Site icon NOTES POINTS

ग्रामीण शक्ति संरचना : नेतृत्व – इसके परिवर्तित प्रतिमान

ग्रामीण शक्ति संरचना : नेतृत्व – इसके परिवर्तित प्रतिमान

( Rural Power Structure : Leadership – Changing Patterns )

किसी भी सामाजिक व्यवस्था के सूव्यवस्थित अध्ययन के लिए यह आवश्यक है कि उसके समस्त पक्षों का अध्ययन किया जाए । नवीन अध्ययनों में राजनीति एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण विषय है । अनेक राष्ट्रों के लिए लोगों एवं समूहों का राजनीतिकरण ( Politicization ) समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । विकासशील राष्ट्रों में परिवर्तन की प्रकृति , दिशा एवं अन्य महत्त्वपूर्ण विशेषताओं को समझने के लिए वहाँ की राजनीतिक प्रक्रिया को समझना आवश्यक है । समयाभारत में ग्रामीण समुदाय में अत्यन्त प्राचीन काल से ही सामाजिक शक्ति ( Power ) के । आधार पर व्यक्ति की प्रस्थिति का निर्धारण होता रहता है । अनेक धार्मिक ग्रन्थों , इतिहासकारों एवं विद्वानों ने प्राचीन भारत के गांवों की राजनीतिक व्यवस्था का उल्लेख किया है । एक सामान्य विशेषता ऐतिहासिक राजनीतिक व्यवस्था के बारे में यह देखी गई है कि सामाजिक शक्ति के निर्धारण में प्राचीन काल में प्रदत्त प्रस्थिति ( Ascribed Status ) को महत्त्व दिया जाता था , न कि अजित प्रस्थिति ( Achieved Status ) को । अनेक विद्वानों ने भारतीय ग्रामीण राजनीतिक व्यवस्था का जो अध्ययन किया है , उनमें ए . एस . अल्तेकर एवं बी . एन . पुरी का नाम उल्लेखनीय है । आपने अपनी पुस्तक ‘ स्टेट एण्ड गवर्नमेंट इन एनसिएन्ट इण्डिया ‘ में प्राचीन ग्रामीण राजनीतिक व्यवस्था का विस्तार से अध्ययन प्रस्तुत किया है । । हैनरी मेन ने ‘ विलेज कम्यूनिटीज इन द ईस्ट एण्ड वेस्ट ‘ में भारतीय गाँवों में वृद्ध लोगों की परिषद एवं मुखियाओं की उपस्थिति का उल्लेख किया है । पास्कर लेविस ने उत्तरी भारत में गुट एवं नेतृत्व का अध्ययन किया ।

भारत में ग्रामीण शक्ति संरचना ( Power Structure ) एवं नेतृत्व ( Leadership ) के अध्ययन के प्रति समाज शास्त्रियों की रुचि अभी हाल ही में उत्पन्न हुई है एवं अनेक भारतीय समाज वैज्ञानिकों ने ग्रामीण राजनीतिक व्यवस्था में ऐसे अध्ययनों को प्रायोजित किया है । डॉ . योगेन्द्र सिंह ने उत्तर प्रदेश के छः गांवों में शक्ति संरचना का अध्ययन किया । एम . एन . श्रीनिवास एवं श्यामाचरण दबे ने ग्रामीण नेतत्व के प्रतिमानों की अध्ययन पद्धति का उल्लेख किया है । श्रीनिवास ने ग्रामीण नेतत्व में

प्रभु जाति ( Dominant Caste ) की अवधारणा को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है , जबकि दुबे प्रभु जाति की अपेक्षा कुछ व्यक्तियों तक ही नेतृत्व की अवधारणा को सीमित मानते हैं । प्रभात चन्द्रा ने अपने लिखे एक लेख में परम्परागत नेतृत्व के पक्ष में ग्रामीण नेतृत्व का अध्ययन किया है । पार्क एवं टिकर की संकलित कृति ‘ लीडरशिप एण्ड पोलिटिकल इन्स्टीट्यूशनस् इन इण्डिया ‘ में अनेक विद्वानों ने अपने – अपने अध्ययन प्रस्तुत किए हैं । इनमें प्रोपलर , बुड , हियकांक , ऑरेनस्टेन , बील्स मैकारमैक , हारपर प्रादि ने अनेक लेख लिखे हैं । मा श्रीमती लीला दुबे , राय , डॉ . कोठारी , एल . पी . विद्यार्थी आदि ने भारत में नेतृत्व की अवधारणा , विधियों एवं तथ्यों का उल्लेख किया है । 1962 में रांची में जनजातीय एवं ग्रामीण नेतृत्व पर हुई सेमीनार में प्रस्तुत अनेक लेखों के अाधार पर श्री विद्यार्थी ने ‘ लीडरशिप इन इण्डिया ‘ नामक पुस्तक सम्पादित की है , जो ग्रामीण जनजातीय नेतृत्व के अध्ययन की एक श्रेष्ठ कृति है । इस प्रकार हम देखते हैं कि ग्रामीण संरचना एवं नेतत्व पर अनेक विद्वानों ने अपने – अपने अध्ययन प्रस्तुत किए हैं । हमें ध्यान रखना चाहिए कि शक्ति संरचना कभी भी स्वयं में स्वतन्त्र नहीं होती । नेतृत्व वह महत्त्वपूर्ण माध्यम है , जिसके द्वारा शक्ति के एक विशेष स्वरूप को प्रभावपूर्ण बनाया जाता है । इससे पूर्व कि हम शक्ति संरचना एवं नेतृत्व के प्रतिमान को समझने का प्रयास करें यह समझ लें कि शक्ति ( Power ) , शक्ति संरचना ( Power Structure ) एवं नेतृत्व ( Leadership ) क्या है ?

MUST READ ALSO

MUST READ ALSO

शक्ति की अवधारणा

( Concept of Power )

सामान्य शब्दों में शक्ति का प्राशय किसी भी व्यक्ति एवं समूह के उस दबाव से समझा जाता है , जो अन्य व्यक्तियों अथवा समूहों पर स्पष्ट होता है । एक अवधारणा के रूप में शक्ति का सम्बन्ध एक विशेष प्रस्थिति तथा उससे सम्बन्धित भूमिका के निर्वाह से है । मैक्स वेबर के अनुसार सामान्यतः हम शक्ति को एक व्यक्ति अथवा अनेक व्यक्तियों द्वारा इच्छा को दूसरों पर क्रियान्वित करने अथवा दूसरे व्यक्ति द्वारा विरोध करने पर भी उसे पूर्ण कर लेने की स्थिति को कहते हैं । ” 3 , हार्टन एवं हन्ट ( Horton and Hunt ) ने सोश्योलॉजी में लिखा है कि ” शक्ति का अर्थ है , दूसरों की क्रियात्रों को नियन्त्रित करने की क्षमता । ” 4 इसका प्राशय यह है कि व्यक्ति चाहे किसी भी स्थिति में हो . वह दूसरों के व्यवहारों को जिस सीमा तक नियन्त्रित कर लेता है , वह उतना ही अधिक शक्ति – सम्पन्न होता है ।

इन दोनों परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि शक्ति किसी व्यक्ति अथवा समूह में निहित एक ऐसी क्षमता है जिसके द्वारा शक्ति को धारण करने वाला व्यक्ति अथवा समूह दूसरों की इच्छा के न होते । हए भी उन्हें अपनी इच्छा के अनुसार व्यवहार करने को बाध्य करता है और सभी निर्णय अपने ही पक्ष में करा लेने में सफल हो जाता है । इस सन्दर्भ में यह महत्त्वपूर्ण है कि प्रत्येक समाज में कुछ व्यक्ति अथवा समूह अपनी कुछ विशेष योग्यता के कारण इतनी शक्ति प्राप्त कर लेते हैं कि वे उसका कभी भी प्रभावपूर्ण ढंग से उपयोग कर सकते हैं । समाज में प्रभाव का यह प्रतिमान एक ऐसे तन्त्र ( Network ) अथवा व्यवस्था का निर्माण करता है जो एक विशेष विषय से सम्बन्धित निर्णय लेने वाले व्यक्तियों एवं समहों को परस्पर सम्बद्ध करता है । चिताम्बर का कथन है कि जो व्यक्ति अथवा समूह प्रौपचारिक अथवा अनौपचारिक रूप से समाज पर अपना प्रभाव रखते हैं , वे व्यक्ति समाज में शक्ति संरचना का निर्माण करते हैं ।

रोजर्स ( Rogers ) ने सामाजिक शक्ति को एक ऐसे तथ्य के रूप में स्पष्ट किया है जिसके द्वारा एक व्यक्ति दूसरे की क्रियानों को प्रभावित अथवा नियन्त्रित करता है । इस कथन को स्पष्ट करने के लिए यह आवश्यक है कि शक्ति की अवधारणा को स्पष्ट करने के लिए इसके दो स्वरूपों अर्थात सत्ता ( Authority ) एवं प्रभाव ( Influence ) के भेद को स्पष्ट किया जाए । चिताम्बर के अनुसार प्रभाव को एक ऐसी शक्ति के रूप में परिभाषित किया जा सकता है । जिसमें शक्ति संरचना और नेतृत्व का समावेश होता है तथा जिसके द्वारा कुछ व्यक्ति अथवा समूह समाज में अन्य लोगों के व्यवहारों एवं क्रियानों को प्रभावित करते हैं । हार्टन एवं हंट ने प्रभाव को सीमित अर्थों में स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है । अापके अनुसार दूसरे व्यक्तियों के व्यवहारों एवं निर्णयों को बिना किसी सत्ता के प्रभावित करने की क्षमता को हम प्रभाव कहते हैं ।

दूसरी ओर सत्ता एक वैध शक्ति है जिसे समाज में व्यक्ति किसी विशेष पद पर होने के नाते प्राप्त करता है और इसी सन्दर्भ में अन्य व्यक्तियों को प्रादेश देने की स्थिति में होता है । इस दृष्टिकोण से सत्ता एक औपचारिक शक्ति है जिसका किसी व्यक्ति के पद से घनिष्ठ सम्बन्ध होता है जबकि प्रभाव एक अनौपचारिक शक्ति का बोध कराता है । उदाहरण के लिए प्रधान मन्त्री अथवा जिलाधीश की शक्ति एक विशेष पद से सम्बन्धित है , इसलिए इनकी शक्ति को हम सत्ता ‘ के अन्तर्गत ले सकते हैं जबकि एक समाज सुधारक अथवा वैज्ञानिक की शक्ति किसी विशेष पद से सम्बन्धित न होने के कारण ‘ प्रभाव ‘ से अधिक सम्बद्ध हैं । इस प्रकार स्पष्ट होता है कि सत्ता का तात्पर्य वैधानिक शक्ति ( Legitimate Power ) से है जबकि प्रभाव एक अवैधानिक शक्ति अथवा अनौपचारिक शक्ति ( Non – legit mate Power ) का बोध कराता है ।

यद्यपि प्रत्येक समाज अथवा समुदाय में जीवन को व्यवस्थित रखने के लिए शक्ति का प्रभावपूर्ण होना अावश्यक है लेकिन विभिन्न समुदायों में इसका स्वरूप भिन्न – भिन्न हो सकता है । सामान्य रूप से इस शक्ति को चार मुख्य स्वरूपों के माध्यम से समझा जा सकता है – ( क ) अभिजात वर्ग की शक्ति , ( ख ) संगठित समूह की शक्ति , ( ग ) असंगठित लोगों की शक्ति , तथा ( घ ) कानून की शक्ति । अभिजात वर्ग की शक्ति का सम्बन्ध उन व्यक्तियों से है जो अपनी सम्पत्ति , कार्य – कुशलता अथवा प्रभाव के कारण उच्च पदों पर आसीन होते हैं और अपने पद की शक्ति के द्वारा अन्य व्यक्तियों को प्रभावित करते हैं । इसके अतिरिक्त प्रत्येक समाज में उद्योगपतियों , चिकित्सकों , प्राध्यापकों , वकीलों अथवा किसानों के ऐसे संगठन होते हैं जो संगठित रूप से अपनी शक्ति का उपयोग करते हैं ।

साधारणतया इन संगठनों की शक्ति उनके सदस्यों की संख्या तथा संगठन की मात्रा में निहित होती है । कभी – कभी असंगठित लोगों द्वारा भी विभिन्न अवसरों पर अपनी शक्ति का प्रदर्णन किया जाता है । असंगठित लोगों की शक्ति का प्रयोग साधारणतया दो स्वरूपों में होता है – या तो किसी विशेष स्थिति में असहयोग को प्रदर्शित करके अथवा जनतान्त्रिक व्यवस्था में मताधिकार के द्वारा किसी का समर्थन अथवा बिरोध करके , अन्त में , कानून शक्ति का एक ऐसा वैधानिक स्वरूप है जिसे सम्पूर्ण समाज की अभिमति ( Sanction ) प्राप्त होती है । कानून शक्ति की ऐसी ग्रौपचारिक संरचना है जिसके द्वारा सभी लोगों के अधिकारों एवं दायित्वों को परिभाषित किया जाता है तथा समाज में नियन्त्रण की स्थापना की जाती है । जिन समाजों में द्वतीयक समूह – सम्बन्धों ( Secondary Group Relations ) की प्रधानता होती है वहाँ कानन को ही शक्ति के सबसे स्पष्ट रूप में देखा जाता है ।

इस प्रकार स्पष्ट होता है कि प्रत्येक समुदाय में कुछ लोग ऐसे अवश्य होते हैं , जिनमें शक्ति निहित होती है । यह व्यक्ति समूह के निर्णयों तथा व्यक्तिगत व्यवहार – प्रतिमानों को निर्धारित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । किसी समूह के अनर्गत इस शक्ति का विस्तार किस वर्ग में होगा तथा शक्ति सम्पन्न व्यक्तियों एवं अन्य व्यक्तियों के बीच सम्बन्धों की प्रकृति किस प्रकार की होगी , यही वह प्रमुख आधार है जिसके द्वारा समूह में एक विशेष शक्ति संरचना का निर्माण होता है । प्रत्येक समाज में ग्रामीण समुदाय की संरचना नगरीय समुदायों से अत्यधिक भिन्न होने के कारण वहाँ शक्ति संरचना भी अपनी पृथक् विशेषता लिए हुए होती है । ऐसी स्थिति में यह आवश्यक है कि ग्रामीण ।

शक्ति संरचना की प्रकृति को स्पष्ट करके इसके सन्दर्भ में ग्रामीण सामाजिक संरचना की प्रकृति को स्पष्ट किया जाए ।

MUST READ ALSO

MUST READ ALSO

शक्ति संरचना 

( Power Structure )

Tam लोगों को प्रभावित करने की शक्ति की तुलना हम समुद्र की धारागों से कर सकते हैं जो समय – समय पर ग्रामीण व शहरी जन – समूह रूपी पानी को एक अथवा दूसरी दिशा में घुमाती है । । यह शक्ति नेतृत्व में अथवा उन लोगों के समूह में होती है जो शक्ति धारण करते हैं और वे अपने शक्तिशाली प्रभाव का उपयोग लोगों को दिशा प्रदान करने में करते हैं । ये शक्तियां छोटे समूह के द्वारा अथवा अन्य रूपों में समाज में कार्य करती हैं । शक्ति कभी प्रौपचारिक रूप से सत्ता का रूप धारण कर समाज में कार्य करती है तो कभी अनौपचारिक रूप से व्यक्ति अथवा समूह के द्वारा समाज पर नियन्त्रण रखती है और निर्णय लेने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है । प्रभाव ( Influence ) का प्रतिमान और स्वरूप कोई भी हो सकता है किन्तु यह प्रत्येक समाज में अवश्य पाया जाता है । ग्रामीण समाज में प्रभाव का प्रतिमान ( Pattern of Influence ) सम्पूर्ण शक्ति संरचना और नेतृत्व के रूप में देखा जा सकता है । शक्ति को परिभाषित करते हुए हॉर्टन एवं हन्ट लिखते हैं ” दूसरों की क्रियानों को नियन्त्रित करने की क्षमता को ही शक्ति कहते हैं । ” मैक्स वेबर भी शक्ति की व्याख्या इसी प्रकार करते हैं , सामान्यतः हम ‘ शक्ति ‘ को व्यक्ति अथवा कई लोगों द्वारा अपनी इच्छा को दूसरों पर थोपने अथवा दूसरों द्वारा प्रतिरोध करने पर भी पूर्ण करने को कहते हैं ।

पारसन्स शक्ति को समाज व्यवस्था की एक ऐसी सामान्यकृत क्षमता ( Generalized Capacity ) मानते हैं जिसका उद्देश्य सामूहिक लक्ष्यों के हितों को पूर्ण करना होता है । इस प्रकार हम देखते हैं कि हॉर्टन तथा मैक्स वेबर ने शक्ति को व्यक्ति अथवा व्यक्तियों में निहित मानकर एक ऐसी क्षमता के रूप में परिभाषित किया है जिसके द्वारा शक्ति धारण करने वाला व्यक्ति अपनी इच्छा को दूसरे लोगों पर उनकी इच्छा के विरुद्ध होने पर भी लादता है । पारसन्स शक्ति को एक समाज व्यवस्था के रूप में मानते हैं जिसका प्रयोग सामूहिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए होता है । मित उपरोक्त सन्दर्भ में हम कह सकते हैं कि समाज में कुछ लोग अथवा समूह ऐसे होते हैं जिनमें कुछ गुणों अथवा क्षमताओं के कारण ऐसी योग्यता होती है कि वे इसका उपयोग विशेष परिस्थितियों में कर सकते हैं । समाज में प्रभाव का प्रतिमान एक संरचना का निर्माण करता है जो निर्णय लेने वाले व्यक्तियों एवं समूहों को परस्पर सम्बद्ध करती है । जो व्यक्ति अथवा समूह औपचारिक अथवा अनौपचारिक रूप से समाज में प्रभाव रखते हैं वे समाज में शक्ति संरचना का निर्माण करते हैं ।

इस प्रकार समाज में शक्ति दो रूपों में देखी जा सकती है – – एक सत्ता ( Authority ) के में दसरी प्रभाव ( Iafluence ) के रूप में । प्रभाव को व्यक्तियों एवं समूह द्वारा समाज में लोगों के वहार और क्रिया को प्रभावित करने वाली शक्ति के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसमें शक्ति संरचना और नेतृत्व भी सम्मिलित है । हॉर्टन और हन्ट प्रभाव को सीमित अर्थ में दर्शाते हैं । उनके अनुसार प्रभाव का अर्थ है दूसरों के व्यवहार और निर्णय को बिना सत्ता के प्रभावित करने की क्षमता । सत्ता को हम वैध शक्ति ( Legitimate Power ) के रूप में परिभाषित कर सकते हैं जो एक पद धारण करने के फलस्वरूप प्राप्त होती है जिसके द्वारा व्यक्ति अथवा समूह दूसरे लोगों को आदेश देने का अधिकार पाता है , उनके व्यवहार को नियन्त्रित करता है । सत्ता औपचारिक शक्ति होती है जो एक व्यक्ति को एक पद धारण करने के कारण प्राप्त होती है । प्रभाव से अनौपचारिक शक्ति का आभास होता है । जिलाधीश को जो अधिकार और शक्ति प्राप्त है वह उसके पद धारण करने के कारण है । अतः हम जिलाधीश की शक्ति को सत्ता कहेंगे ।

गाँव में दयालु , मिलनसार और धार्मिक प्रवृत्ति के वयोवद्ध व्यक्ति को जो शक्ति प्राप्त है वह अनौपचारिक है , यह उसका प्रभाव कहलाएगा । प्रधानमन्त्री या राष्ट्रपति पद के कारण शक्ति प्राप्त करता है । उनकी शक्ति को हम सत्ता कहेंगे । जबकि महात्मा गाँधी की शक्ति को हम प्रभाव कहेंगे । अतः स्पष्ट है कि सत्ता वैधानिक शक्ति ( Legitimate Power ) है जबकि प्रभाव अवैधानिक शक्ति ( Non – legitimate Power ) । शक्ति का संस्कृति से भी घनिष्ठ सम्बन्ध है । भारतीय संस्कृति में पारिवारिक निर्णय लेने में वयोवृद्ध पुरुष एवं स्त्री की शक्ति भिन्न – भिन्न है । भारत में बयोवद्ध पुरुष को स्त्री की तुलना में निर्णय लेने में अधिक शक्ति प्राप्त है जबकि पश्चिमी देशों में स्त्री की शक्ति भारतीय नारी की तुलना में अधिक है । शक्ति समाज में अप्रत्यक्ष रूप से सामाजिक संरचना की इकाइयों जैसे संस्था व संगठन के द्वारा प्रयुक्त होती है । इस रूप में शक्ति औपचारिक रूप धारण करती है । जा शक्ति समाज में अनेक रूपों से प्रकट होती है ।

इसके प्रमुख चार स्वरूप हैं – – अभिजात , संगठित शक्ति , प्रसंगठित लोगों की शक्ति तथा कानून की शक्ति । कम अभिजात ( The Elite ) समाज में कुछ लोगों का ऐसा समूह पाया जाता है जो अपनी सम्पत्ति , कार्य करने की क्षमता तथा प्रभाव के कारण अथवा उच्च पदों के कारण शक्ति धारण करते हैं , उन्हें हम अभिजात कहते हैं । जी या संगठित शक्ति ( Organized Power ) समाज में कुछ ऐसे संगठन होते हैं जिन्हें जनता का समर्थन एवं स्वीकृति प्राप्त होती है और वे संगठन अपनी शक्ति का प्रयोग करते हैं । उदाहरण के लिए छात्रों , वकीलों , डॉक्टरों , अध्यापकों , किसानों एवं उद्योगपतियों की समाज में महत्त्वपूर्ण शक्ति एवं प्रभाव होता है । ये लोग अपनी शक्ति को प्रदर्शित करने के लिए संचार , पत्र – पत्रिकायों , रेडियो , टेलीविजन आदि का प्रयोग करते हैं । विभिन्न संगठन अपनी संख्या के आधार पर शक्ति का प्रयोग के करते हैं । असंगठित लोगों की शक्ति ( Power of Unorganised Masses ) असंगठित लोगों में भी शक्ति निहित होती है यद्यपि उसका उपयोग कभी – कभी ही होता है । वोट द्वारा तथा किसी कार्य में सहयोग एवं असहयोग द्वारा लोग अपनी शक्ति प्रकट करते हैं ।

कानून ( Law ) शक्ति का वैधानिक स्वरूप है जिसे समाज के लोगों की अभिमति प्राप्त होती है । यह संगठित और औपचारिक संरचना का प्रतिनिधि है । कानून द्वारा लोगों के व्यवहार का नियन्त्रण होता है । लोगों के अधिकार एवं दायित्व परिभाषित होते हैं तथा नियमों की अवहेलना करने वालों को दण्ड मिलता है । उपर्युक्त सम्पूर्ण विवेचन से स्पष्ट होता है कि प्रत्येक समाज और समुदाय में कुछ लोग ऐसे होते हैं जो प्रभावशाली और शक्तिशाली होते हैं । वे सामूहिक निर्णय लेने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । शक्ति धारण करने वाले ऐसे लोग एवं समूह परस्पर सम्बन्धित होते हैं और समाज में शक्ति संरचना का निर्माण करते हैं । ये अपनी शक्ति का प्रयोग अनौपचारिक रूप से करते हैं । शक्ति संरचना की अवधारणा को समझने के बाद हम यहाँ भारतीय ग्रामों में शक्ति संरचना के परम्परात्मक एवं आधुनिक स्वरूपों का उल्लेख करेंगे ।

MUST READ THIS

MUST READ THIS

 ग्रामीण भारत में परम्परात्मक शक्ति संरचना

( Traditional Power Structure in Rural India )

परम्परागत भारतीय गांवों में शक्ति संरचना के प्रमुख तीन प्राधार थे – जमींदारी प्रथा , ग्राम पंचायत एवं जाति पंचायत । एक तरफ जमींदारी प्रथा समुदाय के लोगों को भौतिक व आर्थिक हितों एवं प्राकक्षिानों की प्रतिनिधि थी तो दूसरी ओर ग्राम पंचायत तया जाति पंचायतें ग्रामीण राजनीति ( Polity ) की सामाजिक विशेषतानों की प्रतीक थीं ।

ग्रामवासियों का मुख्य व्यवसाय कृषि था । प्रतः भू – स्वामित्व के अधिकार उनके सामाजिक सम्बन्धों में प्रभुता और अधीनता की स्थिति को निश्चित करते थे । भू – स्वामित्व के अधिकार ही समुदायों के लोगों की प्रार्थिक अपेक्षाओं पर नियन्त्रण रखते थे । जमींदारी व्यवस्था गाँव की शक्ति व्यवस्था में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती थी । धीरे – धीरे जमींदारी व्यवस्था ही गाँवों में शक्ति संस्था के रूप में विकसित हो गई और यही नीतियों का निर्धारण भी करने लगी । इसी प्रथा ने गांव पंचायत व जाति पंचायतों की भूमिकामों को भी प्रभावित किया । जमींदारी प्रथा के बाद ग्रामीण लोगों के व्यवहार , संस्कार , परम्परात्मक अपेक्षानों एवं सामाजिक जीवन को प्रभावित करने वाला दूसरा महत्त्वपूर्ण संगठन जाति संगठन था । जाति संगठन ने जमींदारी प्रथा के साथ – साथ अपनी शक्ति संरचना का विकास किया ।

गांवों में शक्ति संरचना का तीसरा प्रमुख प्राधार ग्राम पंचायतें थीं । वर्तमान पंचायती राज की स्थापना से पूर्व गांवों में सभी जातियों के वयोवृद्ध लोगों द्वारा निमित एक परिषद् अथवा ग्राम पंचायत होती थी । ये पंचायतें जमींदारी की सामुहिक संस्था की शक्ति पर नियन्त्रण रखती थीं । इस प्रकार से जमींदारी प्रथा के . उन्मूलन से पूर्व गांव में शक्ति व्यवस्था को निर्धारित करने में जमींदारी व्यवस्था , गाँव पंचायत व जाति पंचायत की संस्थाएं महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती थीं । कोई भी आर्थिक , राजनीतिक , सामाजिक , सांस्कृतिक और सांस्कारिक विवाद इन तीनों संस्थानों द्वारा ही निपटाये जाते थे । इसका अर्थ यह नहीं है कि इन तीनों के अतिरिक्त गाँवों में शक्ति के अन्य स्रोत नहीं थे । पुरोहित , प्रथाएँ , परम्पराएँ एव जनरीतियाँ भी गाँवों में शक्ति के स्रोत थे । इन्हें गाँव के लोग अचेतन रूप से स्वीकार करते थे और इनका उल्लंघन करने पर व्यक्ति के सम्मुख अनेक कठिनाइयां उत्पन्न हो जाती थीं । ग्रामीण शक्ति के तीनों स्रोत , जमींदारी प्रथा , गांव पंचायत एवं जाति पंचायत अपने आप में स्वतन्त्र इकाइयां नहीं थीं वरन् परस्पर एक – दूसरे पर निर्भर भी थीं । इनसे भी ऊपर पुलिस एवं राज्य की शक्ति थी । उन्हीं पर ये तीनों संस्थाएं आश्रित भी थीं और उनसे अपनी शक्ति भी प्राप्त करती थीं । हम यहाँ भारतीय ग्रामों में शक्ति संरचना के इन तीनों स्रोतों का उल्लेख करेगे जिससे कि गांवों की परम्परात्मक शक्ति संरचना को स्पष्टतः समझा जा सके ।

  जमींदारी प्रथा तथा शक्ति संरचना

( Zamindari System and Power Structure )

जमींदारी प्रथा से पूर्व गांवों में भू – स्वामित्व का क्या तरीका प्रचलित था , इस बार में विद्वानों में असहमति है । हेनरी मेन की मान्यता है कि प्राचीन समय में पितृसत्तात्मक परिवार प्रचलित थे । परिवार का मुखिया अपने सदस्यों के साथ मिलकर कृषि कार्य करता था और भमि पर सामूहिक अधिकार की प्रथा विद्यमान थी । मुखर्जी एवं अल्तेकर ने हेनरी मेन के विचारों से प्रसहमति प्रकट की है । बेडन पॉवेल ( Baden Powell ) का मत है कि प्रजातीय आवागमन के परिणामस्वरूप भू – स्वामित्व के अधिकारों में भी परिवर्तन होता रहा । पार्यों से पूर्व रैयतवाड़ी व्यवस्था प्रचलित थी जो अब भी दक्षिणी भारत में पाई जाती है । आर्यों ने भूमि पर गाँव के सामूहिक स्वामित्व की प्रथा प्रारम्भ की । वे कहते हैं कि भूमि पर स्वामित्व दो प्रकार से पैदा होता है , एक तो अमि पर जो व्यक्ति श्रम करता है और उसे कृषि योग्य बनाता है उसका उस पर अधिकार होता है । दुसरा भूमि पर अधिकार विजय के कारण पैदा होता है । उत्तरी भारत में भूमि का अधिकार एक दारा भमि जीत लेने के कारण प्राप्त हुमा अथवा राजा द्वारा भूमि देने या गौत्र द्वारा भूमि विस्तार के कारण भी । भूमि पर स्वामित्व के आधार पर उत्तरी भारत में दो प्रकार के गाँव देखने को मिलते हैं

 ( 1 ) ताल्लुकेदारी अथवा जमींदारी प्रथा वाले गाँव ।

( 2 ) संयुक्त जमींदारी प्रथा वाले गाँव ।

हम जिन गांवों में जमींदारी या ताल्लुकेदारी प्रथा थी वहाँ गाँव की सारी भूमि पर जमींदार अथवा ताल्लू के दार का अधिकार होता था । गांव के दूसरे लोग उनकी प्रजा अथवा रैयत ( Reyot ) कहलाते थे जिन्हें केवल खेती करने का अधिकार था । भूमि पर कृषि करने के बदले लोग जमींदारों को लगान देते थे । गाँव के बाग – बगीचे , तालाब , चरागाह , भूमि आदि पर जमींदारों का अधिकार होता । इनका उपयोग करने वाले को नकद अथवा वस्तु के रूप में लगान या भूपावजा देना होता था । व्यापारी , दस्तकारी एवं सेवा करने वाली जाति , मुआवजे का भुगतान , उपसार के रूप में करती थीं । जमींदारों को अपनी रयत पर अनेक न्यायिक अधिकार भी प्राप्त थे । जमींदारी प्रथा ने अनेक प्राथिक , राजनीतिक , सामाजिक एवं न्यायिक अधिकारों को जन्म दिया । इन अधिकारों में कानून का कोई हस्तक्षेप नहीं था । बिना कानुन के ही जमींदार बहत शक्तिशाली होते थे और गांव के लोग भी कानून से अधिक प्रथामों को स्वीकार करते थे । जमींदारी प्रथा ने गांवों में इस प्रकार से एक विशिष्ट शक्ति संरचना को जन्म दिया । जाति पंचायत के बाद गांव में जमींदार ही सभी प्रकार के व्यावहारिक मामलों में कानून एवं नियमों के प्रतीक एवं संरक्षक थे । वे अपनी कचहरी लगाते , कागजों का लेखा जोखा रखते , न्याय करते एवं अपराधियों को दण्डित करते । जमींदार ही गाँव का मुखिया होता था ।

दूसरे प्रकार के गांवों में जहाँ संयुक्त जमींदारी प्रथा का प्रचलन था । शक्ति – संरचना दूसरे प्रकार की थी । सामूहिक जमींदारी प्रथा में वहाँ सभी भूमिदार ‘ थोकों ‘ ( Thoks ) में बंटे हुए थे तथा थोक ( पट्टियों ) में बंटे हुए थे । एक थोक का एक या अधिक लम्बरदार होता था जो शक्ति की एक स्वतन्त्र इकाई था । गाँव के किसान , सेवा करने वाली जातियों एवं व्यापारी भी थोक के अनुसार बँटे होते थे और उन पर थोक की ही सत्ता होती थी । इस प्रकार संयुक्त जमींदारी वाले गांव में शक्ति की एक से अधिक इकाइयां होती थीं । इन इकाइयों के जमींदारी से सम्बन्धित कई अधिकार थे जैसे वे भूमि लगान और मकान के टैक्स की वसूली करते थे , वे अपनी चारागाह भूमि को विवाह , मृत्यु एवं जन्म के समय जनता में बाँटते एवं अपनी जनता की विभिन्न जाति पंचायतों के विरुद्ध सुनवाई करते । ऐसे गांवों में शक्ति धारण करने वाली एक संस्था होती थी , जिसमें भू – स्वामी परिवारों के बयोवृद्ध व्यक्ति , निम्न जाति का सेवक व्यक्ति , पटवारी , चौकीदार तथा गांव का पुलिस मुखिया प्रादि होते थे । ताल्लुकेदार गांवों में भी उप – भू – स्वामी होते थे जिन्हें ठेकेदार कहते हैं । ये ठेकेदार ताल्लुकेदार की तरह ही शक्ति का प्रयोग करते थे । कुछ गांवों में ताल्लुकेदार का एक प्रतिनिधि गाँव में उसके नाम से शक्ति का प्रयोग करता था और महत्त्वपूर्ण मामलों में सुनवाई करता था ।

MUST READ THIS

 ग्राम पंचायत

( The Village Panchayat )

ग्राम पंचायतों का संगठन भी जमींदारी प्रथा के अनुसार ही विभिन्न गांवों में अलग – अलग प्रकार का था । पंजाब और दक्षिणी भारत के गांवों में एक गांव पंचायत होती थी जिसके अधिकार क्या होंगे और सदस्य कौन होंगे यह लगभग तय था । गाँव पंचायत में विभिन्न योकों के लम्बरदार , ताल्लकेदारों के ठेकेदार , विभिन्न जाति पंचायतों के वयोवृद्ध व्यक्ति , चौकीदार प्रादि होते थे । जमींदारी प्रथा जहाँ गाँवों को विभिन्न थोकों और पट्टियों में विभाजित करती थी वहीं पर ग्रामीण शक्ति – संरचना का व्यापक प्राधार भी थी । ये गाँव पंचायतें गाँवों में कानून व्यवस्था को बनाए रखने , जाति पंचायतों के विरुद्ध अपील सूनने तथा थोक के भू – स्वामियों की शिकायतें सुनने का कार्य करती थीं । सैद्धान्तिक रूप में तो ग्राम पंचायतें ग्रामीण शक्ति – संरचना में सर्वोच्च स्थान रखती थीं किन्तु वास्तविक व्यवहार में इसका प्रभुत्व थोकों के भू – स्वामियों के गुटों के साथ – साथ इधर – उधर सिसकता रहता था और शायद ही यह व्यापक संस्था कभी अपनी शक्ति का प्रयोग सफलतापूर्वक करती थी । सामान्यतः ये ग्राम पंचायतें सुषुप्त अवस्था में ही रहती थीं ; किन्तु जब कभी गांव की प्रतिष्ठा और सुरक्षा का प्रश्न पैदा होता था तो गांव पंचायतें क्रियाशील और सर्वोच्च शक्तिमान् दिखाई देती थीं ।

  जाति पंचायत

( The Caste Panchayat )

सम्पूर्ण भारतीय गांवों में जाति पंचायतें शक्ति का महत्त्वपूर्ण स्रोत थीं । जाति पंचायत ने ही जाति व्यवस्था को सुरक्षा प्रदान की । जाति पंचायतों की विभिन्न भूमिकानों ने ही अनेक विद्वानों जैसे ब्लैट , रिजले , मथाई , पाल्तेकर , मुखर्जी और मालवीय आदि का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया । अंग्रेजी राज्य की न्याय – व्यवस्था की स्थापना के साथ ही जाति पंचायतों के कई कार्य भी समाप्त हो गए । जाति पंचायतों के प्रमुख अधिकारी चौधरी ( प्रधान ) , पच ( पंचायत की कार्यकारिणी के सदस्य ) चरिदार या सिपाही ( सन्देशवाहक ) प्रादि होते थे जो सभी निम्न तथा बीच की जातियों में वंशानुगत होते थे ।

इन जाति पंचायतों का प्रभाव एक गाँव तक ही सीमित नहीं था वरन् दस या बीस गाँव तक फैला होता था । जाति पंचायतें कई कार्य करती थीं जैसे भोजन के नियमों को तय करना , विवाह का क्षेत्र व नियम तय करना , नियमों के उल्लंघन करने वालों को दण्ड देना , तथा विरोधी जातियों व समूहों से जाति की प्रतिष्ठा एवं सुरक्षा और हितों की रक्षा करना प्रादि । किन्तु समय के साथ – साथ जब जमींदारी प्रथा का उन्मूलन हुअा और नई चयनित पंचायतों का गठन हमा तो गाँवों में जाति पंचायतें क्रियाशील हुई और जातियों के गुट बने । जमींदारी प्रथा में जाति पंचायतों में जातिवाद का तत्त्व दबा हा था और जाति पंचायतें शक्ति का द्वितीयक एवं अपेक्षित स्रोत थी , किन्तु अब वे गाँव में सामाजिक , आर्थिक और राजनीतिक सम्बन्धों को नियन्त्रित करने वाली शक्ति बन गई हैं । अब वे ग्रामीण सामाजिक संरचना में सामाजिक तनाव का एक कारण भी हैं ।

उपर्युक्त सम्पूर्ण विवेचन से स्पष्ट होता है कि परम्परागत ग्रामीण शक्ति – संरचना का निर्माण कुछ सीमित लोगों से ही होता रहा था । यद्यपि ग्राम पंचायतों के माध्यम से शक्ति के विकेन्द्रीकरण का प्रयास अवश्य किया गया लेकिन स्वतन्त्रता के पूर्व तक ग्राम पंचायतें व्यावहारिक रूप से जमींदारों की हित – साधना का ही माध्यम थीं तथा उनमें स्वतन्त्र रूप से कोई निर्णय लेने की क्षमता नहीं थी । जाति पंचायत के मुखिया भी जमींदार की इच्छाओं की अवहेलना नहीं कर पाते थे । ग्रामीण शक्ति संरचना के इस परम्परागत स्वरूप से सम्बन्धित प्रमुख विशेषतानों को संक्षेप में निम्नांकित रूप से समझा जा सकता है शारजाहरीत

“( 1 ) ग्रामीण शक्ति – संरचना जिन व्यक्तियों अथवा समूहों से सम्बद्ध थी , उनकी शक्ति का स्वरूप मुख्यतः आनुवंशिक था । इस शक्ति का संचरण केवल जमींदार से उसके पुत्र को ही नहीं होता था बल्कि गाँव पंचायत तथा जाति पंचायत के मुखिया का पद भी प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से आनुवंशिक ही था ।

( 2 ) यह शक्ति – संरचना निरंकुशता की विशेषता से युक्त थी । इसका तात्पर्य है कि जिस व्यक्ति को भी अपने समूह में एक विशेष प्रस्थिति प्राप्त होती थी वह उसका प्रयोग बिना किसी बाधा के स्वतन्त्रतापूर्वक अपने हितों को सुरक्षित रखने के लिए करता था । इस प्रकार शक्ति – संरचना में समूह कल्याण का अधिक महत्व नहीं था । –

( 3 ) परम्परागत ग्रामीण शक्ति – संरचना में जाति – संस्तरण का प्रभाव स्पष्ट रूप से विद्यमान रहा है । साधारणतया निम्न जाति के लोगों को शक्ति संरचना में कभी भी महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त नहीं हो सका । जमींदारों तथा ग्राम पंचायतों में निहित शक्ति का उपयोग भी उच्च जाति के व्यक्तियों का संरक्षण करने के लिए ही किया जाता था । Fle

( 4 ) वैयक्तिक शक्ति के निर्धारण में भी भू – स्वामित्व तथा परिवार की प्रतिष्ठा का विशेष स्थान था । इसका तात्पर्य है कि छोटे जमींदारों की अपेक्षा बड़े जमींदारों की शक्ति अधिक थी जबकि ग्राम पंचायत का मुखिया भी साधारणतया बड़ी भूमि का स्वामी होने के साथ ही किसी प्रतिष्ठित परिवार से सम्बद्ध हो ।

( 5 ) शक्ति – संरचना का स्वरूप मुख्यतः स्थानीय था । प्रत्येक गाँव शक्ति की एक पृथक इकाई के रूप में ही कार्य करता था तथा जमीदार , ग्राम पंचायत अथवा जाति पंचायत की शक्ति भी एक स्थानीय क्षेत्र से ही सम्बद्धषी ।

( 6 ) ग्रामीण शक्ति – संरचना एक लम्बी अवधि तक सामाजिक संरचना का भी प्राधार रही । जिस व्यक्ति अथवा समूह में गांव की शकिा निहित थी उसी के निर्देशों के आधार पर जातिगत , व्यावसायिक तथा धार्मिक व्यवहारों का निर्धारण किया जाता था । ( 7 ) पन्त में , परम्परागत ग्रामीण शक्ति संरचना के अन्तर्गत सत्ता का तत्त्व प्रभात की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण था । इसका अभिप्राय है कि व्यक्ति की शक्ति उसके प्रदत्त अधिकारों से सम्बद्ध थी यद्यपि ननिक , चारित्रिक अथवा सामाजिक प्राधार पर शक्ति रखने वाले व्यक्ति का ग्रामीणों पर कोई प्रान्तरिक प्रभाव नहीं होता था । यही कारण है कि भारत में स्वतन्त्रता के पश्चात् जैसे ही शक्ति – सम्पर लोगों की वैधानिक एवं प्रथागत सत्ता समागतई , सामान्य ग्रामीणों पर उनका प्रभाव बहुत तेजी से समाप्त होने लगा ।

Exit mobile version