अतिरिक्त मूल्य का सिद्धान्त

अतिरिक्त मूल्य का सिद्धान्त

( Theory of Surplus Value )

मार्क्स ने अपने इस सिद्धान्त की विस्तृत विवेचना अपने प्रमुख ग्रन्थ ‘ पूंजी ‘ ( Das Capital ) के प्रथम भाग में की है । मार्क्स ने इस सिद्धान्त को कितना महत्त्व दिया , यह इसी तथ्य से स्पष्ट हो जाता है कि इस पुस्तक के लगभग 300 पृष्ठों में मार्स ने इस सिद्धान्त का विशद विवेचन किया है । इस सिद्धान्त के द्वारा मार्क्स ने इस महत्त्वपूर्ण प्रश्न का उत्तर देने का प्रयत्न किया कि पूँजीवादी व्यवस्था में पूंजी पति श्रमिकों का शोषण क्यों करते है । इस सिद्धान्त का सार यह है कि पंजीवादी समाज का ढाँचा अतिरिक्त मुल्य के उत्पादन पर ही निर्मित होता है । ” कि इस सिद्धान्त की विवेचना मार्स ने अर्थशास्त्र के सन्दर्भ तथा उसकी शब्दावली में की है लेकिन समाजशास्त्रीय अध्ययनों में भी इसे एक महत्त्वपूर्ण स्थान दिया जाता है । अतिरिक्त मूल्य के सिद्धान्त को समझने से पहले यह आवश्यक है कि हम उन शब्दों के अर्थ को समझ लें जिनका प्रयोग इस सिद्धान्त में प्रचुरता के साथ किया गया है । इनमें मूल्य ( Value ) , श्रम ( Labour ) तथा लाभ ( Profit ) प्रमुख अवधारणाएँ हैं ।

( 1 ) मूल्य ( Value )

– माक्स ने यह स्पष्ट किया कि ‘ मूल्य ‘ तथा ‘ कीमत ‘ ( Price ) एक – दूसरे से भिन्न अवधारणाएं हैं । किसी वस्तु का मूल्य दो तरह के मालों ( Goods ) के बीच स्थापित होने वाले मूल्य सम्बन्ध पर निर्भर होता है । इस बात को स्पष्ट करने के लिए मार्क्स ने मूल्य के दो रूपों का उल्लेख किया सापेक्ष मूल्य तथा सम – मूल्य । उनके अनुसार किसी माल ( वस्तु ) का मूल्य दो रूपों में हो सकता है , पहला सापेक्ष मूल्य और दूसरा सम – मूल्य । किसी वस्तु का मूल्य सापेक्ष होगा अथवा सम – मूल्य , यह इस बात पर निर्भर करता है कि एक वस्तु का मूल्य केवल व्यक्त किया जा रहा है अथवा उसका मूल्य किसी विशेष वस्तु के सन्दर्भ में व्यक्त किया जा रहा है । उदाहरण के लिए , जब किसी कपड़े का एक विशेष मूल्य व्यक्त जाता है तो इसे हम सापेक्ष मूल्य कहते हैं लेकिन जब कपड़े से बने एक कोट का कोई मूल्य व्यक्त किया जाता है तब यह एक बड़ी सीमा तक उस कपड़े के मूल्य के समरूप होगा जिससे वह कोट बनाया गया है । मार्क्स ने स्पष्ट किया कि किसी वस्तु का मूल्य उसमें लगने वाले सामाजिक श्रम के आधार पर निर्धारित होता है । इसका तात्पर्य है कि किसी माल अथवा वस्तु को बनाने में जितना श्रम , समय तथा सामान लगता है , उसी के अनुसार उस माल का मूल्य निर्धारित होता है । इस सम्बन्ध में यह ध्यान रखना आवश्यक है कि व्यक्ति द्वारा बनायी जाने वाली प्रत्येक वस्तु को मार्क्स ‘ माल ‘ नहीं मानते । उनके अनुसार यदि कोई व्यक्ति स्वयं अपने उपयोग के लिए कोई वस्तु बनाता है तो उसे माल नहीं कहा जा सकता । ‘ माल ‘ केवल वह वस्तु है जिसका उत्पादन समाज में अन्य व्यक्तियों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए किया जाता है । इस दृष्टिकोण से मूल्य ) का सम्बन्ध / ‘ माल ) से है , प्रत्येक वस्तु से नहीं ।

( 2 ) श्रम ( Labour ) –

कार्ल मार्क्स के अनुसार श्रम एक वस्तु की तरह है । पूंजीवादी समाज में श्रम के मूल्य का निर्धारण उसकी मांग तथा पूर्ति के आधार पर ही होता है । श्रम – प्रक्रिया की चर्चा करते हुए मार्क्स ने बताया कि पूंजीपति श्रप शक्ति को अपने उपयोग में लाने के लिए खरीदता है । श्रम – शक्ति को खरीदने वाला व्यक्ति ( पूंजीपति ) उसके विक्रेता ( श्रमिक ) को काम में लगाकर उसके श्रम का उपभोग करता है । इस प्रकार जो व्यक्ति अपने श्रम को बेचता है , वह मजदूर बन जाता है । मार्स के अनुसार ” मजदूर को यदि अपने श्रम को एक खरीदे जाने वाले माल के रूप में पुन : प्रकट करना हो तो उसके लिए यह जरूरी है कि वह किसी ऐसी वस्तु के उत्पादन पर अपना श्रम खर्च करे जिसमें अन्य लोगों की आवश्यकताओं को पूरा करने की सामर्थ्य हो । ” श्रम की सरल विवेचना प्रस्तुत करते हुए मार्क्स ने लिखा है कि श्रम एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें मनुष्य अपनी इच्छा से प्रकृति और अपने बीच भौतिक सम्बन्ध स्थापित करता है । मार्क्स के अनुसार श्रमिक प्रकृति की ही एक शक्ति के रूप में प्रकृति के मुकाबले खड़ा होता है । वह अपनी शारीरिक क्रियाओं के द्वारा प्रकृति की पैदावार को एक ऐसे रूप में बदलने का प्रयत्न करता है जो लोगों को आवश्यकताओं के अनुरूप होती है । मार्क्स के अनुसार श्रम की प्रक्रिया में तीन तत्त्वों का होना आवश्यक है – –

( 1 ) मनुष्य की वैयक्तिक क्रियाशीलता – – श्रम के लिए व्यक्ति की शारीरिक क्रियाशीलता का होना इसका पहला तत्व है । इसका तात्पर्य है कि बिना हाथ परों का उपयोग किए कोई श्रम नहीं किया जा सकता ।

 ( 2 ) काम की वस्तु – व्यक्ति जब श्रग करता है तो इसके लिए किसी वस्तु ( Object ) का होना आवश्यक है । उदाहरण के लिए , यदि कोई व्यक्ति पत्थर को तराश कर एक मूर्ति बना रहा हो तो इसके लिए पत्थर का होना अनिवार्य है ।

( 3 ) काम के उपकरण प्रत्येक प्रकार के श्रम के लिए किसी न किसी तरह के औजारों या उपकरणों की आवश्यकता होती है । उदाहरण के लिए , एक मूर्तिकार पत्थर को तभी तराश सकता है जब उसके पास छैनी तथा हथौड़े जैसे उपकरण हो ।

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( 3 ) लाभ ( Profit )

 लाभ किसी वस्तु की उत्पादन लागत तथा उसके विनिमय मूल्य के बीच पाया जाने वाला अन्तर है । इसका तात्पर्य है कि किसी वस्तु के उत्पादन में कच्चे माल , श्रम तथा मशीनों आदि के चलाने पर जो कुल व्यय होता है , उसे उस वस्तु का लागत – मूल्य कहा जाता है । इरा तैयार वस्तु के बदले व्यक्ति को जो धन प्राप्त होता है , उसे उस वस्तु का विनिमय – मूल्य कहा जाता है । उदाहरण के लिए , यदि किसी वस्तु को बनाने में सौ रुपये का कच्चा माल प्रयुक्त हुआ . बीस रुपये श्रम पर व्यय किये गये तथा तीस रुपये मशीनों की घिसाई , रख – रखाव तथा प्रबन्ध पर खर्च हुए तो उस वस्तु का कुल लागत – मूल्य 150 . 00 रु० होगा । अब यदि उस वस्तु को 200 – 00 रुपये में बेचा जाय अथवा उतने ही मूल्य की किसी अन्य वस्तु से बदला जाय तो यह 200 . 00 रुपये उस वस्तु का विनिमय – मूल्य होगा । इस प्रकार लागत मूल्य तथा विनिमय मूल्य के अन्तर को ही लाभ कहा जाता है । सरल शब्दों में लाभ को ही मार्क्स ने ‘ अतिरिक्त मूल्य ‘ का नाम दिया यद्यपि जैसा कि आगामी विवेचन से स्पष्ट होगा , अतिरिक्त मूल्य की प्रकृति पूर्णतया लाभ के समान नहीं है । एक पूंजीवाद व्यवस्था में पूंजीपति का उद्देश्य अधिक अतिरिक्त मूल्य का उत्पादन करना होता है ।

अतिरिक्त मूल्य के उत्पादन की विवेचना करते हए मार्क्स का कथन है कि पूंजीपति उपयोग में लायी जाने वाली वस्तुओं को उसी सीमा तक बनाने के लिए तैयार रहते हैं जिस सीमा तक उसका विनियम मूल्य उन्हें अतिरिक्त मूल्य प्रदान कर सके । इसका तात्पर्य है कि किसी वस्तु का मूल्य एक बड़ी सीमा तक उसके उपयोग से ही सम्बन्धित होता है । जिस वस्तु का उपयोग जितना अधिक होगा उसका मूल्य भी उतना ही अधिक हो सकता है । दूसरे शब्दों में , यदि किसी वस्तु का कोई उपयोग नहीं होता तो उसका कोई मूल्य भी नहीं हो सकता । इसलिए पूंजीपतियों द्वारा प्रथम तो ऐसी वस्तुओं का निर्माण किया जाता है जिनमें लोगों की आवश्यकताओं को पूरा करने की क्षमता हो तथा दूसरे , वे उपयोग में लायी जाने वाली वस्तुओं का उत्पादन उसी मात्रा में करना चाहते हैं जिससे उसके विनिमय- मूल्य से उन्हें कुछ लाभ मिलता रहे । मार्क्स के शब्दों में , ” पूंजीवादी समाज में पूंजी पति केवल वही माल तैयार करना चाहता है जिसका विनिमय – मूल्य उसके उत्पादन में लगने वाले मालों ( Goods ) के मूल्य से अधिक हो । ” इसे पुनः स्पष्ट करते हुए मावर्स का कथन है कि पूंजीपति का उद्देश्य केवल उपयोग में लायी जाने वाली वस्तु का निर्माण करना ही नहीं होता बल्कि किसी माल का उत्पादन करना होता है । साथ ही उसका उद्देश्य केवल मूल्य का उत्पादन करना ही नहीं होता बल्कि अति रिक्त मूल्य का भी उत्पादन करना होता है । 10 इस दृष्टिकोण से यह आवश्यक है कि मार्क्स के विचारों के सन्दर्भ में अतिरिक्त मूल्य की प्रकृति तथा अतिरिक्त मूल्य के उत्पादन की प्रक्रिया को स्पष्ट किया जाय ।

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अतिरिक्त मूल्य का उत्पादन ( Production of Surplus Value )

 अतिरिक्त मूल्य के उत्पादन की चर्चा करते हुए मार्क्स ने बताया कि पूंजीवादी , समाजों में श्रमिक उद्योगपतियों अथवा पूंजीपतियों के लिए काम करते हैं । उद्योगपति श्रमिकों से दैनिक मजदूरी पर काम लेते हैं अथवा उनका श्रम खरीदते हैं । जब कोई मजदूर स्वयं को मिलने वाली मजदूरी से अधिक श्रम करता है तब इसे हम मजदूर का ‘ अतिरिक्त श्रम ‘ कहते हैं । अतिरिक्त श्रम को स्पष्ट करते हुए मार्क्स ने लिखा है कि अतिरिक्त श्रम मजदूर द्वारा किया जाने वाला वह कार्य है जो उसे प्राप्त होने वाली मजदूरी की तुलना से अधिक या अतिरिक्त होता है तथा जिसके लिए उसे किसी तरह की मजदूरी नहीं मिलती । दूसरे शब्दों में , श्रमिक द्वारा किए जाने वाले श्रम का मूल्य उसे प्राप्त होने वाली मजदूरी के मूल्य से जितना अधिक होता है उसी को अतिरिक्त श्रम कहा जाता है । मार्क्स का कथन है कि पूंजीवादी समाजों में पूंजीपतियों का प्रयत्न मजदूरों से अधिक से अधिक अतिरिक्त श्रम लेना होता है । समाज में जब अतिरिक्त श्रम होने लगता है तव पूंजीपतियों के अतिरिक्त लाभ में भी वृद्धि होने लगती है । मार्क्स का विचार है कि पूंजीपतियों को प्राप्त होने वाला अरिरिक्त मूल्य अथवा लाभ मजदूरों के शोषण से ही सम्भव होता है तथा धीरे – धीरे यह पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की स्थायी विशेषता बन जाती है । पूंजीपतियों को प्राप्त होने वाले इस अतिरिक्त मूल्य के फलस्वरूप ही वे अधिक अमीर होते जाते हैं जबकि इसी के कारण मजदूर वर्ग के शोषण और उनकी गरीबी में निरन्तर वृद्धि होने लगती है

_ मार्क्स ने बतलाया कि जब मजदूर काम के निश्चित घण्टों के आधार पर कार्य करते हैं , तब उद्योगपति उनसे अतिरिता मूल्य प्राप्त करने लगते हैं । यही कारण है कि पूंजीवादी समाज में श्रमिकों से अतिरिक्त श्रम करवाने की प्रवृत्ति बढ़ती चली जाती है । इसी प्रवृत्ति के आधार पर पूँजीवादी समाज की अधो – संरचना का निर्माण होता है । इसके अन्तर्गत श्रमिकों से वे कार्य भी करवाये जाने लगते हैं जिन्हें करने के लिए वे बाध्य नहीं होते । पूंजीपतियों का उद्देश्य कभी श्रमिकों की प्रशंसा करके तो कभी उन्हें कोई सामान्य प्रलोभन देकर उनसे अतिरिक्त श्रम करवाना होता है । इस आधार पर मार्क्स ने अतिरिक्त मूल्य के दो स्वरूपों की विवेचना की है । इन दोनों स्वरूपों का सम्बन्ध पूंजीपतियों के उन तरीकों ( Tactics ) से है जिनके द्वारा वे मजदूरों से अतिरिक्त श्रम लेकर अपने अतिरिक्त लाभ को बढ़ाने का प्रयत्न करते हैं ।

 

 (1 निरपेक्ष अतिरिक्त मूल्य ( Non – relative Surplus Value ) – काल मार्क्स के अनुसार निरपेक्ष अतिरिक्त मूल्य एक ऐसी दशा को स्पष्ट करता है जिसमें उद्योगपति श्रमिक के काम के घण्टों को बढ़ाकर अतिरिक्त मूल्य प्राप्त करता है । मार्क्स के शब्दों में कार्य के दिवस को बढ़ाकर जो अतिरिक्त मूल्य उत्पन्न किया जाता है , उसे मैंने निरपेक्ष अतिरिक्त मूल्य का नाम दिया है । ” 11 मार्क्स का कथन है कि पूंजीवाद की प्रारम्भिक अवस्था में जब श्रमिकों में चेतना का स्तर निम्न होता है तब पूंजीपति श्रमिकों के काम के घण्टों को बढ़ा देते हैं । उदाहरण के लिए , यदि एक कारखाने में श्रमिक की दैनिक कार्यक्षमता 6 घण्टे काम करने की है तो उद्योगपति द्वारा एक दिन में काम के 8 घण्टे निर्धारित करके श्रमिकों से अतिरिक्त मूल्य उत्पन्न करने का प्रयत्न किया जाता है । स्पष्ट है कि काम के घण्टे बढ़ जाने से उद्योगपति श्रमिकों से अधिक काम ले सकेगा । इस स्थिति में श्रमिक जो अति रिक्त श्रम करेंगे उससे होने वाले अतिरिक्त लाभ के द्वारा उद्योगपति अतिरिक्त मूल्य पैदा कर सकेगा । इस प्रक्रिया में उद्योगपति बिना किसी लगाव के सभी मजदूरों के काम के घण्टों को बढ़ा देता है । इसीलिए मार्क्स ने इससे पैदा होने वाले अतिरिक्त मूल्य को निरपेक्ष अतिरिक्त मूल्य का नाम दिया है ।

( 2 ) सापेक्ष अतिरिक्त मूल्य ( Relative Surplus Value ) – – मार्क्स ने लिखा है , ” जो अतिरिक्त मूल्य श्रम के घण्टों को कम कर देने तथा काम के दिन को दो हिस्सों में विभाजित कर देने के फलस्वरूप उत्पन्न होता है , उसे मैं सापेक्ष अतिरिक्त मूल्य की संज्ञा देता हूँ । ” ” मार्क्स के इस कथन से स्पष्ट होता है कि सापेक्ष अतिरिक्त मूल्य के द्वारा अपने लाभ में वृद्धि करना उद्योगपतियों का दूसरा तरीका है । साधारणतया जब श्रमिकों के कल्याण की बात उठती है अथवा श्रमिक

स्वयं काम की दशाओं में सुधार करने की मांग करते हैं तब पूंजीपतियों द्वारा उनके काम के कुल घण्टे तो कम कर दिये जाते हैं लेकिन एक कार्य दिवस को दो समान भागों में बाँट दिया जाता है । इससे भी उन्हें अपने अतिरिक्त मूल्य को बढ़ाने का अवसर मिल जाता है । एक उदाहरण के द्वारा सापेक्ष अतिरिक्त मूल्य की प्रकृति को – सरलतापूर्वक समझा जा सकता है । यदि किसी उद्योग में मजदूर से लगातार आठ घण्टे तक काम लिया जाता हो तो श्रमिकों के कार्य – दिवस की अवधि आठ घण्टा होगी । इस अवधि में उद्योगपति द्वारा प्रत्येक घण्टे में मजदूर के श्रम की उत्पादकता का आकलन किया जाता है । साधारणतया उद्योगपति यह जान लेते हैं कि एक श्रमिक पहले तीन या चार घण्टों में जितनी तेजी से काम करता है , बाद के घण्टों में उसकी उत्पादकता की दर कम होने लगती है ।

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पंजीपति का उद्देश्य सदैव श्रम की उत्पादकता को बढ़ाना होता है । इस दशा में पूंजीपति श्रमिक द्वारा किये जाने वाले काम के घण्टों को कम करके कार्य – दिवस को दो भागों में बाँट देता है । इसका तात्पर्य है कि वह आठ घण्टे के स्थान पर कार्य – दिवस सात घण्टे का निर्धारित करके पहले चार घण्टे का काम लेने के बाद एक घण्टे का अवकाश देकर , बाद में पुन : तीन घण्टे का काम ले सकता है । इस एक घण्टे में श्रमिक अपनी सारी थकान मिटा लेता है । इसके फलस्वरूप अवकाश के बाद दिन के दूसरे भाग में भी श्रमिक उतनी ही तेजी से काम करता है जितनी तेजी से वह दिन के पहले घण्टों में काम कर सकता था । इस प्रकार पूंजीपति द्वारा जब काम के कुल घण्टों को कम करके परिस्थितियों में ऐसा गुणात्मक परिवर्तन किया जाता है जिससे श्रमिक के अतिरिक्त श्रम में वृद्धि हो सके तब इस प्रकार बढ़ने वाले अतिरिक्त मूल्य को हम सापेक्ष अतिरिक्त मूल्य | कहते हैं । मार्क्स ने यह स्पष्ट किया कि सापेक्ष और निरपेक्ष अतिरिक्त मूल्य के आधार पर ही पूंजीपति श्रमिक वर्ग का निरन्तर शोषण करते रहते हैं । मार्क्स का कथन है कि जिस दिन दुनियाँ के मजदूर इस बात को जान लेंगे कि पूंजीपति किस प्रकार उनसे अतिरिक्त मूल्य पैदा करते हैं , उस दिन श्रमिकों के लिए क्रान्ति का रास्ता खुल जायेगा । स्पष्ट है कि अतिरिक्त मूल्य के सिद्धान्त के द्वारा मार्क्स ने जहाँ एक ओर श्रमिकों के शोषण की प्रक्रिया को बहुत गहराई से समझाने का प्रयत्न किया वहीं दूसरी ओर उन्होंने पूंजीपतियों की उस आन्तरिक प्रवृत्ति पर ही प्रकाश डाला जो उन्हें श्रमिकों का शोषण करने की प्रेरणा देती है ।

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