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जातिवाद

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जातिवाद

CASTEISM

 जाति – प्रथा से सम्बन्धित एक सामाजिक समस्या जातिवाद है जो एक अर्थ मे विभिन्न जातियों के बीच पाई जाने वाली खाई को और भी चौड़ा करती है तथा एक – दूसरे के प्रति घृणा , द्वेष या प्रतिस्पर्धा आदि के रूप में अभिव्यक्त होती है । अपनी ही जाति के स्वार्थ को सर्वोपरि समझना जातिवाद का सबसे सामान्य रूप है जो कि इस भावना पर आधारित है कि एक जाति के सदस्यों का पहले अपनी जाति के प्रति नैतिक कर्त्तव्य है , फिर कहीं अन्य लोगों के प्रति उस प्रकार के कर्तव्य निभाने का प्रश्न उठता हैं । पर इस सम्बन्ध में और कुछ विवेचना करने से पूर्व जातिवाद के अर्थ को और भी स्पष्ट रूप में समझ लेना उचित होगा । जातिवाद एक जाति के सदस्यों की वह भावना है जो अपनी जाति के हित के सम्मुख अन्य जातियों के सामानेय हितों की अवहेलना और प्रायः हनन करने की प्रेरित करती है । किस प्रकार केवल अपनी जाति का ही कल्याण और प्रगति हो यही चिन्ता उन्हें देश या समाज या जातियों के सामान्य हितों का ध्यान नहीं रखने देती हैं । मानव भावनाओं का यह संकुचित रूप ही जातिवाद

डा . कैलाशनाथ शर्मा के शब्दों में , “ जातिवाद या जातिभक्ति एक जाति के व्यक्तियों की वह भावना है जो देश या समाज के सामान्य हितों का ख्याल न रखते हुए केवल अपनी जाति के सदस्यों के उत्थान , जातीय एकता और जाति की सामाजिक प्रस्थिति ( Status ) को सुदृढ़ करने के लिए प्रेरित करती हो । ” उपरोक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट है कि जातिवाद के दो स्पष्ट पहलू हैं – भावना और कर्म । पहला मनोवैज्ञानिक है और दूसरा व्यावहारिका मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से जातिवाद से प्रभावित व्यक्ति अपनी भावनाओं को अपनी ही जाति में केन्द्रित कर देता है और उन्हीं के कल्याण के लिए चिन्ता करता हैं । यह चिन्ता या इस प्रकार की भावनाएँ संकुचित हैं क्योंकि यह समग्र समाज के सामान्य हितों का ध्यान रखता है । इस कारण यह सामान्य या जनकल्याण के लिए घातक है । इस दृष्टिकोण से जातिवाद को समाज – विरोधी ( anti – social ) भी कहा जा सकता हैं । जातिवाद का दूसरा पहलू क्रियात्मक या व्यावहारिक है । इसका तात्पर्य यह है कि जातिबाद से प्रेरित व्यक्ति अपनी ही जाति के कल्याण के लिए केवल सोचते विचारते ही नहीं है , बल्कि उसी के अनुसार कार्य भी करते हैं अर्थात् अपने विचारों व भावनाओं को एक व्यावहारिक रूप भी देते है । इसी का परिणाम यह होता है कि एक जाति के लोग कुछ ऐसे भी कार्य करते हैं जिनस क उस जाति के सदस्यों का कल्याण हो ।

जातीय शिक्षा संस्थान आदि खोलकर या अस्पताल बनवाकर या नौकरी के लिए भर्ती करने के समय पक्षपातपूर्ण व्यवहार करक अपनी जाति के व्यक्तियों को लाभ पहुंचाने के लिए जो भी काम किए जाते है वे सभी जातिवाद के क्रियात्मक या व्यावहारिक पहलू के अन्तल की आते हैं । अतः स्पष्ट है कि जातिवाद में आंतरिक भावनाएं भी पर्याप्त नहीं हैं , अपनी जाति के सदस्यों के हितों को ध्यान में रखते हुए उन भावनाओं की वास्तविक क्रियाओं के रूप में बाहरी अभिव्यक्ति भी आवक हैं । व्यावहारिक रूप में तथा मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से आंतारिक भावनाएं ही बाहरी क्रियाओं को करन की प्रेरक शक्ति बन जाती हैं ।

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 विवाह सम्बन्धी प्रतिबन्ध ( Marriage restricions ) : जाति – प्रथा के अन्तर्गत अपनी ही जाति में विवाह करने का निर्देश है और इसका पालन भी हजारों वर्षों से होता आ रहा है । अलविवाह ( endogamy ) सम्बन्धी यह जातीय नियम व्यावहारिक रूप में केवल अपनी ही उपजाति में विवाह करने की अनुमति देता है और एक उपजाति की सदस्य संख्या भी समिति ही होती है । इसका आ है कि प्रत्येक सदस्य एक दूसरे से किसी न किसी रूप में विवाह – सम्बन्धों के द्वारा सम्बन्धित हो गया है । इस प्रकार के नाते – रिश्ते एक – दूसरे के हितों का अधिक ध्यान रखते है और उसी के अनुसार काम भी करते हैं । इसी के जातिवाद का विकास होता है ।

 प्रचार व यातायात के साधनों में वृद्धि ( Development of the means of transport and propaganda ) : यातायात और प्रचार के साधनों के अभाव से प्राचीन काल में जातिवाद पनप नहीं पता था । पर आज वह कमी दूर हो गई है और बिखरे हुए एक जाति के सदस्यों में नाता दृढतर होता जा रहा है । जहां एक ओर यातायात के साधनों में उन्नति होने से एक जाति के सदस्य देश के विभित्र भागों में बिखर गए , वहां दूसरी ओर उन्हीं साधनों ने उन्हें संगठित करने में सहायता भी दी । आज देश के विभिन्न भागों में और विभिन्न समयों में जातीय सम्मेलन होते हैं और उनमें देश के कोने – कोने से उस जाति के सदस्य भाग लेने आते हैं और अपने सामान्य हितों की रक्षा करने के उपायों को सोचते तथा उसी के अनुसार प्रयत्न करते हैं । साथ ही समाचार – पत्रों एवं जातीय पत्रिकाओं के द्वारा जातिवाद की भावनाओं का प्रचार अब सरल हो गया हैं ।

 नगरीकरण ( Urbanization ) : नगरीकरण से प्रत्येक नगर में विभिन्न जातियों का एक अच्छा – खांसा जमघट सम्भव हुआ हैं । इसके फलस्वरूप प्रत्येक जाति को यह मौका मिला है कि वह अपने हितों की रक्षा करने के लिए अपने एक विशेष संगठन का निर्माण करे । वास्तव में नगर की परिस्थितियां ही इस प्रकार की है कि उसमें विशेषीकरण की आवश्यकता होती हैं । इसीलिए यह देखा जाता है कि जीवन के विभिन्न पहलुओं से सम्बन्धित विशिष्ट समिति और संस्थाएँ नगरों में विद्यमान हैं । श्रमिकों के स्वार्थों की रक्षा के लिए एक विशिष्ट संगठन श्रमिक संघ हैं , मालिकों के हितों के रक्षार्थ मालिकों का अपना संगठन है । उसी प्रकार वकील संघ , दुकानदार संघ , हलवाई संघ , यहां तक कि रिक्शा । चालक संघ भी विभिन्न वर्गों के स्वार्थो की रक्षा के लिए नगरों में पनप गए हैं । इस पर्यावरण के बीच जाति ही क्यों पिछली रहे ? नगर की यह परिस्थित प्रत्येक जाति को इस बात के लिए प्रेरित करती हैं कि वह भी एक विशिष्ट संगठन के द्वारा अपने स्वार्थों की रक्षा करें और नागरिक समुदाय में अपनी जाति के सदस्यों की प्रतिष्ठा की उन्नति करने के लिए उन्हें हर प्रकार की सुविधाएं प्रदान करे ।

 अपनी जाति की प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए ( To improve one ‘ s caste status ) : आज के संसार ने समानता का द्वार सबके लिए खोल दिया हैं । पर जाति की प्रतिष्ठा इसी आधार पर स्थिर रह सकती है कि इस सुविधा से लाभ उठाकर एक जाति के अधिक से अधिक व्यक्ति अपनी स्थिति को ऊंचा उठाएँ इसके लिए आज नए ढंग से प्रयत्न करने की आवश्यकता होती हैं , क्योंकि जैसा कि पहले ही बताया जा चुका है , सामाजिक स्थिति को निर्धारित करने वाले आधार बदल गए हैं । आज यह आवश्यक हैं कि एक जाति के अधिकाधिक सदस्य शिक्षित हों , धनी हों , अच्छे पदों पर नियुक्त है । या राजनीतिक सत्ता के अधिकारी हों ; तब कहीं उस जाति की स्थिति सामाजिक जीवन में ऊंची उठ सकता है । इसलिए प्रत्येक जाति इस सम्बन्ध में प्रयत्नशील हैं कि अपने सदस्यों को अधिकाधिक सुविधा यदान करे , ताकि उनकी सामाजिक स्थिति ऊंची उठ सके ।

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 औद्योगिक विकास ( Industrial Development ) : आधुनिक विकास के साथ – साथ असंख्य नए पेशों का जन्म हुआ और उन पेशों में काम करने के लिए सभी को समार औद्योगिक अवसर प्रदान किए गए । अर्थात् जातीय आधार पर उन पेशों का न तो विभाजन किया गया और न ही होता करना सम्भव था । इसका परिणाम यह हुआ कि अनेक पेशों के दृष्टिकोण से सभी जाति के सदस्य एकस्तर पर आ खड़े हए और उन पेशों की नियुक्ति के सम्बन्ध में उनमें पर्याप्त प्रतिस्पर्धा बढ़ी । फलतः प्रत्येक जाति के लिए यह आवश्यक हो गया कि वह पेशों में नियुक्ति के सम्बन्ध में अपने सदस्यों को कल संरक्षण प्रदान करे क्योंकि अनुभव के आधार पर यह समझा गया कि केवल व्यक्तिगत योग्यता पर निर्भर करना ही उचित न होगा , व्यक्तिगत प्रयत्नों की भी आवश्यकता है , अर्थात् एक ओर जाति की ओर से सदस्यों के व्यक्तिगत गुणों के विकास के लिए शिक्षा आदि की सुविधा होनी चाहिए , साथ ही उस जाति के जो लोग उच्च पद पर है , वे व्यक्तिगत रुप से यह भी प्रयत्न करें कि नौकरी में नियुक्ति के सम्बन्ध में भी उनकी अपनी ही जाति के सदस्यों को अधिक अवसर मिले , चाहे उनकी व्यक्तिगत योग्यता कम ही क्यों न हो . क्योंकि खुली प्रतिस्पर्धा ( open competition ) में उनसे भी योग्य व्यक्ति आ सकते हैं औ आते हैं । औद्योगिक विकास ने एक दूसरे रूप में भी जातिवाद के पनपने मे मदद की है । आज औद्योगीकरण के फलस्वरूप असंख्य नौकरी का क्षेत्र सारे देश में फैल गया है और लोगों को नौकरी करने के लिए घर छोड़कर अन्य स्थानों में जाकर वसना पड़ा है । साथ ही औद्योगीकरण ने गांव के गृह – उद्योगों को नष्ट कर दिया और इनमें लगे अनेक कारीगर बेकार हो गए और नौकरी की खोज में गांव से शहर में आकर बसने लगे । इन सब कारणों से संयुक्त परिवार का विघटन हुआ और लोगों को अब तक परिवारिक आधार पर जो सुरक्षा मिलती थी उसका बहत हद तक अन्त हो गया । अतः इस बात की आवश्यकता अनुभव की गई कि औद्योगिक विकास के फलस्वरूप उत्पत्र होने वाली नवीन परिस्थितियों में किसी नए रुप में ही अपनी जाति के सदस्यों को सुरक्षा प्रदान की जाए । इन तरह जातिवाद का विकास हुआ ।

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जातिवाद के परिणाम

 जातिवाद प्रजातन्त्र के लिए घातक ( Casteism is a danger to Democracy ) : जाति और प्रजातन्त्र दोनों एक – दूसरे के विरोधी हैं । अनेक पेशेवर नेता राजनीतिक क्षेत्र में इस जातिवाद से लाभ उठाते हैं और चुनाव के समय जाति के नाम पर ही वोट मांगते हैं । और सफल भी होते हैं । इससे प्रायः ऐसे व्यक्ति चुन लिए जाते हैं , जो अपनी ही जाति के हितों के सम्मुख समाज के सामान्य हितों की बलि दे देते हैं । समानता का नारा लगता है , पर व्यावहारिक रूप से जातिवाद का ही डंका बजता रहता है ।

  औद्योगिक कुशलता में बाधा ( Hindrance to technical efficiency ) : चूंकि सरकारी तथा अन्य प्रकार की नौकरियों में नियुक्ति जाति के आधार पर होती है इस कारण प्रायः ऐसे ही लोगों की भरमार होती हैं जो अयोग्य और निकम्मे होते हैं । इसका परिणाम यह होता है कि योग्य और कुशल व्यक्तियों को मौका ही नहीं मिलता हैं । विभिन्न उद्योगों में काम करने वाले श्रमिकों के सम्बन्ध में जो अध्ययन हुए हैं , उसमे यह पता चलता है कि जातिवाद के कारण सैकड़ों क्षमताशाली कुशल श्रमिक शहर में बेकार घूम रहे हैं और नौसिखिए , अयोग्य और अकुशल श्रमिक बहुत बड़ी संख्या में उद्योगों में लगे

 नैतिक पतन ( Moral degeneration ) : जातिवाद से प्रेरित होकर अपनी जाति के सदस्यों को हर प्रकार की सुविधा प्रदान करने के लिए अनेक अनुचित और अनैतिक उपायों का सहारा लिया जाता है । इसमें जातिवाद के नाम पर नैतिक पतन भी होता है । नैतिकता सभी प्रकार की संकीर्णता की विरोधी हैं , परन्तु जातिवाद यही सिखाता है कि अपनी जाति के हित के सम्मुख अन्य जातियों के सामान्य हितों की या समग्र समाज के कल्याण की अवहेलना , यहाँ तक कि हनन भी किया जा सकता है । मानव – भावनाओं का यह संकुचित रूप जब जातिवाद के रूप में प्रकट होता है तो नैतिक पतन सम्भवतः हो ” ही जाता है ।

 राष्ट्रीयता के विकास में बाधा ( Hindrance to the growth of Nationality ) : जातिवाद स्वस्थ राष्ट्रीयता के विकास में बाधक है । एक तो जातिप्रथा ने स्वयं ही भारतीय समाज को अनेक भागों में बांट दिया है । उस पर जातिवाद के आधार पर इन विभिन्न भागों के बीच जब तनाव या संधर्ष कटु हो जाता है , सामुदायिक भावना का जो संकुचित रूप दिखाई देता है वह वास्तव में भयंकरअहितकर है । राष्ट्रीयता के विकास के लिए यह आवश्यक है कि स्वस्थ सामुदायिक भावना का निकास हो , पर जातिवाद उस स्थिति को उत्पन्न होने ही नहीं देता । यह राष्ट्रीय एकता और प्रगति के लिए तिना घातक है , यह शायद पृथक रूप से समझाने की आवश्यकता नहीं हैं । जहां आज राष्ट्र के नेतागण तथा कार जाति – पांति के भेद – भाव को दूर करने में प्रयत्नशील है और जहां भारतीय संविधान किसी भी नागरिक के विरूद्ध केवल धर्म , मूलवंश , जाति , जन्मस्थान अथवा इनमें से किसी भी आधार पर कोई विभेद न करने का विधान देता है , वहां जातिवाद अपने संकुचित क्षेत्र के अन्तर्गत कुछ संकुचित आदर्शों को प्रस्तुत करता है और उन आदर्शों की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहता है । यह अवस्था देश और जनहित के लिए घातक है । जाति राष्ट्र से बड़ी नहीं हैं और न ही उसका स्थान राष्ट्र से ऊंचा है , इस सत्य को भी जातिवाद के प्रवर्तक क्यों भूल जाते हैं , यह एक गहन मनोवैज्ञानिक अध्ययन का विषय है ।

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जातिवाद तथा समाजवाद परस्पर विरोधी हैं । ( Casteism and Socialism are opposite to each other ) यह कथन वास्तव में सच है कि जातिवाद और समाजवाद परस्पर विरोधी हैं । यह बात जातिवाद और समाजवाद की परिभाषा से ही स्वतः स्पष्ट हो सकती हैं । डा . शर्मा के अनुसार , “ जातिवाद या जाति – भक्ति एक जाति के सदस्यों की यह भावना है जो देश के या समाज के सामान्य हितों का ख्याल न रखते हुए केवल अपनी जाति के सदस्यों के उत्थान , जातीय एकता और जाति की सामाजिक स्थिति ( Status ) को दृढ़ करने के लिए प्रेरित करती हो । ” इसके विपरीत , जैसा कि पूज्य बापू ने लिखा है , ” समाजवाद एक सुन्दर शब्द है और जहां तक मुझे मालूम है समाजवाद में समाज के सब सदस्य बराबर होते हैं ; न कोई नीचा होता है और न कोई ऊंचा । यही समापवाद हैं । ” समाजवादी समाज में प्रत्येक व्यक्ति काम करेगा – काम करेगा केवल अपने लिए नहीं अपितु दूसरों के लिए । ऐसे समाज में केवल अपने या अपने वर्ग के लिए धन – सम्पत्ति एकत्रित करना सम्भव नहीं , क्योंकि राष्ट्रीय धन का समान वितरण है ; उत्पादन , विभाजन व वितरण पर समाज का अधिकार , पूंजीपति , राजा व जमींदारों का उन्मूलन , “ प्रत्येक को उसकी आवश्यकतानुसार पर प्रत्येक से उसकी योग्यतानुसार ” यही मूल – नीति होती है और लिंग ( sex ) , जाति , जन्म , प्रजाति आदि के आधार पर किसी प्रकार के भेद – भाव को पनपने नहीं दिया जाता है । इस अर्थ में समाजवाद अत्यन्त व्यापक है ओर सम्पूर्ण समदाय के सभी सदस्यों के अधिकतम हितों की पूर्ति इसका उद्देश्य का लक्षय है । इसके वपरीत जातिवाद अत्यन्त संकचित हैं क्योंकि यह एक जाति के सदस्यों को इस बात के लिए प्रेरित करता है कि वे अपने देश या समाज के सामान्य हितों की बलि चढ़ाकर भी अपनी ही जाति के सदस्यों के कल्याण व प्रगति को सर्वोच्च प्राथमिकता प्रदान करें । जातिवाद का यह संकुचित रूप आज धार्मिक , राजनीतिक और सामाजिक जीवन के सभी क्षेत्रों में देखने को मिलता है ।

जाति के नाम पर शिक्षा संस्थाएँ और अस्पताल खोले जाते हैं ; मन्दिरों का निर्माण होता है , विविध नौकरियों में नियुक्ति होती हैं और यहाँ तक कि चुनाव के समय जाति के नाम पर ही वोट तक मांगे जाते है । आज जब कि जन्म और जाति दोनों का ही महत्त्व घट रहा है और सामाजिक प्रतिष्ठा या उच्च स्थिति शिक्षा , धन , सत्ता , सम्मानजनक नौकरी आदि के आधार पर निश्चित हो रही है , तो ऐसी स्थिति में यदि एक जाति के लोग अपनी सामाजिक स्थिति को ऊंचा बनाए रखने के लिए संगठित रूप में अपनी जाति की सहायता नहीं लेते हैं तो निश्चय ही उनकी स्थिति दिन – प्रतिदिन गिरती जाएगी । इसलिए आवश्यकता इस बात की है जातीय संगठन और मनोवृत्तियां ( attitudes ) इस भांति आयोजन हों कि अपनी ही जाति के सदस्यों के लिए अधिकाधिक सामाजिक , आथिक एवं शिक्षा सम्बन्धी सुविधाएँ सुलभ हों ताकि एक जाति – विशेष के सदस्यों को शिक्षा , धन एवं सत्ता , सम्मानजनक नौकरी आदि प्राप्त होते रहें और उनकी सामाजिक स्थिति भी उत्तरोत्तर ऊपर उठती रहे , चाहे उससे समाज के अन्य लोगों को कितनी ही हानि क्यों न हो । जातिवाद इसी उद्देश्य पर आधारित और इसा उद्देश्य को पूर्ति के लिए आयोजित होता हैं । इसी जातिवाद के फलस्वरूप एक जाति विशेष के सदस्या का हा अधिक शिक्षा सम्बन्धी सुविधाएँ मिलती है , चुनाव के समय जाति के नाम पर वोट मांगकर एस व्यक्तियों का चुनाव में सफल बनाया जाता है जो अपनी जाति के हितों के सम्मुख समाज के सामान्यको पैरों तले कुचलते रहते हैं , नौकरियों में अपनी ही जाति के सदस्यों को प्राथमिकता देने से निकम्मे और अयोग्य व्यक्तियों की ही भरमार हो जाती है । आत्मत्याग , सहनशीलता , स्नेह , राष्ट्रीयता की भावना आदि सद्गुणों का विकास नहीं हो पाता है ; जबकि समाजवाद हर आम और खास की प्रगति , कल्याण व सुख – समृद्धि के सिद्धान्तों व लक्षयों पर आधारित होता है । अतः स्पष्ट है कि जातिवाद तथा समाजवाद परस्पर विरोधी हैं ।

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जातिवाद के निराकरण के उपाय

 जाति – प्रथा को समाप्त करना : जातिवाद को समाप्त करने के लिए प्रायः यह सुझाव दिया जाता है कि जाति – प्रथा को ही समाप्त कर दिया जाए । भारतीय संविधान में जाति – पांति के भेद – भाव को मिटाने के आदर्श को सामने रखा गया है । सरकारी तौर पर कुछ कानून भी पास गए हैं । इन सबके आधार पर यह विश्वास दिलाया जाता हैं कि भारत में शीघ्र ही जाति – विहीन समाज बनेगा । परन्तु इस प्रकार की कल्पना वास्तव में व्यावहारिक नहीं हैं क्योंकि भारतीय समाज में जाति – प्रथा की जड़ इतनी गहरी बैठ चुकी है कि दो – चार कानून पास करके उसे समाप्त नहीं किया जा सकता । वास्तव में इससे भी कुछ व्यावहारिक उपायों को हमें ढंढ निकालना होगा । निम्नलिखित विवेचना से यही बात और भी स्पष्ट होगी ।

‘ जाति ‘ शब्द का कम से कम प्रयोग : जैसा कि ऊपर ही कहा जा चुका है कि जातिवाद का हल कानून बनाकर या दो – चार दिनों के प्रयत्नों से सम्भव नहीं , इसके लिए तो निरन्तर प्रयत्न की आवश्यक है और इस बीच ‘ जाति ‘ शब्द का कम से कम प्रयोग होना चाहिए , जिससे अल्प आयु के बच्चों के मन में उसका कोई अवशेष न रह जाए । शिक्षा संस्थाओं और सरकारी कार्यालयों को इस सम्बन्ध में विशेष सचेत होना होगा और किसी भी रूप मे जाति शब्द का उल्लेख करवाकर जाति के महत्त्व को बढ़ावा नहीं देना चाहिए ।

 अन्तर्जातीय विवाह को बढ़ावा : डाक्टर धुरिये ने जातिवाद कि समस्या को हल करने में अन्तर्जातीय विवाह को लोकप्रिय करने की आवश्यकता पर अधिक बल दिया हैं । अन्तर्जातीय विवाह से विभिन्न जाति के दो लड़के और लड़कियों को ही नहीं बल्कि बहुधा उन दोनों के दो परिवारों को भी एक – दूसरे के निकट आने का अवसर प्राप्त होता हैं । इस रूप में जाति – प्रथा उपेक्षित होगी और विभिन्न जातियों के बीच जो खाई हैं । वह नष्ट हो जाएगी और जातिवाद के विरोध की क्रियात्मक आवाज उठने लगेगी । वे व्यक्ति जो जाति के बन्धनों को तोड़कर विवाह करते हैं केवल जातिविहीन वातावरण की ही सृष्टि नहीं करेंगे बल्कि एक ऐसी पीढ़ी का भी पोषण करेंगे जो जाति – प्रथा की कट्टर विरोधी होगी । ऐसी अवस्था में जातिवाद के बीज को पनपने का मौका ही नहीं मिल पाएगा । परन्तु इस सम्बन्ध में आवश्यकता इस बात की है कि समाज में उन अनुकूल परिस्थितियों को उत्पत्र किया जाए जिनसे कि अन्तर्जातीय विवाह को प्रोत्साहन मिल सके । आज भी ऐसे विवाहों के लिए इस देश में सामाजिक परिस्थितियां अनुकूल नहीं हैं और जो लोग इस प्रकार के विवाह कर लेते हैं , उन्हें काफी परेशानी उठानी पड़ती है । सौभाग्यवश दिशा में परिवर्तन शुरू हो गया है और यही कारण हैं कि ज्यों – ज्यों इस प्रकार के विवाहों को प्रोत्साहन मिलेगा , ज्यों – ज्यों इस प्रकार के विवाहों को प्रोत्साहन मिलेगा , त्यों – त्यों उसका कुछ न कुछ प्रभाव जातिवाद की निराकरण प्रक्रिया पर अवश्य पड़ेगा ।

 आर्थिक और सांस्कृतिक समानता : विभिन्न जातियों में आर्थिक और सांस्क तिक असमानता उनमें पारस्परिक द्वेष और प्रतियोगिता को जन्म देती हैं जिसका आधार आगे चलकर जातिवाद ही होता है । इसे समाप्त करने के लिए उनमें आर्थिक और सांस्कृतिक समानता लानी होगी ताकि इस समानता के आधार पर ही वे एक – दूसरे के निकट आ सकें । यह कार्य सामाजिक और आर्थिक प्रगति के द्वारा ही किया जा सकता है जिससे कि औद्योगिक दृष्टि से परिपक्व समाज का निर्माण किया जा सके और एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था स्थापित की जा सके जिसमें सभी नागरिकों को समान अवसर प्राप्त हों ।

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  उचित शिक्षा : जातिवाद को समाप्त करने के लिए एक महत्त्वपूर्ण आवश्यकता उचित कीही शिक्षा की है । शिक्षा संस्थाओं में मनोरंजन के विभिन्न साधनों आदि के माध्यम से ऐसी सस्थाओं में मनोरंजन के बिना व्यवस्था होनी चाहिए कि एक और बच्चों के मन में जाति – पाँति का भेद – भाव उत्पन्न ही न हो सके और दूसरी और जातिवाद के विरुद्ध स्वस्थ जनमत पनप सके । इसके लिए सामूहिक शिक्षा ( mass education ) की आवश्यकता है और इस कार्य में सभी संस्थाओं व साधनों का सहयोग भी आवश्यक हैं । इस प्रकार की शिक्षा के द्वारा समाज में नयी मनोवृत्तियों और व्यवहारों को विकासित करने का प्रयत्न करना होगा । तब कहीं जातिवाद निर्मूल किया जा सकेगा ।

नए प्रकार के सामाजिक व सांस्कृतिक संगठन : कुछ विद्वानों का मत यह है कि जाति – प्रथा और इससे सम्बन्धित भावनाएँ भारत के सम्पूर्ण वातावरण में छायी हुई हैं और यहां के प्रत्येक व्यक्ति की नस – नस में समाई हुई हैं । इसलिए जातीय भावनाओं को किसी न किसी रूप में अभिव्यक्त करना ही उनके लिए स्वाभाविक हैं । इसकी अभिव्यक्ति को दबाना उचित न होगा । अधिक वैज्ञानिक तरीका यह होगा यह होगा कि इस अभिव्यक्ति के क्षेत्र को बदल दिया जाए । इनके लिए यह आवश्यक है कि नए प्रकार के सामाजिक व सांस्कृतिक समूहों को संगठन किया जाए । इनके लिए यह आवश्यक हैं कि नए प्रकार के सामाजिक व सांस्कृतिक समूहों का संगठन किया जाए और इन संगठनों में सभी जाति के लोगों की सदस्यता हो । इस प्रकार के संगठन बन जाने से लोगों को अपनी जातीय भावनाओं को व्यक्त करने का एक आधार प्राप्त होगा , परन्तु इस आधार से किसी एक जाति की नहीं बल्कि एकाधिक जातियों के हितों की । रक्षा व सामान्य प्रगति सम्भव होगी । परन्तु स्मरण रहे कि इस प्रकार के समूह कहीं कोई विशिष्ट समूह – स्वार्थ की पूर्ति के लिए संगठित न हो जाएं । यह हो सकता हैं कि एक समान आर्थिक या धार्मिक स्वार्थ रखने वाले व्यक्ति एकसाथ मिलकर एक संगठन का निर्माण करें और कालान्तर में संगठन इतना शक्तिशाली हो जाए कि सामान्य स्वार्थों को आघात लगे । वह परिस्थिति जातिवाद का ही एक दूसरा रूप या उससे भयंकर रूप हो सकता है । नए प्रकार के सामाजिक व सांस्कृतिक विषयों का विकास करते समय इस बात का ध्यान रखना परमावश्यक हैं ।

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