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जाति प्रथा

जाति प्रथा

( Caste System )

‘ जाति ‘ शब्द के निर्माण के बारे में अनेक मत प्रचलित हैं । जाति का शास्त्रीय देश भारत है । सन्दर्भ में देखा जाए तो हिन्दी का ‘ जाति ‘ शब्द संस्कृत भाषा के ‘ जन ‘ धातु से बना है , जिसका अर्थ है ‘ उत्पन्न होना ‘ या ‘ उत्पन्न करना ‘ । इस प्रकार जन्म से समान गुण – धर्म वाली वस्तुओं को एक जाति कहा जाता है । इस दृष्टि से जाति मनुष्यों में ही नहीं , पौधों और जड़ पदार्थों में भी होती है । एक अन्य धारणा के अनुसार यूरोपवासियों में सबसे पहले पुर्तगालियों ने Caste ‘ कास्ट ‘ शब्द का प्रयोग किया जो पूर्तगाली शब्द Castra ‘ कास्ट्रा ‘ से बना है जिसका अर्थ है ‘ वंश ‘ या ‘ नस्ल ‘ । ‘ कास्ट ‘ शब्द का लैटिन शब्द Castus ‘ कास्टस ‘ से भी घनिष्ट सम्बन्ध है जिसका तात्पर्य है ‘ परिशुद्ध ‘ या ‘ अमिश्रित ‘ । इस प्रकार शब्द व्युत्पत्ति की दृष्टि से जाति एक ऐसे वर्ग को व्यक्त करता है जिसका प्राधार वंश या नस्ल परिशुद्धता या अमिश्रितता है जो पूर्णतया प्रानुवंशिकता पर आधारित होता है । स्पष्ट है कि एक समाज इस ( जाति ) प्रणाली से प्रभावित है , यदि यह समाज परस्पर विरोधी अनेक समूहों में बँटा हा है जो आनुवांशिक तरीके से विशेषीकृत है और संस्तरीकृत तरीके से श्रेणीबद्ध है – यदि , सिद्धान्ततः यह ( प्रणाली ) न नए व्यक्तियों को स्वीकार करती है और न रक्त – मिश्रण तथा न पेशों के बदलने को स्वीकार करती है । अनेक विद्वानों ने जाति या वर्ण को एक – दूसरे का पर्याय माना है , परन्तु वस्तुतः यह उपयुक्त नहीं है । यद्यपि वर्ण – व्यवस्था के द्वारा जाति की उत्पत्ति हुई , इस बात के पर्याप्त उल्लेख मिलते हैं ।

 

जाति : प्रकार्य अथवा लाभ

( Caste : Functions or Merits )

जाति – प्रथा ने भारतीय समाज के संरक्षण और संवर्द्धन में अति महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है तथापि हजारों वर्षों के विकास की प्रक्रिया में आज यह प्रथा दोषों का ऐसा पिटारा बन चुकी है जिसे फैक देना ही वर्तमान युग की मांग है । इस दिशा में केवल वैधानिक और प्रशासकीय प्रयास ही काफी नहीं होंगे । जब तक शैक्षणिक विकास तथा अन्य उपायों से हिन्दू जनता में जाति – प्रथा के विरुद्ध घृणा का भाव नहीं पनपेगा तब तक यह दूषित प्रथा हमारे समाज और राष्ट्र को संगठित नहीं होन देगी । जब हम ज ति – प्रथा के लाभों की चर्चा करते हैं तो अधिकांशतः हमारा मन्तव्य उसके आदर्श स्वभाव और स्वरूप के लिए होता है । जिन उल्लेखनीय कार्यों से जाति – प्रथा प्रशंसा का पात्र बनी है वे मुख्यतः निम्नलिखित हैं

व्यक्तिगत अनुशासन तथा सम्मान की रक्षा – जाति के नियम व्यक्ति को अनुशासन में रखते हैं और उसे अवांछनीय तथा असामाजिक कार्यों को करने से रोकते हैं । अवांछनीय व्यक्ति को जाति से बहिष्कृत कर दिया जाता है । इस प्रकार जाति सामाजिक नियन्त्रण का कार्य करती है ।

 सदस्यों की मानसिक सुरक्षा – जाति व्यवस्था अपने सदस्यों को मानसिक सुरक्षा प्रदान करती है । प्रत्येक जाति में सामूहिक भावना अत्यन्त प्रभाव शाली होती है । कठिन परिस्थितियों में जाति मनुष्य की सहायता करती है । जाति की सामूहिक शक्ति के अाधार पर व्यक्ति को मानसिक सुरक्षा का अनुभव होता है । जाति प्रत्येक व्यक्ति को सामाजिक स्थिति प्रदान करती है । व्यक्ति को कोई भी मानसिक कष्ट नहीं उठाना पड़ता है क्योंकि उसके लिए सब कुछ पूर्व – निश्चित रहता है । उसे मार्ग निश्चित करने के लिए मनोवैज्ञानिक झंझट में नहीं पड़ना पड़ता , निश्चित मार्ग पर चलते रहने से ही परम धर्म होता है ।

 समूह में सहयोग – जाति – बन्धन ने एक समूह विशेष को एकता के सूत्र में बांध रखा है । एक विशेष जाति समूह में व्यक्ति स्वयं को सुरक्षित समझता है और एक – दूसरे के प्रति सहायक होना अपना कर्त्तव्य मानता है । जातीय एकता ने व्यक्तियों की अनेक संकटों से रक्षा की है और अनेक हितार्थ कार्यों जैसे बाल कल्याण , जातीय वजीफों का प्रबन्ध , जातीय धर्मशालाओं आदि की अोर ध्यान दिया है ।

 व्यावसायिक विशेषताओं को गुप्त रखना – प्राचीनकाल में जाति किसी निश्चित व्यवसाय को ही अपनाती थी तथा उसमें विशेषज्ञ समझी जाती थी । कोई भी जाति अन्य जाति के समक्ष अपने व्यावसायिक रहस्यों का उद्घाटन नहीं करती थी । जाति के सदस्यों को व्यावसायिक रहस्य अनिवार्य रूप से गुप्त रखने पड़ते थे । जाति अपनी विशिष्ट कुशलता का हस्तान्तरण अन्य जाति में नहीं हान हम चाहती है । उसके साथ ही जाति अपने विशेष व्यवसाय की प्रशिक्षा अपनी असानों को स्वाभाविक पर्यावरण के प्राधार पर नि : शुल्क प्रदान करती रही ।

 सामाजिक स्थिति निर्धारित करना – जाति – प्रथा के अन्तर्गत समदाय विशेष के लिए एक निश्चित सामाजिक स्थिति निर्धारित की जाती है जिसके प्रसार तीय संस्तरण में प्रत्येक की स्थिति सुनिश्चित होती है । जाति के इन सभी कार्यों से स्पष्ट है कि अपने प्रादर्श के रूप में जाति – प्रथा देय नहीं है । दुर्भाग्यवश जाति – प्रथा के ये सभी लाभ आज अतीत की कहानी बन । सद् – उद्देश्यों से बनाई गई जाति – व्यवस्था आज बहुत ही कुत्सित रूप में हमारे सामने है । जाति – प्रथा में प्राज इतने दोष घर कर गए हैं कि हम इसका उन्मलन चाहते हैं । डॉ . राधाकृष्णन् के शब्दों में , ” दुर्भाग्यवश वही जाति – प्रथा जिसे सामाजिक संगठन को विनष्ट होने से बचाने के साधन के रूप में विकसित किया था , आज उसी की उन्नति में बाधक बन रही है । “

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समाज , सभ्यता और संस्कृति की रक्षा – जाति – प्रथा ने हिन्दू – समाज और हिन्दू – संस्कृति की रक्षा की है । नाना राजनीतिक उथल – पुथल , युद्धों एवं क्रान्तियों के बाद भी जाति – प्रथा के कारण ही हिन्दू – समाज सुरक्षित रहा और हिन्दू जाति के चार प्रमुख अंगों – ब्राह्मण क्षत्रीय , वैश्य और शूद्र – में विशिष्ट साँस्कृतिक तत्त्व बने रहे । इस प्रथा ने धर्म – परिवर्तन का सदा विरोध किया और इस प्रकार खान – पान , रहन – सहन , वेश – भूषा , विवाह – प्रणाली एवं अन्य संस्कारों का विधि – विधान जातियों में सुरक्षित रहा । जाति – व्यवस्था ने सामाजिक परम्परा को जीवित रखा । विदेशी अाक्रमणकारियों ने भारत का तन जीता परन्तु वे उसका मन नहीं जीत पाए । जाति – प्रथा ने हिन्दू – समाज के विविध समुदायों को एक सूत्र में बांधे रखने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया । फरनीवाल ( Farniwal ) के शब्दों में , ” भारत में जाति – प्रथा ने समाज को एक ऐसी अवस्था प्रदान की है जिसमें कोई भी समुदाय ,चाहे वह प्रजातीय हो या सामाजिक या व्यावसायिक अथवा धामिक , अपनी विशिष्ट प्रकृति और पृथक सत्ता को बनाए रखते हुए अपने को सम्पूर्ण समाज के एक सहयोगी अंग के रूप में उपयुक्त बना सकता है । ” जोड ( Joad ) के अनुसार मी जाति – प्रथा अपने सर्वोत्तम रूप में इस विशाल देश के विभिन्न विचारों , विभिन्न वर्गों को एक सत्र में पिरोने का सफलतम प्रयास था ।

 जाति – प्रथा ने राजनीतिक व्यवस्था की एक शाखा के रूप में काम किया – प्राचीन काल में जब प्राज की भाँति राज्यों का अभाव था , तब जाति – प्रथा के कारण समाज के सभी लोग अपने – अपने कर्तव्यों का पालन करते थे और अनुशासित रहते थे । इस प्रकार उस समय में जातियाँ राजनीतिक व्यवस्था की शाखाओं के रूप में ही थीं जिन्होंने समाज में प्रजातन्त्रात्मक प्रणाली में विश्वास को जन्म दिया ।

समाज में सरल श्रम – विभाजन की व्यवस्था – हट्टन ने लिखा है कि जाति – प्रथा के फलस्वरूप ही भारतीय समाज के सब कार्य , चाहे वे निजी क्षेत्र के हों या सरकारी क्षेत्र के , सुचारू रूप से चलते हैं और लोग अपने कार्यों को धार्मिक विश्वास अथवा ‘ कर्म की धारणा ‘ के आधार पर करते हैं । जाति के सदस्य यह मानकर चलते हैं और लोग अपने कार्यों को धार्मिक विश्वास अथवा ‘ कर्म की धारणा ‘ के आधार पर करते हैं । जाति के सदस्य यह मानकर चलते हैं कि अपने पूर्व – जन्म के कर्मों के प्रतिफलस्वरूप उन्हें इस जन्म में परिवार – विशेष में जन्म लेना पड़ा है और कार्य विशेष करना पड़ा है । अपने इस विश्वास के कारण वे गन्दे कार्य को भी निःसंकोच करते रहते हैं और समाज में अपनी स्थिति के विरुद्ध विद्रोह करने की प्रायः नहीं सोचते । फलस्वरूप न केवल व्यक्ति को मानसिक द्वन्द्व और निराशा से छुटकारा मिल पाता है वरन् सामाजिक एकता और शान्ति भी बनी रहती है । जाति – प्रथा में श्रम – विभाजन का सिद्धान्त लागू होने के कारण प्रत्येक जाति अपने विशेष कार्य में कुशलता प्राप्त कर लेती है । आज चाहे इस कार्य की महत्ता कम हो गई हो , किन्तु अतीत में काम के बँटवारे के कारण ही काम और व्यवसाय की कुशलता में जातिगत रूप से वृद्धि हो सकी थी । जाति – प्रथा के आधार पर ही बड़े – बड़े संघ बने थे जिनकी सहायता से अच्छा उत्पादन होता था । वे संघ बाहरी प्रतियोगिता से अपने भाइयों की रक्षा करते थे ।

 काम की होशियारी , ज्ञान और प्रगति को कायम रखना – जाति – प्रथा के कारण व्यावसायिक होशियारी एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में सरलता से पहुँच जाती थी । एक पीढ़ी की तरक्की बेकार होने से पहले वह तरक्की पाने वाली पीढ़ी को मिल जाती थी । एक बढ़ई का पुत्र कुशल बढ़ई और एक जुलाहे का पुत्र कुशल जूलाहा बन जाता था । इस प्रकार जब बढ़ते हए ज्ञान को सुरक्षित रखने का अन्य कोई साधन नहीं था , तब जाति – प्रथा ने इस ज्ञान और तरक्की को सम्भाल । कर रखा ।

 सुप्रजनन की शुद्धता को बनाए रखना – सिजबिक के अनुसार जातिप्रथा में पाई जाने वाली अन्त विवाह पद्धति के फलस्वरूप सुप्रजनन की शुद्धता नही रहती है । पर इस मत से सहमत होना कठिन है क्योंकि विभिन्न जातियों विवाह होने से वंशानुसंक्रमण सम्बन्धी दोष उत्पन्न होते हैं । डॉ . मजूमदार और मदान द्वारा जाति – प्रथा के एक मौन कार्य ( Silent Function ) का उल्लेख किया गया है । अन्त विवाह के फलस्वरूप प्रायः लड़कियों की अपेक्षा लड़कों का जा अधिक होता है । इस प्रकार जाति – प्रथा के कारण लोगों को मानसिक शान्ति प्राप्त होती है । लड़के परिवार की निरन्तरता बनाए रखने और तर्पण , पिण्डदान आदि धार्मिक क्रियाओं को पूर्ण करने का दायित्व निभाते हैं ।

 उच्च कोटि के नागरिक गुणों को जन्म – जाति – प्रथा ने भाईचारे और सौहार्द्र की भावना को जन्म दिया । एक जाति के मनुष्य रोटी , बेटी और हुक्का – पानी में सम्मिलित होते हैं तथा आवश्यकता पड़ने पर एक – दूसरे की सहायता करते हैं । वे जाति की बुराई को अपनी बुराई समझते हैं । इस प्रकार जाति – प्रथा से प्रेम , सेवा , त्याग एवं लोकतन्त्र के उदात्त विचारों को बल मिला ।

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जाति – प्रथा से हानियाँ

( Demerits of Caste System )

 

जाति – प्रथा के कारण अधिकार , उपक्रम और महत्त्वपूर्ण कार्यों को प्रोत्साहन नहीं मिलता – जाति – प्रथा में अधिकांश व्यक्तियों में यह धारणा घर कर जाती है कि उनका सामाजिक स्तर जन्म द्वारा ही निश्चित हो चुका है और वे कितना भी परिश्रम क्यों न करें उनमें प्रगति होना कठिन है । जाति – प्रथा के कारण ही हिन्दु पों ने नाना खोजों एवं महत्त्वपूर्ण अधिकारों पर ध्यान नहीं दिया क्योंकि उनके विचार में ऐसा करना जाति – धर्म और नियमों के विपरीत था ।

 ( हिन्दू – समाज को क्षीण बनाना – जाति – प्रथा ने अस्पृश्यता , भेदभाव और कठोर प्रतिबन्धों का ऐसा जाल फैलाया है कि भारी संख्या में हिन्दू लोग मुसलमान और ईसाई बन गए । अपने समाज में समानता के द्वार बन्द पाकर , वे दुसरे धर्मों की ओर आकर्षित हुए । जाति – च्युत लोगों के लिए हिन्दू धर्म का परित्याग करने के अलावा कोई चारा न रहा । कठोर जाति – प्रथा ने भारत के लगभग 30 – 35 प्रतिशत हिन्दुनों को विधर्मी बना दिया ।

 अनेक सामाजिक समस्याओं का कारण – जाति – प्रथा के कारण बाल – विवाह , विधवा – विवाह , कुलीन – विवाह , वरमूल्य – प्रथा आदि अनेक समस्याएं उत्पन्न हो गई हैं । – अन्त में हम यही कहना चाहेंगे कि जाति – प्रथा के फलस्वरूप देश में समय समय पर अनेक विघटनकारी तत्त्व सक्रिय रहे हैं और इन्हीं प्रवृत्तियों के कारण देश को अनेक बार कटु अनुभव हुए हैं । जातिगत फूट के कारण ही हम अपनी स्वतन्त्रता की भी रक्षा नहीं कर सके । अब हमारा एक राष्ट्र है । काश्मीर से कन्याकुमारी तक तथा असम से गुजरात तक भारत एक राष्ट्र है । एक राष्ट्र व एक राष्ट्रीयता की भावना ही हमें आगे बढ़ा सकती है , तभी हम अपने पैरों पर खड़े हो सकते हैं , तभी हम अपने शत्रुनों को करारा जवाब दे सकते हैं , तभी हम देश की स्वतन्त्रता सुरक्षित रख सकते हैं और तभी हम इतने सबल और सक्षम हो सकते हैं कि दुनिया में न्याय के लिए लड़ सकें और अन्याय का प्रतिकार कर सकें । हमारी अमूल्य राष्ट्रीयता को जातिवाद से बहुत खतरा है । जाति – पाति प्राचीनकाल में चाहे कितनी ही उपयोगी रही हो पर अाज किसी भी भावना के अधीन होकर हमें इसके साथ मोह नहीं करना चाहिए । जाति – प्रथा इतनी दषित हो चुकी है कि इसे त्याग देना ही श्रेयस्कर है लेकिन केवल इस प्रथा का परित्याग ही हमारी समस्याओं , हानियों की रामबाण प्रौषधि नहीं है । यह स्वीकार नहीं किया जा सकता कि जाति – प्रथा का त्याग मात्र हमारी सामाजिक संरचना में मिले हुए दोषों को मिटा देगा । इसके लिए तो हमें व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन के प्रत्येक पहल पर पुनचिन्तन करना होगा , हर क्षेत्र में सुधारात्मक दृष्टिकोण अपनाना होगा और सम्पूर्ण सामाजिक संरचना का पुनर्मूल्यांकन करना होगा ।

 

  राष्ट्रीय एकता का ह्रास – जाति – व्यवस्था समाज एवं राष्ट्र के लिए दुखदायी और विनाशकारी सिद्ध हुई है । इसके कारण हमारे देश में राष्ट्राभिमान उत्पन्न होने को अपेक्षा जातीय अभिमान उत्पन्न हुप्रा । जाति – भेद के कारण ही विरोधी आक्रान्ताओं का डटकर मुकाबला नहीं किया जा सका । इसकी सामाजिक सुदृढ़ता एवं एकता को भी समाज के अनेक छोटे – छोटे वर्गों में विभक्त हो जाने के कारण ही सिक्ख अपना अलग सिक्खिस्तान मांगते हैं तो महाराष्ट्र वालों ने महाराष्ट्र और गुजरातियों ने गुजरात की अलग मांग की ।

समाज की प्राथिक व बौद्धिक प्रगति में रुकावट – जाति – प्रथा के कारण आर्थिक व बौद्धिक उन्नति के अवसर उच्चवंशीय लोगों को ही मिल पाए और शूद्र प्रादि उससे वंचित रह गए । यही कारण है कि समाज के पिछड़े और निम्न – जातीय वर्गों की सन्तानों को अध्ययन की सुविधा कभी नहीं मिली और उनके प्रतिभाशाली तथा योग्य बालक प्रकाश में नहीं पा पाए । इस प्रकार इस प्रथा ने समाज की नींव और उसके स्तर पर प्राघात किया ।

ऊँच – नीच , राग – द्वेष , साम्प्रदायिकता एवं अप्रजातन्त्रीय भावनाओं का विकास – – जाति – व्यवस्था मूलतः अप्रजातन्त्रीय है । समानता के स्थान पर यह असमानता को प्रोत्साहित करती है । इसके कारण समाज ऊँच – नीच में विभक्त हो गया है और इस ऊँच – नीच का आधार कर्म या योग्यता न होकर जन्म है । इसी ऊँच – नीच के कारण समाज का एक बड़ा भाग कभी शैक्षणिक , आथिक या सामाजिक उन्नति नहीं कर पाया । जाति – प्रथा ने ही साम्प्रदायिकता एवं अस्पृश्यता को जन्म दिया । इसी साम्प्रदायिकता के कारण पहले भारत विदेशी आक्रान्ताओं के चंगुल में रहा और अन्त में दो टुकड़ों में विभक्त हमा । जाति – प्रथा की अस्पृश्यता से ही हरिजन समस्या को ला खड़ा किया और इसी जाति – प्रथा ने सर्वत्र पस असहयोग एवं द्वेष की भयंकर ज्वाला सुलगाई ।

 राजनीति पर कुप्रभाव – जाति – प्रथा ने परतन्त्र और स्वतन्त्र भारत के राजनीतिक भविष्य को अधिकांशतः गन्दा और धूमिल बनाने का कार्य किया । स्वतन्त्र भारत का इतिहास साक्षी है कि भारतीय मतदाता राजनीतिक समस्यायों पर बहुत कुछ जातीय दृष्टिकोण से सोचते हैं । सरकार – निर्माण के समय भी जातीयता को गौण नहीं समझा जाता क्योंकि बहुमत दल में जातीयता के घुन लगे होते हैं । अनेक बार प्रशासकीय निर्णय जातीय आधार पर लिए जाते हैं । ‘ जनता का राज्य जनता द्वारा तथा जनता के लिए ‘ के स्थान पर अनेक दृष्टियों से ‘ जाति का राज्य , जाति द्वारा तथा जाति के लिए ‘ हो गया है । लोकप्रिय सरकार जाति प्रतियोगिता का एक नया माध्यम बन गई है । प्रतिद्वन्द्वी जातियों ने अलग – अलग राजनीतिक दलों की सदस्यता ग्रहण की है और दलों में अथवा अलग – अलग गुट बना रखे हैं । राजनीति में जातीयता का विष – वृक्ष देश के लोकतान्त्रिक भविष्य के लिए निश्चित रूप से बड़ा घातक है ।

 सैनिक शक्ति का हास – जाति – प्रथा के कारण देश की सैनिक शक्ति को बड़ा धक्का लगा क्योंकि एक ही वंश से सम्बद्ध जातियों का काम देश की रक्षा करना समझा गया जिससे दूसरी जातियाँ इधर से विमुख हो गयीं ।

अन्धविश्वास तथा रूढ़िवादिता में वृद्धि – जातिगत नियमों , उप नियमों एवं नाना धार्मिक कर्मकाण्डों तथा रीति – रिवाजों ने समाज में अन्धविश्वास तथा रूढ़िवादिता को बड़ा प्रोत्साहित किया । इसके कारण व्यक्ति की अपनी स्वतन्त्रता कुण्ठित हो गई और उसे जातिगत बन्धनों व नियमों के अनुसार ही जीवन बिताना पड़ा ।

 जाति – प्रथा से समाज के सभी प्राथिक साधनों का पूरा लाभ नहीं उठाया जा सकता – जाति – प्रथा के कारण प्रत्येक जाति का पेशा निश्चित है । किसी व्यक्ति द्वारा जाति के बाहर का पेशा अपनाना ठीक नहीं समझा जाता । जाति का व्यक्ति न अपनी जाति का उद्योग ही छोड़ सकता है और न अपनी ग्राजीविका कमाने के साधनों को ही बदल सकता है । अतः जाति – प्रथा के कारण देश के सभी प्राथिक साधनों का पूरा लाभ नहीं उठाया जा सकता ।

 जाति प्रथा स्त्री – अधिकार की शत्र – जाति – व्यवस्था स्त्रियों के अधिकारों की शत्रु है । हमारे समाज में स्त्रियों की दुर्गति बहुत सीमा तक इसी व्यवस्था का परिणाम है । विवाह के मामलों में यह प्रथा स्त्रियों को कोई स्वतन्त्रता नहीं देती और अन्य क्षेत्रों में भी उन्हें पुरुषों के समकक्ष नहीं मानती ।

 निर्धन और निम्न जाति के लोगों का शोषण – इस प्रथा से निर्धन और निम्न – जाति के लोगों का शोषण होने से असन्तोष फैलता है । इस प्रथा से उन लोगों के अधिकार छीन लिए जाते हैं और उनकी इच्छाओं का दमन कर दिया जाता है ।

 झूठा अभिमान पैदा होता है – जाति – प्रथा में ऊंची जाति के लोगों में भठे सम्मान और अभिमान की भावना पैदा होती है और इस प्रथा में परिश्रम का समान प्रादर नहीं किया जाता ।

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 जाति (Caste )

जाति की अवधारणा या परिभाषा के सम्बन्ध में यह कहा जा सकता है कि मुख्यत : यह लोगों का एक ऐसा सबक है जिसकी सदस्यता आनुवंशिकता पर आधारित होती है । इसे जाति – संस्तरण में एक निश्चित स्थान प्राप्त होता है एक जाति स्वयं कोई समुदाय या समाज नहीं होती , बल्कि समुदाय या समाज का एक समूह होती है जिसका समाज एक पूर्व निर्धारित स्थान होता है तथा यह एक निश्चित व्यवसाय से सम्बन्धित होती है । कुछ महत्त्वपर्ण परिभाषाएँ निम्न प्रकार है

 हरबर्ट रिजले ( Herbert Risley ) ने जाति की परिभाषा देते हुए लिखा है , ” जाति परिवारों या परिवार के समहों संकलन है जिसका एक ही नाम होता है , जो एक काल्पनिक पूर्वज , जो मानव या देवता हो सकता है , से अपनी श – परम्परा की उत्पत्ति का दावा करता है , जो समान जन्मजात ( पुश्तैनी ) व्यवसाय को चलाता है और जिसे उन लोगों द्वारा एक सजातीय समुदाय माना जाता है जो इस तरह के निर्णय या मत देने के अधिकारी हैं ।  इस परिभाषा से 5 बातें स्पष्ट होती हैं – (i)जाति अनेक परिवारों का एक सामूहिक संगठन है , ( ii ) इसका एक नाम होता है , ( iii ) प्रत्येक जाति की एक काल्पनिक पूर्वज है , ( iv ) इसका एक निश्चित व्यवसाय होता है और ( v ) यह एक सजातीय समुदाय के रूप में जाना जाता है ।

 मजुमदार एवं मदन ( D . N . Majumdar and T . N . Madan ) के अनुसार , ” जाति एक बन्द वर्ग है ।  इस परिभाषा से स्पष्ट होता है कि जाति जन्म पर आधारित है । अत : व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता है उसी में अन्त तक रहना पड़ता है । किसी भी स्थिति में जाति की सदस्यता बदली नहीं जा सकती है । इसी माने में जाति बन्द वर्ग है ।

 दत्ता ( N . K . Dutta ) ने जाति की अधिकतम विशेषताओं को समेटते हुए जाति को परिभाषित करते हुए लिखा है , ” जाति एक प्रकार का सामाजिक समूह है , जिसके सदस्य अपने जाति से बाहर विवाह नहीं करते , खान – पान पर प्रतिबन्ध , पेशे निश्चित होते हैं , संस्तरणात्मक विभाजन का पाया जाना , एक जाति से दूसरी जाति में परिवर्तन सम्भव नहीं है ।  इस परिभाषा से जाति का 6 विशेषताओं का पता चलता है – ( i ) जाति एक सामाजिक समूह है , ( ii ) जाति अन्तर्विवाही समूह है , ( iii ) जाति में खान – पान पर प्रतिबन्ध होते हैं , ( iv ) जाति का पेशा निश्चित होता है , ( v ) जातियों में ऊँच – नीच का स्तरीकरण पाया जाता है और ( vi ) जाति की सदस्यता में परिवर्तन सम्भव नहीं । इस प्रकार उपरोक्त तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि जाति स्तरीकरण की अगतिशील एक ऐसी व्यवस्था है जो जन्म पर आधारित है एवं खान – पान विवाह , पेशा आदि पर प्रतिबन्ध लगाती है ।

जाति की विशेषताएँ

( Characteristics of Caste )

_ जी . एस . घुरिए ( G . S . Ghurye ) ने जाति की 6 विशेषताओं की चर्चा की है , जिसके आधार पर जाति को समझना अधिक उपयोगी बतलाया गया है । ये विशेषताएं निम्नलिखित हैं

  समाज का खण्डनात्मक विभाजन ( Segmental Division of Society ) : जाति व्यवस्था समाज को कुछ निश्चित खण्डों में विभाजित करती है । प्रत्येक खण्ड के सदस्यों की स्थिति , पद और कार्य जन्म से निर्धारित होता है । तथा उनमें एक सामुदायिक भावना होती है । जातीय नियम का पालन नैतिक कर्तव्य होता है ।

 संस्तरण ( Hierarchy ) : जाति – व्यवस्था के अन्तर्गत प्रत्येक जाति की स्थिति एक – टसरे की तलाश नाचा हाती है । इस संस्तरण में सबसे ऊपर ब्राह्मण है और सबसनाचे अस्पृश्य जातियां हैं । इन दो लोग बीन जातिया है । इतना ही नहीं . एक जाति के अन्दर अनेक उपजातिया है तथा उनमें भी ऊंच – नीच का

व्यवसाय की आनुवंशिक प्रकृति ( Hereditary Nature of Occupation ) : व्यक्ति के व्यवसाय का निर्धार जाति – व्यवसाय के आधार पर होता है । अतः एक व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता है उसे उसी जाति का व्यक अपनाना होता है । इसमें किसी प्रकार के परिवर्तन की गुंजाइश नहीं होती । इस प्रकार कहा जा सकता है कि जाति प्रमुख विशेषता परम्परागत व्यवसाय है ।

  अन्तर्विवाही ( Endogamous ) : जाति – व्यवस्था के अनुसार जाति के सदस्य अपनी ही जाति या उपजाति , विवाह – सम्बन्ध स्थापित कर सकते हैं । इस नियम का उल्लंघन करने का साहस प्राय : कोई नहीं करता । वेस्टरमार्क ने विशेषता को ‘ जाति – व्यवस्था का सारतत्व ‘ माना है । अन्तर्विवाही नियम आज भी जातियों में पाई जाती है । इस प्रकार उपरोक्त वर्णन के आधार पर यह स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय समाज में जाति – व्यवस्था सामाजिक स्तरीकरण का एक स्पष्ट एवं महत्त्वपूर्ण आधार रहा है ।

भोजन तथा सामाजिक सहवास पर प्रतिबन्ध ( Restrictions on Fooding and Social IntereCHISE ) : जाति – व्यवस्था में खान – पान मेल – जोल एवं सामाजिक सम्पर्क सम्बन्धी प्रतिबन्ध है । प्रायः एक जाति के व्यकित निम्न जातियों के हाथ का भोजन नहीं स्वीकार करते । साथ ही कच्चा व पक्का भाजन सम्बन्धी अनेक प्रतिबन्ध देखे जाते है । इसी तरह सामाजिक सम्पर्क एवं मेल – जोल के सन्दर्भ में छुआछूत की भावना पाई जाती है ।

सामाजिक और धार्मिक निर्योग्यताएँ ( Social and Religious Disabilities ) : जाति – व्यवस्था में चिनारों मार सावधाओं में विशेष अन्तर देखा जाता है । एक ओर उच्च जाति को जितनी सुविधाएं एवं अधिकार जीवन के क्षत्रों में प्राप्त हैं उतनी निम्न जातियों को नहीं । सामाजिक , धार्मिक , आर्थिक तथा अन्य क्षेत्रों में ब्राह्मण अनेक अधिकारों से पूर्ण है । वहीं अस्पृश्य जातियों को सार्वजनिक सुविधाओं व अधिकारों तक से वंचित रखा जाता है । कर भी ग्रामीण क्षेत्रों में इसकी झलक देखी जाती है ।

 

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