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नियोजित परिवर्तन – दिशाएँ तथा प्रमुख कार्यक्रम

नियोजित परिवर्तन – दिशाएँ तथा प्रमुख कार्यक्रम

 ( Planned Changes – Directions and Major Schemes )

भारतीय समाज में गतिशीलता की प्रक्रिया प्रारम्भ से ही तीव्र रही है । परिणामस्वरूप भारतीय समाज में परिवर्तन प्रारम्भ से हो रहा है । यदि भारतीय समाज में विभिन्न ऐतिहासिक स्तरों पर देखा जाए तो परिवर्तन का प्रभाव स्पष्ट हष्टिगोचर होता है । युद्ध और प्राकृतिक आपदानों ने सदैव समाज की व्यवस्था को प्रभावित किया है । इनके सन्दर्भ में सामाजिक व्यवस्था कमजोर हुई है और पुनः संगठित हुई है और इस प्रकार विभिन्न परिवर्तनों के सन्दर्भ में गतिशील होते हुए भारतीय समाज ने संरचनात्मक विशेषतानों को बनाए रखा है ।

परिवर्तनों की वर्तमान गति , और व्यापकता तथा पश्चिमी समाजों में प्रा रहे तीव्र गति के परिवर्तनों से कभी – कभी यह भ्रम उत्पन्न हो जाता है कि भारतीय समाज में परिवर्तन नहीं पा रहे हैं । जिन सामाजिक मूल्यों और व्यवहारों में परिवर्तन के प्रयास किए जा रहे हैं उनमें अपेक्षित परिवर्तन पाने में देरी से भी यह संशय उत्पन्न हो जाता है । वास्तव में भारतीय समाज परिवर्तन की आन्तरिक और बाहरी शक्तियों से आन्दोलित है ।

डॉ . योगेन्द्र सिंह का कथन है कि ” परम्परागत समाज में बिना किसी प्रकार के आधुनिकीकरण के अनेक सामाजिक परिवर्तन आए । लेकिन इनसे किसी प्रकार की आधुनिकता को जन्म नहीं मिला । ” ब्रिटिश शासन काल से पूर्व भारतवर्ष में जाति – व्यवस्था के विरोध में ‘ बुद्धबाद और जैनवाद ‘ जैसे प्रान्दोलन प्रारम्भ हुए । इन्होंने जातियों की तरह के नवीन समूहों को जन्म दिया तो कालान्तर में जाकर जातीय व्यवस्था के ही अंग बन गए । इन आन्दोलनों ने देश के राजनीतिक और आर्थिक जीवन को प्रभावित किया । प्रार्य समाज , ब्रह्म – समाज जैसे अान्दोलनों ने भारतीय विचारधारा और जीवन को प्रभावित किया लेकिन इन आन्दोलनों ने भारतीय समाज व्यवस्था और परम्परागों के सन्दर्भ में ही परिवर्तन लाने का प्रयास किया और धीरे – धीरे हिन्दूवाद की महान् परम्परानों के अंग बन गए ।

मुसलमानों के प्रभाव से भी भारतीय संस्कृति धर्म , परम्पराएँ , कला इत्यादि प्रभावित हुए हैं । वर्तमान परिवर्तन और उसके विरोधियों को समझने के लिए ब्रिटिश शासनकाल में हुए परिवर्तनों से परिचित होना आवश्यक है । क्योंकि आधुनिक नियोजित परिवर्तनों का प्रादुर्भाव इसके पश्चात् ही हुा । ब्रिटिश शासन की स्थापना से देश को भौगोलिक एकता मिली । प्रशासन की सुविधा के लिए डाक – तार व्यवस्था , रेल एवं सड़क परिवहन , समान प्रशासनिक और न्यायिक व्यवस्था ने एकता का नवीन आधार दिया । इससे क्षेत्रीय एवं जातीय विषमताएँ कमजोर हो गई । इस बाहरी एकता का प्रभाव राष्ट्रीयता की भावना को बनाने में काफी सहायक सिद्ध हुआ ।

भारतीयों को अंग्रेजी भाषा की सुविधा ने उन्हें अपने अधिकारों और राष्ट्र के प्रति कर्तव्यों के प्रति सजग किया । 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई और देश के विचारकों को एक राजनीतिक संघ मिला । महात्मा गाँधी के नेतृत्व में स्वराज्य का आन्दोलन चला और धीरे – धीरे एक ‘ अभिजात्य वर्ग ‘ निर्मित हा जिसने देश की राष्ट्रीय चेतना और आन्दोलन को आगे बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की । इन्हीं नेताओं के विभिन्न विचार प्रागे चलकर राष्ट्रीय पुननिर्माण के कार्यक्रमों में परिणित हुए । ये नवनेता उद्देश्यपूर्ण परिवर्तन के पहले अग्रदूत थे ।

इन्होंने यह महसूस किया कि राष्ट्रीय परिवर्तन के कार्यक्रमों में देश की जनता का सहयोग लेना अनिवार्य है । इन्होंने विभिन्न माध्यमों के द्वारा अपने विचारों को जनता में फैलाया । इनके विचारों के प्रभाव , संवाद संचार एवं परिवहन के साधन तथा न्याय और प्रशासन के नवीन मापदण्डों ने लोगों में सामाजिक परिवर्तन की तीव्र इच्छा जाग्रत कर दी । कुछ लोग क्रान्ति द्वारा स्वराज्य लाने के पक्ष में थे कुछ अहिंसा द्वारा । परिवर्तन के इन विचारों को और प्रोत्साहन ‘ समाजवाद ‘ की विचारधारा को स्वीकार कर लेने से मिला ।

इस प्रकार समाजवादी विचारधारा तथा गाँधीजी के विचार सामाजिक परिवर्तन के प्राधार बने । 15 अगस्त , 1947 को देश आजाद हया और इस प्रकार , स्वतन्त्रता के पश्चात् देश प्रार्थिक , राजनीतिक शैक्षणिक तथा धार्मिक सभी दृष्टियों से अत्यन्त कमजोर हो गया था । योजनावद्ध परिवर्तन । का प्रयास स्वतन्त्रता के पश्चात् ही भारत में प्रारम्भ हपा ।

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 नियोजन की आवश्यकता

( Need for Planning )

स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत की आर्थिक व्यवस्था अत्यन्त कमजोर हो गई थी । तत्कालीन सरकार के सामने कम से कम समय में लोगों की अावश्यकतानों की पूर्ति के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं था । देश के नेताओं ने । जिन सामाजिक समस्याओं को पहचाना उन्हें दूर करने के लिए संगठित प्रयास करने प्रावश्यक थे । समाजवादी प्रकार की सामाजिक व्यवस्था का जो लक्ष्य । स्वीकार किया गया उसे प्राप्त करना आवश्यक था । प्रावश्यक परिवर्तनों के प्रभावदेश में राजनीतिक अस्थिरता उत्पन्न हो सकती थी । इन कारणों की वजह से शोजित परिवर्तन के प्रयासों की आवश्यकता को बल मिला । देश के साधन सीमित थे । इन सीमित साधनों के सन्दर्भ में समाज के सभी पक्षों में परिवर्तन जाना असम्भव नहीं था । इसलिए नियोजित परिवर्तन का लक्ष्य सीमित क्षेत्रों में अपेक्षित परिवर्तन लाना है ।

मुख्य रूप से नियोजित परिवर्तन के दो पायाम हैं – –

1 ) सामाजिक संरचना में परिवर्तन जिससे सामाजिक सम्बन्धों में परिवर्तन प्रा | सके

, ( 2 ) इष्टिकोण तथा मूल्यों में परिवर्तन ।

नियोजन के प्रभाव में देश का विकास पसन्तुलित प्राधार पर अवस्थित था । देश के उद्योग – धन्धे सीमित स्थानों पर केन्द्रित थे । विकास कार्यक्रमों का लाभ देश के सभी हिस्सों में नहीं पहुंच पा रहा था । व्यापार तथा प्राधिक शान्ति कुछ परिवार एवं समूहों के हाथों में केन्द्रित थी । कमजोर एवं पिछड़े वर्ग के शोषण की प्रक्रिया चाल थी । अधिकांश प्रार्थिक क्रियाओं का उद्देश्य तुरन्त व्यक्तिगत लाभ की मात्रा बढ़ाना था न कि देश की भावी व्यवस्था में कोई सुधार । प्रचलित उद्देश्य , नियम , तरीके संविधान में निहित प्रादौ तथा उद्देश्यों से मेल नहीं खाते थे । संविधान के निर्देशों के अनुसार व्यक्तियों के लिए जीवन की उचित परिस्थितियाँ , जीविका के अवसर , सामाजिक सुरक्षा , सामाजिक न्याय एवं समानता देने की जिम्मेदारी राष्ट्रीय सरकार ने ग्रहण की । इन परिस्थितियों में परिवर्तनों को किसी भी प्रकार प्रनिर्देशित नहीं छोड़ा जा सकता था । रूस में नियोजित परिवर्तन के प्रयासों ने इस दिशा में मनोबल को और ऊंचा उठाया ।

 नियोजन का अर्थ एवं परिभाषा

( Meaning and Definition of Planning )

सामाजिक नियोजन का प्राशय उन कार्यक्रमों को क्रियान्वित करना है जिनसे कि सामाजिक लक्ष्यों की अधिकतम पूति सम्भव हो सके । सामाजिक नियोजन , नियोजित अथवा निर्देशित परिवर्तन एक दूसरे की पर्यायवाची अवधारणाएँ हैं । प्रमुख अर्थशास्त्री एस . लारविन ने अपनी कृति ‘ टाइम फॉर प्लानिंग ‘ में कहा है कि ” सामान्य तौर पर ” नियोजन मानवीय शक्ति के एक विवेकसम्मत और वांछनीय साध्य को प्राप्त करने के लिए निर्देशित करने का एक प्रबुद्ध यायाम प्रयास है । प्रत्येक योजना कार्यवाही का एक कार्यक्रम होता है जिसमें दो प्रमुख तत्त्व – उद्देश्य एवं विधि होते हैं । ” गुन्नार मिरडल ने ‘ बियाण्ड दी वेलफेयर स्टेट ‘ नामक कृति में लिखा है । कि ” एक राष्ट्र को सरकार द्वारा आम तौर पर अन्य सामूहिक समुदायों की सहभागिता सहित भविष्य के विकास के लिए अधिक पूर्ण और तीव्र गति से वांछनीय साध्यों , जो कि राजनीतिक प्रक्रिया जैसे भी यह विकसित होती है , के द्वारा निर्णय किए जाते हैं , तक पहुँचने के लिए नियोजन अधिक तार्किक रूप से सार्वजनिक नीतियों को उचित सम्बन्ध में लाने का जागरूक प्रयत्न है । “

ग्रिफिन और इनास ने अपनी कृति ‘ प्लानिंग डेवलपमेंट में कहा है ” लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए नियोजन एक बेहतर साधन है और मानवीय क्रियायो की एक उद्देश्य पूर्ण दिशा है । उनका प्रागे कहना है कि प्रद्ध – विकसित देशों नियोजन आर्थिक , सामाजिक और राजनीतिक कार्यक्रमों के निर्माण और प्राधिकरण तक ही प्रतिबन्धित रहेगा । निर्माण में कार्यक्रम के उद्देश्यों या लक्ष्यों का निर्धारण सभी स्रोतों की संगणना आदि शामिल है और प्राधिकरण व योजना अभिकरण जिसके कन्धों पर नियोजन का उत्तरदायित्व होता है ।

भारत सरकार के योजना आयोग के अनुसार , ” वास्तविक रूप से प्रायोजन सुनिश्चित सामाजिक लक्ष्यों की दृष्टि से अधिकतम लाभ उठाने के लिए साधनों को संगठित कर प्रयोग करने की विधि है । “

श्री त्रिलोक सिंह ने लिखा है कि ” नियोजन के उद्देश्य आर्थिक एवं सामाजिक दोनों हैं और दोनों ही अन्तर्सम्बन्धित हैं . . . . . . . ” दूसरे शब्दों में नियोजन व्यापक अर्थों में सामाजिक परिवर्तन का एक साधन है । ” इस प्रकार स्पष्ट होता है कि नियोजन के अन्तर्गत दो तत्त्वों का समावेश होता है –

( 1 ) सुनिश्चित सामाजिक लक्ष्य जो सामाजिक मूल्यों पर आधारित होते हैं ,

( 2 ) उचित उपलब्ध साधनों का प्रयोग । नियोजन की उपयुक्त परिभाषाओं के आधार पर निम्नांकित विशेषताओं को ज्ञात किया जा सकता है

1 . नियोजन में किसी समाज अथवा उसके किसी भाग के परिवर्तन के लिए पूर्व – निर्धारित लक्ष्य होने चाहिए ।

2 . इन पूर्व – निर्धारित लक्ष्यों का निर्धारण प्राधिकरण के द्वारा होना चाहिए ।

3 . प्राधिकरण द्वारा सामाजिक नीतियों एवं अन्य सामाजिक निकायों से पथ – प्रदर्शन प्राप्त करके वांछनीय साधनों को प्राप्त करने के अभिप्राय से कार्यक्रमों का संचालन जागरूक प्रयत्नों के द्वारा किया जाना एवं । तेजी से सामाजिक विकास की ओर अग्रसर होना । हम देखते हैं कि नियोजित परिवर्तन मूलतः सामाजिक परिवर्तन की एक । ऐसी निर्देशित एवं ताकिक दिशा है जिसकी अोर एक समाज सोच – समझकर एव । अग्रसर होकर वांछित दशाओं , मूल्यों एवं सम्बन्धों को प्राप्त करने का सतत् प्रयास करता है ।

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 नियोजन के लिए आवश्यक दशाएँ

( Essential Conditions for Planning )

सामान्यतः नियोजित परिवर्तन के अनेक उद्देश्य होते हैं लेकिन मोटे तार पर उन्हें दो वर्गों में रखा जा सकता है – –

1 . समाज कल्याण ( Social Welfare ) एवं

2 . सामाजिक पुननिर्माण ( Social Reconstruction ) ।

भारतवर्ष में जो नियोजन चल रहा है उसके उद्देश्य भी समाज कल्याण सामाजिक पुननिर्माण ही रखे गए हैं । सामाजिक नियोजन की विधियों को म भागों में बाँट कर रखा जा सकता है जो निम्नांकित हैं

1 . समग्रवादी नियोजन विधि

( क ) तानाशाही नियोजन विधि ( ख ) साम्यवादी नियोजन विधि

2 . पूंजीवादी नियोजन विधि

3 . समाजवादी नियोजन विधि

 4 . प्रजातान्त्रिक नियोजन विधि

 5 . सर्वोदयी नियोजन विधि ।

भारत में जो नियोजन कार्यरत है उसे प्रजातान्त्रिक नियोजन कहा जा सकता है । नियोजित परिवर्तनों को लाने के लिए कुछ अनिवार्य दशानों का होना मावश्यक है । इसे सफल बनाने के लिए तथा नियोजित कार्यक्रमों को लागू करने के लिए एक केन्द्रीय सत्ता का होना आवश्यक है ताकि नियोजनात्मक कार्यों के लिए विभिन्न पक्षों को एक सूत्र में संगठित किया जा सके । बनियादी नीतियों के निर्माण के लिए भी केन्द्रीय शक्ति का होना आवश्यक है । नियोजित परिवर्तन नियन्त्रण के प्रभाव में हो ही नहीं सकता । यह नियन्त्रण समाजवादी देशों के समान हो सकता है जिसमें राज्य बिना किसी प्रतिवन्ध के देश के लिए योजनाओं का निर्माण करता है । कुछ सीमित व्यक्ति इसमें प्रभावशाली भूमिका अदा करते हैं । सामान्य जनता का इस पर कोई प्रतिबन्ध नहीं होता । तानाशाही सत्ता पर आधारित सामाजिक नियोजन लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए चलती हुई सामाजिक प्रक्रिया या गति को यकायक ठप्प करके समाज को नया मोड़ देना चाहते हैं । ऐसी दशा में शक्ति का अन्धाधुन्ध प्रयोग किया जाता है जिससे जनता की स्वतन्त्रता और मौलिक अधिकार समाप्त हो जाते हैं । मैनहाइम नियोजन की उस प्रणाली पर जोर देते हैं जिससे जनता की स्वतन्त्रता और मौलिक अधिकारों का हनन किए बिना व्यक्ति की चेतना तथा विचार परिवतिल और नियोजित हो जाएँ । नियोजन प्रक्रिया संवैधानिक और जनतान्त्रिक होनी चाहिए । मैनहाइम ने सर्वप्रथम प्रतिस्पर्धा को समाप्त करने पर बल दिया है । उसके पश्चात् नए मूल्यों के अनुरूप समाज और व्यक्तित्व के पुनर्गठन की योजना बनाई जानी चाहिए । नियोजन की प्रक्रिया में आर्थिक संरचना का भी पूनः निर्माण अपेक्षित है जिससे कि आथिक स्थायित्व उत्पन्न होकर इन उत्तेजनाओं पर काबू पा सके जो प्रात्म – चेतना को कुण्ठित करती है । अत : विचारों को जनतान्त्रिक मूल्यों में ढालना आवश्यक है । यह कार्य तानाशाही से नहीं अपितु किसी उदारवादी शिक्षा – व्यवस्था से ही सम्भव है । मार्क्सवादी दर्शन पर आधारित समाजवादी नियोजन केवल आर्थिक संरचना की प्रधान मानने के कारण एकांगी हो गया है । इसके स्थान पर मैनहाइम ने सामाजिक घटनामों के अनेक प्रायामों के स्वरूप पर बल दिया है । सामाजिक विकास के लिए वर्ग – संघर्ष द्वारा कुछ वर्गों और समूहों में मतैक्य स्थापित कर उचित है । इसे बहलक समाज ( प्लरल सोसाइटी ) कहा जाता है । जनता नियोजन का उद्देश्य बहलक – नियोजित समाज की स्थापना है । जनतन्त्रीय व्यवस्था में नियोजित परिवर्तन कई कारणों से उचित रहता है । जनतन्त्रीय व्यवस्था में विचार – विमर्श को प्रोत्साहन मिलता है । नीतियों को गावश्यकतानुसार परिवर्तित किया जा सकता है एवं विरोधी पक्षों का भी उचित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए रचनात्मक सहयोग लिया जा सकता है । बिना जनता के सहयोग के ये परिवर्तन सफल नहीं हो सकते ।

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 भारत में नियोजित परिवर्तन

( Planned Changes in India )

भारत में ब्रिटिश शासन की भारतीय अर्थव्यवस्था को बहुत अधिक नुकसान पहुंचा है । गरीबी , बेकारी , भुखमरी , अशिक्षा , बुरे स्वास्थ्य की दशाएँ , हरिजनों एवं जनजातियों की दुर्दशायें , जन्म – दरों और मृत्यु – दरों में वृद्धि , पराश्रयता , अपराध , प्रोद्योगिक कार्य में उचाटपन तथा असन्तोष आदि की सामाजिक – याथिक समस्यानों का साम्राज्य भारत में विस्तृत हुआ । इन सामाजिक – आर्थिक समस्याओं को चुनौतियों को प्राधुनिक भारत के राष्ट्र – निर्माताओं ने समझा और अंग्रेजी शासन काल में उन्होंने इनके निराकरण के लिए बीड़ा उठाया था ।

1934 में विश्वेश्वरैया ने अपनी कृति ‘ प्लान्ड इकानॉमी फॉर इण्डिया ‘ में सर्वप्रथम आर्थिक विकास के विचार का निरूपण किया । इसमें एक ऐसे स्वतन्त्र एवं प्रजातान्त्रिक समाज के निर्माण का स्वप्न देखा गया , जिसमें प्राथिक जीवन का संगठन सामाजिक न्याय के सिद्धान्तों पर प्राधारित होकर उच्च जीवन – स्तर प्राप्त करने के प्रयत्न किए जाएं । किन्तु उस समय एक तो द्वितीय विश्व – युद्ध और दूसरे इस योजना के प्रति अंग्रेजी शासन की उदासीनता के फलस्वरूप राष्ट्रवादियों की यह योजना व्यावहारिक रूप न ले सकी ।

भारत में स्वतन्त्रता के पश्चात् नियोजित सामाजिक परिवर्तन के विचार  को कार्यान्वित करने का प्रयास किया गया । 1950 के नवीन भारतीय संविधान । के नीति – निदेशक तत्त्वों में यह कहा गया है कि राज्य अपनी सम्पूर्ण शक्ति से एक । ऐसी सामाजिक व्यवस्था द्वारा जनता के कल्याण में वृद्धि करने का प्रयत्न करेगा , जिसमें राष्ट्रीय जीवन के सभी पक्षों को सामाजिक , आर्थिक और राजनीतिक न्याय प्राप्त होगा । सभी नागरिकों , स्त्रियों और पुरुषों को आजीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त करने का अधिकार होगा , विभिन्न वस्तुओं के स्वामित्व और नियन्त्रण का । इस प्रकार वितरण होगा , जिससे सामान्य हित में वृद्धि हो सके तथा प्राथिक । व्यवस्था का संचालन इस ढंग से किया जाएगा कि जिससे धन और उत्पत्ति शित साधन कुछ व्यक्तियों के हाथों में ही केन्द्रित न हो सकें । संविधान की इस निदास

सामाजिक नीति के कार्यान्वयन के हेतु मार्च , 1950 में पं . नेहरू की अध्यक्षता में योजना आयोग का गठन हुपा । नियोजित परिवर्तन के कार्यक्रमों का उद्देश्य सर्वांगीण भौतिक विकास तथा प्राधिक प्रगति है । प्रारम्भिक अवस्थामों में इसका प्रमुख लक्ष्य प्राथिक विकास रहा । यह विश्वास था कि पाथिक विकास की सफलता प्राथिक तथा सामाजिक संस्थानों को प्रभावित करेगी और इस प्रकार भावी परिवर्तन के लिए गति प्राप्त होगी । लेकिन शीघ्र ही यह महसूस किया गया कि प्रार्थिक व्यवस्था के पिछडेपन के कारण केवल याथिक या संस्थागत नहीं हैं बल्कि उसके पिछड़ेपन के लिए उत्तरदायी कारण मानवीय आकांक्षात्रों और प्रेरणाओं में निहित हैं । अतः योजना के कार्यक्रमों का झकाव प्रब आथिक के साथ – साथ प्रेरणाओं , दृष्टिकोणों तथा आकांक्षाओं में परिवर्तन की ओर हो गया । इस प्रकार मूल्यों तथा दृष्टिकोणों में परिवर्तन नियोजित परिवर्तन के महत्त्वपूर्ण लक्ष्य हो गए । अब वर्तमान नियोजित कार्यक्रमों का लक्ष्य केवल आर्थिक प्रगति ही नहीं है बल्कि समाज में सर्वांगीण परिवर्तन करना है । सर्वांगीण परिवर्तन लाने के लिए नगर , गाँव अथवा जनजातीय क्षेत्र की जनसंख्या की आवश्यकता के अनुसार नियोजन कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं ।

 भारत में नियोजन की प्रमुख पद्धतियां निम्नलिखित हैं

  सामाजिक विधानों का निर्माण ( Formation of Social Laws ) ,

  पंचवर्षीय योजना ( Five Year Plans ) ,

 सामूदायिक विकास योजनाएं ( Community Development Projects ) ,

  पंचायती राज योजना ( Panchayati Raj Yojna ) ,

  भूदान एवं ग्रामदान योजना ( Bhudan and Gramdan Plan ) ।

सामाजिक विधानों का निर्माण ( Formation of Social Laws ) भारतीय समाज परम्पराओं पर आधारित था । धर्म , जाति – पांति के नियम , रीति – रिवाज , व्यवहार और विचारों के मुख्य स्रोत थे । वैसे तो मुसलमान राजाओं ने भी अपनी सुविधानुसार कुछ कानूनों का निर्माण किया लेकिन संगठित रूप में कानूनों का निर्माण ब्रिटिश शासनकाल के प्रारम्भ में हुमा । ब्रिटिश शासनकाल में ‘ भूमि पर निजी स्वामित्व ‘ का अधिकार वैधानिक बनाया गया । इससे परम्परागत श्रेणी क्रम पर असर पड़ा । उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन अधिनियम , 1950 % ; राजस्थान भूमि – सुधार और जागीर अधिग्रहण अधिनियम , 1952 जिसे 1954 में संशोधित किया गया । सभी टाइटिल्स राज्य ने ग्रहण कर लिए । उत्तर प्रदेश अधिनियम ने सभी मध्यस्थों को भू – स्वामियों में बदल दिया । वर्तमान समय में भू – सीमा कानून द्वारा परिवार की संरचना एवं सम्बन्धों पर प्रभाव पड़ा है । सामाजिक क्षेत्र में सती – प्रथा निरोधक अधिनियम , 1929 ; हिन्दू स्त्रियों का सम्पत्ति में अधिकार अधिनियम 1937 ; हिन्दू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम ,1856 ; आदि प्रमुख थे । स्वतन्त्रता के पश्चात् और कुछ महत्त्वपूर्ण कानून बने जिनमें ‘ हिन्दू विवाह ‘ अधिनियम , 1955 ने एक – विवाह के आदर्श पर बल दिया और विवाह – विच्छेद की सुविधा दी । हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 , स्त्रियों का अनैतिक व्यापार निरोधक अधिनियम , 1956 ; अस्पृश्यता अपराध अधिनियम , 1955 ; दहेज निरोधक अधिनियम , 1961 ने सामाजिक जीवन में नवीन मूल्य एवं दृष्टिकोण लाने का प्रयास किया । इन सभी कानूनों का एवं अन्य बहुत – से इसी प्रकार के कानूनों का प्रभाव परम्परागत जाति – व्यवस्था , हिन्दू – विवाह , स्त्रियों की समाज में स्थिति तथा अस्पृश्य वर्गों के सामाजिक – स्तर पर पड़ा । उद्योग के क्षेत्र में वेतन , सामाजिक सुरक्षा , प्रौद्योगिक सम्बन्धों इत्यादि से सम्बन्धित कानून बने । इस प्रकार इन कानूनों द्वारा देश में नवीन सामाजिक मूल्यों की प्रतिस्थापना का प्रयास किया गया । परम्परागत रूप से सीखे हुए व्यवहार को नवीन सन्दर्भो के अनुकूल ढालना इन कानूनों का कार्य है । प्राधुनिक समाज में सामाजिक नियन्त्रण के ये प्रमुख प्राधार हैं । जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में कानूनों की संरचना द्वारा अपेक्षित व्यवहार और दृष्टिकोण उत्पन्न करने का प्रयास संविधान के माध्यम से किया जा रहा है ।

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