पंचायती राज एवं लोकतान्त्रिक विकेन्द्रीकरण
( Panchayati Raj and Democratic Decentralization )
हालांकि पंचायत प्रणाली का अस्तित्व भारत में प्राचीन काल से है किन्तु निश्चित व स्पष्ट अर्थ , उद्देश्य , बजट , अधिकार , संगठन , नियमावली पर आधारित संस्था के रूप में पंचायतों का जैसा अस्तित्व स्वतन्त्र भारत में है वह पूर्व में कभी नहीं था । प्रापसी विवादों को पंच फैसला और पंच निर्णय के प्राधार पर सुलझाने की पद्धति देश में प्राचीन काल से चली आ रही है । पंच निर्णय को समाज में सम्मानपूर्वक स्वीकार किया जाता था ।
पंच परमेश्वर की सामाजिक मान्यता का एक अन्तनिहित प्रकार्य यह था कि एक साधारण व्यक्ति पच बनते ही परमेश्वर की समाज द्वारा स्थापित गरिमा से विलोकित हो असाधारण बन जाता था । जिससे वह पंच के रूप में अपने कर्तव्य के निर्वाह में साधारण मानवीय कमजोरियों को आड़े हाथ नहीं आने देता था । आधुनिक युग में पंचायतों का अधिकार कार्यक्षेत्र बहुत व्यापक हो गया है । इसका स्वरूप अधिकाधिक प्रौपचारिक व वैधानिक हुअा है ।
भारत में पंचायत लोकतन्त्रीय शासन व समाज व्यवस्था की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण संस्था है । न्यायिक अधिकार एवं कार्यों के सम्पादन के साथ कई अन्य और अधिक महत्त्वपूर्ण कार्य प्राज पंचायतों के हाथ में हैं । नीति एवं नियमों का निर्धारण तथा क्रियान्वयन अपने अधिकार क्षेत्र में करारोपण , एवं कर वसूली तथा सामान्य प्रशासन से लेकर लोगों के सामाजिक एवं आर्थिक विकास का उत्तरदायित्व प्राज पंचायतों के ऊपर है | राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान नेताओं ने स्वतन्त्रोत्तर भारतीय शासन व समाज व्यवस्था में बुनियादी संस्थानों को अाधुनिक कलेवर में पुनर्जीवित करने के बारे में सोचा था । किन्तु स्वतन्त्रता के उपरान्त भारतीय समाज का जो मूल मसौदा तैयार किया गया उसमें पंचायतों का उल्लेख नहीं था । संविधान की मसौदा समिति के अध्यक्ष डॉ . अम्बेडकर थे । वे राष्ट्रीय व प्रान्तीय स्तर से नीचे पंचायती शासन प्रणाली को उपयोगी नहीं समझते थे । उनकी आशंका थी कि नीचे के स्तर पर पंचायतें सामाजिक न्याय , प्रशासन तथा आर्थिक विकास की प्रभावकारी माध्यम बनने की तुलना में शक्तिशाली लोगों के हाथों की कठपुतली के रूप में सामाजिक विद्वेष एवं शोषण की साधन तथा राजनीतिक अखाड़ेबाजी का केन्द्र बन कर रह जाएँगी ।
महात्मा गाँधी का विचार अम्बेडकर के विचार के विपरीत था । गांधी की मान्यता थी कि जब तक पंचायतों के माध्यम से लोकतन्त्र को भारत के लाखों गांवों तक पहुँचाया नहीं जाता तब तक शासन व विकास कार्यों में न तो आम आदमी की भागेदारी हो सकेगी और न ही लोकतन्त्र वास्तविक भारतीय समाज में स्थापित हो सकेगा । अपने युग में गांधी भारतीय जनमानस व लोकतन्त्र का तिनिधित्व करते थे जिनके दबाव के फलस्वरूप संविधान के नीति निर्देशक सिद्धान्त के अन्तर्गत प्रावधान या गया कि राज्य सरकारें अपने क्षेत्र में पंचायतों के गठन के लिए आवश्यक कदम उठाएं जिससे कि जायते स्वशासन की इकाइयों के रूप में कार्य कर सकें । तदनुसार जनवरी , 1957 तक प्रायः सभी राज्यों में पंचायत कानून पारित हो गए और कुछ ही माह में भारत के 70 प्रतिशत से अधिक गांवों में पंचायतों का गठन किया गया ।
पंचायती राज्य लोकतान्त्रिक विकेन्द्रीकरण के सिद्धान्त पर आधारित एक ऐसी शासन यवस्था है जिसमें विभिन्न स्तरों पर सत्ता व शासन सत्र जनता के बने हुए प्रतिनिधियों के हाथ में होता है । वृहत् अर्थ में पंचायती राज्य व्यवस्था लोकतान्त्रिक शासन की पंच स्तरीय व्यवस्था का प्रतिनिधित्व करती है जबकि सीमित अर्थ में यह एक त्रिस्तरीय स्वशासन प्रणाली है । पंच स्तरीय व्यवस्था के छोर बिन्दु गाँव एवं केन्द्र हैं जबकि त्रिस्तरीय प्रणाली के गांव एवं जिला हैं ।
बलवन्त राव मेहता समिति ( 1959 ) की सिफारिशों के प्राधार पर त्रिस्तरीय पंचायती व्यवस्था को लगभग पूरे देश में राष्ट्रीय पुननिर्माण एवं विकास कार्यों में जनता का सहयोग और भागेदारी बढ़ाने के उद्देश्य से लागू किया गया । हालांकि ग्राम स्तर पर सभी राज्यों में पंचायतों का गठन प्रत्यक्ष चुनाव के माध्यम से होता है किन्तु खण्ड ( कहीं – कहीं तालुक ) एवं जिला स्तर पर पंचायतों के गठन में विभिन्न राज्यों में थोड़ी बहुत भिन्नता रही है ।
पंचायती राज व्यवस्था का मूल तत्व यह है कि विकास की योजना की प्रक्रिया का प्रारम्भ गाँव से किया जाए । ग्रामवासियों को विकास कार्यों में भागीदार बनाया जाए जिससे ग्रामीण विकास और सामुदायिक विकास संगठन व कार्यक्रम सरकारी उपक्रम व कार्यक्रम न रह कर जनता के कार्यक्रम बन सकें ।
तृतीय पंचवर्षीय योजना में पंचायती राज्य के मुख्य उद्देश्य निम्न – निरूपित किए गए ( क ) कृषि उत्पादन में वृद्धि । ( ख ) ग्रामीण उद्योग का विकास । ES ( ग ) सहकारी संस्थानों के गठन में प्रगति । ( घ ) स्थानीय मानव शक्ति , संसाधन तथा भौतिक व आर्थिक स्रोतों का अधिकाधिक उपयोग । ( ङ ) सत्ता का वितरण तथा ऐच्छिक संगठनों को महत्त्व । ( च ) ग्रामीण समुदाय में आपसी सहयोग में वृद्धि तथा स्व – निर्मरता की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन ।
पंचायती राज संस्थाओं का संगठन
लोकतान्त्रिक विकेन्द्रीकरण की दिशा में पंचायती राज की त्रिस्तरीय व्यवस्था के अन्तर्गत अब राज्य में गांव स्तर पर ग्राम सभा , ग्राम पंचायत तथा न्याय पंचायते , खण्ड स्तर पर पंचायत समिति तथा जिला स्तर पर जिला परिषद् की स्थापना की गई है । । 1ग्राम स्तर पर – पंचायती राज व्यवस्था के अन्तगत गांव पंचायत सबसे महत्वपर्याइकाई है । विभिन्न राज्यों में इनके स्वरूप में बहत कम भिन्नता है तथा गाँव पंचायतों का संगठन बहत बड़ी सीमा तक सन 1961 से पर्व उत्तर प्रदेश में प्रचलित गवि पवायता के स्वरूप से ही सम्बद्ध चतुर्दिक विकास के लिए गांव पंचायतें तीन मुख्य इकाइयों में विभाजित की गई हैं जिन्हें
- ग्राम सभा
- ग्राम पंचायत , तथा
- न्याय पंचायत कहा जाता है ।
यह विभाग ऊपर से एक सी पृथक प्रतीत होने पर भी व्यावहारिक रूप से एक दूसर क पूरक पार सहयोगी है । इन तीनों विभाग संगठन एवं कार्य प्रणाली को निम्नांकित रूप से स्पष्ट किया जा सकता है । ।
ग्राम सभा – प्रारम्भ में एक हजार की जनसंख्या वाले प्रत्येक ग्रामीण क्षेत्र में सभा का गठन किया जाता था , परन्तु पंचायतों के दूसरप्राम चुनाव में यह अनुभव किया गया प्राकार की गाँव – सभा जन – साधारण के लिए अधिक उपयोगी नहा है । इसके फलस्वरूप नवीन व्यवस्था के अन्तर्गत यदि एक गाँव की जनसंख्या कम से कम 250 है तो वहाँ एक गांव – सभा की स्थापना की जा सकती है । एक गाँव की जनसंख्या इससे कम होने पर एक से अधिक गांवों को मिलाकर एक ग्राम – सभा की स्थापना की जाती है । ऐसी स्थिति में यह ध्यान रखना आवश्यक होता है कि ये गाँव एक दूसरे से अधिक दूरी पर स्थित न हों और उनके बीच कोई नदी , नाला या इसी प्रकार की अन्य प्राकृतिक बाधा न हो ।
ग्राम सभा की सदस्यता ऐच्छिक होती है । 21 वर्ष का प्रत्येक स्त्री – पुरुष ग्राम सभा का सदस्य हो सकता है लेकिन कोई भी ऐसा व्यक्ति ग्राम सभा का सदस्य नहीं हो सकता जो कोढ़ी , पागल , दिवालिया अथवा दण्ड प्राप्त हो । ग्राम सभा की एक वर्ष में दो सामान्य बैठकें होती हैं – एक खरीफ की फसल कटने के पश्चात् और दूसरी रबी की फसल के बाद । पहली बैठक में गांव सभा के समक्ष वर्ष भर का बजट रखा जाता है जबकि दूसरी बैठक में आय – व्यय के हिसाब की जांच – पड़ताल की जाती है । इन वैठकों की अध्यक्षता ग्राम सभा का सभापति अथवा ‘ प्रधान ‘ करता है । नवीन संशोधनों के अनुसार गाँव सभा के प्रधान का निर्वाचन गुप्त मतदान प्रणाली के द्वारा होता है और उसका कार्यकाल 5 वर्ष का होता है . यद्यपि उसके विरुद्ध मतों से अविश्वास का प्रस्ताव भी पास किया जा सकता है । पंचायत की वास्तविक सत्ता ग्राम सभा की सहमति होना आवश्यक है । यही कारण है कि पंचायती राज व्यवस्था के ग्राम स्तर पर ग्राम सभा को सबसे महत्त्वपूर्ण इकाई के रूप में देखा जाता है ।
ग्राम पंचायत प्रत्येक ग्राम सभा की एक कार्यकारिणी होती है जिसे हम ग्राम पंचायत कहते हैं । ग्राम सभा का प्रधान ही ग्राम पंचायत का भी प्रधान होता है । प्रत्येक ग्राम सभा के सदस्यों की संख्या के प्राधार पर ग्राम पंचायत के सदस्यों का निर्धारण होता है । इन सभी सदस्यों का निर्वाचन ग्राम सभा के सदस्यों द्वारा किया जाता है । बाद में गांव पंचायत के सभी सदस्य ग्राम पंचायत के उपप्रधान का चुनाव करते हैं । सन् 1961 के पूर्व तक ग्राम पंचायत के प्रधान का चुनाव प्रत्यक्ष मतदान प्रणाली द्वारा किया जाता था , लेकिन सन् 1977 से प्रधान तथा उप – प्रधान का निर्वाचन गुप्त मतदान प्रणाली के द्वारा सम्पन्न किया जाने लगा है । प्रधान की भांति उप – प्रधान का कार्य काल भी 5 वर्ष का होता है । गत् आम चुनाव में ग्राम पंचायत के 6 , 62 , 725 सदस्यों का निर्वाचन हग्रा जिनमें से 3 , 59 , 600 सदस्य निर्विरोध चुने गए ।
यह स्थिति बहुत बड़ी सीमा तक इस तथ्य को स्पष्ट करती है कि ग्राम पंचायतों के चुनाव में दलगत राजनीति का प्रभाव आज अन्य निर्वाचनों की अपेक्षा कम है । प्रत्येक ग्राम पंचायत में सदस्यों की संख्या कितनी होगी इसे निम्नांकित तालिका के आधार पर समझा जा सकता है । गाँव की जनसंख्या ग्राम पंचायत की सदस्य संख्या 1 . 500 तक की जनसंख्या पर ol 2 . 500 से 1000 तक की जनसंख्या पर 3 . 1000 से 2000 तक की जनसंख्या पर 11 4 . 2000 से 3000 तक की जनसंख्या पर – 53000 से अधिक की जनसंख्या पर 15 ग्राम पंचायत के सदस्यों के रूप में अनुसूचित जाति के व्यक्तियों के लिए पदों का आरक्षण भी किया जाता है । एक गाँव सभा क्षेत्र में अनुसूचित जाति के लोगों की जनसंख्या के अनुपात में ही ग्राम पंचायत की सदस्य संख्या में उनका अनुपात निर्धारित होता है । ग्राम पंचायतें ग्रामीण स्तर पर विकास कार्यक्रमों के क्रियान्वयन का सबसे महत्त्वपूर्ण माध्यम हैं । पंचायतों द्वारा विकास कार्यक्रमों के लिए न केवल स्वयं एक कोष का निर्माण किया जाता है बल्कि इन पंचायतों को सरकार द्वारा भी विशेष अनुदान प्रदान किए जाते हैं ।
न्याय पंचायत न्याय पंचायत ग्रामीण स्तर पर इस संगठन से सम्बन्धित तीसरी प्रमुख संस्था है जिसका कार्य स्थानीय प्राधार पर ग्रामीण विवादों का निपटारा करके ग्रामीणों को सस्ता न्याय प्रदान करना है । साधारणतया 8 से 12 ग्राम पंचायतों को मिलाकर एक न्याय पंचायत गठित जाती है । प्रत्येक न्याय पंचायत में जितनी ग्राम सभाएं पाती हैं . सर्वप्रथम ऐसी प्रत्येक ग्राम सभा से पंच जिलाधीश द्वारा मनोनीत कर लिए जाते हैं । इसके पश्चात् भी यदि एक न्याय – पचायत के क्षेत्र याम सभाएं सम्मिलित की जाती है तो न्याय पंचायत के सदस्यों की संख्या 12 न होकर 15 रखी जिससे सभी पंचों को 5 – 5 पचों की तीन बेंचों में विभाजित किया जा सके । इसका तात्पर्य है न्याय पंचायत के सदस्यों की संख्या इस प्रकार निर्धारित की जाती है जिससे सभी पंचों को 5 – 5 सदस्यों की बेंवों में विभाजित किया जा सके ।
न्याय पंचायत के पचों का मनोनयन हो जाने के पश्चात् क माह के अन्दर जिलाधीश द्वारा निर्धारित समय व स्थान पर एकत्रित होकर इन पंचों द्वारा अपने में से ही दो व्यक्तियों को सरपंच तथा सहायक सरपंच के रूप में निर्वाचित कर लिया जाता है । न्याय पंचायत के इन सभी पदाधिकारियों का कार्यकाल भी ग्राम पंचायत की भांति 5 वर्ष का होता है । उत्तर प्रदेश में इस समय 8 , 791 न्याय पंचायतें कार्य कर रही हैं । न्याय पंचायतें ग्रामीणों के लिए सस्ता न्याय प्रदान करने के क्षेत्र में अवश्य महत्वपूर्ण हैं , लेकिन उनका अधिकार – क्षेत्र अत्यधिक सीमित है । वे न तो किसी को कारावास का दण्ड दे सकती हैं और न ही किसी को 500 रुपये से अधिक का प्रायिक दण्ड दे सकती हैं । न्याय पंचायतों को कानूनी जटिलता से बचाने के लिए किसी भी वकील को अभियुक्त की पैरवी करने की अनुमति नहीं दी जाती । इन पंचायतों की कार्य सम्बन्धी तत्परता का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि सन् 1978 में उत्तर प्रदेश की न्याय पंचायतों के सामने कूल 24 , 017 मुकदमें निर्णय देने हेतु प्राप्त हुए जिनमें से उसी वर्ष 18 , 762 मुकदमों में फैसले दे दिए गए । इनमें से लगभग मुकदमें पारस्परिक समझौते के द्वारा सुलझा दिए गए ।
. पंचायत समिति – उत्तर प्रदेश में पंचायती राज की त्रि – स्तरीय व्यवस्था के अन्तर्गत सन् 1961 से विकास खण्ड स्तर पर पंचायत समितियों का गठन किया गया । ‘ पंचायत समिति एवं जिला – परिषद् अधिनियम में दी गई व्यवस्था के अनुसार 10 या इससे अधिक न्याय पंचायतों के क्षेत्र में एक पंचायत समिति का गठन किया गया । इस समय प्रदेश में कुल 876 पंचायत समितियाँ कार्य कर रही हैं । पंचायत समिति में एक प्रमुख तथा दो उप – प्रमुख ( जिसमें एक ज्येष्ठ उप – प्रमुख तथा एक कनिष्ठ उप – प्रमुख ) होने के साथ ही अनेक अन्य सदस्य होते हैं । विकास खण्ड में स्थित सभी ग्राम सभायों के प्रधान , सभी टाउन एरिया कमेटियों के चेयरमैन , नोटीफायड एरिया कमेटियों के अध्यक्ष , विकास खण्ड में स्थित सरकारी समितियों के कम से कम दो तथा अधिक से अधिक पाँच प्रतिनिधि तथा उस क्षेत्र के लोकसभा और विधान सभा के सदस्य पंचायत समिति के सदस्य होते हैं । इसके अतिरिक्त कम से कम 5 महिलाओं तथा अनुसूचित जातियों के 8 व्यक्तियों को भी इस समिति की सदस्यता प्रदान की जाती है । विकास खण्ड के क्षेत्र में कोई भी वह व्यक्ति , जिसका नाम विधानसभा के लिए होने वाले चार की मतदाता सूची में सम्मिलित हो , इस पंचायत समिति के प्रमुख ‘ के पद के लिए खड़ा हो सकता ऐसे व्यक्ति की प्रायू 30 वर्ष या इससे अधिक होना आवश्यक है । पंचायत समिति के प्रमख तथा स मान मतदान प्रणाली से उन व्यक्तियों के द्वारा किया जाता है जो पंचायत समिति के सदस्य होते हैं । पंचायत समिति के पदाधिकारियों का कार्यकाल भी 5 वर्ष का होता प्रमुख तथा उप – प्रमुख के विरुद्ध 2 / 3 के बहुमत – से कभी भी अविश्वास प्रस्ताव पारित व्यवस्था है ।
प्रत्येक जिले में एक – एक जिला अन्तर्गत विभिन्न पंचायत समितियों के अन्तर्गत आने लोकतान्त्रिक विकेन्द्रीकरण की महत्त्वपूर्ण संस्था है । इस समय प्रदेश के प्रत्येक जिले परिषद् की स्थापना की गई है तथा एक जिले के अन्तर्गत विभिन्न पंचायत समिती वाला सम्पूर्ण क्षेत्र जिला परिषद् का कार्य क्षेत्र होता है । उत्तर प्रदेश में इस जिला परिषद के सदस्यों की कोई निश्चित संख्या सभी पंचायत समितियों के प्रमुख तथा राज्य सरकार के द्वारा निर्धारित नहीं है ।
जिले के अन्तर्गत सभी पंचायत समितियों के प्रमख निर्धारित संख्या के अनुसार पंचायत समितियों द्वारा अपने में से चुने गए कुछ व्यक्ति इसके सदस्य होते हैं । इसके अतिरिक्त जिले में स्थित सभी नगरपालिकामों के अध्यक्ष , सहकारी समितियों के नियमानुसार चुने हए 3 से 5 तक प्रतिनिधि , जिले में किसी सामाजिक संस्था से सम्बद्ध तथा राज्य सरकार द्वारा मनोनीत व्यक्ति एवं राज्य सरकार द्वारा निर्धारित संख्या के अनुसार वयस्क मताधिकार के आधार पर तूने हए व्यक्ति भी जिला परिषद के सदस्य होते हैं । सम्बन्धित जिले के लोकसभा तथा विधान सभा के सदस्यों एवं उस जिले के राज्य सभा और विधान परिषद् में प्रतिनिधित्व करने वाले सदस्य भी जिला परिषद् के सदस्य होते हैं ।
प्रत्येक जिला परिषद में कम से कम 5 महिलाओं एवं 5 से 10 के बीच अनुसूचित जाति के प्रतिनिधियों का होना आवश्यक है । उपयुक्त श्रेणियों में से ऐसे प्रतिनिधियों की संख्या में जितनी कमी रह जाती है , उसे अतिरिक्त व्यक्तियों का नामांकन करके पूरा किया जाता है । प्रत्येक जिला परिषद् का एक अध्यक्ष तथा एक उपाध्यक्ष होता है जिनका निर्वाचन गुप्त मतदान प्रणाली द्वारा किया जाता है । कोई भी वह व्यक्ति जो कम से कम 30 वर्ष की प्रायु का हो तथा कानुन के अनसार किसी पद के लिए प्रत्याशी बनने के लिए अयोग्य न हो , वह जिला परिषद् के लिए अध्यक्ष पद का उम्मीदवार हो सकता है । जिला परिषद् तथा उपके पदाधिकारियों का कार्यकाल भी 5 वर्ष का है यद्यपि राज्य सरकार को यह अधिकार है कि वह इस कार्यकाल को अधिक से अधिक एक वर्ष के लिए बढा सके ।
जिला परिषद् अपने क्षेत्र में सड़कों के निर्माण पुलियों के निर्माण और मरम्मत , वृक्षारोपण . अस्पतालों तथा पशु – गृहों की व्यवस्था एवं निरीक्षण , भवनों आदि का निर्माण जैसे महत्त्वपूर्ण कार्य करती है । जनपद में प्राइमरी तथा जूनियर हाई स्कूल स्तर की शिक्षा – संस्थाएं कार्य करती हैं । जनपद में प्राइमरी तथा जुनियर हाई स्कूल स्तर की शिक्षा – संस्थाएं खोलना तथा उनमें शिक्षकों की नियुक्ति करना जिला परिषद् का ही कार्य है ।
जिला परिषद् को स्वतन्त्र रूप से भी कुछ कर लगाने के अधिकार प्राप्त हैं लेकिन उनकी प्राय का मुख्य स्रोत राज्य से प्राप्त होने वाले अनुदान हैं । इस प्रकार स्पष्ट होता है कि जनपद स्तर पर जिला परिषद् लोकतान्त्रिक विकेन्द्रीकरण की वह प्रमुख इकाई है जिसके माध्यम से विकास कार्यों का क्रियान्वयन करने का प्रयत्न किया जाता है । ग्रामीण पुननिर्माण में पंचायतों के कार्य अथवा महत्त्व का पंचायती राज व्यवस्था के अन्तर्गत गाँव पंचायत , पंचायत समिति तथा जिला परिषद समान रूप से महत्त्वपूर्ण हैं तथा एक दूसरे के पूरक हैं ।
इसके पश्चात भी यदि इन विभिन्न इकाइयों के महत्त्व को तुलनात्मक दृष्टिकोण से ज्ञात किया जाए तो स्पष्ट होता है कि इन सभी इकाइयों में ग्राम पंचायत का महत्त्व सबसे अधिक है । ग्राम पंचायत न केवल गाँव में स्वस्थ नेतृत्व का विकास करने का प्रयत्न करती है बल्कि इसी के माध्यम से एक ऐसी लोकतान्त्रिक व्यवस्था सम्भव हो पाती है जिसमें शासन का प्रवाह नीचे से ऊपर की ओर होता है ।
ग्राम पंचायतें ही वह माध्यम हैं जिनके द्वारा स्थानीय यावश्यकताओं के अनुसार योजनाओं के निर्माण के लिए सुझाव दिए जाते हैं तथा उन योजनाओं के कार्यान्वयन को प्रभावपूर्ण बनाया जाता है । भारत गांवों का देश है , अतः जब तक विभिन्न विकास कार्यक्रमों में ग्रामीणों का सहभाग प्राप्त नहीं होता तब तक योजनाओं की सफलता की सम्भावना नहीं की जा सकती । सम्भवतः इसी दृष्टिकोण से गाँधी जी ने कहा था ‘ यदि भारत की जनता के लिए का कोई अर्थ है तो प्रारम्भिक संस्था के रूप में ग्राम पंचायतों के विकास को सबसे अधिक देना होगा ।
इस संदर्भ में श्री ढेबर ने यह स्पष्ट किया है कि ” पंचायतें केवल ग्रामीण विकास की ही नहीं बल्कि सम्पण भारत के विकास की धुरी है । भारत में गांव पंचायतों का महत्त्व इसी तथ्य से स्पष्ट हो जाता है कि गाँव पंचायत छोटे से छोटे प्रत्येक स्थान पर ग्रामीणों को जनतन्त्र की शिक्षा देने तथा उन्हें अपना विकास स्वय कारने का प्रशिक्षण देने वाला सबसे प्रभावपूर्ण माध्यम है । इनमें ग्रामीण गणतन्त्र के सभी गुण विद्यमान हैं । वास्तव में ग्रामीण जीवन के लिए ग्राम पंचायतें जो महत्त्वपूर्ण कार्य कर सकती हैं वह किसी भी अन्य संगठन द्वारा सम्भव नहीं है । विभिन्न क्षेत्रों में ग्राम पंचायतों के महत्व को हम उनके द्वारा किए जाने वाले अग्रांकित कार्यों के सन्दर्भ में सरलतापूर्वक स्पष्ट कर सकते हैं
सार्वजनिक कल्याण में गाँव पंचायतों का महत्त्व ग्रामीण क्षेत्रों में सार्वजनिक कल्याण – कार्य की वहत कमी है । प्रत्येक स्थान पर स्वास्थ्य का स्तर बहुत निम्न है । ग्रामों में गन्दगी , संक्रामक रोगों , पीने के स्वच्छ पानी की कमी , स्वस्थ मनोरंजन का अभाव तथा परिवहन की असुविधा प्रादि विशेष समस्याएं हैं । पंचायतें सार्वजनिक क्षेत्र में निम्नांकित अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य करके ग्रामीण पुननिर्माण में सहायक सिद्ध हुई हैं
सार्वजनिक स्वास्थ्य में सुधार – स्वास्थ्य के स्तर को गिराने वाली सभी समस्याओं को गाँव – पचायत की सहायता से ही सलझाया जा सकता है । इसके द्वारा ग्रामीण जीवन का आवश्यक जानकारी रखी जाती है और स्वास्थ्य के क्षेत्र में व्यक्तियों के लिए आवश्यक सुविधाएं जुटाई जाती हैं ।
रोगों की चिकित्सा – यह कार्य ग्राम – पंचायतों के द्वारा अधिक सरलता से किया जा सकता है । अधिकतर बीमारियाँ संक्रामक होती हैं । उनके फैलते ही तत्काल कार्यवाही करना प्रावश्यक है । स्थानीय संगठन होने के कारण यह कार्य ग्राम – पंचायतों के द्वारा शीघ्र ही किया जा सकता है ।
स्वच्छता का प्रबन्ध – अधिकांश ग्रामीणों के शिक्षित न होने के कारण वे साधारणतया स्वच्छता के प्रति अधिक जागरुक नहीं होते । इसके फलस्वरूप उनके स्वास्थ्य का स्तर निम्म ही रहता है । गाँव – पंचायतें ग्रामीणों से केवल स्वच्छता की अपील ही नहीं करतीं बल्कि उन्हें नालियाँ बनाने और ढके हुए खाद के गड्ढे बनाने का प्रशिक्षण भी देती हैं । सभी ग्रामीणों से गाँव – पंचायतों का प्रत्यय सम्बन्ध होने के कारण यह भी कार्य सरलतापूर्वक हो जाता है ।
यातायात के विकास में सहायक – ग्रामीण जीवन के पिछड़े होने का एक प्रमुख कारण यातायात के साधनों में कमी होना है । गांव – पचायतें सड़कों की मरम्मत करवाकर , रोशनी का प्रबन्ध करके और नई सड़कें बनवाकर इस कमी को पूरा करती हैं । राजस्थान सरकार ने अब ‘ काम के बदले अनाज कार्यक्रम ‘ के अन्तर्गत गांवों में स्थायी सामुदायिक सम्पत्ति का निर्माण करने के लिए ग्राम पंचायतों को अधिक प्राथमिकता दी है । अब गाँव – पंचायतें पांच हजार रुपये तक की लागत के काम को स्वयं करवा सकती हैं । इसके पूर्व गाँव – पंचायतें केवल दो हजार रुपये तक के व्यय से ही योजनाएं क्रियान्वित कर सकती थी ।
स्वच्छ पानी की व्यवस्था – गाँव में अधिकतर बीमारियाँ गन्दे पानी को पीने के फलस्वरूप उत्पन्न होती हैं । पंचायतें गाँव के कुत्रों में लाल दवा डलवाकर , तालाबों को स्वच्छ रखकर तथा जल – प्रपातों को सुरक्षित रखकर पीने के पानी की व्यवस्था करती हैं । इससे ग्रामीण अनेक बीमारियों से बच जाते हैं ।
मनोरंजन का प्रबन्ध – ग्रामीण जीवन में मनोरंजन का अत्यधिक महत्व है । करिना साह थोडे – से मनोरंजन से ही ग्रामीणों में नए उत्साह और शक्ति का संचार हो सकता है । गाँव – पंचायतें मेलों , प्रदर्शनियों , प्राकाशवाणी के कार्यक्रमों तथा खेल – कूद की व्यवस्था कर अधिकारी की सहायता से चलचित्रों का प्रायोजन करके ग्रामीणों को मनोरंजन की विश कभी कल्याण अधिकारी की सहायता से चलचित्रों का ग्रायो सुविधाएँ प्रदान करती हैं । प्राकृतिक प्रकोपों में सहायता – ग्रामीणों के जीवन में अकाल बनी रहती है । अपने सीमित साधनों के कारण ग्रामीण इनका सामना महामारियों की आशंका सदैव बनी रहती है । अपने ही पाकतिक विपत्तियों के समय ग्रामीणों की प्राथिक सहायता करती अकेले नहीं कर पाते ।
गाँव – पंचायत प्राकृतिक विपत्तियों के समय रखने के लिए उन्हें विभिन्न प्रकार से प्रोत्साहित करती हैं । हैं और उनका मनोबल ऊँचा रखने के लिए उन्हें विभिन्न आथिक जीवन में गाँव पंचायतों का महत्त्व जायतें निम्नांकित कार्य करके ग्रामीणों की प्राथिक दशा में धार दशा में सुधार करने का भी महत्त्वपूर्ण कार्य करती हैं
उद्योग धन्धों का विकासमा जाधों का विकास ग्रामीण जीवन को उन्नत करने में यद्यपि खेती का मस्त योगों का विकास करने से ग्रामीणों की आर्थिक दशा में बहुत सुधार हो सकता सबसे अधिक है है । गाँव – पंचायतें सहयोग के आधार पर छोटे – छोटे उद्योगों को स्थापित करने में सहायता देती हैं और ग्रामीणों को नए – नए लघु व कुटीर उद्योगों की जानकारी देने का भी प्रयास करती हैं ।
पशुओं की नस्ल में सुधार – ग्रामीण जीवन में पशनों का महत्त्व आधारभूत है , लेकिन भारतीय पशुनों की संख्या संसार में सबसे अधिक होने पर भी उसकी नस्ल सबसे खराब है । गांव पचायतें नए केन्द्र स्थापित करके पशुओं की नस्ल सुधारने तथा उन्हें अनेक बीमारियों से बचाने का महत्त्वपूर्ण कार्य करती हैं ।
सिंचाई की सुविधाएं हमारे देश की कृषि आज भी बहुत बड़ी सीमा तक वर्षा पर निर्भर है । गाँव – पंचायतें सार्वजनिक कुनों , तालाबों और सिंचाई करने वाली नालियों का निर्माण करके और उनकी मरम्मत करवाकर सिंचाई की अधिकाधिक सुविधाएं प्रदान करती हैं ।
भूमिहीन मजदूरों की सहायता – भारतीय ग्रामों में ग्राज भी लाखों किसान भूमि पर केवल मजदूर के रूप में कार्य करते हैं । गांव – पंचायतें समस्त भूमि का उचित प्रबन्ध करके कुछ भूमि को ऐसे मरदूरों में बाँटने की व्यवस्था कर सकती है जिनके पास अपनी कोई भूमि नहीं होती तथा जिन्हें वर्ष के प्राधे से अधिक समय तक बेकार रहना पड़ता है । पंचायती राज व्यवस्था को प्रभावशाली बनाने के लिए गठित प्रशोक मेहता समिति ने इस मुझाव पर विशेष बल दिया है कि गांवों में भूमिहीन कृषकों एवं कमजोर वर्गों के समुचित विकास के लिए ग्राम पंचायत स्तर पर ही प्रयत्न किए जाना चाहिए ।
सहकारी समितियों का विकास – ग्रामीणों की आर्थिक स्थिति को सहकारी खेती और सहकारी समितियों के द्वारा बहुत बड़ी सीमा तक सुधारा जा सकता है । सहकारी समितियों की सफलता सरकारी प्रयत्नों के अतिरिक्त पंचायतों के प्रयत्नों पर भी निर्भर है । र्गाव – पंचायतें ऐसी समितियों के लाभों का ग्रामीणों में सरलतापूर्वक प्रचार करके उन्हें सहकारिता में हिस्सा लेने के लिए प्रोत्साहित कारती हैं ।
सामाजिक जीवन में गाँव पंचायतों का महत्त्व गाँव – पंचायतें निम्नांकित सामाजिक कार्यों के द्वारा भी ग्रामीण उन्नति में सहायक होती हैं
शिक्षा का प्रसार – अधिकांश ग्रामीण आज भी बिल्कुल अशिक्षित हैं , इस कारण उनका सामाजिक जीवन बहुत पिछडा हुया है । गांव – पंचायतें गांवों में प्राथमिक शिक्षा के अतिरिक्त प्रौढ शिक्षा का प्रबन्ध करके ग्रामीणों की उन्नति में सहायक सिद्ध हई हैं ।
बन्धुपा मजदूरों की सहायता – हमारे देश में सन् 1976 से बंधुपा मजदूरों को शोषण से मुक्ति दिलाने के लिए जो देशव्यापी अान्दोलन प्रारम्भ हमा , इसकी सफलता भी गाँव – पंचायतों के प्रयत्नों पर ही निर्भर है । गाँव – पंचायतें अपने क्षेत्र के बंधूया मजदूरों की सूचना सरकार को देती हैं और इस कार्य के द्वारा गांव के सामाजिक जीवन को अधिक स्वस्थ बनाने का प्रयास करती हैं ।
समाज सुधार कार्य – ग्रामीण समाज की अनेक कुप्रथाएँ , जैसे – – पर्दा था , अस्पृश्यता , बाल – विवाह और विधवा विवाह पर रोक , आदि समस्याएँ ग्रामीण उन्नति में बाधक हैं । ग्राम पंचायतें इन कुप्रथानों को समाप्त करने में अत्यधिक सहयोगी सिद्ध हो सकती हैं । इन प्रथानों के विरुद्ध व्यक्तियों को तैयार करना ग्राम – पंचायत के लिए अपेक्षाकृत सरल कार्य हो सकता है ।
मातृत्व तथा बाल कल्याण की सुविधाएँ – मातानों तथा शिश्यों का स्वास्थ्य राष्ट्रीय व सामाजिक हित के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है । अनेक अन्ध – विश्वासों के कारण कुछ समय पहले तक भारत में प्रतिवर्ष लगभग दो लाख मातानों की मृत्यु बच्चे के जन्म के समय हो जाती थी । प्रसूति तथा चिकित्सा सुविधाओं के माध्यम से मातानों तथा बच्चों के जीवन को स्वस्थ बनाने में पंचायतें बहुत अधिक कार्य कर सकती हैं । कुछ पंचायतों ने इस दिशा में महत्त्वपूर्ण कार्य किए भी हैं ।
मादक द्रव्यों के उपयोग पर रोक – गाँव में शराब और दूसरे प्रकार की मादक वस्तुयों के प्रयोग को रोकना ग्रामीण जनता के लिए बहुत आवश्यक है । गाँवों में आज भी त्यौहारों व उत्सवों पर ऐसी वस्तुओं का प्रयोग बहुत अधिक मात्रा में किया जाता है । इससे धन का अपव्यय तथा नैतिकपतन दोनों ही होते हैं । मद्यनिषेद्ध के वर्तमान कानुन के बाद भी ग्राम पंचायतें इस बराई को रोकने में बहत सफल हो सकती हैं क्योंकि गाँव पंचायत के सदस्यों का ग्रामीणों से निकट का सम्पर्क रहता है ।
राजनीतिक जीवन में पंचायतों का महत्त्व ग्रामीण नेतृत्व की दिशा में गाँव पंचायतों के योगदान को प्राज सभी व्यक्ति स्वीकार करते हैं । पंचायतें ये कार्य अनेक प्रकार से करती हैं । उदाहरण के लिए —
( क ) ग्रामीणों को मतदान का अर्थ समझाकर ,
( ख ) प्रजातन्त्र में उन्हें उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका से परिचित कराकर ,
( ग ) नागरिकता की शिक्षा देकर ,
( घ ) शासन में योगदान देने के तरीकों से परिचित कराकर ,
( च ) ग्रामीणों को सस्ता और शीघ्र न्याय देकर तथा
( छ ) अपनी समस्याएं स्वयं ही हल करने का प्रशिक्षण देकर गाँव पंचायतों ने स्वस्थ ग्रामीण नेतृत्व को प्रोत्साहन दिया है । पंचायती राज संगठन से ग्रामीगा राजनीतिक जीवन में तो रुचि लेना सीखते ही हैं , साथ ही वे यह भी जान लेते हैं कि प्रजातन्त्र के युग में उन्हें अपने मत का उपयोग किस प्रकार करना चाहिए ।
भटनागर ने अपने अध्ययन के आधार पर यह तथ्य स्पष्ट किया है कि पंचायती राज व्यवस्था के फलस्वरूप पिछले एक दशक से ग्रामीण समाज में परिवर्तन स्पष्ट होने लगा है । ग्रामीणों में अब पर्याप्त जागरुकता आ गई है जिसके फलस्वरूप परम्परागत अभिजात वर्ग का राजनीतिक प्रभुत्व कम हया है । ग्रामीण अपने मताधिकार एवं शक्ति के प्रति भी सचेत हो गए हैं । जिन क्षेत्रों में पहले परम्परागत नेतृत्व बिना चुनाव के स्थापित हो जाता था , वहाँ अब चुनाव होना आवश्यक हो गया है । पंचायतों ने मुकदमों तथा स्थानीय विवादों का निपटारा करके भी राजनीतिक क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण कार्य किया है । गांव पंचायतों की कार्य – प्रणाली से ही ग्रामीण लोग शासन के प्रारम्भिक सिद्धान्तों को सीखते हैं और इन्हीं संगठनों में रहकर वे प्रजातन्त्र के लिए आवश्यक योग्यता प्राप्त करते हैं । वास्तव में , पंचायती राज संगठन एक सामाजिक राजनीतिक व्यवस्था होने के बाद भी सम्पूर्ण गाँव को एक संयुक्त परिवार के रूप में संगठित करता है । गाँव सभा का प्रधान संयुक्त परिवार के कर्ता के समान है जो सभी सदस्यों को विकास के समान अवसर प्रदान करता है ।
पंचायती राज संस्थाओं का सामान्य कार्य संचालन – एक मूल्यांकन
इन संस्थानों के कार्य – संचालन और उपलब्धियों से सम्बन्धित पिछले कुछ वर्षों में अनेक अध्ययत हुए हैं जिनमें से प्रमुख इस प्रकार हैं – इनामदार द्वारा महाराष्ट्र में किये गए एक अध्ययन से ज्ञात होता है कि परिपक्वता प्राप्त करने में पंचायत को समय लगता है और अधिकांश पंचायतों की प्रकृति प्रजातन्त्रात्मक एवं मन्त्रणात्मक है ।
राजस्थान में इकबाल नारायण और माथुर द्वारा किये गए एक अध्ययन से प्रकट होता है कि शक्ति गुट पंचायती राज संस्थाओं में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं । इस अध्ययन से यह भी निष्कर्ष निकाला गया है कि ग्राम सभा को पंचायत के कार्य – संचालन की रचनात्मक पालोचना हेतु एक प्रभावशाली मंच के रूप में अभी उभरना है । यह भी पाया गया है कि ग्राम सभा के प्रति लोगों में उत्साह की कमी थी ।
इस प्रकार का निष्कर्ष इनामदार तथा पंचनन्दीकर व पंचनन्दीकर ने अपने अध्ययनों के आधार पर निकाला है । आन्ध्र प्रदेश में किए गए अपने अध्ययन के आधार पर ईश्वरराव ने बताया है कि पंचायती राज की स्थापना ने गाँवों की सामाजिक व्यवस्था को परिवर्तित किया है । अब लोगों ने विकास कार्यों में भाग लेना प्रारम्भ कर दिया है और शक्ति संरचना में परिवर्तन पाया है । बी . एस . खन्ना के पंचायती राज के प्रभावों का मूल्यांकन करते हुए । बताया है कि अब ग्रामीण लोग अपनी समस्या के सम्बन्ध में अधिक बोलने लगे हैं , अपनी मांगों के सम्बन्ध में अधिक जोर देने लगे हैं और प्रशासन की कमियों तथा कार्यक्रमों की क्रियान्वयन सम्बन्धी असफलताओं के सम्बन्ध में अालोचना करने लगे हैं । पंजाब के दो जिलों के अध्ययन के आधार पर बी . एस . खन्ना ने बताया है कि शिक्षित और विवेकपूर्ण नेतत्व ने अधिकारियों एवं गैरशासकीय लोगों के बीच अच्छे सम्बन्ध बनाए रखने में योग दिया है । लोगों की विकास कार्यों में अधिकाधिक रुचि बढ़ती जा रही है और राजनीतिक दल भी ग्रामीण क्षेत्रों में अपने कार्यों के विस्तार हेतु काफी इच्छुक है । देहली के निकट पंचायत समितियों पर अधिकांशतः प्रभावशाली लोगों का नियन्त्रण है ।
पंचायती राज को समस्याएं
( Problems of Panchayati Raj )
पंचायती राज संस्थानों से सम्बन्धित अनेक ऐसी समस्याएँ हैं जो इनके सफलतापूर्वक कार्य – संचालन में बाधक हैं । जब तक इन समस्पानों का सही परिप्रेक्ष्य में अध्ययन करके निराकरण नहीं किया जाता , तब तक इन संस्थानों के माध्यम से ग्रामीण पुननिर्माण का कार्य अधूरा ही रहेगा । पंचायती राज की कुछ समस्याएं इस प्रकार हैं
पंचायती राज से सम्बद्ध सरकारी एवं गैर – सरकारी सदस्यों में तनावपूर्ण संबंध पाये जाते हैं । सरकारी अधिकारी जो पहले काफी शक्ति – सम्पन्न थे , अब भी बदली हई परिस्थितियों में सत्ता छोड़ना नहीं चाहते । जहाँ गैर – सरकारी कार्यकर्तामों में सत्ता व उत्तरदायित्व के प्राप्त होने से उत्साह है , वहीं सरकारी अधिकारियों में उनकी प्रशासकीय शक्ति में कमी आने से असन्तोष और कार्य के प्रति उदासीनता है । इन दोनों ही प्रकार के लोगों की एक दूसरे के प्रति बनी पूर्वधारणानों ने ग्रामीण पुननिर्माण के कार्य में बाधा पहुँचाई है । इनमें एक दूसरे के प्रति सन्देह तथा प्रविश्वास पाया जाता है ।
पंचायती राज से सम्बन्धित एक अन्य समस्या वित्तीय साधनों का अभाव है । देखा यह गया है कि जिन योजनाओं के लिए राज्य सरकार से धन – राशि प्राप्त हो जाती है , उनके क्रियान्वयन के सम्बन्ध में तो जनता में रुचि पाई जाती है और शेष के प्रति रुचि का अभाव , साथ ही पंचायती राज से सम्बन्धित संस्थाएँ स्थानीय साधनों से धन जुटाने के उद्देश्य में भी पूर्णत सफल नहीं हुई हैं । पंचाय एवं पंचायत समितियाँ जनता के विरोध के भय से कर लगाने से घबराती हैं । ऐसी स्थिति में उन्हें सरकार द्वारा प्राप्त धन पर ही निर्भर रहना पड़ता है । परिणाम यह होता है कि विकास की गति धीमी रहती कास कार्यों के संचालन के लिए पंचायत समितियों को पर्याप्त साधन उपलब्ध नहीं कराये गए हैं । इनकी कर लगाने की शक्ति भी बहुत ही सीमित हैं ।
पंचायती राज संस्थानों के लिए चुने गए नेताओं में से अधिकांश को साधारणतः जन प्राप्त होता है । ये अक्सर अपने परम्परागत गौत्र , नाते – रिश्तेदारों तथा संयक्त . . अपनी जाति का समर्थन प्राप्त होता है । ये अक्सर अपने परम्परागत परिवारों के विस्तत सम्बन्धों के आधार पर चुनाव म विजय प्राप्त कर पाते हैं । ऐसी स्थितिमा वादी बना रहता है और इनसे आमूल – चूल परिवर्तनों की आशा नहीं की जा सकती । किस ने बताया है कि परम्परागत पंचायतों के समाप्त हो जाने के पश्चात नोनिष्ठ समूहों का विकास हुआ है । ऐसे समूहों को आपने ‘ धड़े ‘ के नाम – दलबन्दी को प्रोत्साहित करते हैं । पंचायती राज संस्थानों के चुनावों में राजनीतिक
दलों के भाग लेने से भी ग्रामीण क्षेत्रों में दलबन्दी बही है । परिणाम यह हया कि एक जातिका दूसरी जाति के साथ संघर्ष पाया जाता है और यहाँ तक कि एक जाति में विरोधी घड़े दिखलाई पड़ते हैं । ग्रामीण सामुदायिक जीवन में इस प्रकार का तनावपूर्ण वातावरण पंचायती राज संस्थानों के सफलतापूर्वक कार्य – संचालन में बाधक है । कई प्रकार देखा यह जाता है कि इन संस्थानों के सदस्य अपनी जाति , गौत्र , परिवार , मित्र – समूह तथा अपने राजनीतिक दल विशेष से सम्बन्धित लोगों के स्वार्थों की पूर्ति में लग जाते हैं और ग्रामों के सर्वागीण विकास का लक्ष्य अपूर्ण ही रह जाता है ।
यह भी देखा जाता है कि ग्रामीण क्षेत्रों में अनेक योग्य व्यक्ति , पंच , सरपंच , प्रधान अथवा अध्यक्ष पद के दायित्व को सम्भालना दलगत राजनीति के कारण पसन्द नहीं करते । कई व्यक्तियों में इन संस्थानों की सदस्यता ग्रहण करने के पश्चात् भी इनके कार्यों के प्रति रुचि का अभाव पाया जाता है । योग्य और ध्येयनिष्ठ व्यक्तियों का प्रभाव भी पंचायती राज संस्थाओं के कार्य – संचालन में बाधक है । कुछ सदस्य तो इन संस्थानों को अपने व्यक्तिगत स्वार्थों की पति का माध्यम बना लेते हैं । परिणाम यह होता है कि जनता में ऐसी संस्थानों के प्रति अरुचि उत्पन्न हो जाती है ।
पंचायती राज व्यवस्था के अन्तर्गत ग्राम सभा को शक्तिशाली बनाने का प्रयास नहीं किया गया है । इसकी वर्ष में एक या दो बार बैठकों की व्यवस्था मात्र से विभिन्न विकास कार्यक्रमों के प्रति जनता में रुचि और जनसहयोग के लिए तत्परता उत्पन्न नहीं की जा सकती । परिणाम यह हुया कि ग्रामीण पूननिर्माण सम्बन्धी योजनाओं में आशात्रों के अनुरूप जनसहयोग प्राप्त न हो सका ।
विकास खण्ड – स्तर पर विभिन्न कार्यकत्तानों में जिस प्रकार के समन्वय की व्यवस्था की गई है , उस प्रकार की व्यवस्था जिला स्तर के कार्यकर्तामों में नहीं की गई है । परिणाम यह हुआ कि विभिन्न विकास विभागों के जिला स्तर के अधिकारी किसी भी पंचायती राज संस्था के तहत अपने कार्यों में समन्वय नहीं करते । साथ ही जिला स्तर पर बनी जिला परिषद के प्रमुख या अध्यक्ष का जिला स्तर के कर्मचारियों पर भी कोई नियन्त्रण नहीं पाया जाता । ऐसी स्थिति में ग्रामीण क्षेत्रों में तेजी से परिवर्तन लाने और विकास कार्यों में परिवर्तन लाने और विकास कार्यों को गति प्रदान का कार्य अधूरा ही रह जाता है ।
सफलता के लिए सुझाव
( Solutions for Success )
अशोक मेहता समिति ने अपने प्रतिवेदन में पंचायती राज व्यवस्था का मूल्यांकन इसके विकास की तीन अवस्थानों के आधार पर किया है – प्रथम , प्रभुत्व की अवस्था जो सन् 1959 से 1964 तक विद्यमान रही ; द्वितीय , निष्क्रियता या स्थिरता की अवस्था जो सन 1965 से 1967 तक पाई गई : तृतीय , अवनति की अवस्था जो 1969 से 1977 तक विद्यमान रही । पंचायती राज व्यवस्था की इन तीनों अवस्थानों का अध्ययन करने से यह स्पष्ट होता है कि सन् 1959 से 1977 तक का पंचायती राज व्यवस्था का इतिहास चढ़ाव और उतार का इतिहास रहा है ।
प्रारम्भिक अवस्था में पंचायती राज का कार्य अत्यधिक सन्तोषजनक था , दूसरे स्तर पर यह एक निविक्रय संस्था बन गई जबकि तीसरी अवस्था में इसकी अवनति होने लगी । इस प्रकार वर्तमान समय में पंचायती राज के सैद्धान्तिक पक्ष से सहमत होते हुए भी इसके व्यावहारिक स्वरूप में कुछ परिवर्तन आवश्यक हैं जिनके धावार पर इस व्यवस्था को ग्रामीण विकास का एक प्रभावपूर्ण माध्यम बनाया जा सके । शाज पंचायतों की ग्राम में वृद्धि करके ही इन्हें जन – सामान्य के लिए उपयोगी बनाया जा सकता है । प्राधिक स्थिति में सुधार करने के लिए प्रावश्यक है कि पंचायतों के अधिकारों में वृद्धि की जाए तथा अनुदान के रूप में उन्हें दी जाने वाली आर्थिक सहायता की राशि में वृद्धि की जाए ।
इसके अतिरिक्त सरकार को विभिन्न ग्रामीण क्षेत्रों और वहां की समस्यायों का वास्तविक ज्ञान तभी प्राप्त हो सकेगा जबकि पंचायती राज व्यवस्था के विभिन्न स्तरों पर निर्वाचित व्यक्ति एक सीमा तक शिक्षित अवश्य हों । कम से कम ग्राम पंचायत , पंचायत समिति तथा जिला परिषद के प्रधान और उप – प्रधान पद के प्रत्याशियों के लिए एक न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता का निर्धारित होना आवश्यक है । इसके अतिरिक्त निम्नांकित सुझावों के आधार पर भी पंचायती राज व्यवस्था को अधिक उपयोगी बनाया जा सकता है
ग्राम पंचायतों के विकास को प्रोत्साहन अवश्य मिलना चाहिए लेकिन साथ ही ग्रामीणों में पंचायत की कार्य – पद्धति को समझने के प्रति रुचि उत्पन्न करना भी आवश्यक है । यह कार्य प्रशिक्षण शिविर लगा कर पूर्ण किया जा सकता है ।
) पंचायती राज व्यवस्था की विभिन्न इकाइयाँ केवल शासन की इकाई के रूप में ही कार्य न करें बल्कि उन्हें मुख्य रूप से सामाजिक और आर्थिक विकास से सम्बन्धित होना चाहिए ।
यह आवश्यक प्रतीत होता है कि पंचायती राज संस्थानों को अपनी प्रार्थिक स्थिति में सुधार करने के लिए अधिक से अधिक अधिकार प्रदान किए जाएँ लेकिन साथ ही यह भी प्रावश्यक है कि इन संस्थाओं के साधनों का उपयोग केवल कृषि के विकास एवं उत्पादक कार्यों के लिए ही किया जाए ।
पंचायती राज व्यवस्था को राजनीतिक दलवन्दी से पूर्णतया पृथक् रखना आवश्यक है । इसके लिए आवश्यक है कि त्रि – स्तरीय व्यवस्था के किसी भी स्तर पर कोई भी प्रत्याशी किसी राजनीतिक दल के रूप में चुनाव न लड़े । यह और भी अधिक लाभप्रद होगा यदि चुनाव की प्रक्रिया को समाप्त करके क्षेत्रों के सांसदों तथा विधायकों के द्वारा गाँव के अनुभवी और सम्मानित व्यक्तियों के नाम राज्य सरकार के पास मनोनयन के लिए भेजे जायें ।
यदि चुनाव की व्यवस्था प्रजातान्त्रिक आधार पर प्रावश्यक ही समझी जाए तो यह आवश्यक है कि चुनाव में भाग लेने वाला प्रत्याशी उस गाँव का कम से कम पिछले 10 वर्षों से स्थायी निवासी अवश्य हो । पंचायती राज व्यवस्था के विभिन्न स्तरों पर चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशी के लिए न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता अवश्य निर्धारित होना चाहिए जिससे निर्वाचित हो जाने के बाद वह अपने पद से सम्बन्धित दायित्वों का भली – भांति निर्वाह कर सके ।
पंचायती राज व्यवस्था के पदाधिकारियों के कार्यों को देख – भाल के लिए एक पृथक मल्यांकन दल अथवा अध्ययन दल नियुक्त किया जाना चाहिए तथा उसी की संस्तुति के आधार पर विभिन्न स्तरों की पंचायती संस्थाओं को अनुदान दिया जाना चाहिए ।
) अन्त में , पंचायती राज व्यवस्था की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि छोटी – छोटी पंचायतों को समवित निर्देश देने के लिए 10 या 15 पंचायतों के ऊपर एक क्षेत्रीय पंचायत की स्थापना की जा । क्षेत्रीय पचायत में श्राचे सदस्य विभिन्न पंचायतो से मनोनीत होना चाहिए तथा माघे सदस्य पदेन सरकारी हो सकते हैं