दहेज

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दहेज

समाज के किसी भी वर्ग की समस्याएँ अनेकमुखी होती हैं और उनके छोटे बड़े प्रमुख और गौण कितने ही रूप और प्रकार होते हैं । इन सबकी संख्या साधारणतया निश्चित नहीं की जा सकती गतिशील सामाजिक जीवन और उस नाते उसके किसी हिस्से में समस्याएँ दिन – प्रतिदिन उत्पन्न होती रहती हैं । इसके साथ ही प्रचलित या पुरातन समस्याओं में भी समय के परिवर्तन से पकारगत या मात्रागत भिन्नता उपस्थित होती रहती है । इस प्रकार स्पष्ट है कि समाज के किसी वर्ग में समस्याओं की कमी नहीं होती । भारतीय मध्यवर्ग की समस्याएँ भी इतनी अधिक और विविध प्रकार की हैं कि उनका सम्यक् विश्लेषण और विवेचन श्रमसाध्य कार्य है । इन समस्याओं में कुछ समस्याएँ इस प्रकार हैं : – संयुक्त परिवार व्यवस्था की समस्या – अनमोल विवाह की समस्या – तिलक और दहेज प्रथादि की समस्या – विवाह बनाम प्रेम की समस्या विधवा विवाह या विधवाओं के भरण – पोषण की समस्या नारी की असहायवस्था अर्थात् उसकी आर्थिक पराधीनता की समस्या परम्परागत मूर्यों और रूढ़ियों की स्वीकृति और अस्वीकृति की समस्या विवाह स्त्री और पुरुष के पारस्परिक और अस्वीकृति की समस्या इसके द्वारा एक स्त्री और एक पुरुष का स्वतन्त्र सम्बन्ध निर्धारित होता है ।

स्त्री और पुरुष का मिलन मानव जीवन की पूर्णता को प्राप्त करने के लिए आवश्यक होता है । इस प्रकार विवाह स्त्री पुरुष के बीच आदान – प्रदान का एक सर्वोत्तम साधन है जो सभी सामाजिक समझौतों में भिन्न है । जीवन में पूर्णता लाने के लिए इन सामाजिक समझौते की आवश्यकता पड़ी और विवाह का प्रचलन  यह प्रथा बदल रही है विवाह के साथ – साथ कई कुरीतियों भी हमारे समाज में फैल गई हैं । और इसका परिणामऔरतों को ही भुगतना पड़ता है । दहेज इन सब समस्याओं में सबसे प्रमुख समस्या है । भारतीय मध्यवर्ग में जो अनेक कुरीतियाँ व्याप्त हैं उनमें विवाह संबंधी कुरीतियों का स्थान सर्वोपरि है । वैवाहिक अनष्ठान को सम्पन्न करने के लिए अभिभावकों को विशेषकर कन्यापक्ष के अभिभावकों को निम्न कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है _ _ _ वे इतनी जटिल और विविध हैं कि उसके कारण विवाह जैसा मंगलकार्य भी भार स्वरूप मालूम होता है ।

डा . राजेन्द्र प्रसाद ने लिखा है ” हमारे समाज में लड़की का विवाह एक भारी हंगामा है । पहले तो पसंद के लायक लड़का मिलना कठिन होता है । इसमें जाति – पाति का बखेड़ा तो रहता ही है इसके अलावा यह भी देखना पड़ता है कि उसके घर में कुछ सम्पत्ति भी होनी चाहिए ताकि लड़की को वहाँ जाकर कष्ट न हो । बचपन में शादी होने के कारण लड़का अभी स्वावलम्बी हुआ नहीं रहता इसलिए घर वालों पर ही लड़की के पालन – पोषण का भार पड़ जाता है और यह देखना जरूरी हो जाता है कि घर वाले इस योग्य हैं या नहीं ” । ये सारी कठि0नाइयाँ तो अपनी जगह पर हैं ही लेकिन इनसे भी अधिक कठिनाई तब उपस्थित होती है जब घर और अच्छा लड़का मिल जाता है और लड़के के घरवालों को राजी करने की बात आती प्राचीन काल में विवाह सम्बन्धी अवधारणाएँ धार्मिक भावनाओं पर आधारित चली आ रही है ।

धार्मिक ग्रन्थों के अनुसार पुरुष के लिए विवाह को धार्मिक संस्कार तथा स्त्रियों के लिए विवाह ‘ वैदिक संस्कार ‘ माना गया है । धार्मिक प्रवृत्ति के फलस्वरूप ही प्राचीनकाल से 19 वीं शताब्दी तक विवाह में स्वाभाविक रूप में दहेज का प्रचलन हिन्दुओं में बना रहा , किन्तु 20वीं शताब्दी से इसका स्वरूप परिवर्तित होता गया और इस शताब्दी के अंत तक आज इसका रूप ऐच्छिक हो गया है । अब वर पक्ष की इच्छा पर ही दहेज का निर्धारण किया जाना आज की इच्छा बन चुकी है । जसके परिणाम स्वरूप पारिवारिक इकाई से लेकर सम्पूर्ण हिन्दू समाज में अस्थिरता का वातावरण बन चुका है । दहेज समस्या का मूल्यांकन आज केवल इसलिए महत्वपूर्ण व सामाजिक नहीं है , क्योंकि नववधओं को जलाने के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं , बल्कि इसलिए भी कि बडी संख्या में लड़कियाँ विवाह की आयु पार करने के उपरान्त भी माता – पिता द्वारा दहज दन में असमर्थ होने के कारण अविवाहित रह जाती हैं । दहेज की समस्या इसलिए भी महत्वपूर्ण व दुःसाध्य है क्योंकि एक और बहुत – सी लड़कियों को अपने पति व ससुराल वालों की संतुष्टि के उपयुक्त दहेज नहीं ला पाने के कारण सताया या अपमानित किया जाता है जिससे उनके व्यक्तित्व का विघटन होता है दूसरी ओर उनके माता – पिता को अपनी आय बढाने के गैरकानूनी तरीके अपनाने पड़ते हैं जिससे समाज में भ्रष्टाचार बढ़ता है और तीसरी ओर व्यक्ति परिवार व समाज में विभिन्न प्रकार की कठिनाइयाँ धर्मसंकट व संघर्ष उत्पन्न होते हैं । इसलिए जटिल विवाह संबंधी पारिवारिक तथा सामाजिक अस्थिरता को समाप्त करने के लिए हिन्दू समाज को दहेज लेने का भावनात्मक परित्याग करना पडेगा क्योंकि समाज में व्यक्ति जब अपने पुत्र का विवाह करता है तो कन्या पक्ष से अधिक दहेज ले लेता है और जब अपनी पत्री का विवाह करता है तो उसे और अधिक दहेज देना पड़ जाता है ।

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ऐसा भी देखा जाता है कि जिन परिवारों में मौजूदा पीढ़ी में संतानों में केवल पत्र ही होते हैं , ऐसे परिवारों के व्यक्ति अधिकांशत : दहेज लेने में संकोच नहीं करते हैं । और इस तरह ऐसे व्यक्ति अधिक से अधिक दहेज अपने पुत्रों का विवाह करने में ले लेते हैं । इस प्रकार दहेज का क्रम समाज में बना ही रहता है । समाज के अन्य वर्गों की तुलना में यह प्रथा मध्यवर्ग में ही अपने भीषण रूप में देखी जा सकती है । उच्च वर्ग तो स्वभावतः ही साधन सम्पन्न होता है । विवाह संबंधी लेन – देन उसे उतना नहीं अखरता वह तो उल्टे विवाह आदि के अवसर पर अधिक बढ़ – चढ कर खर्च करता है । लेकिन मध्यवर्ग की स्थिति तो कुछ और ही सामूहिक जीवन की गतिशीलता में यह स्पष्ट है कि निष्ठा व मनोबल बढ़ाने के लिए विभिन्न प्रकार की विकृतियाँ परिपाटीबद्ध की जा रही हैं । सामूहिक जीवन में व्यक्ति इस प्रकार के विश्वासों का विकास करता है जो उसके उद्देश्यों को पूरा करने के संघर्ष में सहायक हैं ।

दहेज की अवधारणा साधारण अर्थ में ” दहेज ” से अभिप्राय उन धन उपहारों व वस्तुओं से है जो कि पत्नी विवाह में अपने पति के लिए लाती है । – 8 विद्वानों के अनुसार ” वे मूल्यवान वस्तुएं जो विवाह से सम्बन्ध रखने वाले दोनों ओर में से किसी एक के रिश्तेदारों द्वारा विवाह र्ण के लिए दी जाती है । ” लेकिन यह परिभाषा दहेज व वधू मूल्य में नी भेद नहीं दर्शाती है बल्कि यह दोनों अवधारणाओं में भ्रान्ति पैदा ज ” वह सम्पत्ति जो व्यक्ति विवाह के समय अपनी पत्नी या की उसके रिश्तेदारों से प्राप्त करता है । ” र ” यह वह सम्पत्ति है जो एक स्त्री को उसके विवाह के के समय दी जाती है । ” किन्तु विवाह में प्राप्त हुई वस्तुएं क्योंकि वधू की ही निजी र सम्पत्ति होती है और कुछ वर या वर के माता – पिता को दी जाती है अतः दहेज की परिभाषा इस प्रकार की हो सकती है । ” वे उपहार व मूल्यवान वस्तुएँ जो वधू , वर व उसके रिश्तेदारों को विवाह में मिलती है । परन्तु ” दहेज ” कन्यादान वा ” स्त्रीधन ‘ की अवधारणाओं में भ्रम नहीं होना चाहिए । ” कन्यादान ” में कन्या को उपहारस्वरूप । वर को दिया जाता है । ” स्त्रीधन ” का संदर्भ उन उपहारों से है जो वधू को उसके सगे – संबंधियों या पति आदि द्वारा विवाह के समय या बाद में दिए जाते हैं और वह धन जो अपने माता पिता से उत्तराधिकार में प्राप्त किया हो या उसने स्वयं अर्जित किया हो स्त्री स्त्रीधन की पूर्णरूपेण स्वामिनी होती है और उसका उसमें दावेदार नहीं हो सकता है । यह धन उसकी लड़कियों को उत्तराधिकार में दिया जा सकता है , यदि उसमें इसके विरुद्ध वसीयत न की हो । दहेज की देय धनराशि लड़के की नौकरी व आमदनी , लड़की के पिता का आर्थिक एवं सामाजिक स्तर लड़के के परिवार की सामाजिक प्रतिष्ठा , लड़की व लड़के की शिक्षा , लड़की की नौकरी व वेतन , लड़की का सौन्दर्य व शारीरिक गठन , लड़के व लड़की के परिवार की संरचना तथा सुखद भविष्य की सुरक्षा आदि कारकों को ध्यान में रखकर निर्धारित की जाती है । इसमें महत्वपूर्ण बात यह है कि कन्या के माता – पिता रुपया और उपहार न केवल विवाह के समय देते हैं , बल्कि वे पति के परिवार को उपहार जीवन भर ही देते रहते हैं । युगों से दहेज – दहेज का इतिहास बहुत प्राचीन है इसका विश्लेषण करने पर यह ज्ञात होता है कि प्राचीन व मध्ययुगीन भारत से आधुनिक युग तक दहेज के ढाँचे में अनेक परिवर्तन आए हैं ।

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पहले राजघरानों की वधुएँ अपने साथ दहेज में 100 गाएँ तक लाती थीं । द्रौपदी , सीता , सुभद्रा , उत्तरा सभी को विवाह के समय उनके माता – पिता द्वारा मूल्यवान उपहार , घोड़े , हाथी और जवाहरात के रूप में दिए गए थे । आज के संदर्भ में इतना स्पष्ट है कि जो उपहार विवाह के समय दिए जाते थे वे दहेज समझे जाते थे । आज के युग में दहेज ने अकीर्तिकर अनुपात ग्रहण कर लिया है व सुरसा का मुँह बन गया है । अब यह एक प्रकार का सौदा हो गया है । पूर्व ब्रिटिश काल में हमारा समाज प्रमुख रूप से कषि प्रधान था औरलगभग समस्त भारत में समाज की आर्थिक व्यवस्था सरल थी । आज सरकारी नौकरियों में कार्यरत तथा ऊँचे पदों पर कार्य करने वाले अपने पद के आधार पर दहेज की माँग करते हैं । दहेज के प्रेरक तत्व निम्नलिखित हैं :

उच्च तथा धनवान परिवार में विवाह की आकांक्षा – प्रत्येक माता पिता की यह आकांक्षा होती है कि वह अपनी बेटी का विवाह धनी एवं उच्च स्थिति वाले परिवार में करें ताकि उनकी इज्जत बनी रहे तथा उनकी बेटी को सुख एवं सुरक्षा मिले । उच्च एवं धनी परिवारों के लड़कों की विवाह बाजार में ऊँची कीमतें हैं अत : दहेज की राशि भी ऊँची हो रही है ।

भ्रामक विचार – कुछ लोग अपनी शान व सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति का प्रदर्शन करने के लिए अधिक से अधिक दहेज देते हैं । जैसे राजपूत एवं जैन लोग अपनी बेटियों के विवाह में केवल अपने सामाजिक स्तर को ऊँचा दर्शाने हेतु लाखों रुपये खर्च कर देते हैं । भले ही इसके लिए उन्हें कर्ज क्यों न लेना पड़े ।

 जाति प्रथा का दबाव – हिन्दुओं में सामाजिक एवं धार्मिक व्यवस्था के अनुसार विवाह अपनी ही जाति या उपजाति के अन्दर सम्पन्न होने का चलन है । इसी से जीवन साथी को चुनने की प्रक्रिया सीमित ही रहती है । परिणामतः उच्च वेतन की नौकरी वाले या किसी पेशे में लगे सुखद भविष्य वाले नवयुवकों की कमी हो ही जाती है । वे ” दुर्लभ वस्तुओं ” की तरह हो जाते हैं और उनके माता – पिता कन्या पक्ष से बड़ी धनराशि मांगते हैं , मानो लड़कियाँ कोई सौदाबाजी से प्राप्त करने की वस्तु हो ।

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 सामाजिक प्रथा – दहेज का एक कारण यह भी है कि दहेज देना एक सामाजिक प्रथा है और प्रथाओं को एकदम से बदलना बड़ा कठिन है । लोगों की भावना है कि प्रथाओं के पालन से लोगों में एकता तथा मेलजोल बढ़ता है । बहुत से लोग दहेज केवल इसलिए लेते और देते हैं क्योंकि उनके माता – पिता तथा पूर्वज भी इस प्रथा को मानते चले आ रहे थे यदि वे ऐसा नहीं करेंगे तो शायद उनके मान – सम्मान को कोई आघात लगेगा । जैसे सती प्रथा जिन दिनों इसका प्रचलन था , बहुत – से लोग इसके विरुद्ध थे । फिर भी वे लोग जात – बिरादरी के डर से अपनी आवाज उठा न सके । प्रथाएँ सदैव चलती रहती हैं क्योंकि इसके पीछे अतीत और वर्तमान का सम्मान जुड़ा है । इसी कारण प्रथा ने पुरानी दहेज व्यवस्था को अपरिवर्तनीय व एक रूढ़धारणा बना दिया है । जब तक विद्रोही युवा वर्ग इसको समाप्त करने का साहस नहीं करता और लडकियाँ इसके देने से सामाजिक दबाव का विरोध नहीं करती यह प्रथा लोगो से बंधी रहेगी ।

अनुलोम विवाह व्यवस्था – अन्तर्विवाह के अतिरिक्त हिन्दुओं में अनुलोम विवाह प्रथा भी है , जिसके अनुसार निम्न जाति ी का विवाह उच्च जाति में हो सकता है । जब उच्च जाति न जाति की युवती से विवाह करते हैं तब वे अधिक( दहेज ) दहेज मांगते हैं । अत : अनुलोम विवाह दहेज प्रथा को प्रोत्साहित करता है ।

दुष्चक्र – वर के माता – पिता द्वारा दहेज स्वीकार करने का महत्वपूर्ण कारण यह है कि उन्हें अपनी बेटियों या बहिनों के विवाह में दहेज देना ही है । स्वाभाविक है कि वे अपने बेटे के दहेज में प्राप्त धनराशि को अपनी बेटी के लिए योग्य वर ढूढने तथा उसे प्रसन्न करने के काम में लाते हैं । यहाँ से दुष्चक्र प्रारंभ होता है और दहेज की राशि कलंकित अभिशाप का रूप धारण कर लेती है । दहेज के समाजशास्त्रीय आशय – लोगों में दहेज के प्रति द्विविधात्मक धारणा हो सकती है किन्तु कुछ लोगों का दृष्टिकोण स्पष्ट है । एक ओर वे लोग हैं जो इस बुराई को जड़ से उखाड फेंकने के पक्ष में हैं लेकिन दूसरी ओर कुछ प्रतिक्रियावादी भी हैं जो इस प्रथा को किसी न किसी रूप में जिन्दा रखना चाहते हैं । वे समझते हैं कि इस प्रथा के बने रहने में कुछ लाभ हैं : कुछ लाभ जो आवश्यक रूप से अच्छे तर्क व बुद्धिसंगतता पर आधारित नहीं हैं , इस प्रकार हैं :

1 . गरीब वर्ग के गुणी लड़कों को उच्च शिक्षा देकर भविष्य बनाने के अवसर प्राप्त होते हैं ।

 2 . यह प्रथा नई गृहस्थी को व्यवस्थित करने में मदद करती है । विवाह के बाद दम्पति को नया घर बसाना पडता है क्योंकि आजकल संयुक्त परिवार का अस्तित्व समाप्त होता जा रहा है । अत : दहेज में प्राप्त धन नव दम्पति को नया घर बसाने में सहायक होता है ।

 3 . दहेज से परिवार में स्त्री का मान बढ़ता है । यदि वधू अपने साथ विवाह में अच्छी धनराशि लाती है तो उसके साथ आर्थिक सहयोग के कारण अच्छा व्यवहार किया जाता है ।

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4 . कुरूप लड़कियों के विवाह की सम्भावनाएँ बढ़ जाती हैं । करूप लड़की के लिए अच्छा वर मिलना बड़ा कठिन होता है । लेकिन यदि उसके माता – पिता अच्छी धनराशि खर्च करने के लिए तैयार हो तो अच्छा वर मिलना सरल हो जाता है । क्योंकि कुछ लोग ऐसे भी हैं जो धन से अधिक प्यार करते है लड़की से कम ।

 5 . दहेज लोगों को समाज में अपना मान बढ़ाने में मदद करता है । निम्न वर्गों के लोग अपने पुत्रियों के विवाह उच्च वर्गो में करते हैं , अधिक धनराशि दहेज में खर्च करते हैं और इस प्रकार अपना सामाजिक स्तर ऊँचा उठाते हैं ।

6 . कुछ लोग दहेज के द्वारा लड़कियों को उसका हिस्सा देने की बात समझते हैं । लोग अपने दामाद को जमीन दे नहीं सकते तो दहेज के रूप में पैसे देकर ही उसके हिस्से की राशि उसे दे देते हैं ।

7 . इससे अन्तर्जातीय विवाह को प्रोत्साहन मिलता है । बेटी के जीवन साथी की तलाश में पिता के सामने मुख्य विचार

 होता है कि चुने गए लड़के का भविष्य सुरक्षित हो और वह अच्छे चरित्र का हो अतः जाति की बजाय लड़का चुनाव का मुख्य विषय बन जाता है । अतीत में दहेज लाभकारी रहा होगा । किन्तु आजकल तो यह भारतीय समाज में एक कलंक एक दाग बन कर रह गया है । एक समय था जब दहेज वर पक्ष के द्वारा स्वीकार किया जाता था परन्तु अब यह ” मांगा ” जाने लगा है । परिणाम यह है कि कन्या के जन्म के दिन से ही दहेज की समस्या उसके माँ – बाप के मस्तिष्क में घर कर जाती है और यदि दुर्भाग्यवश उस व्यक्ति के तीन चार बेटियाँ हैं तो उसका सारा जीवन इस समस्या का समाधान करने में व्यतीत हो जाता है कि वह अपनी बेटियों के विवाह की क्या और कैसे व्यवस्था करे । इससे उसकी मानसिक परेशानी बढ़ती है ।

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दहेज के दोष

  . अनैतिक – समाज में नैतिक मूल्यों का दिन – प्रतिदिन ह्रास होता जा रहा है । आज यह महसूस किया जाने लगा है कि हम सब नैतिक दायित्वों से किसी हद तक काफी गिर चुके हैं । प्राचीन काल में इस अध्यात्मवादी देश में जहाँ व्यक्ति कन्या पक्ष के समक्ष वैवाहिक संबंधों में धनादि के लिए हाथ नही फैलाता था वहाँ आधुनिक विचारधारा बहुत ही परिवर्तित हो चुकी है । व्यक्ति अब लड़के के विवाह में वर मूल्य की अदायगी चाहता है और वह कन्या पक्ष से बलपूर्वक इच्छित धन , वस्तएँ आदि प्राप्त करने में अधिकांशतः सफल रहता है इस प्रकार वर पक्ष द्वारा बलपूर्वक लिया जाने वाला धन व वस्तुएँ आदि अनैतिकता की परिचायक कही जा सकती है ।

 . आर्थिक तंगी – प्राचीन समय में दहेज प्रथा समाज में धन का समान वितरण के लिए लायी गयी थी । किन्तु अब गलत तरीके से विकास के कारण यह अभिशाप बन गई है । खासकर मध्यम वर्गीय परिवार के लिए , जो जीवन भर अपने परिवार के लिए ही कार्य करने में धन लगाते रहते हैं । कभी शिक्षा , तो कभी दहेज परिणामत : विवाह के समय वर पक्ष की माँगों को पूरा करने के लिए ऋण लेना पड़ता है । कई बार यही ऋण पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहता है जिससे परिवार की अर्थव्यवस्था नष्ट हो जाती है ।

 , असामाजिक – मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है वह बिना समाज के जीवन व्यतीत नहीं कर सकता है अन्तोगत्वा वह सामाजिक नियमों के अधीन ही जीवन पर्यन्त कार्य करता है , यही उसकी सामाजिकता का प्रतीक है समाज के हितों

को सर्वोपरि रखते हुए व्यक्तियों द्वारा समाज में जो कार्य लिए जाते हैं उन कार्यों से मूलभूत संरचना सुदृढ़ रहती है । किन्तु कुछ कार्यों को करने से हितों को आघात पहुँचता है , उससे सामाजिक संरचना छिन्न – भिन्न होती है । भारतीय समाज में कुछ सामाजिक रीति – रिवाज कुप्रथाएँ जैसे – अस्पृश्यता , जातिवाद , विधवा विवाह – निषेध बाल – विवाह प्रथा व दहेज प्रथा आदि भी समाज में विद्यमान हैं । समाज में सर्वाधिक पनप रही दहेज जैसी कुप्रथा सामाजिक संरचना को अधिक छिन्न – भिन्न कर रही है । इस प्रथा के विकास से सामाजिक कार्यों एवं सामाजिक मूल्यों का ह्रास हो रहा है इससे प्रतीत होता है कि यह कुप्रथा असामाजिक कार्यों को बढ़ावा दे रही है जो पूर्णत : अराजकता का प्रतीक है ।

 . अधार्मिक – सदाचार ही सबसे बड़ा धर्म कहा गया है । धर्म मानव कल्याण एवं परोपकार के लिए धारण किया जाता है धारण करने का यही अभिप्राय है कि धर्म मानव जीवन का कल्याण करता है रक्षा करता है पोषण करता है । धर्म ही मनुष्य को अच्छे आचरण सिखाता है । हिन्दू विवाह में दान को बहुत ही धार्मिक कार्य माना गया है यही धर्म आज दहेज के रूप में समाज में कोढ़ की तरह फैल गया है ।

  . स्त्रियों की निम्न स्थिति – दहेज प्रथा देने वाले को अधिक दीन तथा लेने वाले को अधिक हीन बनाती है और स्त्रियों की परिस्थिति को तो बहुत गिराती है । लड़का स्वयं को बड़ा सम्मानित व्यक्ति समझता है और लड़की को हीन व निम्न स्तर की वस्तु समझता है अतः दहेज सामाजिक अन्याय है यह हमारे लिए शर्मनाक है व समाज पर कलंक है । यह स्त्रियों के आत्म – सम्मान पर कुठाराघात है ।

  . दहेज प्रथा समाप्ति के लिए समाधान – दहेज प्रथा की विकरालता एवं तांडव नृत्य को देखते हुए समाज की विचार शक्ति इसके निराकारण की ओर अग्रसर हो चुकी नाह है , ताकि इस भयावह समस्या के बन्धन से मुक्ति मिल सके ।

दहेज प्रथा जैसी समस्या में मक्ति तभी संभव है जब इसके निराकरण एवं समाधान के लिए एकजुट होकर धार्मिक सामाजिक एवं राजनैतिक सभी दृष्टियों से प्रयत्न किए जाएँ । इस समस्या के समाधान के लिए सशक्त वैचारिक एवं क्रियाशील जनाधार तैयार करने की भी परमावश्यकता है । दहेज प्रथा विरोधी अभियान से

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 सरकारी स्तर पर – पूर्व में समाज में हिन्द महिलावर्ग को  सती प्रथा बहुत ही कुप्रभावित कर रही थी , जिसके परिणामस्वरूप नारी विघटन की ओर अग्रसर हो रही थी । किन्त राजा राममोहन राय के प्रयत्नों के फलस्वरूप लार्ड विलियम बेन्टिक ने सन् 1829 में सती प्रथा पर रोक लगा दी थी । भारत सरकार के 20वीं सदी के तत्कालीन कानन मंत्री ए . के . सेन ने 27 अप्रैल , 1959 को संसद में दहेज निरोधक विधेयक प्रस्तुत किया था । 9 मई , 1961 को संयुक्त अधिवेशन में यह तय हुआ कि विवाह के अवसर पर जो उपहार दिए जाएंगे उन्हें दहेज नहीं समझा जाएगा , किन्तु विवाह तय करते समय उपहारों के लेने – देन की जो शर्त रखी जाएँगी वे दण्डनीय होंगी । तत्पश्चात दहेज निरोधक विधेयक की स्वीकृति दी गईं इस अधिनियम में दस धाराएँ हैं ।

 कानूनी स्तर पर

  1. 1. विवाह के समय प्राप्त सभी उपहार स्त्री धन – सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया है कि किसी भी महिला को शादी के समय दहेज के रूप में प्राप्त सारे सामान पर वधू का हक है और या ससुराल वाले देने से इन्कार करते हैं तो इन पर मुकदमा चलाया जाएगा ।

2 . दहेज लोभी सास – ससुर व पति को आजीवन कैद दहेज के लिए यदि तधू को प्रताड़ित किया जाता है या उसकी हत्या की जाती है तो दहेज लोभियों को आजीवन कैद की सजा होगी ।

 3 . गर्भवती वधू की हत्या में पति व सास को फाँसी की सजा

 4 . स्पेशल कोर्ट मैरिज एक्ट – दहेज प्रथा को निष्प्रभावी करने के लिए स्पेशल कोर्ट मैरिज एक्ट भी सहायक है । सरकार द्वारा निर्धारित आयु पूरी करने पर विवाह कर सकते हैं । इससे दहेज से मुक्ति मिल सकती है । उच्च वर्ग के महंगे दहेज पर रोक – उच्च वर्ग ही दहेज को बढ़ावा दे रहा है और वैवाहिक प्रक्रियाओं को जटिल से जटिलतम् बना रहा है । उनके इन कृत्यों का असर मध्यम व निम्न वर्ग पर पड़ रहा है अत : उच्च वर्ग के मंहगे विवाहों एवं दहेज के लेन – देन पर सरकार को रोक लगाना अति आवश्यक है । सामाजिक स्तर पर – मँहगी सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन लाने तथा दहेज प्रथा को समाप्त करने के लिए समाज में व्यापक स्तर पर अनुभव किया जा रहा है ताकि सामाजिक स्तर पर इस समस्या का समाधान ढूंढ निकाला जाए , क्योंकि सरकारी नियमा एवं कानूनों पर निर्भर रह कर किसी भी सामाजिक समस्या का समाधान नहीं किया जा सकता है । अत : इसके लिए समाज को जागरूक होना । थाम र पर – वैदिक युग में समाज में स्त्रियों का स्थान ऊंचा या तथा उन्हें श्रद्धा व सम्मान की दृष्टि से देखा जाता  पड़ेगा ।। यही नहीं , स्त्रियों को सभी धार्मिक सामाजिक व राजनीतिक ई अधिकार प्राप्त थे परन्तु आधुनिक परिवेश में नारी के जीवन का । मूल्य केवल दहेज रह गया है । नारी जाति को मिले हए सम्मान में न प्राप्त गौरव सभी कुछ पुरुष समाज ने छीन लिया है और नारी | उपभोग की वस्तु बनकर रह गई है । अब यह भी महसूस किया जा रहा है कि सभी पंथों के धर्मगुरू , महात्मा , साधु – सन्त , सन्यासी समाज के सामने अपने प्रवचनों व व्याख्यानों के माध्यम से दहेज के विरोध में सक्रिय भूमिका निभाएँ ।

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. राजनैतिक स्तर पर – देश में स्वंतत्रता के पश्चात से जब – जब कोई भी राष्ट्रीय समस्या आई तब – तब उसे समस्या के । समाधान के लिए सभी राजनीतिक दलों ने मिलकर सक्रिय सहयोग देने की आवश्यकता है । समाज के अन्दर व्याप्त दहेज – प्रथा जैसी राष्ट्रीय समस्या के समाधान के लिए एकमत होकर सक्रिय सहयोग प्रदान किया । इसी तारतम्य में आज समाज के अन्दर व्याप्त दहेज प्रथा जैसी राष्ट्रीय समस्या के समाधान के लिए राजनीतिक स्तर पर एकमत होकर सक्रिय सहयोग प्रदान करें तथा दहेज प्रथा के विरुद्ध विस्तृत कार्यक्रम सम्पादित करें जो कि जनाकांक्षाओं के पक्ष में हितकर हो दहेज प्रथा के विरोध में राष्ट्रीय स्तर से ग्राम सभा स्तर तक अभियान चलाया जाना व इसके विरोध में साहित्य प्रचार सामग्री आदि वितरित करना समाज एवं राष्ट्र के हित में होगा ।

शैक्षिक स्तर पर – शैक्षिक स्तर पर दहेज प्रथा को समाप्त करने के लिए महत्वपूर्ण कदम उठाए जा सकते हैं । जिसके लिए भारत सरकार को शिक्षा के राष्ट्रीयकरण नीति की घोषणा शीघ्र ही करनी चाहिए । इससे देश भर में समान शिक्षा का पाठ्यक्रम प्रारंभ हो सकता है । आज देश के लिए ऐसी नैतिक शिक्षा की आवश्यकता पर बल देना होगा जो राष्ट्रीयता की भावनाओं को बल दे सकें । राष्ट्रोत्थान के लिए नैतिक शिक्षा में महापुरुषों के चरित्र को चित्रित करने के साथ – साथ राष्ट्र – प्रेम व राष्ट्रीय भावना की जागृति करना , सामाजिक घटनाओं की जानकारी सामाजिक परिवर्तन करने के लिए कदम उठाने की शिक्षा का विस्तार भी शमिल है । इसे प्रभावी शिक्षक वर्ग ही बना सकते हैं । छात्राओं को क्रीड़ा संबंधी कार्यक्रमों में अनिवार्यतः भाग लेने के लिए प्रेरित करना होगा । जूड़ो के विस्तार होने पर आसानी से महिलाएँ सीखकर सुरक्षात्मक दृष्टि से आत्मनिर्भर बन सकती हैं । •

जातिवाद के महत्व को समाप्त करना – वैदिक काल से ही जातिवाद प्रचलन में है और आज भी शादी – विवाह जाति के अंदर ही होती है । जाति भी कई उपजातियों में बंटी है और इसका भी पालन करना होता है जिसके कारण दहेज प्रथा जैसी समस्या भयावह स्थिति उत्पन्न कर रही है । इस  देश की अखण्डता , जातीय पक्षपात और प्रोत्साहित करने वाले नियमों व कानूनों की अवहेलना देश के शैक्षिक , सामाजिक , आर्थिक राजनैतिक व प्रशासनिक कार्यों के लिए भी बाधक हैं ।

अन्तर्जातीय विवाह को प्रोत्साहन देना – इसे प्रोत्साहन देना र चाहिए क्योंकि इससे दहेज की बुराई को समाप्त करने में सहायता मिलेगी , लड़के और लडकियों को अपने जीवन साथी का चुनाव करने के अवसर प्रदान किए जाने चाहिए । ‘ अब माता – पिता की सहमति से विवाह पर जोर नहीं दिया जाना चाहिए बल्कि उन्हें मिलने – जलने की आजादी होनी चाहिए ताकि वे अपने भाग्य स्वयं बना सके । •

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 प्रेम विवाह – सैद्धान्तिक रूप में ‘ प्रेम ‘ मानव शक्ति के सृजन की तथा ‘ घणा ‘ मानव शक्ति के विनाश की द्योतक है । जहाँ प्रेममय जीवन है उसे स्वर्ग की संज्ञा दी जाती है और जहाँ घृणा का संचार है उसे नरक की । प्रेममय जीवन तभी सफल हो पाता है , जब मानव – मानव , पति – पत्नी , प्रेमी – प्रेमिका के समक्ष प्रेम को एक आकर्षक तथा आत्मसमर्पण की भावना से अंगीकार करते हैं । यदि प्रेमी युगल परिणय सूत्र में बंध जाते हैं तो जीवन आनंद से व्यतीत होता है , किन्त समाज इसे मान्यता नहीं देता । अतः यदि इसका प्रचलन हो और कोई बाधा न आये तो दहेज प्रथा जैसी कुरीतियों को रोका जा सकता है ।

आदर्श विवाह – वैवाहिक जटिलताओं एवं दहेज प्रथा की विकरालता को देखते हुए इस शताब्दी के उत्तरार्द्ध से आदर्श विवाह का प्रचलन प्रारंभ हुआ । समाज में आदर्श प्रस्तुत करने के लिए दहेज सहित आदर्श विवाह को प्रचलन में लाया जा रहा है । समाज के समक्ष आदर्श प्रस्तुत करने के लिए दुल्हन को ही दहेज के रूप में स्वीकार करना चाहिए । समाज में यथार्थ रूप में आदर्श प्रस्तुत करने के लिए अविवाहित युवक – युवतियों को स्वयं परिणय सूत्र में बंधने के लिए सामाजिक बंधनों को तोड़कर आगे आना पड़ेगा ।

उपसंहार – प्रत्येक समाज का गतिशील होना एक स्वाभाविक प्रक्रिया के अंतर्गत आता है अत : ऐसा कोई भी समाज न होगा जिस समाज में गतिशीलता न रही हो , सामाजिक गतिशीलता ही सामाजिक परिवर्तन की द्योतक कही जा सकती है । सामाजिक स्थितियों पेशों जनरीतियों , प्रथाओं , परम्पराओं तथा भारतीय संस्कृति में तेजी से परिवर्तन हए हैं और आज भी यह क्रम जारी है । हिन्दू महिलाओं पर मुस्लिम शासकों के अत्याचार से पर्दाप्रथा तथा बाल – विवाह प्रथा को बल मिला । अविवाहित हिन्दू कन्याओं का विवाह उनके अभिभावक इज्जत बचाने तथा रक्त की शुद्धता कायम रखने के उद्देश्य से जल्दी करने लगे थे और नवदम्पति का जीवन चलाने के लिए धन देते थे जो  आज दहेज क म प्रचलन म आ गया । विवाह में दहेज का प्रचलन बढ़ने से वैवाहिक व्यवस्था उत्तरोत्तर खर्चीली होती गई और आजहिन्दू समाज में दहेज इतना प्रबल हो चुका है कि महिला समाज अस्तित्वविहीन हो गया और इसके दुष्परिणाम यह निकले कि आधुनिक सभ्य समाज आज भी महिलाओं को पारिवारिक आदर्शों एवं प्रथाओं को मानने के अतिरिक्त घर की चाहर दीवारी के घेरे के अंदर विकास – करना और आर्थिक असहायता के दायरे में जीवन व्यतीत करना पड़ रहा है । जहाँ एक ओर राष्ट्र चहुंमुखी विकास की ओर अग्रसर है और महिलाएँ शिक्षा तथा अन्य क्षेत्रों में पुरुषों के बराबर चल रही है वहीं दूसरी ओर महिलावर्ग का बृहत व्यापक स्तर पर शोषण जारी है ।

उच्च शिक्षित अविवाहित युवतियों तक के भी विवाह शत् प्रतिशत दहेज प्रथा की परिधि में ही सम्पन्न होते हैं । कहने का अभिप्राय यही है कि महिलावर्ग प्रगति के पथ पर होते हुए भी दहेज प्रथा से ग्रसित होने के दुष्परिणामस्वरूप अस्तित्व विहीन दिखाई पड़ती आज दहेज प्रथा के कारण व्यक्तिगत पारिवारिक व सामाजिक विघटन तो हो ही रहे हैं साथ ही साथ समाज में विभिन्न अपराधों में लगातार वृद्धि हो रही है , नव – वधुओं पर अत्याचार किए जाते हैं यही नहीं दहेज कम मिलने पर या तो उन्हें आत्महत्या के लिए विवश किया जाता है अथवा उन्ही मामलों में हत्या कर दी जाती है । अन्त में कहा जा सकता है कि दहेज – प्रथा का उन्मूलन समाज सुधार की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम होगा ।

भले ही प्रारंभ में उद्देश्य कुछ भी रहा हो पर इससे इन्कार नहीं किया जा सकता है कि इस प्रथा ने स्त्रियों की भावनाओं एवं अलग पहचान वाले व्यक्ति के रूप में स्वीकार करने में असफलता पायी है । इस अन्याय को रोकना ही होगा । भले ही यह शिक्षा प्रचार संगठनों या विद्वानों द्वारा क्यों न हो हमने इस बुराई को लम्बे समय से पनपने दिया है और समाज को विकृति का शिकार बना दिया है । जब तक हम अधिक प्रगतिशील दृष्टिकोण वाले क्रान्तिकारी विचारों वाले तथा कम रूढ़िवादी नही बनेंगें तब तक दहेज हमारे समाज में अभिशाप के रूप में ही बना रहेगा । केवल सहयोग और आपसी समझदारी से ही समाज के रथ के पहिए सरलता से चल सकते हैं । आज विवाह दहेज के आधार पर ठहराया जाता है न कि चरित्र के आधार पर या उच्च आकांक्षाओं के आधुनिक मूल्यों के आधार पर अतः हिन्दू समाज के लिए उपयुक्त समय है कि दहेज प्रथा की बुराई को समूल नष्ट कर दिया जाए जिसने अनेक युवतियों को आत्महत्या करने के लिए बाध्य किया है । यह नही भूलना चाहिए कि विवाह एक पवित्र संस्कार है न कि व्यापार या सौदा । जब एक लड़की को उसके गुणों के लिए नहीं बल्कि दहेज के लिए विवाह स्वीकार किया जाता है तो विवाह में जो वह लाती है वह केन्द्र बिन्दु रह जाता है तो विवाह की पवित्रता समाप्त हो जाती है अत : जितनी जल्दी हम इस बुराई से छुटकारा प्राप्त कर लें समाज के लिए उतना ही हितकर होगा ।

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