कस्बा या नगर
SOCIOLOGY – SAMAJSHASTRA- 2022 https://studypoint24.com/sociology-samajshastra-2022
समाजशास्त्र Complete solution / हिन्दी में
( Town or City )
समाजशास्त्रीय अध्ययन का एक महत्त्वपूर्ण पहलू या अवधारणा कस्वा या नगर है । यह मानव समाज व संस्कृति के विकास का द्योतक है । समकालीन भारत में परिवर्तन की गति तेज हो गई है । गांव का तेजी से परिवर्तन कस्बे के रूप में तथा कस्बा का परिवर्तन नगर के रूप में होता जा रहा है । कस्बा मानवीय सभ्यता के विकास की प्रक्रिया का परिणाम माना जाता है ।
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समाजशास्त्र Complete solution / हिन्दी में
कस्वा का अर्थ एवं परिभाषाएँ ( Meaning and Definitions of Town )
कस्था मानवीय निवास स्थान का वह स्वरूप है जो जीवन क्रम एवं क्रियाओं में गाँव व नगर दोनों प्रकार के तत्त्वों से मिलकर निर्मित है । दरअसल यह गाँव का विकसित अगला स्तर है तथा नगर के पूर्व का स्तर है । यानि गाँव व नगर के मध्य के मानवीय निवास का स्वरूप है । गांव की प्रवृत्तियां व गतिविधियां जब बड़ा रूप धारण कर लेती है . तब वे कस्था के रूप में जाने जाते हैं । कस्बा की कुछ महत्त्वपूर्ण परिभाषाएं निम्न है
मेवर एवं कोहन के शब्दों में , ” जब ये गतिविधियां परस्पर किसी प्रकार से सम्बन्धित रहते हुए एक स्थायीं और घनिष्ठ स्थापन्नता और साथ ही सामुदायिक संगठन के लिए किए गए कुछ प्रयत्न हो तो वह स्थान कस्बा के लक्षण धारण कर लेता है । ” ( ” When , however , these activities occur in some kind of combination in a permanent and compact settlement with some measures of community organization , the place assumes the character of a town . ” ) रिचथोफेन के अनुसार , ” कस्बा एक संगठित समूह है और जिसमें सामान्यतया प्रमुख व्यवसाय , कृषि क्रियाओं के विपरीत वाणिज्य तथा उद्योग से सम्बन्धित है । ” इस कथन से स्पष्ट है –
1 . कस्बा एक संगठित समूह है ।
2 यह वाणिज्य तथा उद्योग से सम्बन्धित संगठन है ।
रेटजेल ने कस्बा के तीन आधारों की व्याख्या दी है –
1 . कस्बा व्यापार व उद्योग से सम्बन्धित है .
- मकानों का केन्द्रीकरण , और
- निवासियों की एक न्यूनतम जनसंख्या दो हजार से अधिक होती है ।
इस प्रकार उपरोक्त वर्णन के आधार पर कहा जा सकता है कि कस्बा सभ्यता विकास प्रक्रिया है । यह कृषि , उद्योग व संस्थाओं आदि के व्यवस्थापन से प्रारंभ होती है , फिर अब यह व्यवस्थापन नगरीयता का लक्षण धारण करता है , तब उसे कस्बा के नाम से जाना जाता है ।
. ई ० बर्गल ( EE Bergal ) ने कस्या को परिभाषित करते हुए लिखा है , ” कस्बा एक नगरीय व्यवस्थापन के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जो पर्याप्त आयामों के ग्रामीण क्षेत्र पर आधिपत्य रखता है । ” ( ” The town may be defined as an urban settlement which dominates a rural area of considerable dimension ” इस परिभाषा से पता चलता है कि -1 . कस्बा ग्रामीण व्यवस्थापन का एक स्वरूप है । 2. व्यवस्थापन के इस स्वरूप में ग्रामीण तत्त्व कमजोर पड़ते हैं और नगरीय तत्त्वों का विकास होता है ।
एच ० एम ० मेयर एवं सी . एफ . कोहन ( H.M.Mayer and C.E. Kohn ) ने कस्मा की परिभाषा के सन्दर्भ में इस बात का उल्लेख किया है कि कस्बे की अवधारणा मानवीय व्यवस्थापन ( Human Settlement ) की नगरीयता की प्रक्रिया से सम्बन्धित है । नगरीयता मूल रूप से औद्योगीकरण व व्यापारीकरण प्रवृत्तियों से विकसित होती है । इन प्रवृत्तियों में बैंक , बीमा , श्रम – संगठन , मनोरंजन , शिक्षा , यातायात , संचार आदि संगठन सन्निहित होते हैं । इस प्रकार जब किसी ग्रामीण क्षेत्र पर मानवीय जनसंख्या स्थायी रूप से निवास करती है और व्यापार – उद्योग , शिक्षा , स्वास्थ्य , कला , साहित्य , आदि गतिविधियाँ व्यापक होती हैं तो उस क्षेत्र को कस्बा कहा जाता है ।
कस्वा की विशेषताएँ
( Characteristics of Town )
कस्बा गाँव व नगर के बीच का मानवीय व्यवस्थापन ( Human Settlement ) है । यह मानवीय सभ्यता की प्रक्रिया का परिणाम है । इसे समाज की प्रगति का सूचक माना जा सकता है । इसकी विशेषताओं के आधार पर इसकी प्रकृति और अधिक स्पष्ट होगी । ये निम्न हैं
( 1 ) मानवीय व्यवस्थापन ( Human Settlement ) : कस्या मानवीय अवस्थापन के रूप में परिभाषित किया जाता है । कस्या मानवीय व्यवस्थापन का वह रूप है जहां ग्रामीण तत्त्व शिथिल होते हैं तथा नगरीयता का विकास होता है ।
( 2 ) संगठित समूह ( Organized Group ) : कस्बा एक संगठित समूह है । सामूहिक जीवन में इसका एक खास महत्त्व है । इस व्यवस्थापन के द्वारा सामाजिक जीवन व्यवस्थित बनता है । यह ऐसा संगठन है जहाँ विभिन्न विशेषताओं वाले व्यक्तियों के बीच समानता स्थापित होती है ।
( 3 ) ग्रामीणता और नगरीयता ( Rurality and Urbanism ) : कस्बा मानवीय व्यवस्थापन का वह स्वरूप है जो जीवन क्रम एवं क्रियाओं में ग्रामीणता और नगरीयता दोनों प्रकार के तत्वों से अन्तर्भूत है । कस्बे में कुछ ग्रामीण तत्त्व व कुछ – न – कुछ नगरीय तत्त्व पाए जाते हैं ।
( 4 ) व्यापार और उद्योग ( Business and Industry ) : रेटजेल ने इस विशेषता का उल्लेख किया है— कस्बा , व्यापार व उद्योग से सम्बन्धित है । यहाँ उद्योग – धन्धों और व्यापार प्रतिष्ठानों की स्थापना सरकार एवं अन्य द्वारा होती रहती है । उत्पादन से सम्बन्धित अनेक क्षेत्रों में धन लगाया जाता है जिससे आर्थिक क्रिया में गति आए ।
( 5 ) शिक्षा का केन्द्र ( Centre of Education ) : कस्बा शिक्षा का केन्द्र होता है । यहाँ छोटे – बड़े स्कूल , कॉलेज की स्थापना की जाती है । यहाँ शिक्षा के अवसर मिलते हैं , इसलिए कस्बा अधिक शिक्षित होता है । शिक्षा का केन्द्र होने के कारण यहां लोगों का झुकाव व बसना बढ़ता है ।यहाँ ग्रामीण उत्पादन का व्यापारीकरण और औद्योगिक उत्पादन का आदान – प्रदान होता है । इसके अलावा कस्बा बैंक बीमा , यातायात , स्वास्थ्य , मनोरंजन , होटल , धर्म – स्थान , सम्मिलन स्थान , संचार व समाचार आदि प्रकार्यों को करता है । ये प्रकार्य अपनों के लिए तथा साथ – ही – साथ पड़ोसी गाँवो के लिए भी करते हैं ।
- गाँव में सजातीयता ( Homogeneity ) अधिक होती है । इसके अधिकांश लोगों का रहन – सहन , खान – पान , बोल – चाल , पर्व – त्योहार व रीति – रिवाज आदि में समानता देखी जाती है जबकि कस्बा में विजातीयता ( Hetrogeneity ) अधिक होती है । इसके अन्तर्गत विभिन्न धर्म , जाति , वर्ग , भाषा व संस्कृति आदि के लोग निवास करते हैं । ये विभिन्न व्यवसायों व मान्यताएं से सम्बन्धित होते हैं । साथ ही उनके रहन – सहन , खान – पान व बोल – चाल आदि में काफी भिन्नता है ।
- गाँव मे जाति भेद है । जहाँ सवर्ण और अनुसूचित जातियों के बीच काफी दूरी है जबकि कस्बा में वर्ग – भेद प्रमुख हैं । वर्ग – निर्माण के अनेक आधार हैं – व्यवसाय , धन , शिक्षा , जीवन – शैली व मनोवृति आदि ।
- गांव तुलनात्मक रूप से स्थिर हैं । उनमें सामाजिक गतिशीलता का अभाव देखा जाता है जबकि कस्बा तुलनात्मक रूप से गतिशील होता है । यह गतिशीलता सामाजिकता , आवास , पेशे व हैसियत आदि सभी क्षेत्रों में देखे जा सकते हैं ।
- गांव में घनिष्ठ सम्बन्ध पाए जाते हैं । फलस्वरूप वहां के निवासियों में प्राथमिक अनौपचारिक व वैयक्तिक सम्बन्ध होते हैं । उनमें अपनापन अधिक होता है जबकि कस्बा में काम का सम्बन्ध होता है । फलस्वरूप वहाँ के निवासियों में द्वैतीयक , औपचारिक , अवैयक्तिक व अप्रत्यक्ष सम्बन्ध होते हैं । यहाँ प्रतिस्पर्धा अधिक होती है । इस प्रकार अनेक आधारों पर गाँव व कस्बा में अन्तर किया गया है । मानवीय व्यवस्थापन के ये दोनों स्वरूप अलग – अलग विशेषताओं से युक्त हैं ।
नगर व नगरीय समुदाय का अर्थ एवं परिभाषाएँ
( Meaning and Definitions of City or Urban Community )
नगरीय समुदाय की एक सार्वभौम परिभाषा नहीं है । इसका कारण है कि आज गाँव और नगर में केवल अंशों का अन्तर है । इसलिए ई . ई ० वर्गल ( E.E. Bergal ) ने लिखा है , ” हर व्यक्ति यह जानता प्रतीत होता है कि नगर क्या है परन्तु किसी ने उसकी संतोषजनक परिभाषा नहीं दी है । ” ( ” Everybody seems to know what a city is but no one has given a satisfactory definition , ” ) नगरीय समुदाय को विद्वानों ने भिन्न – भिन्न दृष्टिकोणों से परिभाषित किया है । एक मत के अनुसार , आबादी और घनत्व के आधार पर नगरीय समुदाय को स्पष्ट किया जाता है । दूसरे मत के अनुसार , विविधता एक खास आधार है । तीसरे मत के अनुसार , मानसिकता नगरीय समुदाय की व्याख्या में खास पहलू है । चौथे मत के अनुसार , नगरीय समुदाय के सामाजिक , आर्थिक , मनोवैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक आधार हैं । पांचवें मत के अनुसार , नगरीय समुदाय की अपनी जीवन – शैली होती है । इस प्रकार जितने विद्वान उतने मत । अध्ययन की सरलता की दृष्टि से कुछ मूल परिभाषाएँ प्रस्तुत की जा सकती हैं । ये निम्न है
एल . विर्थ ( L.Wirth ) ने लिखा है , ” समाजशास्त्रीय विवेचन के लिए नगर को उन व्यक्तियों के स्थाई निवास – स्थान के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिनकी संख्या अपेक्षाकृत बड़ी और धनी होती है और जो सामाजिक दृष्टि से विविध प्रकार के होते हैं । ” ( ” For sociological purposes a city may be defined as a relatively large , dense and permanent settlement of socially heterogenous individuals . ” ) इस परिभाषा से नगरीय समुदाय के चार तत्त्वों का पता चलता है— ( क ) नगरीय समुदाय व्यक्तियों का स्थाई निवास है । ( ख ) इसकी आबादी बड़ी होती है । ( ग ) इसकी आबादी घनी होती है । ( घ ) यह विविधतायुक्त होती है । एक नगर के अन्तर्गत विभिन्न धर्म , जाति , वर्ग , भाषा , संस्कृति , व्यवसाय एवं मान्यता से सम्बन्धित लोग निवास करते हैं ।
आर . बीयरस्टेड ( R. Bierstedt ) के शब्दों में , ” प्रत्येक सभ्यता का इतिहास इसके गांवों का नहीं बल्कि इसके महानगरों और नगरों का इतिहास होता है । सभ्यता का अर्थ ही होता है नगर और नगर का अर्थ होता है सभ्यता । ” ( ” The history of every civilization is the history , not of its countryside , but of its cities and towns . Civilization means the city and the city means civilization . ” ) बीयरस्टेड ने नगरीय समुदाय और सभ्यता को पर्याय माना है । यहां सभ्यता शब्द का उपयोग व्यापक अर्थ में किया गया है । इसके अन्तर्गत सभी प्रकार के ज्ञान , विज्ञान व मानव मस्तिष्क की नवीन कृतियाँ आती है । नगर वह केन्द्र है जहाँ नई चीजों- नवाचार – का विकास एवं प्रसार होता है । यही बड़े चिन्तक , कलाकार व वैज्ञानिक अपने कृतियों से समाज को लाभ पहुंचाते हैं ।
जे . एच फिक्टर ( JH . Fichter ) के अनुसार , ” नगरीय समुदाय नगर का एक हिस्सा होता है , अर्थात् नगर के उन क्षेत्रों के निवासियों के समूह को नगरीय समुदाय कहेंगे जिनके बीच पारस्परिक सम्बन्ध पाए जाते है । ” ( ” When it community ) is urban , it is only a part of the city , not the city itself — an urban social neighbourhood in which there exist systematic social relations . ” ) इस परिभाषा से स्पष्ट होता है कि नगर का एक हिस्सा यानि कॉलोनी या मुहल्ला नगरोय समुदाय है । इनमें निवास करने वाले व्यक्तियों के बीच व्यवस्थित पारस्परिक सम्बन्ध होते है ।
ई . ई ० बर्गल ( E E. Bergal ) के मुताबिक , ‘ इस प्रकार हम उस बस्ती को नगर कहेंगे जहाँ के अधिकांश निवासी कृषि कार्यों के अतिरिक्त उद्योगों में व्यस्त हो । ” ( Thus we call acity any settlement where the majority of the occupants are engaged in other than agricultural activities , ” ) इस परिभाषा में व्यवसाय के आधार पर नगरीय समुदाय को स्पष्ट करने की चेष्टा की गई है । नगर के लोग कृषि को छोड़कर अन्य व्यवसायों से जुड़े होते हैं ।
के डेविस ( K.Davis ) ने अपने विवेचन में विशिष्ट जीवन शैली और मानसिकता को नगरीय समुदाय के रूप में स्पष्ट किया है । इस प्रकार उपर्युक्त परिभाषाएँ एक खास पहलू को स्पष्ट करती है । उपरोक्त तथ्यों को ध्यान में रखते हुए एक सामान्य परिभाषा इस रूप में दी जा सकती है कि नगरीय समुदाय ऐसे व्यक्तियों का समुदाय है जिसमें सामाजिक , आर्थिक और सांस्कृतिक विभिन्नताएं होती हैं । इसकी आबादी बड़ी व घनी होती है । इसकी एक विशिष्ट जीवन – शैली और मानसिकता होती है । ये सभ्यता के जनक व संवाहक माने जाते है । यह परिभाषा भारतीय नगरीय समुदाय पर भी लागू हो सकती है ।
नगर व नगरीय समुदाय की विशेषताएँ
( Characteristics of City or Urban Community )
नगरीय समुदाय आदिम व ग्रामीण समुदाय की तुलना में नवीन है । यह प्रमुखत : आधुनिकीकरण और औद्योगीकरण की देन है । इसे समाज की प्रगति का सूचक माना जाता है । यह अनेक विशेषताओं से युक्त है । इसकी विशेषताओं को व्याख्या से इसकी अवधारणा व प्रकृति और अधिक स्पष्ट होगी । ग्रामीण समुदाय की मूल विशेषताएँ निम्न हैं .
( 1 ) बड़ा आकार एवं घनत्व ( Large Size and Density ) : नगरीय समुदाय तुलनात्मक रूप से बड़ा होता है । वर्तमान में दो सौ से अधिक नगर ऐसे हैं जिसकी आबादी एक लाख से अधिक कही जाती है । साथ ही बीस लाख से अधिक जनसंख्या वाले नगर काफी हैं । दो महानगरों ( बम्बई और कलकत्ता ) की आबादी लगभग करोड़ के करीब है । साथ ही यह आबादी एक नगरीय क्षेत्र की सीमा के अन्तर्गत घने तौर पर बसी होती है । अनेक नगरों में जनसंख्या का घनत्व बीस हजार प्रति वर्गमील से अधिक है । इसी से नगर की जनसंख्या आबादी के घनत्व का अनुमान लगाया जा सकता है ।
( 2 ) विजातीयता ( Heterogeneity ) : नगरीय समुदाय के अन्तर्गत निवास करने वाले लोगों में विविधता अधिक देखने को मिलती है । यहाँ विभिन्न धर्म , जाति , वर्ग , भाषा और संस्कृति के लोग रहते है । साथ ही ये विभिन्न व्यवसायों एवं मान्यताओं से सम्बन्धित होते हैं । इनके बोल – चाल , खान – पान व रहन – सहन में काफी भिन्नता है । इसका मतलब यह नहीं कि वे एक – दूसरे के विरोधी होते हैं । नगर के लोग अपने – अपने कार्यों के द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से एक – दूसरे से जुड़े होते हैं ।
( 3 ) द्वितीयक सम्बन्ध ( Secondary Relationship ) : नगरीय समुदाय में मूलतः द्वितीयक सम्बन्धो की प्रमुखता देखी जाती है । इसका आकार काफी बड़ा होता है , फलस्वरूप व्यक्ति एक – दूसरे को नहीं जान पाते । साथ ही नगरों में व्यक्ति अपने काम से मतलब रखते हैं । उनमें अपनापन नहीं पनप पाता । उनका सम्बन्ध ‘ छुओ और जाओ ‘ ( Touch and Go ) का होता है । इसलिए उनमें निकट , प्राथमिक , प्रत्यक्ष और घनिष्ठ सम्बन्ध का अभाव होता है । वे द्वितीयक सम्बन्ध से बंधे होते हैं ।
( 4 ) सामाजिक गतिशीलता ( Social Mobility ) : नगरीय समुदाय में अत्यधिक तीव्र सामाजिक गतिशीलता पाई जाती है । यह गतिशीलता सामाजिकता , आवास , पेशा एवं हैसियत आदि सभी क्षेत्रों में देखे जा सकते हैं । नगरों में प्रायः लोग किराए के मकान में रहते हैं , जो स्थाई नहीं होते । एक मकान से दूसरे मकान में या एक मुहल्ला से दूसरे मुहल्ला जाने में हिचक नहीं होता । यह गतिशीलता आवास के सन्दर्भ में है । यहां पेशे या धन्धे की गतिशीलता भी चलती है ।इस क्रम में व्यक्ति की सामाजिक – आर्थिक स्थिति में भी बदलाव आता है । सरकारी नौकरी व पेशा में यों ही समय – समय पर तबादले होते रहते हैं । इस तरह नगरीय समुदाय व सामाजिक गतिशीलता के बीच गहरा सम्बन्ध रहा है ।
( 5 ) उदार मानसिकता ( Open Mentality : नगरीय समुदाय के लोग उदार मानसिकता के होते हैं । दूसरे शब्दों में , आधुनिक ख्यालात के होते है । व्यक्ति एक – दूसरे के प्रति सहिष्णु होते हैं । विभिन्न आधारों पर व्यक्ति – व्यक्ति के बीच भेद है . लेकिन वे एक – दूसरे के कार्यों व विचारों का सम्मान करते हैं । साथ ही वे नवीनता को अपनाने में हिचक नहीं करते । यही कारण है कि यहां जीवन साथी के चुनाव में स्वतंत्रता देखी जाती है , प्रेम – विवाह , अन्तर्जातीय विवाह व तलाक आदि को बुरा नहीं माना जाता ।
6 ) व्यापार और उद्योग ( Business and Industry ) : नगरीय समुदाय व्यापार और उद्योग का केन्द्र होता है । नगरों में हमेशा बड़े बड़े उद्योग – धन्धों और व्यापार प्रतिष्ठानों की स्थापना सरकार एवं अन्य द्वारा होती रहती है । उत्पादन से सम्बन्धित अनेक क्षेत्रों में धन लगाया जाता है जिससे आर्थिक क्रिया में गति आवे । नगरों में आर्थिक विकास की दृष्टि से यातायात , परिवहन , संचार और सुरक्षा की व्यवस्था की जाती है । फलस्वरूप नगरों में बाहर से आने वालों की संख्या प्रतिदिन बढ़ती है । नगरीय व्यापार और उद्योग बाहर के लोगों को अपनी ओर खींचता है ।
( 7 ) श्रम – विभाजन एवं विशेषीकरण ( Division of Labour and Specialization ) : नगरीय समुदाय की खास विशेषता श्रम विभाजन एवं विशेषीकरण का होना है । नगरों में व्यक्ति भिन्न – भिन्न व्यवसायों में लगे होते हैं । साथ ही व्यक्ति किसी एक ही कार्य या एक कार्य के विशेष भाग का विशेषज्ञ होता है । इससे एक तरफ आर्थिक क्रिया सुचारु रूप से चलती है , तो दूसरी तरफ पारस्परिक निर्भरता बनी रहती है ।
( 8 ) व्यक्तिवादिता और प्रतिस्पर्धा ( Individualism and Competition ) : नगरीय समुदाय व्यक्तिवादिता और प्रतिस्पर्धा का केन्द्र माना जाता है । इसे नगरीय जीवन – शैली भी कहा गया है । के . डेविस का कहना है कि नगरीय समुदाय में व्यक्तिवादिता इस सीमा तक पाई जाती है कि व्यक्ति प्रत्येक क्षेत्र में अपने – आपको सबसे अधिक चतुर और प्रभावशाली दिखाकर अधिक – से – अधिक लाभ प्राप्त करना चाहता है , चाहे उसके कार्यों से अन्य व्यक्तियों को हानि ही क्यों न हो । यह स्थिति प्रतिस्पर्दा में वृद्धि करती है । हर व्यक्ति , इस प्रतिस्पर्द्धा के चलते , जीवन में आगे बढ़ने की चाहत में भागता दिखाई देता है ।
( 9 ) शिक्षा का केन्द्र ( Centre of Education ) : नगरीय समुदाय शिक्षा का केन्द्र होता है । यहाँ विभिन्न प्रकार की आधुनिक शिक्षाएँ दी जाती हैं । यहाँ छोटे – बड़े पब्लिक स्कूल , कालेज , विश्वविद्यालय , मेडिकल कॉलेज और तकनीकी कॉलेज के केन्द्र है । यहाँ शिक्षा के अधिक अवसर मिलते है , इसलिए नगरीय समुदाय अधिक शिक्षित होता है । शिक्षा का केन्द्र होने के कारण यहां दूर – दूर से लोग शिक्षा ग्रहण करने आते हैं । इस प्रकार स्पष्ट होता है कि नगरीय समुदाय अनेक विशेषताओं से युक्त है । उपरोक्त विशेषताओं के साथ – साथ कुछ अन्य विशेषताएँ नगरीय समुदाय में पाई जाती है । ये है . सभ्यता के जनक , बुद्धि – विवेक का प्रभाव , सामाजिक – आर्थिक विषमता , अस्थाई सम्बन्ध , यंत्रवत् जीवन और धर्म व परम्परा का महत्व कम आदि । इन्हीं अनोखी विशेषताओं के आधार पर कहा जाता है कि ” नगरीय समुदाय की अपनी विशिष्ट जीवन – शैली होती है । “
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नगरीय समुदाय की विशेषताएं
पिटिरिम सोरोकिन और ज़िम्मरमैन ने निम्नलिखित विशेषताएं सुझाई हैं जो हमें नगरीय समुदाय का अधिक अर्थ प्रदान करती हैं।
- विषमता : नगरीय समुदाय एक विषम समूह है, जहाँ लोग विभिन्न नस्ल, धर्म, भाषा, जाति और पंथ के होते हैं। उदाहरण के लिए, मुंबई जैसे नगर में, विभिन्न राज्यों के लोग, विभिन्न सांस्कृतिक समूहों के लोग रहते हैं और वे पूरी तरह से भिन्न हैं। लंदन में भारतीयों, पाकिस्तानियों और बंगलादेशियों के अपने-अपने उपनिवेश हैं।
- सामाजिक गतिशीलता- नगरीय समाज में सामाजिक स्थिति परम्परागत न होकर आर्थिक स्थिति, शैक्षिक स्तर एवं प्रतिभा पर आधारित होती है। दूसरे शब्दों में, व्यक्तिगत बुद्धि और प्रतिभा प्रगति लाती है और वंशानुगत महत्वपूर्ण नहीं है।
- व्यक्तिगत स्वतन्त्रता- नगरीय समुदाय में स्त्री-पुरूषों को अधिक स्वतन्त्रता प्राप्त होती है। लोग अपने व्यवहार में अधिक व्यक्तिवादी होते हैं। नगरवासी अपनी पसंद और अधिक में अधिक चयनात्मक है
- व्यवसाय : सभी लोग गैर-कृषि कार्यों में लगे हुए हैं, जैसे व्यापार, विपणन, कार्यालय, पुलिस, न्यायालय, उद्योग और कारखाने, परिवहन संचार, अस्पताल और शैक्षणिक संस्थान, थिएटर, शेयर बाजार आदि। इसलिए वे हमेशा दूर रहते हैं। प्रकृति और सादा जीवन से।
- द्वितीयक नियंत्रण : नगरीय समुदाय में व्यक्तिगत व्यवहार परिवार, धर्म और पड़ोस द्वारा नियंत्रित नहीं होता है। यह सरकार, पुलिस, अदालत आदि जैसे माध्यमिक संगठनों द्वारा नियंत्रित किया जाता है।
- सामुदायिक भावना का अभाव : नगर में सामुदायिक भावना, एकता की भावना, परिवार, पड़ोस की एकता और अखंडता का अभाव है। नगरीय समुदाय में लोग अपनी व्यक्तिगत उपलब्धियों में व्यस्त रहते हैं, इसलिए स्वाभाविक रूप से वे नगर के साथ एकता और एकता की भावना की उपेक्षा करते हैं।
- सामाजिक असंगठन : नगरीय समुदाय में अनेक संस्थाएँ एवं संघ होते हैं। वे स्वतंत्र रूप से कार्य कर रहे हैं। इसलिए हमेशा संघर्ष, संघर्ष और प्रतिस्पर्धा होती है। इस प्रकार सामाजिक अव्यवस्था देखी और महसूस की जाती है।
- अस्थिर परिवार : परिवार अब आर्थिक, शैक्षिक, सुरक्षात्मक, मनोरंजनात्मक और प्रभावी इकाई नहीं रह गया है। परिवार ने अपने व्यक्तिगत सदस्यों पर अपना नियंत्रण खो दिया है। परिवार के कई पारंपरिक कार्य बाहरी एजेंसियों को हस्तांतरित कर दिए जाते हैं। कहा जाता है कि नगरीय परिवार दृढतापूर्वक संगठित नहीं होता है।
- द्वितीयक संबंध : नगरीय समुदाय की विशेषता द्वितीयक संबंध है। लोग एक दूसरे के प्रति उदासीन होते हैं। आमने-सामने, दोस्ताना या अंतरंग संबंध लोगों के बीच नहीं देखा जा सकता है।
- स्वैच्छिक संगठन : नगर में सभी लोग गैर-कृषि कार्य कर रहे हैं। वे आवश्यक रूप से कई स्वैच्छिक संघों के सदस्य हैं। जीवन स्तर के अनुसार वे अपने स्वयं के आवासीय समूह और आवश्यक संस्थाएं और संघ बनाते हैं।
नगरीय समुदाय की अवधारणा
यूँ तो नगर प्राचीन काल से ही विद्यमान है लेकिन इनकी उत्पत्ति और विकास का सुनिश्चित इतिहास उपलब्ध नहीं है । गिस्ट और हेलवर्ट ने कहा है , ” सभ्यता के जन्म के समान ही नगरों का जन्म भूत के अन्धकार में खो गया है । ” नगर की अवधारणा को ग्रामीण अवधारणा के सन्दर्भ में देखा जाता है ।
( १ ) लुइस वर्थ के अनुसार , ” समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से एक नगर की परिभाषा सामाजिक भिन्नता वाले व्यक्तियों के बड़े , घने बसे हुए एवं स्थाई निवास के रूप में की जा सकती है । “
( 2 ) जनसंख्यानुसार परिभाषा- नगर की परिभाषा जनसंख्या के आकार के आधार पर दी गई है । और उनको मान्यता भी प्राप्त है । फ्रांस में 2.000 या अधिक , मिश्र में 11,000 और अमेरिका में 25,000 या अधिक जनसंख्या वाले स्थान को नगर के नाम से परिभाषित किया गया है । भारत में एक लाख या इससे अधिक जनसंख्या वाले स्थान को कहा गया है । पांच हजार या इससे अधिक जनसंख्या वाले स्थान को कस्बा के नाम से परिभाषित किया गया है ।
कस्बे के लिए निम्नलिखित तीन आधार भी आवश्यक हैं-
( 1 ) पांच हजार से अधिक जनसंख्या .
( 2 ) जनसंख्या का घनत्व 400 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर या अधिक होने पर , और
( 3 ) कम – से – कम 75 प्रतिशत व्यस्क पुरूष जनसंख्या और गैर – कृषि कार्यों में कार्यरत होनी चाहिए ।
थियोडोरसन तथा थियोडोरसन के अनुसार , “ नगरीय समुदाय एक समुदाय है जिसमें उच्च जनसंख्या घनत्व , गैर कृषि – व्यवसायों की प्रमुखता , जटिल श्रम – विभाजन से उत्पन्न उच्च श्रेणी का विशेषीकरण और स्थानीय सरकार की औचारिक व्यवस्था पाई जाती है । नगरीय समुदायों की विशेषता – जनसंख्या की विभिन्नता , अवैयक्तिक एवं द्वैतीयक सम्बन्धों का प्रचलन तथा औपचारिक सामाजिक नियंत्रण पर निर्भरता आदि है । “
उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि नगरीय समुदाय का अर्थ – जनसंख्या की अधिकता , श्रम – विभाजन और विशेषीकरण , औपचारिक एवं द्वैतीयक सम्बन्ध , नियन्त्रण के औपचारिक साधनों का प्राधान्य और लोगों का गेर कृषि कार्यों में लगे होना है । भारतीय जनगणना प्रतिवेदन के अनुसार अतिरिक्त जिस समाज की जनसंख्या 5 हजार से अधिक हो तथा जनसंख्या का घनत्व 400 व्यक्तित्व से अधिक हो उसे नगरीय समाज कहा जाता है ।
नगरीय समुदाय की विशेषताएं .
नगरों में जनसंख्या अधिक्य के साथ – साथ जनसंख्या – घनत्व भी अधिक पाया जाता है । . नगरों में अनेक मतों व धर्मों के अनुयायी , विभिन्न सम्प्रदाय , वर्ग , जाति , प्रजाति , भाषा एवं प्रान्तों के लोग निवास करते है । नगरों में व्यक्ति को स्वास्थ्य से सम्बन्धित सभी सुविधाएं उपलब्ध होती है ।
- नगरों में मनोरंजन के साधन व खेलकूद के साधन एवं सुविधाएं आसानी से उपलब्ध हो जाती है । नगरों में विभिन्न आर्थिक वर्गों के लोग , अनेक प्रकार के व्यवसाय , श्रम विभाजन एवं विशेषीकरण देखने को मिलता है ।
- नगरों में जनसंख्या की अधिकता और विन्नता के कारण वहां औपचारिक सम्बन्ध अधिक होते है । • नगरों में गतिशीलता अधिक पाई जाती है ।
- नगरों में स्तरीकरण अधिक होता है व्यक्ति अपनी योग्यता , कुशलता एवं क्षमता के अनुसार अपनी सामाजिक स्थिति को सुदृढ़ करने का प्रयास करता है ।
- नगरों का जीवन दिखावे का अधिक होता है लोग आडम्बरयुक्त व कृत्रिमतातय जीवन जीते है । . आज नगर , भ्रष्टाचार , वर्ग – संघर्ष , बालपराध , अपराध , बेकारी , गरीबी , वेश्यावृत्ति , मद्यपान , कुपोषण , प्रदूषण , युवा – तनाव , बीमारी आदि सामाजिक समस्याओं के केन्द्र बन गये है । नगरों में विभिन्न प्रकार के विद्यालय , महाविद्यालय , विश्वविद्यालय अभियान्त्रिकी , चिकित्सा , कला , संगीत , प्रौद्योगिकी , व्यावसायिक प्रशिक्षण आदि के विद्यालय व महाविद्यालय होते है जिनमें छात्रों की रूचि के अनुसार प्रवेश दिया जाता है ।
- नगरीय जीवन में व्यक्तिवादित एवं प्रतिस्पर्धा व राजनैतिक गतिविधियों के केन्द्र होते है । नगर परिवहन एवं संचार – सुविधाएं का केन्द्र होते है ।
- नगरों में शिक्षा के बढ़ते प्रभाव के कारण उनकी अभिवृत्ति तर्क प्रधान हो गई है ।
- नगरों में पुलिस पुलिस . न्यायाल आदि होते है जिससे व्यक्ति को लूटपाट , चोरी , हत्या जैसे खतरों से सुरक्षा मिलती है । .
ग्रामीण और नगरीय समुदाय में अन्तर
( Distinction between Rural and Urban Community )
ग्रामीण और नगरीय समुदाय में अन्तर को स्पष्ट करने के लिए समाजशास्त्रियों ने भिन्न – भिन्न आधारों को प्रस्तुत किया है । इनमें पी . ए . सोरोकिन और सी ० सी जिमरमैन ( P.A.Sorokin and C.C.Zimmerman ) ने ‘ ग्रामीण एवं नगरीय समाजशास के सिद्धांत ‘ नामक पुस्तक में आठ आधारों का उल्लेख किया है . जिसके द्वारा ग्रामीण और नगरीय समुदाय में अन्तरो को समझा जा सकता है । ए . आर . देसाई ने भारतीय समाज के सन्दर्भ में इन आधारों को प्रासंगिक माना है । इस प्रकार मूल आठ आधारों पर ग्रामीण और नगरीय समुदाय में अन्तर किए जा सकते हैं । ये निम्न है
( 1 ) व्यवसाय ( Occupation ) : ग्रामीण और नगरीय समुदाय में व्यवसाय सम्बन्धी अन्तर बतलाए जाते हैं । ग्रामीण समुदाय मूल रूप में कृषक समाज है । इसके अधिकांश लोग कृषि पर निर्भर होते हैं । जो व्यक्ति कृषि के अलावे अन्य काम करते हैं , उसका कृषि के काम से ही निकटतम सम्बन्ध होता है , जैसे – चरवाहे , मवेशियों व अनाज के व्यापारी , हल आदि के बनाने वाले बढ़ई और लोहार , अनाज ढोने वाले मजदूर आदि । वैसे कुछ लोग मछलो , पशुपालन एवं दस्तकारी में लगे होते हैं जबकि नगरीय समुदाय व्यापार और उद्योग का केन्द्र होता है । नगरों में हमेशा बड़े – बड़े उद्योग – धन्धों और व्यापार प्रतिष्ठानों की स्थापना होती रहती है । यहाँ लोग विशेषतः वस्तुओं के निर्माण , यांत्रिक कार्य , व्यापार , उद्योग , व्यवसाय तथा शासन के कार्य में जुड़े होते है ।
( 2 ) पर्यावरण ( Environment : ग्रामीण और नगरीय समुदाय में पर्यावरण सम्बन्धी भेद है । ग्रामीण समुदाय प्राकृतिक पर्यावरण के निकट है । इनका प्रकृति से सीधा सम्पर्क है । कृषक हो या मछुवारे , शिकारी हो या दस्तकार मालिक हो या प्रमिक सबके सब प्रकृति के प्रत्यक्ष सम्पर्क में होते हैं । ये प्राकृतिक प्रकाश . हवा व पानी से परिपूर्ण होते हैं जबकि नगरीय समुदाय अप्राकृतिक पर्यावरण के निकट है । दूसरे शब्दों में , मानव निर्मित पर्यावरण इसकी विशेषता कही जाती है । कृत्रिम प्रकाश , हवा , आग व पानी पाई जाती है । वहाँ के लोग प्रकृति से दूर जीवनयापन करते हैं । ईंट , पत्थर , लोहा आदि इसके अंग है ।
( 3 ) समुदाय का आकार ( Size of Community ) ; ग्रामीण और नगरीय समुदाय में आकार सम्बन्धी भेद है । ग्रामीण समुदाय आकार की दृष्टि से छोटा होता है । कृषि व्यवसाय व प्रकृति पर आधारित अन्य व्यवसाय वाले समुदाय के लिए हर व्यक्ति को कुछ निश्चित मात्रा में भूमि चाहिए । ऐसी स्थिति में एक ही क्षेत्र पर बहुत – सी मात्रा में जनसंख्या का निवास कठिन है । अत : गाँव में जनसंख्या का आकार छोटा होता है जबकि नगरीय समुदाय तुलनात्मक रूप से बड़ा होता है । नगर में व्यापार , उद्योग , शिक्षा व रोजगार आदि की सुविधा होती है । फलस्वरूप वहाँ की जनसंख्या अधिक होती है । यह निरंतर बढ़ती ही जाती है । नगरीयता और बढ़ती हुई आबादी के बीच घना सम्बन्ध है ।
( 4 ) जनसंख्या का धनत्व ( Density of Population ) : ग्रामीण और नगरीय समुदाय में जनसंख्या के घनत्व सम्बन्धी भेद हैं । ग्रामीण समुदाय में जनसंख्या का घनत्व कम होता है । जब प्रकृति पर प्रत्यक्ष रूप से आश्रित रहने पर प्रति व्यक्ति अधिक मात्रा में भूमि की आवश्यकता होती है तो निश्चित रूप से एक वर्गमील क्षेत्र में सीमित मात्रा में ही लोग जीवन निर्वाह कर सकेगे । सामान्यतः जनसंख्या के घनत्व तथा ग्रामीणता में नकारात्मक सह – सम्बन्ध होता है जबकि नगरीय समुदाय में जनसंख्या का घनत्व अधिक होता है । नगरीकरण व औद्योगिकीकरण जितना अधिक होगा . प्रति वर्गमील जनसख्या उतनी ही अधिक होगी । सामान्यत : जनसख्या के घनत्व तथा नगरीयता में सकारात्मक सह – सम्बन्ध होता है ।
( 5 ) सजातीयता तथा विजातीयता ( Homogeneity and Heterogeneity ) : ग्रामीण और नगरीय समुदाय में जनसंख्या की सजातीयता तथा विजातीयता सम्बन्धी भेद है । ग्रामीण समुदाय में सजातीयता अधिक होती है । इसके अधिकाश लोगों का रहन – सहन , खान – पान , बोल – चाल , पर्व – त्योहार , रीति – रिवाज आदि में समानता देखी जाती है जबकि नगरीय समुदाय में विजातीयता अधिक होती है । इसके अन्तर्गत विभिन्न धर्म , जाति , वर्ग , भाषा संस्कृति आदि के लोग निवास करते हैं । साथ ही ये विभिन्न व्यवसायों व मान्यताओं से सम्बन्धित होते हैं । साथ ही उनके रहन – सहन , खान – पान , बोल – चाल आदि में काफी भिन्नता है । अत : नगरीयता तथा विजातीयता में सकारात्मक पारस्परिक सह – सम्बन्ध है ।
( 6 ) सामाजिक विभेदीकरण तथा स्तरीकरण ( Social Differentiation and Stratification ) : ग्रामीण और नगरीय समुदाय में सामाजिक विभेदीकरण तथा स्तरीकरण सम्बन्धी भेद है । ग्रामीण समुदाय में जाति – भेद है । जहाँ सवर्ण और अनुसूचित जातियों के बीच काफी दूरी है । इसके बावजूद गांवों में अन्य आधारों पर सामाजिक दूरियां कम है जबकि नगरीय समुदाय में विविध आधारों पर समूहों के बीच विभेदीकरण और स्तरीकरण पाए जाते है । इनमें वर्ग – भेद प्रमुख है । ई . एस . बोगाईस ( E.S. Bogardus ) ने लिखा है , ‘ अत्यधिक वर्ग विषमताएं नगर का लक्षण है । ” ( ” Class extremes characterize the city . ” )
( 7 ) सामाजिक गतिशीलता ( Social Mobility ) : ग्रामीण और नगरीय समुदाय में सामाजिक गतिशीलता सम्बन्धी भेद है । इस भेद का उल्लेख करते हुए पी ० ए . सोरोकिन और सी ० सी ० जिमरमैन ( P.A. Sorokin and Cc . Zimmerman ) ने लिखा है , ” ग्रामीण समुदाय एक घड़े में शान्त जल के समान है और नगरीय समुदाय एक केतली में उबलते हुए जल के समान । स्थायित्व एक का विशेष लक्षण है , गतिशीलता दूसरे का गुण है । ” ( The rural community is similar to calm water in a pail and the urban community to boiling water in a kettle . Stablity is the typical trait for the one , mobility is the tupical for the other . ” ) इससे स्पष्ट है कि ग्रामीण समुदाय तुलनात्मक रूप से स्थिर है । उनमें सामाजिक गतिशीलता का अभाव होता है । जन्म से जो हैसियत मिलती है , इसमें अत्यधिक तीव्र गतिशीलता पाई वह भी कम ही बदलती है जबकि नगरीय समुदाय का गुण ही गतिशीलता जाती है । यह गतिशीलता सामाजिकता , आवास , पेशे , हैसियत आदि सभी क्षेत्रों में देखे जा सकते हैं ।
( 8 ) सामाजिक अन्त : क्रिया ( Social Interaction ) : ग्रामीण और नगरीय समुदाय में सामाजिक अन्त : क्रिया सम्बन्धी भेद है । ग्रामीण समुदाय में घनिष्ठ अन्त : क्रिया होते है । फलस्वरूप इनमें प्राथमिक , अनौपचारिक व वैयक्तिक सम्बन्ध होते हैं । उनका अन्त : क्रिया अपनापन से भरा होता है । सहयोग व संघर्ष प्राय : प्रत्यक्ष होते हैं जबकि नगरीय समुदाय में सामाजिक अन्तःक्रियाओं की भरमार होती है । व्यक्ति का एक – दूसरे के साथ काम का सम्बन्ध होता है । फलस्वरूप वहाँ द्वैतीयक , औपचारिक , अवैयक्तिक व अप्रत्यक्ष सम्बन्ध होते है । यहाँ प्रतिस्पर्धी की प्रक्रिया अधिक देखी जाती है । इस प्रकार उपर्युक्त आधारों पर ग्रामीण समुदाय व नगरीय समुदाय में अन्तर को स्पष्ट किया गया है । इसके अलावे मानसिकता , जीवन – शैली , संस्कृति , सामाजिक नियंत्रण के ढंग , प्रव्रजन के रूप और सामाजिक संगठन आदि के आधार पर भी ग्रामीण और नगरीय समुदाय में अन्तर किया जाता है । भारतीय समाज के सन्दर्भ में यह देखा जाता है कि ग्रामीण और नगरीय समुदाय की विशेषता व परिवर्तन में मात्रा का अन्तर है । सामान्यता की विशेषता ग्रामीण समुदाय में प्रमुखता के साथ पाई जाती है , तो वह विशेषता नगरीय समुदाय से बिल्कुल अनुपस्थित नहीं देखी जाती , बल्कि तुलनात्मक रूप से कम पाई जाती है । इसलिए ग्रामीण – नगरीय विरोध ( Rural – Urban Dichotomy ) के स्थान पर ग्रामीण – नगरीय निरन्तरता ( Rural – Urban Continuum ) की बात की जाने लगी है ।
सामान्यतः समुदाय को दो भागों में बाँटा गया है- ग्रामीण तथा नगरीय समुदाय ! प्रत्येक मनुष्य इन दोनों में से किसी एक प्रकार के समुदाय में निवास करता है ग्राम और नगर जीवन के दो पहलू है गाँवों का प्रकृति से प्रत्यक्ष और निकट का सम्पर्क पाया जाता है जबकि नगरों में कृत्रिमता की प्रधानता होती है । ग्राम और नगरों में पाई जाने वाली विभिन्नताओं के उपरान्त भी नहीं कहा जा सकता कि में दोनों बिल्कुल अलग – अलग है आधुनिकता के बढ़ते प्रभाव ने ग्रामों को नगरों से जोड़ दिया है जिम से ग्रामीण जीवन में नगरीय जीवन के , और नगरीय जीवन में ग्रामीण जीवन के अनेक तत्व मिलते है जिसमें ग्राम और नगर की निरन्तरता सातत्य बढ़ रहा
ग्रामीण – नगरीय सातत्य
– नगरीय सातव्य की अवधारणा का अभिप्राय ग्रामीण – नगरीय अखण्डता से है । इसे इस प्रकार भी व्यक्त कर सकते हैं कि मानवीय जीवन पद्धति में ग्रामीण – नगरीय जीवन की निरन्तरता की अभिव्यक्ति है । कुछ विद्वानों का यह स्पष्ट मत हैं कि ग्रामीण कि ग्रामीण और नगरीय जीवन पद्धति दो भिन्न व्यवस्थाएँ हैं । इसलिए इनका अध्ययन भी भिन्न – भिन्न रूप से किया जाना चाहिए । इस दृष्टि से ग्रामीण समाजशास्त्र और नगरीय समाजशास्त्र दो पृथक विषयों का कालान्तर में विकास हुआ । ग्रामीण समाजशास्त्र के विद्वानों ने ग्रामीण समाज के अध्ययन की स्वतंत्र पद्धति का विकास किया और नगरीय समाजशास्त्र विचारकों ने नगरीय समाजशास्त्र के अध्ययन को एक नया स्वरूप प्रदान किया । अध्ययन की दृष्टि से दोनों शास्त्रों
के क्षेत्रों को पृथक करने के लिए ग्रामीण नगरीय समाज के परस्पर भेदों को उजागर किया है जिससे दोनों क्षेत्रों का अध्ययन पृथक – पृथक रूप से किया जा सके ।
सामान्यतः यह धारणा : कि ग्रामीण – नगरीय सातत्य की अवधारणाा ग्रामीण नगरीय भिन्नताओं का अध्ययन है जबकि ग्रामीण – नगरीय सातत्य की अवधारणा ग्रामीण और नगरीय विशेषताओं की निरन्तरता पर आधारित है । वैसे भी व्यावहारिक रूप से यह स्पष्ट करना गांव कहाँ से आरम्भ होते हैं और कहाँ समाप्त होते हैं । इसी तरह नगर की सीमा कहां से आरंभ होती है । और कहां पर समाप्त होती है , इन दोनों के मध्य कोई रेखा कम से कम समाजशास्त्रीय दृष्टि से खींचना सरल कार्य नहीं है । इसी दृष्टि को ध्यान में रखकर समाजशास्त्रीयों ने ग्रामीण – नगरीय निरन्तरता की अवधारणा का विकास किया है । संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि ग्रामीण तथा नगरीय धारणायें – सापेक्षिक है । इन दोनों को पृथक – पृथक करके हम किसी भी समाज का अध्ययन नहीं कर सकते हैं । उदाहरण के लिए किसी भी कस्बे को हम सापेक्षिक दृष्टि से गति अथवा नगर की संज्ञा देते हैं ।
प्रायः इस आधार पर किसी क्षेत्र को गाँव अथवा नगर कहते हैं कि अमुक क्षेत्र में गाँव और नगर के कितने अधिक अथवा कम लक्षण विद्यमान है यदि उस क्षेत्र में गाँव के लक्षण अधिक है तो उस क्षेत्र को हम गाँव की संज्ञा देते हैं और यदि उसमें नगर के लक्षण अधिक विद्यमान है तो हम उसे नगर की संज्ञा देते है । जी ० वी फायटर का विचार है कि ” यदि ग्रामीण और नगरीय समाजशास्त्र को अपने संरक्षक अनुशासन के विशिष्ट उपक्षेत्र को निरन्तर रखना है और अर्थपूर्ण अवधारणात्मक आधार पर अन्य उपक्षेत्रों से इन्हें भिन्न रखना है तो एक नवीन दिशामान की आवश्यकता स्वयं – सिद्ध बरट्रेण्ड का मत है कि ” सातत्य के सिद्धान्त के प्रवर्तक यह अनुभव करते हैं कि ग्रामीण नगरीय विभेद तुलनात्मक अंशों में है और दो ध्रुवीय अतिरेकों – ग्रामीण और नगरीय के मध्य एक श्रृंखला में विकसित होते हैं । ” वास्तव में ग्रामीण नगरीय सातत्य ग्रामीण और नगरीय समाजशास्त्र की भिन्न – भिन्न विशिष्टताओं की निरन्तरता पर बल देते हैं न कि ग्रामीण नगरीय विभिन्नताओं को उजागर करते हैं । अस्तु ग्रामीण नगरीय सातव्य की अवधारणा ग्रामीण नगरीय तत्वों की अखण्डता से जुड़ी है । बरट्रेण्ड ने अन्ततः यह स्वीकार किया कि वास्तव में ग्रामीण तथा नगरीय अन्तर स्पष्ट करने वाली विशेषतायें एक दूसरे से काफी गहराई से जुड़ी है परन्तु इतना होते हुए भी उनमें पाए जाने वाले अन्तरों को पूरी तरह त्यागा नहीं जा सकता है क्योंकि उसमें यथार्थता और निश्चितता भी है । इसी संदर्भ में उन्होंने लिखा है यह सातत्य स्पष्ट करता है कि वातावरण संबंधी प्रभाव इन दोनों समूहों के मध्य पाए जाने वाले अन्तरों से घनिष्ट तथा सह – संबंधित है । जो वातावरण जितना ही अधिक लगभग ग्रामीण या नगरीय होगा , उतना ही अधिक अंतर उस समूह में सम्मिलित व्यक्तियों को लक्षित करता हुआ पाया जाएगा ।
ग्रामीण नगरीय सातत्य की अवधारणाा के विकास में प्रो ० विर्थ का विशेष योदान है । प्रो ० विर्थ से ग्रामीण नगरीय जीवन को ही पृथक – पृथक प्रकार की जीवन – पद्धति माना है । इसी प्रकार रेडफील्ड , द सीरोकिन , मिरमैन , पीकर तथा बेबर ने भी ग्रामीण नगरीय विभेदों का श्रेणीकरण किया है । इसके विपरीत कुछ समाजशास्त्रियों ने ग्रामीण नगरीय विभेदों की कटु आलोचना की है । आर 0 ई 0 उ
पहल विचार है कि नगरों में भी गाँव होते हैं । ये नगरीय गाँव नगरों के मध्य में स्थित होते है जहाँ रक्त – संबंध पर आधारित – प्राथमिक संबंध होते हैं । इनमें ग्रामीण सांस्कृतिक मूल्य उपस्थित होते हैं । मेयर का मत है कि ग्रामीण जनता जो नगरों में निवास करती है . वह नगरीकृत नहीं होती । ग्रामीण नगरीय सातव्य की अवधारणा की अनेक विद्वानों ने कटु आलोचना की है । इस सिद्धांत को काल्पनिक बताया है । रोसमेन ने इसकी आलोचना करते हुए लिखा है कि ” ग्रामीण – नगरीय विभेद के कहे जाने वाले सिद्धांत , विद्यार्थियों की पाठ्य – पुस्तकों में सुरक्षित है और परीक्षा के समय दिखावटी संस्कार पाते हैं ।
इसलिए लेविस के शब्दों में उनका अन्वेषण सबंधी मूल्य शोधक सयंत्र के रूप में कमी भी प्रमाणित नहीं हुआ । 3.8 ग्रामीण – नगरीय सातत्य आधुनिक प्रक्रिया के रूप में ग्रामीण – नगरीय सातत्य एक आधुनिक प्रक्रिया है जो किसी भी ग्रामीण अथवा नगरीय क्षेत्र में प्रवेश कर अपने प्रभाव को डालना आरंभ करती है । यह एक ऐसी घटना है जो अंशों में परिलक्षित होती है । वास्तव में आधुनिक समाज में किसी भी सामाजिक घटना को पूर्ण रूप से न ग्रामीण कह सकते हैं और न पूर्ण रूप से नगरीय । समस्त ग्रामीण घटनाएं एक प्रक्रिया के रूप में कालान्तर नगरीय रूप धारण करती है । ग्रामीण – नगरीय सातत्य के सिद्धांत के पक्षधरों का यह विचार है कि ग्रामीण – नगरीय अन्तर मुख्यतः भौगोलिक , जनसंख्यात्मक और आर्थिक दृष्टि से इतने स्पष्ट नहीं है जितने कि सामाजिक संबंधों की दृष्टि से । जहाँ तक गाँव और नगर के समुदायों के सामाजिक संबंधों का प्रश्न है दोनों स्थानों की सामाजिक क्रिया में विभिन्नतायें होती हैं । परस्पर अन्तर संबंधों की सामाजिक क्रिया और अंतरक्रिया के परिणाम स्वरूप ही गाँवों में नगरीकरण की और नगरों के ग्राम्यीकरण की प्रक्रियाएं विकसित होती है । इन्हीं दोनों प्रक्रियाओं को मिलाकर एक समन्वित रूप पनपता है जिसे गाल्पिन और उनके साथी ‘ ग्राम्यी नगरीकरण ‘ ( Rurbanization ) की संज्ञा देते हैं । इस प्रकार की अंतर – क्रियाओं से गाँव और नगर में अंतर संबंधों का जो स्वरूप विकसित होता है उसमें समन्वयवादी और संस्कृतिकरणक की प्रक्रिया समाहित होती है ।
इनमें जो कार्यरत घटक हैं वे ग्रामीण समाजिक ढाँचे में परिवर्तनों के लिए उत्तरदायी है । ग्रामीण समाज छोटा पर संघटित होता है । यहाँ सामाजिक संपर्क का क्षेत्र अत्यंत सीमित होता है । पर जो भी संपर्क के माध्यम से सामाजिक संबंध बनते हैं उनमें घनिष्टता और स्थायित्व की प्रकृति अधिक होती है । ग्रामीण समाज अपने छोटे से क्षेत्र से बंधा होता है । उसके सामाजिक संबंधों का दायरा भी इसलिए सीमित होता है । यही कारण है कि उनके परस्पर संबंधों में एकरूपता अधिक और विविधता कम होती है । इन्हीं सब कारणों से उसके विचार , सोच , दृष्टिकोण , मनोवृत्ति आदि संकुचित होते हैं । इसके विपरीत नगरीय समाज में सामाजिक संबंधों में सरलता नहीं होती है । नगरीय सामाजिक संबंधों का जाल जटिल होता है । नगर में प्रत्येक क्षण व्यक्ति नये संपर्को में आता है । इसीलिए नगरीय सामाजिक संबंधों में औपचारिकता , व्यक्तिवाद , कृत्रिमता आदि के सहज ही दर्शन होते है । ये विशेषतायें नगर की सीमा तक ही सीमित नहीं रहती बल्कि उन क्षेत्रों में भी प्रवेश करती है जो नगर के निकट गाँव है और नगर का स्वरूप धारण कर रहे हैं जिन्हें हम नगर तुल्य गाँव ( Suburbs ) कहते हैं । बड़े नगरों के आस – पास गाँव ही होते है जिनमें नगर और गाँव की विशेषतायें एक साथ देखी जा सकती है । बम्बई और कलकत्ता में तो व्यक्ति स्पष्ट रूप से यह कहता है कि हम सबअर्बन में रहते । अर्थात हमारा घर महानगर में नहीं है । इन नगर तुल्य गाँवों में नगरों की विशेषताओं को देखा जा सकता है ।
किसी महानगर के बाहरी छोरों पर जो कस्बे बस जाते हैं उन्हें भी उप – नगरीय ( Sub – ruban ) ही कहेंगे जैसे बंबई में गोरे और देहली के निकट साहिबाबाद आदि । ये उदाहरण स्पष्ट करते हैं कि ग्रामीण – नगरीय सातत्य की प्रक्रिया में उस समय गति अधिक उत्पन्न होती है जब सामाजिक संपर्क के क्षेत्र में विस्तार होता है और सामाजिक संबंधों में विविधता उत्पन्न होती है । वास्तव में गाँव और नगर जब एक दूसरे के निकट आते हैं तो दोनों समाज की विशेषतायें एक दूसरे के समाज में प्रविष्ट होती हैं । यही कारण है कि हम किसी भी नगर में ग्रामीण – समाज की अनेक विशेषताओं को सहज ही देख सकते हैं । कालान्तर में नगर का निकटवर्ती ग्रामीण – जीवन नगरीकृत हो जाता है । पाहल ने भी कहा है कि महानगरों के निकट जो गाँव है उनका जीवन नगरीकृत हो जाता है । ये क्षेत्र नगरीकृत ग्रामीण क्षेत्र के रूप में जाने जाते हैं । पाहल का अध्ययन क्षेत्र लन्दन के गाँव थे जो 40-50 मील की दूरी पर बस गए थे । क्योंकि लन्दन में आवास – समस्या अत्यन्त गंभीर होती जा रही थी अस्तु लन्दन के निवासी निकटवर्ती गाँवों में मकान बनाकर निवास करने लगे । यातायात और सन्देशवाहन के साधनों में प्रगति होने से इन महानगरीय गाँवों में नगरीकरण की प्रक्रिया को गति प्राप्त हुई । भारत में भी इस उदाहरण को देखा जा सकता है जैसे बम्बई के उच्च मध्यम वर्ग और उच्च – वर्ग के व्यक्ति ने बम्बई जैसे महानगर में मकान न बनाकर बम्बई से दूर अपना निवास स्थान बना रहे हैं ।
दिल्ली के व्यक्ति भी आज ऐसा ही कर रहे हैं । इस तरह एक महानगर अनेक उप महानगरीय क्षेत्र में विकसित होता जा रहा है । इन क्षेत्रों में नगरीय और ग्रामीणीय विशेषतायें एक साथ देखने को मिलती है किन्तु कालान्तर में ये उप महानगरीय क्षेत्रों में महानगरीय सभ्यता और संस्कृति अपना सर्चस्व स्थापित कर लेते हैं और महा – नगरीय – गाँव महानगरीय गाँव न रहकर , महानगर की संस्कृति का एक अंश बन जाते हैं । गतिशीलता की दृष्टि से यदि विचार करें तो गाँव , कस्बे , नगर , महानगर और महानगरीय गाँवों में गतिशीलता के विविध स्वरूप देखने को मिलते हैं । गाँव की अपेक्षा करबे के व्यक्तियों में गतिशीलता और सामाजिक जागरुकता अधिक होगी । इस तरह नगर की अपेक्षा महानगर में गतिशीलता और सामाजिक जागरुकता कहीं अधिक और एक साधारण गाँव की अपेक्षा महानगरीय गाँव या उप – महानगरीय गाँव में गतिशीलता और सामाजिक चेतना कहीं अधिक होगी । इसका मुख्य कारण यह है कि व्यक्ति जब भी प्रगतिशील और आधुनिक समाज के संपर्क में आता है उसे उसी के अनुरूप अपने को डालना पड़ता है । ग्रामीण जीवन पद्धति नगरीय जीवन पद्धति से पूर्णतयां भिन्न है ।
ग्रामीण मनोवृत्ति , मूल्य , विचार और मानसिकता को लेकर नगर में निवास करना और कार्य करना दोनों ही कठिन है । अस्तु उसे चाहे , अनचाहे नगरीय पद्धति को अपनाना होता है । नगरीय मूल्यों को ग्रहण करना होता है । नगरीय जीवन पद्धति नगरीकरण का पर्याप्त है । इसीलिए ग्रामीण व्यक्ति पर नगरीकरण का प्रभाव प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों रूप से पड़ता है और वह यहाँ के मध्य और उच्च वर्ग के व्यक्तियों को जीवन – पद्धति का अनुकरण करता है । इसका यह अर्थ नहीं है कि ग्रामीण व्यक्ति अपने ग्रामीण अंचल के समस्त मूल्यों , परम्पराओं , रूढ़ियों और रीति – रिवाजों का त्याग देता है । वह इन्हें त्यागता तो नहीं है . पर कालान्तर में इनका महत्व उसके जीवन में कम होता जाता है । उदाहरण के लिए ग्रामीण व्यक्ति जब नगर में मिल , फैक्ट्री में काम करने आता है तो उसी के अनुरूप वस्त्रों को पहनता है । पर वह जब गाँव जाता है तब वह ग्रामीण वेश – भूषा को धारण करता है ।
नगर में रहकर वह नगरीय भाषा बोलता है पर गाँव पहुँचकर वही व्यक्ति अपने गाँव की भाषा बोलता है । नगर में उसका व्यवहार दूसरे प्रकार का होता है और गाँव में उसका व्यवहार अपने क्षेत्र के व्यक्तियों की तरह होता है । इस तरह यदि कहीं सातत्य है तो हमें यह सामाजिक प्रक्रिया के रूप में ही दिखायी देता है । ग्रामीण नगरीय जीवन पद्धति में जो परिवर्तन आज दिखायी पढ़ रहे हैं वे एक लम्बी सामाजिक प्रक्रिया के फलस्वरूप ही उत्पन्न हुए हैं और यह प्रक्रिया आज भी इस यंत्रीकरण और नगरीकरण की प्रक्रिया के साथ गतिशील है । इसके बावजूद भी हम कोई सीमा निर्धारित नहीं कर सकते हैं कि इस सीमा बिन्दु से ग्रामीण विचार देखने को मिलते हैं और उस सीमा बिन्दु से नगरी जीवन , पद्धति का आरम्भ होता है । ठीक वैसे ही जैसे हम गाँव और नगर की सार्वभौमिक परिभाषा देने में असमर्थ रहे हैं । फिर यह कैसे ज्ञात किया जा सकता है कि ग्रामीण नगरीय सातत्य की सामाजिक प्रक्रिया किस बिन्दु से प्रारम्भ होती है और किस बिन्दु पर समाप्त होती है । ग्रामीण नगरीय सातत्य की प्रक्रिया वस्तुतः अनेक घटकों पर निर्भर करती है और जिसका स्वरूप और प्रकृति समय के अनुसार निरन्तर परिवर्तित होता रहता है ।
ये प्रक्रिया सभी समाजों में समान रूप से कार्य नहीं करती है । ग्रामीण – नगरीय सातत्य की प्रक्रिया की तीव्रता इस बात पर निर्भर करती है कि अमुक देश आर्थिक – सामाजिक रूप से कितना प्रगतिशील और सम्पन्न है । उदाहरण के लिए हजारों वर्षों तक भारतीय गाँव पिछड़ेपन के शिकार रहे । औद्योगीकरण , नगरीकरण , यंत्रीकरण और वैज्ञानिक उपलब्धियों का प्रभाव यहाँ के ग्रामीण जीवन पद्धति पर न के समान पड़ा किन्तु स्ततंत्रता के पाश्चात इन्हीं चीजों का प्रभाव ग्रामीण जीवन व्यवस्था पर तीव्रता से पड़ रहा है । विकास के क्रम में गाँव कस्बे में परिणत हो रहे हैं और कस्बे नगरों में तथा नगर महानगरों में परिवर्तित हो रहे हैं । इस बदलाव की प्रक्रिया में स्थानीय क्षेत्रीय , गामीणीय , नगरीय जीवन दर्शन में अनेक परिवर्तन दृष्टिगोचर ही रहे हैं । यह सत्य है कि प्रत्येक नगर में ग्रामीण तत्तव और विशेषतायें उपस्थित रहती है जिनका कालान्तर में ही नगरीकरण होता है । नगर क्योंकि गाँवों की अपेक्षा अधिक गतिशील , प्रगतिशील और परिवर्तनशील है अस्तु नगरों का प्रभाव सहज ही गाँवों पर पड़ता है । फिर भी यह कहा जा सकता है कि कोई भी सामाजिक घटना न पूर्णतया ग्रामीण होती है और न नगरीय ही । स्वतंत्रता के पश्चात भारतीय समाज में औद्योगीकरण , यंत्रीकरण की प्रक्रिया की गति में तीव्रता आयी है ।
सरकार ने विभिन्न ग्रामीण – योजनाओं के माध्यम से संपूर्ण आर्थिक – सामाजिक एवं सांस्कृति ढाँचे में परिवर्तन लाने का प्रयास किया है । आवागमन और संदेशवाहन के साधनों की प्रगति ने नगर और गाँव को परस्पर जोड़ा है । वैज्ञानिक कृषि के साधनों ने कृषि व्यवसाय को आधुनिक बनाया है । कृषि व्यवसाय का आधुनिकीकरण होने से ग्रामीण समाज की जीवन – पद्धति में आमूल – चूल परिवर्तन आया है । ग्रामीण – आर्थिक ढाँचे में परिवर्तन हो रहे हैं । ये परिवर्तन प्रगति और आधुनिक समाज के द्योतक है । इसलिए नगर गाँव में पहुंच रहे है और ग्रामीण समाज दिन – प्रतिदिन नगरीय समाज की विशेषताओं के प्रतिबिम्ब बनते जा रहे हैं । नगरीय तत्वों का विकास ग्रामीण समाज में तीव्रता से हो रहा है । ऐसी परिस्थितियाँ निरन्तर बनती जा रही है कि एक दिन ग्रामीण विशेषतायें , जिससे इनकी पहचान बनी है , जिससे इनकी पहचान बनी है , वे सब तत्व नगरीय विशेषताओं में परिणत हो जायेगें ।
गाँव भी नगर की तरह मशीनों के केन्द्र स्थल होगें । सभी कार्य यंत्र और कल – पुर्जी के द्वारा किए जायेंगे जिसकी शुरूआत ग्रामीण समाज में हो गयी है । हल और बैल के स्थान पर ट्रेक्टर से खेतों की जुताई और फसल की कटाई होने लगी है । फसल को काटने और साफ करने के लिए मशीनों का प्रयोग होता है । सिंचाई के लिए ट्यूब – बेल का प्रयोग होता है । वैज्ञानिक खाद का चलन दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है । इसके अतिरिक्त अनेक लघु – उद्योग – धन्धे ग्रामीण समाज में मशीनों के द्वारा निर्मित हो रहे हैं । आवागमन के साधनों ने अब ग्रामीण व्यक्ति को सीधे नगर से जोड़ दिया है । यह सभी तथ्य इस बात के प्रतीक व्यक्ति को सीधे नगर से जोड़ दिया है । यह सभी तथ्य इस बात के प्रतीक हैं कि औद्योगीकरण और यंत्रीकरण ग्रामीण विशेषताओं को समाप्त करते जा रहे हैं और उनका स्थान नगरीय विशेषतायें ले रही है । कदाचित ऐसा न हो कि भविष्य में जिन तत्वों के आधार पर हम गाँव और नगर को पहचानते हैं , वे समाप्त हो जाएँ और गाँव नगर का रूप ले लें जैसा कि पाश्चात्य देशों में घटित हो रहा है ।
ऐसी स्थिति में ग्रामीण – नगरीय सातत्य , जिसका कि अध्ययन आज ग्रामीण और नगरीय समाज के संदर्भ में कर रहे हैं , वह सम्भवतः हम न कर पायेगे क्योंकि गाँव जब नगर में परिणत हो जायेगें फिर ग्रामीण नगरीय सातत्य का अस्तित्व स्वतः समाप्त हो जायेगा । लेकिन हमें विश्वास है कि औद्योगीकरण यंत्रीकरण और नगरीकरण का प्रभाव कितना भी गहरा ग्रामीण – समाज और ग्रामीण जीवन पद्धति पर क्यों न पड़े , ग्रामीण समाज अपनी मौलिक विशेषताओं , मूल्यों , परम्पराओं आदर्शों और विश्वासों को तिलांजलि वहीं देगा क्योंकि धरती और कृषि व्यवसाय नहीं है । इससे जुड़ी हुई शताब्दियों की भावना वहीं है यदि कुछ परिवर्तित हुआ है तो वन कृषि करने के साधनों में बदलाव आया है और यह देश की प्रगति के लिए आवश्यक भी है । अस्तु ग्रामीण नगरीय सातत्य का अध्ययन उस समय तक भारतीय , समाज में जीवित रहेगा जब तक इस भूमि पर किसान और खेत है । 3.9 ग्रामीण – नगरीय सातत्य समाज में विभिन्नता के आधार ग्रामीण – नगरीय समाज में अन्तर विभिन्न वैज्ञानिकों – बोगार्डस , सोरोकिन , जिमरमैन , सिम्स , रॉस , नेल्स एण्डरसन आदि ने बताए है | जिसे हम निम्न प्रकार से तालिका के रूप में प्रस्तुत कर सकते है क्र ० सं ० ग्रामीण समुदाय अन्तर के आधार जनसंख्या नगरीय समुदाय 5,000 से कम जनसंख्या 1 2 जनसंख्या का घनत्व 5,000 या इससे अधिक जनसंख्या 400 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर से अधिक 400 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर से कम द्वारा मुखिया का निर्धारण चुनाव , राजनतिक विचार व्यक्तिगत ।
ग्रामीण नगरीय सातत्य में सम्बद्धता के आधार गांव एवं नगर में परस्पर आदान – प्रदान और अन्तःक्रिया होती रहती है जिसके परिणामस्वरूप दोनों का ही जीवन परिवर्तित होता रहता है । ग्राम एवं नगर के पारस्परिक प्रभाव ने ग्रामीणीकरण , नगरीकरण , ग्राम्य – नगरीकरण , ग्राम – नगरीय नैरन्तर्य आदि प्रक्रियाओं को जन्म दिया है । इन प्रक्रियाओं के परिणामास्वरूप ग्राम एवं नगर की विशेषताओं का मिलाजुला रूप प्रकट हुआ है । औद्योगीकरण एवं आर्थिक – सामाजिक विकास ने ग्रामों की आत्म – निर्भरता को समापत किया है । अब नगरों की कच्चे माल के लिए ग्रामों में निर्भरता बढ़ी है । नगरों की प्रबलता और वहां उपलब्ध साधनों की विपुलता ने ग्रामवासियों को नगरों की ओर आकर्षित किया । हैं ग्रामवासियों का नगरीकरण हो रहा है ।
ग्राम एवं नगर के सम्पर्क और अन्तःक्रिया के विशेषताओं की सह – उपस्थिति देखी जा सकती है । बड़े – बड़े नगरों के चारों आस – पास बसे उपनगरों में दोनों का मिश्रित जीवन देखने को मिलेगा । नगर के लोग नगर से दूर खुली हवा में अपने बंगले बनाते हैं । वे बंगलों में बगीचा लगाकर प्राकृतिक वातावरण प्रस्तुत करने का प्रयास करते हैं । इन बंगलों में आधुनिक नगरों की सारी सुविधाएं उपलब्ध होती हैं । बिजली , नल , फ्रिज , गैस का चूल्हा , सोफा , आधुनिक फर्नीचर , कार सभी इनमें उपलब्ध होते हैं । इसमें निवास करने वाले लोग नगरीय व्यवसाय पर निर्भर रहते हैं । इस प्रकार हम ग्राम्य – नगरीकरण और
ग्राम – नगर नैरन्तर्य की प्रक्रियाओं को ग्राम एवं नगर के पारस्परिक सम्बन्धों के परिणामस्वरूप घटित होते हुए देखते हैं । आज नगरीकृत जीवन पूर्णनगरीय नहीं होकर नगरीय जीवन से प्रभावित ग्रामीण जीवन है । नगरीकृत जीवन गाँवों में भी देखा जा सकता है । नगरों की समृद्धि एवं आधिकाधिक नगरीकरण होने पर ही ग्राम्य – नगरीकरण की प्रक्रिया निर्भर है । यदि नगर विकसित नहीं होते हैं और नगरीकरण तेजी से नहीं बढ़ता है तो ऐसे क्षेत्रों के निर्माण की आवश्यकता ही समाप्त हो जाती है । नगरों में स्थापित उद्योगों में काम करने वाले लोगों को ‘ ग्राम्य – नगरों के विस्तृत क्षेत्रों में बसाने पर इनका विस्तार एवं निवास का क्षेत्र विशाल हो जायेगा तथा कार्य करने के स्थान एवं निवास के स्थान में दूरी हो जायेगी । ऐसी स्थिति में नगर की सुविधाएं उन्हें प्राप्त नहीं हो पायेगी । नल , बिजली , सड़क , प्रशासन , शिक्षा , यातायात एवं संचार की सुविधाएं उन्हें जुटा पाना कठिन हो जायेगा इससे नगरीय लोगों का जीवन स्तर गिर कर ग्रामीण स्तर के बराबर आ जायेगा । इस प्रकार से ग्राम्य नगरीकरण का अधिक विस्तार समस्याओं को सुलझाने के स्थान पर उनमें वृद्धि के देगा और इसके विस्तार की भावी सम्भावनाएं समाप्त भी हो सकती हैं ।
ग्राम्य – नगरीकरण के कारण नगरीय संस्कृति का विस्तार होता है , महानगरीय सभ्यता और संस्कृति अपना वर्चस्व स्थापित कर लेते हैं और महानगरीय गांव महानगरीय संस्कृति के अंश बन जाते हैं । इसी प्रकार से हमें गांव की अपेक्षा नगरों में गतिशीलता अधिक दिखायी देती है । नगरीय प्रभाव के कारण ग्रामीण लोग नगर की भाषा , मूल्य और जीवन विधि को अपना लेते हैं तथा ग्रामीण मूल्यों , परम्पराओं , रीति – रिवाजों एवं जीवन विधि को त्याद देते हैं । ग्राम्य – नगरीकरण सातत्य की प्रक्रिया सभी समाजों में समान रूप से कार्य नहीं करती है वरन् यह उस देश की आर्थिक व सामाजिक प्रगति , औद्योगीकरण , यातायात एवं संचार के साधनों की उपलब्धता , कृषि का आधुनिकीकरण आदि तथ्यों पर निर्भर है ।
SOCIOLOGY – SAMAJSHASTRA- 2022 https://studypoint24.com/sociology-samajshastra-2022
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