पूर्वग्रह क्या है 

पूर्वग्रह क्या है 

 पर्वग्रह शब्द के अंग्रेजी प्रति शब्द ( Prejudice ) की उत्पत्ति लैटिन भाषा की ‘ प्रेजडिसियम ‘ ( Prejudicium ) संज्ञा से हुई है जिसका अर्थ होता है – वह निर्णय जो पूर्व निश्चयों पर आधारित है । अंग्रेजी भाषा में इस शब्द का अर्थ पर्व – निर्णय किया जाता है । अर्थात् वह निर्णय जो तथ्यों की अपेक्षित परीक्षा से पर्व कर लिया गया हो – एक अपरिपक्व या जल्दी में लिया गया निर्णय । आज पर्वग्रह का अर्थ इस प्रकार किया जाता है । यह केवल एक अपरिपक्व निर्णय ही नहीं है बल्कि इसमें प्रतिकूल अभिवृत्ति भी होती है । जैसा कि न्यूकोंब  का कथन है , ” इस प्रकार पूर्वग्रह एक प्रतिकूल अभिवृत्ति है – एक ऐसी पूर्ववत्ति जो दूसरे व्यक्ति या समूह के पक्ष में होने की अपेक्षा उसको ‘ विरोधी ‘ तरीकों से देखे , उसके विरुद्ध कार्य करे , विपरीत ढंग से सोचे और महसूस करे । ” इस प्रकार हमें पूर्वग्रह के अनेक लक्षण दिखलाई पड़ते हैं :

 ( क ) यह एक निराधार निर्णय होता है । हम उपयुक्त तथ्यों के बिना ही किसी निर्णय पर पहुंच जाते हैं । बहुत से पूर्वग्रह मुख्यतया हमारे बचपन के उन अनुभवों पर आधारित होते हैं जिनका हमें आभास नहीं होता । वे व्यक्तिगत अनुभवों पर कदापि आधारित नहीं होते । उदाहरणार्थ , हमारे भीतर जो जाति संबंधी पूर्वग्रह प्रविष्ट हो गए हैं , वे बचपन में ही घर कर गए थे क्योंकि हमें ऐसे वातावरण में पाला जाता है जिसमें हमें हिदायतें दी जाती हैं कि यदि हम कुछ निश्चित जातियों के बच्चों के साथ खेलेंगे या उन्हें अपने घर में लाएंगे तो हमें दंड दिया जाएगा ; जब हम कुछ निश्चित जातियों के बच्चों को अपने भोजन कक्ष , पूजागृह या रसोईघर में ले आते हैं , तो हमें दंड मिल सकता है । इन सब तरीकों से बालक में दूसरी जातियों के सदस्यों के प्रति सामाजिक अन्तर विक सित होता है । इसके अतिरिक्त दूसरा तरीका भी है जिसके द्वारा हम दूसरी जातियों के प्रति अपनी विचारधारा बनाते हैं । हमारे माता – पिता तथा घर के दूसरे लोग दूसरे समूहों के गुणों तथा लक्षणों के बारे में हमें बताते हैं । बड़ी जाति के बच्चे को बतलाया जाता है कि छोटी जातियों के लोग गंदे , बेईमान और निषिद्ध पदार्थों का सेवन करने वाले होते हैं , आदि – आदि । यही वह तरीका है जिससे बालक में दूसरी जातियों के प्रति स्थिर रूपों का विकास हो जाता है । उदाहरण के लिए , ‘ शूद्र ‘ या ‘ अस्पृश्य ‘ शब्द इन समूहों के सदस्यों के कुछ स्पष्ट लक्षणों का परिचय देते हैं ।

 हम इतिहास की पुस्तकों या उपन्यासों में दूसरे समूहों के बारे में पढ़कर उनके बारे में जल्दबाजी में निर्णय कर लेते हैं तथा यह जानने का कष्ट गवारा नहीं करते कि जो बात हमने पढ़ी है क्या वह उस समूह के कुछ व्यक्तियों के बारे में ही सही है या उस समूह के सभी व्यक्तियों के बारे में सही उतरती है । भारत का इतिहास पढ़ने वाला हिन्दू बालक अपना तदात्मीकरण शिवाजी के साथ करता है और मुसलमानों के प्रति घृणा करने लगता है । इसी भांति भारतीय इतिहास को पढ़ने वाला मुसलमान बालक हिन्दुओं से घृणा करने लगता है क्योंकि उन्होंने भारत में मुस्लिम शासन को समाप्त कराया । हम इतिहास को गौरव के साथ पढ़ते हैं तथा इतिहास का अध्ययन हमारे पूर्वग्रहों को पुननिर्धारित कर देता है । यही कारण है कि आज इतिहास को इस ढंग से लिखाने का प्रयत्न किया जा रहा है ताकि पाठकों के मन में दूसरे समूहों के प्रति घृणा की भावनाएं उत्पन्न न हों । लेकिन इतिहास का पुनर्लेखन मात्र ही पर्याप्त नहीं होगा । घर पर , मां – बाप को , बच्चों को दूसरे समूहों के बारे में निष्पक्ष रूप से अवश्य बतलाना होगा ।

( ख ) जैसाकि हमने अभी देखा है कि इस तथ्य के अलावा कि पूर्वग्रह निरा धार निर्णय पर निर्भर होता है या व्यक्तिगत निर्णय से रहित होता है , पूर्वग्रह में दूसरे समूह के प्रति प्रतिकूल अभिवृत्ति भी निहित रहती है । दूसरे समूह के प्रति कुछ विरोध की भावना होती है । यह विरोध दूसरे समूह के व्यक्तियों में भेद भाव की भावना को जन्म दे सकता है । उदाहरणार्थ , हमारे ग्रामों तथा नगरों में भिन्न – भिन्न जाति के समूहों तथा पृथक मतानुयायी समूहों के लिए अलग – अलग निवास – क्षेत्र हैं । हम देखते हैं कि सारे देश में हरिजनों के मकान अलग बने होते हैं , तथा अन्य बाकी लोगों के निवास क्षेत्र से संभवतया दो फर्लाग या उससे भी कुछ दूर स्थित होते हैं ।

प्रायः यह कहा जाता है कि इन निवास क्षेत्रों की पृथकता किसी प्रकार के विरोध के कारण नहीं है । ” उनका निश्चित विचार है कि अभिवृत्तियों का पूर्व ग्रह केवल तभी घटित होता है जब वे किसी संस्कृति में स्वीकृत कुछ महत्त्वपूर्ण प्रतिमानों अथवा मूल्यों का उल्लंघन करती हैं ” ( 29 ) । डायर ( 3 ) ने नवें ग्रेड के बालकों को बोलने के लिए कुछ विषय दिए । उसने वयस्क निर्णायकों से कहा कि वे इन निर्णयों को उनमें निहित पूर्वग्रह की मात्रा के अनुसार चयन करें । यह देखने में आया कि लड़के – लड़कियों के विरुद्ध जो भी कहा गया , उसे पूर्वग्रह नहीं माना गया क्योंकि यह प्रत्येक किशोर के लिए सामान्य बात थी । इसी प्रकार अध्या पकों के विरुद्ध कथनों को पूर्वग्रह नहीं माना गया क्योंकि यह बात भी विद्यार्थियों के लिए सामान्य थी । जब बच्चों ने श्रमिक संगठनों या कुछ समाज – स्वीकृत प्रजा तियों के प्रति कुछ विरोध प्रकट किया तब उसे पूर्वग्रह समझा गया । पूर्वग्रह को इस रूप में देखने से यह बात निश्चित है कि जब तक किसी समूह विशेष में , व्यव हार भी एवं निर्णय भी समाज द्वारा स्वीकृत रहता है तो उसमें किसी प्रकार का पर्वग्रह नहीं होता । प्रायः यह कहा जाता है कि उच्च जाति का व्यक्ति निम्न जाति के व्यक्ति के प्रति कोई पूर्वग्रह नहीं रखता क्योंकि उसमें किसी प्रकार की विरोध की भावना नहीं होती ।

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वह तो केवल यह चाहता है कि निम्न जाति के व्यक्ति को किसी क्षेत्र विशेष में रहना चाहिए और कोई खास पेशा अपनाना चाहिए । यह बिल्कुल सामान्य बात है । इसमें निम्न समूह के सदस्यों के प्रति घृणा या विरोध की किसी भावना का प्रश्न ही पैदा नहीं होता । यह अभिवृत्ति यूरोप में ईसाइयों की भी हो गई थी जिन्होंने यहूदियों को घेटों में रखकर उन्हें पृथक कर दिया था । न यहूदियों और न ही गैर यहूदियों को यह अनुभव हुआ कि यह पृथ कता किसी विरोध पर आधारित थी । दोनों वर्गों ने उसे स्वीकार कर लिया । इसी भांति भारत में भिन्न – भिन्न जातियों के लिए पृथक निवास क्षेत्र हजारों वर्षों से भिन्न – भिन्न समूहों द्वारा स्वीकृत होते रहे हैं । शताब्दियों से हरिजन समझते हैं कि ऐसी पृथक बस्तियों में रहना बिलकुल सामान्य स्थिति है जैसाकि उच्च जाति के लोग समझते हैं । इसी प्रकार , संयुक्त राज्य अमेरिका के दक्षिणी प्रदेशों में तथा दक्षिणी अफ्रीका में , नीग्रो लोगों के रहने के क्षेत्र पृथक होते हैं । वस्तुतः दक्षिण अफ्रीका ने ‘ प्रजाति – पार्थक्य ‘ को अपने यहां वैधानिक प्रणाली का एक अंग ही बना लिया । दक्षिण अफ्रीका वालों के अनुसार यह काले लोगों के विरुद्ध किसी प्रकार के पूर्वग्रह पर आधारित नहीं है । इसमें किसी भी प्रकार की कोई विरोध की भावना नहीं है । यह केवल भिन्न – भिन्न संस्कृतियों के लोगों और भिन्न – भिन्न जीवन के तौर तरीकों का सामंजस्यपूर्ण ढंग से इकट्ठा होकर रहने का एक व्यावहारिक तरीका है । यह सत्य है कि जब तक पृथक करने वाले समूह तथा पृथक्कृत समूह , पृथक रहना स्वीकार करते रहते हैं , तब तक उनमें किसी प्रकार की प्रतिकूल अभिवृत्ति या विरोध की भावना देखने का कोई प्रमाण नहीं मिलता ।

लेकिन ज्यों ही पृथक्कृत क्षेत्र का कोई व्यक्ति दूसरे क्षेत्र में प्रवेश करना चाहता है , त्योंही विरोध शुरू हो जाता है । इसलिए विरोध की अनुपस्थिति का कारण है संघर्ष को उत्पन्न करने वाली स्थितियों की अनुपस्थिति । जिस प्रकार , शक्ति द्वारा पृथकता को सफलता के साथ व्यवहार में लाया जा सकता है , उसी प्रकार प्रथा के द्वारा पृथकता को सफलतापूर्वक व्यवहार में लाया जा सकता है । बच्चों को ऐसे वातावरण में पाला जा सकता है कि वे यह महसूस करें कि उन्हें प्रथा या बल को स्वीकार करना पड़ेगा । अत : जब वे बड़े हो जाएंगे तो विरोध नहीं करेंगे , लेकिन यदि वे ऐसा करते हैं तो तभी संघर्ष उत्पन्न हो जाएगा । प्रथा या . बल को बिना किसी ननुनच के स्वीकार कर लेने से समूह में प्रत्यक्ष रूप से सामं जस्य हो जाएगा । लेकिन यह सामंजस्य अनिश्चित होता है तथा उस समय छिन्न – भिन्न हो जाता है जब स्वीकृत समूहों के कुछ व्यक्ति प्रथा या बल की प्रामाणिकता और उनके औचित्य के बारे में संदेह प्रकट करने लगते हैं । जैसाकि

शेरिफ  का कथन है , ” . . ‘ सामाजिक अन्तर तब बहुत ज्यादा होता है जब सम्ह – समूह के संबंध अमैत्रीपूर्ण या विरोधी होते हैं । जब अमैत्रीपूर्ण पर स्पर क्रिया बहत लम्बी अवधि तक चलती रहती है , तो यह सामाजिक अन्तर समूह के प्रतिमान का रूप ले लेता है । सामाजिक अन्तर के प्रतिमान अन्तरा समह संबंधों के विशेष प्रकार के अन्तिम परिणाम वाले प्रतिफल हैं । ” अतः यह तथ्य , कि हरिजनों और निम्न वर्गों ने पृथक्कृत क्षेत्रों में रहना स्वीकार कर लिया है , उस लम्बी अवधि की अभिव्यक्ति है जो पृथक्करण की इन अमैत्रीपूर्ण परस्पर क्रियाओं द्वारा मूर्त रूप ले चुकी हैं । जो सामाजिक प्रतिमान पृथक्करण को स्वीकार्य बनाता है वह इस तथ्य की अनुभूति पर निर्भर है कि कमजोर वर्ग की ओर से विरोधात्मक व्यवहार सामंजस्यपूर्ण सम्बन्ध की ओर अग्रसर नहीं होता । वे इसलिए सहमत हो जाते हैं क्योंकि वे लाचार हैं । अतः यहाँ पृथक्करण घटित होता है । लेकिन जैसाकि हम ऊपर देख चुके हैं कि पृथक्करण विरोध पर आधारित है और विरोध सामाजिक सम्बन्धों में तब तक प्रकट नहीं होता जब तक दूसरा समूह निर्णय स्वीकार किए रहता है । यह केवल तभी होता है जबकि वे तर्क करना शुरू कर देते हैं तथा विरोध की स्थिति का प्रतिरोध करने लगते हैं ।

 ( ग ) पूर्वग्रह प्राथमिक अभिवृत्तियां हैं , वे सारे समूह द्वारा स्वीकृत होते हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि पूर्वग्रह सारे समूह द्वारा स्वीकार्य है क्योंकि दूसरे व्यक्तियों को भी वैसी ही अभिवृत्तियां होती हैं । प्रत्येक व्यक्ति में इसका संवलन होता है । चूंकि समूह के दूसरे व्यक्तियों में धमकी देने की भावना बनी रहती है , अतः पूर्वग्रह प्रत्येक व्यक्ति में बढ़ता रहता है । इसीलिए हम व्यक्ति को किसी व्यक्ति के रूप में निर्णीत नहीं करते । हम उसे किसी समूह का सदस्य मानते हैं , एक ऐसे समूह का सदस्य जो त्याज्य होता है ; चूंकि वह समूह त्याज्य होता है अतः समूह का प्रत्येक सदस्य भी त्याज्य होता है ।

 ( घ ) जब कभी किसी पूर्वग्रह वाले व्यक्ति से यह पूछा जाता है कि वह दूसरे समूह के प्रति पूर्वग्रह क्यों रखता है , तो वह सदैव अपने विचारों के अनुकूल कारण बतलाता है । वह कुछ ऐसे मूर्त उदाहरण देगा जब दूसरे समूह के व्यक्तियों द्वारा एक खास प्रकार का व्यवहार किया होता है । इसी प्रकार से व्यक्ति के अनुभव पूर्वग्रह का संवलन करते हैं । अस्वीकृत समूह के सदस्य द्वारा यदि कोई विरोधी या अमंत्रीपूर्ण कार्य हो जाते हैं तो उन्हें सदैव याद रखा जाता है जबकि पूर्वग्रह का पक्ष न लेने वाली घटनाएं या तो भुला दी जाती हैं अथवा अपवाद समझ ली जाती हैं । इसका स्पष्ट परिणाम यह होता है की पूर्वग्रह अतिजीविता प्राप्त करता है तथा और अधिक दृढ़ हो जाता है ।

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पूर्वग्रह का विकास

 कुछ दशाब्दियों पहले , यह समझा जाता था कि एक समूह के सदस्यों में दूसरे समूह के सदस्यों के प्रति कोई विशिष्ट युयुत्सा की अन्तर्वृत्ति या विरोध की भावना पाई जाती है । जब कभी हम किसी लक्षण को किसी समूह विशेष के समस्त सदस्यों में व्यापक रूप से विद्यमान पाते हैं , तो हमारी प्रवृत्ति उस समूह को कुछ ‘ प्राकृत ‘ या कुछ ‘ स्वाभाविक ‘ की भांति देखने की होती है । अपने ज्ञानवर्द्धन के साथ – साथ , हम अब इस परिणाम पर पहुंच रहे हैं कि किसी समूह में पाए जाने वाले किसी गुण की व्यापक उपस्थिति के लिए कुछ अन्य कारण भी हो सकते हैं । यह निःसंदेह सत्य है कि पशुओं की तरह मानव प्राणी भी दूसरों से प्रेम करने का अभिलाषी है और वह जब यह अनुभव करता है कि उसे कुछ लक्ष्यों की प्राप्ति करने के प्रयत्नों से रोका जा रहा है या उसकी अवहेलना की जा रही है , तो वह लड़ने के लिए भी तैयार हो जाता है । इस दृष्टि से यह कथन सत्य है कि मानव प्राणियों में युयुत्सु या विरोधी बनने की एक मूल प्रवृत्ति होती है । लेकिन यह कथन सत्य नहीं है कि मानव प्राणियों का कोई समूह मानव प्राणियों के किसी अन्य समूह विशेष के प्रति मूलतः युयुत्सु या विरोधी होता है । यही वह स्थिति है जहां त्रुटि उत्पन्न होती है

। हम अब देख सकते हैं कि बालक अपने समूह के सदस्य के रूप में पूर्वग्रह तथा विरोधी भावनाएं कैसे ग्रहण करता है अथवा बालक दूसरे समूहों के सदस्यों के विरुद्ध पूर्वग्रह रखना कैसे सीखता है । ( 1 ) युवा बच्चों के प्रेक्षण से पता चला है कि वे दूसरे समूहों के बालकों के साथ बिना किसी भेदभाव के खेलते हैं । यहां तक कि जो बालक भिन्न भाषा – भाषी होने के कारण परस्पर बात करने में असमर्थ रहते हैं , वे भी एक – दूसरे के साथ सामंजस्यपूर्ण ढंग से खेलेंगे या वे अपने खेल में उसी प्रकार से लड़ सकते हैं । जब बच्चे बड़े होने लगते हैं तभी वे दूसरे समूहों के बच्चों को अपने से भिन्न समझने लगते हैं । यह साधारणतः निश्चित रूपेण कहा जाता है कि एक समूह के बालक दूसरे समूह के बालकों के साथ सामान्य रूप से खेलते हैं क्योंकि वे भेदभाव करने में असमर्थ होते हैं । अतः यह कहा जाता है कि जैसे – जैसे बच्चों की आयु बढ़ती है , वे भेदभाव करने में अधिकाधिक सक्षम होते जाते हैं तथा इस प्रकार से दूसरे बच्चों के प्रति उनका व्यवहार भिन्न हो जाता है । इस विचार से यह धारणा बनती है कि दूसरे समूहों के प्रति विरोध की भावना प्राकृत है लेकिन संवेदी अनुभव की अपरिपक्वता के कारण विरोध की इस भावना के विकसित होने में समय लगता है ।

क्लार्क तथा क्लार्क ( 5 ) ने इस प्राक्कल्पना की जांच के लिए एक बड़ा रोचक परीक्षण किया । उन्होंने 3 से 7 वर्ष तक की आयु के 233 नीग्रो बच्चों को लिया और उन्हें 4 गुड़ियाएं दीं जिनमें से दो भूरे रंग तथा काले बालों वाली थीं और दो श्वेत रंग तथा पीले बालों वाली थीं । परीक्षणकर्ता ने बच्चों से कहा कि वे उसे उस गुड़िया को दें जो श्वेत बच्चे की तरह लगती है और वह गुड़िया जो अश्वेत बच्चे की तरह दिखाई देती हों । तीन वर्षीय आयु के बच्चों में से 86 % पांच वर्ष की आयु के बच्चों में से 93 % तथा 7 वर्ष की आयु के बच्चों में से 100 % बच्चों ने वांछित गुड़ियाएं सही रूप में दीं । इस प्रकार , 3 वर्ष के बच्चे भी ठीक प्रकार से रंग – भेद कर सके तथा उपयुक्त उत्तर दे सके । बच्चे प्रत्यक्ष ज्ञानात्मक रूप से , श्वेत बालकों तथा नीग्रो बालकों में अंतर बतला सकते हैं । फिर भी , इस आयु में उनमें किसी प्रकार की वरीयता , पूर्वग्रह या विरोध की भावनाएं नहीं आतीं । यह केवल तभी होता है जबकि वे बड़े होते हैं और क्योंकि उन्हें समाज में कुछ अनुभव प्राप्त होते हैं । इसलिए वे बहिःसमूहों के बच्चों से पूर्वग्रह रखने लगते हैं ।

 होरोविट्ज तथा होरोविट्ज ने दक्षिण प्रदेश के एक समुदाय के कुछ श्वेत बालकों का साक्षात्कार किया जिन्होंने बतलाया कि उन्हें नीग्रो बच्चों से उचित अन्तर न बरतने के कारण सजा मिली थी । इसी प्रकार , भारत में विभिन्न जाति समूहों और भिन्न – भिन्न मतावलंबी समूहों के बच्चों को माता – पिता द्वारा यह सिखाया जाता है कि वे समूह में व्याप्त सामाजिक प्रतिमानों के अनुसार ठीक प्रकार का व्यवहार अपनाएं । किसी हरिजन बालक के साथ जब कोई सवर्ण हिन्दू बालक खेलता है तो उसे कपड़े उतारने के लिए कहा जा सकता है तथा संभवतः उसे घर में घुसने से पहले नहाना भी पड़ सकता है । इसी प्रकार जो बालक आकस्मिक रूप से या जान – बूझकर किसी नाई से छू जाता है , उसे भी घर में घुसने से पहले नहाना पड़ सकता है । इस प्रकार माता – पिता समझाकर , धमकी देकर और वास्तविक दंड द्वारा अपने बच्चों में दूसरे समूह के प्रति पूर्वग्रहों का निर्माण करते हैं । इसका कारण वे सामाजिक प्रतिमान हैं , जो समूह में व्याप्त रहते हैं , जो माता या पिता अपने बच्चे में पूर्वग्रहों का निर्माण नहीं करता , वह स्वयं भी अपने समूह के दूसरे सदस्यों के विरोध का शिकार हो जाएगा ।

1.इसलिए वयस्क व्यक्ति को अपने समूह के सदस्यों से अपने आपको बचाने के लिए दूसरे समूहों के सदस्यों के प्रति सामाजिक प्रतिमान के अनुसार व्यवहार करना पड़ता है और अपने बच्चों से अपने सामाजिक प्रतिमानों के अनुसार व्यवहार कराना पड़ता है । इस प्रकार पूर्वग्रह से परिचित होने से बहुत पहले ही , बालक पूर्वग्रह का विकास कर लेता है , और चूंकि यह स्थिति उसके अपने समूह के सामाजिक प्रतिमान के अनुकूल होती है इसलिए इस प्रकार के व्यवहार को पूर्वग्रहीत व्यवहार कदापि नहीं समझता ।

( 2 ) हम श्वेत लोगों के समूहों की अश्वेत लोगों के समूहों के प्रति अभिरुचि में पर्याप्त अंतर देखते हैं । अभिवृत्ति – अध्ययनों तथा प्रेक्षणों से पता चला है कि फ्रांसीसी , स्केडिनेविअन तथा रूसी लोगों में अश्वेत लोगों के प्रति पूर्वग्रह की मात्रा बहुत थोड़ी होती है । इनके बाद अंग्रेजों का नंबर आता है । दक्षिणी प्रदेशों के अमरीकी लोगों में अश्वेत प्रजापतियों के प्रति पूर्वग्रह की भावना , अंग्रेजों की अपेक्षा अधिक रहती है ; दक्षिणी अफ्रीका में श्वेत लोग अश्वेत लोगों के प्रति अत्यधिक असहिष्णु होते हैं । वे अफ्रीका महाद्वीप में अपने निजी अस्तित्व के लिए उन्हें शंका की दृष्टि से देखते हैं । इसलिए उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में भिन्न – भिन्न प्रजातियों को पृथक् रखने के लिए प्रजाति – पार्थक्य कानूनों का निर्माण किया । इस प्रकार अश्वेत प्रजातियों के प्रति पूर्वग्रह की मात्रा राष्ट्री यता के साथ भिन्न – भिन्न होती है । दूसरे शब्दों में भिन्न – भिन्न सामाजिक प्रतिमानों के अनुसार पूर्वग्रह भिन्न – भिन्न होता है ।

 ( 3 ) इसके अतिरिक्त किसी समूह के सदस्यों में विभिन्न समूहों के सदस्यों के प्रति भेद करने की योग्यता में वैयक्तिक अंतर पाए जाते हैं । कुछ हिन्दू सदैव सचेत रहते हैं कि अमुक व्यक्ति मुसलमान है । इसी प्रकार से कुछ मुसलमान भी सदैव सचेत रहते हैं कि अमुक व्यक्ति हिन्दू है । दूसरी ओर , बहुत से हिन्दू दूसरे लोगों से मेलजोल करते समय उनके धर्म को महत्त्व नहीं देते । वे उन्हें केवल मानव प्राणी समझते हैं , किसी समूह विशेष का सदस्य नहीं मानते । हाल ही में आल्पोर्ट तथा क्रेमर ( 7 ) ने एक रोचक अध्ययन किया था । उन्होंने किसी विद्यालय के 200 पुरुष तथा महिला छात्रों को 20 चित्र दिखलाए जिनमें से आधे यहूदियों के थे तथा आधे गैर – यहूदियों के । इन छात्रों को इससे पूर्व , उनकी सामीवाद – विरोधी अभिवृत्ति को मापने के लिए एक जांच की गई थी । छात्रों से कहा गया था कि वे उन 20 चित्रों को यहूदियों तथा गैर यहूदियों के अनुसार वर्गीकृत करदें । प्रत्युत्तरों से पता चला कि जो छात्र सामी विरोधी थे उन्होंने यहदियों के बारे में उन छात्रों की अपेक्षा अधिक सही निर्णय दिए , जिनके पूर्वग्रह अपेक्षाकृत कम मात्रा में थे । इसलिए , सामी विरोधी व्यक्ति के लिए यहदियों के लक्षणों में भेद करना सीखना तथा उन्हें पहचानना बहुत आवश्यक है । अभिवृत्ति प्रत्यक्षज्ञान का संवलन करती है तथा प्रत्यक्ष ज्ञान अभिवृत्ति का संवलन करता है । जिस व्यक्ति की प्रवृत्ति पहले से ही सामीवाद विरोधी होती है वह बहुत ज्यादा अभिप्रेरित हो जाता है तथा लोगों को उसी अभिवत्ति की प्रसंग – परिधि में समझने लगता है । असामान्य व्यवहार में हमें इसी प्रकार की समानता दिखलाई पड़ती है । जैसाकि सभी जानते हैं कि ‘ धूल दुर्भीति ‘ वाला व्यक्ति जिस वस्तु के भी संपर्क में आता है वह उसकी स्वच्छता पर बहुत ज्यादा ध्यान देता है । इस प्रकार , पूर्वग्रहीत व्यक्ति तथा धूल – दुर्भीति वाला व्यक्ति , दोनों के दोनों कुछ परिस्थितियों या व्यक्तियों को भय की दृष्टि से देखते हैं और इसीलिए उस भय के विरुद्ध अपनी रक्षा करने के लिए उस भयोत्पादक परिस्थिति या व्यक्तियों को प्रत्यक्ष रूप से समझने का प्रयत्न करते हैं ।

( 4 ) विभिन्न जाति समूहों , प्रजाति समहोतथा राष्टीय समहों में शारीरिक लक्षणों की दृष्टि से प्रेक्षणीय अंतर दिखलाई पड़ते हैं । ये प्रेक्षणीय लक्षण बताए जाते हैं तथा इन पर जोर दिया जाता है । इससे भेद – भाव करने की क्रिया महत्त्वपूर्ण बन जाती है तथा मानवता की अंतःस्थ एकता उपेक्षित कर दी जाती है । भारत में इन शारीरिक लक्षणों के अंतर से भी अधिक , हम वस्तुतः विभिन्न जाति तथा मतानुयायी समूहों में कुछ सांस्कृतिक व्यवहारों द्वारा भेदभाव की नीति को बढ़ावा देते हैं । उदाहरणार्थ , हिन्दुओं तथा मुसलमानों की पोशाक भिन्न भिन्न होती है । इसी भांति हिन्दुओं में भी विभिन्न जातियां भिन्न – भिन्न प्रकार की पोशाक पहनती है । हिन्दुओं में भिन्न – भिन्न संप्रदायों के लोग कुछ खास प्रकार के तिलक भी लगाते हैं – जैसे वैष्णव तथा शैव मतावलंबी । इस प्रकार शारीरिक लक्षणों के अन्तरों के अतिरिक्त वेशभूषा और सज्जा में भी कुछ विशेष अन्तर घटित कर लेते हैं जो समूहों के अन्तरों को और बढ़ावा देते हैं । बच्चे इन अन्तरों को समझने लगते हैं । वे उन भेद – भावों के प्रति सामाजिक प्रतिमानों के अनुसार , उपयुक्त तरीके से क्रिया करना भी सीख लेते हैं । पुराने जमाने में , भिन्न प्रकार की पोशाक पहनना तथा भिन्न प्रकार की भाषा बोलना मुसलमान के हित में होता था क्योंकि इससे वह मुसलमान शासक से तदात्मीकरण कर सकता था तथा इस प्रकार से प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकता था । इससे दृढ़ अंतःसमूह भावनाओं तथा इस्लाम धर्म में परिवर्तित होने वाले विभिन्न लोगों में संसक्ति की भावना उत्पन्न हई । लेकिन ठीक उसी प्रकार के प्रत्यक्ष ज्ञानात्मक लक्षण , जो अन्तःसमूह भावनाओं को दृढ़ करते हैं , बहिःसमूह , भावनाओं को भी मजबूत करेंगे । यह कथन हिन्दुओं में पाए जाने वाले विभिन्न मतानुयायी समूहों पर लागू होता है । हम देखते हैं कि आज नगरीकरण , राष्ट्रीय विचारधारा के विकास आदि के साथ – साथ पोशाक के अन्तर तथा मुख पर विशेष प्रकार के चिह्नों द्वारा प्रकट होने वाला अन्तर व्यावहारिक रूप से समाप्त हो गया है । इसलिए किसी आदमी की पोशाक या उसके मुख पर लगे चिह्नों को देखने मात्र से उसकी जाति या उसके मत का पता नहीं लगाया जा सकता । इससे पूर्वग्रह में कमी आती है क्योंकि जब हम सामाजिक परस्पर क्रिया करते हैं तो हमें आपसी अन्तरों का पता नहीं होता ।

( 5 ) प्रथाओं तथा रहन – सहन के तरीकों में भिन्नता के कारण भी पूर्वग्रह उत्पन होते हैं । व्यापक रूप से , हिन्दुओं तथा मुसलमानों के रहन – सहन के तरीकों के अन्तर को उस समय बहुत ज्यादा तूल दिया गया जबकि कांग्रेस दल तथा मुस्लिम लीग दल में संघर्ष चल रहा था । इसका कारण यह था कि उस समय , सन् 1930 तथा 1940 के दौरान हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच लगातार बलवे हो रहे

 इस प्रकार , प्रत्येक समूह के बच्चे दूसरे समूहों के बच्चों और वयस्कों से भेद भाव रखना सीख लेते हैं । माता – पिता और दूसरे नेता लोग बच्चों को इस प्रकार के अन्तर का ज्ञान कराने तथा उपयुक्त रूप से प्रतिक्रिया करने में बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं । यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिए कि जब कोई समूह दूसरे समूह से भय का अनुभव करता है , तब पूर्वग्रह बढ़ जाता है । पूर्वग्रह समूह विशेष का सामाजिक प्रतिमान बन जाता है और सारे वयस्कों तथा बच्चों को इस सामाजिक प्रतिमान का पालन करना पड़ता है । यदि वे इन सामाजिक प्रतिमानों के अनुरूप नहीं चलते , तो उन्हें दंड दिया जाता है । अन्य कई कारणों में एक कारण यह भी है कि अल्पसख्यक समूह असुरक्षित अनुभव करते हैं तथा बहुसंख्यक समूह के विरुद्ध दृढ़ पूर्वग्रह अपना लेते हैं । अल्पसंख्यक ऐसे अवसर जुटाते हैं कि बहुसंख्यक उनके प्रति विरोध अपनाए । समस्या के सम्बन्ध में अधिक विवेचन अध्याय के किसी अन्य खंड में किया जाएगा । यह अवश्य अनुभव किया जाना चाहिए कि किसी समूह के विरुद्ध पूर्वग्रहीत होने की शिक्षा किसी समूह विशेष के सामाजिक प्रतिमानों के आभ्यन्तरीकरण पर निर्भर होती है । जब तक उस प्रकार के सामाजिक प्रतिमान जारी रहते हैं , तब तक समूह के बच्चे तथा वयस्क भी उसी ढंग का व्यवहार जारी रखेंगे ।

 हम जिस दृष्टि से दूसरे समूहों को देखते हैं या उनके प्रति अपनी अभिवृत्ति का निर्माण करते हैं , उस पर पूर्वग्रहों का प्रभाव पड़ता है । यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि दूसरे समूहों के साथ हमारे जो अनुभव होते हैं , उनसे हमारे पूर्वग्रहों को संवलन मिलेगा , तथा वे हमारे प्रत्यक्ष ज्ञान , विश्वासों एवं अभिवृत्तियों को प्रभावित करेंगे । अगले खंड में पूर्वग्रह के विभिन्न पहलुओं का अध्ययन करना लाभप्रद होगा । हम यहाँ उन मतों का विश्लेषण शुरू करेंगे जिन्हें हम किसी पूर्वग्रहीत समूह के बारे में बना लेते हैं तथा यह भी देखेंगे कि इन समूहों से संबंधित स्थिर रूप कौन – कौन से हैं एवं सामाजिक अन्तर कैसे बनते है । अंत में | हम उस क्रिया का अध्ययन करेंगे जो पूर्वग्रहीत समूह के प्रति की जा सकती है ।

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