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Ethnomethodology 

 

 लोक – विधि विज्ञान

 

‘ Ethno ‘ ( इथनो ) का अर्थ होता है ‘ लोक ‘ या लोकज्ञान ‘  ‘ Methodology ‘ ( मैथडोलोजी ) का अर्थ विषय – वस्तु है | इथनोमैथडोलोजी का अर्थ है – ‘ प्रतिदिन ‘ के जन – जीवन का समाज विज्ञान | प्रतिदिन की घटनाओं को व्यवस्थित रूप से समझना इस पद्धति का उद्देश्य है । ‘ घटना ‘ का महत्त्व उतना नहीं है जितना कि ‘ घटना ‘ के अर्थ ( Meaning of Phenomena ) का | लोक – विधि विज्ञान , व्यक्ति के आन्तरिक विचार – लोक में प्रवेश करना चाहता है । घटनाओं का अर्थ साधारणजन कैसे लगाते हैं , अर्थबोध का संचार या आदान – प्रदान कैसे करते हैं , इस विषय – वस्तु को लेकर , लोक – विधि विज्ञान सामाजिक घटनाओं की व्याख्या करता है । लोक – विधि विज्ञान वह पद्धति है , जो व्यावहारिक तर्क ( Practical Reasoning ) से सम्बन्धित है । इस पद्धति के समर्थक यद्यपि अभी संख्या में अपेक्षाकृत कम हैं । इनमें गारफिन्कल , विटनर , सिकोरल , चर्चिल , मैक एन्ड्यू मारमैन , रोज , सैक्सडनाउ , बीटर , जिमरमेन इत्यादि के नाम उल्लेखनीय हैं ।

अब्राहम लिखते हैं- ” नृजाति – पद्धतिशास्त्र व्यक्तियों द्वारा प्रयुक्त ज्ञान की सामान्य विधियाँ हैं , जिनके माध्यम से दैनिक क्रियाओं को अर्थ दिया जाता है तथा सामाजिक यथार्थता को निर्मित किया एवं बनाए रखे जाता है । ” – लैण्डिस चर्चिल के अनुसार- ” नृजाति – पद्धतिशास्त्र मुख्यतः मानव व्यवहार के उन पक्षों के अध्ययन पर बल देता है जो किसी व्यक्ति की सामान्य एवं व्यवहारिक दैनिक क्रियाओं से सम्बन्धित है । ” उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि – लोग अपनी दैनिक क्रियाओं के प्रति सहज बौद्धिक ज्ञान रखते हैं । ये क्रियाएँ सरल होती हैं और इनका अर्थ निकालने की कोई आवश्यकता लोग नहीं समझते । इन दैनिक क्रियाओं को महत्त्व देकर इनका अध्ययन करने वाला उपागम ही नृजाति – पद्धतिशास्त्र है । नृजाति – पद्धतिशास्त्र अपने अध्ययन में तीन तथ्यों को महत्त्व देता है

 ( 1 ) मनुष्य की दैनिक क्रियाएँ ,

( 2 ) दैनिक क्रियाओं की भाषा एवं उसका सामाजिक पक्ष , तथा

 ( 3 ) स्थितियों के मानदण्ड वाले पक्ष तथा व्यक्तियों के द्वारा विशिष्ट संदर्भ स्थितियों में मानदण्डों के पालन की प्रक्रियाओं की वास्तविकता ।

अन्तक्रिया में लोग घटनाओं का अर्थ लगाते हैं और उस अर्थ बोध का आदान – प्रदान करते हैं , इसी प्रक्रिया का अध्ययन करना लोक – विधि विज्ञान है । इस पद्धति के प्रमुख प्रवर्तक एल्फ्रेड शुज और गारफिन्कल हैं । गारफिन्कल के नाम से ही इस पद्धति को जाना जाता है । लोक – विधि शब्द की रचना गारफिन्कल ने 1967 में अपनी पुस्तक ‘ स्टेडीज इन इथनोमैथडोलोजी ‘ में की थी । गारफिन्कल के मतानुसार इस शब्द की व्युत्पत्ति में ‘ इथनो ( Ethno ) का अर्थ व्यक्ति को उसके समाज के सामान्य ज्ञान की उपलब्धि से इसका विशेष जोर आँकड़ों के गणन , सर्वेक्षण , विश्लेषण , प्रश्नावलियाँ आदि में होने की अपेक्षा समझ ( Understanding ) पर अधिक होता है क्योंकि अन्य बातें केवल मनुष्य को एक वस्तु ( Thing ) का स्तर प्रदान कर देती है । लोक – विधि वेत्ता केवल खुले व्यवहार का अध्ययन नहीं करना चाहते । वे कार्य की कर्ता के दृष्टिकोण से व्याख्या करना चाहते हैं । इसलिए यह एक विषयगत उपागम ( Subjective Approach ) है ।

लोक – विधि शास्त्री मनुष्यों की प्रतिदिन की क्रियाओं का अध्ययन करते हैं । ये व्यावहारिक गतिविधियों , व्यावहारिक परिस्थितियों तथा व्यावहारिक समाजशास्त्रीय तर्क रचना को अपने अनुभववादी अध्ययन की विषय – वस्तु बनाना चाहते हैं । उनके मतानुसार सामाजिक दृष्टि से अर्थपूणा आभास प्रतिदिन के जीवन के पर्यवेक्षण और विश्लेषण पर आधारित होते हैं ।

लोक – विधि में इस बात पर अधिक ध्यान रहता है कि समाजशास्त्री यथार्थ में क्या करते हैं और वे दुनिया को कैसा देखते हैं । लोक – विधि शास्त्री सामाजिक अन्तःक्रिया की प्रक्रिया में कैसे सामाजिक वास्तविकता बनती है , इस बात पर जोर देते हैं । उनके लिए सामाजिक वास्तविकता कोई दी गई चीज नहीं है , यह अन्तःक्रिया की प्रक्रिया के दौरान जन्म लेती है । उनके लिए सामाजिक संरचना कोई स्थाई वस्तु नहीं है वरन् यह गत्यात्मक है , जो हमेशा परिवर्तित होती रहती है ; इसलिए वे सामान्यीकरण ( Generalization ) करने से कतराते हैं ।

  उनके मतानुसार सामाजिक संरचना हमेशा बदल जाती है , जबकि अभिनेता इसे अर्थ प्रदान कर देते हैं । सामाजिक स्थितियाँ हमेशा एकसमान नहीं होती लेकिन वे अनिश्चित होती हैं । ज्योंही अन्तःक्रिया में व्यक्ति बदल जाते हैं परिस्थिति भी बदल जाती है । यहाँ तक कि अन्तःक्रिया करने वाले व्यक्ति वही रहते हैं फिर आवश्यक नहीं कि परिस्थिति वही रहे ।

इसलिए समाजशास्त्र को अलग – अलग रूप से नहीं देखा जा सकता ; किन्तु यह इस दुनिया का एक भाग होना चाहिए और इसी कारण गारफिन्कल ( Garfinkal ) ने कहा कि प्रत्येक व्यक्ति एक व्यावहारिक सिद्धान्तशास्त्री है ।

 समाजशास्त्र की सामान्य प्रवृत्ति समाज की समस्याओं का अध्ययन करने की है , प्रतिदिन का जीवन इसमें कभी समस्याप्रद नहीं समझा जाता । सबसे पहली बार एल्फ्रेड शुट्ज ने दिन – प्रतिदिन के जीवन के महत्त्व का उल्लेख किया । लोक – विधि घटना क्रियावाद द्वारा प्रभावित हुई है , विशेष रूप से दार्शनिक समाजशास्त्री एल्फ्रेड शुज और जार्ज हरबर्ट मीड के विचारों ने इसे प्रभावित किया है । लोक – विधि उपागम के प्रतिपादक गारफिन्कल ने हुस्सल व शुज के प्रति अपने ऋण का उल्लेख किया है । उसने यह भी कहा है कि वह पारसन्स तथा गुरुविच के विचारों से भी प्रभावित है । लोक – विधि उपागम में शनैःशनैः सिद्धान्तवेत्ताओं की रुचि बढ़ रही है ।

लोक – विधि विज्ञान का अर्थ ( Meaning of Ethnomethodology )

 

। गारफिन्कल ने स्पष्ट किया है कि लोक – विधि विज्ञान का विकास मानवशास्त्रीय शब्दों में जैसे – ईथनो बोटनी ( Ethno Botany ) . इथनो मेडिसन ( Ethno Medicine ) इत्यादि के सजातीय के रूप में हुआ है । जिस प्रकार इथनो बोटनी में बोटनी ‘ शब्द एक समूह को इंगित करता है , जिसे आँकड़ों के रूप से समझा जाना चाहिए . उसी प्रकार इथनो पद्धति में पद्धति भी वैज्ञानिक संयन्त्र की अपेक्षा एक विषय – वस्तु ( Subject – matter ) को इंगित करती है । लोक – विधि विज्ञान और शोध पद्धतियाँ एक – दूसरे के साथ संघर्षपूर्ण नहीं हैं किन्तु यह शोध प्रविधि नहीं है वरन् समाज के अध्ययन के प्रति एक भिन्न उपागम है ।

 

 इथनोमैथडोलोजी खोज की वैज्ञानिक पद्धति नहीं है | ” मैथडोलोजी ( Methodology ) लग जाने से यह नहीं समझा जाना चाहिए कि यह कोई नयी कार्यविधि या अनुसन्धान की नई पद्धति है । वास्तविकता तो यह है कि इथनोमैथडोलोजी , वैज्ञानिक प्रत्यक्षवाद ( Scientific Positivism ) का समर्थन नहीं करती । यह एक आन्दोलन ( Movement ) है ।यह सामान्य ज्ञान किसी भी प्रकार का हो सकता है  यह उन प्रविधियों की व्याख्या करती है , जिनके द्वारा समाज के सदस्य उनकी गतिविधियों के अर्थ एक – दूसरे को प्रदर्शनीय बनाते हैं । यह इस बात में रुचि लेती है कि दिन – प्रतिदिन की गतिविधियों में सामाजिक व्यवस्था कैसे सम्भव होती है । इसका पता लगाए और यह जाने कि लोग एक – दूसरे से किस प्रकार संचार करते हैं । लोक – विधि वैज्ञानिकों के लिए भाषा और अर्थ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है ।

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 लोक – विधि विज्ञान परिप्रेक्ष्य का सम्पूर्ण सम्बन्ध इनसे है

  1. प्रतिदिन के जीवन की गतिविधियाँ ।

  1. भाषा और अर्थ ।

गारफिन्कल का सम्बन्ध समाज में मनुष्यों की व्यावहारिक और प्रतिदिन की गतिविधियों से रहा है क्योंकि वे उनके लिए और दूसरे के लिए प्रतिदिन के जीवन को दर्शनीय तथा प्रतिवेदनीय बना देती है । वह उन कार्यों को करने और प्रबन्धित करने में जिन तरीकों का प्रयोग करते हैं उनसे सम्बन्धित हैं । सामाजिक दुनिया में महत्त्वपूर्ण भाग अदृश्य होता है । यह प्रदत्त और अदृश्य दुनिया है । इथनो पद्धतिशास्त्री का कार्य है कि इस प्रदत्त को समाप्त करे और इसके अदृश्यपन के आचरण की सांस्कृतिक नींवों को अनावृत करे ।

हेगड़ोर्न एवं लेबोरिट्ज के अनुसार “ यह सूचीबद्ध अभिव्यक्तियों और अन्य व्यावहारिक कार्यों के तार्किक गुणों की प्रतिदिन के जीवन के संगठित कलापूर्ण व्यवहारों की अनिश्चित और निरन्तरता पूर्ण आपूर्ति के रूप में जाँच है ।

सिकोरल ने लोक – विधि विज्ञान को ” समस्त मानवीय गतिविधियों की निर्माता स्वरूप प्रतिदिन के व्यावहारिक चिन्तन के अध्ययन के रूप में परिभाषित किया है । मुख्य विचारणीय विषयों , सदस्यों की प्रतिदिन की वार्ता का उपयोग तथा प्रतिदिन के अनुभवों और गतिविधियों का वर्णन है ।

सिकोरल मुख्यतः इस बात से सम्बन्धित है कि भाषा और अर्थ किस प्रकार उस मार्ग की रचना करते हैं , जिसमें सामाजिक अन्तःक्रिया सम्पन्न होती है और प्रतिनिधित्व पाती है । उस के लिए लोक विधि विज्ञान का अर्थ है प्रतिदिन के सामाजिक व्यवहारों और वैज्ञानिक गतिविधियों में वर्णनात्मक प्रक्रियाओं तथा तलीय नियों ( मानकों ) का अध्ययन । समाज में सदस्य एक – दूसरे के कार्यों तथा संचारों की व्याख्या करते हैं और इसलिए लोक – विधि विज्ञान भाषा में रुचि रखते हैं । भाषावादी भी भाषा में रुचि रखते हैं लेकिन दोनों के दृष्टिकोण पर्याप्त भिन्न होते हैं । .

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सिकोरल के मतानुसार व्याख्यात्मक प्रक्रिया

  1. परिप्रेक्ष्यों की पारस्परिकता , कुछ लक्षण हैं

  1. आदि – आदि की मान्यताएँ .
  2. सामान्य रूप .
  3. घटनाओं का पूर्व प्रभावी परिप्रेक्ष्यात्मक अर्थ ,
  4. बातचीत स्वयं आत्म – वाचक रूप में ,
  5. वर्णनात्मक शब्दावलियों और सूचीगत अभिव्यक्तियाँ ।

नृजाति – पद्धतिशास्त्र की विशेषताएँ ( ( Characteristics of Ethnomethodology )

 यह सिद्धान्त वास्तविकता को स्थायी न मानकर परिवर्तनशील मानता है ।

मनुष्य सांस्कृतिक पर्यावरण में ढला हुआ व्यक्ति नहीं अपितु सामान्य रूप से क्रियाशील रहकर अन्तःक्रिया करने वाला प्राणी है , यह इस उपागम की आधारभूत मान्यता है ।

यह उपागम घटना के स्थान एवं सन्दर्भ तथा व्यक्तियों की भाषा को पर्याप्त महत्त्व देता है ।

नृजाति – पद्धतिशास्त्र विज्ञानवाद का विरोधी है किन्तु अपने अध्ययनों में अवलोकन को स्वीकार करता है ।

 यह सिद्धान्त मानदण्डात्मक प्रारूप को महत्त्व नहीं देता ।

 नृजाति – पद्धतिशास्त्र में वस्तुपरकता को कोई स्थान नहीं दिया जाता । इसके स्थान पर यह उपागम वैषयिकता को महत्त्व देता है ।

 नृजाति – पद्धतिशास्त्र का जन्म क्लासिकल समाजशास्त्र के विरोध में हुआ तथा यह उपागम सृजनात्मक समाजशास्त्र ( Creative Sociology ) के रूप में सामने आया है ।

 नृजाति – पद्धतिशास्त्र सामाजिक मूल्यों एवं प्रतिमानों को स्वीकार नहीं करता ।

इस उपागम में वास्तविकता का निर्माण अन्तःक्रिया की प्रक्रिया के अन्तर्गत होता है ।

  यह उपागम व्यक्तियों की दैनिक क्रियाओं को विशिष्ट महत्त्व देता है ।

 नृजाति – पद्धतिशास्त्र संख्यात्मक अध्ययन के स्थान पर व्याख्यात्मक अध्ययन को महत्व देता है ।

इस उपागम की महत्त्वपूर्ण विशेषता लघु स्तरीय अध्ययन है क्योंकि यह प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावाद की एक शाखा है ।

 क्लासिकल समाजशास्त्रीय सिद्धान्त तथ्यों के सामान्यीकरण के आधार पर निष्कर्ष निकालते हैं किन्तु यह सिद्धान्त समझ ( Understanding ) पर बल देता है ।

 इस सिद्धान्त में व्यक्ति महत्त्वपूर्ण है अर्थात् किसी भी घटना के प्रति व्यक्तियों के दृष्टिकोण को यह सिद्धान्त महत्त्व देता है ।

 भाषा एवं उसके सामाजिक पक्ष पर इस उपागम में विशेष ध्यान दिया जाता है इसलिए इसका दूसरा नाम लोकविधि विज्ञान भी है ।

 नृजाति – पद्धतिशास्त्र में अध्ययन की वे पद्धतियाँ काम में लायी जाती हैं जिनके द्वारा घटनाओं की वास्तविकता का प्रत्यक्ष अवलोकन सम्भव हो ।

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लोक – विधि विज्ञान की प्रविधि

( Technique of Ethnomethodology )

लोक – विधि विज्ञान बहुत कुछ उन्हीं अध्ययन पद्धतियों को अपनाते हैं , जिनको परम्परावादी समाजशास्त्रियों द्वारा अपनाया जाता है । गारफिन्कल ने लोक – विधि वैज्ञानिकों को प्रत्यावर्तित ( Reflexive ) व्यवहारों पर ध्यान देने को कहा है । उदाहरण के लिए जब एक बच्चे को उसके अपने रचनात्मक उत्पादन के विषय में कहने के लिए आग्रह किया जाता है और तब वह ऐसा करने के लिए रेखा चित्रों में आकृतियों , रूपों और रंगों को दूसरे व्यक्ति के सम्मुख प्रस्तुत करता है , तो बच्चा एक प्रकार से एक ‘ लेखा ‘ प्रस्तुत कर रहा है । यह तकनीक तथा पूर्वोक्त अन्य तकनीकें मिलकर लोक – विधि वैज्ञानिकों के लिए व्यावहारिक शोध के साधन एवं ऐसे शीर्षक प्रस्तुत करती हैं जो शोध एवं प्रकाशन के माध्यम से अनुशासन को आगे बढ़ाने का वायदा करते हैं ।

जोनाथन टर्नर के अनुसार लोक – विधि विज्ञान का सम्बन्ध उस आभास के अध्ययन से है , जिसकी ओर परम्परागत सैद्धान्तिक परिप्रेक्ष्य के बौद्धिक क्षेत्रों में बहुत कम ध्यान दिया जाता है । यह इस आभास का अध्ययन करने के लिए अनेक शोध रण – नीतियों का प्रयोग करता है , जिनमें पर्यवेक्षणात्मक और सहभागी पर्यवेक्षणात्मक प्रविधियों के अनेक रूप शामिल हैं । लोक – विधि वैज्ञानिकों द्वारा निम्न प्रत्यक्ष प्रविधियों पर जोर दिया जाता हैं

  1. पर्यवेक्षणात्मक तकनीक ,
  2. प्रच्छन्न रूप से सुनने की तकनीक ,
  3. अभिलेखित सामग्री ,

 जैसे – डायरियाँ , पत्र इत्यादि जिनमें लोग अधिक खुले और अधिक स्वतन्त्र रहते हैं । यद्यपि लोक – विधि विज्ञान ने अभी तक अपनी सर्वाधिक प्रभावशाली विश्लेषणात्मक तकनीकों को पहचाना नहीं है , किन्तु अधिकांश लोक – विधि शास्त्रियों के कार्यों में चार प्रविधियों का उल्लेख किया गया है :

  1. सहभागी पर्यवेक्षण ( Participant Observation ) की परम्परा जिसका प्रयोग सांस्कृतिक , मानवशास्त्रीय एवं प्रतीकात्मक अन्तःक्रिया में अधिक किया गया है ।
  2. इथनोपद्धतिवादी प्रयोग जो मूल रूप से तब अपनाई जाती है जबकि परिस्थिति के मानकों के साथ अनुपयुक्त रूप से आचरण के द्वारा अन्तःक्रियात्मक स्थिति के असत – व्यस्त होने के कारण अपनाई जाती है ।
  3. एक प्रविधि ‘ अभिलेखात्मक व्याख्या ‘ की है , जिसमें दूसरे व्यक्ति या समूह के व्यवहार , वक्तव्य एवं बाहरी अभिव्यक्तियों को एक अभिलेख या अन्तर्निहित स्वरूप के रूप में लिया जाता है , जो अनुभूतियों की व्याख्या करते हैं ।
  4. ” भाषा शास्त्र में उल्लेखनीय रुचि है , जो अर्थ के संचार का माध्यम है । इसमें भाषा के रूप और सामाजिक अन्तःक्रिया की संरचना के मध्य सम्बन्धों पर विशेष ध्यान दिया जाता है ।

लोक – विधि विज्ञान अपने उपागम को परम्परागत समाजशास्त्र की सभी शाखाओं से भिन्न मानते हैं और इसे मात्र अवधारणात्मक रूप रचना नहीं कहते ; क्योंकि उन्होंने अनुभववादी समाजशास्त्र की इस मूलभूत मान्यता को अस्वीकारा है कि ऐसी कोई वास्तविक सामाजिक व सांस्कृतिक दुनिया जिसका अध्ययन वैज्ञानिक प्रविधियों द्वारा वस्तुगत रूप से किया जा सकता है ।

लोक – विधि वैज्ञानिकों द्वारा प्रत्येक अन्तःक्रियात्मक स्थिति की विलक्षणात्मकता पर जोर दिया जाता है इसलिए वे सामान्यीकरण नहीं करते । वे परम्परागत समाजशास्त्र की इस मान्यता को चुनौती देते हैं कि समाज में अणुभागी अर्थों की पर्याप्त स्थिर व्यवस्था होती है , जो प्रश्नावलियों अथवा साक्षात्कारों अथवा किसी प्रकार की शोध प्रणाली को जिसमें शोधकर्ता विषय की प्रतिक्रियाओं तथा व्यवहार को पूर्व निर्धारित श्रेणियों में सही बैठाता है . आधार प्रस्तुत कर सके । बालेस तथा गोल्फ ने इस प्रकार के सामाजिक विश्लेषण में प्रयुक्त अवधारणा , जिसे लेखांकन कहा गया है , की ओर विशेष ध्यान दिया है । उनके मतानुसार लेखांकन लोगों की परिस्थितियों से प्राप्त अर्थ को स्वयं के लिए तथा दूसरों के लिए घोषित करने की योग्यता है । लेखा भाषा और अर्थ दोनों शामिल हैं । लोग अपने कार्यों को स्पष्ट करते हुए निरन्तर भाषात्मक या मौलिक लेखा प्रस्तुत करते हैं ।

 

 

अनुभवाकितता

 पद्धतिशास्त्र अपने अध्ययनों में अनुभव को पर्याप्त महत्त्व देता है । शोधकर्ता अपने इन्द्रियगत अनुभव के माध्यम से जो तथ्य एकत्रित करता है , वे महत्त्वपूर्ण होते हैं । अनुभव प्राथमिक भी हो सकता है तथा द्वैतीयक भी । प्राथमिक अनुभव स्वयं घटना स्थल पर पहुँच कर प्राप्त किया जाता है जबकि द्वैतीयक अनुभव किसी अन्य साधन के माध्यम से प्राप्त सूचना के आधार पर प्राप्त होता है । वर्सथन पद्धति प्राथमिक अनुभव का उदाहरण है ।

 प्रलेखीय पद्धति ( Documentary Method )

 इस पद्धति द्वारा एकत्रित तथ्यों में एक तथ्य दूसरे की व्याख्या के लिए आधार बनता है । इस पद्धति में अवलोकन के आधार पर तथ्यों को वर्गीकृत किया जाता है । सभी घटनाओं को उनके घटित होने के साथ के आधार पर क्रमबद्ध कर दिया जाता है । इस पद्धति के अन्तर्गत विभिन्न अर्थों के माध्यम से एकरूपता वाले प्रतिमानों को खोजा जाता है । समुदाय के अध्ययन में ही प्रायः इस पद्धति का प्रयोग किया जाता । गारफिन्केल ने इस पद्धति के अन्तर्गत कार्ल मानहीम के विचारों को आधार बनाया है ।

 प्रयोगात्मक पद्धति ( Experimental Method )

 नृजाति – पद्धतिशास्त्र सामाजिक वास्तविकता को परिवर्तनशील मानता है । हमारा दैनिक जीवन एक निश्चित ढर्रे पर चलता रहता है । हमें नहीं पता होता कि हमारे जीवन की यह व्यवस्था किस प्रकार निर्मित हुई है । इसी सन्दर्भ में गारफिन्केल का मानना है कि हम अपने दैनिक जीवन के प्रतिमानों में परिवर्तन लाकर इस वास्तविकता का पता लगा सकते हैं । इसी सन्दर्भ में गारफिन्केल

  अवलोकन पद्धति ( Observation Method )

– यद्यपि नृजाति – पद्धतिशास्त्र आनुभाविकता का विरोधी है किन्तु ये उपागम अवलोकन का प्रयोग अपने अध्ययनों में करता है । अवलोकन घटनाओं का प्रत्यक्ष एवं यथार्थ अध्ययन करने की विधि है । नृजाति – पद्धतिशास्त्र घटनाओं के यथार्थ अध्ययन को स्वीकार करता है । यह उपागम अवलोकन के रूप में सहभागी अवलोकन को अधिक महत्त्व देता है । अध्ययन क्षेत्र में अध्ययन की इकाइयों के मध्य रहकर गुपचुप रूप से एकत्रित की गई सामग्री वास्तविक एवं गहन होती है , इस उपागम की ऐसी मान्यता है ।

लोक – विधि विज्ञान की मूल अवधारणाएँ

 ( Basic Concepts of Ethnomethodology )

 

 

आत्मवाचकता ( Reflaxivity )

 गारफिन्कल का विचार है कि सदस्यों द्वारा सामाजिक विश्व का अनुभव एक तथ्यपूर्ण व्यवस्था के रूप में किया जाता है क्योंकि बोध रचना कार्य , जिसके माध्यम से वह व्यवस्था उत्पन्न होती है या पहचानी जाती है . सदस्यों की जाँच का विषय नहीं है यहाँ गारफिन्कल ने व्यावहारिक कार्यों की आत्मवाचकता का उल्लेख किया है । सन्दर्भ सामाजिक घटना के अवसर की उन परिस्थितियों की ओर इशारा करते हैं , जिनका घटनाओं का अर्थ समझने के लिए सदस्यों द्वारा स्वयं चयन किया जाता है । सदस्य सामाजिक घटनाओं की परिस्थितियों को यह घटनाएँ क्या है , इस विषयक अपनी व्याख्या से अलग नहीं कर सकते । ये परिस्थितियाँ और घटनाओं की व्याख्या हेतु उनके संक्षिप्तीकरण का हमारा तरीका अपृथकनीय है ।

 परिस्थितियों और व्याख्याएँ पारस्परिक रूप से एक दूसरे की रचना करती हैं । गारफिन्कल के मतानुसार आत्मवाचकता का अर्थ परिस्थितियों का व्याख्याओं अथवा लेखों में तथा सामाजिक घटनाओं एवं सामाजिक प्रबन्धों की परिस्थितियों में लेखों अथवा व्याख्याओं के एकीकृत संयोजन से है । इस प्रकार साधारण प्रबन्धों के पक्षों के रूप में सदस्य इन प्रबन्धों की विशेषताओं का प्रयोग इन आत्म – सदृश प्रबन्धों को दर्शनीय एवं घटने योग्य बनाने के लिए करते हैं । जो कुछ हो रहा है उसके अपने बोध को ये उत्तरदायी एवं वर्णनीय बनाते हैं । ऐसा वे अपनी सामाजिक दुनिया को एक – दूसरे के लिए वर्णनीय बनाने हेतु करते हैं ।

टीकात्मक व्यवहार ( Glosing Practice )

 ‘ ग्लोस ‘ का शाब्दिक अर्थ है — ‘ व्याख्या ‘ , ” स्पष्टीकरण ‘ , स्पष्टीकरण के लिए हासिये में दिए गए शब्द ‘ आदि । भाषण के अवस्थित विशेषणों में वक्ता का अर्थ जो कुछ वे बहुत सारे शब्दों में कह पाते हैं , उससे कुछ भिन्न होता है । एडवर्ड रोस के अनुसार यह एक व्यवहार है , जो कि उस सम्पत्ति का जान – बूझकर प्रयोग करता है , जो निश्चय के साथ परिस्थितिजन विशेषों में उसके परिणाम को शामिल करती है । उदाहरण के लिए , गारफिन्कल तथा सैक्स ने चलती हुई कार में वार्तालाप का एक उदाहरण दिया है । इसमें बाहर झाँकता हुआ मेहमान कहता है – ‘ यह निश्चित रूप में बदल गया है जब तक कि मेजबान उत्तर दे , कार आगे बढ़ जाती है । लेकिन वह अब भी समझ सकता है कि मेहमान किस स्थान के बारे में अपना वक्तव्य दे रहा था और वह उत्तर देता है कि ‘ आग लगने के बाद दस वर्ष पूर्व इस ब्लाक को पुनः बनवाया गया है । दोनों पक्ष वार्तालाप के दौरान उन विशिष्टताओं का उल्लेख कर रहे हैं जो जानी – पहचानी हैं , वास्तविक हैं और स्पष्ट हैं । वार्तालाप के समय प्रत्येक विस्तार की चर्चा नहीं की जाती वरन् इसे टीकात्मक रूप में छोड़ दिया जाता है | सन्दर्भ द्वारा वार्तालाप में भाग लेने वाले पक्ष इसका अर्थ निकाल लेते हैं या इसे सही अर्थ प्रदान कर देते हैं । यदि सन्दर्भ ज्ञात नहीं है तो सन्दर्भ बताकर समस्या सुलझाई जाती है और इस प्रकार भ्रम दूर किया जाता है । ऐसे टीकात्मक व्यवहार अनेक होते हैं । टीकात्मक व्यवहार पर्यवेक्षणीय , प्रतिवदेनीय समझ को स्वाभाविक भाषा में प्रस्तुत करने की प्रविधियाँ हैं । ‘

 

सदस्यों की प्रविधियाँ ( Members ‘ Methods )

गारफिन्कल का सुझाव यह है कि दिन – प्रतिदिन की सामाजिक दुनिया को समझाने में नासमझी , असहमति या असफलता नहीं होती । आत्म सदृश्य बोध रचना कार्य के माध्यम से अर्थात् समाज सदस्यों की प्रविधियों का प्रयोग करके हम दूसरों को यह स्पष्ट कर सकते हैं कि वे जिस विषय में बात कर रहे हैं , उसे हम नहीं जानते हैं ; वे जो कह रहे हैं , उस विषय में हम सहमत नहीं हैं , जो वे हमसे कराना चाहते हैं उसे हम नहीं जानते अथवा यह नहीं जानते कि हमने उनको क्यों प्रसन्न किया है । हम अपने बोध रचना कार्य के माध्यम से उनके उत्तर से यह सुन पाते हैं कि वे वास्तव में हमसे क्या कराना चाहते हैं या किस विषय में बात कर रहे हैं या हमने जो कहा उसमें से क्या उनकी नाराजगी का कारण था । गारफिन्कल का प्रस्ताव यह है कि सदस्यों को उनकी सामाजिक दुनिया पूर्ण करनी होगी । वे ऐसा करने के लिए सदस्यों की प्रविधियों का प्रयोग करते हैं जिनका प्रयोग प्रदत्त , अव्यक्त और अविश्लेषित तरीकों से किया जाता है । लोक – विधि वैज्ञानिक अपना यह कार्य मानता है कि वे सदस्यों की प्रविधियों जैसी दिखाई देती हैं उन्हें व्यक्त बनाने के लिए प्रकाश में लाए ।

 गारफिन्कल का सुझाव है कि दिन – प्रतिदिन के जीवन की परिचित घटनाएँ और सामान्य – ज्ञान की बातें इसलिए परिचित और सामान्य होती हैं क्योंकि इन घटनाओं और दृश्यों को उत्पन्न करने तथा पहचानने की प्रविधियों महत्त्वपूर्ण हैं । उनके मतानुसार हमारे समाज के सदस्यों के रूप में हमारे प्रतिदिन के जीवन में घटनाएँ इसलिए महत्त्वपूर्ण हो जाती हैं क्योंकि विशेष तरीकों से हम उन्हें उत्पन्न करते हैं तथा ग्रहण करते हैं । गारफिन्कल ने शुट्ज के शब्द अभिनेता ( Actor ) के स्थान पर ‘ सदस्य ‘ ( Member ) शब्द का प्रयोग किया है । हम इस प्रकार हमारी क्रियाएँ सम्पन्न करते हैं ताकि इन क्रियाओं की प्रकृति दूसरों को उपलब्ध हो सके । उदाहरण के लिए सामाजिक प्रक्रियाओं से एक शिकायत , एक भाषा या एक मजाक हम इस प्रकार करते हैं ताकि दूसरे लोग बिना किसी समस्या के उन्हें स्वीकार कर सकें । इन वस्तुओं को हम एक प्रश्न , एक झूठे या मात्र बोलने की बारी के रूप में पहचाने हैं तो हम एक प्रकार से अपनी सामाजिक दुनिया का प्रदत्त , नैत्यिक एवं प्रमाणित तरीकों से पुनरुत्पावित कर रहे हैं । जो कुछ हो रहा है , वह सभी सम्बन्धितों के लिए स्पष्ट है ।प्रतिदिन की घटनाओं की यह दैनिक गैर – समस्याप्रद और परिचित विशेषता हमारे अनुभवजन्य कार्य की उपज है । सदस्यों की प्रविधियों के माध्यम से , जो अनुभवजन्य कार्य को बचाने के लिए अपनाई जाती है , हम एक सामान्य सामाजिक दुनिया परिपूर्ण करते हैं । इसके माध्यम से हमें यह निश्चित रहता है कि हम जो कुछ कर रहे हैं उसे दूसरे लोग देख सकते हैं । उदाहरण के लिए भाषण देना ‘ , ‘ प्रश्न पूछना ‘ ‘ वायदा करना अथवा तीनों एक साथ करना आदि । यदि परीक्षाएँ एक सप्ताह के लिए निलम्बित कर दी जाएँ तो क्या परीक्षा के विषय में आपकी चिन्ताएँ शान्त हो जाएँगी ।

. सूचीबद्धता ( Indexicality )

 सूचीबद्धता का अर्थ यह है कि किसी वस्तु या गतिविधि का अर्थ उसके सन्दर्भ ( Reference ) से निकाला जाए । यह एक विशेष स्थिति में सूचीबद्ध होता है । इसके परिणामस्वरूप दिन – प्रतिदिन के जीवन में सदस्यों द्वारा की गई कोई व्याख्या , स्पष्टीकरण या उल्लेख विशेष परिस्थितियों और स्थितियों के सन्दर्भ में ही किया जाता है । गारफिन्कल का तर्क है कि किसी कार्य का अर्थ उसके सन्दर्भ से निकाला जाता है । जो कुछ हो रहा है अथवा होने वाला है , उसका अर्थ इस बात पर निर्भर करता है कि हम सम्बन्धित गतिविधि के सन्दर्भ की व्याख्या किस प्रकार करते हैं । इस दृष्टि से उनकी समझ और उल्लेख सूचीबद्ध है । एक विशेष रूप रचना में ही उनका अर्थ निकलता है ।

लोक – विधि विज्ञान के उद्भव के स्रोत

 ( Sources of origin of Ethnomethodology )

 

 

  घटना विज्ञान ( Phenomenology )

 शुट्ज ने हुस्सल के दार्शनिक विवेचन से घटना विज्ञान को अलग किया तथा इस बात पर बल दिया कि किस प्रकार अन्तक्रिया ‘ सर्वोच्च यथार्थ का निर्माण तथा परिपालन करती है | किस प्रकार कर्ता परिप्रेक्ष्यों की पारस्परिकता प्राप्त करते हैं तथा किस प्रकार वे तथ्य के रूप में स्वीकृत जगत् का सृजन करते हैं । सामाजिक जीवन को व्यवस्थित रखता है तथ्य के रूप में स्वीकृत जगत् की प्रकृति पर बल तथा कर्ता के यथार्थ के भाव को बनाए रखने के लिए इस जीवन – जगत् ‘ का यह महत्त्व लोक – विधि विज्ञान का मुख्य विषय है । इसकी अनेक अवधारणाएँ हुस्सर्ल तथा शुटूज के घटना विज्ञान से ली गई है । इस प्रकार ब्लुमर , गोफमेन , हुस्सल तथा शुट्ज के विचारों का लोक – विधि विज्ञान पर अत्यधिक प्रभाव है ।

 

  प्रतीकात्मक अन्तक्रियावाद ( Symbolic Interactionism )

 लोक – विधि विज्ञान प्रतीकात्मक अन्तक्रियावाद तथा घटना विज्ञान से विचारों को उधार लेता है तथा उन्हें व्यापक रूप से प्रसारित करता है तथापि इन सिद्धान्तों को प्रसारित करने में लोक – विधि विज्ञान की पृथक् विश्व दृष्टि है । प्रतीकात्मक अन्तक्रियावाद में कर्ता के पास प्रतीक निर्माण की क्षमता होती है , स्थिति में नई वस्तु के प्रवेश कराने तथा स्थिति को पुनर्परिभाषित करने की क्षमता होती है । इन विचारों का विषय यह ज्ञान करना है कि किसी स्थिति में अन्तक्रियारत कर्ता किस प्रकार अर्थ तथा परिभाषा का निर्माण करता है । अन्वेषण ( Inquiry ) की यह दशा लोक – विधि विज्ञानियों को भी है ; किन्तु इसके विश्लेषण में एक प्रमुख अन्तर यह है कि इनकी इच्छा रहती है । ” लोग किस प्रकार अर्थ  निकालते हैं कि वे विश्व के बारे में एक सामान्य अर्थ रखते हैं तथा इस उपधारणा पर कैसे पहुँचते हैं कि वस्तुनिष्ठ बाह्य जगत् का अस्तित्व है । “

 अभिनयशास्त्र

इर्विन गोफमेन का अभिनयशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य , लोक – विधि विज्ञान के लिए एक महत्त्वपूर्ण प्रोत्साहन का स्रोत है । किस प्रकार कर्ता संकेतों के द्वारा किसी विशेष सामाजिक दृश्य में प्रभाव प्रणयन करते हैं । गोफमेन के विश्लेषण का अधिकांश अन्तक्रिया के स्वरूप पर केन्द्रित है । सामाजिक दृश्यों के प्रबन्ध का यह विषय लोक – विधि वैज्ञानिक विश्लेषण में भी प्रमुखता से पाया जाता है । अमिनयशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य से अलग हटकर लोक – विधि विज्ञान में प्रभाव प्रणयन में रुचि इस दृष्टि से रहती है कि कर्ता किस प्रकार सामान्य यथार्थ का भाव उत्पन्न करते हैं । “

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