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आदर्शात्मक अथवा मानवीय उपागम

आदर्शात्मक अथवा मानवीय उपागम

2023 NEW SOCIOLOGY – नया समाजशास्त्र
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आदर्शात्मक उपागम के समर्थकों का कहना है कि राजनीति के अध्ययन का एक विशेष उद्देश्य है और यह उद्देश्य ठीक प्रकार से कार्य करने, सबसे अǔछे का चयन करने तथा साथियों के साथ अचछी तरह रहने  के  योग्य  क्षमताओं  का  विकास  करना  है।  इस  सब  में  अचछे-बुरे  तथा  मूल्यांकन  का  सहारा  लेना पड़ता है। इन विद्वानों ने यह विचार भी प्रस्तुत किया है कि विज्ञान का अर्थ विस्तृत रूप में लिया जाना चाहिए तथा मूल्य-निर्णयों ;टंसनम रनकहमउमदजेद्ध को भी विज्ञान में ही सम्मिलित किया जाना चाहिए।

 

 

आदर्शात्मक अथवा मानवीय  उपागम, जैसा कि इसके  नाम  से स्पष्ट  है, आनुभविक  अध्ययनों  पर  बल  न देकर आदर्शो, प्रतिमानों अथवा संस्थाओं के अध्ययन पर बल देता है। राजनीतिशास्त्र में ‘आदर्श’ शब्द का प्रयोग  दो  अर्थो  में  किया  जाता  है-  प्रथम,  राजनीतिशास्त्र  प्रमुख  रूप  से  विभिन्न  प्रकार  के  आदर्शो  या प्रतिमानों से सम्बन्धित है तथा द्वितीय, राजनीतिशास्त्र इस अर्थ में भी आदर्शवादी है कि यह शासकों तथा नागरिकों को उनके व्यवहार के बारे में सलाह भी देता है। मुख्य रूप से आदर्शो, राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय विधि के नियमों, व्यक्तियों तथा राज्यों के अधिकारों तथा निर्णायकों ;क्मबपेपवद.उंशमतेद्ध  को सलाह देने से सम्बन्धित  होने  तथा  नियम-निर्माण  की  समस्या  को  एक  पृथक्  दृष्टिकोण  प्रदान  करने  के  कारण  इस परम्परागत उपागम को कभी-कभी भावमूलक ;प्कमवहतंचीपबद्ध उपागम भी कहा गया है।

आदर्शात्मक  उपागम  निगमनात्मक  पद्धति  पर  आधारित  है  क्योंकि  इसमें  कुछ  आधार-वाक्यों

;च्तमउपेमेद्ध  को केन्द्र-बिन्दु मानकर अध्ययन किया जाता है तथा इन आधार-वाक्यों को तर्क की प्रक्रिया

द्वारा  राज्य,  शासन,  राजनीतिक  संस्थाओं  अथवा  नागरिकों  के  राजनीति  व्यवहार  लागू  करके  इनसे सम्बन्धित  ‘सिद्धान्त’  बनाने  का  प्रयास  किया  जाता  है।  प्रारम्भ  में  राजनीतिशास्त्र  इतिहास,  नीतिशास्त्र ;म्जीपबेद्ध,  दर्शनशास्त्र तथा विधिविज्ञान ;स्ंूद्ध  से अत्यधिक प्रभावित था। अतः प्लेटो से लेकर वर्के तक विभिन्न विद्वानों ने इस प्रभाव के कारण इतिहास, दर्शनशास्त्र एवं विधिविज्ञान के आधार-वाक्यों का प्रयोग राजनीतिक, सिद्धान्त बनाने के लिये किया, इसी कारण आदर्शात्मक उपागम को ही राजनीतिक स्थितियों के  अध्ययन  में  महत्वपूर्ण  स्थान  दिया  गया  क्योंकि  इस  उपागम  द्वारा  किये  जाने  वाले  अध्ययन  में राजनीतिक वास्तविकता की  उपेक्षा की जाती है अतः यह आनुभविक एवं वैज्ञानिक अध्ययनों में सहायक नहीं होता। प्लेटो, अरस्तू, कान्त, हीगेल, फिक्टे, ग्रीन, बैडले, थाॅमस मोर, बोसांके तथा सिजविक इत्यादि विद्वानों ने इस उपागम को समर्थन प्रदान किया है।

 

 

  1. इन विद्वानों का विचार है कि सभी सामाजिक विज्ञान आदर्शात्मक  होते  हैं;  इसलिए  आदर्शात्मक  उपागम  ही  इन  विज्ञानों  में  अध्ययन  का  प्रमुख  उपागम  होना चाहिए। इन चिन्तकों का यह भी विचार है कि राजनीति में तथ्य तथा मूल्य इस प्रकार आपस में जुड़े हुए होते हैं कि इनको एक-दूसरे से भिन्न करना अत्यन्त कठिन कार्य है। राजनीति के बारे में कोई भी विस्तृत सिद्धान्त राजनीतिक स्थितियों के नैतिक मूल्यों तथा उनके मूल्यांकन के बिना नहीं बनाया जा सकता, अतः राजनीति के बारे में पूर्ण वस्तुनिष्ठ सिद्धान्त के बारे में सोचना भी केवल एक भ्रम है।

 

 

  1. संक्षेप में आदर्शात्मक उपागम की निम्नांकित प्रमुख मान्यताएं हैं:

 

 

    1. मूल्यों से सम्बन्धित होने के कारण राजनीति का आनुभविक अध्ययन करना और वस्तुनिष्ठ सिद्धान्त का निर्माण करना सम्भव नहीं है।

 

    1. राजनीति के अध्ययन का एक निश्चित उद्देश्य शासकों एवं नागरिकों को उनके आदर्श व्यवहार के बारे में सलाह देना है।
    2. यह काल्पनिक विचारधारा अथवा आधार-वाक्यों पर आधारित है तथा निगमनात्मक पद्धति पर बल देता है।

 

 

    1. सभी सामाजिक विज्ञान आदर्शात्मक होते हैं, अतः हमें केवल आदर्शो, प्रतिमानों अथवा संस्थाओं का ही अध्ययन करना चाहिए।

 

 

 

  1. आदर्शात्मक  उपागम  को  यद्यपि  राजनीतिक  समाजशास्त्र  में  एक  ऐसा  पारस्परिक  उपागम  माना गया है जिसकी आज कोई अधिक उपयोगिता नही रह गई है, फिर भी हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि प्लेटो  तथा  हीगेल  जैसे  महान्  विचारकों  की  कृतियाँ  आज  भी  आधुनिक  राजनीतिक  समाजशास्त्र  तथा राजनीतिशास्त्र के पठन-पाठन में महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं। यह भी नहीं समझना चाहिए कि इस उपागम द्वारा राजनीतिक तथ्यों का परीक्षण किये बिना ही निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं।

 

  1. एलेन बाल के अनुसार प्लेटो की ‘दार्शनिक शासक’ की खोज तथा हाॅब्स के ‘लिवेथान’ का उतना ही महत्व है जितना कि अरस्तू के ग्रीक नगर-राज्यों के संविधान के विशद् संकलन का अथवा  मैकियावली के उस राजनीतिक परामर्श का, जो उसने राजनीतिक तथ्यों के परीक्षण व इटली की पुनर्जागरण-कालीन राज्यों की सरकारों में भाग लेने के  बाद दिया  था। इतना ही नहीं, आदर्शवादी  विचारकों  ने जिन  प्रश्नों को  उठाया  है,  वे आज  भी

 

 

 

  1. व्यक्तियों के जीवन की रक्षा करने के लिए विद्यमान है। राज्य का उद्देश्य नागरिकों में नैतिक व्यक्तित्व का विकास करना है। इस प्रकार राजनीति में नैतिकता का प्रवेश तथा इसे आदर्शो एवं प्रतिमानों
  2. द्वारा समझने का श्रेय प्लेटो और अरस्तू को ही दिया जाता है। इनका विचार था कि नैतिक जीवन तथा नागरिक स्वतंत्रता राज्य द्वारा ही सम्भव होती है।

 

  1. प्लेटो तथा अरस्तू के विचारों को आगे बढ़ाने का श्रेय रूसों को दिया जाता है। इन्होंने भी राज्य की तुलना एक सावयव से की है तथा राज्य का सामान्य लक्ष्य ‘सार्वजनिक कल्याण’ करना बताया है। रूसों के अनुसार, राज्य में रहकर ही मानव का बौद्धिक एवं अध्यात्मिक विकास सम्भव है। कान्त तथा हीगेल ने भी राज्य को एक आदर्श संस्था माना है। इनके अनुसार नागरिकों का कत्र्तव्य राज्य की सेवा करना है न कि  सत्ता  के  विरूद्ध  क्रान्ति  करना।

 

  1. कान्त  व्यक्तिगत  स्वतंत्रता  के  सबल  विरोधी  नहीं  थे,  परन्तु  इनका कहना  था  कि  स्वतंत्रता  से  अभिप्राय  सार्वजनिक  हित  में  कार्य  करना  है  न  हि  अपनी  इǔछानुसार  कार्य करना। हीगेल ने आदर्शवाद को और अधिक उग्र प्रदान करते हुए यह कहा है कि राज्य पृथ्वी पर ईश्वर का अवतरण है। राज्य क्योंकि ईश्वरीय देन है इसलिए गलती नहीं कर सकता। राज्य सर्वशक्तिशाली है तथा इसकी ही इǔछा व्यक्तियों की सही इǔछा है। ग्रीन ने यद्यपि राज्य को एक स्वाभाविक तथा आवश्यक वस्तु माना है, फिर भी, वे इसे निरंकुश बनाने के पक्ष में नहीं थे, इसलिए इन्होंने राज्य पर नियंत्रण लगाने का समर्थन किया।
  2. आदर्शात्मक उपागम व्यक्तियों, समूहों तथा व्यक्तियों द्वारा निर्मित संस्थाओं के व्यवहार के अध्ययन से अधिक उपयोगी नहीं है।    इसमें वास्तविकता का अध्ययन न करके केवल आदर्शो तथा मान्यताओं को ही महत्व दिया जाता है। आनुभविक न होने के कारण इसकी तुलनात्मक उपयोगिता भी सीमित है। वास्तव में यह उपागम काल्पनिक

 

 

  1. विचारधारा अथवा आधार-वाक्यों पर बल देता है जिनका मानव
  2. समाज में यथार्थ राजनीतिक व्यवहार से कोई सम्बन्ध नहीं है। इसीलिए व्यवहारिक जीवन में इसकी कोई उपयोगिता नहीं है।         इस उपागम के समर्थक राज्य तथा समाज को एक ही संस्था मानते हैं जोकि वास्तव में ठीक नहीं है। आज यह स्पष्ट हो चुका है कि राज्य तथा समाज दो भिन्न तत्व हैं। साथ ही, राज्य  को  सर्वसत्ताधारी  मानना  तथा  इसको  सर्वोǔच  स्थान  देना  भी  उचित  नहीं  है।  राज्य  को  पूर्ण  और दोषरहित मानना भी भ्रामक है।

 

 

 

 

 

 

  1. प्रजातांत्रिक व्यवस्था।
  2. सर्वाधिकावादी व्यवस्था

 

 

प्रजातांत्रिक तथा सर्वाधिकावादी व्यवस्था के अविर्भाप तथा स्थायित्व सहायक सामाजिक आर्थिक दशाएँ।

 

 

प्रजातन्त्र का  शाब्दिक अर्थ  जनता का  शासन  है। अर्थात  जनता अपना प्रतिनिधित्व स्वयं करे या अपना कोई ऐसा प्रतिनिधी चुने जो सुरक्षा व्यवस्था के साथ शासन व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाये।

 

 

विभिन्न विद्वानों ने प्रजातंत्र की निम्नलिखित परिभाषायें दी हैं-

 

 

 

    1. लेविस  के  अनुसार  –  ‘‘प्रजातंत्र मुख्य रूप से  वह सरकार है जिसमें सम्पूर्ण राष्ट्र की बहुसंख्यक जनता सम्प्रभु शक्ति के प्रयोग से भाग लेती है।’’

 

    1. हाल  के  अनुसार  –  ’’प्रजातंत्र  राजनैतिक  संगठन  का  वह  स्वरूप  है  जिसमें जनमत का नियंत्रण रहता है।’’

 

    1. लिंकन  के  अनुसार  –  ‘‘प्रजातंत्र  का  अर्थ  जनता  की,  जनता  के  लिए  और जनता द्वारा सरकार है।’’

 

उपरोक्त  परिभाषाओं  से  स्पष्ट  है  कि  प्रजातंशत्रिक  व्यवस्था  एक  ऐसी व्यवस्था  है  जिसमें  स्वंम  जनता  अपना अतिनिधी  चुनता  है  और  सर्वसम्मती  से बनाये गये शासन प्रमाणलियों से हिस्सा लेता है। एक सरकार से खुद शासन करता है।

 

 

 

 

 

 

प्रजातांत्रिक व्यवस्था

 

 

 

    1. वर्तमान में प्रजातन्त्र व्यवस्था को सबसे अच्छी  शासन प्रणाली माना जाता है।  प्रजातन्त्र  व्यवस्था  सर्वाधिक  रूप  से  स्वीकार  की  जाने  वाली  प्रणाली  है। इसके  आदर्शों  एवं  स्वरूप  की  सराहना  हर  व्याक्ति  करता  है।  प्रजातांत्रिक व्यवस्था में शासन सत्ताओं का स्वरूप में बदलाव आया है। प्रजातात्रिक व्यवस्था राजनैतिक  व  सामाजिक दोनों  पक्षों  से  जुडी हुयी व्यवस्था है।

 

    1. प्राजातात्रिक व्यवस्था एक राजनीतिक सामाजिक व्यवस्था है। समाज में व्यक्ति के सुखी रहने न्याय अधिकार कत्र्तव्यों सुरक्षा तथा कल्याण के लिए कई व्यवस्थाऐ संस्थाए प्रचलित रही है। उन्ही में से प्रजातांित्रक व्यवस्था भी एक है।
    2. ये व्यवस्था अन्य व्यवस्थाओं से सर्वाधिक प्रचलित व्यवस्था है।

 

 

 

    1. प्रजातात्रिक व्यवस्था एक ऐसी व्यवस्था है जिसमे जनता द्वारा चुने गये कुछ लोगों द्वारा बनायी गयी ऐसी व्यवस्था जिसमें उनकी सुरक्षा व्यवस्था जाति भाव, धर्म, लिंग के लोगों को समान रूप से स्वतन्त्र व समाजिक न्याय पा सके इस  प्रकार  के  मूल्यों  नियमों  से  परिपूर्ण  इस  व्यवस्था  का  हम  लोकतांत्रिक व्यवस्था कह सकते है।

 

 

 

  1. ईस्टन  व्यवस्थात्मक  उपागम  द्वारा राजनीतिक  व्यवस्थाओं  के  विश्लेषकों  की  श्रेणी  में सबसे  प्रमुख  विद्वान माने  जाते  हैं।  इनके  अनुसार  राजनीतिक  व्यवस्थाओं  तथा  अन्य  व्यवस्थाओं  में  कुछ  आधारभूत  सामान्य विशेषताएँ पायी जाती हैं। सबसे प्रमुख विशेषता परिवर्तनों तथा कठिनाइयों का सामना करने की क्षमता है। राजनीतिक व्यवस्था अन्य व्यवस्थाओं की तरह ‘स्वनियन्त्रित’ व्यवस्था है अर्थात् इसमें ऐसे यन्त्र पाये जाते हैं जो परिवर्तन अथवा अन्य किसी कठिनाई के समय व्यवस्था में पुनः सामंजस्य बना देते हैं।

 

  1. दूसरे शब्दों में, यह कहा जा सकता है कि राजनीतिक व्यवस्थाओं में पर्यावरण द्वारा उत्पन्न तनाव से जूझने की क्षमता पायी जाती है। यह बात अलग है कि इस क्षमता का प्रयोग प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था एक समान रूप से नहीं कर पायी है। ईस्टन के अनुसार, राजनीतिक व्यवस्था में पुननिर्वेशन के यन्त्र पाये जाते हैं जोकि व्यवस्था को सकारात्मक एवं नकारात्मक प्रकृति की सूचनाएँ देते रहते हैं। ये यन्त्र व्यवस्था में निर्णयों के प्रति उत्पन्न प्रतिक्रिया की सूचना भी देते रहते हैं।

 

  1. डेविड  ईस्टन  ने अपनी पुस्तक में

राजनीतिक व्यवहार का अध्ययन इस उपागम द्वारा दिया है। आप टालकट पारसंस से अत्यधिक प्रभावित रहे, जिन्होंने समाजशास्त्र में ‘सामाजिक व्यवस्था’ के  संप्रत्यय को  यथाविधि सैद्धान्तिक  रूप से विकसित किया।  ईस्टन  के  अनुसार  व्यवस्थात्मक  उपागम  वह  ”विश्लेषणात्मक  ढाँचा  (अथवा  सिद्धान्त)  है  जो  यह व्याख्या करता है कि कोई व्यवस्था केवल अपने-आपको बनाये रखकर ही नहीं अपितु अगर आवश्यक हो तो पर्यावरण के तनाव के प्रति अपनी संरचना का अनुकूलन करके भी अपना अस्तित्व कैसे बनाये रखती है।

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