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ग्रामीण समाजशास्त्र का अध्ययन – क्षेत्र 

ग्रामीण समाजशास्त्र का अध्ययन – क्षेत्र 

समस्त राष्ट्रों में ग्रामीण समाजशास्त्र का अत्यधिक विकास हो जाने के बाद यह प्रश्न अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हो गया है कि ग्रामीण समाजशास्त्र के अध्ययन का क्षेत्र क्या हो ? अर्थात् वे कौन से विषय हों , जिनके अध्ययन से ग्रामीण समाजशास्त्र स्वयं को सम्बन्धित करे । ग्रामीण समाजशास्त्र के क्षेव एवं विषय – क्षेत्र को लेकर समाजशास्त्रियों में मत – भिन्नता है । अनेक प्रश्नों को लेकर इसके विषय – क्षेत्र के बारे में विद्वान् अलग – अलग दृष्टिकोण रखते हैं , जैसे

. ग्रामीण समाजशास्त्र को समाजशास्त्र की एक शाखा ( Branch ) के रूप में स्वीकार किया जाए अथवा इसे एक पृथक् विज्ञान का दर्जा दिया जाए ।

. ग्रामीण समाजशास्त्र को अपनी अध्ययन परिधि को ग्रामीण अध्ययन ( Rural Studies ) तक सीमित रखना चाहिए अथवा उसे ग्रामीण एवं नगरीय जीवन का तुलनात्मक अध्ययन , उनके पारस्परिक सम्बन्धों व एक – दूसरे पर प्रभावों व ऐसे ही अन्य अध्ययनों तक फैलाना चाहिए ।

. ग्रामीण समाजशास्त्र एक विशद्ध ( Pure ) विज्ञान की प्रतिष्ठा को बनाए रखने या वह व्यावहारिक ( Applied ) विज्ञान का दर्जा भी प्राप्त करे । एक विशुद्ध विज्ञान के रूप में ग्रामीण समाजशास्त्र ग्रामीण जीवन के बारे में नियमों एवं सिद्धान्तों का निर्माण करे या व्यावहारिक विज्ञान के रूप में ग्रामीण प्रार्थिक , सामाजिक , सांस्कृतिक पक्षों का अध्ययन कर उनके बार में सुझावात्मक मार्गदर्शन दे एवं ग्रामीण पुननिमाण में योगदान दे ।

. ग्रामीण समाजशास्त्र में वस्तुनिष्ठ ( Objective ) होकर ग्रामीण समाज का समन्धित चित्र ही प्रस्तुत किया जाए , अथवा ग्रामीण जीवन को पुनः संगठित करने हेतु एक ‘ विचारात्मक सयंत्र ‘ के रूप में योगदान दिया जाए । ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं , जिनको लेकर पिछले काफी समय से ग्रामीण समाजशास्त्रियों में मतभेद रहे हैं । वस्तुतः किसी नए विज्ञान के लिए इस तरह के मतभेद कोई आश्चर्य की बात नहीं है , बल्कि इसी तरह के एवं अन्य अनेक मतभेद स्वयं समाजशास्त्र ( Sociology ) की प्रकृति को लेकर ग्राज भी उपलब्ध हैं ।

लेकिन इसके बावजूद भी अनेक ऐसे प्रश्न भी हैं , जिन पर सभी समाज शास्त्री एक मत हैं । निम्नलिखित प्रश्नों पर लगभग समस्त समाज शास्त्री सर्वसम्मत राय रखते है

1 . समस्त समाजशास्त्री इस बात से सहमत हैं कि ग्रामीण समाजशास्त्र का मूल उद्देश्य ग्रामीण सामाजिक व्यवस्था , उसकी संरचना एवं प्रकार्यों तथा उसके विकास की प्रवृत्तियों का वैज्ञानिक , व्यवस्थित एवं व्यापक अध्ययन करना है । इन्हीं अध्ययनों के आधार पर ग्रामीण समाजशास्त्र को ग्रामीण सामाजिक जीवन के बारे में नियमों एवं सिद्धान्तों की रचना करनी चाहिए ।

2 . समस्त समाजशास्त्री इस बात से भी सहमति व्यक्त करते हैं कि ग्रामीण एवं नगरीय दोनों ही सामाजिक जीवन के दो महत्वपूर्ण पक्ष हैं । ये दोनों ही पक्ष नापस में अन्तःक्रिया भी करते हैं , एक दूसरे पर प्रभाव भी डालते हैं , एवं फिर भी इन दोनों के मौलिक जीवन में अन्तर पाया जाता है ।

3 . सभी समाजशास्त्री इस बात को सर्वसम्मत रूप में स्वीकार करते हैं कि ग्रामीण सामाजिक जीवन एवं नगरीय सामाजिक जीवन की विशेषताएँ अलग – अलग हैं , अतः इन दोनों सामाजिक जीवनों का पृथक – पृथक् अध्ययन भी किया जाना चाहिए ।

हम यहाँ कुछ समाजशास्त्रियों द्वारा प्रस्तुत ‘ ग्रामीण समाजशास्त्र के अध्ययन क्षेत्र ‘ का विस्तार से उल्लेख करेंगे ।

 टी . एल . स्मिथ ने अपनी कृति ‘ द सोश्योलॉजी ऑफ रूरल लाइफ ‘ में ग्रामीण समाजशास्त्र के अध्ययन क्षेत्र को तीन भागों में विभाजित कर समझाया है , वे हैं

( 1 ) जनसंख्या ( Population ) – अर्थात् ग्रामीण समाजशास्त्र को ग्रामीण जनसंख्या तथा उसका वितरण , वृद्धि , बनावट , घनत्व , शारीरिक एवं मानसिक विशेषताओं . जनसंख्या की बसावट आदि का अध्ययन करना चाहिए ।

( 2 ) ग्रामीण सामाजिक संगठन ( Rural Social Organization ) – स्मिथ ग्रामीण सामाजिक संगठन को तीन भागों में बाँटकर स्पष्ट करते हैं com

( A ) मानव का भूमि से संस्थात्मक सम्बन्ध ( Institutional Relation of Merd asibunesis to the Land )

( B ) सामाजिक शरीर रचना ( Social Morphology )

( C ) प्रमुख सामाजिक संस्थाएँ ( Major Social Institutions ) ।

( 3 ) सामाजिक प्रक्रियाएं ( Social Processes ) – इसके अन्दर विभिन्न संगठनात्मक एवं विघटनात्मक सामाजिक प्रक्रियाओं को रखा जाता है , जैसे सहयोग , व्यवस्थापन , सात्मीकरण , संघर्ष , प्रतिस्पर्धा आदि । उपरोक्त विषयों के अलावा टी . एल . स्मिथ ग्रामीण समाजशास्त्र के विषय – क्षेत्र में सामाजिक परिवर्तन , सामाजिक गतिशीलता एवं सामाजिक समस्याओं के अध्ययन को भी शामिल करते हैं । काम स्टुअर्ट चैपिन ने अपनी कृति ‘ सोशल स्ट्रक्चर इन रूरल सोश्योलॉजी ‘ में टी . एल . स्मिथ द्वारा सम्मिलित तीनों बिन्दुनों यथा जनसंख्या , ग्रामीण सामाजिक संगठन एवं सामाजिक प्रक्रियाओं को ही ग्रामीण समाजशास्त्र के अध्ययन – क्षेत्र में शामिल किया है । ( amian जे . बी . चिताम्बर ने भी उपरोक्त वर्गीकरण के समर्थन में लिखा है , ” ग्रामीण समाजशास्त्र में केवल ग्रामीण मानव एवं उससे सम्बद्ध समूहों का ही अध्ययन होना चाहिए , न कि पशु – पक्षियों अथवा फसलों और कृषि उपकरणों का । “

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 लॉरी नेल्सन  का वर्गीकरण इस दिशा में अधिक महत्त्वपूर्ण है । लॉरी नेल्सन ने अपने लेख ( रूरल सोश्योलाजी – डायमेन्शन्स एण्ड होरीजन्म ) में ग्रामीण समाजशास्त्र के अध्ययन – क्षेत्र का उल्लेख किया है । प्रापन इस अध्ययन – क्षेत्र को त्रि – विमीय ( Three Dimensional ) अथवा तीन वर्गों में विभाजित कर स्पष्ट किया है । –

1 . ग्रामीण भानव के सम्बन्धों का अध्ययन – नेल्सन के मत में ग्रामीण समाजशास्त्र के अध्ययन का प्रथम पक्ष ग्रामीण मानव के सम्बन्धों के अध्ययन का है । ग्रामीण मानव द्वारा निर्मित विभिन्न प्रकार के समूहों की रचना एवं उनके कार्यों का अध्ययन किया जाता है ।

2 . काल परिप्रेक्ष्य ( Time Perspective ) से सम्बन्धित व्यापक अध्ययन – यह पक्ष इस विषय की ‘ व्यापकता ‘ से सम्बन्धित है । यह विज्ञान मात्र समुदाय का ऊपरी तौर से वर्णन व विश्लेषण ही नहीं करता वरन् इसे काल ( Time ) व दूरी का भी पूरा ध्यान रखना होता है । वस्तुतः प्रत्येक समुदाय का विकास एक उद्विकासीय क्रम से होता है । वर्तमान ग्रामीण समाज एक लम्बी अवधि में होने वाले सांस्कृतिक परिवर्तनों का सचित परिणाम है । ऐसी दशा में इसका अध्ययन एक विशेष काल तक ही सीमित न रहकर विभिन्न कालों में पाए जाने वाली ग्रामीण विशेषताओं से सम्बन्धित होना चाहिए ।

3 . अध्ययन की गहनता ( Depth of Study ) – ग्रामीण समाजशास्त्र के अध्ययन का तीसरा पक्ष अध्ययन की गहनता ( Depth ) का है । नेल्सन कहते हैं कि ग्रामीण समाजशास्त्र में उन सभी विषयों का अध्ययन किया जाना चाहिए जो ग्रामीण समुदायों एवं उनके अन्तर्गत व्यक्तियों के सवार को प्रभावित करते हों । इस प्रकार हमें ग्रामीण समुदायों में विभिन्न अभिव्यक्तियों , मल्यों , मरवाकांक्षामो . सहानुभूति , प्रतियोगिता अथवा विषमता से सम्बन्धित समस्त पक्षों का गहन अध्ययन किया जाना चाहिए ।

डॉ . ए . प्रार . देसाई ने अप्रत्यक्ष रूप से नेल्सन के विचारों का ही समर्थन करते ए ग्रामीण समाजशास्त्र के अध्ययन के क्षेत्र को एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में स्पष्ट किया है । आपके अनसार मलत : समीया समाजशास्त्र के अध्ययन – क्षेत्र में ग्रामीण सामाजिक संगठन , सामाजिक संरचना विकास की प्रवृत्तियों एवं विकास के नियमों आदि का अध्ययन सम्मिलित है . । ।

एल . टी . स्मिथ , स्ट्रपट पिन , लॉरी नेल्सन एवं डॉ . ए . पार , देसाई आदि ने ग्रामीण बारे में विभिन्न विचारों को प्रस्तुत किया है । इन समाजशास्त्रियों के विचारों से ग्रामीण समाजशास्त्र के बारे में सामान्य दिशा – निर्धारण होता है । इस विषय के पव्ययन – अषको स्पष्ट करने के लिए यह पावश्यक है कि हम इन समस्त विद्वानों के विचारों का समन्वयात्मक स्टिकोख से प्रस्तराम ग्रामीण समाजशास्त्र के अध्ययन – क्षेत्र में निम्न विषयों को सम्मिलित कर सकते

 ग्रामीण समुदाय का अध्ययन ( Study of Rural Community ) – ग्रामीण समाज मास्त्र प्रामीण समुदाय के लगभग समस्त पक्षों का अध्ययन करता है । ग्रामीण समुदाय की विशेषताओं , लक्षणों , स्वरूपों , पाकार प्रादि का अध्ययन ग्रामीण समुदाय का अध्ययन – क्षेत्र है ।

 मीरण सामाजिक संरचना का अध्ययन ( Study of Rural Socias पामारण समाजशास्त्र के अध्ययन क्षेत्र में उन समस्त दुकाइयों को शामिल किया जाता है , जो ग्रामीण सामाजिक संरचना का निर्माण करती हैं । ग्राम्य जीवन कुछ परम्पराओं , मूल्यों , प्रथाओं , संस्थानों व रूसियों मादि पर आधारित है । ये सभी वे मूल इकाइयाँ या कारक है जो ग्रामीण सामाजिक संरचना का निर्माण करती हैं ।

. ग्रामीण सामाजिक संगठन का अध्ययन ( Study of Rural Social Organization ) ग्रामीण सामाजिक व्यवस्था में अनेक प्रकार के सामाजिक संगठन होते हैं । ग्रामीण समाजशास्त्र में इन सभी संगठनों के निर्धारक तत्त्वों , भेदों तथा कार्यों का अध्ययन किया जाता है । इसके अन्तर्गत गांवों में पाये जाने वाले विभिन्न संगठनों जैसे विवाह परिवार , जाति , व्यवसाय , वर्ग – व्यवस्था , धर्म , स्वास्थ्य , प्रशासनिक संगठन , शैक्षिक संगठन आदि पाते हैं ।

.  ग्रामीण सामाजिक समूहों का अध्ययन ( Study of Rural Social Groups ) मनुष्य प्रकृति से ही समूहों में रहता है । अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए वह विभिन्न प्रकार के समूहों का निर्माण करता है । क्रीड़ा – समूह , मनोरंजन समूह , सांस्कृतिक , धार्मिक , प्राथिक , राजनीतिक प्रादि अनेक प्रकार के समूहों , जो ग्रामीण समाज में पाये जाते हैं , का अध्ययन भी ग्रामीण समाजशास्त्र के अध्ययन की सामग्री है ।

. ग्रामीण सामाजिक संस्थाओं का अध्ययन ( Study of Rural Social Institutions ) ग्रामीण सामाजिक संस्थानों का अध्ययन ग्रामीण समाजशास्त्र के अध्ययन की प्रमुख विषय – वस्तु है । सामाजिक संस्थाएं सामूहिक उद्देश्यों को प्राप्त करने की समाज द्वारा स्वीकृत विधियाँ हैं । इसके अन्तर्गत ग्रामीण रीति – रिवाजों , जन – रीतियों , रूढ़ियों , प्रथाओं , कानूनों , नियमों आदि के स्वरूप , प्रकार एवं प्रकार्यों का अध्ययन किया जाता है ।

 ग्रामीण प्राधिक संस्थानों का अध्ययन ( Study of Rural Economic Institu tions ) – ग्रामीण समाजशास्त्र यद्यपि प्राधिक संस्थानों का अध्ययन नहीं करता है , यह कार्य तो अर्थ शास्त्र का है , परन्तु अपने व्यापक रूप में कृषक – सम्बन्धों , कृषि व अन्य व्यवसायों का ग्रामीण जीवन पर प्रभाव इत्यादि का अध्ययन इसमें किया जाता है ।

ग्रामीण राजनीतिक संस्थानों का अध्ययन ( Study of Rural Political Institu tions – प्राधिक संस्थानों की भांति ही ग्रामीण समाजशास्त्र अपने व्यापक रूप में राजनीतिक संस्थानों का भी अध्ययन करता है । इसमें ग्रामीण नेतृत्व , ग्राम पंचायतें , दलबन्दी , गुटबन्दी प्रादि राजनीतिक संस्थानों का अध्ययन किया जाता है ।

. ग्रामीण सामाजिक प्रक्रियामों का अध्ययन ( Study of Rural Social Processes ) – O ग्रामीण पर्यावरण में पाई जाने वाली विभिन्न संगठनात्मक एवं विघटनात्मक सामाजिक प्रक्रियाओं का अध्ययन ग्रामीना समाजशास्त्र में किया जाता है , जैसे सहयोग , सात्मीकरण ( Assimilation ) , व्यवस्थापन ( Accommodation ) , एकीकरण , संघर्ष , प्रतिस्पर्धा प्रादि

. ग्रामीण सामाजिक समस्याओं का अध्ययन ( Study of Rural Social Problems ) वस्तुतः ग्रामीण समाजशास्त्र की उत्पत्ति ही ग्रामीण सामाजिक समस्याओं के अध्ययन के परिणामस्वरूप | हुई है । अतः ग्रामीण समाजशास्त्र के अध्ययन – क्षेत्र का महत्त्वपूर्ण पक्ष ग्रामीण सामाजिक समस्याओं का अध्ययन है । इस रष्टिकोण से ग्रामीण पर्यावरण में व्याप्त समस्त सामाजिक , सांस्कृतिक समस्याओं के कारणों व परिणामों एवं भावी समस्यामों का अध्ययन ग्रामीण समाजशास्त्र के अध्ययन की विषय सामग्री है । ऋणग्रस्तता , निर्धनता , बेरोजगारी , निरक्षरता , बीमारी , निम्न जीवन स्तर प्रादि अनेक प्रमुख निवर्तमान ग्रामीण समस्याएँ हैं । सिप्स ‘ कहते हैं , ‘ गांवों में रहने से उत्पन्न समस्या अथवा अनेक समस्याओं को ही ग्रामीण समाजशास्त्र की विषय – वस्तु माना जाता है । “

. ग्रामीण जनसंख्या का अध्ययन ( Study of Rural Population ) – ग्रामीण समाज शास्त्र ग्रामीण पर्यावरण में रहने वाली जनसंख्या का वितरण , घनत्व , बसावट , जन्म एव मृत्यु दर , आयु , लिंग , व्यवसाय , धर्म आदि जनांकिकीय विशेषतामों का भी अध्ययन करता है । इसमें जनसंख्या की तुलना में खाद्यान्नों की पूर्ति , भूमि पर जनसंख्या का दबाव तथा ग्रामीण जनसंख्या से सम्बन्धित स्थानीय गतिशीलता आदि का भी अध्ययन किया जाता है ।

. ग्रामीण सामाजिक परिवर्तन का अध्ययन ( Study of Rural Social Change ) वैसे तो ग्रामीण सामाजिक जीवन स्थिरता का सूचक माना जाता है , परन्तु फिर भी वर्तमान में ग्रामीण समुदाय परिवर्तन की प्रक्रिया में है । इनमें से कुछ स्वाभाविक परिवर्तन हैं तो कुछ नियोजित । ग्रामीण | समाज में इन दोनों प्रकार के परिवर्तनों , इनके कारणों , प्रभावों एवं सीमाओं का अध्ययन किया जाता है ।

. ग्रामीरण – नगरीय सम्बन्धों का अध्ययन ( Study of Rural – Urban Relation ships ) – ग्रामीण एवं नगरीय सम्बन्धों का अध्ययन भी ग्रामीण समाजशास्त्र के अध्ययन की सामग्री है । ग्रामीण एवं नगरीय दोनों ही विभिन्न सामाजिक जीवन के प्रतिमान हैं , लेकिन फिर भी ये दोनों एक – दूसरे से प्रभावित होते हैं एवं एक – दूसरे को प्रभावित करते भी हैं । अतः इन दोनों प्रकार के सामुदायिक जीवन के सम्बन्धों का तुलनात्मक अध्ययन ग्रामीण समाजशास्त्र करता है । जिम्मरमेन ने लिखा है , ” ग्रामीण समाजशास्त्र का क्षेत्र जैसा कि कोई भी अपनी केन्द्रित धारणा के लिए ले सकता है , जनसंख्या पर नगरीकरण एवं ग्राम्यीकरण का प्रभाव तथा यान्त्रिकवाद है । ” ‘ सिम्स ‘ ने भी लिखा है . ” ग्रामीण समाजशास्त्र ग्रामीण तथा नगरीय संस्कृति के मध्य अन्तःक्रियाओं की अपेक्षा नहीं कर सकता । “

. ग्रामीण पुननिर्माण का अध्ययन ( Study of Rural Reconstruction ) – वर्तमान में अधिकांश ग्रामीण समाजशास्त्री इस पक्ष में हैं कि ग्रामीण समाजशास्त्र का अध्ययन – क्षेत्र , ग्रामीण जीवन का सैद्धान्तिक अध्ययन करने तक ही सीमित नहीं होना चाहिए , वरन् इसमें ग्रामीण पुननिर्माण से सम्बन्धित विभिन्न कार्यक्रमों का मूल्यांकन कर उपयोगी सुझावों को प्रस्तुत भी करना चाहिए । डॉ . ए . पार . देसाई ने लिखा है कि ” ग्रामीण समाजशास्त्र ग्रामीण कार्यकर्तामों को ग्रामीण समस्यायों के सही विश्लेषण में महायता करेगा और आगे की समस्याओं को समाप्त करने हेतु सही उपचार करने अथवा कार्यक्रम बनाने के योग्य बनायेगा । ” डम प्रकार स्पष्ट है कि वर्तमान समय में ग्रामीण समाजशास्त्र का अध्ययन – क्षेत्र प्रत्यन्त विमानावं व्यापक हो गया है , और इसन ग्रामीण सामाजिक जीवन के लगभग समस्त पक्षों के अध्ययन को अपनी प्रध्ययन – सामग्री में सम्मिलित किया है । यह प्रावश्यक भी है कि यह नवीन विज्ञान अपने अनमंधानों एवं वैज्ञानिक अध्ययनों से अपने अध्ययन – क्षेत्र का विस्तार करे एवं ज्ञान के नये आयामों को प्रस्तुत करने में अपना योगदान दे , तभी सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक दृष्टि से इस विषय का उपयोग अधिक मात्रा में किया जा सकेगा ।

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ग्रामीण समाजशास्त्र की प्रकृति

( Nature of Rural Sociology )

ग्रामीण समाजशास्त्र का विषय – क्षेत्र सीमित करने के पूर्व यह प्रश्न उठता है कि इसकी विषय – सामग्री वैज्ञानिक है या नहीं । इस आधार पर हम ग्रामीण समाजशास्त्र की प्रकृति की जांच कर सकते हैं । किसी विषय – विशेष से सम्बन्धित ज्ञान की प्राप्ति के लिए जब हम तथ्यों को वैज्ञानिक विधि से इकट्ठा करते हैं तो ऐसा अध्ययन वैज्ञानिक अध्ययन कहलाता है । इसलिए विज्ञान का प्राधार वैज्ञानिक विधि ( Scientific Method ) है , विषय – सामग्री नहीं । इसीलिए ग्रामीण समाजशास्त्र की प्रकृति को समझने के पहले यह आवश्यक हो जाता है कि हम वैज्ञानिक विधि के अर्थ को ठीक से समझे । श्री लुडबर्ग के अनुसार – ” वैज्ञानिक विधि में तथ्यों का क्रमबद्ध प्रेक्षण , वर्गीकरण एवं व्याख्या का समावेश किया जाता है । ” वैज्ञानिक विधि के विभिन्न सोपानों पर श्री बर्नार्ड लिखते हैं कि ” विज्ञान को इसके अन्तर्गत पाने वाली मुख्य प्रक्रियाओं द्वारा परिभाषित किया जा सकता है । ये परीक्षण , सत्यापन , परिभाषा , वर्गीकरण , संगठन और दिशा – दर्शन पर प्राश्रित हैं जिसमें भविष्य की ओर संकेत करना एवं व्यवहार में लाना भी सम्मिलित है । ” इस संदर्भ में श्री लुडबर्ग का मत है कि ” समाजशास्त्र में वैज्ञानिक समाज की समस्यायों का अध्ययन करते हैं और यदि सम्भव हो तो समूचित और यथाक्रम प्रेक्षण , सत्यापन , वर्गीकरण और सामाजिक घटनाओं के अध्ययन के आधार पर उनके समाधान का प्रयास करते हैं । यह विधि अपने प्रखर और सफल रूप में बहधा वैज्ञानिक विधि के नाम से जानी जाती है । ” वैज्ञानिक विधि के विभिन्न सोपान निम्नलिखित हैं

1 . सामयिक या क्रियात्मक परिकल्पना का निर्माण

2 . प्रश्नावली के उपकरणों या साधनों का चयन

3 . तथ्यावलोकन तथा तथ्य सकलन

4 . लिपिबद्ध करना

5 . तथ्यों का वर्गीकरण एवं संगठन

6 . निष्कर्षों का सामान्यीकरण एवं नियम बनाना

वैज्ञानिक विधि अपनाने के लिए समाज विज्ञान के शोधकर्तामों में एक विशिष्ट वैज्ञानिक रुझान होना चाहिए । साधारण व्यक्ति के पास यह नहीं हो सकता । वैज्ञानिक विधि के मुख्य लक्ष्य हैं अध्ययन की प्रवृत्ति , विशिष्ट उत्साह , कठिन परिश्रम , प्राधिक विचार , निस्पक्ष विवेचन इत्यादि । ग्रामीण क्षेत्रों में अब तक किए गए उपक्रमों की यदिशानिक समीक्षा करें तो हम पायेंगे कि ये अध्ययन आर्थिक स्थिति से सम्बन्धित । प्रामीण समाजशास्त्र में ग्रामीण समाज का अध्ययन अनेक उद्देश्यों से किया जाता है । अतः हम देखते हैं कि ग्रामीण समाजशास्त्री विभिन्न सामाजिक तौर – तरीकों के अध्ययन के साथ – साथ ग्रामीणों की समस्याओं का समाधान भी खोजता है ।

अमेरिका में 1937 में हुए समाजशास्त्रीय सम्मेलन में यह निर्णय किया . मया था कि वैज्ञानिक अध्ययन पर प्राधारित ग्रामीण समाजशास्त्र में सभी ग्रामीण समस्यामों का अध्ययन किया जाना चाहिए । प्रतः ग्रामीणशास्त्री पूर्णतः वैज्ञानिक हैं और यह एक सामाजिक विज्ञान है ।

ग्रामीण समाजशास्त्र एक विज्ञान के रूप में ( Rural Sociology As a Science )

वैज्ञानिक दृष्टि से ग्रामीण समाजशास्त्र के अध्ययन में निम्नलिखित सोपान होने चाहिए ( 1 ) ज्ञान के स्वरूप की सत्यता , ( 2 ) इसका संगठन , ( 3 ) इसकी विधि ( 4 ) सिद्धान्त निर्माण । जैसाकि निम्नलिखित वर्णन से स्पष्ट है कि ग्रामीण समाजशास्त्र इन चारों दशानों का सत्यापन करता है ।

. विश्वसनीय ज्ञान ( Reliable Knowledge ) – वैज्ञानिक विधि की आवश्यकतानों की पूर्ति के लिए किसी विषय की सामग्री ऐसी वैज्ञानिक विधियों द्वारा संकलित की जानी चाहिए जिनकी सत्यता एवं विश्वसनीयता की जांच की जा चुकी हो तथा जिन्हें निविवाद पाया गया हो । समाजशास्त्र यद्यपि एक नया विज्ञान है , फिर भी इसके अध्ययन का प्रारम्भ जिस स्वरूप और गति से हुअा है वह निश्चय ही उत्साहवर्धक है । इसने अनेकानेक क्षेत्रों में नवीन ज्ञान प्रदान किया है । जैसे – जनसंख्या , कुटुम्ब , समूह का व्यवहार , संस्थानों का विकास , सामाजिक परिवर्तन की विधि इत्यादि । ग्रामीण समाजशास्त्र के अध्ययन में आने वाली अनेक अड़चनों के बावभूद इसकी सामग्री विश्वसनीय है तथा कुछ नगण्य कमियों के आधार पर इसे अवैज्ञानिक कहना एकदम अनुचित है ।

. ज्ञान का संगठन ( Organization of Knowledge ) – विज्ञान का संगठन उन सम्बन्धों पर आधारित है जो ज्ञान के प्रत्येक क्षेत्र को परस्पर सम्बद्ध करते हैं । समाजशास्त्र में बहुत से अन्तः सम्बन्ध हैं । उसके पास और अधिक खोजों के लिए बहुत से साधन और उपकरण हैं , यद्यपि ये पर्याप्त हैं परन्तु अभी भी उससे सम्पूर्ण क्षेत्र के समुचित अध्ययन , विश्लेषण एवं संश्लेषण की क्षमता इनमें नहीं है । यह विश्वास किया जाता है कि समाज सम्बन्ध प्राचीन ज्ञान का संकलन अंततः इस प्रकार के संश्लेषण में सहायक होगा ।

. समाजशास्त्र एक विधि के रूप में ( Sociology As a Method ) – जिस प्रकार भौतिकशास्त्र के अध्ययन के लिए सही – सही प्रेक्षण एवं निष्कर्ष आवश्यक है उसी प्रकार के प्रेक्षण एवं निष्कर्ष समाजशास्त्र के अध्ययन में भी आवश्यक हैं तथापि भौतिकशास्त्र के प्रेक्षण प्रयोगों पर आधारित होते हैं तथा समाजशास्त्र के प्रेक्षण अन्वेषण प्रांकड़ों पर । उदाहरणार्थ , यदि हम यह जानना चाहते हैं कि बालमृत्यु कम प्राय वाले परिवारों में अधिक होती है अथवा अधिक आय वाले परिवारों में , तो इसके लिए हम ऐसा नहीं करते हैं कि 50 धनी परिवारों की माताओं को , और 50 गरीब परिवारों की माताओं को एक कमरे में ले आयें और बालमृत्यु को देखने लगें । बल्कि इसके स्थान पर हम तथ्य संकलन करते हैं । परन्तु सर्वप्रथम हमें उनके खाने की व्यवस्था , उस धार्मिक समूह के रीति – रिवाज , और अंत में उनकी वंश – परम्परा का समन्वित अध्ययन करना होगा । बाल मृत्यु के संदर्भ में विभिन्न प्राय वर्गों का अध्ययन करने पर ज्ञात हुआ है कि केवल प्राय में वृद्धि द्वारा , बालमृत्यु की दर कम की जा सकती है तथा बच्चों का जीवन सुरक्षित रहता है ।

 क्या है ‘ का वर्णन एवं विश्लेषण ग्रामीण समाजशास्त्र भी असा विशानों की सरह क्या है ‘ का अध्ययन करता है कि या होना चाहिए का ‘ । ग्रामीण समाजशास्त्र ग्रामीण समाज में पाये जाने वाले सामाजिक सम्बन्धों , सामाजिक प्रक्रियायों , सामाजिक समूहों प्रादि का , जैसे वे हैं , उसी रूप में प्रध्ययन करता है । एक सकारात्मक विज्ञान के रूप में यह घटनाओं को निष्पक्ष रूप से देखता है और जिस रूप में वे ग्रामीण समाज में उपलब । उसी रूप में उन्हें प्रस्तुत करता है । उदाहरण के लिए , ग्रामीण कारणास्तता और गरीबी के क्या कारण ग्रामीण संस्कृति की क्या विशेषताएं हैं , ग्रामीण समाज की सरचना कैसी है प्रादि ।

 कार्य और कारण की व्याख्या कोई भी विज्ञान किसी भी घटना की खोज के लिए उसके कारणों और प्रभावों का भी पता लगाता है । बिना कारण के कोई भी घटना घटित नहीं होती है और प्रत्येक घटना कुछ प्रभाव भी छोड़ती है । ग्रामीण समाजशास्त्र भी या है – की व्याख्या कार्य – कारण के अाधार पर करता है । उदाहरण के लिए ग्रामीण पननिर्माण और सामुदायिक विकास योजना की सफलता और असफलता के क्या कारण ? कारणों का ज्ञान करके ही हम किसी समस्या का समाधान भी ढूंढ सकते हैं ।

. सिद्धान्तों का निर्माण ( Formation of Theories ) – ग्रामीण समाजशास्त्र ग्रामीण जीवन से सम्बन्धित अध्ययनों के प्राधार पर सिद्धान्तों का निर्माण करता है । ग्रामीण समाजशास्त्री अपनी उपकल्पना की सत्यता की जांच करता है और उससे सम्बन्धित अवलोकन करता है । बह तथ्यों का संकलन कर उनका वर्गीकरण और विश्लेषण करता है और प्राप्त निष्कर्षों के प्राधार पर सिद्धान्तों का निर्माण करता है । ये सिद्धान्त सार्वभौमिक होते हैं । इन सिद्धान्तों की तत्परता की जांच के लिए वह उनकी परीक्षा और पुनर्परीक्षा करता है जिससे उनकी वैज्ञानिकता की पुष्टि होती है । देश काल के अनुसार यदि उनमें कोई परिवर्तन प्राता है तो उनमें संशोधन किए जाते है और नए सिद्धान्तों का निरिण किया जाता है । मगर प्रत . समाजशास्त्र में , अध्ययन की वैज्ञानिक विधि बड़ी सावधानी के साथ अपनायी जाती है । पृथक्करण करने , योजना बनाने और सामुदायिक विकास में , वैज्ञानिक तौर – तरीकों पर प्राधारित , सभी कार्य मावश्यक हैं । ग्रामीण समाज के अध्ययन में , हमें सामाजिक सोस्थिकी , सामाजिक निरीक्षण पूर्व इतिहास तथा सामुदायिक अध्ययन की पावश्यकता पड़ती है । वैज्ञानिक विधि के प्रभाव में ग्रामीण समस्यायों का वैज्ञानिक अध्ययन नहीं किया जा सकता । ऐसे अध्ययनों पर आधारित निष्कर्षों के अाधार पर जहाँ बैज्ञानिक विधियों का प्रयोग नहीं किया गया है हम भविष्य के विषय में पूर्वानुमान ही लगा सकते हैं : किसी वैज्ञानिक तथ्य को प्राप्त नहीं कर पायगे । ग्रामीण समाजशास्त्र में , कारण और प्रभाव के बीच के सम्बन्धों के अध्ययन का भी प्रयास किया जाता है जो वैज्ञानिक अध्ययन की प्रथम मावश्यकता है । साथ ही वर्गीकरण द्वारा छितरीहई सामग्री को व्यवस्थित एवं वैज्ञानिक रूप दिया जाता है तथा इसके गहन अध्ययन द्वारा सामान्यीकरण का प्रयास किया जाता है । इस प्रकार प्रामीण समाजशास्त्र की प्रकृति पूर्णतः वैज्ञानिक है । अतः हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि समाजशास्त्र एक विज्ञान है ।

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