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आधुनिकीकरण बनाम परम्परा

आधुनिकीकरण बनाम परम्परा  

      एक सामान्य धारणा आधुनिकीकरण एवं परम्परा को एक – दूसरे का विरोधी मानने की है । इन्हें एक युग्म के रूप में स्वीकार किया जाता है । रूडोल्फ एवं रूडोल्फ लिखते हैं- “ वर्तमान सामाजिक और राजनैतिक परिवर्तनों के विश्लेष्ण में आधुनिकीकरण का प्रयोग साधारणतः परम्परा के विरोधी रूप में किया गया है । पश्चिमी और गैर – पश्चिमी समानों की तुलना में भी इन दोनों अवधारणाओं का प्रयोग हुआ है । समाज की प्रगति , परिवर्तन और उद्विकास परम्परा में आधुनिकीकरण की ओर माने गये हैं । बेनडिक्स ने आधुनिक के स्थान पर विकसित तथा परम्परात्मक के स्थान पर अनुगामी शब्दों का प्रयोग किया है । यह ठीक है कि परम्परात्मक समाज वर्तमान आधुनिकृति समाजों का सामाजिक , आर्थिक , राजनैतिक , सांस्कृतिक , बौद्धिक , शैक्षणिक सभी क्षेत्रों में अनुकरण समाज में परम्पराओं का कोई महत्व नहीं है । एडवर्ड शील्स लिखते हैं , “ परम्परात्मक समाज किसी भी तरह से पूर्णतया परम्परात्मक नहीं है , आधुनिक समाज किसी तरह से परम्परामुक्त नहीं है । ‘ ‘ किसी भी आधुनिकता का निर्माण भी परम्परा के कन्धों व अनुभवों पर ही होता है । इस नाते वह भूत एवं वर्तमान के बीच एक कड़ी है । प्रो ० शील्स परम्परा व आधुनिकता को एक सातत्यता के रूप में स्वीकार करते हैं । आधुनिक समाज भी पूर्णतः आधुनिक नहीं है , विज्ञान की तरह ही आधुनिकीकरण भी खुले उद्देश्य वाला प्रक्रिया है । इसकी प्रकृति उद्विकासीय है , जो स्वतः परिवर्तित होती और आगे बढ़ती रहती है । अतः कोई भी समाज यह दावा नहीं कर सकता कि उसका पूरी तरह से आधुनिकीकरण हो गया है या वह पूरी तरह आधुनिक है ; वरन् वहाँ आधुनिकीकरण एक मात्रा में मौजूद है ।

संस्कृतिकरण एवं पश्चिमीकरण में अंतर :                      संस्कृतिकरण तथा पश्चिमीकरण की प्रकृति को देखने से स्पष्ट होता है कि यह दोनों प्रक्रियाएँ इस दृष्टिकोण से परस्पर सम्बन्धित हैं कि यह दोनों एक – दूसरे का कारण और परिणाम हैं । एक ओर पश्चिमी प्रौद्योगिकी तथा सामाजिक मूल्यों ने संस्कृतिकरण को प्रोत्साहन दिया , जबकि दूसरी ओर , संस्कृतिकरण में वृद्धि होने से पश्चिमी संस्कृति के मूल्यों का अधिक तेजी से प्रसार होने लगा । इसके बाद भी एम ० एन ० श्रीनिवास ने संस्कृतिकरण तथा पश्चिमीकरण की अवधारणा से संबंधित अनेक भिन्नताओं को स्पष्ट किया है ।

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  1. संस्कृतिकरण एक स्वदेशी अथवा आंतरिक प्रक्रिया है जो भारत की परम्परागत सामाजिक संरचना में होने वाले आन्तरिक परिवर्तनों को स्पष्ट करती है । दूसरी ओर , पश्चिमीकरण एक विदेशी प्रक्रिया है तथा इसका संबंध इन बाह्य प्रभावों से है जिन्होंने हमारे समाज में अनेक परिवर्तन उत्पन्न किये ।

  1. संस्कृतिकरण की प्रक्रिया का क्षेत्र सीमित है क्योंकि यह केवल जातिगत गतिशीलता से ही संबंधित है । पश्चिमीकरण एक व्यापक प्रक्रिया है जिसने भारतीय जीवन के सभी पक्षों को किसी न किसी रूप में प्रभावित किया है ।

  1. मूल रूप से संस्कृतिकरण का आधार धार्मिक है । इसके द्वारा निम्न जातियाँ उच्च जातियों के धार्मिक कर्मकाण्डों और पवित्रता संबंधी आचरणों को अपनाकर अपनी स्थिति को ऊँचा उठाने का प्रयत्न करती है । इसके विपरीत , पश्चिमीकरण का आधार लौकिक और वैज्ञानिक है ।

  1. संस्कृतिकरण तथा पश्चिमीकरण के मूल्यों की प्रकृति भी एक – दूसरे से भिन्न है । संस्कृतिकरण के मूल्य हिन्दुओं की वृहत् परम्पराओं को प्रोत्साहन देते हैं तथा मांस और मदिरा के 

प्रयोग को अपवित्र मानकर उन पर रोक लगाते हैं , पश्चिमीकरण के मूल्य इस अर्थ में आधुनिक है कि यह व्यक्तिगत स्वतंत्रता , समानता , सामाजिक न्याय और तर्कपूर्ण व्यवहारों को अधिक महत्त्व देते हैं । –

  1. संस्कृतिकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जो निम्न जातियों तथा जनजातियों में उच्च जातियों की जीवन शैली के समान होने वाले परिवर्तनों को स्पष्ट करती है । दूसरे शब्दों में , इसका प्रभाव निम्न जातियों तथा जनजातियों तक ही सीमित होता है । दूसरी ओर , प्रभाव के दृष्टिकोण से पश्चिमीकरण एक व्यापक प्रक्रिया है क्योंकि इसने भारतीय समाज में सभी वर्गों , जातियों तथा समुदायों के जीवन को प्रभावित किया है ।

  1. विभिन्न क्षेत्रों में संस्कृतिकरण के आदर्श एक – दूसरे से भिन्न होते हैं । किसी क्षेत्र में इसका संबंध उच्च जातियों की जीवन शैली के अनुकरण से है तो किसी क्षेत्र में प्रभु जाति के रूप में कोई पिछड़ी या निम्न जाति भी संस्कृतिकरण का आदर्श हो सकती है । दूसरी ओर , पश्चिमीकरण का एक ही आदर्श है अर्थात् पश्चिमी जीवन शैली तथा मूल्यों को ग्रहण करना ।

  1. संस्कृतिकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जो जातीय संस्तरण में व्यक्ति की स्थिति में पदमूलक , परिवर्तन करती है । इस प्रकार संस्कृतिकरण से उदग्र गतिशीलता को प्रोत्साहन मिलता है । इसके विपरीत , पश्चिमीकरण के प्रभाव से लोगों को जातीय प्रस्थिति में किसी तरह का परिवर्तन नहीं होता ।

  1. भारतीय इतिहास में संस्कृतिकरण की प्रक्रिया किसी न किसी रूप में सदैव विद्यमान रही है । इसके विपरीत , पश्चिमीकरण की प्रक्रिया का आरम्भ ब्रिटिश शासन के समय से हुआ तथा स्वतंत्रता के बाद इसमें अधिक तेजी से वृद्धि हुई ।

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