कार्ल मार्क्स
[ Karl Marx : 1818 – 1883 ]
कार्ल मार्क्स विश्व के उन महानतम विचारकों में से एक हैं जिन्हें ‘ साम्य वाद के जनक ‘ ( Father of Communism ) के नाम से जाना जाता है । अनेक विद्वान मार्क्सवाद तथा साम्यवाद को एक – दूसरे का पर्याय मानते है लेकिन इस तथ्य को अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि मार्स से पहले भी सेन्ट साइमन ( Saint Simon ) ने अनेक ऐसे सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया था जो साम्यवादी समाज की स्थापना के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण थे । इसके बाद भी यह सच है कि कार्ल मार्क्स ने ही सर्वप्रथम साम्यवाद की वैज्ञानिक विवेचना करके उसे सम्पूर्ण विश्व में प्रतिस्थापित करने का प्रयत्न किया । एक विचारक के रूप में मार्क्स का नाम इसलिए भी शीर्षस्थ है कि मार्क्स के चिन्तन के कारण वैचारिक आधार पर सम्पूर्ण विश्व दो भागों में विभाजित हो गया – एक वह जो मार्क्स का समर्थक है तथा दूसरा वह जो माक्स का आलोचक है । लेकिन संसार में उन्नीसवीं शताब्दी के मध्यकाल से लेकर आज तक कोई विद्वान ऐसा देखने को नहीं मिलता जिसने किसी न किसी सन्दर्भ में मार्क्स का उल्लेख न किया हो । मार्क्स के चिन्तन के उदय से लेकर आज तक सम्पूर्ण विश्व पूंजीवाद तथा साम्यवाद की स्थिति के बीच संघर्ष कर रहा है । आज रूस , चीन , क्यूबा तथा वियतनाम आदि ऐसे राष्ट्र हैं जो मार्क्स की साम्यवादी विचारधारा पर आधारित हैं जबकि अमेरिका , फ्रांस , इंग्लण्ड और जापान जैसे देशों में पूंजीवादी विचारधारा का वर्चस्व है । विश्व में आज पूंजीवादी व्यवस्था वाले देशों की संख्या कम नहीं है लेकिन कोई भी पूंजीवादी देश ऐसा नहीं है जिसमें मार्क्स की विचारधारा पर आधारित साम्यवादी तत्त्वों का अस्तित्व न हो ।
यह सच है कि अधिकांश लोग मार्क्स को एक राजनैतिक विचारक के रूप में जानते हैं लेकिन वास्तव में चिन्तन का कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं है जो किसी न किसी रूप में मार्क्स के विचारों से प्रभावित न हुआ हो । सच तो यह है कि मार्क्स के चिन्तन ने राजनीतिशास्त्र , अर्थशास्त्र , इतिहास , समाजशास्त्र तथा दर्शनशास्त्र आदि सभी विषयों से सम्बन्धित नये सिद्धान्त प्रस्तुत किये तथा अनेक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तों को चुनौती दी । मार्क्स के विभिन्न लेखों से सम्पूर्ण बौद्धिक जगत में नये आयाम स्पष्ट होने लगे । इन्हीं विशेषताओं ने मार्क्स को एक अमर विचारक बना दिया ।
जीवन एवं कृतियाँ
( Life and Works )
कार्ल मार्क्स का जन्म सन् 1818 में एक यहूदी परिवार में हुआ था । कार्ल मास यद्यपि जन्म से यहूदी थे किन्तु इनके जन्म के कुछ वर्ष बाद ही इनके पिता ने ईसाई धर्म ग्रहण कर लिया था । फलस्वरूप अपने आरम्भिक जीवन से ही मार्क्स किसी विशेष धार्मिक विचारधारा से प्रभावित नहीं हो सके । इनकी आरम्भिक शिक्षा प्रशिया के राइनबर्ग नामक प्रान्त में अपने जन्म स्थान ट्रियर ( Trier ) के एक अच्छे स्कूल में हुई तथा 17 वर्ष की आयु में ही मार्स ने कानून के विद्यार्थी के रूप में बोन विश्वविद्यालय में प्रवेश ले लिया । इसके पश्चात् सन् 1837 से मार्क्स ने बलिन विश्वविद्यालय में शिक्षा ग्रहण करना आरम्भ कर दिया । सन् 1841 में उन्होंने जेना विश्वविद्यालय से पी – एच० डी० की उपाधि गहण की । अपनी विश्व विद्यालय शिक्षा के दौरान मार्क्स पर हीगेल के विचारों का सबसे अधिक प्रभाव पड़ा ।
इसका कारण यह था कि जिस समय मार्क्स उच्च शिक्षा ग्रहण कर रहे थे , उस समय विश्वविद्यालय में हीगेल के समर्थकों का गुट बहुत प्रभावशाली था । हीगेल के सार्थक दर्शन तथा तर्कपूर्ण विचारों ने मार्क्स को जल्दी ही अपनी ओर आकर्षित कर लिया । आरम्भ में मार्क्स का विचार किसी विश्वविद्यालय में प्राध्यापक के रूप में कार्य करने का था लेकिन यह अवसर प्राप्त न हो सकने के कारण मार्क्स ने सन 1842 में राइन प्रान्त ( Rhine Province ) की एक पत्रिका में सम्पादक के रूप में कार्य करना आरम्भ कर दिया । इस पत्रिका के माध्यम से मार्क्स ने तत्कालीन जर्मनी में पाये जाने वाले राजनैतिक और धार्मिक उत्पीड़न के विरुद्ध क्रान्तिकारी लेख लिखना आरम्भ किये ।
अपने इन्हीं उग्र विचारों के कारण मार्क्स को एक क्रान्तिकारी विचारक के रूप मान्यता अवश्य मिलने लगी लेकिन सन् 1843 में उन्हें इस पत्रिका के सम्पादक पद से इस्तीफा देना पड़ा । इसी वर्ष मार्क्स जर्मनी को छोड़कर पेरिस चले गये । यहीं सन् 1844 में उनकी भेंट फ्रेडरिक एंगिल्स ( Friedrich Engels ) से हुई । मार्क्स और ऐंगिल्स का यह वह ऐतिहासिक और बौद्धिक मिलन था जिसने कार्ट ने प्रारम्भिक जीवन से ही एक क्रान्तिकारी विचारक , दाहल तथा रचनाओं के द्वारा उन्होंने न केवल इतिहास को एक नया मोड दे दिया बल्कि एक ऐसे दृष्टिकोण को भी विकसित किया जिसके द्वारा समाज की संरचना तथा विभिन्न वर्गों के सम्बन्धों को नये सिरे से समझा जा सके । अपने क्रान्तिकारी विचारों के कारण उन्हें एक राज्य से दूसरे राज्य में भटकना पडा तथा अपने वैयक्तिक तथा पारिवारिक सुखों का त्याग करना पड़ा । असीम निर्धनता के बाद भी मार्क्स अपने उन विचारों को सैद्धान्तिक रूप देने में लगे रहे जो उनके व्यावहारिक अनुभवों तथा जीवन के संघर्षों का परिणाम थे । यही कारण है कि मार्क्स के चिन्तन में सैद्धान्तिकता का पक्ष उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है जितना कि समाज के पुनर्गठन की एक व्यवस्थित योजना का । मार्स अपने जीवन पर्यन्त कुछ न कुछ लिखते रहे । यह सच है कि पुस्तकों के रूप में उन्होंने अपने विचारों को बहुत कम व्यवस्थित करने का प्रयत्न किया लेकिन उन्होंने जो लेख , तथा पत्र लिखे वे आज भी मार्क्स के चिन्तन के महत्त्वपूर्ण दस्तावेज हैं । मार्क्स के नाम से जो पुस्तकें प्रकाशित हुई उन्हें पाण्डुलिपि का रूप देने में ऐंगेल्स ने ही महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी । मार्क्स की रचनाओं में जो कृतियाँ अधिक महत्त्वपूर्ण हैं , उनके सार तत्त्व को इस प्रकार समझा जा सकता है :
( 1 ) ‘ दर्शन की दरिद्रता ‘ ( Poverty of Philosophy ) – मार्क्स के सम कालीन विचारकों में प्रोधों ( Prodhon ) एक प्रमुख अराजकतावादी विद्वान थे । प्रोधों पर क्रोपोकिन के विचारों का प्रभाव पड़ा था । अतः प्रोधों तथा दूसरे अराजकतावादी विद्वान सत्ता को एक आवश्यक बुराई के रूप में देखते थे । सम्भवतः इसीलिए यह विद्वान मार्क्स के इस विचार से सहमत नहीं थे कि ‘ समाज की सम्पूर्ण सत्ता सर्वहारा वर्ग के हाथों में होनी चाहिए । ‘ अराजकतावादी दर्शन के आधार पर प्रोधों ने एक पुस्तक लिखी जिसका नाम ‘ दरिद्रता का दर्शन ‘ ( Philosophy of Poverty ) था । इस पुस्तक में प्रोधों ने दरिद्रता के बारे में अपने तार्किक विचार प्रस्तुत किये थे । मार्क्स ने यह महसूस किया कि प्रोधों की यह पुस्तक सर्वहारा वर्ग की क्रान्ति में बाधक हो सकती है । अतः इस पुस्तक के प्रत्युत्तर में उन्होंने ‘ दर्शन की दरिद्रता ‘ नामक पुस्तक लिखी जिसमें उन्होंने न केवल प्रोधों के विचारों का खण्डन किया बल्कि यह भी बताया कि प्रोधों का अराजकतावादी दर्शन कितना दुर्बल है । मार्क्स की इस पुस्तक का प्रकाशन सर्वप्रथम सन् 1847 में हुआ ।
( 2 ) ‘ साम्यवादी घोषणा – पत्र ‘ ( Com munist Manifesto ) – साम्यवादी लीग की दूसरी बैठक सन् 1847 में हुई । इस बैठक में मार्क्स ने कुछ प्रस्ताव रखे जिनका प्रारूप ( draft ) मार्क्स तथा एंगेल्स ने मिलकर तैयार किया था । बाद में इस प्रस्ताव पत्र को संशोधित रूप में प्रकाशित किया गया । सन् 1848 में प्रकाशित यह लघु पुस्तिका साम्यवादियों के लिए सबसे प्रमुख मार्गदर्शन है जिसमें अनेक विचारोत्तेजक वातें लिखी हुई हैं । यह विश्व भर के साम्यवादियों के लिए एक आचरण संहिता के समान है तथा पूँजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध एक खुली चुनौती है । रेमण्ड ऐरों ने लिखा है कि इस पुस्तक के द्वारा मार्स के विचार पहली बार विश्व के सामने स्पष्ट हुए । इस आधार पर ऐरों ने इस पुस्तक को ‘ प्रचार का समाजशास्त्रीय साहित्य ‘ के नाम से सम्बोधित किया । इस पुस्तक के मुख – पृष्ठ पर मार्स के विचारों का निचोड़ इस एक वाक्य में अंकित है कि ‘ दुनिया का आज तक का इतिहास वर्ग – संघर्ष का इतिहास है । ‘
( 3 ) ‘ पूजी ( Das Capital ) – पूंजी ‘ नाम से प्रकाशित मार्क्स की यह पुस्तक साम्यवादियों की बाइबिल के रूप में प्रतिष्ठित है । रेमण्ड ऐरों ने इस पुस्तक के बारे में लिखते हुए कहा है कि यह पुस्तक ‘ मार्क्स के विचारों का हृदय ‘ है । इस पुस्तक में कार्ल मार्क्स ने व्यापक रूप से पूंजीवाद के अन्तर्विरोधों की चर्चा की है । यह पुस्तक तीन खण्डों में प्रकाशित हुई । पहला खण्ड मार्क्स के जीवन काल में सन् – 1867 में ही प्रकाशित हो गया था जबकि दूसरा तथा तीसरा खण्ड मार्क्स की मृत्यु के बाद सन् 1885 तथा 1894 में एंगेल्स द्वारा प्रकाशित करवाया गया । इस पुस्तक में दिये गये सभी विचार स्वयं में इतने सारगर्भित तथा तार्किक हैं कि केवल कुछ शब्दों में ही उनका उल्लेख नहीं किया जा सकता । इससे सम्बन्धित कुछ अंशों का उल्लेख हम मार्क्स द्वारा प्रस्तुत सिद्धान्तों के आगामी विवेचन के अन्तर्गत करेंगे ।
( 4 ) ‘ राजनैतिक अर्थ – व्यवस्था को समालोचना में योगदान ‘ ( Contribution to Critique of Political Economy ) – इस पुस्तक में मार्क्स ने राजनैतिक तथा आर्थिक संरचना के बीच पाये जाने वाले सम्बन्धों की विस्तृत विवेचना की है । पुस्तक में दिये गये सभी विचार मार्क्स के चिन्तन को दृढ़ता प्रदान करने वाले महत्त्व पूर्ण आधार सिद्ध हुए । इस पुस्तक का प्रकाशन सन् 1859 में हुआ था । उपर्युक्त मुख्य ग्रन्थों के अतिरिक्त मार्स द्वारा लिखित कुछ अन्य प्रमुख ग्रन्थों तथा लेखों में निम्नांकित का नाम अधिक महत्त्वपूर्ण है :
1 . पवित्र परिवार ( Holy Family )
2 . जर्मन वैचारिकी ( The German Ideology )
3 . राइन गजट में प्रकाशित लेख ( Published matter in Rhine Gudget ) ।
4 . अराजकतावादियों को लिखे गये पत्र ( Letters to anarchists )
5 . फ्रांस में वर्ग संघर्ष ( Class struggle in France )
उपर्युक्त पुस्तकों , लेखों तथा पत्रों के अतिरिक्त कुछ अन्य कृतियाँ भी माक्स क राष्ट विचारों तथा सशक्त लेखनी को स्पष्ट करती हैं ।
कार्ल मार्क्स चिन्तन के स्रोत ( Sources of Marxian Thought )
मार्क्स का चिन्तन किसी एक समाज की दशाओं अथवा चिन्तन की किसी विशेष धारा से ही प्रभावित नहीं हुआ बल्कि संसार के विभिन्न समाजों की अनेक दशाओं ने माक्र्स के चिन्तन को प्रभावित किया है । इनमें से कुछ प्रमुख स्रोतों को समझकर ही सामाजिक चिन्तन में मार्क्स के योगदान का वास्तविक मूल्यांकन किया जा सकता है ।
( 1 ) हीगल का प्रभाव ( Influence of Hegal ) – मार्क्स के विचारों पर हीगल के दर्शन का व्यापक प्रभाव पड़ा । उस समय बोन और बलिन विश्वविद्यालयों में हीगल के विचारों का बहुत बोल – बाला था । इन विश्वविद्यालयों से सम्बद्ध रहने के कारण मार्क्स ने यह महसूस करना आरम्भ कर दिया कि संसार में घटित होने वाली विभिन्न घटनाएँ एक ऐसे क्रम में घटित होती हैं जिसे विकास , परिवर्तन तथा विनाश की प्रक्रिया द्वारा समझा जा सकता है । हीगल ने इस दशा के लिए कुछ – विरोधी शक्तियों के संघर्ष को प्रमुख कारण के रूप में स्पष्ट किया । हीगल के इस – विचार ने कि वाद ( Thesis ) , प्रतिवाद ( Anti – thesis ) तथा समन्वय ( Synthesis ) के माध्यम से ही विभिन्न घटनाएँ घटित होती हैं , मार्क्स के विचारों को अत्यधिक प्रभावित किया । यह सच है कि मार्क्स के विचार हीगल से बहुत भिन्न हैं लेकिन मार्क्स के चिन्तन को प्रभावित करने में हीगल का दर्शन निश्चय ही बहुत महत्त्वपूर्ण रहा ।
( 2 ) फ्रांस का समाजवाद ( French Socialism ) – जर्मनी छोड़ने के बाद मार्क्स जब पेरिस गये तब उन्होंने पाया कि फ्रांस की क्रान्ति के फलस्वरूप वहाँ एक ऐसे समाजवाद का प्रभाव बढ़ रहा था जिसमें व्यक्ति तथा सामाजिक संस्थाओं पर राज्य के अधिकाधिक नियन्त्रण पर जोर दिया जाने लगा । फ्रांस के इस प्रारम्भिक समाजवाद से मार्क्स की यह धारणा और अधिक दृढ़ होने लगी कि धनी और निर्धन वर्ग के परस्पर विरोधी स्वार्थ ही वर्ग संघर्ष का कारण हैं । इस आधार पर बाद में मार्क्स ने वर्ग संघर्ष के एक व्यवस्थित सिद्धान्त को प्रस्तुत किया ।
( 3 ) इंग्लैण्ड के समाजवादियों का प्रभाव ( Influence of English Soci alists ) मार्क्स के चिन्तन को प्रभावित करने का एक प्रमुख स्रोत इंग्लैण्ड के वे समाजवादी थे जो सम्पत्ति के समान वितरण की आवाज उठाकर श्रमिकों और किसानों की दशा में सुधार करना चाहते थे । इनमें राबर्ट ओवन , हॉग्सकिन तथा थॉमसन ( Thompson ) का नाम प्रमुख है । हॉग्स किन तथा थॉमसन का विचार था कि प्रत्येक श्रमिक के श्रम का एक विशेष मूल्य होता है तथा इसकी प्रकृति उन वस्तुओं की तरह होती है जिन्हें एक – दूसरे से बदला जा सकता है । मार्क्स द्वारा प्रस्तुत ‘ अतिरिक्त मूल्य का सिद्धान्त ‘ बहुत बड़ी सीमा तक इसी विचारधारा से प्रभावित हुआ । कुछ विद्वान यह भी मानते हैं कि रिकार्डो ( Ricardo ) के विचारों तिपिक मूल्य के सिद्धान्त को प्रभावित किया ।
( 4 ) यरोप की तत्कालीन दशाएं ( Conditions of Europe ) – मार्क्स के चिन्तन पर तत्कालीन यूरोप की दशाओं का भी एक स्पष्ट प्रभाव देखने को मिलता है । उन्नीसवीं शताब्दी के आरम्भ में यूरोप की अधकचरी औद्योगिक क्रान्ति के कारण दस्तकारों , किसानों और श्रमिकों की दशा बहुत बिगड़ने लगी थी । इस समय समाज में एक ऐसे श्रनिक वर्ग का निर्माण होने लगा था जो सम्पूर्ण उत्पादन करने के बाद भी उत्पादन के लक्ष्यों से वंचित था । यूरोप के अनेक देशों में सामन्तों और किसानों के सम्बन्ध बहुत कटु हो चुके थे । इसका तात्पर्य है कि यूरोप में एक ओर मरता हुआ सामन्तवाद किसानों के शोषण का प्रमुख कारण था तो दूसरी ओर अधकचरा पूंजीवाद श्रमिकों की दशा को दयनीय बना रहा था । इन सभी दशाओं का मार्क्स के चिन्तन पर गहरा प्रभाव पड़ा । उपर्युक्त सभी दशाओं के अन्तर्गत मार्क्स ने विश्व के सामने जो विचारधारा प्रस्तुत की उसे आर्थिक निर्णायकवाद पर आधारित चिन्तन कहा जा सकता है । उन्होंने अपने विभिन्न ग्रन्थों में आर्थिक सम्बन्धों के आधार पर ही ऐतिहासिक , राज नैतिक तथा सामाजिक घटनाओं की विवेचना की । इस दृष्टिकोण से आवश्यक है कि मार्क्स के प्रमुख विचारों के आधार पर उनके चिन्तन की प्रकृति को समझने का प्रयत्न किया जाय ।