Site icon NOTES POINTS

भूमिका

 

 

भूमिका

( Role )

 

भूमिका प्रस्थिति का गतिशील या व्यवहारिक पहलू है । प्रस्थितियाँ धारण की जाती हैं जबकि भूमिकाओं का निर्वाह किया जाता है । एक व्यक्ति जिस प्रकार एक प्रस्थिति से संबंधित दायित्वों का निर्वाह और उससे संबन्धित सुविधाओं एवं विशेषताओं का उपभोग करता है उसे ही भूमिका कहते हैं । उदाहरण के लिए राष्ट्रपति का पद एक प्रस्थिति है । इस प्रस्थिति से संबंधित कुछ दायित्व तथा कर्तव्य हैं , ये ही राष्ट्रपति की भूमिका है राष्ट्रपति की भूमिका निभाने वाले को कुछ सुविधाएँ एवं विशेषाधिकार भी प्राप्त हैं । कुछ महत्वपूर्ण परिभाषाएँ

 लिंटन – भूमिका शब्द का प्रयोग किसी विशेष प्रस्थिति से संबंधित इस प्रकार भूमिका के अन्तर्गत उन सभी अभिवृत्तियों सामाजिक मूल्यों और व्यवहारों को सम्मिलित करते हैं जो किसी विशेष प्रस्थिति से संबन्धित व्यक्ति या व्यक्तियों को समाज द्वारा प्रदान किए जाते हैं ।

 इलियट व मैरिल – ” भूमिका वह कार्य है जिसे व्यक्ति प्रत्येक प्रस्थिति के अनुरूप निभाता है । फेयरचाइल्ड – भूमिका किसी भी व्यक्ति का समूह में वह अपेक्षित कार्य या व्यवहार है जो समूह या संस्कृति के द्वारा परिभाषित किया गया है ।

 

ऑगबर्न एवं निमकाफ – ” भूमिका एक समूह में एक विशिष्ट पद से संबंधित सामाजिक प्रत्याशाओं एवं व्यवहार प्रतिमानों का एक योग है । जिसमें कर्तव्यों एवं सुविधाओं दोनों का समावेश होता है ।

लण्डबर्ग – ‘ सामाजिक भूमिका किसी समूह अथवा प्रस्थिति में व्यक्ति से प्रत्याशित व्यवहार का प्रतिमान है ।

 

 गिन्सबर्ग – प्रस्थिति एक पद होता है , जबकि भूमिका उस को पूरित करने का प्रत्याशित ढंग है ।

 किम्बाल यंग – ‘ व्यक्ति जो कार्य करता अथवा करवाता है , उसे हम भूमिका कहते हैं ।

 

इस प्रकार स्पष्ट है कि एक प्रस्थिति धारण करने के कारण समाज जिस प्रकार के कार्यों की व्यक्ति से अपेक्षा करता है , वही भूमिका कहलाती है । लिंटन भूमिका को प्रस्थिति का व्यवहारात्मक एवं गत्यात्मक पहलू मानते हैं ।

MUST READ THIS

MUST READ THIS

 ध्यान रखें

 

 समाज में कोई भी प्रस्थिति अकेली या एक पक्षीय नहीं होती उसका महत्व किसी के सापेक्ष में ही होता है जब हम शिक्षक कहते हैं तो उसका तत्पर्य है कि कोई छात्र भी है । अकेले शिक्षक की कोई भी प्रस्थिति नहीं होती , उसी प्रकार समाज में कोई भी भूमिका अकेली एवं एकपक्षीय नहीं होती है , प्रत्येक भूमिका का महत्व अन्य प्रस्थितियों एवं भूमिकाओं के संदर्भ में ही होता है । निम्न सूत्र द्वारा इसे स्पष्ट किया जा सकता है ।

 

प्रस्थिति = भूमिका + मनदण्ड ( मूल्य नियम + विश्वास )

 

भूमिका की विशेषताएं

( Characterististics of Role )

 

 भूमिका की कतिपय मुख्य विशेषताऐं निम्नलिखित है –

 1 भूमिकाएं प्रस्थिति में निहित हैं । प्रस्थिति को अलग रखकर भूमिका की कोई चर्चा नहीं हो सकती ।

2 भूमिका शून्य में नहीं होती । उसका एक सशक्त , सांस्कृतिक पहलू होता है । यह सांस्कृतिक पहलू की मानदण्ड है । अतः कोई भी भूमिका हो उसके साथ समाज के मानदंड जुड़े होते हैं ।

 3 मानदण्ड में दण्ड की व्यवस्था होती है । यह व्यवस्था औपचारिक और अनौपचारिक दोनों प्रकार की होती है । इसका मतलब हुआ कि यदि किसी प्रस्थिति में भूमिका का निर्वाह नहीं हुआ होता तो इसके साथ दण्ड व्यवस्था भी जुड़ी होती है । यदि चिकित्सक या अध्यापक अपनी भूमिका को उचित तरह से संपन्न नहीं करते हैं यानी संस्कृति के मानदण्डों की अवहेलना करते हैं तो दण्ड व्यवस्था के रूप में ऐसे चिकित्सकों की निन्दा की जाती है । और कभी – कभी औपचारिकता रूप में उन पर दावा भी किया जाता है । दावे का आधार यह होता है कि चिकित्सक ने लापरवाही बरती और इसलिए रोगी को खामयाजा भुगतना पड़ा स्पष्टतः भूमिका में मानदण्ड होते हैं ।

4 भमिका एकपक्षीय नहीं होती है यह हमेशा सापेक्षिक होती है ।

5 जब प्रस्थिति जड़ नहीं होती , गतिशील होती है तो इसी अर्थ में भूमिकाएं भी गतिशील होती है । अतः प्रस्थिति एवं भूमिका दोनों ही गतिशील होती हैं । भूमिका से संबंधित कुछ प्रमुख अवधारणाएँ emanthan

 

1 राल्फ लिंटन – भूमिकाओं को दो भागों में बाटते हैं ।

 ( क ) प्रदत्त अथवा आरोपित अथवा जन्मजात भूमिका ( Ascribed Role ) प्रदत्त प्रस्थिति से संबंधित भूमिका प्रदत्त भूमिका कहलाता है ।

 ( ख ) अर्जित भूमिका ( Achieved Role ) अर्जित प्रस्थिति से संबंधित भूमिका अर्जित भूमिका कहलाती है । 2 बैन्टन ने तीन भूमिकाओं का उल्लेख किया ।

 

  1. बुनियादी भूमिका ( Basic Role ) – आदिम समाज के अन्तगर्त एक भूमिका को दूसरी भूमिका से अलग करना काफी कठिन काम है । विभिन्न प्रकार की भूमिकाएं इस प्रकार से अंतर संबंधित और आश्रित होती है कि वैसे समाज में बुनियादी भूमिका की प्रधानता होती है । एक ही भूमिका को एक साथ कई लोग निभाते है । और उनके बीच कोई भूमिका द्वंद भी नहीं होता है । उपसमाज में भूमिका का बँटवारा सामान्यतया उम्र या यौन – भेद पर आधारित होता है ।

 

  1. स्वतंत्र भूमिका ( Independent Role ) – जैसे – जैसे समाज विकसित होता जाता है विभिन्न भूमिकाएं एक – दूसरे से अलग होती जाती है । आधुनिक समाज में भूमिकाओं का स्वरूप इस रूप में बदल जाता है कि विभिन्न भूमिकाओं के बीच अन्तः निर्भरता कम हो जाती है । चूंकि लोग स्वतंत्र जीवन ज्यादा पसंद करते हैं संक्षेप में यही कहा जाता है कि आदिम समाज में बुनियादी भूमिका की प्रधानता होती है । तो आधुनिक समाज में स्वतंत्र भूमिकाओं के विकास के साथ समाज बुनियादी भूमिका से स्वतन्त्र भूमिका की ओर बढ़ता है ।
  2. सामान्य भूमिका ( General Role ) – दोनों के बीच की स्थिति है ।

 

 एस० एफ० नेडल ने भूमिकाओं को दो भागों में विभाजित किया है ।

 

 ( क ) संबंधात्मक भूमिका ( Relational Role ) – संबंधात्मक भूमिका हमेशा पूरक भूमिका से जुडी होती है । जैसे किसी व्यक्ति का पति के रूप में भूमिका तभी संभव होती है जब उसकी कोई पत्नी हो ।

 

 ( ख ) गैर – संबंधात्मक भूमिका ( Non – relational Role ) – कुछ ऐसी भी भूमिकाएं होती हैं जिनमें परक भूमिकाओं की आवश्यकता नहीं होती है । जैसे एक फकीर , साधू , कवि या विद्वान की भूमिका किसी अन्य भूमिका के संबंध में नहीं निभायी जाती , वे स्वतंत्र भूमिकाएं हैं इन्हें ही गैर – संबंधात्मक भूमिका के नाम से जाना जाता है ।

 

प्रस्थिति तथा भूमिका से सम्बन्धित महत्वपूर्ण अवधारणाएं –

 

1 प्रस्थिति संकुल ( Status – Set ) अवधारणा – आर० के० मर्टन ( R . K . Merton ) किसी भी व्यक्ति की कभी मात्र एक ही प्रस्थिति नहीं हो सकती वह कई प्रस्थितियां अपने जन्म के साथ लेकर पैदा होता है । इसके अतिरिक्त वह अपने कर्मो या प्रयासों से और भी कई प्रस्थितियाँ प्राप्त करता है अगर व्यक्ति की प्रदत्त तथा अर्जित प्रस्थिति को एक साथ जोड़ दिया जाए तो उसे ‘ प्रस्थिति संकुल ‘ कहते हैं । जैसे श्रीX ‘ पत्र , भाई , पति , मित्र , डाक्टर व समाज सेवी है इन सभी प्रस्थितियों को जोड़ दिया जाए तो वह श्री ‘ x ‘ का प्रस्थिति – संकुल हो जाएगा ।

MUST READ ALSO

MUST READ ALSO

 2 बहुल – भूमिका ( Multiple – Role ) अवधारणा – आर० के० मर्टन ( R . K . Merton ) प्रस्थिति संकुल के गतिशील पक्ष को बहल भूमिका कहते हैं । एक व्यक्ति की कई प्रस्थितियाँ ( प्रस्थिति संकुल ) हैं । स्वाभाविक है कि उन प्रस्थितियों से संबन्धित कई भूमिकाएं ( बहूल भूमिकाऐं ) भी होगी । इस प्रकार किसी व्यक्ति द्वारा अनेक प्रस्थितियों से अपने बच्चों के प्रति अपनी भूमिकाओं का निर्वहन करते हैं डाक्टर की प्रस्थिति से जनता की सेवा करते हैं मित्र की प्रस्थिति से मित्रों की मदद करते हैं आदि इस प्रकार अगर श्री ‘ x ‘ की भूमिकाएं को जोड़ दे तो कहेंगे कि श्री ‘ x ‘ बहुल भूमिकाएं निभाते हैं , बहुल भूमिकाएं तथा भूमिका – संकुल में अन्तर होता है , उसे ठीक प्रकार से समझना आवश्यक है ।

 

 3 भूमिका – संकुल ( Role – Set ) आवधारणा – आर० के० मर्टन ( R . K . Merton ) यह बहल भमिकाओं से भिन्न होता है । भूमिका संकल से तात्पर्य एक ही प्रस्थिति से अनेक भमिकाओं का निर्वहन है । एक डॉक्टर नरों को सझाव देते है . मेडिकल रिप्रेजेटिव ( MR ) से दवाइयां की जानकारी लेते हैं । चिकित्सक ऐसोशिएशन की मिटिग में जाते हैं आदि यही भूमिका – संकुल हैं ।

 

 4 भूमिका संघर्ष ( Role Conflict ) अवधारणा – आर० के० मर्टन ( R . K . Merton ) जब किसी व्यक्ति की दो भूमिकाएं परस्पर विरोधाभासी अपेक्षाकर लगती हैं उसे भमिका – संघर्ष कहते है जैसे श्री ‘ x ‘ पिता भी है तथा डाक्टर भी अगर उनका पुत्र यह अपेक्षा करे की वह उसे रविवार का घमाने या मेला दिखाने ले चलें । मेले में जाते समय उनके अस्पताल से फोन आ जाता हैकि एक मरीज अचेत हो गया है , ऐसे में श्री x भूमिका – संघर्ष में फंस जाएंगे कि वह पिता की भूमिका का निर्वहन करें या डाक्टर वाली । संसार में चाहे कोई व्यक्ति कितना भी व्यवस्थित या स्थिर क्यों न हो वह भूमिका संघर्ष में अवश्य फसता है । क्योंकि किसी भी व्यक्ति की सभी प्रस्थितियों के साथ कई भूमिकाएं जुड़ी होती हैं उन भूमिकाओं के एक छोर पर कोई अन्य व्यक्ति जुड़ा होता है । अतः वह अपेक्षाएं करेगा ही । संभवतः वैसे ही व्यक्ति भूमिका द्वंद में नहीं फसेंगे जिनसे किसी की कोई अपेक्षाएं ही न जुड़ी हो । परन्तु व्यवहार में इसकी संभावना अति सीमित प्रतीत होती है ।

 5 भूमिका ग्रहण ( Role Taking ) अवधारणा – जी० एच० मीड ( G . H . Meed ) किसी व्यक्ति को जैसे ही एक प्रस्थिति प्राप्त होती है इसके साथ उसे भूमिका – अपेक्षाएं भी स्पष्ट होती हैं । व्यक्ति से यह अपेक्षा की जाती है कि वह उन भूमिकाओं को ग्रहण करें अगर व्यक्ति ऐसा ही करता है तो उसे भूमिका ग्रहण कहते हैं । जैसे अगर किसी व्यक्ति को विद्यार्थी की प्रस्थिति दी जाती है तो उससे अपेक्षाएं भी की जाती हैं कि वह लगनपूर्वक मेहनत से पढ़ेगा अगर विद्यार्थी पढ़ने की भूमिका को ग्रहण कर लेता है कि उसे खूब पढ़ना है । इसे भूमिका – ग्रहण कहा जाएगा ।

 

प्रदत्त और अर्जित प्रस्थिति में अन्तर

 

 

 कोई दो – तीन दशक पहले समाजशास्त्र में एक बहस चली थी । बहस थी पर्यावरण बनाम वंशानुक्रमण । दोनों ही पक्ष अपने – अपने तर्क प्रस्तुत करते थे वंशानुक्रमणवादियों का कहना था कि मनुष्य का शरीर उसका रंग और उसके शारीरिक लक्षण जन्म से प्राप्त होते हैं और इसलिये वंशानुक्रमण मनुष्य की क्षमता को पैदा करता है पर्यावरणवादियों का तर्क कुछ दूसरा था । उनका कहना था कि वंशानुक्रमण कितना ही प्रभावी क्यों न हो जब तक उसे अनुकूल पर्यावरण नहीं मिलता , व्यक्तित्व का विकास रूक जाता है इस बहस के निष्कर्ष में कहा गया कि पर्यावरण और वंशानुक्रमण परस्पर विरोधी नहीं हैं दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं । कुछ इस प्रकार की तुलना प्रदत्त और अर्जित प्रस्थितियों के बीच में की जाती है । वास्तव में देखा जाये कि इन दोनों में कौन सी प्रस्थिति महत्वपूर्ण है यह किसी भी विवेचन का मुददा नहीं बन सकता । यदि दोनों को समझना पड़ेगा । अतः प्रदत्त तथा अर्जित प्रस्थिति का अन्तर हम यहाँ केवल इसलिये दे रहे हैं । यहाँ हम इसी दृष्टि से इन दोनों प्रस्थितियों का अन्तर स्पष्ट करेंगे ।

 

प्रदत्त प्रस्थिति साप्रक्षिक रूप से स्थायी होती है – जैवकीय कारकों पर आधारित प्रदत्त प्रस्थिति लगभग स्थायी होती है । पुरूष और स्त्री का लिंग भेद चिरन्तर है । दुनिया की प्रजातीयों में जो जैवकीय और प्राकतिक अन्तर है आदि काल से हैं । हम किसी भी प्रदत्त प्रस्थिति को ले उसमें स्थायित्व होता है । कभी – कभी अन्तर आता है तो यह सैकड़ों – हजारों वर्षों में देखने को मिलता है । दसरी और अर्जित प्रस्थिति अपनी प्रकृति से ही अस्थायी होती है । आज का करोडपति कल दिवालिया हो सकता है । और इससे आगे व्यवसायों में जो गतिशीलता आई है उसने तो अर्जित प्रस्थिति में क्रान्तिकारी परिवर्तन ला दिया है अमरीका और यूरोप में तो प्रस्थितियों में अस्थायित्व रोज की बात है कल जो प्राध्यापक रीडर की प्रस्थिति में था आज प्रोफेसर बन जाता है और शायद आने वाले दिन उपकुलपति । अतः यहाँ प्रदत्त परिस्थिति बहुत अधिक सीमा तक स्थायी होती है , वहीं अर्जित प्रस्थिति गतिवान । यह अवश्य है कि अत्यधिक औद्योगिक समाजों में अर्जित प्रस्थिति में परिवर्तन बहुत जल्दी आता है जबकि ग्रामीण और आदिवासी समाजों में यह परिवर्तन थोडा और न्यूनतम होता है । ऐसे समाजों में बहुत करके व्यक्ति किसान की प्रस्थिति को मत्युपर्यन्त कोता रहता है ।

2 प्रदत्त प्रस्थिति बुनियादी प्रस्थिति है – लिन्टन ने जब अर्जित प्रस्थिति का उल्लेख किया तब उन्होंने इस बात को दृढतापूर्वक कहा कि 20वीं शताब्दी के प्रारंभ तक प्रदत्त प्रस्थिति का सामाजिक सम्बन्धों का अर्थ प्रदत्त यानी जन्मजात रूप से ही लेता था प्रस्थितियों के अन्तर की बात औद्योगिकरण , शहरीकरण , आदि के आने के परिणामस्वरूप हुई । अतः ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो कहना होगा कि प्रदत्त प्रस्थिति बुनियादी प्रस्थिति है । अर्जित प्रस्थिति तो हाल की खोज है ।

3 प्रदत्त प्रस्थिति व्यक्ति की इच्छाओं पर निर्भर नहीं है – प्रकृति के जैवकीय और भौतिक संरचना को बनाया है । मनुष्य के चाहने पर पेड़ की पत्तियाँ अपना रंग नहीं बदल सकती । मनुष्य की इच्छा पर पहाड़ झुककर समतल नहीं हो सकते हैं । ठिगने कद वाले लम्बे नहीं हो सकते हैं और चाहने पर स्त्रियों पुरूष नहीं बन सकती । कुछ प्रदत्त प्रस्थितियों परम्पराओं के कारण भी है । सामान्यतया इनका परिवर्तन भी मनुष्य के हाथ में नहीं है । अतः प्रदत्त और अर्जित प्रस्थिति की प्रकृति में यह अन्तर महत्वपूर्ण है कि प्रदत्त प्रस्थिति जैवकीय और प्राकृतिक होती है । कुछ अंशों में पारम्परिक भी होती है जबकि अर्जित प्रस्थिति स्वयं व्यक्ति की उपलब्धि है । वह जिस किसी प्रस्थिति में है । चिकित्सक , अध्यापक इत्यादि उसके लिए वह स्वयं उत्तरदायी है । कम से कम जैवकीय कारक तो नहीं ।

 4 प्रदत्त प्रस्थिति की भूमिका में परिवर्तन आता है – प्रत्येक प्रस्थिति के साथ भूमिकाएं जुड़ी होती हैं यह सही है कि प्रदत्त प्रस्थिति बदलती नहीं है । लेकिन जब समाज परिवर्तन के तीव्र दौर में से गुजरता है तो इस प्रस्थिति से जुड़ी हुई भूमिकाओं को बदल देता है माता – पिता की भूमिका है कि वह अपने बच्चों को शिक्षा प्रदान करें । लेकिन शिक्षा प्रदान करने की यह भूमिका द्वितीयक संस्थाओं ने ली है । वैसे वयस्क बच्चों का विवाह करवाने की भूमिका माता – पिता अदा करते थे । यह भूमिका अब स्वयं बच्चों के हाथ में चली गयी है । हो यह रहा है कि प्रदत्त प्रस्थितियों तो स्थायी बनी हुयी है लेकिन उनसे जुड़ी हुई भूमिकाओं में बराबर अन्तर आ रहा है । अर्जित प्रस्थिति की भूमिकाएँ भी अर्जित प्रस्थिति के बराबर बदलती रही है उदाहरण के लिए चिकित्सक सेवा को अपना व्यवसाय नहीं समझता उसके लिए सेवा एक कमोडिटी ( Commodity ) मात्र हो गयी है । हम आग्रहपूवर्क यह कहना चाहते हैं कि प्रदत्त प्रस्थिति के साथ जुड़ी हुई जो भूमिकाएं थी , वे आज प्रजातन्त्र और उदारवाद की चपेट में आकर बहुत बदल गई है । उनमें वाणिज्यीकरण आ गया यहाँ रूचिकर बात यह है कि प्रदत्त और अजित दोनों प्रस्थितियों से जुड़ी हुई भूमिकाओं में बदलाव आया है । मतलब यह है कि प्रस्थितियों में अन्तर होते हुए भी उनकी भूमिकाओं में समानता है दोनों से जडी हुई भूमिकाएं परिवर्तनशील हैं ।

 5 प्रदत्त प्रस्थितियों आदिम समाजों में अधिक प्रतिष्ठित होती है – मानवशक्तियों के अध्ययनों के दो निष्कर्ष है जिनके आधार पर यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि आदिम समाजों में पटल स्थान प्रतिष्ठा का स्थान है । अब भी इन समाजों में पंचायत और उसके मुखियाओं की प्रस्थिति वंशानुगत होती है । यदि आज एक व्यक्ति मुखिया है तो उसके बाद सहज रूप से उसका पुत्र मुखिया बन जायेगा , इन समाजों में जो परम्परागत प्रदत्त प्रस्थितियाँ हैं उनमें परिवर्तन के दौर को ही देखें तो हमें कई – कई अर्जित प्रस्थितियों देखने को मिलेगी । प्रदत्त और अर्जित प्रस्थिति एक दूसरे के विपरीत नहीं है , ये दोनों प्रस्थिति के प्रकार हैं दोनों ही प्रस्थिति है और दोनों ही एक दूसरे की पूरक हैं । जब इन प्रस्थितियों को हम समाजशास्त्रीय दृष्टि से देखते हैं तो हमें बराबर यह ध्यान में रखना चाहिए कि प्रस्थितियों के ये प्रकार सामाजिक संरचना से उत्पन्न हुए हैं सामाजिक संस्कृति से जुड़े होते हैं अतः समाज और कुछ न होकर प्रस्थिति का एक जाल है जब प्रस्थितियों बदलती हैं या समाज बदलता है तब प्रस्थिति और भूमिका में भी बदलाव आता है । हम ऐसा समझते हैं कि प्रस्थिति का पृथक विश्लेषण बेमतलब है जब तक कि हम उसे सम्पूर्ण समाज के संदर्भ में नहीं देखते है । विकासशील देशों में प्रस्थिति का जो स्थान होता है वह विकसित समाज से भिन्न होता है और विकासशील समाजों में जो स्थान प्रस्थिति का होता है उससे भिन्न आदिम समाजों में प्रस्थिति का संदर्भ सदैव समाज से होता है ।

 

MUST READ ALSO

MUST READ ALSO

 

 

 

 

Exit mobile version