क्षेत्रवाद
2023 NEW SOCIOLOGY – नया समाजशास्त्र
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क्षेत्रवाद की भावनायें भी राजनीति मेे महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। क्षेत्रवाद को प्रादे शकता के संबोधन से भी जाना जाता है। क्षेत्रवाद को परिभाषित करना एक कठिन कार्य है क्योंकि क्षेत्र को भूगोल, आर्थिक विकास, भाषाई एकता, जाति एवं जनजाति आदि विभिन्न आधारों द्वारा परिभाषित किया जाता है। इनमें से कई आधार आपस मे जुड़े होने के कारण क्षेत्रवाद की परिभाषा सम्बन्धी समस्या और जटिल हो जाती है। सामान्यतः क्षेत्रवाद उस भावना को कहा जा सकता है जो दे शके किसी भाग या क्षेत्र से सम्बन्धित हो और जो भौगोलिक, आर्थिक, सामाजिक – सांस्कृतिक आदि कारणों से अपने पृथक अस्तित्व के लिए जागरूक हों। जब किसी वि ोष क्षेत्र में रहने वाले व्यक्ति यह अनुभव करने लगते हंै कि उनमें सांविधानिक हितांे की उपेक्षा की जा रही है तो उनमें प्रदे शकता की भावनाएँ पनपने लगती है जिसके कारण उनकी निष्ठा पूरे राष्ट्र की अपेक्षा अपने क्षेत्र में प्रति
अधिक हो जाती है।ं लोग अपने क्षेत्र के विकास के लिए वि ोषाधिकारों एवं अधिक सुविधाओं की माँग करते हैं
जिससे राष्ट्रीय लक्ष्य पिछड़ जाते हैं। क्षेत्रवाद के कारण व्यक्ति केवल अपने प्रदे शके उद्दे यों की पूर्ति चाहता हैं तथा पड़ोसी प्रदे शों एवं सम्पूर्ण दे शके हितों की कोई चिन्ता नहीं करता।
भारत में सामान्यतः क्षेत्रवाद के चार परिणाम बताये गए हैं:-
क्षेत्रीय संस्कृतियोें का पुनर्गठन
प्रशाशसनिक एवं राजनीतिक अवक्षेपण
ऽ केन्द्र – राज्यों के संघर्षो को सुलझाने लिए नियम बनाना ताकि दो अथवा अधिक उप – सांस्कृतिक क्षेत्रों में संघर्ष टाला जा सके।
ऽ केन्द्र तथा राज्यों अथवा राष्ट्र तथा उप -सांस्कृतिक क्षेत्रों में आर्थिक एवं राजनीतिक संतुलन बनाये रखना
भारत में भौगोलिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा आर्थिक विविधता क्षेत्रवाद का प्रमुख कारण है। भौगोलिक विविधता ने विभिन्न क्षेत्रों में वि शष्ट सांस्कृतिक समूहों के विकास को प्रेरित किया है। ये सांस्कृतिक समूह एक लम्बा इतिहास रखते हैं और अपनी पृथक् अस्मिता का गौरव भी महसूस करते हैं। समकालीन भारत में इन क्षेत्रीय उप – संस्कृतियों ने उपराष्ट्रवाद का रूप धारण कर लिया है जिससे नदियों का पानी या कुछ गाँवों को लेकर दो प्रदे शों के बीच उग्र विवाद छिड़ जाता है। ‘धरती के पुत्र‘ का संप्रत्यय इस क्षेत्रीयता का भी परिणाम है। यह राष्ट्र के लिए चुनौती बन गया है। बम्बई में गैर मराठियों का विरोध, तमिल – कर्नाटक जल विवाद, दिल्ली में बिहारियों का विरोध, रेलवे भर्ती में प्रदे शों को लेकर किया विरोध, पूर्वोत्तर के सांस्कृतिक – नृजातीय अस्मितायें और पंजाब का खालिस्तान आन्दोलन इसके प्रमुख उदाहरण हैं।
क्षेत्रवाद की भारतीय राजनीति में भूमिका निम्नांकित तथ्यों से स्पष्ट की जा सकती है:-
ऽ भारत में प्रादेशिाकता के आधार पर पृथक राज्यों की माँग की जाती रही है तथा राज्य केन्द्र से सौदेबाजी करते रहे हैं। प्रदे शों को अधिक स्वायत्ता प्रदान किये जाने की मांग भी इसी का परिणाम है जिससे कि केन्द्र राज्य सम्बन्धों में भी कई बार तनाव की स्थिति आ जाती है। आज अनेक राज्य के लोगों द्वारा विभिन्न क्षेत्रों को पृथक – पृथक राज्य बनाये जाने की मांग यथा आन्ध्रप्रदे श में आन्ध्र तथा तेलंगाना को पृथक करने, उत्तर प्रदे शको बुन्देल खंड को प ि चम प्रदे श (हरित प्रदे श) अलग करने, महाराष्ट्र से विदर्भ को अलग करने की माँग की जा रही है।
ऽ प्रादे शकता में निष्ठा अपने प्रदे शके प्रति ही होनी है जिसके कारण अन्तर्राज्यीय संघर्षो में वृद्धि होती है। भारत में नर्मदा नदी के जल वितरण को लेकर मध्य प्रदेश, गुजरात एवं राजस्थान में विवाद, भाखड़ा नांगल बांध से उत्पन्न बिजली के बंटवारे को लेकर महाराष्ट्र तथा कर्नाटक में विवाद, चण्डीगढ़ के प्र न पर पंजाब त
ऽ था हरियाणा में विवाद, कावेरी जल के लेकर महाराष्ट्र, कर्नाटक और तमिलनाडु में विवाद, चण्डीगढ़ के प्र न पर पंजाब तथा हरियाण में विवाद तथा पंजाब, हरियाणा एवं हिमाचल प्रदे श में सीमा विवाद आदि विविध समस्याएँ एक गम्भीर चुनौती बनी हुई हैं जिनसे सम्पूर्ण दे शकी अखण्डता एवं एकीकरण खतरे में है।
ऽ प्रादे शकता के कारण केन्द्र राज्यों के सम्बन्धों मे तनाव पैदा हुआ है क्योंकि राज्यों द्वारा केन्द्र की नीति का विरोध करना तथा केन्द्र के निर्दे शों का पालन करना प्रादे शकता की नीति का परिणाम है।
ऽ भारत में उत्तर-दक्षिण का विवाद प्रादे शकता का ही परिणाम है क्योंकि दक्षिणी राज्य के लोग ये सोचते हंै कि उनकी हर मामले में उपेक्षा की जाती है। दक्षिण के राज्य हिन्दी थोपे जाने का भी निरन्तर विरोध करते रहे हैं तथा वे चाहते हैं कि प्र शासन की भाषा हिन्दी की बजाए अंग्रेजी होनी चाहिए।
ऽ भाषावाद की समस्या का मूल कारण भी प्रादे शकता और क्षेत्रवाद भी भावना है। इसी के कारण भारता में आज तक एक सम्पर्क भाषा विकसित नहीं हो पायी है।
ऽ प्रादे शकता के कारण ही कुछ राज्योें के लोग भारतीय संघ से पृथक होने बात करते रहे हैं। ‘स्वाधीन मिजोरम‘ ‘खालिस्तान‘ , ‘बोडोलैण्ड‘ और ‘गोरखालैण्ड‘ की मांग क्षेत्रीयता का परिणाम है।
ऽ प्रादे शकता के आधार पर राजनीतिक दलों का गठन किया गया है। अकाली दल, डी. एम. के., ए. आई. ए. डी. एम.के तृणमूल कांग्रेस, डी. आर.सी, शिवसेना आदि दल प्रादे शकता के कारण ही विकसित हुए हैं।
ऽ प्रादेशिाकता के कारण ‘भूमि के पुत्र‘ की धारणा ने भी जन्म लिया है जिसका मूलाधार यह है कि एक प्रदे शमें रहने वालों को अपने प्रदे शमे रोजगाशर और व्यवसाय में प्राथमिकता दी जाय। यह राष्ट्र के लिए आज एक चुनौती बन गया है।
ऽ राजनीतिक दल अपने – आपको मजबूत करने के लिए प्रादे शकता का सहारा लेते हैं तथा इसी आधार पर कई बार प्रत्या शयों का चयन किया जाता है और मत माँगे जाते हैं।
ऽ प्रादेशिाकता की प्रबल भावना के चलते संघीय स्तर पर क्षेत्रीय दलों का महत्व बढ़ता जा रहा है और केन्द्र में गठबन्धन की राजनीति और राजनीतिक अस्थिरता का दौर प्रारम्भ हो गया है। इसके परिणामस्वरूप राष्ट्रीय सुरक्षा – जांच एजेंसी की स्थापना का कई क्षेत्रीय दलों ने विरोध किया। इसका प्रभाव कानून एवं व्यवस्था से लेकर आर्थिक विकास तक में पड़ता है। सारां शतः कहा जा सकता है कि किसी भी समाज की सामाजिक संरचना वहाँ की राजनीति का महत्वपूर्ण आधार हाती है। प्रादे शकता/क्षेत्रवाद की बढ़ती दर राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया और राष्ट्रीय एकीकरण को व्युत्क्रमानुपात में प्रभावित करती है।
भाषा एक सामाजिक-सांस्कृतिक अवयव है जिसके माध्यम से मानव अभिव्यक्ति करता है। भाषा मानव समाज में संप्रेषण का एक स शक्त माध्यम है। यह सामाजिक – सांस्कृतिक व्यवस्था का आधार है। भाषा केवल संस्कृति का संरक्षण करती है अपितु उसका विकास कर उसे नवीन पीढ़ी तक प्रेषित भी करती है। प्राकृतिक विविधता के कारण भारत के विभिन्न भागों में तथा एक प्रदे शके भिन्न – भिन्न भागों में भिन्न – भिन्न भाषाएं
एवं बोलीयाँ पायी जाती हंै। वर्तमान में भारत के संविधान में 22 मान्यता प्राप्त भाषाओं का उल्लेख किया गया है इसके अलावा 1,652 भाषायें बोली जाती हैं। इसके अतिरिक्त भारत में और भी भाषाएँ और बोलियां हैं जिनका कुछ न कुछ साहित्य है वैसे तो अधिकां शभाषाएँ लिपि रहित हंै, परन्तु कुछ की लिपियाँ, और समृद्ध साहित्य भी। कहने का तात्पर्य यह है कि हमारे दे शऔर समाज में भाषागत विविधता भी बहुत है।
अंग्रेजी शासन काल में अंग्रेजी को शिक्षा का माध्यम बनाया गया क्योंकि एक तो अंगे्रज इसके माध्यम से दफ्तरों में कार्य करने के लिए लिपिक वर्ग का निर्माण करना चाहते थे तथा दूसरे इससे वे भारतीय संभ्रात – वर्ग को प्रभावित करके अपने शासन को और स शक्त बनाना चाहते थे। अंगे्रजी भाषा का पूरे दे शमें सम्पर्क एंव कामकाज की भाषा के रूप में प्रयोग किया जाने लगा। यद्यपि भारत के सामाजिक-सांस्कृतिक एवं राजनीतिक
क्षेत्रों मे अंग्रेजी भाषा एक महत्वपूर्ण भाषा बन गई थी, फिर भी यह जनता की भाषा नहीं बन पाई। स्वतन्त्रता के प चात हिन्दी भाषा को भारतीय संघ की सरकारी भाषा स्वीकार की गयी, इतना ही नहीं, 1956 में राज्यों का भाषा के आधार पर पुर्नगठन किया गया। इससे जनता को अपनी अपनी भाषा का ज्ञान हुआ तथा वे हिन्दी की अपेक्षा अपनी निजी भाषा के अध्ययन या संवृद्धि में लग गये।
इससे क्षेत्रीयता एवं भाषाई संकीणर्यताएँ विकसित हुई। गैर – हिन्दी राज्यों में हिन्दी को राष्ट्र भाषा बनाये जाने का निरन्तर विरोध किया गया है। 1960 – 61 में पंजाब, प ि चम बंगाल तथा असम मे हिन्दी भाषा को स्वीकार न करके क्रम शः पंजाबी, बंगाली तथा असमिया को राज्य की सरकारी भाषा बनाने का तथा इनका विकास करने से सम्बन्धित अधिनियम पारित किये। 3 अक्टूबर 1961 को अलीगढ़ मुस्लिम वि वविद्यालय मे हिन्दू – मुस्लिम उपद्रव फूट पड़ा जो कि शीघ्र ही उत्तर प्रदे श, बिहार, प ि चम बंगाल और मघ्य प्रदे शके अनके लोगों में फैल गया। सरकार ने 28 सितम्बर से 1 अक्टूबर 1961 तक प्रमुख राजनीतिज्ञो, शिक्षाविदों एवं वैज्ञानिकों का एक राष्ट्रीय एकता सम्मेलन बुलाया जिसने सारे देश में माध्यमिक की शिाक्षा के लिए तीन भाषाई सूत्र स्वीकार करने की सिफारिश की। इस सम्मेलन द्वारा यह भी सिफारिशा की गई कि वि वविद्यालयों में अंग्रेजी भाषा थे स्थान पर क्षेत्रीय भाषाओं को शिाक्षा का माध्यम बनाया जाए और फिलहाल अंग्रेजी को ही भारत की सम्पर्क भाषा बनाये रखा जाए। सरकार ने भाषाई तनाव को सामने रखते हुए 1963 में सरकारी भाषा विधेयक प्रस्तुत किया जिसमें अंगे्रजी के अतिरिक्त हिन्दी को भी संसद एवं अन्य सभी कार्यों (जिनमें पहले अंग्रेजी प्रयुक्त होती थी) में प्रयुक्त करने तथा राज्यों तथा हिन्दी के अतिरिक्त किसी अन्य
भाषा के अपनाये जाने की स्थिति में हिन्दी एवं अंग्रेजी अनुवाद भी प्रका शत किये जाने का प्रावधान था।
हिन्दी भाषा को राजभाषा बनाये जाने के विरोध में दक्षिणी राज्यों में फिर आन्दोलन शुरू हुए। इस
घोषणा से कि 26 जनवरी 1965 से हिन्दी राजभाषा होगी छात्रों में भी बड़ा रोष फैल गया अतः दिसम्बर 1967 में राजभाषा अधिनियम मे सं शोधन करना पड़ा। सरकार की भाषा नीति के प्रति राज्यों में उपद्रव होते रहे हैं। पहले उत्तर प्रदे श,बिहार, मध्यप्रदे श, राजस्थान, एवं महाराष्ट्र में अंग्रेजी विरोधी प्रर्द शन हुए और फिर 18 दिसम्बर 1967 को मद्रास में हिन्दी विरोधी आन्दोलन प्रारम्भ हुआ जो कि शीघ्र ही आन्ध्रप्रदे शएवं मैसूर में भी फैल गया। 1970 में सरकार ने फिर से त्रिभाषा सूत्र का अनुसरण कर दिया।
आज भी भाषा के आधार पर भारत उत्तर और दक्षिण भारत में विभाजित है क्योंकि दक्षिणी राज्यों में हिन्दी साम्राज्यवाद के विरूद्ध आज भी लोगों में तीव्र भावनाएँ पाई जाती हंै। उत्तर प्रदे शमें उर्दू को राज्य की दूसरी भाषा बनाये रखने के विरोध में अनेक जन सभाओं का आयोजन किया गया। भाषाई संकीर्णता के कारण ही
‘धरती के पुत्र‘ के संप्रत्यय का जन्म हुआ है। इससे तात्पर्य है कि सरकारी एवं गैर सरकारी पदों पर नियुक्ति प्रादे शक भाषा जानने वाले व्यक्ति की ही होनी चाहिए। इसी कारण आज तक भी दक्षिणी राज्यों को लोक सभाई चुनावों में हिन्दी न बोलने का आ वासन दिया जाता है। भाषा को राजनीति से पृथक रखने का कोई भी सुझाव अभी तक प्रभावकारी सिद्ध नहीं पाया हो है।
90 के द शक में भूमण्डलीकरण और सूचना क्रांति के प चात स्थितियां कुछ परिवर्तित हुई हंै। भूमण्डलीकरण ने अंग्रेजी को वै ि वक भाषा का स्थान देने की मान्यता प्रदान कर दी है। वर्तमान में उत्तर भारत में अंग्रेजी विरोध की भावना पैदा हो गयी है और उभरते मध्यवर्ग ने अंग्रेजी को स्वीकार किया है तथा अंग्रेजी उǔच शिक्षा, व्यवसाय और रोजगार की भाषा का स्थान प्राप्त कर चुकी है। इसी प्रकार सूचना क्रांति और टेलीविजन क्रांति ने हिन्दी को अखिल भारतीय संपर्क भाषा का स्थान प्रदान किया है। अब दक्षिण भारत में तीव्र हिन्दी विरोध नहीं पाया जाता, अपितु धीरे – धीरे हिन्दी बाजार की भाषा में परिवर्तित होती जा रही है। परन्तु भाषा का मुद्दा
राजनीति के लिए अभी भी संवेदनशील बना हुआ है। उदाहरणस्वरूप 2013 में जब संघ लोक सेवा आयोग में सिविल सेवा परीक्षाओं में अंग्रेजी की अनिवार्यता का सं शोधन प्रस्तुत किया गया तो यह एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा बन गया। और तुरंत दबाव समूह सक्रिय हो गये और संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा में अंगे्रजी भाषा के महत्व वाले सं शोधन को परिवर्तित कर दिया।
स्ंशक्षेप में, अब भाषावाद राष्ट्रीय एकीकरण के खतरे के रूप में नहीं विद्यमान है। इसे भौगोलिक और सामाजिक गति शीलता की बढ़ती दर ने शथिल कर दिया है। परन्तु राजनीति के लिए भाषा एक संवेदन शील मुद्दा बना हुआ है।
भारतीय समाज में वर्तमान राजनीतिक प्रक्रियायें दो सौ वर्षों के लम्बे अंग्रेजी शासन और उससे मुक्ति के लिए चले स्वतन्त्रता संघर्ष से सहसम्बन्धित हंै। संसदीय लोक तन्त्र, बहुदलीय राजनीतिक व्यवस्था, सर्वाभौम व्यस्क मताधिकार, तथा सत्ता का विकेन्द्रीकरण वर्तमान राजनीतिक प्रक्रियाओं की प्रमुख वि ोषता है। इन राजनीतिक प्रक्रियाओं को भारतीय समाज की आधारभूत वि ोषताओं यथा जाति, धार्मिक विविधता, बहुभाषा भाषी समूह और भौगोलिक विभिन्नता ने निरन्तर प्रभावित किया है। समाज वैज्ञानिकों के अनुसार विविधताओं ने अधिकां शतः राजनीतिक प्रक्रियाओं को नकारात्मक रूप में प्रभावित किया हैं। विविधता पूर्ण समाज में एकीकरण और राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया एक चुनौती भरा कार्य होता है, परन्तु भारत का उदार लोकतान्त्रिक व्यवस्था ने विविधताओं के साथ लचीला सांमजस्य स्थापित कर लिया है। जाति जैसी विविधतायें को लोकतन्त्र की सहगामी बन गयी हैं और चुनौतियों के उपरान्त भी राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया निरन्तर जाती है।
2023 NEW SOCIOLOGY – नया समाजशास्त्र
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