भारत में राजनैतिक प्रकियायें
2023 NEW SOCIOLOGY – नया समाजशास्त्र
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- भारतीय राजनीति में जाति की भूमिका
- भारतीय राजनीति में धर्म की भूमिका
- भारतीय राजनीति में क्षेत्रवाद की भूमिका
- भारतीय राजनीति में भाषावाद की भूमिका
भारत की वर्तमान राजनीतिक प्रक्रियायें स्वतन्त्रतापूर्व की दशाओं से सहसम्बन्धित हैं। मुगल शासन के पशचात भारत में लगभग 200 वर्षों का अंग्रेजी शासन कायम रहा। अंग्रेजी शासन से मुक्ति के लिए भारतीयों ने
एक दीर्घकालीन स शक्त स्वतन्त्रता आन्दोलन का सफल संचालन किया। स्वतन्त्रता आन्दोलन और अंग्रेजी शासन की दीर्घकालीन अन्तक्र्रिया ने भारत की वर्तमान राजनीतिक प्रक्रियाओं का आधार तैयार किया।
राजनीतिक प्रक्रियाओं की प्रमुख विशोषतायें संविधान से सूत्रबद्ध रूप में स्थापित की गई और इन प्रक्रियाओं को राजनीतिक परम्पराओं का मार्गर्द शन प्राप्त होता रहता है। भारत की राजनीतिक संरचना की प्रमुख विशोषताओं में न्याय, स्वतन्त्रता, समता, व्यक्ति की गरिमा, राष्ट्र निर्माण और बंधुुता के साथ – साथ मूल अधिकार, सार्वभौम वयस्क मताधिकार, बहुदलीय संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली भारत की सामाजिक वि ोषताओं से अन्तक्रियारत है, जिसके परिणाम समाज के लक्ष्यों को प्राप्त में बाधक बन रहे हैं। भारत की चार प्रमुख सामाजिक वििशेोषतायें राजनीति प्रक्रिया को प्रभावित कर रही हैं यथा जाति, धर्म, भाषा और क्षेत्र। राजनीतिक प्रक्रियाओं को समझने के लिए सामाजिक विशेोषताओं के प्रभावों को समझना अत्यधिक प्रासंगिक है।
राजनीतिक प्रक्रियाओं का आधार सामाजिक – सांस्कृतिक प्रक्रियायें है और यह सामाजिक – सांस्कृतिक प्रक्रियायें सामाजिक अन्तःक्र्रिया सामान्यतया सहयोग, प्रतिस्पर्धा, संघर्ष, व्यवस्थायें एवं सात्मीकरण के रूप में प्रकट
होती है।ं सामाजिक अंतःक्रिया के इन स्वरूपों को सामाजिक प्रक्रियायें कहा जाता है। दूसरे शब्दों में सामाजिक
प्रक्रियाएं वे मूल तरीके है जिनके द्वारा मनुष्य अन्तःक्रिया करता है तथा संबधों को स्थापित करता है। वे व्यवहार के बार – बार आने वाले प्रकारों, जो सामाजिक जीवन में सामान्यतया पाये जाते हैं, को निर्दिष्ट करती है। गिलिन और गिलिन के अनुसार सामजिक प्रक्रियायें अन्तःक्रिया के वे तरीके है जिनको कि हम जब व्यक्ति और समूह मिलते है और संबध की व्यवस्था स्थापित करते हैं या जब जीवन के विद्यमान तरीकों में परिवर्तन करते या विघ्न
डालते है,ं तो कुछ घटनाओं का वह क्रम है जो सामजिक जीवन में निरंतर बना रहता है और जो कुछ नि ि चत
परिणामों को उत्पन्न करता है। सामाजिक प्रक्रिया के अनिवार्य तत्व हैः-
-
- घटनाओं के क्रम
- घटनाओं की पुनरावृत्ति
- घटनाओं के मध्य संबंध
- घटनाओं की निरंतरता
- विशिाष्ट परिणाम
राजनीतिक उपव्यवस्था किसी भी सामाजिक व्यवस्था का महत्वपूर्ण भाग होती है। यह सामाजिक प्रणाली के लक्ष्यों को निर्धारित करती है और शक्ति तथा सत्ता के संबंधो को वि लेषित करती है। इस प्रकार राजनीतिक प्रक्रियायें किसी समाज में शक्ति और सत्ता प्राप्त करने के लिए होने वाली अन्तःक्रियाओं की पुरावृत्ति हैं। अतः राजनीतिक प्रक्रियाएं शक्ति तथा सत्ता के आधार पर घटनाओं का क्रम और पुनरावृत्ति हैं जिनकें नि ि चत परिणाम होते हंै।
भारतीय समाज की राजनीतिक उपव्यवस्था बहुदलीय लोकतन्त्रात्मक है। यहाँ अनेक राजनीतिक दल शक्ति और सत्ता प्राप्त करने के लिए चुनाव के माध्यम से प्रतिस्पर्धा करते है और बहुमत प्राप्त कर सत्ता प्राप्त करने का प्रयास करते हैं। अतः राजनीतिक दल का निर्माण, मतदान व्यवहार, जनमत निर्माण, राजनीतिक गति शीलता, सामाजिक आन्दोलन, चुनावी मुद्दे और नौकर शारी की भूमिका भारतीय राजनीतिक प्रक्रिया की प्रमुख वि ोषतायें हैं। भारत की राजनीतिक प्रक्रियाओं को भारत की आधारभूत सामाजिक वि ोषताओं यथा जाति,
धर्म, क्षेत्रवाद और भाषावाद सर्वदा प्रभावित करती रही हैं।
भारतीय सामाजिक व्यवस्था का जाति व्यवस्था भारतीय सामाजिक व्यवस्था का एक प्रमुख आधार है। भारतीय समाज जाति व्यवस्था के आधार पर अनेक संस्तरो में विभाजित है और इसने भारतीय समाज के सभी पक्षों को प्रभावित किया है। जाति व्यवस्था का प्रभाव भारतीय समाज में राजनीति पर व्यापक एवं आन्तरिक रहा है। जाति व्यवस्था जन्मना प्रस्थिति पर आधारित भूमिकाओं, सुविधाओं एवं निर्योग्यताओं का निर्धारण करती है। प्रो. ए. आर. देसाई के अनुसार भारत में जाति व्यवस्था एक व्यक्ति के लिए उनकी प्रस्थिति, कार्यों, अवसरों और प्रतिबन्धों के रूप में निर्धारण करती है।
जाति व्यवस्था
जाति व्यवस्था को परिभाषित करने में जे. एच. हट्टन, एन. के. दत्त, जी. एस. घुरिये, एम. एस. श्रीनिवास और एस. सी. दुबे का योगदान उल्लेखनीय रहा है। जे. एच. हट्टन ने अपनी पुस्तक ‘‘कास्ट इन इंडिया‘‘ में जाति को एक व्यवस्था माना है जिसमें समाज अनेक ‘आत्म केन्द्रित समूहों‘ और एक दूसरे से पृथक इकाइयों में विभाजित होता है। तथा इन इकाइयों के पारस्परिक सम्बध उǔचता और निम्नता के क्रम में सांस्कृतिक रूप में निर्धारित होते हैं। हट्टन ने विभिन्न जातियों के लिए ‘आत्म केन्द्रित समूह‘ शब्द का प्रयोग किया है, इस अर्थ का सम्बन्ध जातिवाद से है जाति व्यवस्था से नहीं। इसी कारण यह स्वीकार किया कि भारत की जाति व्यवस्था स्वयं में इतनी जटिल संस्था है कि इसकी प्रकृति को किसी एक परिभाषा के द्वारा स्पष्ट करना संभव नहीं है। भारत के विभिन्न क्षेत्रों में जाति के नियमों तथा मान्यताओं में कुछ अन्तर देखने को मिलता है। एक जाति में अनेक उप जातियां किसी स्थान पर अन्तर्विवाही होती हैं और किसी स्थान पर बहिर्विवाह के नियमों को अधिक मान्यता दी जाती है। ऐसी स्थिति में एन. के. दत्ता तथा जी. एस. घुरिये ने जाति की कोई नि ि चत परिभाषा देकर इसे वि ोषताओं के आधार पर स्पष्ट किया है।
एन. के. दत्त के अनुसार यह एक ऐसी व्यवस्था है जिसके अन्तर्गत –
एक जाति का कोई सदस्य अपनी जाति के बाहर विवाह नहीं कर सकता
एक जाति के सदस्यो पर अन्य जातियों के सदस्यांे के साथ खान – पान के क्षेत्र में अनेक प्रतिबन्ध हैं, सभी जातियों के लिए यह प्रतिबन्ध है, सभी जातियों के लिए यह प्रतिबन्ध समान प्रकृति के नहीं है,
अधिकां शजातियों के अपने नि ि चत व्यवसाय होते हैं,
सभी जातियों के बीच ऊँच – नीच का संस्तरण है, जिसमें ब्राह्मणों की प्रतिष्ठा पर आधारित है।
जी. एस. घुरिये ने जाति व्यवस्था की सभी विशोषताओं को संरचनात्मक तथा संस्थात्मक भागों में विभाजित कर स्पष्ट किया है
भारत में जाति और राजनीति के अन्तरसम्बन्धों का अनेक समाज शास्त्रियों और राजनीति शास्त्रियों ने अध्ययन किया है। इन अध्ययनों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण अध्ययन एम. एन. श्रीनिवास का है। श्रीनिवास ने भारतीय राजनीति में जाति की प्रभाव शाली भूमिका को सबसे पहले इंगित किया। इसके प चात ए. सी. मेयर, रजनी कोठारी, आन्द्रे बेत्ते, कैथलीन गफ, एफ. जी. बैली, एडमंड लीच, टी. के. ओम्मेन, योगे श अटल, रूडोतफ एण्ड
रूडोल्फ, एच. ए. गोल्ड, एम. एस. राव आदि समाज शास्त्रियो ने जाति एवं राजनीति के सम्बन्धो पर अध्ययन किया है। वर्तमान में दीपाकर गुप्ता, योगेन्द्र यादव आदि विद्वान इस कार्य को आगे बढ़ा रहे हैं।
जाति एवं राजनीति के सम्बन्धों की विवेचना में मतभेद पाए जाते हैं, लेकिन चार प्रमुख सैद्धान्तिक विचारधाराएँ जाति एवं राजनीति के सम्बन्धों को लेकर सर्वमान्य हैं।
पहले के अनुसार राजनीतिक सम्बन्ध केवल सामाजिक सम्बन्धों की अभिव्यक्ति हंै तथा सामाजिक संगठन राजनीतिक व्यवस्था का स्वरूप निर्धारित करते हैं। इस सैद्धान्तिक विचारधारा के समर्थक राजनीति को एक साधन मात्र मानते हैं। भारत में राजनीति को प्राति की प्रतिछाया मानो वाले विचारकों में ए. आर. देसाई प्रमुख है।
दूसरे सैद्धान्तिक विचारधारा के समर्थक जाति तथा राजनीति दोनों को स्वतन्त्र मानते है तथा राजनीति को जाति के दोषों से बचाना चाहते हैं। रजनी कोठारी इस विचारधारा के आलोचक हैं और कहते हैं कि आज तक भारतीय समाज में जाति और राजनीति का कभी पूर्ण धु्रवण नहीं हुआ है।
तीसरी विचारधारा के समर्थक जाति को राजनीति की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं क्योंकि राजनीति जाति के चारो और घूमती है। अगर कोई व्यक्ति राजनीति में ऊँचा उठना चाहता है तो उसे अपनी जाति को अपने साथ लेकर चलना होगा। जय प्रका शनारायण ने कहा था कि भारत में जाति सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक दल है। बीनर, जोन्स तथा टिकर आदि ने इस विचारधारा को अपना समर्थन दिया भारत में विभिन्न राजनीतिक दल सत्ता प्राप्त करने के लिए जातीय समूहों को संगठित करते हैं।
चैथी विचारधारा के समर्थक जाति एवं राजनीति को परस्पर सम्बन्धित मानते हैं तथा स्वीकार करते हंै कि दोनों एक दूसरे को प्रभावित करते है। राजनीति को अपने लक्ष्यों की पूर्ति के लिए शक्ति की आव यकता पड़ती है और शक्ति प्राप्ति के लिए जोड़ – तोड़ बैठाने पड़ते हंै। जोड़ – तोड़ के लिए संगठनों का सहारा अनिवार्य है। जाति इसके लिए प्रमुख संगठनात्मक समूह प्रदान करती है तथा राजनीति इस साधन के माध्यम से अपने आपको संगठित करने का प्रयास करती है क्योंकि राजनीति जाति को प्रभावित करती है क्योंकि राजनीति के माध्यम से ही जाति अपने हितों की रक्षा करती है। अतः ‘राजनीति के जातिवाद‘ तथा ‘जाति के राजनीतिकरण‘ के रूप में दोनों परस्पर सम्बन्धित हैं।
वर्तमान में समाजशाशस्त्री और राजनीतिशाशस्त्री दोनों राजनीति में जाति की भूमिका के बारे में आनुभाविक अनुसन्धान कार्यो में संलग्न हैं। अधिकां शराजनीति शास्त्री राजनीति की व्याख्या करने में जाति को एक चर की तरह विवेचित करते हैं जबकि समाजशास्त्री इसमें राजनीतिक विकास एवं राजनीतिक प्रक्रियाओं में जाति की भूमिका को देखते हैं।
बी.एस. बाविस्कर ने जाति एवं राजनीति के परस्पर सम्बन्धों को तीन आधार पर प्रस्तुत किया है:
ऽ क्या जातीय समूहों के लिए राजनीतिक क्रियाओं में भाग लेना वैध है ? क्या जातियाँ राजनीतिक क्षेत्र में सक्रिय होने के बाद बनी रहती हैं ?
ऽ भारतीय राजनीति पर जाति का क्या प्रभाव रहा ? क्या भारत में प्रजातन्त्रीय प्रक्रिया को जाति ने सकारात्मक और अनुकूल दि शा में प्रभावित किया है। क्या इससे आधुनिकीकरण की प्रक्रिया, विशोषकर प्रजातन्त्रीय राजनीति में कोई बाधा आई है ?
ऽ जाति एंव राजनीति की अन्तः क्रिया में मौलिक एवं निर्णायक कारक कौन सा है ? क्या जाति राजनीति को प्रभावित करती है अथवा राजनीति जाति व्यवस्था की प्रकृति को परिवर्तत करती है।
इन तीनों प्रशनों के विभिन्न राजनीतिक समाजशाशस्त्रियों ने व्यापक उत्तर प्रस्तुत किये हैः-
प्रथम प्र न के उत्तर में लीच, गफ तथा बैली ने यह तर्क दिया है कि आर्द शरूप में जाति व्यवस्था की प्रमुख वि ोषता अन्योन्याश्रय एवं सहयोग है तथा इसमें राजनीतिक शक्ति के लिए विभिन्न जातियों में प्रतियोगिता का कोई स्थान नहीं है। राजनीतिक शक्ति के लिए प्रतियोगिता अथवा राजनीति केवल प्रबल जातियों तक ही सीमित है। आन्द्रे बेत्ते इसे जाति व्यवस्था में ऐसा दृष्टिकोण आनुभाविक अध्ययनों पर आधारित न मानकर जाति के आर्द श- प्रारूप पर आधारित मानते है।ं जाति की कुछ वि ोषताओं के आधार पर हम ऐसा नहीं कह सकते कि इसमे राजनीति का कोई स्थान नहीं है। विभिन्न जातियों में राजनीतिक प्रतियोगिता और संघर्ष आज एक वास्तविकता है तथा पहले ऐसे संघर्ष में रहे होगें। राजनीति में सक्रियता के परिणामस्वरूप जातियां समाप्त नहीं हो जाती अपितु अपना अस्तित्व बनाए रखती है।
द्वितीय प्रशन का उत्तर में मत है कि जाति (संस्तरण को महत्व देती है) प्राकृतिक प्रजातन्त्रीय व्यवस्था(समतावाद पर आधारित है) की भावनाआंे की विरोधी है परन्तु रूडोल्फ ने इस तर्क का खण्डन किया। उनके अनुसार जाति जैसी परम्परागत संस्था ने भारत में अ शक्षित लोगों को राजनीतिक सहभागिता के लिए प्रोत्साहित किया है। इस प्रकार जाति व्यवस्था आधुनिकीकरण की प्रक्रिया में बाधक न होकर इसका अभिकरण मात्र है।
तृतीय प्रशन के उत्तर के सन्दर्भ में अनेक विद्वानों ने जाति एवं राजनीति के परस्पर सम्बन्धों का अध्ययन करने में जाति को राजनीतिक प्रक्रियाओं की अपेक्षा अधिक महत्व दिया है। रजनी कोठारी ने इन विद्वानों के विचारों से असहमति प्रकट की है तथा सुस्पष्ट रूप से यह बताने का प्रयास किया है कि जाति तथा राजनीति,
दोनों एक दूसरे को समान रूप से प्रभावित करते है।ं अतः किसी एक को अधिक महत्व देना अनुचित है। इनके
विचारानुसार राजनीतिक संरचनाओं का अपना पृथक स्वायत्त एवं स्वतन्त्र अस्तित्व होता है अगर राजनीति जाति
द्वारा प्रभावित होती है तो जाति की प्रकृति एवं सरंचना भी राजनीति के प्रभाव से परिवर्तित हो जाती है। गोल्ड ने भी जाति एवं राजनीति को समान महत्व देते हुए ‘भारतीय राजनीति के जातीय प्रतिमान‘ का प्रतिपादन किया है। उनका कहना है कि जाति व्यवस्था तथा राजनीतिक संरचनाओं ( यथा गुट तथा राजनीति दल) में एकात्मकता, अन्योन्याश्रितत, अनन्यता व सजातीयता आदि अनेक असमानताएँ पाई जाती है।
रजनी कोठारी का दृष्टिकोण उचित है कि जाति एवं राजनीति समान रूप से एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। वास्तव में सारा विवाद राजनीति शास्त्र में चरों को महत्व देने तथा समाजशास्त्र में सामाजिक चरों का महत्व देने का परिणाम है जिसे राजनीतिक समाज शास्त्र ने काफी सीमा तक सुलझा दिया है उनके अनुसार जाति प्रथा का लौकिक पक्ष है जिसके कारण दे शकी राजनीति पर किसी एक जाति का प्रभुत्व स्थापित नहीं हो पाया है। जातीय एकीकरण प्रजातन्त्रीय व्यवस्था को निष्ठा प्रदान करने में सहायक रहा है क्योंकि विभिन्न जातियाँ मिल – जुल कर कुछ गठजोड़ बना लेती है तथा उनकी निष्ठा प्रजातन्त्रीय व्यावस्था के प्रति बनी रहती है। जातियों द्वारा राजनीतिक सहभागिता एवं सक्रियता के कारण इसके सदस्यों में चेतना वृद्धि हुई है। वास्तव में राजनीति ने जातियों को अपना सामाजिक स्तर ऊँचा करने का एक माध्यम प्रदान किया है।
जाति व्यवस्था और राजनीति में अन्तक्र्रिया के सन्दर्भ में रजनी कोठारी ने जाति प्रथा के तीन रूप (ज्ीतमम ।ेचमबजे) प्रस्तुत किये है:-
लौकिक रूप (ज्ीम ैमबनसंत ।ेचमबज )
एकीकरण का रूप ( ज्ीम प्दजमहतंजपवद ।ेचमबज )
ǔोतना बोध ( ज्ीम ।ेचमबज व िब्वदेवपवनेदमेे )
राजनीति अभी प्रभाव शाली आधुनिकता के साधन के रूप में देखी जाती है। इसे जाति को नष्ट करने के बजाए नए समाज की स्थापना में सहायक के रूप में देखा जाता है। अब राजनीतिक संस्थाओं का ढंशचा व्यापक होता जा रहा है, जिसमें जाति की भावना को नया रूप मिलता है उसका रोटी – बेटी का सम्बन्ध कमजोर हो गया है। राजनीतिक प्रवृत्तियों ने नए संगठनों को जन्म दिया है। जाति अब राजनीतिक समर्थन या शक्ति का आधार नहीं रहीं। आधुनिक राजनीति में लोगों की दृष्टि में परिवर्तन हुआ है। यह समझा जा चुका है कि आज के युग में केवल जाति और संप्रदाय से काम नहीं चल सकता इसलिए चुनाव की राजनीति में अनेक जातियों को गुट बनाना पड़ा। इससे विभिन्न जातियों में एकीकरण होता है। राजनीतिक दल की शक्ति तभी कायम रहती है जब समस्त जातियों के लोग उसे समर्थन दें।
भारतीय समाज में जाति और राजनीति दोनों परस्पर सम्बन्धित हैं तथा एक – दूसरे का सहारा हैं। कुछ विद्वानांे का यह विचार कि प्रजातन्त्रीय व्यवस्था जाति व्यवस्था को समाप्त कर देगी, सत्य सिद्ध नहीं हुई है। यह प्र न सैद्धान्तिक स्तर पर उचित है परन्तु वास्तविकता इसके विपरीत है। कुछ लोग जाति एवं राजनीति में परस्पर सम्बन्धों के सन्दर्भ में यह प्र न करते है। कि क्या भारतीय राजनीति में जाति की भूमिका एक वरदान या अभिप्राय है ?
कुछ विद्वान यथा डी. आर. गाडगिल इसे ‘राजनीति का कैन्सर‘ कहते हैं तथा राष्ट्र निर्माण, राष्ट्रीय
एकीकरण तथा आधुनिकीकरण में बाधक मानते हंै।
धर्म मानव का एक अनिवार्य तत्व है जो कि जीवन के सभी पहलुओं को प्रभावित करता है। किंग्सले डेविस के अनुसार मानव समाज में धर्म इतना सर्वव्यापी, स्थायी एवं दृढ़ है कि इसे स्पष्ट रूप से समझे बिना हम समाज को नहीं समझ सकते हैं।
धर्म एवं राजनीति परस्पर घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित है। अमरीका, फ्रांस तथा बेल्जियम में हुए आनुभाविक अध्ययनों से हमे यह पता चलता है कि धर्म व्यक्ति के राजनीतिक व्यवहार को प्रभावित करता है। उदाहरणार्थ, कैथोलिक लोगो की अपेक्षा यहूदी राजनीति में अधिक भाग लेते हैं तथा कैथोलिक लोगों की तुलना में अधिक सक्रिय हैं।
भारतीय समाज धार्मिक विविधता से युक्त समाज है। 2001 की जनगणना के अनुसार भारत की धार्मिक विविधता निम्न तालिका के माध्यम से स्पष्ट की जा सकती है »
क्रम सं. धर्म जनसंन्ख्य
(करोड़ में) प्रति शत
- हिन्दू 84.13 81.17
- मुसलमान 12.62 13.04
- ईसाई 2.21 2.16
- सिक्ख 2.07 2.02
- बौद्ध 0.81 0.79
- जैन 0.41 0.40
- अन्य 0.43 0.42
भारत में प्राचीन काल से ही यहाँ विदे शी संस्कृतियों का आगमन होता रहा है तथा सभी धार्मिक वि ोषताओं को बनाये रखने का प्रयास किया जाता रहा है। इसी कारण भारतीय समाज अनेक संप्रदायों में विभक्त होता चला गया। इसमें हिन्दू धर्म की बहुदेववादी प्रकृति ने भी योगदान दिया है। स्वतन्त्रता से पूर्व भारत में
धार्मिक विविधा तथा राजनीति पर इसका प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। जब काँग्रेस सारे दे श की स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष कर रही थी तब मुस्लिम लीग इसे दो राष्ट्रों में विभाजन की माँग कर रही थी। साथ ही, सिखों का एक गुट पृथक खालिस्तान की माँग कर रहा था। स्वतन्त्रता संग्राम के समय अंग्रेजो ने भारत में अपना शासन बनाये रखने के लिए धार्मिक विविधता का समुचित लाभ उठाया। स्वतन्त्रता के प चात् भारत को एक धर्म निरपेक्ष लोक राज्य के रूप में स्वीकार किया गया। भारतीय संविधान में सभी धर्मों के नागरिकों को समान रूप से मौलिक अधिकार प्रदान किये गए है। अनु. 29 में धार्मिक अल्पसंख्यकों के संस्कृति एवं शिाक्षा सम्बन्धी अधिकारों का संरक्षण प्रदान किया गया है जबकि अनु.30 में अल्पसंख्यकों को अपनी पसन्द के शिाक्षा संस्थानों की स्थापना
एवं प्रशाशसन का अधिकार दिया गया है।
भारतीय समाज वैज्ञानिकों ने राजनीति में धर्म की भूमिका पर अधिक अध्ययन नहीं किये हैं। अधिकांश अध्ययन धार्मिक अल्पसंख्यक संप्रदायों (मुख्यतः मुसलमानो)ं अथवा हिन्दू – मुस्लिम संप्रदायों से ही सम्बन्धित हैं।
ऐसा होना स्वाभाविक ही है क्योंकि धार्मिक विविधता के कारण भारतीय समाज में विभिन्न प्रकार के तनाव पैदा होते रहे हैं। यद्यपि साम्प्रदायिक तनाव के पीछे सदैव राजनीतिक स्वार्थ नहीं होते, फिर भी धर्म का प्रयोग राजनीति में तनाव उत्पन्न करने के लिए किया गया है।
ऽ इतना ही नहीं धार्मिक आधार पर राजनीतिक दलों (यथा मुस्लिम लीग एवं अकाली दल) का निर्माण किया गया है तथा चुनाव अभियानों एवं मतदान आचरण को प्रभावित करने के लिए धर्म का सहारा लिया जाता है।
भारत सैद्धान्तिक रूप से एक धर्म – निरपेक्ष लोक राज्य है, परन्तु अगर व्यावहारिक रूप में देखें, तो धर्म
एवं सांप्रदायिकता राजनीति को प्रभावित करने वाले तत्वों में से प्रमुख तत्व है। भारत में धर्म की राजनीति में भूमिका निम्नांकित तथ्यांे के आधार पर स्पष्ट की जा सकती है:
स्वतन्त्रता के पशचात भारत में अनेक राजनीतिक दलों (यथा मुस्लिम लीग, हिन्दू महासभा, अकाली दल आदि) का गठन धर्म एवं साम्प्रदायिकता के आधार पर हुआ है। मौरिस जोन्स के अनुसार अगर साम्प्रदयिकता को व्यापक अर्थ में लिया जाय तो सभी दलों में किसी न किसी स्तर पर और कुछ न कुछ मात्रा में सांप्रदायिकता देखी जा सकती है।
चुनाव अभियान तथा मतदान आचरण को प्रभावित करने के लिए धर्म एवं सांम्प्रदायिकता का सहारा लिया जाता है। मठाधी शों, इमामों तथा पादरियों ने पिछले कुछ वर्षों में चुनावों को प्रभावित करने में अपने प्रभाव का खुलकर प्रयोग किया है।
भारत में अनेक धार्मिक संगठन (यथा जमायते इस्लाम जमीयत – उल – हिन्द आदि) राजनीति में स शक्त प्रभावी समूहों की भूमिका निभाते हंै। तथा सरकारी नीतियों को यथासम्भव प्रभावित करने का प्रयास करते हैं।
अनेक धार्मिक सगंठनों का राजनीतिक प्रचार के लिए प्रयोग किया जाता है तथा धर्म के आधार पर पृथक राज्यों (यथा खालिस्तान) का मांग की जाती है।
मंत्रिमण्डलों के निर्माण में धामिर्कक आधार पर विभिन्न संप्रदायों का प्रतिनिधित्व दिया जाता है।
ऽ भारतीय राजनीति में साम्प्रदायिकता एक गम्भीर समस्या के रूप में स्वतन्त्रता पूर्व से बनी हुई है। डी. आर. गोयल ने इस बात पर बल दिया है कि साम्प्रदायिकता तनाव तथा उपद्रवों को एक विघटनकारी कारक की अपेक्षा मौलिक एकीकरण के अभाव में सूचक के रूप में देखा जाना चाहिए। यह सत्य है कि इससे एकीकरण में कुछ बाधा पड़ती है, परन्तु आधुनिक तकनीकी एवं विचारों से ऐसा होना कोई आ चर्यजनक बात नहीं है। सांप्रदायिकता के कारणों में एक मुस्लिम पृथकतावादी प्रवृत्ति तथा इनका आर्थिक दृष्टि से पिछड़े होने के कारण निरा शा भी है। इसके कारण मुसलमान तथा अनेक अन्य अल्पसंख्यक समुदाय आज भी मुख्य भारतीय राष्ट्रीय धारा में समाविष्ट नहीं हो पाये है। केवल अल्पसंख्यकों में ही नही अपितु हिन्दुओं में भी संप्रदायवाद पाया जाता है अर्थात् कुछ ऐसे लोग एवं संगठन है जो हिन्दू राष्ट्र में वि वास रखते हंै। लौकिक राज्य होने के कारण सरकार भी धार्मिक मामलो मे अधिक हस्तक्षेप नहीं कर पाती है।
कुछ लोग इसे सरकार की उदासीनता मानते है ? क्योकि सरकार इन सांप्रदायिक संगठनों पर प्रतिबन्ध लगाने में असफल रही।
स्वतन्त्रता के प चात धर्म की राजनीति पर प्रत्यक्ष प्रभाव 90 के दशाक के मन्दिर आन्दोलक में देखा जा सकता है। मन्दिर आन्दोलन के कारण भारतीय राजनीति में दक्षिणपंथी राजनीतिक दल ‘भाजपा‘ शक्ति शाली हुई और सन् 1999 में केन्द्र में सत्ता प्राप्त कर ली। वर्तमान भारतीय राजनीति मे यद्यपि धर्मनिरपेक्षता प्रमुख मुद्दा बना हुआ है तथापि धर्म लोकतान्त्रिक प्रक्रियाओं को प्रभावित करता है।
डी. आर. गोयल ने साम्प्रदायिक तनाव एवं उपद्रवो को रोकने के लिए तीन उपाय बताये हैं:-
ऽ प्रशासनिक व्यवस्था को अधिक प्रभावी बनाया जाना चाहिये ताकि साम्प्रदायिक तनावों का पूर्वानुमान लगाया जा सके तथा इन्हें रोकने के लिए कारगर कदम उठाये जा सकें।
ऽ साम्प्रदायिक तत्वों का भंडाफोड़ करना चाहिए ताकि जनता ऐसे तत्वों का साथ न दे।
ऽ राष्ट्रीयता के बारे में साम्प्रदायिकता का मुकाबला राजनीतिक प्रचार द्वारा किया जाना चाहिए। शिाक्षा संस्थानों तथा शिाक्षा प्रक्रियाओं को इन तत्वों एवं विचारों का विरोध करने के लिए प्रात्े साहित करना चाहिए।
साम्प्रदायिकता के विषय में यह कहा जा सकता है कि स्थिति अभी लाइलाज नहीं हुई है। असगर अली इन्जीनियर ने उचित ही लिखा है कि ‘जन समूह धार्मिक हैं साम्प्रदायिक नहीं। सभी सांम्प्रदायों में शुमेǔछा वाले
धार्मिक और बौद्धिक नेता भी विद्यमान है। ………..हम नि ि चत ही साम्प्रदायिकता की आवृत्ति और गहराई को कम कर सकते हैं।
क्षेत्रवाद
क्षेत्रवाद की भावनायें भी राजनीति मेे महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। क्षेत्रवाद को प्रादे शकता के संबोधन से भी जाना जाता है। क्षेत्रवाद को परिभाषित करना एक कठिन कार्य है क्योंकि क्षेत्र को भूगोल, आर्थिक विकास, भाषाई एकता, जाति एवं जनजाति आदि विभिन्न आधारों द्वारा परिभाषित किया जाता है। इनमें से कई आधार आपस मे जुड़े होने के कारण क्षेत्रवाद की परिभाषा सम्बन्धी समस्या और जटिल हो जाती है। सामान्यतः क्षेत्रवाद उस भावना को कहा जा सकता है जो दे शके किसी भाग या क्षेत्र से सम्बन्धित हो और जो भौगोलिक, आर्थिक, सामाजिक – सांस्कृतिक आदि कारणों से अपने पृथक अस्तित्व के लिए जागरूक हों। जब किसी वि ोष क्षेत्र में रहने वाले व्यक्ति यह अनुभव करने लगते हंै कि उनमें सांविधानिक हितांे की उपेक्षा की जा रही है तो उनमें प्रदे शकता की भावनाएँ पनपने लगती है जिसके कारण उनकी निष्ठा पूरे राष्ट्र की अपेक्षा अपने क्षेत्र में प्रति
अधिक हो जाती है।ं लोग अपने क्षेत्र के विकास के लिए वि ोषाधिकारों एवं अधिक सुविधाओं की माँग करते हैं
जिससे राष्ट्रीय लक्ष्य पिछड़ जाते हैं। क्षेत्रवाद के कारण व्यक्ति केवल अपने प्रदे शके उद्दे यों की पूर्ति चाहता हैं तथा पड़ोसी प्रदे शों एवं सम्पूर्ण दे शके हितों की कोई चिन्ता नहीं करता।
भारत में सामान्यतः क्षेत्रवाद के चार परिणाम बताये गए हैं:-
क्षेत्रीय संस्कृतियोें का पुनर्गठन
प्रशाशसनिक एवं राजनीतिक अवक्षेपण
ऽ केन्द्र – राज्यों के संघर्षो को सुलझाने लिए नियम बनाना ताकि दो अथवा अधिक उप – सांस्कृतिक क्षेत्रों में संघर्ष टाला जा सके।
ऽ केन्द्र तथा राज्यों अथवा राष्ट्र तथा उप -सांस्कृतिक क्षेत्रों में आर्थिक एवं राजनीतिक संतुलन बनाये रखना
भारत में भौगोलिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा आर्थिक विविधता क्षेत्रवाद का प्रमुख कारण है। भौगोलिक विविधता ने विभिन्न क्षेत्रों में वि शष्ट सांस्कृतिक समूहों के विकास को प्रेरित किया है। ये सांस्कृतिक समूह एक लम्बा इतिहास रखते हैं और अपनी पृथक् अस्मिता का गौरव भी महसूस करते हैं। समकालीन भारत में इन क्षेत्रीय उप – संस्कृतियों ने उपराष्ट्रवाद का रूप धारण कर लिया है जिससे नदियों का पानी या कुछ गाँवों को लेकर दो प्रदे शों के बीच उग्र विवाद छिड़ जाता है। ‘धरती के पुत्र‘ का संप्रत्यय इस क्षेत्रीयता का भी परिणाम है। यह राष्ट्र के लिए चुनौती बन गया है। बम्बई में गैर मराठियों का विरोध, तमिल – कर्नाटक जल विवाद, दिल्ली में बिहारियों का विरोध, रेलवे भर्ती में प्रदे शों को लेकर किया विरोध, पूर्वोत्तर के सांस्कृतिक – नृजातीय अस्मितायें और पंजाब का खालिस्तान आन्दोलन इसके प्रमुख उदाहरण हैं।
क्षेत्रवाद की भारतीय राजनीति में भूमिका निम्नांकित तथ्यों से स्पष्ट की जा सकती है:-
ऽ भारत में प्रादेशिाकता के आधार पर पृथक राज्यों की माँग की जाती रही है तथा राज्य केन्द्र से सौदेबाजी करते रहे हैं। प्रदे शों को अधिक स्वायत्ता प्रदान किये जाने की मांग भी इसी का परिणाम है जिससे कि केन्द्र राज्य सम्बन्धों में भी कई बार तनाव की स्थिति आ जाती है। आज अनेक राज्य के लोगों द्वारा विभिन्न क्षेत्रों को पृथक – पृथक राज्य बनाये जाने की मांग यथा आन्ध्रप्रदे श में आन्ध्र तथा तेलंगाना को पृथक करने, उत्तर प्रदे शको बुन्देल खंड को प ि चम प्रदे श (हरित प्रदे श) अलग करने, महाराष्ट्र से विदर्भ को अलग करने की माँग की जा रही है।
ऽ प्रादे शकता में निष्ठा अपने प्रदे शके प्रति ही होनी है जिसके कारण अन्तर्राज्यीय संघर्षो में वृद्धि होती है। भारत में नर्मदा नदी के जल वितरण को लेकर मध्य प्रदेश, गुजरात एवं राजस्थान में विवाद, भाखड़ा नांगल बांध से उत्पन्न बिजली के बंटवारे को लेकर महाराष्ट्र तथा कर्नाटक में विवाद, चण्डीगढ़ के प्र न पर पंजाब त
ऽ था हरियाणा में विवाद, कावेरी जल के लेकर महाराष्ट्र, कर्नाटक और तमिलनाडु में विवाद, चण्डीगढ़ के प्र न पर पंजाब तथा हरियाण में विवाद तथा पंजाब, हरियाणा एवं हिमाचल प्रदे श में सीमा विवाद आदि विविध समस्याएँ एक गम्भीर चुनौती बनी हुई हैं जिनसे सम्पूर्ण दे शकी अखण्डता एवं एकीकरण खतरे में है।
ऽ प्रादे शकता के कारण केन्द्र राज्यों के सम्बन्धों मे तनाव पैदा हुआ है क्योंकि राज्यों द्वारा केन्द्र की नीति का विरोध करना तथा केन्द्र के निर्दे शों का पालन करना प्रादे शकता की नीति का परिणाम है।
ऽ भारत में उत्तर-दक्षिण का विवाद प्रादे शकता का ही परिणाम है क्योंकि दक्षिणी राज्य के लोग ये सोचते हंै कि उनकी हर मामले में उपेक्षा की जाती है। दक्षिण के राज्य हिन्दी थोपे जाने का भी निरन्तर विरोध करते रहे हैं तथा वे चाहते हैं कि प्र शासन की भाषा हिन्दी की बजाए अंग्रेजी होनी चाहिए।
ऽ भाषावाद की समस्या का मूल कारण भी प्रादे शकता और क्षेत्रवाद भी भावना है। इसी के कारण भारता में आज तक एक सम्पर्क भाषा विकसित नहीं हो पायी है।
ऽ प्रादे शकता के कारण ही कुछ राज्योें के लोग भारतीय संघ से पृथक होने बात करते रहे हैं। ‘स्वाधीन मिजोरम‘ ‘खालिस्तान‘ , ‘बोडोलैण्ड‘ और ‘गोरखालैण्ड‘ की मांग क्षेत्रीयता का परिणाम है।
ऽ प्रादे शकता के आधार पर राजनीतिक दलों का गठन किया गया है। अकाली दल, डी. एम. के., ए. आई. ए. डी. एम.के तृणमूल कांग्रेस, डी. आर.सी, शिवसेना आदि दल प्रादे शकता के कारण ही विकसित हुए हैं।
ऽ प्रादेशिाकता के कारण ‘भूमि के पुत्र‘ की धारणा ने भी जन्म लिया है जिसका मूलाधार यह है कि एक प्रदे शमें रहने वालों को अपने प्रदे शमे रोजगाशर और व्यवसाय में प्राथमिकता दी जाय। यह राष्ट्र के लिए आज एक चुनौती बन गया है।
ऽ राजनीतिक दल अपने – आपको मजबूत करने के लिए प्रादे शकता का सहारा लेते हैं तथा इसी आधार पर कई बार प्रत्या शयों का चयन किया जाता है और मत माँगे जाते हैं।
ऽ प्रादेशिाकता की प्रबल भावना के चलते संघीय स्तर पर क्षेत्रीय दलों का महत्व बढ़ता जा रहा है और केन्द्र में गठबन्धन की राजनीति और राजनीतिक अस्थिरता का दौर प्रारम्भ हो गया है। इसके परिणामस्वरूप राष्ट्रीय सुरक्षा – जांच एजेंसी की स्थापना का कई क्षेत्रीय दलों ने विरोध किया। इसका प्रभाव कानून एवं व्यवस्था से लेकर आर्थिक विकास तक में पड़ता है। सारां शतः कहा जा सकता है कि किसी भी समाज की सामाजिक संरचना वहाँ की राजनीति का महत्वपूर्ण आधार हाती है। प्रादे शकता/क्षेत्रवाद की बढ़ती दर राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया और राष्ट्रीय एकीकरण को व्युत्क्रमानुपात में प्रभावित करती है।
भाषा एक सामाजिक-सांस्कृतिक अवयव है जिसके माध्यम से मानव अभिव्यक्ति करता है। भाषा मानव समाज में संप्रेषण का एक स शक्त माध्यम है। यह सामाजिक – सांस्कृतिक व्यवस्था का आधार है। भाषा केवल संस्कृति का संरक्षण करती है अपितु उसका विकास कर उसे नवीन पीढ़ी तक प्रेषित भी करती है। प्राकृतिक विविधता के कारण भारत के विभिन्न भागों में तथा एक प्रदे शके भिन्न – भिन्न भागों में भिन्न – भिन्न भाषाएं
एवं बोलीयाँ पायी जाती हंै। वर्तमान में भारत के संविधान में 22 मान्यता प्राप्त भाषाओं का उल्लेख किया गया है इसके अलावा 1,652 भाषायें बोली जाती हैं। इसके अतिरिक्त भारत में और भी भाषाएँ और बोलियां हैं जिनका कुछ न कुछ साहित्य है वैसे तो अधिकां शभाषाएँ लिपि रहित हंै, परन्तु कुछ की लिपियाँ, और समृद्ध साहित्य भी। कहने का तात्पर्य यह है कि हमारे दे शऔर समाज में भाषागत विविधता भी बहुत है।
अंग्रेजी शासन काल में अंग्रेजी को शिक्षा का माध्यम बनाया गया क्योंकि एक तो अंगे्रज इसके माध्यम से दफ्तरों में कार्य करने के लिए लिपिक वर्ग का निर्माण करना चाहते थे तथा दूसरे इससे वे भारतीय संभ्रात – वर्ग को प्रभावित करके अपने शासन को और स शक्त बनाना चाहते थे। अंगे्रजी भाषा का पूरे दे शमें सम्पर्क एंव कामकाज की भाषा के रूप में प्रयोग किया जाने लगा। यद्यपि भारत के सामाजिक-सांस्कृतिक एवं राजनीतिक
क्षेत्रों मे अंग्रेजी भाषा एक महत्वपूर्ण भाषा बन गई थी, फिर भी यह जनता की भाषा नहीं बन पाई। स्वतन्त्रता के प चात हिन्दी भाषा को भारतीय संघ की सरकारी भाषा स्वीकार की गयी, इतना ही नहीं, 1956 में राज्यों का भाषा के आधार पर पुर्नगठन किया गया। इससे जनता को अपनी अपनी भाषा का ज्ञान हुआ तथा वे हिन्दी की अपेक्षा अपनी निजी भाषा के अध्ययन या संवृद्धि में लग गये।
इससे क्षेत्रीयता एवं भाषाई संकीणर्यताएँ विकसित हुई। गैर – हिन्दी राज्यों में हिन्दी को राष्ट्र भाषा बनाये जाने का निरन्तर विरोध किया गया है। 1960 – 61 में पंजाब, प ि चम बंगाल तथा असम मे हिन्दी भाषा को स्वीकार न करके क्रम शः पंजाबी, बंगाली तथा असमिया को राज्य की सरकारी भाषा बनाने का तथा इनका विकास करने से सम्बन्धित अधिनियम पारित किये। 3 अक्टूबर 1961 को अलीगढ़ मुस्लिम वि वविद्यालय मे हिन्दू – मुस्लिम उपद्रव फूट पड़ा जो कि शीघ्र ही उत्तर प्रदे श, बिहार, प ि चम बंगाल और मघ्य प्रदे शके अनके लोगों में फैल गया। सरकार ने 28 सितम्बर से 1 अक्टूबर 1961 तक प्रमुख राजनीतिज्ञो, शिक्षाविदों एवं वैज्ञानिकों का एक राष्ट्रीय एकता सम्मेलन बुलाया जिसने सारे देश में माध्यमिक की शिाक्षा के लिए तीन भाषाई सूत्र स्वीकार करने की सिफारिश की। इस सम्मेलन द्वारा यह भी सिफारिशा की गई कि वि वविद्यालयों में अंग्रेजी भाषा थे स्थान पर क्षेत्रीय भाषाओं को शिाक्षा का माध्यम बनाया जाए और फिलहाल अंग्रेजी को ही भारत की सम्पर्क भाषा बनाये रखा जाए। सरकार ने भाषाई तनाव को सामने रखते हुए 1963 में सरकारी भाषा विधेयक प्रस्तुत किया जिसमें अंगे्रजी के अतिरिक्त हिन्दी को भी संसद एवं अन्य सभी कार्यों (जिनमें पहले अंग्रेजी प्रयुक्त होती थी) में प्रयुक्त करने तथा राज्यों तथा हिन्दी के अतिरिक्त किसी अन्य
भाषा के अपनाये जाने की स्थिति में हिन्दी एवं अंग्रेजी अनुवाद भी प्रका शत किये जाने का प्रावधान था।
हिन्दी भाषा को राजभाषा बनाये जाने के विरोध में दक्षिणी राज्यों में फिर आन्दोलन शुरू हुए। इस
घोषणा से कि 26 जनवरी 1965 से हिन्दी राजभाषा होगी छात्रों में भी बड़ा रोष फैल गया अतः दिसम्बर 1967 में राजभाषा अधिनियम मे सं शोधन करना पड़ा। सरकार की भाषा नीति के प्रति राज्यों में उपद्रव होते रहे हैं। पहले उत्तर प्रदे श,बिहार, मध्यप्रदे श, राजस्थान, एवं महाराष्ट्र में अंग्रेजी विरोधी प्रर्द शन हुए और फिर 18 दिसम्बर 1967 को मद्रास में हिन्दी विरोधी आन्दोलन प्रारम्भ हुआ जो कि शीघ्र ही आन्ध्रप्रदे शएवं मैसूर में भी फैल गया। 1970 में सरकार ने फिर से त्रिभाषा सूत्र का अनुसरण कर दिया।
आज भी भाषा के आधार पर भारत उत्तर और दक्षिण भारत में विभाजित है क्योंकि दक्षिणी राज्यों में हिन्दी साम्राज्यवाद के विरूद्ध आज भी लोगों में तीव्र भावनाएँ पाई जाती हंै। उत्तर प्रदे शमें उर्दू को राज्य की दूसरी भाषा बनाये रखने के विरोध में अनेक जन सभाओं का आयोजन किया गया। भाषाई संकीर्णता के कारण ही
‘धरती के पुत्र‘ के संप्रत्यय का जन्म हुआ है। इससे तात्पर्य है कि सरकारी एवं गैर सरकारी पदों पर नियुक्ति प्रादे शक भाषा जानने वाले व्यक्ति की ही होनी चाहिए। इसी कारण आज तक भी दक्षिणी राज्यों को लोक सभाई चुनावों में हिन्दी न बोलने का आ वासन दिया जाता है। भाषा को राजनीति से पृथक रखने का कोई भी सुझाव अभी तक प्रभावकारी सिद्ध नहीं पाया हो है।
90 के द शक में भूमण्डलीकरण और सूचना क्रांति के प चात स्थितियां कुछ परिवर्तित हुई हंै। भूमण्डलीकरण ने अंग्रेजी को वै ि वक भाषा का स्थान देने की मान्यता प्रदान कर दी है। वर्तमान में उत्तर भारत में अंग्रेजी विरोध की भावना पैदा हो गयी है और उभरते मध्यवर्ग ने अंग्रेजी को स्वीकार किया है तथा अंग्रेजी उǔच शिक्षा, व्यवसाय और रोजगार की भाषा का स्थान प्राप्त कर चुकी है। इसी प्रकार सूचना क्रांति और टेलीविजन क्रांति ने हिन्दी को अखिल भारतीय संपर्क भाषा का स्थान प्रदान किया है। अब दक्षिण भारत में तीव्र हिन्दी विरोध नहीं पाया जाता, अपितु धीरे – धीरे हिन्दी बाजार की भाषा में परिवर्तित होती जा रही है। परन्तु भाषा का मुद्दा
राजनीति के लिए अभी भी संवेदनशील बना हुआ है। उदाहरणस्वरूप 2013 में जब संघ लोक सेवा आयोग में सिविल सेवा परीक्षाओं में अंग्रेजी की अनिवार्यता का सं शोधन प्रस्तुत किया गया तो यह एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा बन गया। और तुरंत दबाव समूह सक्रिय हो गये और संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा में अंगे्रजी भाषा के महत्व वाले सं शोधन को परिवर्तित कर दिया।
स्ंशक्षेप में, अब भाषावाद राष्ट्रीय एकीकरण के खतरे के रूप में नहीं विद्यमान है। इसे भौगोलिक और सामाजिक गति शीलता की बढ़ती दर ने शथिल कर दिया है। परन्तु राजनीति के लिए भाषा एक संवेदन शील मुद्दा बना हुआ है।
भारतीय समाज में वर्तमान राजनीतिक प्रक्रियायें दो सौ वर्षों के लम्बे अंग्रेजी शासन और उससे मुक्ति के लिए चले स्वतन्त्रता संघर्ष से सहसम्बन्धित हंै। संसदीय लोक तन्त्र, बहुदलीय राजनीतिक व्यवस्था, सर्वाभौम व्यस्क मताधिकार, तथा सत्ता का विकेन्द्रीकरण वर्तमान राजनीतिक प्रक्रियाओं की प्रमुख वि ोषता है। इन राजनीतिक प्रक्रियाओं को भारतीय समाज की आधारभूत वि ोषताओं यथा जाति, धार्मिक विविधता, बहुभाषा भाषी समूह और भौगोलिक विभिन्नता ने निरन्तर प्रभावित किया है। समाज वैज्ञानिकों के अनुसार विविधताओं ने अधिकां शतः राजनीतिक प्रक्रियाओं को नकारात्मक रूप में प्रभावित किया हैं। विविधता पूर्ण समाज में एकीकरण और राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया एक चुनौती भरा कार्य होता है, परन्तु भारत का उदार लोकतान्त्रिक व्यवस्था ने विविधताओं के साथ लचीला सांमजस्य स्थापित कर लिया है। जाति जैसी विविधतायें को लोकतन्त्र की सहगामी बन गयी हैं और चुनौतियों के उपरान्त भी राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया निरन्तर जाती है।
2023 NEW SOCIOLOGY – नया समाजशास्त्र
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