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लोकतंत्र  के  अर्थ

लोकतंत्र  के  अर्थ

लोकतंत्र

2023 NEW SOCIOLOGY – नया समाजशास्त्र
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लोकतंत्र  के  अर्थ  पर  सर्वाधिक  मतभेद  है।  इसकी  अनेक  परिभाषाएं  व  व्याख्याएं  की  गई  हैं।  इसको आडम्बरमय कहने से लेकर सर्वोत्कृष्ट तक कहा गया है। सारटोरी तो यहां तक कहने में नहीं हिचकिचाए हैं कि लोकतंत्र को ऐसी वस्तु के आडम्बरमय नाम के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, जिसका वास्तव में कोई अस्तित्व नहीं है। अतः लोकतंत्र के अर्थ व परिभाषा पर सामान्य सहमति का प्रयास करना निरर्थक  होगा।  वर्तमान  में  हर  शासन  व्यवस्था को  लोकतान्त्रिक  कहा  जाता  है।

 

अब्राहम  का  कहना  है  कि  लोकतांन्त्रिक  आदर्श  में  यह  धारणा  सन्निहित  है  कि  मनुष्य  एक विवेकशील  प्राणी  है  जो  कार्य  करने  के  सिद्धान्तों  का  निर्णय  करने  और  अपनी  निजी  इǔछाओं  को  उन सिद्धान्तों के अधीनस्थ बनाए रखने में समर्थ है।  वास्तव में यह धारणा अपने आप में बड़ी महत्वपूर्ण है, क्योंकि यदि व्यक्ति विवेक की पुकार नहीं सुनेंगे तो लोकतंत्र एक स्थायी शासन प्रणाली कभी नहीं बन सकेगी।  व्यक्तियों  के  परस्पर  विरोधी  दावोंउद्देश्यों  और  हितों  में  विवाद  और  वार्त  द्वारा  तब  तक  कभी सामंजस्य स्थापित नहीं हो सकता जब तक कि ऐसे सामान्य स्वीकृत नियमों का अस्तित्व न हो, जिनके आधार  पर  वार्ता या  विवाद में किस पक्ष की  जीत  मानी  जाएगी  इसका, निर्णय न  किया जा सके।  इन नियमों में सबसे साधारण और स्पष्ट नियम तो यही है कि बहुमत का निर्णय और विचार ही मान्य होना चाहिए। यहां  यह  ध्यान रखना होगा  कि बहुमत का कोरा  सिद्धान्त भी उसी प्रकार अविवेकपूर्ण है जिस प्रकार  कि  जिसकी  लाठी  उसकी  भैंस  वाली  धारणा।  मनुष्य  केवल  विवेकी  यंत्र  ही  नहीं  है  अपितु  वह भावनाओं का पुतला भी है। अतः लोकतान्त्रिक आदर्श को यह मानकर चलना होगा कि प्रयत्नों से मनुष्य को भावनाओं के स्तर से विवेक के स्तर पर लाया जा सकता है जिससे वह अपने मतभेदों को बातचीत करके या कुछ सिद्धान्तों का सहारा लेकर तय कर सके। इस प्रकार लोकतान्त्रिक आदर्श में मनुष्य की विवकेशीलता की धारणा सन्निहित होनी चाहिए। अगर मनुष्य की विवेकशीलता की बात छोड़ दी जाय तो लोकतान्त्रिक समाज के स्थान पर अराजक समाज ही स्थापित होगा।

 

यहां  तक  कि  एक  बार हिटलर ने लोकतान्त्रिक शासन की बात कहते हुए अपने शासन को जर्मन लोकतंत्र कहना पसन्द किया था। आज प्रजातंत्र के नाम कों इतना पवित्र बना दिया गया है कि कोई भी अपने आपको अलोकतांत्रिक कहने का दुस्साहस नहीं कर सकता। मोटे तौर पर लोकतंत्र शासन का वह प्रकार होता है, जिसमें राज्य के शासन की शक्ति किसी विशेष वर्ग अथवा वर्गो में निहित न होकर सम्पूर्ण समाज के सदस्यों में निहित होती है।

डायसी ने लोकतंत्र की परिभाषा करते हुए लिखा है कि लोकतंत्र शासन का वह प्रकार है, जिसमें प्रभुत्व शक्ति समष्टि रूप में जनता के हाथ में रहती है, जिसमें जनता शासन सम्बन्धी मामले पर अपना अन्तिम नियंत्रण रखती है तथा यह निर्धारित करती है कि राज्य में किस प्रकार का शासन-सूत्र स्थापित किया जाए। राज्य के प्रकार के रूप में लोकतंत्र शासन की ही एक विधि नहीं है, अपितु वह सरकार की नियुक्ति करने, उस पर नियंत्रण रखने तथा इसे अपदस्थ करने की विधि भी है।

अगर अब्राहम लिंकन की परिभाषा को लें तो लोकतंत्र शासन वह शासन है जिसमें शासन जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा हो।

इन  परिभाषाओं  को  अस्वीकार  करते  हुए  कुछ  विचारक  लोकतंत्र  को  शासन  तक  ही  सीमित  न रखकर इसे व्यापक अर्थ में देखने की बात कहते हैं। गिडिंग्स का कहना है कि प्रजातंत्र केवल सरकार का ही रूप नहीं है वरन राज्य और समाज का रूप अथवा इन तीनों का मिश्रण भी है। मैक्सी ने इसे और भी व्यापक अर्थ में लेते हुए लिखा है कि बीसवीं सदी में प्रजातंत्र से तात्पर्य एक राजनीतिक नियम, शासन  की  विधि  व  समाज  के  ढांचे  से  ही  नहीं  हैवरन  यह  जीवन  के  उस  मार्ग  की  खोज  है  जिसमें मनुष्यों की स्वतंत्र और ऐǔिछक बुद्धि के आधार पर उनमें अनुरूपता और एकीकरण लाया जा सके। डा0 बेनीप्रसाद ने तो लोकतंत्र को जीवन का एक ढंग माना है।

उपर्युक्त अर्थ व परिभाषाओं से लोकतंत्र एक विशद एवं महत्वाकांक्षी विचार लगता है परन्तु उपरोक्त विवेचन से लोकतंत्र का अर्थ स्पष्ट होने के स्थान पर कुछ भ्रांति ही बढ़ी है। लोकतंत्र की अवधारणा या प्रत्यय के रूप में एक अर्थ नहीं है वरन इसके तीन अन्तःसम्बन्धित अर्थ किये जाते हैं। यह अर्थ हैं-

(क)   यह निर्णय करने की विधि है, (ख) यह निर्णय लेने के सिद्धान्तों का समूह या सेट है, और (ग) यह आदर्शी मूल्यों का समूह है।

इनका तात्पर्य है कि लोकतान्त्रिक व्यवस्था में लोकतंत्र को निर्देशित करने वाले मूल्यों व निर्णय लेने की प्रक्रिया का मोटा उद्देश्य वर्तमान के आदर्शमय नैतिकता के अन्तर्गत ही समस्त सार्वजनिक कार्यो का दिन-प्रतिदिन  सम्पादन  हो।  हर  राजनीतिक  समाज  में अंतिम  गन्तव्यों  का  निर्धारण करना  होता  है।  यह गन्तव्य क्या हों? इन गन्तव्यों का निर्धारण कौन और किस प्रकार करें? हर राजनीतिक समाज के सामने मौलिक प्रश्न यही होते हैं। इन्हीं गन्तव्यों के अन्तिम उद्देश्यों को समाज के आदर्शो का नाम दिया  जाता है। हर समाज में इन आदर्शो की रक्षा व प्राप्ति के लिए संरचनात्मक व्यवस्थाएं रहती हैं। यह लोकतंत्रों में ही  नहींतानाशाही  व्यवस्था  में  भी  रहती  हैं।  परन्तु  इन  संरचनात्मक  व्यवस्थाओं  से  सम्बन्धित  प्रक्रियाएं लोकतंत्र में और प्रकार की तथा तानाशाही व्यवस्था में और प्रकार की होती हैं। अगर सम्पूर्ण समाज के

 

लिए किए जाने वाले निर्णयों को लेने के सिद्धान्त और विधियां ऐसी हों जिसमें सम्पूर्ण समाज सहभागी रहें तो  वह  राजनीतिक  व्यवस्था  लोकतांत्रिक  कही  जाती  हैपरन्तु  अगर  एक  ही  व्यक्ति  या  व्यक्ति-समूह सम्पूर्ण  समाज  के  लिए  निर्णय  लेता  है  तो  वह  व्यवस्था  तानाशाही  मानी  जाती  है।  अतः  लोकतंत्र  का महत्वपूर्ण पक्ष निर्णय लेने का ढंग या तरीका है।

यहां यह प्रश्न उठता है कि किस प्रकार और किसके

द्वारा लिये गये निर्णयों को ही लोकतान्त्रिक विधि से लिये गये निर्णय माना जाए? इन्हीं प्रश्नों का उत्तर आज से करीब दो हजार वर्ष पूर्व अरस्तू ने भी दिया था जो बहुत कुछ आज भी वैध कहा जा सकता है। अरस्तू ने कहा था कि निर्णय लेने के लोकतान्त्रिक ढंग में पदाधिकारियों का चुनाव सब में से सबके द्वारा तथा सबका हर एक पर और प्रत्येक का सब पर शासन होता है,“ अर्थात् लोकतान्त्रिक ढंग से किया गया निर्णय सम्पूर्ण समाज के द्वारा लिया गया निर्णय ही कहा जा सकता है। इससे तात्पर्य यह है कि लोकतंत्र प्रकृति  में  राजनीतिक  समाज  में  निर्णय  लेने  का  एक  विशेष  ढंग  और  उसकी  विशेष  पूर्व  शर्ते  होती  हैं। इनका विवेचन करके ही यह समझा जा सकता है कि लोकतंत्र का निर्णय लेने के रूप में क्या अर्थ है? अर्थात् वही निर्णय लोकतान्त्रिक ढंग से लिये हुए कहे जाते हैं जिन में-

 

ऽ   विचार-विनिमय व अनुनयनता,

ऽ   जन-सहभागिता,

ऽ   बहुमतता,

ऽ   संवैधानिकता और

ऽ   अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा होती है।

 

लोकतान्त्रिक  ढंग  से  लिये  गये  निर्णयों  का  आधार  खुला  विचार-विनिमय  होता  है।  सम्पूर्ण राजनीतिक समाज के लिए किये जाने वाले निर्णयों में अनुनयन की बहुत बड़ी भूमिका रहती है। लोकतंत्र में  निर्णय  चाहे  किसी  भी  स्तर  पर  लिये  जायेंउनमें  जोर-जबरदस्ती  के  तत्व  के  बजाय  विचार-विमर्श, वाद-विवाद और समझाने-बुझाने का अंश प्रधान रहता है। चुनाव भी एक तरह से विचार-विनिमय द्वारा निर्णय  लेना  ही  है।  अतः  स्वतंत्र  व  उन्मुक्त  प्रचार  पर  आधारित  चुनाव  लोकतान्त्रिक  निर्णय  प्रक्रिया  का महत्वपूर्ण  आधार  माने  जाते  हैं।  इस  प्रकार  निर्णय  लेने  के  ढंग  के  रूप  में  लोकतंत्र  का  आशय विचार-विमर्श और सहमति से राजनीतिक समाज से सम्बन्धित सभी निर्णय लेना है।

विचार-विमर्श और सहमति की निर्णय प्रक्रिया में कुछ या अधिकांश लोगों का सम्मिलित होना किसी निर्णय  ढंग  को  लोकतान्त्रिक  नहीं  बनाता  है।  इसके  लिए  निर्णय  प्रक्रिया  में  सारे  जन-समाज  की सहभागिता का होना अनिवार्य है, अर्थात् निर्णय लेने में राजनीतिक व्यवस्था के सभी नागरिकों का प्रत्यक्ष

या अप्रत्यक्ष सम्मिलन आवश्यक है। अगर किसी निर्णय विधि से अधिकांश व्यक्तियों को वंचित रखा गया हो  तो  वह  निर्णय  प्रक्रिया  लोकतान्त्रिक  नहीं  कही  जा  सकती।  यहां  यह  ध्यान  रखना  है  कि  जनता  के निर्णय प्रक्रिया में सम्मिलित होने के अवसर होने पर भी अगर बहुत बड़ा जन-भाग उससे उदासीन रहकर विलग रहे तो इसे निर्णयों की लोकतान्त्रिका पर आंच नहीं माना जाता है। यहां महत्वपूर्ण बात यह नहीं है कि समाज के कितने लोग निर्णय प्रक्रिया में सहभागी होते हैं वरन यह तथ्य महत्वपूर्ण है कि कितने लोगों को  ऐसा  करने  के  साधन  व  अवसर  प्राप्त  हैं।  निर्णय  प्रक्रिया  में  सम्पूर्ण  समाज  को  सहभागी  बनाने  का दूसरा नाम ही लोकतंत्र है। नियतकालिक चुनाव तथा वयस्क मताधिकार, जन-सहभागिता के उपकरण हैं।

विचार-विमर्श  तथा  जन-सहभागिता  के  सबको  समान  अवसर  निर्णय  विधि  को  अवश्य  ही लोकतान्त्रिक बनाते हैं परन्तु शायद ऐसा सम्भव नहीं कि समाज से सम्बन्धित हर निर्णय पर समस्त जनता

 

की सहमति होती हो। इस सहमति के अभाव में निर्णय लेने की कौन-सी विधि अपनाई जाए कि निर्णय प्रक्रिया की लोकतान्त्रिक प्रकृति बनी रहे और शीघ्रता से निर्णय लिये जा सकें। वैसे तो समस्त जनता की सहमति से लिया गया निर्णय आदर्श कहा जा सकता   है, पर व्यवहार में सबके सब निर्णयों पर सहमति असम्भव नही ंतो दुष्कर अवश्य लगती है। इसलिए सबकी सहमति के अभाव में निर्णय बहुमत के आधार पर किये जाते हैं। इस प्रकार बहुमत के आधार पर किए गए निर्णय लोकतांत्रिक ही माने जाते हैं, क्योंकि इन निर्णयों में अधिकांश लोगों की सहमति सम्मिलित रहती है। यहां यह बात ध्यान देने की है कि बहुमत के आधार पर निर्णय लेना, सबकी सहमति के बाद, निर्णय लेने की श्रेष्ठतम विधि कहा जाता है। अगर बहुमत के आधार पर निर्णय नहीं लिये जाएं तो निर्णय की प्रक्रिया अलोकतान्त्रिक कहलाती है। साथ ही निर्णयों में बहुमत के आधार का परित्याग करना, लोकतान्त्रिक निर्णय प्रक्रिया का ही, परित्याग कहा जा सकता है।

 

यही कारण है कि लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में चुनाव परिणामों से लेकर विधान मण्डलों व मंत्री परिषदों तक में निर्णय बहुमत के आधार पर किये जाते हैं। अभी तक मनुष्य निर्णय लेने का इससे श्रेष्ठतर विकल्प नहीं खोज पाया है। अतः लोकतांत्रिक निर्णय प्रक्रिया की यह आवश्यक शर्त है कि हर स्तर पर निर्णय बहुमत के आधार पर लिये जाएं। यहां यह भी ध्यान रखना है कि बहुमत के अर्थ पर गम्भीर विवाद है। हम इस विवाद में नहीं पड़कर इतना ही कहेंगे कि लोकतंत्र में विभिन्न विकल्पों में से जिसका सापेक्ष बहुमत होता है वही विकल्प निर्णय मान लिया जाता है।

उपरोक्त तथ्य निर्णय के प्रक्रियात्मक पहलुओं से सम्बद्ध है, पर निर्णय प्रक्रियाओं को व्यावहारिकता प्रदान करने के लिए संरचनात्मक आधार भी होना चाहिए। इसलिए ही हर लोकतान्त्रिक समाज में निर्णय लेने की प्रक्रियाओं के संरचनात्मक आधार संविधान द्वारा निर्धारित किये जाते हैं। उदाहरण के लिए, यह कहा  जा  सकता  है  कि  जन-सहभागिता  को  सम्भव  बनाने  के  लिए  सभी  लोकतान्त्रिक  संविधानों  में नियतकालिक  चुनावों  की  व्यवस्था  की  जाती  है।  लोकतान्त्रिक  ढंग  से  लिया  गया  निर्णय  संविधान  द्वारा व्यवस्थित  साधनों  की  परिधि  में  ही  किया  जाता  है।  हड़तालहिंसात्मक  तोड़-फोड़  व  धरनों  के  द्वारा शासकों को निर्णय विशेष लेने के लिए बाध्य करना वास्तव में असंवैधानिक साधनों के प्रयोग के कारण निर्णय  का  अलोकतान्त्रिक  ढंग  माना  जाता  है।  निर्णय  प्रक्रिया  को  लोकतान्त्रिक  बनाने  के  लिए  यह आवश्यक है कि संविधान में निम्नलिखित व्यवस्थाएं हों-(1) जनता के सामने प्रतियोगी पसंदों के अनेक विकल्प,  (2)  मताधिकार  की  पूर्ण  समानता,  (3)  निर्वाचन  व  निर्वाचित  होने  की  पूर्ण  स्वतंत्रताऔर  (4) प्रतिनिधित्व की अधिकतम समरूपता हो।

इस  प्रकार  किसी  भी  राजनीतिक  व्यवस्था  में  निर्णय  की  विधि  को  लोकतान्त्रिक  बनाने  के  लिए संवैधानिकता ही निर्णयों का एक मात्र आधार होती है। जब किसी राजनीतिक समाज में बहुमत के आधार पर निर्णय लिये जाते हैं तो यह सम्भावना तो रहती ही है कि कुछ लोग इन निर्णयों से सहमत नहीं हों।

ऐसी  अवस्था  में  बहुमत  के  निर्णय  ऐसे  नहीं  होने  चाहिए  कि  उनसे  अल्पसंख्यकों  का  अहित  हो।  अनेक समाजों में अनेक वर्ग, धर्म, जातियां तथा संस्कृतियां एक साथ विद्यमान रहती हैं। बहुमत के आधार पर कुछ धर्मो, जातियों या भाषाओं के लोगों के हितों के प्रतिकूल भी निर्णय लिये जा सकते हैं। बहुमत के

द्वारा लिये गये निर्णयों से अल्पसंख्यकों के अधिकारों व स्वतंत्रताओं का हनन भी किया जा सकता है। ऐसे बहुमत के निर्णय लोकतन्त्र की भावना के प्रतिकूल माने जाते हैं। अतः निर्णय प्रक्रिया की लोकतान्त्रिकता के लिए आवश्यक है, कि बहुमत के बलबूते पर ऐसे निर्णय नहीं लिये जाएं जिनमें कुछ लोगों के उचित हितों की अवहेलना हो। यह तभी सम्भव होता है जब बहुमत द्वारा लिए गए निर्णयों में अल्पसंख्यकों के हितों की भी सुरक्षा की व्यवस्था निहित हो।

 

लोकतान्त्रिक निर्णय प्रक्रिया के लिए यह आवश्यक है  कि एक सीमा तक विचार-विमर्श, बहस व वाद-विवाद की छूट रहे और अन्त में बहुमत के आधार पर निर्णय ले लिए जाएं तथा बहुमत द्वारा लिए गए ऐसे  निर्णय सब स्वीकार कर लें। अल्पसंख्यकों  को भी  बहुमत के ऐसे  निर्णय स्वीकार होंगे, क्योंकि इनसे  उनके  हितों को  नुकसान  पहुंचने की  सम्भावना  नहीं  होती।  परन्तु  बहुमत  के  आधार  पर  किए  गए निर्णय कुछ लोगों का अहित करने वाले होने पर लोकतान्त्रिक निर्णय प्रक्रिया के प्रतिकूल माने जाने लगते हैं। इससे समाज में सहमति तथा आधारभूत  मतैक्य समाप्त  हो जाता है और समाज के  टूटने का मार्ग खुल जाता है। इससे लोकतंत्र का आधार लुप्त हो जाता है। अतः गहराई से देखने पर पता चलता है कि लोकतान्त्रिक  राजनीतिक  प्रक्रिया  वस्तुतः  विचार-विमर्शवाद-विवादसामंजस्य  और  लेन-देन  की  ही प्रक्रिया है। जिस राजनीतिक समाज में निर्णय लेने का ढंग उपरोक्त तथ्यों के अनुरूप रहता है तो वह राजनीतिक व्यवस्था लोकतान्त्रिक तथा उस समाज के लोगों द्वारा लिए गए निर्णय लोकतान्त्रिक ढंग से लिए  गए  निर्णय  कहे  जाएंगे।  इन  तथ्यों  में  से  किसी  एक  की  अवहेलना  या  अभाव  सम्पूर्ण  व्यवस्था  की प्रकृति में ही मौलिक परिवर्तन ला देता है। अतः लोकतान्त्रिक व्यवस्था के लिए यह अनिवार्य है कि निर्णय, आपसी  विचार-विमर्शजन  सहभागिता  और  बहुमत  के  आधार  पर  लिए  जाएं  अगर  ऐसे  निर्णय संवैधानिकतायुक्त व अल्पसंख्यकों के हितों के पोषक हों तो वह लोकतंत्र के सुदृढ़ आधार स्तम्भ हो जाते हैं। इस तरह, निर्णय लेने के ढंग के रूप में लोकतंत्र ऐसी व्यवस्था है जिसमें समाज के लिए व्यवहार के मानदंड स्थापित होते हैं और व्यक्ति की राजनीतिक गतिविधियों का सुनिश्चित प्रतिमान प्रकट होता है।

 

 

में

जो भी राजनीतिक निर्णय लिए जाएं उनका कुछ सिद्धान्तों पर आधारित होना आवश्यक है अन्यथा निर्णयों में न तो समरूपता रहेंगी और न ही निर्णय दिशात्मक एकता-युक्त बन पाएंगे। इसीलिए हर राजनीतिक समाज में कुछ निश्चित सिद्धान्तों की परिधि होती है जिसके दायरे में लिए गए निर्णय ही दिशात्मक एकता का लक्षण परिलक्षित कर सकते हैं।

एक निश्चित सिद्धान्त लोकतंत्रों व निरंकुशतंत्रों में अनिवार्यतः पाये जाते हैं। दोनों प्रकार की प्रणालियों में इन सिद्धान्तों की मौलिक असमानताएं इन दोनों को भिन्न-भिन्न ही नहीं बनाती हैं, अपितु इन्हें एक दूसरे के प्रतिकूल प्रणालियां बना देती हैं। लोकतान्त्रिक प्रणाली उस राजनीतिक व्यवस्था में विद्यमान रह सकती हैं जहां समाज के सम्बन्ध में निर्णय लेने के आधार स्वरूप कुछ सिद्धान्त व्यवहार में प्रयुक्त होते हैं। इन सिद्धान्तों पर आधारित निर्णय ही लोकतान्त्रिक ढंग से लिए गए निर्णय कहे जा सकते हैं।

 

 

 

 

 

ऽ   प्रतिनिधि सरकार का सिद्धान्त।

ऽ   उत्तरदायी सरकार का सिद्धान्त।

ऽ   संवैधानिक सरकार का सिद्धान्त।

ऽ   प्रतियोगी राजनीति का सिद्धान्त।

ऽ   लोकप्रिय सम्प्रभुता का सिद्धान्त।

 

 

किसी भी शासक व्यवस्था को लोकतान्त्रिक तभी कहा जाता है जब राजनीतिक व्यवस्था में निर्णय लेने का  कार्य  जनता  द्वारा  निर्वाचित प्रतिनिधियों  द्वारा  ही सम्पादित हो, अर्थात  लोकतान्त्रिक व्यवस्था  में सरकार  का  गठन  प्रतिनिधित्व  के  सिद्धान्त  पर  आधारित  होना  चाहिए।  आधुनिक  लोकतंत्रों  में नीति-निर्माताओं अथवा शासन प्रतिनिधियों को एक निश्चित अवधि के लिए जनता द्वारा चुना जाता है। इस निश्चित अवधि की समाप्ति पर शासन प्रतिनिधियों को फिर जनता के सामने पेश होना पड़ता है तथा

 

जनता उसके द्वारा किये गये कार्यो का लेखा-जोखा लेकर उन्हें पुनः निर्वाचित कर सकती है या उनके स्थान पर नेताओं का दूसरा सैट ला सकती है। अतः नियतकालिक चुनाव शासन कत्र्ताओं को सही अर्थो में जनप्रतिनिधि बनाए रखने की व्यवस्था करता है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में अंतिम सत्ता जनता में निवास करती  है।  जनता  की  यह  सत्ता  निर्वाचन  के  माध्यम  से  प्रतिनिधियों  को  प्रदान  कर  दी  जाती  है।  अतः प्रतिनिधि सरकार का होना लोकतंत्र की व्यवस्था करता है, क्योंकि राजनीतिक समाज में निर्णयकत्र्ता केवल जनप्रतिनिधि होते हैं।

शासन का प्रतिनिधि स्वरूप ही किसी राजनीतिक व्यवस्था को लोकतान्त्रिक कहने के लिए पर्याप्त नहीं है। इसके लिए यह भी आवश्यक है कि शासन-शक्ति के धारक अपने हर निर्णय व  कार्य के लिए जनता की धरोहर के रूप में प्राप्त रहती है तथा इस सत्ता का उन्हें जनता के हित में, जनता की उन्नति व प्रगति के लिए ही प्रयोग करना होता है। अगर शासक ऐसा नहीं करते हैं तो वह न जनता के सही प्रतिनिधि रह पाते हैं और न ही उत्तरदायी कहे जा सकते हैं। केवल वही राजनीतिक समाज लोकतान्त्रिक माने  जाते  हैं।  जहां  शासक  निरन्तर  उत्तरदायित्व  निभाते  हैं।  अगर  शासक  उत्तरदायित्व  न  निभाएं  तो उनको हटाने की व्यवस्था रहती है। नियतकालिक चुनाव शासकों को प्रभावशाली ढंग से नियन्त्रित रखने का अवसर प्रदान करते हैं। यही कारण है कि स्वतंत्र व नियतकालिक चुनाव व्यवस्था को लोकतंत्र की जीवनरक्षक डोर का नाम दिया जाता है। चुनाव दोहरे ढंग से किसी व्यवस्था को लोकतान्त्रिक बनाने की भूमिका अदा करते हैं। प्रथम, तो इससे लोकप्रिय नियन्त्रण की व्यवस्था होती है तथा दूसरे इससे जनता के प्रतिनिधि ही शासकों के रूप में रहते हैं।

लोकतंत्र में हर व्यक्ति को राजनीतिक स्वतंत्रता रहती है। वह अपने हितों की रक्षा के लिए किसी भी दल का सदस्य बन सकता है तथा किसी भी व्यक्ति को अपने प्रतिनिधि के रूप में निर्वाचित करने के लिए  मत  दे  सकता  है।  राजनीतिक  स्वतंत्रता  की  व्यावहारिकता  ही  प्रतियोगी  राजनीति  कही  जाती  है। राजनीतिक व्यवस्था में प्रतियोगी राजनीतिक के लिए यह आवश्यक है कि अनेक संगठन, दल व समूह, प्रतियोगी  रूप  में  उस  व्यवस्था  में  सक्रिय  रहें।  राजनीतिक  स्वतंत्रता  की  अवस्था  में  ही  राजनीतिक  दल बनकर जनता के सामने भिन्न-भिन्न प्रकार के दृष्टिकोण एवं नीति सम्बन्धी विकल्प प्रस्तुत कर सकते हैं। इनके द्वारा चुनावों में जनता के सामने अनेक विकल्पों की व्यवस्था होती है तथा जनता इनमें में किसी

एक को पसंद करके अपने मन की अभिव्यक्ति करती है। अगर किसी समाज में केवल एक ही विकल्प हो और इस विकल्प के कारण जनता को इसी का समर्थन करना पड़ता हो तो ऐसी राजनीति को प्रतियोगी राजनीति  नहीं  कहा  जा  सकता  और  इसके  अभाव  में  लोकतंत्र  नहीं  हो  सकता  है।  अतः  लोकतंत्र  की

जीवनरेखा  ही  प्रतियोगी  राजनीति  है।  राजनीतिक  समाज  में  प्रतियोगी  राजनीति  की  व्यवस्था  करने  के लिए  अनिवार्यताएं  होती  हैं-(1)  राजनीतिक  गतिविधियों  की  पूर्ण  स्वतंत्रता,  (2)  दो  या  दो  से  अधिक प्रतियोगी  दलों  या  समूहों  के  रूप  में  वैकल्पिक  पसंदों  की  विद्यमानता,  (3)  मताधिकार  की  पूर्ण  समानता अर्थात  सर्वव्यापी  वयस्क  मताधिकार  की  व्यवस्था,  (4)  प्रतिनिधित्व  की  अधिकतम  एकरूपताऔर  (5) नियतकालिक चुनाव।

उपरोक्त  व्यवस्थाओं  के  अभाव  में  किसी  भी  देश  की  राजनीति  प्रतियोगी  नहीं  बन  सकती  है। साम्यवादी राज्यों या अन्य एकदलीय व्यवस्थाओं वाले राज्यों में प्रतिनिधि सरकार, उत्तरदायी सरकार तथा संवैधानिक  सरकार  की  संरचनात्मक  व्यवस्थाएं  रहती  हैं  परन्तु  प्रतियोगी  राजनीति  का  अभाव  इनको लोकतान्त्रिक  व्यवस्थाओं की  श्रेणी  में  नहीं  आने  देता  है।  जैसे  साम्यवादी  राज्यों  में  नियतकालिक  चुनाव होते  हैं  तथा  मतदान  प्रतिशत  भी  करीब-करीब  शत-प्रतिशत  रहता  है।  परन्तु  मतदाता  के  सामने  चुनाव उम्मीदवार के रूप में एक ही व्यक्ति के होने के कारण कोई विकल्प नहीं रहता हैं। इससे इसी प्रत्याशी

 

का, जो एकमात्र उम्मीदवार के रूप में खड़ा है, समर्थन करना उसकी पसंद का सही प्रकाशन नहीं है। इसके लिए कई प्रत्याशियों का होना आवश्यक है। इससे स्पष्ट है कि लोकतंत्र की संजीवनी प्रतियोगी राजनीति ही होती है।

लोकतंत्र की परिभाषा में यह स्पष्ट किया गया है कि इस व्यवस्था में शक्ति का स्रोत जनता होती है। जब हम यह कहते हैं कि जनता अपने मत सम्बंधी अधिकार के प्रयोग द्वारा संविधान को अपनी इǔछा के अनुकूल बना सकती है अथवा वह उसके द्वारा अपने प्रतिनिधियों पर नियंत्रण रख सकती है तो इसका तात्पर्य यही होता है कि संप्रभुत्वशक्ति जनता के हाथों में रहती है। इसका यह अर्थ है कि राज्य में जनता सर्वोपरि  एवं  संप्रभु  होती  है।  क्योंकि  उसकी  ही  इǔछा  के  अनुसार  राज्य  शक्ति  का  प्रयोग  करता  है। मताधिकार के कारण शासन-सम्बन्धी अन्तिम शक्ति जनता में निहित रहती है। अतः हम जनता को संप्रभु कहते हैं और उसमे निहित शक्ति को जनता की सम्प्रभुता कहा जाता है। लोकतान्त्रिक समाज की पहचान ही  जनता  की  सम्प्रभुता  है।  इसके  माध्यम  से  ही  जनता  सरकार  को  प्रतिनिधिउत्तरदायी  रखने  की प्रभावशाली  व्यवस्था  माना  गया  है।  अतः  लोकतान्त्रिक  व्यवस्था  में  जनता  की  सम्प्रभुता  का  सिद्धान्त अत्यधिक महत्व का है।

 

 

मानव समाजों में कुछ आदर्शो व मूल्यों की व्यवस्था से उनसे भी उǔचतर आदर्श उपलब्ध हो जाते हैं। हर समाज  में कुछ ऐसे  मूल्य होते हैं जिनकी व्यवस्था ही इसलिए  की जाती  है कि जिससे समाज उनसे भी श्रेष्ठतर मूल्यों को प्राप्त करने के मार्ग पर आगे बढ़ सकें। व्यक्ति का स्वतंत्रता व सामाजिक समानता  में  विश्वास  ही  इसलिए  होता  है  कि  इनके  सहारे  उसके  व्यक्तित्व  के  विकास  का  सर्वश्रेष्ठ वातावरण प्रस्तुत होता है। व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास के लिए यह अनिवार्य है कि व्यक्तिगत व्यक्तित्व का सम्मान किया जाय जिससे हर व्यक्ति अपने ढंग से, बेरोकटोक अपनी पूर्णता के मार्ग पर आगे बढ़ सके।  लोकतान्त्रिक  समाज  का  यह  आदर्श  या  मूल्य  सर्वाधिक  महत्व  का  माना  जाता  है।  हर  व्यक्ति  के लिए स्व-अभिव्यक्ति का अवसर व साधन महत्व रखते हैं। मनुष्य के विकास में व्यक्तित्व के भौतिक व बाहरी पहलुओं से कहीं अधिक महत्व उसके आंतरिक पहलुओं का है। मनुष्य चाहता है कि वह परिपूर्ण बने।  इसके  लिए  यह  आवश्यक  कि  उसके  व्यक्तिगत  व्यक्तित्व  का  मान-सम्मान  हो।  इसके  अभाव  में व्यक्ति  के  पास  सब  कुछ  होते  हुए  भी  उसे  रिक्तता  या  कुछ  कमी  महसूस  होती  है।  अतः  लोकतंत्र  के दृष्टिकोण  मेंसर्वोǔच  मूल्य  व  राजनीतियों  का  अन्तिम  ध्येयव्यक्ति  की  मुक्ति  व  व्यक्तित्व  का  सम्मान करना है। यहां यह ध्यान रखना होगा कि व्यक्तिगत व्यक्तित्व के सम्मान का मूल्य राजनीतियों में अन्य मूल्यों  की  विद्यमानता  को  अस्वीकार  नहीं  करता  है।  व्यक्तियों  व  समूहों  के  और  भी  श्रेष्ठतर  आदर्श  हो सकते हैं। ये मूल्य वास्तव में इनका विरोध नहीं है। यह तो वास्तव में अन्य आदर्शो व मूल्यों की प्राप्ति के लिए व्यक्ति को अनिवार्यतः उन्मुक्त बना देता है। अतः लोकतंत्र व्यवस्था का सबसे अधिक महत्वपूर्ण मूल्य, जिससे  अन्य  मूल्यों  की  प्राप्ति  का  मार्ग  प्रशस्त  होता  हैव्यक्तिगत  व्यक्तित्व  का  सम्मान  है।  वास्तव  में लोकतान्त्रिक व्यवस्था का यह ऐसा आधार स्तम्भ है जिसके सहारे अन्य मूल्य भी प्राप्त किये जा सकते हैं।

 

लोकतान्त्रिक समाज का दूसरा महत्वपूर्ण मूल्य स्वतंत्रता का है। लोकतंत्र के विचार के इतिहास में इस शब्द का कई अर्थो में प्रयोग हुआ है। एक राजनीतिक आदर्श के रूप में स्वतंत्रता के नकारात्मक और सकारात्मक दो पहलू माने जाते हैं। इसके नकारात्मक पहलू में स्वतंत्रता का अर्थ बन्धनों का अभाव है, तथा सकारात्मक रूप में इसका अर्थ जीवन की उन परिस्थितियों व स्थितियों के होने से लिया जाता है जिसमें व्यक्ति अपने सही स्वरूप को प्राप्त कर सकता है। इसके अर्थ के नकारात्मक व सकारात्मक पहलू आपस में बेमेल पड़ते हैं। इसलिए स्वतंत्रता यह अर्थ सभी प्रकार के प्रतिबन्धों का अभाव, अराजकता व अव्यवस्था का मार्ग तैयार करता है जो इसके दूसरे अर्थ को अव्यावहारिक बना देता है। अतः लोकतान्त्रिक मूल्य में स्वतंत्रता का सही अर्थ समझना आवश्यक है।

सीले के अनुसार स्वतंत्रता  अति शासन का विलोम है। लास्की की मान्यता है कि स्वतंत्रता वह स्थिति है जिसमें व्यक्ति बिना किसी बाहरी बाधा के अपने जीवन के विकास के तरीके को चुन सकता है। अतः स्वतंत्रता सब प्रकार के  प्रतिबंधों का  अभाव नहीं, अपितु अनुचित के स्थान पर  उचित  प्रतिबंधों की व्यवस्था  हैअर्थात्  स्वतंत्रता  का  तात्पर्य  नियंत्रणों  के  अभावǔछंृखलता  से  न  होकर  उस  नियंत्रित स्वतन्त्रता से है जो उचित प्रतिबंधों द्वारा मर्यादित हो। लोकतंत्र में स्वतंत्रता का यही अर्थ लिया जाता है। इसी अर्थ में यह लोकतान्त्रिक समाजों में सर्वप्रिय मूल्य के रूप में अपनाया जाता है। अतः स्वतंत्रता का लोकतान्त्रिक मूल्य के रूप में तात्पर्य वैयक्तिक व्यवहार की नियमितता और मर्यादा से है। इसका सम्बन्ध आवश्यक  रूप  से  समाज  की  इकाई  के  रूप  में  व्यक्ति  के  व्यक्तित्व  के  विकास  से  होता  है  जिससे व्यक्तिगत व्यक्तित्व का सम्मान हो सके।

ऐसा कहा जाता है कि स्वतंत्रता समानता से अविǔिछन्न रूप से सम्बन्धित है। इसलिए ही शायद आशीर्वादम ने यह कहा है कि फ्रांस के क्रान्तिकारियों ने जब युद्ध घोषणा करते हुए स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व का नारा लगाया था तब वे न तो पागल थे और न मूर्ख। इसका संकेत इस बात की ओर है कि  स्वतंत्रता  के  मूल्य  की  क्रियान्विति  के  लिए  समानता  के  मूल्य  का  अस्तित्व  आवश्यक  है।  समानता प्रजातंत्र की स्थापना का एक प्रधान तत्व है। इसका सामान्य अर्थ उन विषमताओं के अभाव से लिया जाता है  जिसके  कारण  असमानता  पनपती  है।  समाज  में  दो  प्रकार  की  असमानता  पाई  जाती  है।  एक  प्रकार

 

असमानता वह है जिसका मूल व्यक्तियों की प्राकृतिक असमानता है, परन्तु इस प्रकार की असमानता का कोई निराकरण सम्भव नहीं हो सकता। इसलिए इस समानता से किसी को शिकायत नहीं रहती है। दूसरे प्रकार  असमानता  वह  है  जिसका  मूल  समाज  द्वारा  उत्पन्न  की  हुई  विषमता  होती  है।  हम  देखते  है  कि बुद्धि, बल और प्रतिभा की दृष्टि से अǔछे होने पर भी निर्धन व्यक्तियों के बǔचे अपने व्यक्तित्व का वैसा विकास नहीं कर पाते, जैसा विकास बुद्धि, बल और प्रतिभा की दृष्टि से निम्नतर स्तर के होते हुए भी,

धनिकों के बǔचे कर लेते हैं। इस प्रकार की असमानता का कारण समाज द्वारा उत्पन्न परिस्थितियों का वह वैषम्य होता है जिसके कारण सब लोगों को व्यक्तित्व विकास का समान अवसर प्राप्त नहीं हो पाता है।  अतः  राजनीतिक  समाज  में  समानता  का  तात्पर्य  ऐसी  परिस्थितियों  के  अस्तित्व  से  होता  हैजिसके कारण सब व्यक्तियों को व्यक्तित्व विकास के समान अवसर प्राप्त हो सकें।

लोकतान्त्रिक दृष्टि से समानता का राजनीतिक पहलू महत्वपूर्ण है। समानता के राजनीतिक रूप का अर्थ  यह  है  कि  राजनीतिक  व्यवस्था  में  सभी  वयस्क  नागरिकों  को  समान  नागरिक  और  राजनीतिक अधिकार  उपलब्ध  हों।  राजनीतिक  समानता  का  यह  आशय  नहीं  है  कि  राज्य  में  प्रत्येक  व्यक्ति  समान राजनीतिक  अधिकारो  का  प्रयोग  कर  सके।  समानता  का  यह  पक्ष  किसी  समाज  के  नागरिकों  को शासन-प्रक्रिया में सम्मिलित करने की व्यवस्था मानता है। इससे सभी व्यक्तियों को समान रूप से शासन में भाग लेने का अवसर मिल जाता है। इसमें वोट देना, निर्वाचित पद के लिए उम्मीदवार होना व सरकारी पद  प्राप्त  करना  प्रमुख  है।  इन  सब  में सबको  अवसरों  की  समानता  देना  ही  राजनीतिक  समानता  कही जाती है। यह लोकतंत्र का आधार मानी जाती है। समानता का दूसरा पक्ष नागरिक समानता है। उसका तात्पर्य सभी को नागरिकता  के समान  अवसर प्राप्त होने  से होता है।  नागरिक  समानता की  अवस्था में व्यक्ति के मूल अधिकार सुरक्षित होने चाहिए तथा सभी को कानून का संरक्षण समान रूप से प्राप्त होना चाहिये।

 

 

लोकतंत्र शासन व्यवस्था की श्रेष्ठता को सभी स्वीकार करते हैं। शायद इसलिए ही आज दुनिया का हर राज्य लोकतान्त्रिक होने का दावा करने लगा है। इस प्रणाली के गुणों की विद्वानों ने लम्बी-लम्बी सूचियां प्रस्तुत की हैं। इसके पक्ष में व्यावहारिक तर्को से लेकर नैतिक तथा मनोवैज्ञानिक तर्क तक दिये गये हैं। प्रो0 डब्लू00 हाकिंग ने तो लोकतंत्र व्यवस्था के पक्ष को पुष्ट करते हुए यहां तक कहा है कि

 

 

 

सी0डी0बन्र्स ने लोकतंत्र का गुणगान करते हुए लिखा है कि लोकतंत्र आत्म शिक्षा का  सर्वोत्तम साधन है। इससे स्पष्ट है कि लोकतंत्र प्रणाली  की श्रेष्ठता तथा इससे होने वाले लाभों को सभी स्वीकार करते हैं। संक्षेप में, इस शासन व्यवस्था के गुण निम्नलिखित माने जा सकते हैं-

(1)       शासक जन-कल्याण के प्रति सजग, अनुक्रियाशील तथा जागरूक रहते हैं।

(2)       जन शिक्षण का श्रेष्ठतम माध्यम है।

(3)       सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक सुधार के लिए समुचित वातावरण की व्यवस्था होती है।

(4)       ǔच कोटि का राष्ट्रीय चरित्र विकसित करने में सहायक है।

(5)       स्वावलम्बन व व्यक्तिगत उत्तरदायित्व की भावना का विकास करता है।

(6)       देशभक्ति का स्रोत है।

(7)       क्रान्ति से सुरक्षा प्रदान करता है।

 

(8)    शासन कार्यो में जन-सहभागिता की व्यवस्था करता है।

(9)    व्यक्ति की गरिमा का सम्मान तथा समानता का आदर्श प्रस्तुत करता है।

 

 

लोकतंत्र  प्रणाली  के  उपरोक्त  गुण  यह  स्पष्ट  करते  हैं  कि  इस  व्यवस्था  में  कोई  भी  व्यक्ति  यह शिकायत  नहीं  कर  सकता  कि  उसे  अपनी  बात  कहने  का  अवसर  नहीं  मिला  है।  क्योंकि  लोकतान्त्रिक व्यवस्था का पहला काम यही है वह जनता को अपनी बात कहने के अधिकाधिक अवसर दे तथा जनता की  जिज्ञासा  का  समाधान  करें।  हरमन  फाइनर  का  कहना  है  कि  प्रजातंत्र  शासन  प्रणाली  में  तो रहन-सहन के स्तर का विकास असामान्य रूप से अधिक होता है। ऐसा दो कारणों से है- प्रथम, जबरन लादी  गई  योजना  की  अपेक्षा  लोकतंत्र  के  अन्तर्गत  शासकीय  नियंत्रण  और  क्रियाकलापों  सहित  नवीन साहसिक व्यापार करने की स्वतंत्रता होती है। द्वितीय, यह भी सत्य है कि कुछ राजनीतिक दल, सम्भवतः सभी आवश्यक रूप से निरन्तर ही रहन-सहन के उǔच-स्तर की उपयोगिता व महत्व की सीख देते रहते है। अतः यह कहना गलत नहीं होगा कि लोकतंत्र व्यवस्था सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक सुधारों के लिए समुचित वातावरण बनाने में बहुत सफल रहती है।

लोकतंत्र शासन व्यवस्थाओं के यह गुण अधिकांशतः सैद्धान्तिक ही रह जाते हैं। व्यवहार में इनकी उपलब्धि असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है। केवल अवसर या वातावरण ही काफी नहीं होता है। फिर यह प्रश्न उठता है कि क्या व्यवहार में समानता, न्याय तथा जन-सहभागिता की लोकतंत्र में व्यवस्था हो पाती है? इस सम्बन्ध में यही कहा जा सकता है कि इसमें लोकतंत्र व्यवस्था का कोई दोष नहीं है। अगर कोई सैद्धान्तिक व्यवस्था व्यावहारिक नहीं बन पाती है तो दोष उन व्यक्तियों का है जो उसे क्रियान्वित करते हैं न कि उस व्यवस्था का। लोकतंत्र के लाभ व्यवहार में प्राप्त हो सकें इसके लिए नागरिकों का ईमानदार, कत्र्तव्यपरायण  व  समझदार  होना  ही  पर्याप्त  नहीं  होता  है।  इसके  लिए  आर्थिक  विषमताओं  का  अभाव, सामाजिक समानता, राजनीतिक स्वतंत्रता तथा सहिष्णुता का होना भी अनिवार्य है।

 

 

लोकतंत्र प्रणाली को कार्यरूप देने में व्यावहारिक कठिनाइयों के कारण कुछ विचारक केवल इसके विपक्ष को ही सबल मानते हैं। इन व्यावहारिक कठिनाइयों के कारण लोकतंत्र की कड़ी आलोचना की जाती रही है। कुछ विद्वान तो यहां तक कहने लगे हैं कि लोकतंत्र का अब कोई उपयोग नही रहा है क्योंकि अब कहीं भी सǔचे अर्थ में लोकतान्त्रिक व्यवस्था नहीं पाई जाती है। यह सही है कि सैद्धान्तिक श्रेष्ठता के बावजूद  लोकतंत्र  का  क्रियान्वयन कई दोषों का  सृजन कर  देता  है। लाॅर्ड ब्राइस  ने  इसके निम्नलिखित दोष बतलाए हैं-

 

 

(1)       शासन-व्यवस्था या विधान को विकृत करने में धन-बल का प्रयोग।

(2)       राजनीति को कमाई का पेशा बनाने की ओर झुकाव।

(3)       शासन-व्यवस्था में अनावश्यक व्यय।

(4)       समानता के सिद्धान्त का अपव्यय और प्रशासकीय पटुता या योग्यता के उचित मूल्य का न आंका जाना।

(5)       दलबन्दी या दल संगठन पर अत्यधिक बल।

(6)       विधान  सभाओं के  सदस्यों  तथा  राजनीतिक  अधिकारियों द्वारा  कानून  पास  कराते  समय  वोटों  को दृष्टि में रखना और समुचित व्यवस्था के भंग को सहन करना।

 

लोकतंत्र की सैद्धान्तिक व्यवस्था को व्यावहारिक रूप देने में आने वाली कठिनाईयों के कारण ही प्लेटो  और  अरस्तू  ने  इस  प्रणाली  को  शासन  का  विकृत  रूप  बतलाया  था।  कोई  भी  विचार  सैद्धान्तिक श्रेष्ठता  के  कारण ही व्यवहार  में श्रेष्ठतर नहीं रह जाता  है। लोकतंत्र की  अव्यावहारिकता के  कारण  ही आलोचक  यह  कहते हैं  कि  लोकतंत्र के सिद्धान्त  अत्यधिक आदर्शवादी और  कल्पनावादी हैं। व्यवहार में लोकतंत्र शासन कार्य का भार सम्पूर्ण जनता पर आधारित करके निर्धनतम, अनभिज्ञतम तथा अयोग्यतम लोगों का शासन  हो जाता  है, क्योंकि आम जनता शासन की पेचीदगियों से अनभिज्ञ  ही नहीं होती  है वरन शासन करने के योग्य भी नहीं होती है।

 

लोकतंत्र व्यवस्था की यही सबसे बड़ी विडम्बना है कि इसमें योग्यतम  व्यक्ति-अभिजन  वर्गजो  शासन  शक्ति  के  क्रियान्वयन  में  सक्रिय  होते  हैंअयोग्यतम व्यक्ति-जनसाधारण, द्वारा नियंत्रित किये जाते हैं। अगर वह नियंत्रण व्यवहार में प्रभावी हो जाता है तो लोकतंत्र  सही  अर्थो  में  भीड़तंत्र  बन  जाता  है।  अतः  दोष  लोकतंत्र  व्यवस्था  में  नहींइस  व्यवस्था  को क्रियान्वित करने में सम्मिलित शासनकर्ताओं और शासितों में होते हैं। वस्तुतः व्यवहार में लोकतंत्र में यह दोष इसलिए आ जाते हैं कि उसे व्यवहार में लाने वाले लोग अपने को उस स्तर का नहीं रख  पाते हैं, जिस स्तर की लोकतंत्र की सफलता के लिए आवश्यकता होती है। परन्तु लोकतंत्र के आलोचकों को एक बात तो माननी ही होगी कि इस प्रणाली के इन दोषों  के बावजूद यह प्रणाली अन्य सभी प्रणालियों से श्रेष्ठतर  है।  यही  कारण  है  कि  दुनिया  के  अनेक  राज्यों  में  लोकतंत्र  व्यवस्था  को  कुछ  महत्त्वाकांक्षी राजनेताओं द्वारा उखाड़ फेंकने के बाद भी इसकी स्थापना के फिर प्रयत्न होते रहे हैं। अनेक समाजों में नागरिकता  क्रान्ति  तक  का  सहारा  लेकर  पुनः  लोकतान्त्रिक  शासन  स्थापित  करते  रहे  हैं।

 

लोकतंत्र  के आलोचक  इस  बात  से  भी  इनकार  नहीं  कर  सकते  कि  सभी  दोषों  के  होने पर  भी  शायद  लोकतान्त्रिक व्यवस्था ही मानव की गरिमा, उसके व्यक्तित्व के सम्मान और शासन कार्य में उसकी सहभागिता सम्भव बनाने का श्रेष्ठतम साधन है। यह केवल शासन का ही रूप नहीं, यह जीवन का ढंग है। इसमें व्यक्ति की सम्पूर्णता  का  आशय  निहित  है।  यह  व्यक्ति  जीवन  के  विभिन्न  पहलुओं  को  अलग-अलग  करके  नहीं, सम्मिलित रूप से विकसित होने का अवसर प्रदान करने वाली व्यवस्था है। लोकतंत्र की श्रेष्ठता का संकेत मिल के इस निष्कर्ष से मिलता है जिसमें उसने कहा है कि लोकतंत्र के विरोध में दी जाने वाली युक्तियों में जो कुछ सुधार प्रतीत हुआ, उसको पूरा महत्व देते हुए भी मैंने सहर्ष उसके पक्ष में ही निश्चय किया।

 

 

समग्रवादी व्यवस्था लक्ष्यों, साधनों एवं नीतियों के दृष्टिकोण से प्रजातांत्रिक व्यवस्था के बिल्कुल विपरीत होता  है।  यह  एक  तानाशाह  या  शक्तिशाली  समूह  की  इǔछाओं  एवं  संकल्पनाओं  पर  आधारित  होता  है। इसमें राजनैतिक शक्ति का  केन्द्रीकरण होता है अर्थात् राजनैतिक शक्ति एक व्यक्तिसमूह या  दल के हाथ में होती है। ये आर्थिक क्रियाओं का सम्पूर्ण नियंत्रण करता है। इसमें एक सर्वशक्तिशाली केन्द्र से सम्पूर्ण व्यवस्था को नियंत्रित किया जाता है। इसमें सांस्कृतिक विभिन्नता को समाप्त कर दिया जाता है और सम्पूर्ण समाज को सामान्य संस्कृति के अधीन करने का प्रयत्न किया जाता है ऐसा प्रयत्न वास्तव में दृष्टिकोणों की विभिन्नता की समाप्ति के लिये किया जाता है और ऐसा करके केन्द्र द्वारा दिये जाने वाले आदेशों  और  आज्ञाओं  के  पालन  में  पड़ने  वाली  रूकावटों  को  दूर  करने  का  प्रयत्न  किया  जाता  है। समग्रवादी व्यवस्था का सम्बन्ध एक सर्वशक्तिशाली राज्य से है। इसमें पूर्ण या समग्र को वास्तविक मानकर इसके हितों की पूर्ति के लिये आयोजन किया जाता  है। किन वस्तुओं का उत्पादन  किया जाएगा, कब, कहाँ, कैसे और किनके द्वारा किया जायेगा और कौन लोग इसमें लाभान्वित होगें, इसका निश्चय मात्र एक राजनैतिक दल, समूह या व्यक्ति द्वारा किया जाता है। इसमें व्यक्तिगत साहस व क्रिया के लिये स्थान

 

नहीं होता है। सम्पूर्ण सम्पत्ति व उत्पादन के समस्त साधनों पर राज्य का अधिकार होता है। इस व्यवस्था में दबाव का तत्व विशेष स्थान रखता है।

 

इसके दो प्रमुख रूप रहे है जो निम्नलिखि है-

ऽ   (1)      अधिनायकतंत्र

ऽ   (2)      साम्यवादी तंत्र

 

 

आधुनिक युग को लोकतंत्र का युग कहा जाता है। परन्तु शायद सत्य बात है कि यह युग अधिनायकतंत्र का युग बनता जा रहा है। यद्यपि हमने लोकतंत्र का मूल्यांकन करते समय यह निष्कर्ष निकाला है कि सुदूर  भविष्य  में  लोकतंत्र  व्यवस्थाएं  ही  लोकप्रिय  होंगीफिर  भी  आज  दुनिया  के  अनेक  राज्य  लोकतंत्र शासन प्रतिमान के प्रतिकूल तानाशाही व्यवस्था में जकड़े हुए दिखाई देते हैं। लेटिन अमरीका, अफ्रीका व

एशिया के अनेक राज्यों में आजकल निरंकुश व्यवस्थाओं का ही बोलबाला है। इन महाद्वीपों में जहां-जहां लोकतंत्र व्यवस्थाएं दिखाई पड़ती हैं पर उनमें भी निरंकुशता के बीज  जमते जा रहे लगते हैं। लोकतंत्र व्यवस्था के समान अधिनायकतंत्र के भी कई अर्थ व रूप  पाए जाते हैं। संक्षेप में इसके  अर्थ, उद्देश्य व लक्षणों का विवेचना की जा रही है।

 

अधिनायकतंत्र  किसी  न  किसी  रूप  में  हमेशा  बना  रहा  हैपरन्तु  प्राचीन  समय  में  इसका  अर्थ आजकल के अर्थ से पूर्णतया भिन्न था। स्पष्टता के लिए हम अधिनायकतंत्र के प्राचीन व अर्वाचीन अर्थो का पृथक-पृथक विवेचन कर रहे हैं।

 

 

 

प्राचीन समय में अधिनायकतंत्र व्यवस्था को दुर्भाव की दृष्टि से नहीं देखा जाता था। ऐसी व्यवस्था या तो विशेष संकटों का सफलता से मुकाबला करने के लिए या लोक कल्याण के  लक्ष्यों  को  शीघ्रता  से  प्राप्त  करने  के  लिए  अपनाई  जाती  थी।  रोमन साम्राजय में  संकट  के समय व कानून व्यवस्था बनाये रखने के लिए कभी-कभी विशेष अधिकारियों की नियुक्ति की जाती थी। संकट का सामना करने के लिए इन अधिकारियों को विशिष्ट शक्तियां दी जाती थीं और इन्हें अधिनायक कहा जाता था। इन्हें अधिनायक के नाम से इसलिए पुकारा जाता था क्योंकि उन्हें आदेश देने की असीम शक्तियां प्राप्त रहती थीं। इस प्रकार, मूल रूप में अधिनायक शब्द का अर्थ आदेश देने वाला है। रोम में अधिनायक को संकट का सामना करने के लिए ही सर्वोǔच शक्तियां सौंपी जाती थीं। संकट समाप्त होने पर अधिनायक का पद भी समाप्त हो जाता था। अतः रोमन में अधिनायकतंत्र केवल एक अस्थाई प्रयोग हुआ करता था। अधिनायक का कानूनी विधि से चुनाव होता था तथा वह अत्याचारी न बन जाये इसके लिए उस पर कानूनी रोक व्यवस्थाएं लागू रहती थीं। उसके लिए यह आवश्यक था कि वह अपनी शक्ति के प्रयोग को स्थायी अधिकार शक्ति की जांच के लिए प्रस्तुत करेगा।

अधिनायकतंत्र का इस अर्थ में प्रयोग पिछली शताब्दी के मध्य तक प्रचलित  माना जा  सकता है।

एमिलिया  के  शासक  फेरिनि  ने  1859  में  एवं  सिसली  के  शासक  गेरिबाल्डी  ने  1860  में  अपने  को  इसी प्रकार  का  अधिनायक  घोषित  किया  थापरन्तु  उनके  अधिनायक  बनने  का  उद्देश्य  अपने  देश  में जन-कल्याण  करना  था।  कार्ल  माक्र्स  ने  भी  सर्वहारा  वर्ग  के  अधिनायकतंत्र  का  प्रतिपादन  करते  समय इसका यही अर्थ लिया था। इस प्रकार के अधिनायकतंत्र के कुछ लक्षणों का उल्लेख इसे आजकल के नये  अधिनायकतंत्र  से  भिन्न  करने  के  लिए  आवश्यक  है।  प्राचीन  अधिनायकतंत्र  में  निम्नलिखित  लक्षण प्रमुख माने जा सकते हैं-

 

 

(1)    अधिनायक विधियों द्वारा सीमित रहता था।

(2)    लोक कल्याण का लक्ष्य सर्वोपरि रहता था।

 

(3)       अधिनायक को वैधता प्राप्त रहती थी।

(4)       अधिनायक उत्तरदायी होता था।

(5)       अधिनायक का पद अस्थायी भी हो सकता था।

(6)       समस्त शक्तियां अधिनायक में निहित रहती थीं।

उपरोक्त  लक्षणों  के  संबंध  में  यह  बात  ध्यान  रखनी  है  कि  अधिनायकतंत्र  व्यवस्थाएं  विधि  द्वारा संचालित व्यवस्थाएं होती थीं तथा शासन शक्ति का प्रयोग जन-कल्याण के लिए किया जाता था। ऐसी व्यवस्थाओं  में  अधिनायकों  का  उत्तरदायित्व  व  वैधता  इस  रूप  में  रहती  थी  कि  जनमत  उनके  अनुकूल रहता था। सामान्यतया जनता का अधिकांश भाग उनके अधिकारों के प्रयोग में सहायक व समर्थक होता था। शासन सही अर्थो में जनता के लिए ही होता था।

 

 

आधुनिक समय में अधिनायकतंत्र का अर्थ पूरी तरह बदल गया है। आजकल इससे स्वेǔछाचारी व अत्याचारी शासन का बोध होता है। इसमें राजसत्ता एक व्यक्ति में निहित  होती  है  और  शासन  सत्ताधारी  व्यक्ति  की  इǔछानुसार  ही  चलता  है।  ऐसे  अधिनायक  पर  किसी प्रकार का अंकुश या प्रतिबंध नहीं होता है। आधुनिक अधिनायकों को राष्ट्रीय  संकट के समय नहीं चुना जाता  है  वरन  वे  तो  प्रायः  आकस्मिक  राज्यक्रान्ति  के  फलस्वरूप  शक्ति  प्राप्त  कर  लेते  है।  उनके राजनीतिक अधिकार शक्ति का आधार, बल प्रयोग होता है। वे उसी समय तक शक्ति में बने रहते हैं, जब तक बल प्रयोग उन्हें अधिनायक बनाए रखने में सहायक रहता है। वे किसी के प्रति उत्तरदायी नहीं होते। अधिनायकतंत्र में राज्य की सम्पूर्ण शक्ति एक ही व्यक्ति में निहित होती है जो स्वयं को राज्य का मूर्त

रूप समझता है।

आधुनिक  अधिनायकतंत्र  के  दो  मत  माने  जाते  हैं।  साम्यवादी  शासन  व्यवस्थाओं  के  उदय  ने

एकदलीय व्यवस्थाओं की स्थापना की है। इससे एक दल, जो वस्तुतः एक विचाराधारा से अनुप्राणित होता हेसत्ता  का  एकाधिकार  रखता  है  तथा  दल  का  सर्वोǔच  नेतादल  के  समर्थन  के  द्वारा  एक  तरह  से अधिनायक  की  तरह  शक्ति  प्रयोग  करता  है।  इस  प्रकार  के  अधिनायकतंत्र  में  शासक  स्वेǔछाचारी  व अत्याचारी नहीं होता है। जबकि वर्तमान में ऐसे शासक भी मिलते हैं जो सेवा के सहयोग से सत्ता में आते हैं  और  सत्ता  में  आने  के  बाद  निरंकुश  ढंग  से  शक्तियों  का  प्रयोग  करते  हैं।

 

 

एलेन  बाल  ने  आधुनिक अधिनायकतंत्र के दो रूप माने हैं। उसने एक को सर्वाधिकारी शासन तथा दूसरे को स्वेǔछाचारी शासन के नाम से सम्बोधित किया है। यहां इन दोनों के लक्षणों का विस्तार से विवेचन आवश्यक है-

(1)    सर्वाधिकारी शासन मुख्य रूप से बीसवीं सदी में आधुनिक प्रौद्योगिकी तथा संचार में प्रगति होने के कारण  अस्तित्व  में  आयें  हैं।  अधिकांश  सर्वाधिकारी  शासन  आधुनिकीकरण  तथा  सुधार  लाने  के  लिए कटिबद्ध क्रान्तिकारी शासन है। स्तालिन का रूस, हिटलर का जर्मनी व मुसोलिनी के समय में इटली इस प्रकार के शासन के उदाहरण हैं। इन तीनों उदाहरणों में एक लक्षण समान था। इस सब में एक व्यक्ति के नेतृत्व पर बल दिया गया था, पर 1945 से बाद की सर्वाधिकारी पद्धतियों में सामूहिक नेतृत्व ही पाया जाता  है।  यह  व्यवस्था  अब  रूस  व  चीन  के  अलावा  पूर्वी  यूरोप  के  साम्यवादी  राज्यों  में पाई  जाती  है।

 

सर्वाधिकारी शासन व्यवस्थाओं के लक्षणों का विवेचन एलेन बाल ने निम्न बिन्दुओं पर किया है-

 

(क)   सिद्धान्ततः  व्यक्तिगत  तथा  सामाजिक  गतिविधि  के  सभी  पहलुओं  से  सरकार  राजनीतिक  रूप  से सम्बद्ध होती है।

 

(ख)   एक ही दल राजनीतिक तथा कानूनी रूप से प्रभावी होता है। सारी राजनीतिक सक्रियता इसी के माध्यम से गुजरती है और प्रतियोगिता, नियुक्तियों तथा विरोध के लिए दल ही एक मात्र संस्थागत आधार प्रस्तुत करता है।

(ग)   सैद्धान्तिक  रूप  से  एक  ही  सुस्पष्ट  विचाराधारा  होती  है  जो  उस  व्यवस्था  के  अन्तर्गत  सम्पूर्ण राजनीतिक सक्रियता का विनिमय करती है। वह शासन तथा जोड़-तोड़ करने का उपकरण होती है।

(घ)   न्यायपालिका और जन-सम्पर्क के माध्यमों पर सरकार का कठोर नियंत्रण होता है और उदारवादी प्रजातंत्रों में परिभाषित नागरिक स्वतंत्रताएं कठोरतापूर्वक काट-छांट दी जाती है।

(ङ)   यह शासन प्रजातंत्रीय आधार उपलब्ध करने के उद्देश्य से और शासन के लिए व्यापक जन-समर्थन प्राप्त करने के लिए जन-सक्रियता पर जोर देते हैं। जनता के भाग लेने तथा जनता की स्वीकृति से शासन का वैधीकरण हो जाता है।

उपरोक्त  लक्षणों  से  यह  स्पष्ट  है  कि  सर्वाधिकारी  शासन  व्यवस्थाओं  में  विचारधारा  का  सर्वाधिक महत्व होता है तथा विचारधारा के क्रियान्वयन  के लिए एकाधिकार युक्त एक राजनीतिक दल होता है। समस्त गतिविधियों का नियंत्रण व निर्देशन यही दल करता है।

 

अतः सर्वाधिकारी शासन व्यवस्थाओं में एक विचारधारा  का  राजनीतिक  दलप्रतियोगिता  का  अभाव  तथा  पूर्णतया  नियन्त्रित  जीवन  इसकी  मुख्य विशेषताएं होती है।

 

 

(2)    स्वेछाचारी  शासन

 

 

स्वेछाचारी  शासन  की  सुस्पष्ट  परिभाषा  करना  बहुत  कठिन  है,  क्योंकि  सामान्यतया  ऐसे  शासन अस्थायी  होते  हैं।  यहां  यह  ध्यान  देने  की  बात  है  कि  उदारवादी  व  सर्वाधिकारी  शासन  व्यवस्थाओं  में वर्गीकृत न होने वाले शासन स्वतः ही स्वेछाचारी शासनों की श्रेणी में सम्मिलित नहीं किए जा सकते हैं। इसी तरह, स्वेछाचारी शासन पद्धतियों को तीसरी दुनिया या विकासशील राज्यों का पर्याय नहीं मान लेना चाहिए। वैसे इन शासन व्यवस्थाओं में बचे हुए अधिकांश राज्य-उदारवादी व सर्वाधिकारी राज्यों को छोड़करसम्मिलित  किये  जा  सकते  हैंक्योंकि  इनमें  लक्षणों  की  भिन्नता  प्रकारात्मक  न  होकर  केवल मात्रात्मक ही होती है। स्वेछाचारी शासन व्यवस्थाओं के निम्नलिखित लक्षण उल्लेखनीय हैं।

 

एलेन बाल ने इनके निम्नलिखित लक्षण गिनाए हैं-

 

(क)   मुख्य राजनीतिक प्रतियोगिता (यानी राजनीतिक दल और चुनाव) पर महत्वपूर्ण पाबन्दियां।

(ख)   साम्यवाद या फासीवाद जैसी प्रभावी राजनीतिक विचारधारा का अभाव।

(ग)   राजनीतिक शब्द से सम्बोधित की जाने वाली बातों का सीमित क्षेत्र होता है क्योंकि  इन शासन व्यवस्थाओं  में  सरकार  आधुनिक  प्रशासकीय  तथा  औद्योगिक  विधियों  के  अभाव  में  सभी  बातों  को राजनीतिक रंग नहीं दे पाती।

(घ)   राजनीतिक  अनुरूपता  तथा  आज्ञाकारिता  प्राप्त  करने  के  लिए  राजनीतिक  सत्ताधारी  बहुधा  जोर जबर्दस्ती तथा बल प्रयोग पर अधिक बल देता है।

(च)   नागरिक  स्वतंत्रताओं  की  अनुमति  बहुत  कम  दी  जाती  है  और  जन-सम्पर्क  के  माध्यमों  तथा न्यायपालिका पर सरकार का सीधा नियंत्रण होता है।

(छ)   शासक  या  तो  परम्परागत  दृष्टि  से  राजनीतिक  श्रेष्ठजन  हों  या  आधुनिक  दृष्टिकोण  वाले  नये श्रेष्ठजन होते हैं। अक्सर सेना ही आकस्मिक राज-परिवर्तन या स्वतंत्रता के औपनिवेशिक युद्ध के फलस्वरूप सत्ता हथिया लेती है।

(ज)   एक गुट का राजनीति पर एकाधिकारी नियंत्रण रहता है।

 

लक्षणों की उपरोक्त सूची पूर्ण नहीं कही जा सकती है। इस श्रेणी में सम्मिलित शासनों में इतनी विविधतायें हैं कि सभी लक्षणों  को सूचीबद्ध करना अत्यधिक कठिन है। इस श्रेणी में परम्परागत शासक वर्गो वाले राज्य, जैसे- सउदी अरब, इथोपिया और नेपाल तथा सैनिक सरकारों वाले आधुनिकीकृत राज्य जैसे नाइजीरिया और असैनिक सरकारों वाले आधुनिकीकृत राज्य जैसे अलजीयिा या मिस्त्र-शामिल कर सकते हैं।

सर्वाधिकारी व स्वेछाचारी शासन व्यवस्थाओं में बहुत अंतर हैं। उपरोक्त विवेचन से यह अंतर स्पष्ट हो जाते हैं। इस तरह, अधिनायकतंत्र का अर्वाचीन रूप इसके प्राचीन रूप से बहुत कुछ भिन्न हो गया है। आधुनिक अधिनायकतंत्र व्यवस्थाओं में व्यक्ति की स्वतंत्रताओं पर प्रतिबंध व मनुष्य के जीवन का हर पहलू नियन्त्रित करने के कारण, इन व्यवस्थाओं के लक्षणों का विवेचन करना सरल हो जाता है। संक्षेप में यह इस प्रकार हैं।

 

अधिनायकतंत्र  के  सर्वाधिकारी  व  स्वेछाचारी  रूपों  का  विवेचन  पहले  किया  गया  है।  इनके  लक्षणों  के अध्ययन  से  संकेत  मिलता  है  कि  दोनों  व्यवस्थाओं  में  अंतरों  के  बावजूद  मोटी  समानताएं  हैं।  कुछ  ऐसी विशेषताएं  हैं  जो  अधिनायकतंत्र  के  दोनों  प्रकारों  में  पाई  जाती  है।  पीटर  मर्कल  ने  अपनी  पुस्तक

में अधिनायकतंत्र की निम्नलिखित विशेषताओं की  ओर ध्यान  दिलाया है-

 

(1) असाधारण सत्तायुक्त, अर्द्ध-देवतुल्य एक नेता।

(2) सरकारी प्रशासन व समाज के समस्त संगठनों के नियन्त्रक के रूप में विशिष्ट ढंग से संगठित व भावात्मक समर्पणता वाला एक जनपंजी दल।

(3) शिक्षा व्यवस्था तथा जन-सम्पर्क के सभी साधनों पर प्रचार का एकाधिकार।

(4) आतंक तथा भयभीत करने की सुपरिष्कृत व्यवस्था।

सर्वाधिकारी  व  स्वेछाचारी  शासन  व्यवस्थाओं  में  गन्तव्योंविचारधाराओं  तथा  आधुनिकीकरण  में उनकी भूमिकाओं को लेकर बहुत कुछ असमानताएं होते हुए भी उनमें उपरोक्त विशेषताएं समान रूप से पाई जाती हैं।

 

इनका संक्षेप में विवेचन करने से इन दोनों व्यवस्थाओं के समान लक्षणों को अछी तरह समझा जा सकता है।

(1)    सामान्यतया निरंकुश व्यवस्थाओं से एक ऐसे अधिनायक का अर्थ लिया जाता है जो सर्वशक्तिमान हो। परन्तु इतिहास में एक भी ऐसा उदाहरण नहीं मिलता है जब किसी तानाशाह ने अकेले समस्त राज्य शक्तियों का प्रयोग किया हो। हिटलर, मुसोलिनी तथा स्तालिन के भी सलाहकार, समर्थक व सहयोगी रहे हैं। क्योंकि अधिनायकतंत्री व्यवस्था में नेता की सर्वोचता व असाधारण सत्ता का आधार दल का नेतृत्व होता है। इन व्यवस्थाओं में नेता या तो विचारधारा का प्रवर्तक होता है, या किसी प्रचलित विचारधारा का प्रमुख संशोधक होता है। वह विचारधारा का एक मात्र व्याख्याकार, रक्षक तथा क्रियान्वयन माना जाता है। अतः दल के सदस्यों के लिए जो दल की विचारधारा को पूर्णतया समर्पित होते हैं, वह नेता, देवतुल्य व श्रद्धा  का  पात्र  बन  जाता  है  तथा  वही  शक्ति  परम  व  सर्वोच  हो  जाती  है।  यह  नेता  किसी  के  प्रति उत्तरदायी नहीं होता, किसी से भी आदेश प्राप्त नहीं करता तथा परिस्थितियों के बन्धनों से भी मुक्त रह सकता है। नेता की सत्ता को कोई चुनौती न दे पाए इसके लिए हर अधिनायक तीन साधनों का सहारा लेता है- (1) वह समयपर दल में से सभी सम्भावित दुश्मनों व विरोधियों का बर्बरतम तरीकों का उपयोग करके सफाया करता रहता है। (2) अपने सभी सहयोगियों व अनुयायियों के  दिलों में भय और आतंक फैलाये रखता है। (3) सत्ता संरचना को स्थिर नहीं होने देता है।

 

इस  तरह, अधिनायकतंत्र  में  नेता  की  सर्वोचता  तथा  सत्ता  बनाई  रखी  जा  सके  इसके  लिए  नेता उपरोक्त तीन विधियों में से दो विधियों का तो प्रयोग करते ही हैं परन्तु तीसरी विधि के माध्यम से वह उनको चुनौती देने की संस्थागत व्यवस्था को भी नहीं पनपने देते हैं। अधिनायकतंत्र में नेता को सबसे बड़ा खतरा ऐसी संस्थाओं की स्थापना या विकास है जो स्वयं निर्णय लेने लगें। ऐसी अवस्था नेता की सत्ता की क्षीणता का संकेत होती है जो अनिवार्यतः नेतृत्व में परिवर्तन करके रहती है। रूस में खुश्चेव तथा पाकिस्तान में अय्यूबखां के बाद क्रमशः ब्रेजनेव तथा याह्याखान का सत्ता में आना इसी आधार पर समझा जा सकता है।

 

(2)    तानाशाही व्यवस्थाओं में चाहे उसका कोई रूप हो, एक एकाधिकारी राजनीतिक दल का दिखावा अवश्य पाया जाता है। यह राजनीतिक दल सम्पूर्ण जीवन का नियंत्रक होता है। सरकारी, सामाजिक तथा व्यक्तिगत जीवन ऐसे दल के नियंत्रण में रहता है। साम्यवादी व्यवस्थाओं में दल सही अर्थो में  जनपुंजी होते  हैंपर  स्वेǔछाचारी  सैनिक  या  असैनिक  तथा  परम्परागत  शासक  वर्गो  वाले  राज्यों  में  भी  सत्ता  की वैधता के लिए दल का गठन किया जाता है। पाकिस्तान में राष्ट्रपति अय्यूबखां ने, बर्मा में जनरल नेविन

(आजकल बर्मा के राष्ट्रपति) व नेपाल में सम्राट महेन्द्र ने इसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए दल का सहारा लिया था। ऐसे शासनों में अधिनायक, दल के नेता के रूप में पूजनीय बन जाता है।

 

(3)    निरंकुश शासक अपनी सत्ता को स्थायी आधार उपलब्ध कराने के लिए शिक्षण व्यवस्थाओं के माध्यम से नेता के प्रति अगाध आस्था उत्पन्न कराने का प्रयास करता है। सम्पर्क के सभी साधनों का प्रयोग नेता की श्रेष्ठता के गुणगान करने में किया जाता है। जन-सम्पर्क के सभी साधनों पर कड़ी निगरानी रहती है तथा जनता को बार-बार आंतरिक एवं बाहरी दुश्मनों में संघर्ष करने के लिए सचेत रखा जाता है। सारा प्रचार केवल नेता के द्वारा बताये गये तथ्य को ही सही मानने के लिए होता है। अन्य किसी भी प्रकार का प्रचार यहां तक कि बाहर का रेडियो प्रसारण सुनना तक अपराध माना जाता है। दूसरे विश्वयुद्ध के समय तो जर्मनी में विदेशी रेडियो प्रसारण सुनने वालों को मौत की सजा देने का कानून तक लागू था। प्रसारणों के  माध्यम  से  बार-बार  विचारधाराओं  से  संबन्धित  सिद्धान्तों  को  दोहराया  जाता  है  जिससे  लोगों  के मस्तिष्कों पर इसकी अमिट छाप अंकित हो जाए तथा इससे आगे सोचने के लिए जनता के मस्तिष्कों पर ताले पड़ जाएं। इस तरह जन-सम्पर्क साधनों का एकाधिकार नेता की सत्ता को स्थायित्व प्रदान करने में प्रयुक्त किया जाता है।

 

 

(4)    अधिनायकतंत्री व्यवस्थाओं को बनाए रखने के लिए नेताओं द्वारा आतंक तथा डर का साम्राज्य फैला दिया जाता है। इससे व्यक्ति इतना भयभीत बना दिया जाता है कि उसको हर वक्त अपना अस्तित्व खतरे में लगता है। इसके लिए बेबुनियादी प्रचार तक का सहारा लिया जाता है। निरंकुश व्यवस्थाओं में सरकार

एक  निरंतर  चलने  वाली  क्रान्ति  का  प्रतीक  होती  है।  इन  व्यवस्थाओं  में  एक  अत्यधिक  महत्वाकांक्षी  व सुनहरे भविष्य की प्राप्ति के लिए संघर्ष में कोई रूकावट नहीं आये इसके लिए सारा शासनतंत्र एक सूत्र में बांधकर रखा जाता है। इस प्रयत्न के विरोध में किसी भी प्रकार का प्रयत्न नहीं हो इसके लिए पहले ही आतंक फैलाये रखा जाता है। इसके लिए गुप्तच विभागों को पूर्ण अधिकार तथा अप्रत्याशित शक्तियों से युक्त किया जाता है। ऐसी व्यवस्थाओं में  को अनुनयन से समझाने के बजाय समाप्त किया जाता है।

अन्त मेंयह कहा जा सकता है कि आधुनिक अधिनायकतंत्र प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सैनिकवाद की उपज है। इसमें एक दल या नेता या सेना के झंडे के चारों ओर राष्ट्रीय आत्म-सम्मान, आशाओं और आकांक्षाओं की शक्ति इकट्ठी होती है। अधिनायकतंत्र आन्तरिक विरोध व संघर्ष को कठोरता से दबा देता है। वह इस तरह कार्य करता है जैसे कि वह राष्ट्रीय एकता की मूर्ति हो। अधिनायकतंत्र लोगों को एक

 

स्वर में गूंथने का प्रयत्न करता है। इसमें जनता के किसी विरोध का सहन नहीं किया जाता है। यह इसी बात में विश्वास करता है कि सम्पूर्ण राष्ट्र एक ही ढंग से सोचे, बोले व कार्य करें। अधिनायकतंत्र के अर्थ व विशेषताओं के विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि इस शासन व्यवस्था में कुछ गुण हैं तो कुछ दोष भी है। इनका संक्षेप में विवेचन देना मूल्यांकन के लिए आवश्यक है। अतः इनका संक्षिप्त विवेचन किया जा रहा है।

 

 

 

 

 

अधिनायकतंत्र व्यवस्था के व्यवहार में इतने लाभ हैं कि अनेक लोकतांत्रिक राज्यों में जनता लोकतंत्र में कुछ लोगों की मनमानी करने की स्वतंत्रता से ऊबकर अधिनायकतंत्र व्यवस्था की कामना करने लगती है। अगर  अधिनायकतंत्र  के  उत्कर्ष  के  कारणों  की  खोज  की  जाए  तो  विदित  होगा  कि  जिस-जिस  देश  में निराशा, अव्यवस्था, असंतोष तथा अभाव था वहीं अधिनायकतंत्र का उदय हुआ है। जिन देशों में लोकतंत्र व्यवस्था लोगों  में निराशा तथा अभाव  उत्पन्न करने वाली बनी, वहीं इस व्यवस्था की स्थापना हो गई।

 

आज भी अनेक राज्यों में जनता अधिनायकतंत्र को अǔछा मानकर निरंकुश शासकों का पूर्ण समर्थन करती हुई दिखाई देती है। इससे यह स्पष्ट है कि अधिनायकतंत्र में कुछ ऐसे गुण हैं जो अन्य व्यवस्थाओं  की सैद्धान्तिक  श्रेष्ठता  के  बावजूद  इस  व्यवस्था  को  अपनाने  के  लिए  प्रेरणा  के  जिम्मेदार  हैं।  संक्षेप  में  ऐसे शासन के निम्नलिखित लाभ हैं-

 

(1)    अधिनायकतंत्र  में  शासन  कुशलता  होती  है।  सारी  शासन  शक्ति  एक  व्यक्ति  में  निहित  होने  के कारण, न केवल निर्णय शीघ्रता से लिए जा सकते है, वरन निर्णयों के क्रियान्वयन की भी सुव्यवस्था हो जाती  है।  अधिनायकतंत्री  व्यवस्था  में  शासक  से  सभी  भयभीत  रहते  हैं  इस  कारण  वे  कार्य  में  देरी  या शिथिलता  नहीं  कर  सकते  हैं।  निरंकुश  शासक  के  प्रति  सम्पूर्ण  प्रशासन  न  केवल  उत्तरदायी  रहता  है अपितु हर समय सतर्क, सचेत व सक्रिय भी रहता है। इससे शासन में कार्य-दक्षता आ जाती हैं।

 

 

(2)    इस व्यवस्था का दूसरा गुण देश का तेजी से विकास है। देश में एक ही नेता, एक ही योजना तथा

एक ही विकास लक्ष्य रहने से देश की सम्पूर्ण शक्ति इसी लक्ष्य के मार्ग को प्रशस्त करने में प्रयुक्त होती है। आर्थिक साधनों का समुचित विकास व उपयोग सम्भव होता है। देश के विकास के लिए एकता, शान्ति व व्यवस्था की आवश्यकता होती है। अधिनायकतंत्र में इनकी ठोस व्यवस्था रहने के कारण देश के सारे साधन विकास में लगाए जा सकते हैं।

(3)    देश में एकता की स्थापना में अधिनायकतंत्र बहुत सहायक रहता है। विभिन्न दलों तथा विरोधियों का दमन करके देश में एक दल व एक नेता का शासन स्थापित होने के कारण सारी जनता इसके प्रति वफादार हो जाती है। नेता के चारों तरफ, सारी व्यवस्थाएं गुंथ जाती हैं तथा देश एक ठोस एकता के सूत्र में बंध जाता है। दल या नेता एकता में बांधने का साधन हो जाता है और उसी में सबको अपनत्व का आभास होने लगता है। हिटलर व मुसोलिनी इसी तरह जर्मनी व इटली को एक करने में सफल रहे थे।

 

 

राष्ट्रीयता की भावना जाग्रत करने में सहायक है। देश के नागरिकों को पारस्परिकता में बांधने के लिए एक विचारधारा, एक दल व एक नेता का होना पर्याप्त होता हैं। सभी नागरिक बन्धुत्व की भावना से अनुप्राणित रहते हैं। एक राष्ट्र का नारा, एक ही झंडे के नीचे सबको खड़ा कर देता है। देश भक्ति का इतना प्राबल्य होता है कि नागरिक अपने देश तथा नेता के लिए बलिदान तक करने के लिए तैयार हो जाते हैं।

 

 

संकट काल में तानाशाही व्यवस्था सर्वोत्तम रहती है। इसमें संकट का सामना करने के लिए सभी निर्णय  व  आदर्श  एक  व्यक्ति  द्वारा  दिये  जाने  के  कारणआदेशों  की  एकता  रहती  है।  इससे  समय  पर उचित कार्यवाही करना सरल हो जाता है। युद्धकालीन संकट में तो यही व्यवस्था विजय दिलाती है।

 

 

अधिनायकतंत्र व्यवस्था में देश का बहुमुखी विकास होता है। आर्थिक क्षेत्र में भी तेजी से विकास की व्यवस्था होती है। एकता, अनुशासन व कर्तव्य-परायणता के कारण विकास की श्रेष्ठ व्यवस्था हो जाती है।

रूस, जर्मनी, चीन, इटली, टर्की और स्पेन का अभी तक इतिहास इस बात का साक्षी है। जेक्सन ने अपनी पुस्तक यूरोप  सिन्स दी  वाॅर  में ठीक  ही  लिखा है- स्पेनवासियों  के  इतिहास में  यह  पहला अवसर  है जबकि रेलें समय पर चली हैं। अधिनायक के अधीन व्यापार और  उद्योग समृद्ध हुए हैं। कृषि फलीफूली है।  श्रम  संकट  दूर  हो  गए  हैं।  भारत  में  कुछ  अंशों  में  अधिनायकवादी  कदमों  ने  देश  का  हाल  ही  में काया-पलट कर दिया है।

 

 

कुछ विद्वान अधिनायकतंत्र को मानव-स्वभाव के अनुकूल भी मानते हैं। इसके पक्ष में उनका कहना है कि मनुष्य में स्वभावतः अपने हितों की रक्षा की इǔछा अवश्य होती है। वह अपनी रक्षा चाहता है चाहे

यह  किसी  के  द्वारा  की  जाय।  अपनी  समस्याओं  का  समाधान  चाहता  है।  आम  जनता  को  इससे  कोई मतलब नहीं होता है कि उसकी रक्षा व्यवस्था कौर करता है? वह तो सुरक्षा चाहती है, अपने हितों की पूर्ति चाहती है। अधिनायकतंत्र में ऐसा सम्भव होने के कारण यह मानव स्वभाव के अनुकूल व्यवस्था भी मानी जाती है।

 

 

 

विकासशील राज्यों के लिए राजनीतिक और आर्थिक विकास की संक्रमणकालीन परिस्थितियों में भी अधिनायकतंत्र  उपयोगी  माना  गया  है।  विकासशील  राज्यों  में  जनइǔछा  की  अनुशासित  अभिव्यक्ति  की समस्या अत्यन्त प्रबल रही है। विकास के विभिन्न चरणों को पार करने के प्रयास में नवोदित राष्ट्र जन आकांक्षाओं को जागृत तो कर देते हैं, परन्तु जन आकांक्षाएं जितनी तेजी से जागृत होती हैं, उतनी तेजी से वे उनकी पूर्ति नहीं कर पाते हैं। इसके कारण राज्य व्यवस्था पर तनाव बढ़ते हैं एवं उसके टूटने का डर रहता है। ऐसी स्थिति में राजनीतिक अनुशासन बनाए रखने के लिए अधिनायकतंत्र अधिक उपयोगी हो सकता है। हण्ंिटगटन ने ठीक ही कहा है कि नवोदित राष्ट्रों में प्रथम कार्य राजनीतिक सहभाग, शिक्षा आदि की वृद्धि के स्थान पर मूलभूत, संस्थात्मक ढांचे का निर्माण होना चाहिए तथा इसके लिए एकदलीय शासन या सैनिक अधिनायकतंत्र भी उपयुक्त हो सकता है।

 

 

अधिनायकतंत्र में गुणों के होते हुए भी इस प्रणाली का किसी भी देश में लम्बी अवधि तक प्रचलन नहीं रह पाता है। इतिहास ऐसे प्रमाणों से भरा पड़ा हैं। जहां कहीं भी अधिनायकतंत्र स्थापित होता है वहीं पर एक स्थिति ऐसी आती है जब जनता सत्ता सम्पन्न सर्वोǔच शासक को उखाड़ फेंकने के लिए हिंसात्मक क्रान्ति तक का सहारा लेने में नहीं हिचकिचाती है।

 

इससे स्पष्ट है कि इस व्यवस्था में कुछ कमियां अवश्य पाई जाती हैं। संक्षेप में इस प्रणाली के दोष इस प्रकार हैं-

 

 

इस व्यवस्था में व्यक्ति के व्यक्तित्व का सम्मान नहीं होने के कारण व्यक्ति को सब कुछ सुविधाएं होते हुए भी उसे अपने व्यक्तित्व को अपनी इǔछानुसार  विकसित करने का वातावरण नहीं मिल पाता है तथा वह अपने जीवन को अपूर्ण ही रखने पर मजबूर हो जाता है। व्यक्ति को किसी भी प्रकार स्वतंत्रता नहीं रहती है। इससे उसका व्यक्तित्व दबकर रह जाता है। तानाशाही व्यवस्था में मौलिक अधिकारों एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता को कोई  महत्व नहीं  दिया जाता है।  अतः तानाशाही व्यवस्था का  सबसे बड़ा दुर्गुण व्यक्ति के व्यक्तित्व के दमन का वातावरण बनाना है।

 

अधिनायकतंत्र शासन व्यवस्था में अत्याचार और अनाचार का बोलबाला रहता है। अधिनायक अपनी सत्ता को बना रखने के लि आतंक फैला रखता है। विरोधियों का बर्बर तरीकों से सफाया कर दिया जाता है। इससे मानव भयग्रस्त होकर जेल के सीखचों में बन्द सा हो जाता है। देश हित में कही गई बात भी अगर तानाशाह की इǔछा के प्रतिकूल है तो उसको ठुकरा दिया जाता है तथा उसके विरूद्ध बात कहने वाले को देशविद्रोही कहकर मौत के घाट उतार दिया जाता है।

 

 

तानाशाही व्यवस्था देश के लि अहितकर होती है। इस व्यवस्था में निर्णय एक व्यक्ति लेता है जो किसी  भी  प्रकार  का  विरोध  या  सुझाव  स्वीकार  नहीं  करता  है।  इससे  तानाशाह  द्वारा  लिये  गये  गलत निर्णयों का अहितकर प्रभाव सारी प्रजा को भुगतना पड़ता है। अधिनायक का हर निर्देश लोगों को मानना पड़ता हैचाहे वह निर्देश राष्ट्रीय हित में हो अथवा नहीं  हो। इस प्र्र्र्रकार तानाशाही व्यवस्था में राष्ट्रीय हितों का समुचित संरक्षण नहीं रहता है।

 

 

अधिनायकतंत्र में साधारण व्यक्तियों में आत्म-निर्भरता, क्रियाशीलता तथा स्वतंत्रता की भावना का पूर्णतः  लोप  हो  जाता  हैक्योंकि  उन्हें  बोलने  अथवा  विचारने  आदि  की  किसी  प्रकार  की  स्वतंत्रता  नहीं रहती है। इस व्यवस्था में व्यक्ति का तन, धन और यहां तक कि मन भी अधिनायक के लिए हो जाता है और उसे अधिनायक जिधर हांके उधर ही चलने के लिए मजबूर होना पड़ता है।

अधिनायकतंत्र  के  गुण  और  दोष  के  विवेचन  से  स्पष्ट  है  कि  यह  व्यवस्था  मनुष्य  को  मनुष्य  नहीं बनाती तथा उसे मनुष्य के रूप में रहने भी नहीं देती है। इसमें मानव का व्यक्तित्व दबकर रह जाता है। उसकी  सारी  भौतिक  आवश्यकताओं  की  पूर्ति  के  उपरान्त  भी  उसको  कुछ  कमी  सी  महसूस  होती  है। उसका जीवन कैदी का सा हो जाता है। इसलिए ही अधिनायकतंत्र के अनेक लाभों के होते हुए भी कोई व्यक्ति इस व्यवस्था के अन्तर्गत रहना पसंद नहीं करता है। इस शासन में व्यक्ति के लिए सब कुछ रहता है परन्तु फिर भी उसको ऐसी व्यवस्था में घुटन होने लगती है, क्योंकि व्यक्ति केवल रोटी के लिये ही जीवित  नही  रहता  है।  वह  इसके  अलावा  भी  बहुत  कुछ  पाना  व  करना  चाहता  है  जो  केवल

सोचन-े  विचारने  तथा  अभिव्यक्ति  की  स्वतंत्रता  के  वातावरण  में  ही  सम्भव  होता  है।

 

 

अतः  अधिनायकतंत्र सभी आकर्षणों के बावजूद भी तनाव मस्तिष्क की भूख मिटाने के साधनों पर रोक लगाने वाला होने के कारण जन साधारण द्वारा अमान्य ही रहता है। इस शासन के गुण-दोषों के विवेचन के बाद इसके भविष्य के बारे में संकेत देना सरल हो जाता है। अतः हम इसके भविष्य की संक्षिप्त चर्चा करना प्रासंगिक मान सकते हैं।

 

लोकतंत्र का साम्यवादी दृष्टिकोण वर्तमान शताब्दी में ही महत्वपूर्ण बना है। साम्यवादियों ने लोकतंत्र को नये अर्थो में ग्रहण किया है। सोवियत रूस तथा चीन के शासनों को जनवादी लोकतंत्र कहा जाता है। इन शासनों का मुख्य आधार माक्र्स के विचारों पर आधारित साम्यवाद है, जिसके अनुसार उदार लोकतंत्रों की शासन व्यवस्था लोकतंत्र का केवल दिखावा है। साम्यवादी दृष्टिकोण के समर्थकों का कहना है कि पश्चिमी लोकतंत्रों में शासन पर केवल साधन सम्पन्न वर्ग का नियंत्रण होने के कारण शासनतंत्र का प्रयोग इसी वर्ग के हितों के पोषण के लिए किया जाता है। अतः उनकी मान्यता है कि साधन सम्पन्न वर्ग के साधन के रूप में शासन व्यवस्था का प्रयोग जिस राज्य में होता है उसको लोकतान्त्रिक नहीं कहा जा सकता। साम्यवादी मानते हैं  कि लोकतान्त्रिक व्यवस्था  तो केवल उस शासनतंत्र को  कहा जाना  चाहिए जहां इसका प्रयोग एक ऐसे समाज के हित साधन के लिए हो वर्ग रहित हो। इसके लिए, उनके द्वारा प्रतिपादित  लोकतंत्रीय  शासन  की  स्थापना  आवश्यक  है  तथा  वही  उनके  मतानुसार  सǔचा  लोकतंत्र  है,

 

क्योंकि ऐसी दशा में सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व में जब यह शासक वर्ग समाप्त कर दिया जाता है, तो शोषण के साधन के रूप में राज्य का अन्त हो जाता है और सǔचे जनतंत्र का उदय होता है।

2023 NEW SOCIOLOGY – नया समाजशास्त्र
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