राजनीतिक समाजीकरण
2023 NEW SOCIOLOGY – नया समाजशास्त्र
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समाजीकरण
( Socialization )
मनुष्य जन्म से मृत्युपर्यन्त तक कुछ – न – कुछ सीखता ही रहता है । व्यक्ति जब जन्म लेता है , उस समय वह सिर्फ हाड़ – मांस का एक जीवित पुतला होता है । जन्म के समय उसमें सामाजिक गुण होते हैं और न असामाजिक । उसे अपने शरीर तक का आभास नहीं होता । इसका एकमात्र कारण यह है कि उसमें ‘ स्व ‘ का विकास नहीं हुआ रहता । किन्तु धीरे – धीरे वह समाज और संस्कृति के बीच पलते – पलते एक सामाजिक प्राणी बन जाता है । अर्थात् व्यक्ति समाज की परम्पराओं , रूढ़ियों , विश्वासों , रीति – रिवाजों के अनसार व्यवहार करना सीख जाता है । इस प्रकार जिस प्रक्रिया के द्वारा जैविकीय प्राणी ( biological being ) सामाजिक प्राणी ( social being ) में बदल जाता है , उसे समाजीकरण कहते है । इस प्रक्रिया के द्वारा मनुष्य समाज के मानदण्डों को सीखता है और उनके अनुरूप अपना व्यवहार प्रदर्शित करते हुए समाज का सक्रिय सदस्य बन जाता है । समाजीकरण की प्रक्रिया प्रत्येक समाज में होती है , चाहे वह अमेरिका का सभ्य समाज हो या कोई असभ्य वन्य जाति । इसके द्वारा ही व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास होता है । विभिन्न समाजशास्त्रियों ने भिन्न – भिन्न प्रकार से समाजीकरण की प्रक्रिया को स्पष्ट किया है
जॉनसन के अनुसार , – ‘ ‘ समाजीकरण एक सीखने की प्रक्रिया है , जिससे व्यक्ति सामाजिक भूमिकाओं को सम्पादित करता है । ‘ ‘ इस परिभाषा में जॉनसन ने दर्शाया है कि व्यक्ति समाज के मूल्यों , आदर्शों , रीति – रिवाजों को सीखकर अपनी भूमिकाओं को अदा करता है और सामाजिक कार्यों में सहयोग देता है ।
फिक्टर के अनुसार , ” समाजीकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति सामाजिक व्यवहार के प्रतिमानी टो – वीकार करता है और उनसे अनुकूलन करना सीखता है । ” जॉनसन की तरह फिक्टर ने भी समाजीकरण को सोखने की प्रक्रिया बताया है ।
कुप्पूस्वामी के अनुसार , ‘ समाजीकरण एक अन्त : क्रियात्मक प्रक्रिया है , जिसके द्वारा बच्चे का व्यवहार रूपानारित होकर उस समूह के सदस्यों की अपेक्षाओं के अनुरूप बनता है जिससे वह सम्बद्ध होता है ।
बोगार्डस के अनुसार , ” समाजीकरण मिलकर काम करने , सामूहिक उतरदायित्व की भावना को विकसित करने और दूसरों की कल्याण – सम्बन्धी आवश्यकता द्वारा निर्देशित होने की प्रक्रिया है । ‘ ‘ – बोगार्डस ने अपनी , परिभाषा में समाजीकरण की प्रक्रिया में अन्तःक्रियात्मक प्रभाव पर जोर दिया है । किन्तु इसमें उसने केवल सकारात्मक पहल पर ही बल दिया है । अर्थात् उसने समाजीकरण के अन्तर्गत सिर्फ सद्गुणों को ही प्रकाशित किया । यह बोगार्डस की परिभाषा की सबसे बड़ी कमजोरी है । वस्तुत : समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा व्यक्ति सिर्फ सदगुणों और अच्छी बातों को ही नहीं सीखता , बल्कि कछ इनसे विपरीत चीजों अथवा अवगुणों को भी सीखता है ।
किम्बाल यंग के अनुसार , ” समाजीकरण वह प्रक्रिया है , जिसके द्वारा व्यक्ति सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में प्रवेश करता है और समाज के विभिन्न समूहों का सदस्य बनता है तथा जिसके द्वारा उसे समाज के मल्यों और आदर्शों को स्वीकार करने की प्रेरणा मिलती है ।
उपर्युक्त परिभाषाओं के विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि समाजीकरण एक प्रक्रिया है , जिससे व्यक्ति सामाजिक सम्पराओं और रूढ़ियों के अनुसार व्यवहार करना सीखता है । सामाजिक जीवन की विभिन्न दशाओं के अनुरूप एक व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास समाजीकरण के द्वारा ही होता है । समाजीकरण से व्यक्ति में आत्म – चेतना . आत्म – निर्णय , हम की भावना . सामाजिक आत्मनियन्त्रण और सामाजिक उत्तरदायित्व के गण आते हैं
समाजीकरण की विशेषताएँ ( Characteristics of Socialization )
समाजीकरण के सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों द्वारा दी गयी परिभाषाओं के आधार पर विशेषताएँ स्पष्ट हो रही है । इनमें से कुछ प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
( i ) समाजीकरण सीखने की एक प्रक्रिया है ।
( ii ) इसके द्वारा सामाजिक रीति – रिवाजों , परम्पराओं एवं आदर्शों को सीखा जाता है ।
( iii ) इस प्रक्रिया के द्वारा व्यक्ति एक जैवकीय प्राणी से सामाजिक प्राणी में बदल जाता है ।
( iv ) समाजीकरण एक आजन्म प्रक्रिया है अर्थात् यह जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त तक चलती रहती है ।
( v ) समाजीकरण से व्यक्ति में आत्म – चेतना , आत्म – निर्णय तथा हम की भावना का विकास होता हैं ।
( vi ) इससे व्यक्ति में आत्मनियन्त्रण तथा सामाजिक उत्तरदायित्व के गुण आते हैं ।
( vii ) समाजीकरण की प्रक्रिया विभिन्न स्तरों से गुजरती है । (
VIII ) समाजीकरण की प्रक्रिया विभिन्न साधनों के द्वारा परी होती है ।
( ix ) समाजीकरण की प्रक्रिया सभी समाजों में होती है ।
समाजीकरण के उद्देश्य ( Aims of Socialization )
बम एवं सेजनिक न समाजीकरण के चार प्रमुख उद्देश्यों का उल्लेख किया है
1 . बुनियादी अनुशासन ( Basic Discipline ) – समाजीकरण मानव जीवन को नियमबद्ध बनाये रखन के लिए आवश्यक है । समाजीकरण की प्रक्रिया के द्वारा व्यक्ति समाज के रीति – रिवाजों , आदर्शों एवं मूल्या का सीखता है । इस प्रकार वह समाज का एक सक्रिय सदस्य बन जाता है । समाजीकरण के फलस्वरूप वह समाज में अन्य लोगों के साथ सामंजस्य स्थापित करता है ।
2.आकांक्षाओं का निर्माण ( To instal aspirations ) – समाजीकरण की प्रक्रिया का उद्देश्य व्यक्ति में आकांक्षाओं का निर्माण करके उनकी पूर्ति में सहायता देना है । कहने का तात्पर्य यह है कि समाजीकरण स हा व्यक्ति के अन्दर इच्छाओं का जन्म होता है । इन्हीं इच्छाओं से आकांक्षाओं का निर्माण होता है और फिर इनकी पूर्ति भी समाजीकरण की प्रक्रिया से ही होती है ।
3 . सामाजिक दायित्वों की पूर्ति का शिक्षण ( To teach theresponsibilityofsocialroles ) समाज में प्रत्येक व्यक्ति की एक स्थिति ( status ) होती है और उस स्थिति से जुड़ी हुई भूमिकाएँ ( roles ) भी होती है । इन भूमिकाओं को अदा करना आवश्यक होता है । समाजीकरण की प्रक्रिया व्यक्ति को सामाजिक दायित्वों का बोध कराती है । इसके द्वारा ही व्यक्ति सामाजिक रीति – रिवाजों को सीखता है , जिसके फलस्वरूप वह अपनी भूमिकाओं को निभाने में सफल हो पाता है ।
4 . सामाजिक क्षमताओं का विकास ( Development of social skills ) – समाजीकरण का प्रक्रिया व्यक्ति के अन्दर उन क्षमताओं को विकसित करती है जो उसे सामाजिक जीवन के सभी क्षेत्रों में सफलतापूर्वक सामंजस्य स्थापित करने में सहायक हो । समाजीकरण के द्वारा व्यवित में वैसे गण आते हैं , जो समाज के साथ । अनुकूलन में सहायक होते हैं ।
समाजीकरण की प्रक्रिया के स्तर ( Stages of the Process of Socialization )
जॉनसन ( Johnson ) ने समाजीकरण की प्रक्रिया को चार स्तरों में बाँटा है
( i ) मौखिक अवस्था ( Oral Stage )
( ii ) शैशव अवस्था ( Anal Stage ) ( iii )
तादात्मीकरण अवस्था ( Identification Stage )
( iv ) किशोरावस्था ( Adolescence )
1 . मौखिक अवस्था ( Oral Stage ) – यह समाजीकरण की प्रक्रिया का प्रथम चरण है । इस अवस्था में गर्भ में भ्रूण आरामपूर्वक रहता है । यह अवस्था एक से डेढ़ वर्ष की होती है । इस अवस्था में सभी आवयकताएँ सामान्य तौर पर शारीरिक एवं मौखिक होती हैं । इस अवस्था में बच्चा परिवार में अपनी माँ के अलावा किसी को नहीं जानता । वास्तव में वह माँ से अपने को पृथक् अनुभव नहीं करता । पारसन्स ( Parsons ) के अनुसार परिवार के अन्य लोगों के लिए बच्चा एक सम्पदा होता है । इसे मौखिक अवस्था इसलिए कहा जाता है , क्योंकि वह अपनी देखभाल के लिए संकेत देना सीख जाता है । शिशु अपने चेहरे के माध्यम से हाव – भाव प्रकट करने लगता है । इस अवस्था में बच्चों को शारीरिक आनन्द की अनुभूति होती है । इस स्थिति को फ्रायड ने प्राथमिक परिचय ( Primary Identification ) कहा है । इस अवस्था में बच्चों को भूख लगना , ठण्ड अथवा गर्मी महसूस करना तथा प्रत्येक कार्य में असुविधा का अनुभव होता है । इन असुविधाओं से बच्चे को कष्ट होता है और वह रोता तथा चिल्लाता है । समाजकमकोमा काइतीमचलत् ।
2 . शैशव अवस्था ( Anal Stage ) – शैशव की अवस्था डेढ़ वर्ष से शुरू होती है और तीसरे या चौथे वर्ष में समाप्त हो जाती है । इस अवस्था में बच्चे को शौच – सम्बन्धी प्रशिक्षण दिया जाता है । बच्चे को साबुन से हाथ धोना तथा कपड़ा साफ रखने की सीख दी जाती है । इस अवस्था में बच्चा प्रत्येक तरह की प्रतिक्रिया करने लगता है । वह माँ से प्यार की इच्छा ही नहीं , बल्कि स्वयं भी माँ को स्नेह देने लगता है । इस स्तर में बच्चे के कार्यों को सही अथवा गलत ठहराया जाता है ताकि वह सही और गलत में अन्तर समझ सके । सही कार्यों के लिए उसे शाबाशी दी जाती है , तो दूसरी ओर गलत कार्यों के लिए डाँट – फटकार दी जाती है । इस प्रकार वह अपने परिवार एवं संस्कृति के अनुरूप व्यवहार करना आरम्भ कर देता है । इस अवस्था में बच्चा माँ के अतिरिक्त परिवार के अन्य सदस्यों के सम्पर्क में आता है तथा उनसे प्रभावित होता है । अब वह थोड़ा – बहुत बोलने तथा चलने लगता है । ऐसे में बच्चों में अनुकरण की प्रकृति का उद्विकास हो जाता है । परिवार के सदस्यों द्वारा क्रोध , विरोध , प्रेम एवं सहयोग प्रदर्शित करने पर बच्चे भी तनाव एवं प्रेम का भाव प्रदर्शित करने लगते है । इस प्रकार बच्चा दोहरी भूमिकाएँ निभाना शुरू कर देता है ।
3 . तादात्मीकरण अवस्था ( Identification Stage ) सीमान्य तौर पर यह अवस्था तीन – चार वर्ष से लेकर बारह – तेरह वर्ष की उम्र तक रहती है । जॉनसन ने बताया कि इस अवस्था में बच्चा पूरे परिवार से सम्बद्ध हो जाता है तथा सभी सदस्यों को पहचानने लगता है । इस अवस्था की प्रमुख विशेषता यह है कि बच्चा यौनिक व्यवहारों से परिचित नहीं होता , किन्तु उसके शरीर में अनेक यौनिक परिवर्तन होने लगते हैं । इस समय बच्चा अपने लिंग को पहचानने लगता है ( अर्थात वह लड़का है या लड़की ) और विपरीत लिंग में उसकी रुचि बढ़ने लगती है । इस स्तर में बच्चे से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपने लिंग के अनुरूप व्यवहार करे । यदि वह अपने लिंग के अनुरूप व्यवहार करता है , तो उसे प्रोत्साहित किया जाता है । इस प्रकार वह धीरे – धीरे लिंग विभेदीकरण सीख जाता हैं । इस अवस्था में बालको में यौन – विकास इस सीमा तक हो जाता है कि वे अपने माता – पिता से ईर्ष्या करने लगते हैं । आरम्भ में बच्चा अपने लिंग एवं परिस्थिति से पूर्ण तादात्म्य स्थापित नहीं कर पाता . क्योंकि उसमें ईष्या एवं उद्वेग अधिक होते हैं । किन्तु वह धीरे – धीरे इनपर नियन्त्रण रखना सीख जाता है । इस अवस्था में बच्चों में जटिल भावनाओं का विकास होता है । लड़के माँ की ओर तथा लड़कियाँ पिता के प्रति अचेतन रूप से आकर्षित होने लगती हैं । लड़कों के माँ के प्रति आकर्षण को ऑडिपस कॉम्प्लेक्स ( Oedipus complex ) तथा लड़कियों के पिता के प्रति आकर्षण को इलेक्ट्रा कॉम्प्लेक्स ( Electra complex ) के नाम से सम्बोधित किया जाता है । तादात्मीकरण की अवस्था गम्नावस्था ( Latency stage ) के नाम से भी जानी जाती है ।
4 . किशोरावस्था ( Adolescences इस स्तर में प्राय : यौवनावस्था ( Puberty ) आरम्भ होती है । इस अवस्था में बच्चे अपने माता – पिता से अधिक स्वतन्त्रता की आकांक्षा करते है । यह अवस्था 13 वर्ष से लेकर 18 वर्ष तक ही होती है । यह स्तर बहुत ही महत्त्वपूर्ण होता है , क्योंकि इस अवस्था में बालक – बालिकाएँ गम्भीर तनावों का अनुभव करते हैं । इस तनाव का कारण बालक – बालिकाओं में शारीरिक परिवर्तन होता है । – इस समय बच्चों से यह आशा की जाती है कि वे अपने जीवन से सम्बन्धित आवश्यक निर्णय स्वयं लें । उदाहरणस्वरूप , जीवन – साथी का चुनाव , व्यवसाय का चुनाव इत्यादि । इन निर्णयों को लेते समय बच्चे प्रायः दुविधा में पड़ जाते हैं , किन्तु इन निर्णयों के सम्बन्ध में उनसे आशा की जाती है कि वे अपनी पारिवारिक परम्पराओं और सांस्कृतिक मूल्यों को ध्यान में रखकर निर्णय लें । परन्तु प्राय : ये किशोरों की भावनाओं के प्रतिकूल होते हैं और मानसिक तनाव के कारण बनते है । इस स्तर पर समाजीकरण की प्रक्रिया समाज के निषेधात्मक नियमों ( incest taboos ) से प्रभावित होती है जो संस्कृति में विशेष महत्त्व रखते हैं । इसी अवस्था में बच्चों को अपने परिवार के अतिरिक्त पड़ोसियों , खेल के साथियों , मित्रों , अध्यापकों एवं नवागन्तुकों के साथ समायोजन करना पड़ता है । ऐसी स्थिति में वे नई परिस्थितियों का सामना करके नये अनुभव प्राप्त करते हैं । इस स्तर में बच्चे परिस्थितियों का सामान्यीकरण करना भी सीखते है । इस अवस्था में उनमें पराहम् ( Super ego ) की भावना का विकास होता है , जिससे उनमे आत्म – नियन्त्रण उत्पन्न होता है । समाजीकरण की प्रक्रिया इन्हीं चार अवस्थाओं में समाप्त नहीं होती । किन्तु ये व्यक्तित्व के निर्माण के दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय हैं । इसके बाद की प्रक्रियाएँ सरल हो जाती है , क्योंकि व्यक्ति में भाषा तथा उन क्षमताओं का विकास हो जाता है , जिससे वह किसी परिस्थिति को आसानी से समझ कर आत्मसात कर लेता है ।
किशोरावस्था के बाद भी समाजीकरण की प्रक्रिया तीन प्रमुख स्तरों से होकर गुजरती है
( i ) युवावस्था
( ii ) प्रौढ़ावस्था
( iii ) वृद्धावस्था
( i ) युवावस्था – इस अवस्था में व्यवित अनेक पदों को प्राप्त करता है , जैसे पिता , पति इत्यादि । इन सभी पदों के अनुरूप व्यक्ति कार्य करता है तथा परिवार एवं समाज के महत्त्वपूर्ण दायित्वों को निभाता है । विभिन्न प्रकार के पदों से सम्बन्धित भूमिकाओं को निभाने में उसे भूमिका संघर्ष ( role clash ) की स्थिति का सामना करना पड़ता है
। ) प्रौढावस्था – इस अवस्था में व्यक्ति पर सामाजिक दायित्वों का बोझ बढ़ जाता है । उसे अपने परिवार एवं बच्चों की शिक्षा – दीक्षा , विवाह एवं व्यवसाय आदि का भार भी उठाना पड़ता है । दफ्तर के वरिष्ठ अधिकारी या सेवक के रूप में नये दायित्व सम्भालने होते है । इस प्रकार वह भिन्न – भिन्न परिस्थितियों में नये – नये अनभव प्राप्त करता है ।
वद्धावस्था — इस अवस्था में व्यक्ति पर शारीरिक , मानसिक तथा सामाजिक परिवर्तन स्पष्ट होने लगते है । अब वे दादा , नाना इत्यादि के रूप में अनेक महत्त्वपूर्ण भूमिकाओं को निभाते हैं । नौकरी करने वाला
व्यक्ति इस अवस्था में सेवा से निवृत्त हो जाता है । सामान्य तौर पर अब उसे दूसरों पर आश्रित होना पड़ता है । इस समय उसे अनेक नयी परिस्थितियों से अनुकूलन करना पड़ता है । स्पष्ट होता है कि समाजीकरण की प्रक्रिया किसी – न – किसी रूप में जीवन भर चलती रहती है । किशोरावस्था के बाद यह प्रक्रिया अपेक्षाकृत सरल हो जाती है । जॉनसन ने इसके तीन कारणों की चर्चा की है , पहला , वयस्क साधारणतया उस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कार्य करने के लिए प्रेरित होता है , जो स्वयं वह देख चुका हो । दूसरा , वह जिस नई भूमिका को अन्तरीकृत करना चाहता है , उसमें तथा उसके द्वारा पहले की गई भूमिकाओं में काफी समानता होती है । तीसरा , वह भाषा के माध्यम से नई प्रत्याशाओं को सरलता से समझ लेता है । इस प्रकार समाजीकरण की प्रक्रिया किशोरावस्था के बाद स्वत : चलती रहती है ।
समाजीकरण के साधन
( Agencies of Socialization )
परिवार ( Family ) – समाजीकरण के साधनों में परिवार का महत्त्वपूर्ण स्थान है । मनुष्य जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त परिवार में ही रहता है । अत : व्यक्तित्व के निर्माण में वह बहुत ही महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है । मानव जब जन्म लेता है , तब वह हाड़ – माँस का जीवित पुतला मात्र होता है । धीरे – धीरे वह परिवार के सदस्यों के सम्पर्क में आता है और जैविक प्राणी से सामाजिक प्राणी में परिवर्तित हो जाता है । परिवार में माता – पिता का सम्बन्ध , माता – पिता तथा बच्चों का सम्बन्ध एवं बच्चों का आपसी सम्बन्ध भी समाजीकरण की प्रक्रिया को प्रभावित करते है । इनके प्रभावों को हम निम्न प्रकार से समझ सकते हैं
( क ) माता – पिता का सम्बन्ध – सभी समाजों के परिवारों में माता – पिता की भूमिका बहुत ही महत्त्वपूर्ण होती है । पिता बच्चों को साधक नेतृत्व ( Instrumenal leadership ) और माता बच्चों को भावात्मक नेतृत्व ( Expressive leadership ) प्रदान करती है । पिता साधक नेता के रूप में खेत एवं व्यवसाय का मालिक होता है और आखेट में वह अगुआ भी होता है , जबकि माता परिवार में मध्यस्थता के रूप में कार्य करती है । समझौता कराने तथा झगड़ा एवं वैमनस्य को दूर करने का काम माँ ही करती है । इसके साथ – साथ वह बच्चों के प्रति स्नेहमय , घनिष्ठ , हितैषी और भावपूर्ण होती है । पुत्र पिता के समान तथा पुत्री माता के समान बनना चाहती है । इस प्रकार कहा जा सकता है कि माता – पिता का प्रभाव बच्चों पर अत्यधिक पड़ता है । अगर इनके सम्बन्धों के बीच दरार या खाई उत्पन्न हो जाये , तो इसका प्रभाव बच्चों के व्यक्तित्व पर पड़ता है । जिस परिवार में माता – पिता के बीच झगडा एवं कलह रहते हैं , उस परिवार के बच्चों में संतुलन का अभाव पाया जाता है । यदि परिवार में पति – पत्नी प्रेम एवं सहयोग का सम्बन्ध बनाये रखते है , तो बच्चों पर इसका बहुत ही अच्छा प्रभाव पड़ता है और वह संतुलित जीवन जीने में सफल होता है । बच्चों की नैतिकता का विकास भी परिवार में ही होता है । जिन परिवारों में माता – पिता नैतिक विचारों पर बल देते हैं , उन परिवारों में बच्चों में उच्च नैतिकता का ही विकास होता है ।
( ख ) माता – पिता तथा बच्चों का सम्बन्ध – परिवार में सिर्फ माता – पिता का आपसी सम्बन्ध ही नहीं , बल्कि माता – पिता का बच्चों के साथ कैसा सम्बन्ध है , यह भी उनके व्यक्तित्व को प्रभावित करता है । जब माता – पिता बच्चों को पर्याप्त प्यार देते हैं , उनकी जरूरतों एवं आवश्यकताओं पर ध्यान देते हैं तब वे अपने आपको सुरक्षित अनुभव करते हैं । यदि माता – पिता बच्चे को पर्याप्त प्यार नहीं देते , उनकी आवश्यकताओं को पूरा नहीं करते , तो वे अपने आपको असुरक्षित अनुभव करते हैं । माता – पिता यदि बच्चों को तिरस्कार तथा उपेक्षा की दृष्टि से देखते हैं , तो बच्चों में हीनता की भावना का विकास होता है । कभी – कभी वे प्रतिशोधी प्रकृति के भी बन जाते हैं और उनके अन्दर समाज के प्रति बदला लेने की भावना जागृत हो जाती है । इसके विपरीत अत्यधिक लाड़ – प्यार बच्चों को लापरबाह एवं गैर – जिम्मेदार बना देता है । वे दूसरों से अपेक्षा करते हैं , किन्तु अपने स्वार्थी एवं आत्मकेन्द्रित हो जाते हैं । कभी – कभी ऐसा भी देखा जाता है कि माता – पिता अपने सभी बच्चों को समान दृष्टि से नहीं देखते , उनके साथ भेदभाव करते हैं । बच्चों के साथ इस तरह का व्यवहार उनके व्यक्तित्व को प्रभावित करता है । जिसे अधिक प्यार मिलता है , वह बदमाश तथा जिसका पक्ष नहीं लिया जाता , वह निराश्रित एवं संकोची बन जाता है । इसके साथ ही बच्चों के बीच में ईर्ष्या एवं प्रतिद्वन्द्विता की भावना का विकास होता है । किम्बाल यंग ने इसके सन्दर्भ में कहा है , ” बच्चे का मौलिक समाजीकरण परिवार में ही होता है । समस्त आधारभूत विचार हृष्ट – पुष्ट , कौशल तथा मानदण्ड परिवार में ही प्राप्त किये जाते हैं ।
( ग ) बच्चों का आपसी सम्बन्ध – बच्चों का आपसी सम्बन्ध भी महत्त्वपूर्ण होता है । बच्चों के आपसी सम्बन्ध का तात्पर्य भाई – भाई तथा बहन – बहन के बीच का सम्बन्ध होता है । इसके अतिरिक्त बच्चों के जन्म – क्रम ( Birth order ) का प्रभाव भी उसके व्यक्तित्व को प्रभावित करता है । प्रायः यह देखा जाता है कि परिवार का प्रथम बच्चा अकेले ही सब सुविधाओं को भोगना चाहता है । इसका एकमात्र कारण यह होता है कि काफी दिनों तक उसे अकेला ही सबों का प्यार मिलता रहता है । सभी तरह की सुख – सुविधाओं को भोगता है , जिसके परिणामस्वरूप वह स्वार्थी भी बन जाता है । इसके विपरीत परिवार का सबसे छोटा बच्चा सबका प्यारा होता है । चूँकि उसका प्यार बाँटने वाला अन्य दूसरा बच्चा नहीं होता , इसलिए वैसे बच्चों का बचपना धीरे – धीरे जाता है । बीच के बच्चे ( मॅझले बच्चे ) प्रतियोगी वृत्ति ( Competitive tendency ) के हो जाते हैं । इसका मुख्य कारण यह है कि ये बच्चे कभी तो अपने से बड़े बच्चे तथा कभी छोटे बच्चे के साथ तुलना करते हैं । हर वक्त उन्हें अनुभव होता है कि जितना प्यार उन्हें मिल रहा है वह पर्याप्त नहीं है , वह बड़े तथा छोटे में बँट जाता है । परिवार में यदि कोई बच्चा अपराधी व्यवहार में संलग्न हो जाता है , तो अन्य बच्चों पर भी उसका बुरा प्रभाव पड़ता है । इसके विपरीत कोई बच्चा आगे निकल जाता है , तो अन्य बच्चे भी आगे बढ़ने का प्रयास करते है । परिवार की सामाजिक स्थिति का भी बच्चों के विकास पर प्रभाव पड़ता है । उपर्युक्त विवेचनों से यह स्पष्ट होता है कि परिवार समाजीकरण का आधार है । डेविस ने भी समाजीकरण में परिवार की भूमिका को स्पष्ट करते हुए बताया कि ” समाजीकरण के प्रारम्भिक चरण घर में ही प्रारम्भ होते हैं । ‘ ‘ सैमुअल के अनुसार , ” मुख्य रूप से यह घर ही है जहाँ दिल खुलता है , आदतों का निर्माण होता है , बुद्धि जागृत होती है तथा अच्छा – बुरा चरित्र ढलता है । ” परिवार में बच्चे को वैसी भी शिक्षा मिलती है , जो उनके आदर्श नागरिक बनने में सहायक होती है तथा समाज की विभिन्न परिस्थितियों में भी सहायक होती है और सामंजस्य करना सिखाती है ।
क्रीड़ा – समूह ( Play orPeerGroup ) – परिवार के बाद क्रीड़ा – समूह का स्थान आता है , जो समाजीकरण की प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण भूमिका निर्वाह करता है । क्रीड़ा – समूह को खेल या मित्रों का समूह भी कहते है । परिवार से निकलकर बालक अपनी आयु के अन्य बच्चों के साथ खेलता है । इस खेल – समूह में बच्चा खेल के नियमों का पालन करना सीखता है , जो आगे चलकर नियन्त्रण में रहना तथा अनुशासन का पालन करना सिखाता है । इसके फलस्वरूप वह जीवन के विभिन्न क्षेत्रों तथा परिस्थितियों में संयमित एवं अनुशासित रहता है । यह गुण उसे दूसरों का पथ – प्रदर्शक बनाता है । परिवार में बच्चों को सुरक्षा तथा प्यार मिलता है , किन्तु खेल – समूह में वह विषम परिस्थितियों से अनुकूलन की क्षमता विकसित करता है । इन समूहों में बच्चों की आदतें , रुचियाँ , मनोवृत्तियाँ तथा विचार अलग – अलग होते हैं , क्योंकि ये विभिन्न परिवार से आते है । खेल के माध्यम से बच्चे सब के साथ अनुकूलन स्थापित करते हैं । खेल के दौरान यदि वह हार जाता है , तो वह संयम से काम लेता है । इसके परिणामस्वरूप इसके द्वारा वह जीवन में आनेवाली कठिनाइयों एवं असफलताओं के बाद भी संयम से रहना सीखता है । जब कोई बच्चा खेल के नियमों का उल्लंघन करता है , तो अन्य बच्चे उसका विरोध करते हैं । सभी मिलकर खेल के नियमों के पालन पर बल देते हैं । यही व्यवहार बच्चों के व्यवहारों को नियन्त्रित तथा निर्देशित करता है । अपने खेल के साथियों के साथ खेलते हुए बच्चे में नेतृत्व , उत्तरदायित्व ग्रहण करने की क्षमता , कर्त्तव्यपालन ; अपनी गलती को स्वीकार करने की आदत आदि गुणों का विकास होता है । ये ही सब गुण बच्चे के व्यक्तित्व को आधार प्रदान करते हैं । रिजमन का कहना है कि खेल – समूह वर्तमान समय में समाजीकरण करने वाला एक महत्त्वपूर्ण समूह है , क्योंकि आजकल व्यक्ति मार्ग – निर्देशन एवं दिशा – निर्देशन के लिए हमउम्र लोगों पर ही अधिक निर्भर करता है । यही कारण है कि अपने निर्णयों के लिए ज्यादातर मित्रों की सलाह को अधिक महत्त्व देते हैं । जिन बच्चों को मित्र – समूह नहीं मिलता , वे खेल नहीं पाते , उनका स्वतन्त्र विकास नहीं हो पाता ।
पडोस ( Neighbourhood ) – परिवार और क्रीड़ा – समूह के बाद तीसरा स्थान पडोस का आता है । पड़ोसियों के सम्पर्क में आने से बच्चे बहुत कुछ सीखते हैं । उनके विचारों , आदर्शो , मान्यताओं , क्रियाओं एवं सझावों का बच्चों के व्यक्तित्व पर गहरा प्रभाव पड़ता है । पड़ोसी बच्चों से विशेष स्नेह रखते हैं . तो समय – समय 10 पर उनके व्यवहारों की प्रशंसा या आलोचना भी करते हैं । पड़ोसी के हास्य एवं व्यंग्य के माध्यम से बच्चे अपने F समाज की परम्पराओं एवं रीति – रिवाजों के अनुसार व्यवहार करना सीखते है । यही कारण है कि लोग पास – पड़ोस में अच्छे लोगों का होना आवश्यक समझते हैं । बच्चे पास – पड़ोस के लोगों के व्यवहारों का अनुकरण करते है । पड़ोस एक प्रकार से विस्तृत परिवार का रूप धारण कर लेता है ।
नातेदारी समूह ( Kinship Group ) – नातेदारी समूह के अन्तर्गत वे सभी सम्बन्धी आते हैं , जो रक्त ( एवं विवाह के बंधनों द्वारा एक – दूसरे से सम्बद्ध होते हैं । उदाहरणस्वरूप माता – पिता , भाई – बहन , पति – पत्नी , सास – श्वसुर ,देवर – ननद , चाचा – चाची , मामा – मामी इत्यादि । इन सगे – सम्बन्धियों के विचारों , व्यवहारों एवं सुझावा का बच्चों के व्यक्तित्व पर पड़ता है । इनके सम्पर्क में आने पर बच्चे कुछ – न – कुछ सीखते ही रहत ह प्रति भिन्न – भिन्न भूमिकाएं निभाने के दौरान वे सीखते हैं कि किसके साथ घनिष्ठ सम्बन्ध , किसके साथ हसा – मजाक तथा परिहास या दूरी वरती जाती है । वह इन सम्बन्धों से सीखता है कि किस दर्जे के लोगों को आदर – प्यार तथा स्नेह देना है । विवाहोपरान्त सहयोगात्मक जीवन जीना सीखता है । इस प्रकार उसके सम्पूर्ण व्यक्तित्व का विकास होता है । ये सभी समाजीकरण के प्राथमिक साधन हैं । इनके अलावा द्वितीयक साधनों का भी महत्त्वपूर्ण स्थान होता है । कुछ महत्त्वपूर्ण संस्थाएँ जो द्वितीयक साधन के रूप में योगदान देते हैं , निम्नलिखित है
शिक्षण संस्थाएँ ( Educational Institutions ) – शिक्षण संस्थाओं के अन्तर्गत स्कूल , कालेज एवं विश्वविद्यालय आदि आते हैं । शिक्षा का प्रमख माध्यम पस्तक है . जो बच्चों में नवीन ज्ञान तथा बुद्धि का विकास करती है । इस काल में बच्चों की आदतों का निर्माण होता है . जो जीवन के लिए आवश्यक होती है । शिक्षण संस्थाओं के अपने नियम तथा तौर – तरीके होते हैं , जिनका पालन विद्यार्थियों को करना पड़ता है । विद्याथी उनक मानदण्डों के अनुरूप अपने को ढालने का प्रयास करते हैं । वहाँ के पठन – पाठन से बच्चों की मानसिक तथा बौद्धिक क्षमता का विकास होता है । पुस्तकों के द्वारा उन्हें विभिन्न कार्यों तथा विभिन्न संस्कृतियों एवं उनकी उपलब्धियों का ज्ञान होता है । शिक्षण संस्थाओं से व्यक्ति उचित – अनुचित . व्यावहारिक सैद्धान्तिक भेद का ज्ञान प्राप्त कर पाता है । शिक्षण संस्थाओं का महत्त्व आदिकाल से चला आ रहा है । पहले गुरु के घर पर जाकर लोग शिक्षा ग्रहण करते थे , अब लोग पाठशालाओं तथा महाविद्यालयों में जाकर ज्ञान अर्जित करते हैं । इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि शिक्षण संस्थाएँ हमेशा से समाजीकरण की प्रक्रिया में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती रही हैं ।
. सांस्कृतिक संस्थाएँ ( Cultural Institutions ) – समाजीकरण की प्रक्रिया में सांस्कृतिक संस्थाओं का भी बहत अधिक योगदान है । सांस्कृतिक संस्थाओं का काम व्यक्ति के समाजीकरण एवं उनके व्यक्तित्व के विकार में प्रमख भमिका निभाना तथा समाज की संस्कृति से उनका परिचय कराना है । संस्कृति के अन्तर्गत ज्ञान विश्वान प्रथा , आचार कानन . आदर्श मुल्य आदि व्यक्ति के व्यक्तित्व को एक विशेष दिशा प्रदान करते है । वास्तव समाजीकरण की प्रक्रिया के अन्तर्गत मनुष्य जो गुण , विचार एवं व्यवहार सीखता है , वे सब संस्कृति के अन्तर्गत ही आते हैं । संस्कृति मनुष्य के व्यवहार को परिष्कत करती है । संस्कृति की सहायता से व्यक्ति एक जीव के रूप में जन्म लेकर , एक मानव अर्थात् सामाजिक प्राणी बनता है । राबर्ट बीयरस्टीड ने इस सन्दर्भ में कहा है , ” हम जन्म से मानव नहीं है , वरन् अपनी संस्कृति का अर्जन करके ही मानव बनते हैं । ‘ ‘ इस प्रकार व्यक्ति के समाजीकरण में संस्कृति एवं सांस्कृतिक संस्थाओं का बहुत अधिक महत्त्व है ।
, व्यवसाय समूह ( Occupational Group ) व्यक्ति जिस व्यवसाय में लगा होता है , उसके मूल्यों को भी ग्रहण करता है । वह अपने व्यवसाय के दौरान अनेक व्यक्तियों के सम्पर्क में आता है और उनके गुणों एवं विशेषताओं को जानता है और उन्हें ग्रहण भी करता है । इस प्रकार व्यवसाय से सम्बन्धित सभी व्यक्ति , चाहे वह अधिकारी हो या एजेन्ट , मैनेजर हो या ग्राहक , सभी से कुछ – न – कुछ सीखता है , जिससे उसका व्यवहार परिमार्जित होता है ।
जाति एवं वर्ग ( Caste & Class ) — व्यक्ति के समाजीकरण में जाति एवं वर्ग की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता । प्रत्येक जाति की अपनी प्रथाएँ , परम्पराएँ , मान्यताएँ , विचार , भावनाएँ तथा खान – पान , रहन – सहन आदि से सम्बन्धित व्यवहार प्रतिमान होते हैं । यही कारण है कि विभिन्न जातियों के लोगों के व्यक्तित्व में कुछ – न – कुछ फर्क दिखाई पड़ता है । विभिन्न जातियों के संस्कार भी अलग – अलग होते हैं , जिसके कारण उनका समाजीकरण अलगा ढंग से होता है । इसी प्रकार प्रत्येक वर्ग के रहन – सहन , आचार – व्यवहार , विचार तथा भावनाएँ भिन्न – भिन्न होते हैं , जो व्यक्ति के व्यक्तित्व को प्रभावित करते हैं । इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि जाति एवं वर्ग समाजीकरण की प्रक्रिया को अपने ढंग से दिशा प्रदान करते हैं ।
राजनीतिक संस्थाएँ ( Political Institutions ) – राजनीतिक संस्थाओं का भी समाजीकरण में महत्त्वपूर्ण योगदान होता है । राज्य मानव जीवन के सभी पहलुओं को प्रभावित करता है । राजनीतिक संस्थाएँ व्यक्ति को कानून , शासन तथा न्याय – व्यवस्था से परिचय कराती है । व्यक्ति को उसके अधिकार एवं कर्त्तव्य का बोध कराती हैं । आधुनिक जटिल समाजों में जहाँ व्यक्ति में पारस्परिक सम्बन्ध औपचारिक एवं अप्रत्यक्ष होते हैं , वहाँ व्यक्ति के व्यवहारों को निश्चित , नियमित एवं नियन्त्रित करने में राज्य की भूमिका बहुत ही महत्त्वपूर्ण होती है । आधुनिक युग में राज्य के द्वारा परिवार के कई महत्त्वपूर्ण कार्य पूरे हो रहे हैं । फलस्वरूप राज्य का महत्त्व दिनों – दिन बढ़ता जा रहा है । राज्य के साथ उसकी न्यायपालिका भी होती है , जिसके द्वारा जो व्यक्ति राज्य के नियम – कानूनों का उल्लंघन करता है , उसे दण्ड दिया जाता है । इसके कारण लोग अनुशासित ढंग से रहने का प्रयास करते हैं ।
आर्थिक संस्थाएँ ( Economic Institutions ) – समाजीकरण में आर्थिक संस्थाओं की भूमिका को भी नकारा नहीं जा सकता । आर्थिक संस्थाएँ व्यक्ति को जीवनयापन के लिए योग्य बनाती हैं । आर्थिक संस्थाओं का सम्बन्ध उत्पादन की प्रणाली , उत्पादक शक्तियों , उत्पादन के स्वरूप , उपभोग की प्रकृति , वितरण व्यवस्था , जीवन – स्तर , व्यापार – चक्र , आर्थिक नीतियों , औद्योगीकरण , श्रम – विभाजन , आर्थिक प्रतिस्पर्धा आदि से होता है । इन सब का प्रभाव व्यक्ति के पारस्परिक सम्बन्धों , विचारों . मान्यताओं आदि पर पड़ता है । उदाहरण के लिए , कषि अर्थव्यवस्था में आर्थिक प्रतिस्पर्धा नहीं पायी जाती , जबकि औद्योगिक व्यवस्था में कटु आर्थिक प्रतिस्पर्धा पायी जाती है । समाज की आर्थिक दशाओं का प्रभाव विवाह एवं परिवार के प्रकार , आकार एवं कार्य पर पड़ता है । इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि आर्थिक संस्थाएँ व्यक्ति की समाजीकरण की प्रक्रिया को प्रभावित करती है ।
धार्मिक संस्थाएँ ( Religious Institutions ) – धार्मिक संस्थाओं का व्यक्ति के जीवन पर बहत ही गहरा प्रभाव पड़ता है । धर्म के अन्तर्गत पाप – पुण्य , कर्म – पुनर्जन्म तथा नरक – स्वर्ग की धारणा आती हैं । धार्मिक संस्थाएँ व्यक्ति को उचित , पुण्य एवं धार्मिक कार्यों को करने तथा अनुचित , पाप , अधार्मिक एवं समाज – विरोधी कार्यों को नहीं करने की प्रेरणा देती हैं । धार्मिक संस्थाएँ व्यक्ति में पवित्रता , शान्ति , न्याय , सच्चरित्रता और म । जैसे गणों का विकास करती हैं । धर्म व्यक्ति को अलौकिक शक्ति का भय दिखाकर सामाजिक नियमों का पालन करवाता है । डेविस का कहना है कि धर्म समाज तथा व्यक्तित्व के समन्वय में सहायता करता है । धर्म समाजीकरण के साधन के रूप में व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है ।