अनुसूचित जनजातियों की समस्याएं
( PROBLEMS OF SCHEDULED TRIBES )
दुर्गम निवास स्थान एक समस्या ( Unapproach able Habitation – A Problem ) लगभग सभी जनजातियां पहाडी भागों , जंगलों , दलदल – भूमि और ऐसे स्थानों में निवास करती हैं जहां सड़कों का अभाव है और वर्तमान यातायात एवं संचार के साधन अभी वहां उपलब्ध नहीं हो पाये हैं । इसका परिणाम यह हुआ है कि उनसे सम्पर्क करना एक कठिन कार्य हो गया है । यही कारण है कि वैज्ञानिक आविष्कारों के मधुर फल से वे अभी अपरिचित ही हैं और उनकी आर्थिक , शैक्षणिक , स्वास्थ्य सम्बन्धी एवं राजनीतिक समस्याओं का निराकरण नहीं हो पाया है । वे अन्य संस्कृतियों से भी अपरिचित हैं । परिणामस्वरूप उनका अपना विशिष्ट जीवन – दृष्टिकोण ( Way of Life ) बन गया है जिसमें व्यापकता का अभाव है । दुर्गम निवास के कारण संचार की समस्या पैदा हुई है । सड़क , डाकखाना , तारघर , टेलीफोन , समाचारपत्र , रेडियो और सिनेमा की सुविधाएं इन क्षेत्रों में नहीं पहुंच पायी हैं , अतः इनका । आधुनिकीकरण नहीं हो पाया है और देश के साथ एकता के सूत्र में बंध पाने में बाधा उपस्थित हुई है ।
सांस्कृतिक सम्पर्क की समस्या ( Problem of Cultural Contact ) भौगोलिक दृष्टि से आदिवासियों का निवास स्थान दुर्गम होने के परिणामस्वरूप उनका आधुनिक सस्कृति से सम्पर्क नहीं हो पाया और वे वर्तमान प्रगति की दौड़ में बहुत पिछड़ी हुई हैं । दूसरी ओर कुछ आदिवासी संस्कृतियों का बाह्य सस्कृतियों से सम्पर्क बहत हुआ । इस अत्यधिक सम्पर्क ने भी कई समस्याएं खड़ी कर दी हैं । आदिवासियों में सांस्कृतिक सम्पर्क की समस्याओं को जन्म देने हेतु कई कारण उत्तरदायी हैं । नवीन संस्कृतियों के सम्पर्क ने भोले आदिवासियों को अपनी । आकर्षित किया . किन्त आदिम एवं नवीन संस्कृतियों के अन्तर है कि वे नवीन से अनुकूलन नहीं कर पाये । बाह्य स्वार्थी समूह जैसे व्यापारी , ठेकेदार एवं सूदखोरों ने इन लोगों में बसकर इनके बीच नवीन पारिवारिक तनावों , आर्थिक समस्याओं और शारीरिक रोगों को जन्म दिया है । नवीन प्रशासन ने उनका सम्पर्क पुलिस अधिकारियों , प्रशासन एवं वन अधिकारियों , आदि से कराया , जिन्होंने आदिवासियों को सहानुभूति से देखने की अपेक्षा हीन भावना से देखा है । वर्तमान में कई नये उद्योग – धन्धों , खानों एवं चाय – बागानों का कार्य उन स्थानों पर होने लगा है , जहां आदिवासी लोग निवास करते थे । इसके फलस्वरूप वे नवीन औद्योगिक एवं शहरी संस्कृति के सम्पर्क में आये , किन्तु इस नवीनता से अनुकूलन करने में वे असमर्थ रहे . परिणामस्वरूप नवीन सांस्कतिक समस्याओं ने जन्म लिया । ईसाई मिशनरियों ने सेवा के नाम पर अपने धर्म प्रचार का कार्य किया और आदिवासियों के अज्ञान और अशिक्षा का लाभ उठाया । ईसाई मिशनरियों के प्रभाव के कारण अनेक आदिवासियों ने अपनी संस्कृति को त्यागकर पाश्चात्य संस्कृति को अपनाया । वे अंग्रेजी पोशाक , मादक वस्तुएं , प्रसाधन के नवीन साधनों जैसे पाउडर , लिपिस्टिक , इत्र , तेल , आदि का प्रयोग करने लगे एवं अपने रति – रिवाजों , प्रथाओं , युवा – गृहों को त्यागने लगे और उनकी प्राचीन ललित कला का ह्रास होने लगा । जनजाति कानून एवं न्याय का स्थान नवीन कानून एवं न्याय ने ले लिया है जो उनके परम्परात्मक मूल्यों से मेल नहीं खाते । बाह्य सांस्कृतिक समूह जिनका सम्पर्क आदिवासियों से हुआ , उनमें हिन्दू भी हैं । हिन्दुओं के सम्पर्क के कारण इन लोगों में बाल – विवाह की प्रथा पनपी एवं भाषा की समस्या ने जन्म लिया । इस प्रकार आदिवासियों के बाह्य सांस्कृतिक समूहों से सम्पर्क के कारण अनेक समस्याएं पनपी जैसे भूमि व्यवस्था की समस्या , जंगल की समस्या , आर्थिक शोषण एवं ऋणग्रस्तता , औद्योगिक श्रमिकों की समस्या , बाल – विवाह , वेश्यावृत्ति एवं गुप्त रोग , भाषा समस्या , जनजातीय ललित – कला का ह्रास , खान – पान एवं पहनावे की समस्या और शिक्षा एवं धर्म की समस्या , आदि – आदि ।
आर्थिक समस्याएं ( Economic Problems ) वर्तमान सांस्कृतिक सम्पर्क के कारण एवं नवीन सरकारी नीति के कारण जनजातीय लोगों को आर्थिक समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है । भूमि सम्बन्धी सरकार की नयी नीति के कारण जंगलों को काटना मना कर दिया गया , अनेक क्षेत्रों में शिकार करने व शराब बनाने पर भी नियन्त्रण लगा दिया गया , जिसके कागा आदिवासियों को जीवनयापन के परम्परात्मक तरीकों के स्थान पर नवीन तरीके अपनाने पड़े । उन्हें जंगलों से लकड़ी काटने , स्थानान्तरित खेती करने एवं अन्य वस्तुओं को प्राप्त करने की मनाही कर दी गयी । वे बाध्य होकर अपने मूल निवास को त्याग कर चाय बागानों , खानों और फैक्ट्रियों में कार्य करने के लिए चले गये । अब वे भूमिहीन कृषि श्रमिकों एवं औद्योगिक श्रमिकों के रूप में कार्य करने लगे । इन लोगों की मजबूरी का लाभ उठाकर ठेकेदार एवं उद्योगपति इनसे कम मजदूरी पर अधिक काम लेने लगे । इन लोगों के निवास और कार्य करने की दशाएं भी शोचनीय हैं । इस प्रकार से इनका आर्थिक शोषण किया गया है । पहले इन लोगों की अर्थव्यवस्था में वस्तु विनिमय प्रचलित था , अब वे मुद्रा अर्थव्यवस्था से परिचित हुए । इसका लाभ व्यापारियों , मादक वस्तुओं के विक्रेताओं और सूदखोरों ने उठाया और भोले – भाले आदिवासियों को खुब ठगा । वे ऋणग्रस्त हो गये और अपनी कृषि भूमि साहूकारों के हाथों या तो बेच दी है या गिरवी रख दी है । जो जनजातियां कषि में लगी हुई हैं , उनमें से कछ स्थानान्तरित कृषि करती हैं । वे पहले जंगलों में आग लगा देते हैं और फिर उस भूमि पर कार्य करते हैं । कुछ दिनों बाद वह भूमि खेती योग्य नहीं रहती तो उसे छोड़कर दूसरे स्थान पर र भी इसी प्रकार से कृषि करते हैं । इसका परिणाम यह होता है कि भूमि का कटाव बढ़ जाता है , जंगलों में कीमती लकड़ी जल जाती है और उपज भी कम होती है । जनजातियों की आर्थिक समस्या कृषि समस्या से जुड़ी हुई है । पहाडी क्षेत्रों में रहने के कारण कृषि – योग्य भूमि का इनके पास अभाव है । यही नहीं इनके पास उन्नत पशु , बीज , औजार एवं पूंजी का भी अभाव है , अतः इनके लिए कृषि अधिक लाभप्रद नहीं है ।
सामाजिक समस्याएं ( Social Problems ) शहरी और सभ्य समाजों के सम्पर्क के कारण आदिवासियों में कई सामाजिक समस्याओं ने भी जन्म लिया है । पहले इन लोगों में विवाह युवा अवस्था में ही होता था , किन्तु अब बाल – विवाह होने लगे हैं जो हिन्दुओं के सम्पर्क का परिणाम है । मुद्रा अर्थव्यवस्था के प्रवेश के कारण अब इनमें कन्या मूल्य भी लिया जाने लगा है । सभ्य समाज के लोग जनजातियों में प्रचलित बालत युवा – गृहों को हीन दृष्टि से देखते हैं । युवा – गृह आदिवासियों में मनोरंजन , सामाजिक प्रशिक्षण , आर्थिक हितों की पूर्ति का साधन दे एवं शिक्षा का केन्द्र था , किन्तु अब यह संस्था समाप्त हो रही है उ जिसके फलस्वरूप कई हानिकारक प्रभाव पड़े हैं । जनजातियों की निर्धनता का लाभ उठाकर ठेकेदार , साहूकार , व्यापारी एवं प्र कर्मचारी उनकी स्त्रियों के साथ अनुचित यौन सम्बन्ध स्थापित कर लेते हैं जिससे वेश्यावृत्ति तथा बाह्य विवाह यौन सम्बन्ध ( Extra – marital sex relations ) की समस्याएं पनपी हैं ।
स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याएं ( Problems Related to Health ) अधिकांशतः जनजातियां घने जंगलों , पहाडी भागों एवं तराई क्षेत्रों में निवास करती हैं । इन भागों में अनेक बीमारियां पायी जाती हैं । गीले एवं गन्दे कपड़े पहने रहने कारण इनमें कई चर्म रोग हो जाते है । इन लोगों में मलेरिया पीलिया , चेचक , रोहे , अपच एवं गुप्तांगों की बीमारियां भी पायी जाती हैं । बीमारियों के इलाज के लिए चिकित्सालयों का अभाव है , डॉक्टर एवं आधुनिक दवाओं की सुविधाएं नहीं हैं । ये लोग जंगली जड़ी – बूटियों , झाड़ – फूंक एवं जादू – टोने का प्रयोग कर हैं । अधिकांश आदिवासी स्वास्थ्य के नियमों से अनभिज्ञ हैं । उन्हें पौष्टिक भोजन भी उपलब्ध नहीं हो पाता । ये लोग महुआ , चावल , ताड़ , गुड़ , आदि की शराब का प्रयोग करते रहे हैं । उसके स्थान पर अब अंग्रेजी शराब का प्रयोग करने लगे हैं जो अधिक हानिकारक है । सन्तुलित आहार एवं विटामिन युक्त भोजन के अभाव में भी इन लोगों का स्वास्थ्य दिनों – दिन गिरता जा रहा है । परिणामस्वरूप इनकी कार्यकुशलता एवं क्षमता में कमी आयी है । कई जनजातियों की तो जनसंख्या नष्ट हो रही है । अण्डमान एवं निकोबार की जनजातियों की जनसंख्या घटने का सबसे बड़ा कारण उनमें व्याप्त बीमारी है ।
शिक्षा सम्बन्धी समस्याएं ( Problems Related to Education ) – जनजातियों में शिक्षा का अभाव है और वे अज्ञानता के अन्धकार में पल रही हैं । अशिक्षा के कारण वे अनेक अन्धविश्वासों , कुरीतियों एवं कुसंस्कारों से घिरे हुए हैं । आदिवासी लोग वर्तमान शिक्षा के प्रति उदासीन हैं क्योंकि यह शिक्षा उनके लिए अनुत्पादक है । जो लोग आधुनिक शिक्षा ग्रहण कर लेते हैं वे अपनी जनजातीय संस्कृति से दूर हो जाते हैं और अपनी मूल संस्कृति को घृणा की दृष्टि से देखते हैं । आज की शिक्षा जीवन निर्वाह का निश्चित साधन प्रदान नहीं करती । अतः शिक्षित व्यक्तियों को बेकारी का सामना करना पड़ता है । ईसाई मिशनरियों ने जनजातियों में शिक्षा प्रसार का कार्य किया है , किन्तु इसके पीछे उनका उद्देश्य ईसाई धर्म का प्रचार करना और आदिवासियों का धर्म परिवर्तन करना रहा है । अधिकांश आदिवासी प्राथमिक शिक्षा ही ग्रहण कर पाते हैं , उच्च प्राविधिक एवं विज्ञान की शिक्षा में वे अधिक रुचि नहीं रखते ।
राजनीतिक चेतना की समस्या ( Problem of Political Awakening ) स्वतन्त्रता के बाद संविधान के द्वारा देश के सभी नागरिको को प्रजातान्त्रिक अधिकार प्रदान कर उन्हें शासन में हिस्सेदार बना दिया गया है । आज पंचायत से लेकर संसद तक के प्रतिनिधि आम जनता द्वारा चुने जाते हैं । प्रजातन्त्र में राजनीतिक दल महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । – जनजातियों की परम्परागत राजनीतिक व्यवस्था अपने ही ढंग की थी जिनमें अधिकांशतः वंशानुगत मुखिया ही प्रशासन कार्य करते थे । उनकी सम्पूर्ण राजनीतिक व्यवस्था में प्रदत्त अधिकारों एवं नातेदारी का विशेष महत्व था , किन्तु आज वे नवीन राजनीतिक व्यवस्था से परिचित हुए हैं । उन्हें भी मताधिकार प्राप्त हापअपना सामाजिक – आर्थिक समस्याओं के प्रति सजग हा ने अपने राजनीतिक अधिकारों का प्रयोग अपनी समस्याओं के समाधान के सन्दर्भ में करने लगे हैं । मध्य प्रदेश , आन्ध्र प्रदेश . असोम , बिहार , पश्चिम बंगाल एवं तमिलनाडु में इनकी राजनीतिक जागरूकता के कटु परिणाम निकले हैं । प्रशासकों , भस्वामियों एवं अजनजाति लोगों से उनके सम्बन्ध तनावपूर्ण हए हैं । कई स्थानों पर राजनीतिक तनाव एवं विद्रोह पनपा है । उन्होंने स्वायत्त राज्य की मांग की है । आज वे इस बात को समझते हैं कि उनकी अल्प संख्या की मजबूरी का लाभ अजनजाति समूहों ने उठाया है और उनका शोषण किया है । इस शोषण के प्रति उनमें तीव्र आक्रोश है जो यदाकदा भड़कता रहता है । यह राजनीतिक जागृति भविष्य में उग्र रूप धारण न करले , इससे राजनेता चिन्तित हैं ।
सबसे कमजोर कड़ी का पता लगाना ( To Find out the Weakest Link ) अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के आयुक्त ने अपने 1967 – 68 के वार्षिक प्रतिवेदन में जनजातियों की एक समस्या सबसे कमजोर कड़ी का पता लगाना बताया है । देश की अनुसूचित जनजातियां गरीबी से त्रस्त हैं , किन्तु कुछ जनजातियां ऐसी हैं जो अपेक्षतया अधिक गरीब हैं । इसी प्रकार से जनजातियां उपेक्षित रही हैं , किन्तु कुछ जनजातियां सबसे अधिक उपेक्षित रही हैं । अतः सबसे बड़ी समस्या यह है कि सबसे अधिक गरीब एवं उपेक्षित जनजाति का पता लगाया जाय जो कि जनजातियों की सबसे कमजोर कड़ी है । इस कमजोर कड़ी के विकास एवं उन्नति के लिए विशेष कार्यक्रम बनाकर उनकी आवश्यकताओं को पूरा किया जाय । जनजाति आयुक्त ने विभिन्न राज्यों में ऐसी कमजोर कड़ी का पता लगाया है । गुजरात में चारण , दुबला , नई कड़ा और बरली जनजातियां ; मध्य प्रदेश में बैगा , गौंड , मारिया , भूमिया , कमार तथा मवासी जनजातियां ; उत्तर प्रदेश में भोटिया , जानसारी , थारू जनजातियां ; राजस्थान में भील , डाभोर और हरिया जनजातियां सबसे कमजोर कड़ी के अन्तर्गत आती हैं । कमजोर कड़ी वाली जनजातियों की समस्या अन्य जनजातियों की तुलना में भीषण एवं गम्भीर है ।
एकीकरण की समस्या ( Problem of Integral tion ) – भारतीय जनजातियों में अर्थव्यवस्था , समाज – व्यवस्था , संवैधानिक व्यवस्थाएं तथा कल्याण योजनाएं 431 ३ संस्कृति , धर्म एवं राजनीतिक व्यवस्था के आधार पर अनेक भिन्नताएं पायी जाती हैं । वे देश के अन्य लोगों से पृथक् हैं । आज आवश्यकता इस बात की है कि देश एवं जनजातियों की विशिष्ट समस्याओं से मुक्ति पाने के लिए सभी देशवासियों द्वारा सामूहिक प्रयास किये जायें । जनजातियां अपने को अन्य लोगों से पृथक् न समझकर देश की मुख्य जीवनधारा से जोड़ें , तभी हम गरीबी , शोषण अज्ञानता , अशिक्षा , बीमारी , बेकारी और हीन स्वास्थ्य की समस्याओं से निपट सकेंगे । इन समस्याओं से निपटने के लिए विभिन्न जन समूहों का सहयोग एवं राष्ट्रीय जीवन की मुख्य धारा में बहना तथा एकीकरण आवश्यक है । इसके लिए अल्पसंख्यक समूहों को देश की आर्थिक – राजनीतिक अर्थव्यवस्था में भागीदार बनाना होगा और विकास योजनाओं में उन्हें साथ लेकर चलना होगा । इस प्रकार जनजातियों का एकीकरण भी एक बहुत बड़ी समस्या है ।
सीमा प्रान्त जनजातियों की समस्याएं Problems of Frontier Tribes ) – उत्तरी – पूर्वी सीमा प्रान्तों में निवास करने वाली जनजातियों की समस्याएं देश के विभिन्न भागों की समस्याओं से कुछ भिन्न हैं । देश के उत्तर – पूर्वी प्रान्तों के नजदीक चीन , म्यांमार एवं बांग्लादेश हैं । चीन से हमारे सम्बन्ध पिछले कुछ वर्षों से मधुर नहीं रहे हैं । बांग्लादेश , जो पहले पूर्वी पाकिस्तान के नाम से जाना जाता था , भारत का कटु शत्रु रहा है । चीन एवं पाकिस्तान ने सीमा प्रान्तों की जनजातियों में विद्रोह की भावना को भड़काया है , उन्हें अस्त्र – शस्त्रों से सहायता दी है एवं विद्रोही नागा एवं अन्य जनजातियों के नेताओं को भूमिगत होने के लिए अपने यहां शरण दी है । शिक्षा एवं राजनीतिक जागृति के कारण इस क्षेत्र की जनजातियों ने स्वायत्त राज्य की मांग की है । इसके लिए उन्होंने आन्दोलन एवं संघर्ष किये हैं । अतः आज सबसे बड़ी समस्या सीमावर्ती क्षेत्रों में निवास करने वाली जनजातियों की स्वायत्तता की मांग से निपटना है । – जनजातियों की समस्याओं को हल करने के लिए भारत सरकार द्वारा समय – समय पर प्रयत्न किये गये हैं । हम उनका यहां उल्लेख करेंगे ।