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एस ० सी ० दुबे

एस ० सी ० दुबे

 जीवन – चित्रण एवं प्रमुख कृतियाँ:

श्यामा चरण दुबे देश के प्रसिद्ध समाजशास्त्रियों एवं मानवशास्त्रियों में से एक हैं । उन्होंने जनजातियों , ग्रामीण जीवन , सामाजिक परिवर्तन , सामुदायिक विकास इत्यादि जैसे अनेक विषयों पर अपने विचार प्रस्तुत किए हैं । उन्होंने अपना अध्ययन संरचनात्मक – प्रकार्यात्मक परिप्रेक्ष्य के अन्तर्गत किया । श्यामा चरण दुबे का जन्म 25 जुलाई , 1922 ई ० में हुआ । उन्होंने अपना व्यावसायिक जीवन नागपुर के हिस्लोप कॉलेज से एक प्राध्यापक के रूप में आरम्भ किया । तत्पश्चात् वह लखनऊ विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्रवक्ता के रूप में कार्य करने लगे । यहीं पर उन्होंने डी ० एन ० मजूमदार के साथ Eastern Anthropologist नामक पत्रिका का सम्पादन किया । कुछ समय पश्चात् दुबे ने ओसमानिया विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग में रीडर का पदभार संभाला । तत्पश्चात् वह सागर विश्वविद्यालय में मानवशास्त्र के प्रोफेसर नियुक्त किए गए ।

भारत में ग्रामीण अध्ययनों का श्रेय सुप्रसिद्ध समाजशास्त्री प्रो ० श्यामा चरण दुबे को दिया जाता है । इनकी पुस्तक एक भारतीय ग्राम ( An Indian Village ) एक अमर कृति मानी जाती है । यह कृति हैदराबाद और सिकन्दराबाद के जुड़वाँ नगरों से लगभग 25 मील की दूरी पर बसे शामीरपेट गाँव के अध्ययन पर आधारित है । यह अध्ययन 1951-52 ई ० में किया गया था और पुस्तक का प्रकाशन 1955 ई ० से लन्दन से हुआ । इस अध्ययन की दो महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ हैं – प्रथम , यह शामीरपेट गाँव का सर्वांगीण अध्ययन है और सरल ढंग से गाँव के जनजीवन को गहराई से प्रस्तुत करने में सफल रहा है तथा द्वितीय , पद्धति की दृष्टि से यह एक नवीन प्रयास था क्योंकि इसमें प्रो ० दुबे के निर्देशन में एक अन्तर्शास्त्रीय दल ( Interdisciplinary team ) ने सामग्री संकलन का कार्य किया था । 3 वर्ष बाद दुबे ने इण्डियाज चेंजिग विलेजेज शीर्षक के अन्तर्गत एक दूसरी तक लिखी जिसमें उन्होंने ग्रामीण समाज में होने वाले परिवर्तनों तथा इसके लिए उत्तरदायी शक्तियों को प्रमुखता दी । दुबे कई राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों एवं संस्थाओं के उच्च पदों पर आसीन रहे । उन्होंने इण्डियन इन्सटिट्यूट ऑफ एडवान्स्ड स्टडौ , शिमला ( 1972-77 ) के निदेशक . जस्मू विश्वविद्यालय कुलपति ( 1978-80 ) , आई ० सी ० एस ० एस ० आर के नेशनल फैलो ( 1980-83 ) के अतिरिक्त यूनेस्को और संयुक्त राष्ट्र संघ की कई संस्थाओं के गौरवपूर्ण पदों को सुशोभित किया है । वह मध्य प्रदेश उच्च शिक्षा अनुदान आयोग , भोपाल के अध्यक्ष भी रहे हैं । शुरूआती दौर में दुबे ‘ सामुदायिक ग्रामीण विकास के राष्ट्रीय संस्थान ‘ में सलाहकार थे ।

दुबे को 1975-76 ई ० में ‘ अखिल भारतीय समाजशास्त्रीय परिषद् ‘ ( आई ० एस ० एस ० ) के अध्यक्ष बनने का सम्मान भी प्राप्त हुआ । 4 फरवरी , 1996 ई ० में 73 वर्ष की आयु में दुबे स्वर्ग सिधार गए ।

दुबे की प्रमुख कृतियाँ निम्नांकित हैं

( 1 ) The Kamar ( 1954 ) ;

( 2 ) Indian Village ( 1955 ) :

( 3 ) Power and Conflict in Village India ( 1956 ) ;

( 4 ) India’s Changing Villages ( 1958 ) ;

( 5 ) Essays on Modernization ( 1971 ) ;

( 6 ) Explanation and Management of Change ( 1971 ) :

( 7 ) Contemporary India and its Modernization ( 1973 ) ;

( 8 ) Social Sciences in Changing Society ( 1974 ) ;

( 9 ) Tribal Heritage of India ( 1977 ) ;

( 10 ) Modernization and Development ( 1988 ) ; 7911

( 11 ) Indian Society ( 1992 ) ।

दुबे के बारे में यह तथ्य अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है कि वह भौगोलिक एवं बौद्धिक रूप में सदैव गतिमान रहे हैं तथा इसीलिए उनका व्यक्तित्व बहुआयामी था । उन्होंने भारतीय यथार्थता एवं जटिल संस्कृतियों को समझने हेतु एक विस्तृत आदर्श सिद्धान्त ( Frame of Reference ) प्रतिपादित करने पर भी बल दिया ।

दुबे का शामीरपेट का संरचनात्मक – प्रकार्यात्मक विश्लेषण

भारत में ग्रामीण अध्ययनों का श्रेय सुप्रसिद्ध समाजशास्त्री प्रो ० श्यामा चरण दुबे को दिया जाता है । इनकी पुस्तक एक भारतीय ग्राम ( An Indian Village ) एक अमर कृति मानी जाती है । यह कृति हैदराबाद और सिकन्दराबाद के जुड़वाँ नगरों से लगभग 25 मील की दूरी पर बसे शामीरपेट गाँव के अध्ययन पर आधारित है । यह अध्ययन 1951-52 ई ० में किया गया था और पुस्तक का प्रकाशन 1955 ई ० से लन्दन से हुआ । इस अध्ययन की दो महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ हैं – प्रथम , यह शामीरपेट गाँव का सर्वांगीण अध्ययन है और सरल ढंग से गाँव के जनजीवन को गहराई से प्रस्तुत करने में सफल रहा है तथा द्वितीय , पद्धति की दृष्टि से यह एक नवीन प्रयास था क्योंकि इसमें प्रो ० दुबे के निर्देशन में एक अन्तर्शास्त्रीय दल ( Interdisciplinary team ) ने सामग्री संकलन का कार्य किया था । 3 वर्ष बाद दुबे ने इण्डियाज चेंजिग विलेजेज शीर्षक के अन्तर्गत एक दूसरी पुस्तक लिखी जिसमें उन्होंने ग्रामीण समाज में होने वाले परिवर्तनों तथा इसके लिए उत्तरदायी शक्तियों को प्रमुखता दी ।

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ग्रामीण समुदाय की सामाजिक संरचना ( Social Structure of a Rural Community ) भारतीय संस्कृति की सबसे प्रमुख विशेषता अनेकता में एकता कही जाती है । विविधताओं पर दृष्टि डालें तो आश्चर्य होता है कि जहाँ एक ओर उत्तर प्रदेश के गाँव में मुस्लिम नारी ऊपर से नीचे एक बुरके में सारे शरीर को ढक कर बाहर निकलती है , तो दूसरी ओर नागा साधुओं का समूह अथवा दिगम्बर जैन संन्यासी पूर्णत : नग्न दृष्टिगोचर हो जाते हैं । एक ओर ऐसे मानव समुदाय मिल जाएँगे जिनका सामान्य भोजन मांसाहारी है , जबकि दूसरी ओर ऐसे समुदाय भी हैं जो पूर्णतः शाकाहारी हैं । बहुपत्नी अथवा बहुपति व्यवस्था वाले समुदाय हैं तो विपरीत चरम सीमा पर राम और सीता एक पत्नी आदर्श भारतीय जनमानस में व्याप्त है । मातृसत्तात्मक व्यवस्था भी है तो प्रितसत्तात्मक व्यवस्था भी है । ऐसी विविधताओं के बीच ग्रामीण सामाजिक संरचना का वर्णन करना

कठिन ही नहीं वरन् असम्भव है । यह सच कि एकता के सूत्रों की दृष्टि से भारतीय ग्रामीण सामाजिक संरचना वर्ग , जाति और धर्म की अखिल भारतीय परम्पराओं से प्रभावित होती है । परन्तु इन परम्पराओं के अर्थ एवं महत्त्व में प्रादेशिक या स्थानीय लक्षण भी अपना स्पष्ट प्रभाव दिखाते हैं और कि किसी ख्याति प्राप्त भारतीय समाजशास्त्री द्वारा किए गए किसी ग्राम के आनुभविक अध्ययन को प्रत्येक गाँव की सामाजिक संरचना को समझने के लिए सबसे उचित और सरल तरीका यह होगा धुन लिया जाए । इस उपर्युक्त उद्देश्यों की दृष्टि से हम भारत के अग्रणी समाजशास्त्री एस ० सी ० दुबे अमर कृति ‘ एक भारतीय ग्राम ‘ ( An Indian Village ) को एक आदर्श के रूप में लेंगे ।

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शामीरपेट का परिचय 

शामोरपेट गाँव आन्ध्र प्रदेश के हैदराबाद और सिकन्दराबाद के जुड़वाँ नगरों से लगभग 25 मील की दूरी पर बसा हुआ है । यह गाँव तैलंगाना क्षेत्र में आता है जो आन्ध्र प्रदेश के व्यापक संस्कृति – क्षेत्र का एक अंग है । तैलंगाना क्षेत्र को उपजाऊ खेतों , वीरान चट्टानों , तालों और झीलों व मन्दिरों का प्रदेश कहा जा सकता है । शामीरपेट ऐसे ही एक तालाब के किनारे और उस सड़क पर स्थित है जो उत्तरीय जिले के मुख्य नगर करीमनगर को जाती है । गाँव की प्रकृति दक्षिणी पठारों की अपनी छटा के अनुरूप है । इसके आस – पास जंगल बहुत कम है । 15-20 मील दूर के जंगलों में यदा – कदा चीता दीख पड़ता है , लेकिन बकरी , बछड़ों या कुत्तों की तलाश में तेंदुएँ , अक्सर गाँव में आ जाते हैं । जंगली सुअर भी फसलों को काफी नुकसान पहुंचाते हैं । 1951 की जनगणना के अनुसार शामीरपेट तथा पास के दो नगलों – बाबु गुड़ा तथा उपर पल्ली की कुल जनसंख्या 2,494 थी जो 508 परिवारों में बँटी हुई थी ।

धर्म के अनुसार इस जनसंख्या में 340 मुसलमान और हिन्दू थे । सांस्कृतिक दृष्टि से हिन्दुओं और मुसलमानों के रीति – रिवाज दर्शनीय ढंग से भिन्न हैं । मुसलमान उर्दू भाषी हैं , जबकि हिन्दू तेलुगु भाषी हैं । व्यवहार में गांव के अधिकांश लोग द्विभाषी हैं । शामीरपेट बहुत पुराना गाँव नहीं है । इसका इतिहास लगभग 350 वर्ष पुराना है । 1978 ई ० में हैदराबाद के निजाम ने इस गाँव को फखरूल मुल्ला खान खानन नामक व्यक्ति को जागीर में दिया । तब से यह गाँव जागीरदारी में रहा और 1948 ई ० की पुलिस कार्यवाही के बाद हैदराबाद राज्य की भाँति यह गाँव भी भारतीय गणतन्त्र का एक अभिन्न अंग हो गया ।

शामीरपेट एक स्वतन्त्र सामाजिक – आर्थिक एवं धार्मिक इकाई के रूप में सामुदायिक जीवन के कई पक्षों में अशंत : आत्मनिर्भर है । ग्राम समुदाय के व्यापक संगठन में यह अशंत : स्वायत्त भी है किन्तु व्यापक सामाजिक अर्थ में , शामीरपेट के घनिष्ठतम सम्बन्ध आस पड़ोस के गाँव के साथ हैं और उन गांवों में घटने वाली घटनाओं में शामीरपेट के निवासी गहरी रुचि रखते हैं । जीवन की प्रमुख संकटावस्थाओं ; जैसे – जन्म , विवाह तथा मृत्यु के समय बहुधा शामीरपेट के निवासी इन पास के गाँव में रहने वाले अपने मित्रों एवं सम्बन्धियों के यहाँ आते – जाते रहते हैं । आपस में मिले गाँवों के एक समूह के लिए विभिन्न जातियों की अपनी जाति पंचायतें होती है , जिनमें केवल जाति से सम्बन्धित मामले निर्णित किए जाते हैं ।

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शामीरपेट की सामाजिक संरचना 

शामीरपेट ग्राम की सामाजिक संरचना का उसकी तीन प्रमुख इकाइयों में वर्णन किया जा सकता है । यह प्रमुख इकाइयाँ इस प्रकार हैं – ग्राम समुदाय में जाति व्यवस्था , आन्तरिक गठन ( सत्ता और न्याय ) तथा अन्तर्जातीय और अन्तर – ग्रामीय संगठना

( 1 ) ग्राम समुदाय में जाति व्यवस्था ( Caste System in the Village Community ) शामीरपेट में हिन्दू और मुसलमान दोनों ही रहते हैं । मुसलमान अल्पसंख्यक है किन्तु सामाजिक धार्मिक मामलों में उनका समूह सुसंगठित है । वे सभी सुन्नी शाखा के हैं और सम्पत्ति या पूँजी के आधार उनमें कोई वर्ग – भेद नहीं मिलता । वे स्वायत्त और आत्मनिर्भर समूह की भाँति व्यवहार करते हैं । 1948 ई ० से पहले शामीरपेट मुस्लिम जागीर में होने के कारण वहाँ के मुसलमान राजकीय मामलों में विशेष सुविधा की स्थिति में थे । गाँव में उनकी स्थिति खेतिहर जातियों के बराबर ही गिनी जाती है लेकिन हिन्दुओं में धर्म की दृष्टि से उन्हें सदैव ही अपने से नीचे माना है । हिन्दुओं की कठोर एवं सोपानिक जाति व्यवस्था से घिरे यह मुसलमान भी जाति सोपान क्रम की परिधि में फंसे दिखाई पड़ते हैं और उनकी स्थिति अर्द्धजातीय हो गई है । हिन्दू समाज व्यवस्था का मूल आधार जाति व्यवस्था है । इसका अखिल भारतीय सोपानिक प्रारूप वर्ण व्यवस्था से मिलता है , जिसमें चार वर्ण रहे हैं – ब्राह्मण ( पुरोहित और विद्वान् ) , क्षत्रिय ( शासक और यौद्धा ) , वैश्य ( व्यापारी ) तथा शूद्र ( सेवकगण ) । परन्तु समय के साथ – साथ इसमें पाँच विभाजन हो गए हैं । तीन पूर्ववत् हैं जिन्हें द्विज वर्ण कहा जाता है , केवल वही उपनयन संस्कार करते हैं जो जनेऊ पहनते हैं । इनके बाद चौथे समूह में कई व्यावसायिक जातियाँ आती हैं जिन्हें अपेक्षाकृत ‘ स्वच्छ ‘ माना जाता है और इसके बाद पाँचवाँ समूह उन जातियों का है जो अस्वच्छ तथा अस्पृश्य कही जाती हैं । वर्ण व्यवस्था की इस मोटी रूपरेखा के अन्तर्गत देश के विभिन्न प्रदेशों में जातियों की अपनी स्वायत्त सोपानिक व्यवस्था पाई जाती है , किन्तु जाति के दो लक्षण सार्वभौमिक हैं – प्रथम , वे अन्तर्विवाही ( Endogamous ) हैं और उनका भोजन व्यवहार तथा संस्कारिक शुद्धता स्पष्टतः नियमबद्ध है । प्रत्येक जाति कई अन्तर्विवाही उपजातियों में विभाजित होती हैं और प्राय : सभी मामलों में एक स्वतन्त्र समूह की भाँति व्यवहार करती हैं । ये उपजातियाँ पुनः विभिन्न गोत्रों ( Clans ) में बँटी हैं जो बहिर्विवाही नियम द्वारा संचालित होते गोत्र भी आगे वंशों ( Lineages ) में विभाजित हैं जो बहिर्विवाही होता है । इस भाँति , भारतीय गाँव में जाति व्यवस्था एक जटिल सोपानिक व्यवस्था है और वही सामाजिक जीवन का मुख्य आधार है । शामीरपेट के हिन्दुओं की जाति व्यवस्था भी विभिन्न जातियों की एक जटिल एवं सोपानिक संरचना को प्रकट करती है । हिन्दुओं में ब्राह्मणों का सर्वोच्च स्थान है । वड्डार , एरकला , पिच्च – कुंटला , माला और मादिगा जातियों को छोड़ कर शेष सभी जातियों के ब्राह्मण पुरोहित हैं । पंचब्रह्म समूह को छोड़ कर शेष सभी इनके हाथ का खाना स्वीकार करते हैं । वे अपनी जाति के अतिरिक्त किसी अन्य से भोजन स्वीकार नहीं करते । रेड्डी , कुम्मारि और गोल्ला समान स्थिति पर है और अन्तर्विवाही हैं । इनमें भोजन व्यवहार पाया जाता है ।

मुत्तरासी की स्थिति थोड़ी – सी भिन्न है । रेड्डी और गोल्ला तो इनके हाथ का खाना खा लेते हैं लेकिन कुम्मारि इनके द्वारा छुआ हुआ खाना नहीं खाते । इन जातियों के बाद साले और गाओण्डला आते हैं जिनमें अपनी ही जाति में रोटी – बेटी का व्यवहार है । ये अपनी से ऊँची जाति के हाथ से भोजन स्वीकार कर लेते हैं । तत्पश्चात् साकली और मंगली की स्थिति है जो परस्पर समान हैं परन्तु रोटी – बेटी व्यवहार नहीं रखते । इसी प्रकार अन्य जातियों के भी अपने अन्तर्विवाही एवं भोजन – सम्बन्धी नियम हैं । उपर्युक्त जातियाँ भी अधिकांश अन्तर्विवाही उपसमूहों में विभाजित हैं जोकि सभी व्यावहारिक दृष्टियों से स्वतन्त्र माने जा सकते हैं जैसे आन्ध्र प्रदेश के ब्राह्मण दो मुख्य समूहों ( वैदिकी तथा नियोगी ) में बँटे हैं । ये दोनों भी कई शाखाओं में विभक्त हैं जो अन्तर्विवाही हैं । इसी

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प्रकार कोमटि छह अन्तर्विवाही समूहों में , रेड्डी चार उपसमूहों में , मुत्तरासी तीन उपसमूहों में , कुम्मारि चार उपसमूहों तथा गोल्ला सात उपसमूहों में विभाजित है । अन्य जातियों के भी इस मांति अपने – अपने उपसमूह हैं जो विवाह और भोजन के नियमों से आबद्ध है । प्रत्येक स्वतन्त्र अन्तर्विवाही जाति समूह बहिर्विवाही गोत्रों में बँटा हुआ है ।

ये गोत्रम उसी प्रकार कई वंशमों में बँटे हुए हैं । उन उपविभागों का मुख्य कार्य वैवाहिक सम्बन्धों को नियामिक करना होता है । एक व्यक्ति को न केवल अपने से भिन्न गोत्रम , अपितु अपने से भिन्न वंशम में , ही विवाह करना होता है । इस भाँति , अन्तर्विवाही उपजातियों , गोत्रों और वंशों से मिलकर एक जाति की एक इकाई के रुप में जो संरचना उभर कर आती है उसे अगले पृष्ठ पर निर्मित रेखाचित्र द्वारा दिखाया जा सकता है ।

( 2 ) आन्तरिक गठन : सत्ता और न्याय ( Internal Structure : Authority and Justice ) शामीरपेट के आन्तरिक नियन्त्रण की दृष्टि से दो स्पष्ट इकाइयाँ दिखाई देती हैं – पहली , गाँव को सामाजिक – धार्मिक इकाई , जिसके अपने पदाधिकारी व कार्यकर्ता हैं ; दूसरी , सरकार की प्रशासनिक इकाई एवं अर्द्ध – सरकारी अधिकारीगण । सामाजिक – धार्मिक इकाई की संरचना को निम्नलिखित रूप से स्पष्ट किया जा सकता है सामाजिक – धार्मिक सत्ता एवं न्यायिक संरचना देशमुख पंचायत गनादि ( गाँव की धार्मिक गतिविधियों के आयोजक ) कुलम पेद्धा ( विभिन्न जातियों के मुखिया ) पेद्धामनषी या ईंटी पेद्धा ( परिवार का मुखिया ) देशमुख पूरे गाँव का मुखिया होता है । यह पद वंशानुगत है । एक ही परिवार के वंशज इस पद पर करीब 300 वर्षों से चले आ रहे हैं । धन , पद और सरकारी अधिकारियों से सम्पर्क के कारण देशमुख की स्थिति सर्वोपरि एवं प्रभावशाली है ।

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गाँव के समस्त समारोहों में उसे सम्मानित सम्मान मिलता है और सभी बड़े झगड़ों के निपटारा भी करता है । उसका निर्णय सर्वमान्य होता है । किन्तु यह निर्णय वह स्वयं नहीं लेता , वरन् पंचायत की सलाह पर लेता है । मई , 1951 में पंचायत में 27 लोग थे – चार गाँव के अधिकारी ( देशमुख तथा तीनों गनादि ) , गाँव में रहने वाली 17 बड़ी पंचायत के महत्त्वपूर्ण कार्य निम्न प्रकार है ( i ) छोटे दीवानी या फौजदारी झगड़ों का निपटारा ; ( ii ) गाँव के पों का कार्यक्रम तैयार करना ; ( iii ) आस – पास के गाँव में या शामीरपेट में हैजा , चेचक या प्लेग की आशंका होते ही जातियों के मुखिया और छह अन्य धनी एवं प्रभावशाली व्यक्ति । धार्मिक पूजा – पाठ की तिथि निर्धारित करना और संस्कार सम्पन्न करना ; के लिए प्रत्येक परिवार से लिए जाने वाले चन्दे की राशि तय करना ;

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 दुबे : एक ग्रामीण समुदाय की संस्कारात्मक संरचना 

किसी भी समाज में धर्म के आधार पर या सामाजिक जीवन के आधार पर अनेक संस्कार , त्योहार व समारोह आयोजित किए जाते हैं । ये पर्व , व्रत एवं त्योहार पूरे वर्ष में फैले हुए होते हैं । मनुष्य के जीवन – चक्र से सम्बन्धित भी अनेक संस्कार होते हैं । ये सभी संस्कार समाज में प्रमुख मूल्यों के रक्षक हैं और इनकी पुनरावृत्ति समाज के सदस्यों में इनमें निहित आस्थाओं को पक्का करती है और सदस्यों के आचरण को नियमित करती है । समाज की संस्कृति के वाहक ये संस्कार ही होते हैं जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में संस्कृति के हस्तान्तरण के माध्यम बन जाते हैं । ये अनेक संस्कार शुभ – अशुभ , पवित्र – अपवित्र तथा पाप – पुण्य के निर्धारक हैं । अनेक देवी – देवताओं , स्वर्ग – नर्क व जीवन और मृत्यु से ये सम्बन्धित होते हैं । किसी भी समाज के ये नानावधि संस्कार बिखरे हुए नहीं होते बल्कि धार्मिक संप्रत्ययों और आस्थाओं की डोर से बँधे एक व्यवस्थित संरचना के रूप में होते हैं । किसी समाज का अध्ययन इनके अध्ययन के बिना अधूरा है । डॉ ० श्यामाचरण दुबे की कृति एक भारतीय ग्राम का वर्णन ग्राम की सामाजिक संरचना के सन्दर्भ में किया है । इस पुस्तक में शामीरपेट की सामाजिक संरचना के अतिरिक्त अर्थव्यवस्था , धार्मिक गतिविधियाँ , पारिवारिक सम्बन्ध – सूत्र , जीवन स्तर , सामुदायिक जीवन एवं बदलते हुए स्वरूप सम्मिलित किए गए हैं । धार्मिक गतिविधियाँ संस्कारिक संरचना की मौलिक छवि प्रस्तुत करती हैं । विश्लेषण व वर्णन दोनों ही अनुपम हैं और जनजीवन के दर्पण का रूप साकार हो उठा है ।

शामीरपेट गाँव के निवासियों की धार्मिक गतिविधियाँ संस्कारात्मक संरचना का सही उदाहरण प्रस्तुत करती है । दुबे ने धार्मिक गतिविधियों का सूक्ष्म अध्ययन किया है । इस अध्ययन से एक जटिल संस्कारात्मक संरचना उभरती है । शामीरपेट प्रमुखतः एक हिन्दू ग्राम है । वहाँ मुस्लिम लोग भी रहते हैं । इसलिए दोनों के ही संस्कारों का वर्णन किया गया है । ग्रामीण संस्कारात्मक संरचना को सरलता से समझने के लिए उसे हम तीन प्रमुख भागों में विभाजित कर सकते हैं । ये संरचना के संज्ञानात्मक ( Cognitive ) , भावात्मक ( Affective ) एवं क्रियात्मक ( Conative ) पहलुओं को प्रकट करते हैं । इन तीनों को मिलाकर संरचना का समग्र रूप सामने आता है ।

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