाले आधारों को उदार बनाने के कोई प्रयत्न नहीं हो रहे हैं । यद्यपि 1960 से तलाक की दर में काफी वृद्धि हुई है लेकिन न्यायालयों की प्रवृत्ति यही है कि तलाक संबंधी निर्णय शीघ्रता तथा तच्छ बातों पर लिया गया कदम मानकर उससे बचने की कोशिश की जाए । तलाक को इतनी गम्भीर बुराई नहीं माना जा रहा है जितना – की पति – पत्नी का इकट्ठा रहकर तनाव भरा जीवन व्यतीत करने को । तलाक के बाद उपेक्षणीय संख्या में लोग पुनर्विवाह करते स्त्रियाँ भी पुरुषों की भाँति विवाह असफलता के कारण तलाक को आतुर हैं यद्यपि इतना अवश्य है कि वे विवाहित जीवन के बंधनों से मक्त होने के लिए तलाक नहीं चाहतीं बल्कि तनाव से तंग आकर अंतिम रूप के उपाय में तलाक के लिए पहल करती सायिक स्थिति तलाक के बाद बच्चे आमतौर पर माँ के साथ रहते हैं किन्तु पिता बच्चों से सामाजिक संबंधों को समाप्त नहीं करता ।

तलाक की दर में सामाजिक वर्ग तथा व्यावसायिक स्थिति के आधार पर भिन्नता आती जा रही है । मध्य स्थिति वाले व्यवसाय में लगे लोगों में उच्च व्यवसाय में लगे लोगों की अपेक्षा अधिक तलाक होते हैं । इसी प्रकार ग्रामीण लोगों में शहरी लोगों की अपेक्षा तलाक की दर कम है । भारत वर्ष में तलाक – भारत वर्ष में तलाक की परंपरा बहुत – नहीं है । अंग्रेजों के आने के बाद से लोगों में तलाक के प्रति लाई पड़ता था । परन्तु वर्तमान समय में भारत में तलाक की व्याख्या सन 1955 में बनाये गए हिन्दू विवाह अधिनियम के आधार पर की जाती है । इस अधिनियम में विवाह के प्राचीन स्वरूपों दहेज प्रथा एवं विवाह – विच्छेद के संबंधों में विशेष नियम बनाये गए । जम्मू कश्मीर को छोड़कर पूरे देश में इस कानून को 18 मई , 1955 से लागू किया गया है । इस एक्ट के पूर्व भारत में तलाक के लिए कोई वैधानिक व्यवस्था नहीं की गई थी । इस अधिनियम में स्त्रियों की स्वतंत्रता बढ़ाने पर बल दिया गया । अधिनियम से विवाह की धार्मिक मान्यता को ठेस पहुँची । इस अधिनियम का तलाक की दृष्टि से बहुत महत्त्व है । तलाक की प्रक्रिया – कानून द्वारा मान्यता प्राप्त होने के पश्चात तलाक की निम्नलिखित प्रक्रिया का विधानों में उल्लेख किया गया है :

 1 . तलाक के लिए आवेदन पत्र न्यायालय में ही दिया जाएगा ।

 2 . तलाक के लिए प्रार्थना – पत्र विवाह की तिथि के तीन वर्ष बाद ही दिया जा सकेगा ।

 3 . न्यायालय तलाक और विवाह से संबंधित सभी मामलों की जाँच करने के बाद पति या पत्नी को तलाक की आज्ञा प्रदान करेगा ।

4 . यदि एक बार किसी युगल को न्यायालय से विवाह – विच्छेद या तलाक की अनुमति प्राप्त हो जाती है तो एक वर्ष की अवधि के अन्दर वह युगल पुनः विवाह करने के लिए अदालत से प्रार्थना कर सकता

 5 . तलाक के बाद न्यायालय यह व्यवस्था कर सकता है कि प्रार्थी द्वारा दूसरे पक्ष को जीवन – पर्यन्त या जब तक दूसरा विवाह न कर ले तब तक के लिए जीवन यापन के लिए आवश्यक सहायता या खर्च दे । ।

6 . न्यायालय व्यय के संबंध में अन्य आवश्यक आदेश भी दे सकता है जिसके आधार पर प्रतिवादी के खर्च या जीवन – यापन संबंधी सुविधाओं तथा अन्य बातों की व्यवस्था हो । भारत में तलाक के आधार – भारत में पति तथा पत्नी दोनों ही एक – दूसरे को संविधान द्वारा परिभाषित अनेक या किसी एक कारण से तलाक दे सकते हैं । हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 13 , 14 में विवाहों के विच्छेद के लिए कई आधारों का वर्णन किया गया है । इस अधिनियम से वे विवाह भी प्रभावित होते हैं जो से लागू होने से पूर्व हुये थे । अधिनियम के अंतर्गत सलकि कालिए इच्छुक व्यक्ति के संवैधानिक आधारों पर न्यायालय में आवेदन पत्र देना होता है , जिसके आधार पर न्यायाधीश तलाक की अनमति प्रदान कर सकते हैं । पति या पत्नी कोई भी निम्नलिखित में किसी एक या कई आधारों पर विवाह – विच्छेद की आज्ञा के लिए न्यायालय में आवेदन पत्र दे सकता है ।

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( क ) पति या पत्नी में कोई भी यदि बलात्कार का दोषी

( ख ) पति या पत्नी आवेदन की तिथि से तीन वर्ष पूर्व से भयंकर कोढ़ जैसे रोग से पीड़ित हो , जिसके उपचार की कोई सम्भावना न हो ।

( ग ) पति या पत्नी आवेदन करने की तिथि से पहले ऐसी विकृत मानसिक अवस्था में हो जिसका इलाज संभव न हो ।

 ( घ ) यदि पति या पत्नी ने विवाह के समय के अपने धर्म में विवाह के बाद परिवर्तन किया हो तो आवेदक को तलाक प्राप्त करने का अधिकार होगा ।

( ड ) विवाह के पश्चात् की स्थितियों में यौन संबंधी निम्नलिखित आधारों पर पत्नी अपने पति से तलाक के लिए आवेदन कर सकती है । • पति बलात्कार करने का दोषी हो । • पति नपुंसक हो । • पति गुदा मैथुन का दोषी हो । • पति पशु मैथुन का दोषी हो ।

 ( च ) यदि पति या पत्नी को संक्रमक यौन रोग हो गया हो तो वह विवाह हिन्दू विवाह अधिनियम के आधार पर तलाक के लिए आवेदन कर सकता है । किसी भी पति के लिए आवश्यक है कि वह इस प्रकार तभी आवेदन करे जबकि दूसरे को तीन वर्ष पर्व से ही संक्रामक यौन रोग रहा हो ।

 ( छ ) हिन्दू विवाह अधिनियम के अनुसार यदि पति ने दूसरा विवाह कर लिया हो तो पत्नी उसे तलाक दे सकती

( ज ) पति या पत्नी संन्यास धारण कर ले तो कोई भी पक्ष तलाक दे सकता है ।

( झ ) पति या पत्नी में से कोई भी पक्ष यदि विवाह से प्राप्त वैधानिक अधिकारों की रक्षा और उनका सम्मान नहीं करते तो दूसरे पक्ष को यह अधिकार रहता है कि वह तलाक प्राप्त कर ले ।

( त ) अधिनियम के अनुसार यदि पति या पत्नी के बारे में यह नहीं पता चलता है कि पिछले 7 वर्षों से दूसरा व्यक्ति जीवित है या मर गया है तो जीवित पति या पत्नी तलाक प्राप्त कर सकता हैं ।

( थ ) हिन्दू विवाह अधिनियम के अनुसार तलाक प्राप्त

 

करने के लिए यह आवश्यक है कि प्रार्थना पत्र देने के पूर्व दो वर्षों में सहवास न प्रारंभ किया हो । भारत में तलाक को वैधानिक आधार प्राप्त होने से अब तक तलाक की दर में तेजी से वृद्धि हुई है । समाज में आधुनिकीकरण

 

As a result of the continuation of the process and the influence of western civilizations, marriages are now getting divorced in India and the importance of religious sentiment behind marriage is decreasing, but the speed of divorce in India is much slower than in foreign countries.

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