धर्म का सामाजिक सिद्धान्त
( Social Theory of Religion )
समाजशास्त्र के लिए , दुर्सीम का एक प्रमुख योगदान धर्म जैसे विवादपूर्ण विषय की व्यवस्थित विवेचना करके उसके सामाजिक स्वरूप को स्पष्ट करना है । दुर्चीम ने न केवल धर्म की उत्पत्ति को सामाजिक सन्दर्भ में स्पष्ट किया बल्कि धर्म के सामाजिक प्रकार्यों का विस्तार से वर्णन करके धर्म के विश्लेषण को एक नयी दिशा प्रदान की । धर्म की उत्पत्ति तथा धर्म के प्रकार्यों से सम्बन्धित दुीम के विचार उनकी अन्तिम पुस्तक ‘ धार्मिक जीवन के मूल स्वरूप ‘ ( The Elementary Forms of Religious Life ) में प्रस्तुत किये गये हैं । इस पुस्तक के बारे में रेमण्ड ऐरों ने लिखा है , ” दुर्थीम की यह पुस्तक इस दृष्टिकोण से अत्यधिक महत्वपूर्ण है कि एक ओर इसमें सशक्त वैज्ञानिक आधार पर किया गया मौलिक चिन्तन देखने को मिलता है तो दूसरी ओर यह पुस्तक दुीम की सामाजिक प्रेरणाओं का एक स्पष्ट प्रमाण है । ”
इस पुस्तक में दुखीम द्वारा दिये गय विचारों को दो प्रमुख भागों में विभा जित करके स्पष्ट किया जा सकता है । पहला भाग धर्म की उत्पत्ति के सामाजिक सिद्धान्त से सम्बन्धित है जबकि दूसरे भाग को धर्म के प्रकार्यों से सम्बन्धित माना जा सकता है । दुर्थीम से पहले अनेक विचारकों जैसे टायलर ( E . B . Taylor ) , मैक्समूलर ( Max Muller ) तथा फेजर ( Frazer ) आदि ने विभिन्न आधारों पर धर्म की उत्पत्ति को स्पष्ट किया था । टायलर ( E . B . Taylor ) ने यह स्पष्ट किया था कि संसार के प्रत्येक समाज में धर्म की उत्पत्ति का वास्तविक आधार आत्मावाद ( Animism ) है । इसका तात्पर्य है कि आत्मा को प्रसन्न करने के लिए जिन क्रियाओं तथा विश्वासों का विकास हुआ , उन्हीं से धर्म की उत्पत्ति हुई । मैक्समूलर ( Max Muller ) जर्मनी के एक प्रमुख भाषा – विज्ञानी थे जिन्होंनेअनेक धर्म ग्रन्थों का विस्तृत अध्ययन करके यह निष्कर्ष दिया कि समाज में धर्म को उत्पत्ति प्रकृति की असीमित शक्ति के परिणामस्वरूप हुई ।
मैक्समूलर ने इसे प्रकृति वाद का नाम देते हए यह निष्कर्ष दिया कि प्रकृति की समस्त जड़ व चेतन वस्तुओं में एक जीवित सत्ता ( Animatism ) का विश्वास ही धर्म की उत्पत्ति का वास्तविक आधार है । जर ( Frazer ) ने बतलाया कि धर्म से मेरा तात्पर्य मनुष्य से श्रेष्ठ उन शक्तियों की सन्तुष्टि अथवा आराधना से है जिनके विषय में मनुष्यों को यह विश्वास हो कि वे प्रकृति और मानव जीवन को नियन्त्रित अथवा निर्देशित करती हैं । ” इस प्रकार फेजर ने भी धर्म को कुछ अधिमानवीय अथवा अलौकिक शक्तियों से सम्बन्धित विश्वासों को व्यवस्था में रूप में ही स्पष्ट किया । दुर्थीम ने ऐसे सभी विचारों का खण्डन करते हुए बतलाया कि आत्मा अथवा प्राकृतिक शक्तियों की पूजा या उपासना के आधार पर धर्म जैसे जटिल सामाजिक तथ्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती । इसका कारण यह है कि धर्म एक सामाजिक घटना है तथा इसकी उत्पत्ति सामाजिक कारकों का ही परिणाम है । धर्म की परिभाषा देते हुए दुर्शीम ने लिखा है , ” धमं पवित्र वस्तुओं से सम्बन्धित अनेक विश्वासों तथा आचरणों की वह व्यवस्था है जो अपने से सम्बन्धित लोगों को एक नैतिक समुदाय से जोड़ती है । ”
इस कथन से स्पष्ट होता है कि धर्म से सम्बन्धित विश्वास उन पवित्रता सम्बन्धी विचारों का ही परिणाम हैं जिनकी प्रकृति सामाजिक होती है । धर्म इस लिए एक शक्तिशाली आधार है क्योंकि यह लोगों को नैतिक आधार पर जोड़कर सामाजिक संगठन को दृढ़ बनाता है । इस प्रकार दुर्शीम धर्म में ईश्वर अथवा किसी अधिप्राकृतिक शक्ति की अवधारणा को अनिवार्य नहीं मानते । इस सम्बन्ध में उन्होंने बुद्ध तथा कन्फ्यूशियस द्वारा बतलाये गये धर्म के सिद्धान्त का उल्लेख करते हुए कहा कि बौद्ध धर्म तथा कन्फ्यूशियसवाद में ईश्वर का कोई स्थान नहीं है । दुखीम के अनुसार धम की वास्तबिक अभिव्यक्ति ईश्वर नहीं बल्कि समाज है । यदि ईश्वर हा धर्म की वास्तविकता होता तो धर्म के रूप में कभी कोई परिवर्तन नहीं होता । इसक विपरीत , सत्या राठ कि ” विचारों की यह प्रणाली जिसे धर्म कहा जाता है और लिका र्ण स्थान है , उसे प्रत्येक युग में व्यक्ति जीवन की आवश्य
– ऊर्जा प्राप्त करने के लिए परिवर्तित करता रहा है । ” इसका तात्पर्य है कि धर्म की उत्पत्ति तथा धर्म की प्रकृति को सामाजिक आधार पर ही समझा जा सकता है । दीम के अनुसार “ समाज ही देवता है तथा स्वर्ग का साम्राज्य भी एक गौरवान्वित समाज के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । ” दुर्थीम ने धर्म सम्बन्धी विचार आस्ट्रेलिया की अरुण्टा जनजाति ( Arunta Tribe ) का अध्ययन करके प्रस्तुत किये । जिस समय दुर्थीस ने इस जनजाति का अध्ययन किया , उस समय तक यह जनजाति अपने आदिकालीन रूप में थी । इस स्थिति में दुर्थीम ने पुरातन प्रक्रियाओं को ज्ञात करने के लिए प्रतिनिधित्वपूर्ण निदर्शन के आधार पर इस जनजाति में पाये जाने वाले विश्वासों का अध्ययन किया । अपने – इस क्षध्ययन के आधार पर दुर्थीम ने बतलाया कि धर्म का महत्त्वपूर्ण सार यह है कि इसने सम्पूर्ण विश्व को दो भागों में विभाजित कर दिया है । इनमें से एक भाग को हम पवित्र ( Sacred ) कहते हैं तथा दूसरे को साधारण ( Profane ) दुर्थीम के अनुसार समस्त धर्मों का सम्बन्ध ‘ पवित्र ‘ पक्ष से ही होता है । इस दृष्टिकोण से यह आवश्यक है कि दुखीम द्वारा प्रस्तुत धर्म के सामाजिक सिद्धान्त को समझने के लिए सर्वप्रथम ‘ पवित्र ‘ तथा ‘ साधारण ‘ की अवधारणा को समझ लिया जाये ।
दुर्थीम के शब्दों में पवित्र वस्तुएँ “ वे हैं जिनकी अनेक निषेधों के द्वारा रक्षा की जाती है जबकि साधारण वस्तुएँ वे हैं जिन्हें अनेक निषेधों के द्वारा पवित्र वस्तुओं से दूर रखने का प्रयत्न किया जाता है । ” 36 इसका तात्पर्य है कि पवित्र वस्तुएँ सामू हिक चेतना का प्रतिनिधित्व करती हैं अथवा इन्हें सम्पूर्ण समूह के द्वारा स्वीकार किया जाता है । इन पवित्र वस्तुओं से सम्बन्धित सभी विश्वास तथा क्रियाकलाप लोगों को एक नैतिक समुदाय के रूप में संगठित करते हैं । दूसरी ओर अपवित्र वस्तुओं की प्रकृति पवित्र वस्तुओं के ठीक विपरीत होती है । दुर्थीम के शब्दों में , ” अपवित्र वस्तुएँ वे हैं जिनके छूने पर प्रतिबन्ध होता है तथा जनसामान्य की भावना यह होती है कि कोई दण्ड न मिलने पर भी उनसे दूर ही रहना चाहिए । ” हारणा के आधार पर कुछ विद्वान यह मानते हैं कि धार्मिक आधार पर विश्वासRA रीति – रिवाजों तथा आचरणों का विकास होता है , उन्हीं को दुर्सीम ने पवित्र वस्तु के रूप में स्पष्ट किया है । कुछ दूसरे विद्वानों का कथन । कि दुर्थीम ने प्रकृति में पायी जाने वाली वस्तुओं के प्रति लोगों के उस दृष्टिकोण को भी पवित्र वस्तु के रूप में स्पष्ट किया है जो अच्छाई से व्यक्ति को अधिक अच्छाई की ओर ले जा सकते हैं । स्वयं दुखीम के शब्दों में ” पवित्र वस्तुएँ अच्छाई की चरम – सीमा पर होती हैं । ” ‘ दुर्योम ने यह भी स्पष्ट किया कि विभिन्न धर्मों में पवित्र तथा साधारण वस्तुओं की धारणा अलग अलग हो सकती है । उनका कथन है कि पवित्र वस्तुओं का घेरा या क्षेत्र ( Circle ) सभी के लिए समान नहीं होता बल्कि विभिन्न धर्मों में इसका रूप एक – दूसरे से भिन्न हो सकता है । उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि संसार के सभी धर्मों का सम्बन्ध पवित्र वस्तुतों से होता है लेकिन इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि सभी पवित्र वस्तुएँ धर्मिक होती हैं , यद्यपि सभी धार्मिक विश्वास तथा आचरण पवित्र अवश्य होते हैं ।
पवित्र को साधारण अथवा अपवित्र से दूर रखने के लिए ही अनेक तरह के विश्वासों , आचरणों तथा क्रिया – कलापों का जन्म होता है । इन्हीं विश्वासों , आचरणों तथा क्रिया – कलापों की सम्पूर्णता को हम धर्म कहते हैं । स्पष्ट है कि पवित्र वस्तुएँ अथवा पवित्रता की धारणा सामूहिक चेतना का प्रति निधित्व करती हैं तथा इसीलिए व्यक्ति अपने आपको इसके अधीन मानने लगता है । आदिकालीन समाजों में आज भी अनेक ऐसे त्यौहार तथा धार्मिक अनुष्ठान देखने को मिलते हैं जो सामूहिक शक्ति के प्रभाव को स्पष्ट करते हैं । पवित्रता की धारणा से उत्पन्न होने वाले विश्वास किस तरह धर्म को जन्म देते हैं , इसे दुर्थीम ने टोटमवाद के आधार पर स्पष्ट किया ।
DURKHEIM ने टोटमवाद को ही सभी धर्मों का प्राथमिक रूप बताते हुए यह स्पष्ट किया कि आदिकालीन समाजों में टोटम सम्बन्धी विश्वासों के आधार पर ही ‘ पवित्र ‘ तथा ‘ साधारण ‘ के बीच भेद करने की भावना का आरम्भ हुआ । इस दृष्टिकोण से टोटम के अर्थ एवं इसकी विशेषताओं के सन्दर्भ में ही पवित्र तथा साधारण के विभेद को समझा जा सकता है । टोटम क्या है ? इसे स्पष्ट करते हुए दुीम ने बतलाया कि टोटम सामान्य वस्तुओं की तरह ही पशु , पौधा , चमकीला पत्थर अथवा लकड़ी का एक टुकड़ा मात्र हो सकता है , जिसे एक समूह के द्वारा पवित्र वस्तु के रूप में स्वीकार कर लिया जाता है । व्यक्ति जिस वस्तु को टोटम के रूप में स्वीकार कर लेते हैं , उसकी शक्ति तथा उससे सम्बन्धित विश्वास पीढ़ी – दर – पीढ़ी बने रहते हैं यद्यपि व्यक्ति की कुछ हा समय बाद मृत्यु हो जाती है । दुखीम ने बताया कि कुछ लोग ऐसा मानते है । टोटम की पूजा भी ईश्वर की पूजा का ही प्रतीक है , लेकिन ऐसा दष्टिकोण जा नहीं है । ” दुखीम के अनुसार ” टोटम विशुद्ध रूप से अवैयक्तिक होता है . उसका कार इतिहास या नाम नहीं होता तथा इससे सम्बन्धित विश्वास अनेक क्रियाओं में आग _व्यक्त होते हैं । ” इस दृष्टिकोण से टोटम को परिभाषित करते हए उन्होंने पून : लिखा टोटम एक रहस्यपूर्ण अथवा पवित्र शक्ति अथवा उस सिद्धान्त में निहित एक विश्वास है , जो निषेधों के अस्वीकार करने पर दण्ड का प्रावधान करता है तथा जिसमें समह के नैतिक उत्तरदायित्व का समावेश होता है । ” दुर्शीम ने पुनः यह स्पष्ट किया कि ” हमें यह नहीं समझना चाहिए कि टोटम किसी पशु अथवा कुछ विशिष्ट प्रति माओं ( Images ) से सम्बन्धित विश्वासों का धर्म है बल्कि यह एक अज्ञात और अवैयक्तिक शक्ति है जिसे उसको मानने वाले सभी लोग एक साथ स्वीकार करते हैं । ” टोटम में अनेक ऐसी विशेषताओं का समावेश है जो इससे सम्बन्धित विश्वासों को धर्म के रूप में स्पष्ट करती हैं । टोटमवाद की विशेषताएँ इस प्रकार हैं :
( क ) कोई जनजाति अथवा समूह जिस पदार्थ अथवा जीव को अपना टोटम मानता है , उससे वह अपना एक रहस्यपूर्ण , पवित्र तथा अलौकिक सम्बन्ध मानने लगता है । भारतीय जननातियों के सन्दर्भ में दुर्थीम द्वारा बतलाई गयी इस विशेषता को सरलतापूर्वक समझा जा सकता है । दक्षिण भारत के नीलगिरि पर्वत पर रहने वाली टोडा जनजाति भैस को अपना टोटम मानती है । टोडा लोगों का विश्वास है कि महाप्रलय के दिन एक भैंसा मागता हुआ नीलगिरि पर्वत पर चढ़ गया था तथा उसी की पूंछ से एक टोडा लटका हुआ था । इस प्रकार भैसा ही टोडा जनजाति का सबसे पहला पूर्वज है जिसे यह लोग एक पवित्र वस्तु मानकर अनेक ऐसे आचरण करते हैं , जिन्हें धार्मिक आचरण माना जाता है ।
( ख ) यह विश्वास किया जाता है कि अपने रहस्यपूर्ण सम्बन्धों के आधार पर टोटम समूह की रक्षा करता है । दुर्थीम का कथन है कि अरुण्टा जनजाति में यह विश्वास किया जाता है कि उनका टोटम समूह की रक्षा करने के साथ ही भविष्य में आने वाली विपत्तियों का भी उन्हें संकेत देता है । अरुण्टा जनजाति की तरह अनेक दूसरी जनजातियों में भी टोटम से सम्बन्धित इसी तरह के विश्वास पाये जाते हैं ।
( ग ) टोटम के प्रति एक समूह के सदस्यों की भावनाओं में भय , श्रद्धा तथा सम्मान का समावेश होता है । इसीलिए टोटम को मारना अथवा उसे हानि पहुंचाना निषिद्ध होता है । एक विशेष टोटम में विश्वास करने वाले लोग अपने शरीर पर उसके चित्र की गुदाई करवाना पसन्द करते हैं तथा कुछ विषेष अवसरों पर टोटम से सम्बन्धित वस्तुओं के प्रति विशेष श्रद्धा प्रदर्शित की जाती है । टोटम की पवित्रता को बनाये रखने के लिए समूह में अनेक निषेधों का प्रचलन हो जाता है तथा समूह में उन व्यक्तियों को दण्डित किया जाता है जो इन निषेधों का उल्लंघन करते हैं ।
अनुसार टोटम से किसी जनजाति का जो रहस्यात्मक सम्बन्ध होता है उसी से समाज में पवित्रता की धारणा का जन्म होता है ।
इन विशेषताओं के आधार पर दुर्वीम ने बतलाया कि पवित्र विश्वासों के आधार पर एक विशेष नैतिकता का विकास होता है । यही नैतिकता सामूहिक चेतना की प्रकृति को प्रभावित करती है । इस प्रकार टोटम ही समूह के नैतिक जीवन का प्रतिनिधित्व करता है , अतः एक सामाजिक तथ्य के रूप में टोटम को ही सभी धर्मों का मूल स्रोत माना जाना चाहिए । टोटम की प्रकृति सामाजिक है , अधिप्राकृतिक नहीं । इस दृष्टिकोण से भी धर्म का आधार कोई आलौकिक शक्ति न होकर स्वयं समाज है । टोटम की उपयुक्त व्याख्या के आधार पर दुर्शीम ने यह स्पष्ट किया कि अस्ट्रेलिया की अरुण्टा जनजाति में विभिन्न समूह टोटम के आधार पर कुछ विशिष्ट विश्वासों तथा क्रिया – कलापों को पवित्र मानने हुए एक – दूसरे से सम्बन्धित रहते हैं तथा अपवित्र समझे जाने वाली घटनाओं से दूर रहते हैं । इस जनजाति में सामा जिक उत्सवों के अवसर पर एक गोत्र ( एक टोटम से अपनी उत्पत्ति में विश्वास करने वाले लोग ) के सभी सदस्य जब एक स्थान पर एकत्रित होते हैं तब प्रत्येक सदस्य को सामूहिक शक्ति की तुलना में अपनी व्यक्तिगत शक्ति बहुत गौण मालूम होती है ।
इसके फलस्वरूप व्यक्ति सामूहिक शक्ति के सामने नतमस्तक हो जाता है । उसके मन में समूह की शक्ति के प्रति भय , श्रद्धा और भक्ति की भावना उत्पन्न होने लगती है । इससे स्पष्ट होता है कि पवित्रता की धारणा में सामूहिक चेतना का समावेश होता है तथा इसीलिए पवित्रता से उत्पन्न होने वाले विश्वासों की व्यवस्था को व्यक्ति धर्म के रूप में स्वीकार कर लेते हैं । इसे स्पष्ट करते हुए दुर्शीम ने लिखा है कि ‘ ‘ एक दुनियाँ ( समाज ) वह है जिसमें व्यक्ति का दैनिक जीवन नीरस ढंग से व्यतीत होता है लेकिन दूसरी दुनियाँ वह है जिसमें वह उस समय तक प्रवेश नहीं कर सकता जब तक कि उसका सम्बन्ध ऐसी असाधारण शक्ति से न हो जाय जिसमें यह अपने अस्तित्व को ही न भूल जाय । पहली दुनियाँ साधारण . ( Profane ) है और दूसरी दुनियाँ पवित्र ( Sacred ) है । सामाजिक तथ्यों की विवेचना में दुर्थीम ने यह स्पष्ट किया था कि प्रत्येक सामान्य सामाजिक तथ्य समाज के लिए कोई न कोई उपयोगी कार्य अवश्य करता है ।
दुर्थीम ने धर्म को भी एक सामान्य सामाजिक तथ्य मानते हुए व्यक्ति तथा समाज के लिए इसके अनेक प्रकार्यों का उल्लेख किया । उन्होंने बतलाया कि धर्म समाज में सामूहिक चेतना को बढ़ाकर सामाजिक एकता में वृद्धि करता है , यह समाज में एक नैतिक व्यवस्था को सुदृढ़ बनाता है ; एकीकरण की प्रक्रिया को प्रोत्साहन देता है , सामाजिक संरचना को बनाए रखने में विशेष योगदान करता है , उपयोगी सामाजिक मूल्यों को संरक्षण देकर क्षण नेक व्यक्ति के अस्तित्व की रक्षा करता है तथा सामाजिक सहभागिता को बढ़ाता है । धर्म के यह प्रकार्य भी इसकी सामाजिक प्रकति को ही स्पष्ट करते हैं । इस प्रकार स्पष्ट होता है कि धर्म के सभी अकार्य एक ओर समूह के लोगों को नैतिक बन्धन में बाँधने से सम्बन्धित हैं तो दूसरी ओर इनके द्वारा समूह की एकता तथा सुदृढ़ता में वृद्धि होती है । इस प्रकार धर्म एक विभेदकारी तथ्य नहीं है बल्कि सामाजिक संगठन में वृद्धि करने वाला एक प्रमुख आधार है । यही तथ्य धर्म की सामाजिक प्रकृति को स्पष्ट कर देता है ।
समालोचना ( Criticism )
धर्म को एक सामाजिक तथ्य के रूप में स्पष्ट करके दुर्थीम ने एक अधिक व्यावहारिक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया लेकिन अनेक विद्वानों ने दुर्थीम के धर्म सम्बन्धी विचारों की कटु आलोचना की है । सर्वप्रथम , यह कहा जाता है कि धर्म से सम्ब न्धित अपने विचारों को दुर्शीम ने आस्ट्रेलिया की अरूण्टा जनजाति को आधार मानकर प्रस्तुत किया तथा यह मान लिया कि यह एक ऐसी जनजाति है जो पुरातन प्रक्रियाओं का प्रतिनिधित्व करती है । वास्तविकता यह है कि अरुण्टा जनजाति को पुरातन प्रक्रियाओं का प्रतिनिधित्व करने वाली जनजाति नहीं माना जा सकता । इसका तात्पर्य है कि जब दुर्थीम के अध्ययन का आधार ही वास्तविकता पर आधारित नहीं है तब उनके निष्कर्ष को किसी भी तरह सही नहीं माना जा सकता । गोल्डन वीजर ( Goldenweiser ) का कथन है कि दुर्थीम के इस निष्कर्ष में विश्वास नहीं किया जा सकता कि टोटमवाद ही धर्म की उत्पत्ति का सर्वप्रमुख आधार है । दुनियाँ में ऐसे अनेक समाज हैं जिनमें धर्म और टोटम का अस्तित्व एक – दूसरे से पृथक है । दूसरे , इस कथन में भी अधिक विश्वास नहीं किया जा सकता कि केवल ‘ पवित्र ‘ और ‘ साधारण ‘ के विभेद के आधार पर ही धर्म जैसे जटिल तथ्य का विकास हो गया ।
यदि जनजातियों के सन्दर्भ में पवित्र और साधारण का विभेद किया जाय तब दुर्थीम के निष्कर्ष और अधिक अव्यावहारिक दिखलाई देने लगते हैं । इसका कारण यह है कि अपने आदिम जीवन में जनजातियाँ ‘ पवित्रता ‘ जैसे जटिल तथ्य का विश्लेषण करके धर्म को एक व्यवस्थित रूप नहीं दे सकतीं । तीसरे , धर्म की उत्पत्ति में दुर्चीम ने समाज अथवा सामाजिक कारकों को आवश्यकता से अधिक महत्व दे दिया है । दुर्थीम का यह कथन बहुत अतिश्योक्तिपूर्ण लगता है कि ‘ समाज – ही वास्तविक देवता है । ‘ दुर्वीम ने अपने कथन की प्रामाणिकता सिद्ध करने के लिए समाज और ईश्वर के बीच जिस समानता को स्पष्ट किया है , उससे सहमत हो सकना बहुत कठिन है । अन्त में , मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाओं के आधार पर भी दुीम के धर्म सम्बन्धी विचार सही प्रतीत नहीं होते । यह कहना कि ‘ धर्म की उत्पत्ति केवल भीड़ अथवा समूह की उत्तेजनाओं का परिणाम है ‘ , एक गलत दृष्टिकोण है । दुखीम ने धर्म के जिन सामाजिक प्रकार्यों का उल्लेख किया है , उनकी प्रकृति भी सर्वव्यापी तथा सर्वकालिक नहीं होती ।