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 विवाह के प्रकार

विवाह के प्रकार

(Types of Marriage )

हिन्दू विवाह

 ( HINDU MARRIAGE)

 हिन्दओं में विवाह को एक संस्कार के रूप में स्वीकार किया गया है । कापडिया लिखते हैं , “ हिन्दू विवाह एक संस्कार है । ‘ हिन्दू विवाह के उद्देश्य ( Aims of Hindu Marriage ) कापडिया लिखते हैं , ” हिन्दू विवाह के उद्देश्य , धर्म , प्रजा ( सन्तान ) तथा रति ( आनन्द ) बतलाये गये हैं । “

 हिन्दू विवाह के उद्देश्य हैं –

( i ) धार्मिक कार्यों की पूर्ति ,

 ( ii ) पुत्र – प्राप्ति ,

( iii ) रति आनन्द ,

( iv ) व्यक्तित्व का विकास ,

 ( v ) परिवार के प्रति दायित्वों का निर्वाह ,

( vi ) समाज के प्रति कर्तव्यों का निर्वाह ।

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हिन्दू विवाह के स्वरूप

( Forms of Hindu Marriage )

हिन्दुओं में विवाह के आठ स्वरूप माने गए हैं :

 ( 1 ) ब्राह्म विवाह — इसमें वेदों के ज्ञाता शीलवान वर को घर बुलाकर वस्त्र एवं आभूषण आदि से सुसज्जित कन्या का दान किया जाता है ।

( 2 ) दैव विवाह — इसमें यज्ञ करने वाले पुरोहित को यजमान अपनी कन्या का दान करता है ।

 ( 3 ) आर्ष विवाह – इसमें पिता गाय और बैल का एक जोड़ा लेकर ऋषि को अपनी कन्या का दान करता है ।

 ( 4 ) प्रजापत्य विवाह — इसमें लड़की का पिता यह आदेश देता है कि तुम दोनों एक साथ रह कर आजीवन धर्म का आचरण करो । इसके बाद कन्यादान करता है

( 5 ) गान्धर्व विवाह – यह वर्तमान का प्रेम विवाह ही है ।

 ( 6) . असुर विवाह — इसमें वर , कन्या के पिता को धन देकर विवाह करता है ।

( 7 ) राक्षस विवाह — इसमें कन्या को जबरन उठा लाकर उससे विवाह किया जाता है ।

( 8 ) पैशाच विवाह — इसमें सोयी हुई , उन्मत्त , घबराई हुई , मदिरा पान की हुई कन्या के साथ बलात्कार कर उससे विवाह किया जाता है ।

 मुसलमानों में विवाह

( MARRIAGE IN MUSLIMS )

 ( निकाह ) एक सामाजिक समझौता है । इनमें विवाह को ‘ निकाह ‘ कहते हैं , जिसका शाब्दिक अर्थ है नर – नारी का विषयी समागम । मुस्लिम विवाह एक धार्मिक संस्कार नहीं वरन् एक  समझौता है । जिसका उद्देश्य घर बसाना , सन्तानोत्पत्ति करना एवं उन्हें वैध घोषित करना है । “

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मुस्लिम विवाह के उद्देश्य

( Aims of Muslim Marriage )

–  स्त्री – पुरुषों को यौन सम्बन्ध स्थापित करने की वैध स्वीकृति प्रदान करना ।

 -बच्चों को जन्म देना तथा उनका पालन – पोषण करना ।

– पति – पत्नी के पारस्परिक अधिकारों को ‘ मेहर ‘ के द्वारा स्वीकृति प्रदान करना ।

– एक संविदा के रूप में पति – पत्नी को यह अधिकार देना कि एक पक्ष द्वारा संविदा का पालन न करने पर दूसरा पक्ष उसे छोड़ सकता है ।

– बच्चों के पालन – पोषण को ध्यान में रखकर मुस्लिम समाज में बहु – पत्नी विवाह प्रथा को मान्यता प्रदान की गयी है ।

 विवाह के प्रकार

(Types of Marriage )

 विवाह सार्वभौमिक है , लेकिन इसकी प्रकृति , उद्देश्य , आदर्श एवं स्वरूप एक समान नहीं है । पति – पत्नी की संख्या के आधार पर विवाह के जो सामान्य प्रकार पाये जाते हैं , वे निम्न हैं _

 1 . एक विवाह ( Monogamy ) : जब एक पुरुष या स्त्री जीवन – साथी के रूप में वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करते हैं , तो उसे एक विवाह कहा जाता है । आज एक विवाह ही सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है । वर्तमान हिन्दू विवाह अधिनियम , 1955 ने एक विवाह को ही मान्यता प्रदान की है ।

2 . बहुविवाह ( Polygamy ) : जब एक से अधिक पुरुष या स्त्री वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करे , तो उसे बहुविवाह कहा जाता है । बहुविवाह के तीन रूप हैं –

( i ) बहुपत्नी विवाह , ( ii ) बहुपति विवाह , और ( iii ) समूह विवाह ।

( i ) . बहुपत्नी विवाह ( Polygyny ) : जब एक पुरुष एक से अधिक स्त्रियों से सम्बन्ध स्थापित करता है , तो उसे बहुपत्नी विवाह कहा जाता है । प्रारम्भिक हिन्दू समाज में इसका प्रचलन था । हिन्दू विवाह अधिनियम , 1955 . . के बाद इसमें काफी कमी आयी है । मुसलमानों में इसका प्रचलन है । भारत की कुछ जनजातियों ( नागा , गोंड , बैगा , टोडा आदि ) में भी इसका प्रचलन है ।

( ii ) . बहुपति विवाह ( Polyandry ) : जब एक स्त्री एक से अधिक पुरुषों से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करती है , तो उसे बहुपति विवाह कहा जाता है । इसका एक महत्वपूर्ण उदाहरण महाभारत काल में पाँच पांडवों के साथ द्रौपदी का विवाह है । आधुनिक समय में दक्षिण भारत के नायर में यह प्रथा प्रचलित है ।

 बहुपति विवाह के दो रूप हैं ( a ) भ्रातृबहुपति विवाह एवं ( b ) अभ्रातृबहुपति विवाह ।

 ( a ) . भ्रातृबहुपति विवाह ( Fraternal Polyandry ) : जब एक स्त्री एक से अधिक वैसे पुरुषों से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करती है , जो आपस में भाई – भाई हों , तो उसे भ्रातृबहुपति विवाह कहा जाता है । द्रौपदी व पाँच पांडवों का विवाह इसके उदाहरण हैं । साथ ही , भारत की खस व टोडा जनजाति में इसका प्रचलन रहा है ।

( b ) . अभ्रातृबहुपति विवाह ( Non – Fraternal Polyandry ) : जब एक स्त्री एक से अधिक पुरुषों से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करे , वे पुरुष आपस में भाई – भाई न हों , तो उसे अभ्रातृबहुपति विवाह कहा जाता है । इसका प्रचलन टोडा व नायर जाति में रहा है । समह विवाह ( Group Marriage ) : जब पुरुषों का एक समूह स्त्रियों के एक समूह से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करता है , तो उसे समूह विवाह कहा जाता है । उद्विकासवादी विचारकों का ऐसा मानना है कि परिवार व विवाह की प्रारम्भिक अवस्था में विवाह का यह रूप रहा हो , लेकिन आज यह कहीं भी नहीं पाया जा सकता । इस प्रकार विवाह के अनेक प्रकार पाये गये हैं लेकिन वर्तमान समय में हिन्दुओं में एक विवाह ही प्रचलित है । विशेष परिस्थिति में बहुपत्नी विवाह देखा जाता है ।

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 एकविवाह के कारण

 ( i ) समाज में स्त्रियों एवं पुरुषों की संख्या का समान होना ।

 ( ii ) पारिवारिक संघर्ष या तनाव से बचाव

( iii ) आर्थिक कारक

( iv ) दाम्पत्य जीवन में दूसरों का आना स्वीकार नहीं

( v ) हिन्दू विवाह अधिनियम ,

1955 द्वारा एक विवाह ही अनिवार्य रूप से लागू । एकविवाह से लाभ ( i ) सर्वश्रेष्ठ विवाह ( ii ) पति – पत्नी व्यक्तिगत रूप से बच्चों के प्रति जिम्मेदार ( iii ) स्त्री – पुरुष का आपसी सहयोग बना रहना । ( iv ) स्त्रियों की स्थिति ऊँची हो जाती है । ( v ) बच्चों की संख्या में कमी । ( vi ) पति – पत्नी मानसिक तनाव व संघर्ष से दूर । उद्विकासीय सिद्धान्त के अनुसार , एकविवाह की प्रथा सबसे नवीन एवं आधुनिक प्रथा है । वेस्टरमार्क ने एकविवाह को ही विवाह का आदिस्वरूप माना है ।

मैलिनोवस्की के अनुसार , एकविवाह ही विवाह का सच्चा स्वरूप है , रहा था और रहेगा । बहुविवाह नमा बहुविवाह एक ऐसा विवाह है जिसमें एक पुरुष या स्त्री का एक से अधिक स्त्रियों या पुरुषों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित होता है । इसके चार प्रकार पाए जाते हैं ।

बहुपत्नी विवाह के लाभ

( 1 ) बहुपत्नी विवाह के कारण कामी पुरुषों की यौन इच्छाओं की पूर्ति परिवार में ही पूरी हो जाती है । इसलिए समाज में भ्रष्टाचार एवं अनैतिकता में वृद्धि नहीं हो पाती है ।

( ii ) स्त्रियों की संख्या अधिक होने पर सबकी शादी सम्भव ।

( iii ) अनेक स्त्रियों के होने पर बच्चों का पालन – पोषण एवं घर की देख – रेख सरलता से हो जाती है ।

( iv ) बहुपत्नी विवाह समाज के अधिकांश धनी एवं समृद्ध लोगों में पाए जाते हैं । अत : ऐसे विवाह से उत्पन्न सन्ताने शारीरिक एवं मानसिक दृष्टि से सुदृढ़ होती हैं ।

बहुपत्नी विवाह की हानियाँ

 ( i ) स्त्रियों का समय प्राय : झगड़ों में ही नष्ट होता है । ( ii ) जनसंख्या में वृद्धि । ( ii ) कई पलियों के कारण पति सबकी देखभाल सही तरीके से नहीं कर पाता । ( iv ) स्त्रियों की सामाजिक प्रतिष्ठा गिर जाती है । ( v ) विधवाओं की संख्या में वृद्धि । ( i ) पुरुष द्वारा सभी पलियों की यौन सन्तष्टि न कर पाने के कारण समाज में यौनाचार पनपता है

 बहुपति विवाह के कारण

 ( 1 ) इसका प्रमुख कारण आर्थिक क्रियाकलाप या गरीबी है । जब अकेला पुरुष स्त्रियों एवं बच्चों का भरण – पोषण नहीं कर पाता है तो अनेक – पुरुष मिलकर भरण – पोषण करते हैं ।

 ( ii ) वधूमूल्य का अधिक होना । वधूमूल्य प्रथा के कारण ‘ हो ‘ जनजाति में लड़कियाँ सबसे अधिक समय तक कुंवारी रहती हैं ।

 ( iii ) जनसंख्या को मर्यादित रखने की इच्छा के कारण ही बहुपति विवाह का पालन किया जाता है क्योंकि ऐसे विवाह में सन्ताने कम होती हैं । नातिनानि

 ( iv ) सम्पत्ति के विभाजन को रोकने के लिए । की

 ( v ) भौगोलिक प्रस्थितियों – टोडा तथा खस जहाँ रहती हैं वहाँ कृषि योग्य भूमि का अभाव पाया जाता है ।

( vi ) धार्मिक कारण – देहरादून के खस अपने को पाण्डव का वंशज मानते हैं तथा ये लोग द्रोपदी विवाह प्रथा का पालन करते हैं ।

( vii ) वेस्टरमार्क के अनुसार , बहुपति विवाह का मुख्य कारण लिंगानुपात का असन्तुलित रूप होता है । ( viii ) ‘ समनर ‘ , ‘ कनिंघम ‘ तथा ‘ सक्सेना ने बहुपति विवाह का मुख्य कारण गरीबी को माना है ।

 

 

बहुपति विवाह के लाभ

                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                   ( i ) सम्पत्ति का बँटवारा न होना

 ( ii ) सन्तान का कम होना ,

 iii ) आर्थिक सहयोग –

 बहुपति विवाह की हानियाँ ( i ) बाँझपन का विकसित होना । ( ii ) लड़का सन्तान अधिक होना जिससे लड़कियों की संख्या में कमी हो जाती है ।  – तानी ( iii ) स्त्रियों की स्थिति दयनीय होती है । ( iv ) समाज में विधुर की संख्या का ज्यादा होना । ( v ) स्त्रियों में यौन रोग पनपना ।

विलिंग सहोदरज विवाह

 विवाह का महत्व या प्रकार्य

( Importance or Functions of Marriage )

पारिवारिक जीवन का आधार ( Basis of Family Life ) : विवाह के आधार पर परिवार का निर्माण होता है । इसीलिए विवाह को परिवार का प्रवेश द्वार कहा गया है । पारिवारिक परिवेश में प्रेम और स्नेह का आदान – प्रदान सम्भव हो पाता है । विवाह रूपी संस्था के माध्यम से स्थापित परिवार वह अनुपम स्थल है जहाँ व्यक्ति अपनी शारीरिक , मानसिक , सामाजिक और आर्थिक सारी इच्छाओं की पूर्ति करता है तथा समाज का योग्य नागरिक बनता है ।

. यौन – इच्छा की पूर्ति में सहायक ( Helpful in Satisfaction of Sex ) : यौन – इच्छा मानव का स्वाभाविक गुण है , जिसे व्यक्ति जन्म के साथ पाता है । इस इच्छा की पूर्ति स्वस्थ मानव के सन्दर्भ में आवश्यक है । मानव की इस इच्छा की पूर्ति विवाह व्यवस्था के द्वारा सम्भव हो पाता है । यौन इच्छा की पूर्ति बिना विवाह के किया जाना कामाचार को उत्पन्न करना है । अतः विवाह यौन इच्छा की पूर्ति की समाज – स्वीकृत व्यवस्था है ।

. बच्चों को वैधता प्रदान करना ( Legitimization of Children ) : विवाह – व्यवस्था के माध्यम से बच्चों को वैधता प्राप्त होती है । इस व्यवस्था में दो स्त्री – पुरुष के बीच यौन सम्बन्ध के फलस्वरूप जो बच्चे जन्म लेते हैं , उसे समाज द्वारा स्वीकारा जाता है । साथ ही बच्चे तथा उनके माता – पिता को एक निश्चित सामाजिक प्रस्थिति प्राप्त होती है । विवाह किये बिना भी बच्चे जन्म दिये जा सकते हैं , लेकिन इस बच्चे को अवैध माना जायगा । फिर बच्चे व सम्बन्धित माता – पिता को सामाजिक प्रतिष्ठा नहीं मिल पाती । अतः विवाह के माध्यम से उत्पन्न बच्चे वैध माने जाते हैं ।

 सामाजिक निरन्तरता में सहायक ( Helpful in Social Continuity ) : प्रत्येक समाज अपने अस्तित्व एवं निरन्तरता बनाये रखने के लिए अगली पीढ़ी को लाने की व्यवस्था करता है । विवाह व्यवस्था समाज के इस महत्वपूर्ण कार्य को करता है । हिन्दू समाज में वंशवृद्धि व वंशनिरन्तरता को विशेष महत्व दिया गया है तथा इस कार्य को धर्म से जोड़ा गया है ।

 नातेदारी सम्बन्धों का विकास ( Development of Kinship Relationships ) : विवाह व्यवस्था के माध्यम से नये नातेदारों का विकास होता है । इससे व्यक्ति के नातेदारी सम्बन्धों का दायरा बढ़ता है । विवाहपूर्व व्यक्ति जनक परिवार ( जिसमें वह जन्म लिया व पाला गया ) से सम्बन्धित होता है । विवाह के उपरान्त वह जनन परिवार से सम्बन्धित होता है । फलस्वरूप व्यक्ति अपने रक्त सम्बन्धियों के साथ – साथ विवाहोपरान्त अन्य सम्बन्धियों ( सास , श्वसुर , साला , साली , साढ़ आदि ) से जुड़ता है । एच० एम० जॉनसन ( H . M . Johnson ) ने नातेदारी सह – व्यवस्था के निर्धारक तत्व के रूप में विवाह को स्वीकारा है ।

 सामाजिक प्रतिष्ठा ( Social Prestige ) : विवाह सामाजिक प्रतिष्ठा का द्योतक है । विवाह – उत्सव जीवन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उत्सव है । इस अवसर पर जिस धूमधाम से समारोह का आयोजन होता है , वह इस बात का द्योतक है कि विवाह सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त करने का माध्यम है । साथ ही , परिवार का सबसे बड़ा यज्ञ विवाह माना गया है । इस यज्ञ को पूरा करने के बाद परिवार की प्रतिष्ठा सुरक्षित होती है ।

 व्यक्ति के समाजीकरण में सहायक ( Helpful in Socialization of Individuals ) : विवाह दो भिन्न विचारधारा , परम्परा , रहन – सहन , जीवन – शैली आदि से अनुकूलन करना सिखाती है । साथ ही यह त्याग को बढावा देती है और पारस्परिक कर्तव्य के प्रति निष्ठा उत्पन्न करती है । जब दो स्त्री – पुरुष विवाह व्यवस्था के माध्यम से पति – पत्नी के रूप में सम्बन्धित होते हैं तो उनका समाजीकरण प्रारम्भ हो जाता है । इससे एक तरफ पारिवारिक जीवन स्वस्थ व सबल होता है , तो दूसरी तरफ स्वस्थ व्यक्तित्व का निर्माण होता है । इस प्रकार विवाह व्यक्ति के समाजीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है । 0 8 . संस्कृति के हस्तान्तरण में सहायक ( Helpful in Transmission of Culture ) : संस्कृति समाज

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